87. हीनभावना के अंधकार पर जीत

क्रिस्टीना, यूएसए

मैं बचपन में बहुत शर्मीली थी और जब भी मेहमान आते थे तो मैं अपने माता-पिता के पीछे छिप जाती थी और जब मेरे माता-पिता मुझे उन्हें चाचा या चाची कहने के लिए कहते तो मुझे ऐसा करने में बहुत शर्म आती थी। मेरी माँ मेहमानों के साथ मजाक में कहती थी, “यह बच्ची गूंगी है और बोल नहीं सकती।” मेरी माँ अक्सर यह भी कहती थी कि मैं कभी कुछ नहीं कर पाऊँगी या कुछ नहीं बन पाऊँगी। बोलने में अटकने के लिए अक्सर मेरा मजाक उड़ाया जाता था और मेरी आलोचना की जाती थी और मैं दूसरों के सामने बोलने से बहुत डरती थी। जब भी ऐसी स्थिति आती जहाँ मुझे बोलना होता तो मैं उस स्थिति से बचने की पूरी कोशिश करती थी। अपने स्कूल के दिनों में मैंने कभी किसी गतिविधि में हिस्सा नहीं लिया और मैं हमेशा एक कोने में छिपकर चुपचाप पढ़ती रहती थी। जिस वर्ष मैंने विश्वविद्यालय से स्नातक किया, शिक्षक ने कहा कि मैं कॉलेज के लिए सिफारिश किए जाने की पात्र हूँ तो मैं बहुत खुश हो गई, लेकिन जब मैंने सुना कि प्रोफेसरों के साथ एक साक्षात्कार भी होगा तो मुझे बहुत चिंता हुई, मैंने सोचा कि मेरा संवाद कौशल कितना खराब है और अगर मैंने असंगत उत्तर दिए तो मैं अपनी बेइज्जती करा बैठूँगी। कुछ दिनों तक मैं खुद से उलझती रही लेकिन फिर भी साक्षात्कार में भाग लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। परमेश्वर को पाने के बाद मैंने भाई-बहनों को खुलकर सरलता से सभा और संगति करते देखा और पाया कि कोई भी किसी पर हँसता नहीं है और मुझे मुक्ति का एहसास हुआ। धीरे-धीरे मैंने सभी के साथ दिल से बात करने का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया और अपनी अवस्था और समझ साझा करने लगी। कभी-कभी मैं थोड़ी-बहुत अटक जाती थी, लेकिन भाई-बहन मुझे नीची नजरों से नहीं देखते थे और मैं उतनी बेबस नहीं होती थी। समय के साथ मैं ज्यादा बातचीत करने लगी। बाद में एक सभा के दौरान संगति करते समय मैं विषय से भटक गई और समूह अगुआ ने मुझे टोक दिया। मेरा चेहरा शर्मिंदगी से लाल हो गया और मैं बस कहीं छिप जाना चाहती थी। मुझे याद आया कि मेरे माता-पिता कहते थे कि मैं कभी कुछ नहीं कर पाऊँगी और ऐसा लगता है कि वे सही थे। मुझे लगा कि शब्दों के साथ मेरे अनाड़ीपन ने मुझे पूरी तरह से निकम्मा बना दिया है और मैं अपना जीवन किसी कोने में गुमनामी में बिताऊँगी। उसी पल मैंने खुद से कहा, “मुझे अपनी खामियाँ उजागर करने और हँसी का पात्र बनने से बचने के लिए लोगों के सामने कम बोलना चाहिए।” उसके बाद मैंने लंबे समय तक अपना मुँह बंद रखा। समूह सभाओं से इतर मैं चुप रहती थी, बस दूसरों की संगति सुनती थी। कभी-कभी मेरे पास अपनी खुद की अनुभवजन्य समझ होती थी, लेकिन फिर मैं सोचती थी कि किस तरह मैं जो कहना चाहती हूँ उसे सँजो नहीं पाती हूँ और भटक जाती हूँ और मैं सोचती थी कि अगर मुझे फिर टोका गया तो मैं पूरी तरह से अपमानित हो जाऊँगी, इसलिए मैं संगति नहीं करना चाहती थी। बाद में मैं कलीसिया के लिए वीडियो बनाने का काम करने लगी। भाई-बहनों ने मुझे टीम अगुआ चुना क्योंकि उन्होंने देखा कि मैं इस क्षेत्र में अधिक कुशल हूँ। लेकिन जब मैंने सोचा कि टीम अगुआ होने का मतलब है कि मुझे अक्सर काम करवाना होगा और उसका जायजा लेना होगा और मुझे भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझानी होंगी और संगति करनी होगी तो मैं चिंतित हो गई, मैंने सोचा, “बोलने के खराब तरीके को देखते हुए अगर मैं इस कर्तव्य को अच्छे से निभाने में नाकाम रही तो क्या होगा? यह बहुत अपमानजनक होगा।” जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मैं उतनी ही डर गई, इसलिए मैंने अगुआ से कहा कि मेरी काबिलियत कम है और मैं यह कर्तव्य नहीं कर सकती, इसलिए उसे इस भूमिका के लिए किसी अन्य भाई या बहन को चुनना चाहिए। अगुआ ने मेरे साथ परमेश्वर के इरादों पर संगति की, सुझाव दिया कि मैं परमेश्वर पर भरोसा करूँ और कुछ समय के लिए प्रशिक्षण लूँ कि यह कैसे चलता है, और मैं अनिच्छा से मान गई। टीम अगुआ के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान मैं वाकई निष्क्रिय थी और हर बार जब मुझे किसी सभा या संगति की मेजबानी करनी होती थी तो मैं पीछे हट जाती थी और अपनी साझेदार को अधिक बोलने देती थी। वह समझ नहीं पाती थी कि मैं ऐसा क्यों कर रही हूँ। वह कहती थी कि मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए समस्याओं का पता लगाने में सक्षम हूँ, मेरे अपने विचार और नजरिये हैं और परमेश्वर के वचनों की संगति करते हुए कुछ अंतर्दृष्टि व्यक्त कर सकती हूँ और मेरी काबिलियत इतनी खराब नहीं है, इसलिए उसे हैरानी होती थी कि मैं हमेशा बोलने से क्यों बचती हूँ। वह मुझे और अधिक अभ्यास करने के लिए प्रोत्साहित करती थी। लेकिन चाहे उसने जो भी कहा, फिर भी मैं अपर्याप्त महसूस करती रही और मैंने कई मौकों पर इस्तीफा देने की भी कोशिश की। आखिरकार मुझे बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि मैं अपने कर्तव्य में बहुत निष्क्रिय थी। बाद में टीम अगुआ ने मुझे टीम के काम की निगरानी में उसका सहयोग करने को कहा। मैं थोड़ी चिंतित थी, सोच रही थी, “मैं बोलने में अच्छी नहीं हूँ; उम्मीद है कि मैं खुद को शर्मिंदा नहीं करूँगी।” टीम अगुआ ने मेरे साथ परमेश्वर के इरादों की संगति की और कहा कि उसे अपने सहयोग के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो इन कौशलों की जानकार हो। अगुआ को यह कहते हुए सुनकर मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ। भले ही मैं शब्दों के मामले में अनाड़ी थी, फिर भी मैं इस क्षेत्र में कुछ काम कर सकती थी और काम के लिए टीम अगुआ के साथ सहयोग करना जरूरी था। अगर मैं हमेशा टालमटोल करती रहती तो क्या इससे काम में देरी नहीं होती? इन विचारों को ध्यान में रखते हुए मैं राजी हो गई। उसके बाद मैं खुद से पूछती रही, “जब मुझसे टीम अगुआ बनने के लिए कहा जाता है तो मैं हमेशा भागने और पीछे हटने की कोशिश क्यों करती हूँ? आखिर इस व्यवहार की वजह क्या है?” मन में इन उलझनों के साथ मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की।

एक सभा के दौरान अगुआ ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और इसने मेरे मुद्दे को संबोधित किया, मेरे दिल की इस उलझन को दूर कर दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बचपन में देखने में साधारण थे, ठीक से बात नहीं कर पाते थे, और हाजिर-जवाब नहीं थे, जिससे उनके परिवार और सामाजिक परिवेश के लोगों ने उनके बारे में प्रतिकूल राय बना ली, और ऐसी बातें कहीं : ‘यह बच्चा मंद-बुद्धि, धीमा और बोलचाल में फूहड़ है। दूसरे लोगों के बच्चों को देखो, जो इतना बढ़िया बोलते हैं कि वे लोगों को अपनी कानी उंगली पर घुमा सकते हैं। और यह बच्चा है जो दिन भर यूँ ही मुँह बनाए रहता है। उसे नहीं मालूम कि लोगों से मिलने पर क्या कहना चाहिए, उसे कोई गलत काम कर देने के बाद सफाई देना या खुद को सही ठहराना नहीं आता, और वह लोगों का मन नहीं बहला सकता। यह बच्चा बेवकूफ है।’ माता-पिता, रिश्तेदार और मित्र, सभी यह कहते हैं, और उनके शिक्षक भी यही कहते हैं। यह माहौल ऐसे व्यक्तियों पर एक खास अदृश्य दबाव डालता है। ऐसे माहौल का अनुभव करने के जरिए वे अनजाने ही एक खास किस्म की मानसिकता बना लेते हैं। किस प्रकार की मानसिकता? उन्हें लगता है कि वे देखने में अच्छे नहीं हैं, ज्यादा आकर्षक नहीं हैं, और दूसरे उन्हें देखकर कभी खुश नहीं होते। वे मान लेते हैं कि वे पढ़ाई-लिखाई में अच्छे नहीं हैं, धीमे हैं, और दूसरों के सामने अपना मुँह खोलने में और बोलने में हमेशा शर्मिंदगी महसूस करते हैं। जब लोग उन्हें कुछ देते हैं तो वे धन्यवाद कहने में भी लजाते हैं, मन में सोचते हैं, ‘मैं कभी बोल क्यों नहीं पाता? बाकी लोग इतनी चिकनी-चुपड़ी बातें कैसे कर लेते हैं? मैं निरा बेवकूफ हूँ!’ अवचेतन रूप से वे सोचते हैं कि वे बेकार हैं...। जो लोग हीन महसूस करते हैं, वे नहीं जानते कि उनकी खूबियाँ क्या हैं। वे बस यही सोचते हैं कि उन्हें कोई पसंद नहीं कर सकता, वे हमेशा बेवकूफ महसूस करते हैं, और नहीं जानते कि चीजों के साथ कैसे निपटें। संक्षेप में, उन्हें लगता है कि वे कुछ भी नहीं कर सकते, वे आकर्षक नहीं हैं, चतुर नहीं हैं, और उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी हैं। वे दूसरों के मुकाबले साधारण हैं, और पढ़ाई-लिखाई में अच्छे अंक नहीं ला पाते। ऐसे माहौल में बड़े होने के बाद, हीनभावना की यह मानसिकता धीरे-धीरे हावी हो जाती है। यह एक प्रकार की स्थाई भावना में बदल जाती है, जो उनके दिलों में उलझकर दिमाग में भर जाती है। तुम भले ही बड़े हो चुके हो, दुनिया में अपना रास्ता बना रहे हो, शादी कर चुके हो, अपना करियर स्थापित कर चुके हो, और तुम्हारा सामाजिक स्तर चाहे जो हो गया हो, बड़े होते समय यह जो हीनभावना तुम्हारे परिवेश में रोप दी गयी थी, उससे मुक्त हो पाना असंभव हो जाता है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करके कलीसिया में शामिल हो जाने के बाद भी, तुम सोचते रहते हो कि तुम्हारा रंग-रूप मामूली है, तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कमजोर है, तुम ठीक से बात भी नहीं कर पाते, और कुछ भी नहीं कर सकते। तुम सोचते हो, ‘मैं बस उतना ही करूँगा जो मैं कर सकता हूँ। मुझे अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा रखने की जरूरत नहीं, मुझे गूढ़ सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं, मैं सबसे मामूली बनकर संतुष्ट हूँ, और दूसरे मुझसे जैसा भी बर्ताव करना चाहें, करें।’ जब मसीह-विरोधी और नकली अगुआ प्रकट होते हैं, तो तुम्हें नहीं लगता कि तुम उनमें भेद करने और उन्हें उजागर करने में सक्षम हो, तुम ऐसा करने के लिए नहीं बने हो। तुम्हें लगता है कि अगर तुम खुद एक नकली अगुआ या मसीह-विरोधी नहीं हो, तो काफी है, तुम गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा नहीं करते, तो ठीक है, और अगर तुम अपनी सोच पर टिके रहते हो, तो ठीक है। तुम अपने दिल की गहराइयों में महसूस करते हो कि तुम उतने अच्छे नहीं हो और दूसरे लोगों जितने बढ़िया नहीं हो, दूसरे लोग उद्धार के पात्र हैं, पर तुम ज्यादा-से-ज्यादा एक सेवाकर्मी ही हो, इसलिए तुम्हें लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने योग्य नहीं हो। तुम चाहे जितना भी सत्य समझने में सक्षम हो, पर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ने पहले से तुम्हारी जिस प्रकार की क्षमता और रंग-रूप का निर्धारण किया है, उसके अनुसार तो शायद उसने तुम्हें सिर्फ एक सेवाकर्मी बनाना तय कर रखा है, और सत्य का अनुसरण करने, अगुआ बनने और किसी जिम्मेदार ओहदे पर बैठने, या बचाए जाने के साथ तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है; इसके बजाय, तुम सबसे तुच्छ व्यक्ति बनने को तैयार हो। यह हीनभावना शायद तुममें पैदाइशी न हो, लेकिन एक दूसरे स्तर पर, तुम्हारे पारिवारिक माहौल, और जिस माहौल में तुम बड़े हुए हो, उसके कारण तुम्हें मध्यम आघातों या अनुचित आलोचनाओं का पात्र बनाया गया, और इस कारण से तुममें हीनभावना पैदा हुई। यह भावना तुम्हारे अनुसरण की सही दिशा को प्रभावित करती है, तुम्हारे अनुसरण की उचित आकांक्षा पर असर डालती है, और यह तुम्हारे उचित अनुसरणों में भी रुकावट पैदा करती है। अपनी मानवता में जो उचित अनुसरण और उचित संकल्प तुममें होने चाहिए, जब उन्हें एक बार रोक दिया जाए, तो सकारात्मक चीजें करने और सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी अभिप्रेरणा दब जाती है। यह दबाव तुम्हारे इर्द-गिर्द के माहौल या किसी व्यक्ति के कारण नहीं होता, और निस्संदेह परमेश्वर ने तय नहीं किया है कि तुम्हें यह सहना चाहिए, बल्कि तुम्हारे दिल की गहराई में पैठी सशक्त नकारात्मक भावना के कारण ऐसा होता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा दूसरों के सामने बोलने और टीम अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से डरती हूँ क्योंकि मुझमें हीन भावना है। बचनप में मुझे अजनबियों का अभिवादन करने में बहुत शर्म आती थी और मेरे माता-पिता अक्सर कहते थे कि मैं गूंगी हूँ और बोल नहीं सकती और मैं कभी कुछ नहीं कर पाऊँगी और रिश्तेदार कहते थे कि मैं मूर्ख हूँ क्योंकि मैं बोलते वक्त सामाजिक परंपराएँ निभाना नहीं जानती थी। इन शब्दों ने मेरे आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुँचाई और मुझमें हीन भावना आ गई। नतीजतन मैं हमेशा खुद को ऐसा इंसान मानने लगी जो ठीक से बोल नहीं पाती है और जब भी मैं ऐसी स्थिति में होती थी जहाँ मुझे बोलना पड़ता था तो मैं घबरा जाती थी और इसलिए मैं उन सभी कर्तव्यों से बचती थी और उन्हें अस्वीकार देती थी जिनमें मुझे संगति करने और बार-बार बोलने की जरूरत पड़ती थी। जब मैं ऐसे लोगों को देखती थी जो मुझसे अधिक मुखर होते थे और जिनकी काबिलियत मुझसे बेहतर थी तो मुझमें हीन भावना आ जाती थी और शर्मिंदगी होती थी और मैं बस नकारात्मक होकर और पीछे हट जाती थी। यहाँ तक कि जब मुझे टीम अगुआ बनने का अवसर दिया गया, तब भी मुझे लगा कि मैं इसके लिए उपयुक्त नहीं हूँ और मुझमें उस कर्तव्य को सक्रिय रूप से करने की कोई इच्छा नहीं थी। मेरी हीन भावनाओं ने मेरे अनुसरण के नजरियों और लक्ष्यों को प्रभावित कर दिया, जिसके कारण मैं लगातार खुद को सीमित करने लगी और जिम्मेदारियाँ लेने से बचती रही, जिससे मुझे पूर्ण होने के कई अवसर गँवाने पड़े और मेरे जीवन प्रवेश में नुकसान हुआ। अब भी परमेश्वर के घर ने मुझे टीम अगुआ बनने के लिए प्रशिक्षित होने का अवसर दिया था और मैं खुद को हीन भावनाओं की बाधाओं से सीमित नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मार्गदर्शन और आस्था देने की विनती की, ताकि मैं अपनी हीन भावनाओं के बंधनों और बेबसी से मुक्त हो सकूँ।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिसने मुझे अपनी हीन भावनाएँ सुलझाने का मार्ग दिखाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुममें हीनभावना किसी भी स्थिति के कारण, या किसी भी व्यक्ति या घटना के कारण पैदा हुई हो, तुम्हें अपनी योग्यता, खूबियों, प्रतिभाओं, और अपनी मानवता की गुणवत्ता की सही समझ होनी चाहिए। हीन महसूस करना सही नहीं है, न ही ऊँचा महसूस करना सही है—ये दोनों ही नकारात्मक भावनाएँ हैं। हीनभावना तुम्हारे कार्यों, तुम्हारी सोच को बाँध सकती है, तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकती है। इसी तरह, ऊँचे होने की भावना का भी यही नकारात्मक प्रभाव होता है। इसलिए, हीनता हो या कोई और नकारात्मक भावना, तुम्हें उन व्याख्याओं के प्रति सही समझ रखनी चाहिए जिनके कारण यह भावना पैदा होती है। अव्वल तो तुम्हें समझ लेना चाहिए कि ये व्याख्याएँ गलत हैं, और चाहे ये तुम्हारी योग्यता, प्रतिभा या तुम्हारी मानवता की गुणवत्ता के बारे में हों, तुम्हारे बारे में किए गए उनके आकलन और निष्कर्ष हमेशा गलत होते हैं। तो फिर तुम स्वयं का सही आकलन कर स्वयं को कैसे जान सकते हो, और हीनभावना से कैसे दूर हो सकते हो? तुम्हें स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने, अपनी मानवता, योग्यता, प्रतिभा और खूबियों के बारे में जानने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार बनाना चाहिए। ... ऐसी स्थिति में, तुम्हें सही आकलन करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को सही मापना चाहिए। तुमने जो सीखा है और जिसमें तुम्हारी खूबियाँ हैं, उसे तय करना चाहिए, और जाकर वह काम करना चाहिए जो तुम कर सकते हो; वे काम जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हारी जो कमियाँ और खामियाँ हैं, उनके बारे में आत्मचिंतन कर उन्हें जानना चाहिए, और सही आकलन कर जानना चाहिए कि तुम्हारी योग्यता क्या है, यह अच्छी है या नहीं। अगर तुम अपनी समस्याओं को नहीं समझ सकते या उनका स्पष्ट ज्ञान नहीं पा सकते, तो उन लोगों से पूछो जिनमें तुम्हारा आकलन करने की समझ है। उनकी बातें सही हों या न हों, उनसे कम-से-कम तुम्हें एक संदर्भ और विचारसूत्र मिल जाएगा जो तुम्हें इस योग्य बनाएगा कि स्वयं की बुनियादी परख या निरूपण कर सको। फिर तुम हीनता जैसी नकारात्मक भावनाओं की अनिवार्य समस्या को सुलझा सकोगे, और धीरे-धीरे उससे उबर सकोगे। अगर कोई ऐसी हीनभावनाओं को पहचान ले, उनके प्रति जागरूक होकर सत्य खोजे, तो वे आसानी से सुलझाई जा सकती हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा दिल उज्ज्वल हो गया। हीन भावनाओं पर काबू पाने के लिए मुझे खुद को सही तरीके से समझने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को मापने, अपनी ताकत और कमजोरियों का निष्पक्ष मूल्यांकन करने और अपनी क्षमता के अनुसार पूरी कोशिश करने की जरूरत थी और अपनी कमियाँ दूर करने के लिए मुझे उनका सामना शांति से करना चाहिए और उनके साथ ठीक से निपटना चाहिए। इस तरह मैं बेबस हुए बिना अपने कर्तव्य निभा सकती हूँ। मैंने इतने वर्षों की हीन भावना पर आत्म-चिंतन किया और मैंने देखा कि मैं ऐसी इसलिए थी क्योंकि मेरे माता-पिता हमेशा शब्दों में मेरे अनाड़ीपन और खुद को व्यक्त करने में खराब होने के लिए मेरी आलोचना करते थे और मुझे लगता था कि मेरा संवाद कौशल खराब है और मैं अपने विचार संक्षेप में व्यक्त नहीं कर सकती हूँ, इसलिए जब भी मुझे ऐसे कर्तव्य करने पड़ते थे जहाँ मुझे बार-बार बोलने और संगति करने की जरूरत पड़ती थी तो मैं डर जाती थी। फिर मैंने शांति से अपना आकलन किया, “परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं कुछ अंतर्दृष्टि पा सकी हूँ और मैं अपने भाई-बहनों की मदद करने के लिए अपनी अनुभवात्मक समझ साझा कर सकती हूँ, जिसे उन्होंने अपने लिए मददगार बताया था। मैं कुछ कौशल-संबंधी समस्याएँ भी सुलझा सकती हूँ और भले ही मेरा संवाद कौशल खराब है और मैं अटक जाती हूँ, ये समस्याएँ इतनी भी बुरी नहीं हैं कि मैं खुद को स्पष्टता से व्यक्त न कर सकूँ या कोई कार्य पूरा न कर सकूँ। इसके अलावा यह कोई लाइलाज मसला नहीं है, क्योंकि मैं लेख लिखकर और संगति में अधिक प्रशिक्षण लेकर इस क्षेत्र में सुधार कर सकती हूँ।” इसे पहचान कर मुझे अब टीम अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य निभाने को लेकर इतना दबाव महसूस नहीं हुआ और मैंने पाया कि मैं इसे सक्रियता से कर सकती हूँ। जब मैंने देखा कि मेरे भाई-बहनों को अपने कर्तव्यों में किन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है तो मैंने उन्हें सुलझाने में मदद करने की पूरी कोशिश की और मैं हमारी टीम में भाई-बहनों की कार्य प्रगति का नियमित रूप से जायजा लेने लगी, उनकी मुश्किलें समझने लगी और उनके साथ समाधान पर चर्चा करने लगी और अगर मैं कुछ सुलझा नहीं पाती थी तो मैं अपने साथी से सलाह लेती थी और आखिकार हम हमेशा आगे बढ़ने का कोई रास्ता खोज लेते थे। इस प्रकार व्यावहारिक रूप से अपना कर्तव्य करते हुए मैंने पाया कि मैं अपने विचार स्पष्टता से व्यक्त कर सकती हूँ, मेरे भाई-बहन मुझे समझ सकते हैं और मुझे टीम अगुआ के रूप में अपने कर्तव्यों में कुछ आत्मविश्वास मिला। कुछ समय बाद अगुआ मेरे पास आए और कुछ चर्चा के बाद बोले कि वे मुझे पर्यवेक्षक के रूप में विकसित करना चाहते हैं। मैं यह समाचार सुनकर हैरान और खुश दोनों थी, लेकिन फिर मैंने जल्दी से सोचा कि मेरे बोलने का कौशल कितना खराब है और मैं टीम अगुआ के रूप में कैसे मुश्किल से काम चला रही थी और टीम में भाई-बहन मेरी कमियाँ जानते थे और वे समझ सकते थे कि मेरी संगति में कमी है, लेकिन एक पर्यवेक्षक के रूप में मुझे कई और लोगों के साथ बातचीत करनी होगी और सभाओं और कार्य कार्यान्वयन के लिए मुझे संगति में अगुआई करने की जरूरत पड़ेगी। बोलने के खराब कौशल के चलते मुझे डर था कि जैसे ही मैं संगति के लिए अपना मुँह खोलूँगी, मैं अपनी कमियाँ उजागर कर दूँगी और अगर मैं खराब संगति करूँगी तो मुझे बहुत अपमान सहना पड़ेगा। इसलिए मैंने अगुआओं से कहा, “मैं यह नहीं कर सकती, मैं इस भूमिका के लिए उपयुक्त नहीं हूँ, किसी दूसरी बहन को विकसित करना बेहतर होगा।” तब अगुआओं ने परमेश्वर के इरादों के बारे में मुझसे संगति की, मुझे प्रोत्साहित किया कि मैं खुद को सीमित न करूँ, प्रशिक्षण लूँ और देखूँ कि यह कैसे होता है और कोई भी मुश्किल सुलझाने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करूँ। इसलिए मैं कुछ समय के लिए यह भूमिका निभाने को सहमत हो गई।

उसके बाद मैंने सोचा, “मुझे यह एहसास था कि मैं अपनी हीन भावनाओं से प्रभावित हूँ और मैं खुद को सही तरीके से देखने में सक्षम थी तो फिर भी मैं पर्यवेक्षक की भूमिका निभाने में क्यों हिचकिचा रही थी और इससे भागना चाहती थी?” अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े, जिससे मुझे अपने कुछ मुद्दों पर स्पष्टता पाने में मदद मिली। परमेश्वर कहता है : “जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा खास होने का ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। शैतानी शासन के सदस्यों को लें : वे अंधेरे में कितना भी लड़ें-झगड़ें या हत्या तक कर दें, किसी को भी उनकी शिकायत करने या उन्‍हें उजागर करने की अनुमति नहीं होती। वे डरते हैं कि लोग उनका राक्षसी चेहरा देख लेंगे, और वे इसे छिपाने का हर संभव प्रयास करते हैं। सार्वजनिक रूप से वे यह कहते हुए खुद को पाक-साफ दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं कि वे लोगों से कितना प्यार करते हैं, वे कितने महान, गौरवशाली और अमोघ हैं। यह शैतान की प्रकृति है। शैतान की प्रकृति की सबसे प्रमुख विशेषता धोखाधड़ी और छल है। और इस धोखाधड़ी और छल का उद्देश्य क्या होता है? लोगों की आँखों में धूल झोंकना, लोगों को अपना सार और असली रंग न देखने देना, और इस तरह अपने शासन को दीर्घकालिक बनाने का उद्देश्य हासिल करना। साधारण लोगों में ऐसी शक्ति और हैसियत की कमी हो सकती है, लेकिन वे भी चाहते हैं कि लोग उनके पक्ष में राय रखें और उन्हें खूब सम्मान की दृष्टि से देखें और अपने दिल में उन्हें ऊँचे स्थान पर रखें। यह भ्रष्ट स्वभाव होता है, और अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो वे इसे पहचानने में असमर्थ रहते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। “जो लोग कभी अपने दिलों को नहीं खोलते, जो हमेशा चीजों को छिपाने और परदा डालने की कोशिश करते हैं, जो यह बहाना बनाते हैं कि वे आदरणीय हैं, जो चाहते हैं कि लोग उनके बारे में अच्छी राय रखें, जो दूसरों को अपनी पूरी थाह नहीं लेने देते, और जो चाहते हैं कि लोग उनकी प्रशंसा करें—क्या वे लोग मूर्ख नहीं हैं? ऐसे लोग सबसे बड़े मूर्ख होते हैं! इसका कारण यह है कि लोगों के बारे में सच्चाई देर-सबेर उजागर हो ही जाती है। इस तरह के आचरण से वे किस मार्ग पर चलते हैं? यह तो फरीसियों का मार्ग है। ये पाखंडी खतरे में हैं या नहीं? ये वे लोग हैं जिनसे परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है, तो तुम्हें क्या लगता है, वे खतरे में हैं या नहीं? वे सब जो फरीसी हैं, विनाश के मार्ग पर चलते हैं!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर उजागर करता है कि लोग अक्सर खुद को छिपाते हैं और छद्मवेश रखते हैं, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए दूसरों से अपनी कमियाँ और दोष छिपाते हैं। ऐसे लोग अहंकारी, नकली और पाखंडी होते हैं। मैंने परमेश्वर के वचनों की रोशनी में अपने व्यवहार की जाँच की और मुझे एहसास हुआ कि मैं उस तरह की इंसान थी जिसे परमेश्वर ने उजागर किया था। बचपन से ही मैं इस विचार से नियंत्रित थी कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और मैं दूसरों के दिलों में अपने आत्मसम्मान और रुतबे को बहुत महत्व देती थी, हमेशा चाहती थी कि लोग मेरे बारे में अच्छी राय और छवि रखें। चूँकि मैं बचपन में बोलने में बेढंगी थी और अक्सर वयस्क मेरी आलोचना करते थे, मुझे लगता था कि यह मेरी कमी है, इसलिए जब भी मैं ऐसी स्थिति में होती थी जहाँ मुझे बोलना होता था तो मैं उससे बचना पसंद करती थी। परमेश्वर को पाने के बाद सभाओं में संगति के दौरान एक बार भाई-बहनों ने मुझे बकवास करने और विषय से भटकने के कारण टोक दिया था और मुझे अपमानित महसूस हुआ था। उसके बाद मैं अब सभाओं के दौरान संगति नहीं करना चाहती थी और दूसरों के सामने बोलने से डरती थी। मेरा व्यवहार स्वयं को छिपाने और छद्मवेश धारण करने का एक तरीका था, जिससे दूसरे लोग मेरी खामियाँ और कमियाँ न देख सकें, ताकि लोग मुझे नीची नजर से न देखें और इसके बजाय लोग यह सोचें कि मैं विनम्र हूँ और दिखावा नहीं करती, जिससे लोगों पर मेरे बारे में अच्छी छाप और राय बने। जब भाई-बहन एक साथ सभा करते हैं तो इसका उद्देश्य परमेश्वर के वचनों के बारे में अपनी अनुभवात्मक समझ पर संगति करना और एक-दूसरे की मदद और साथ देना होता है, लेकिन क्योंकि मैं अपनी कमियाँ छिपाना चाहती थी, मैं अपनी अनुभवात्मक समझ पर संगति करने से परहेज करती थी। कलीसिया ने मुझे टीम अगुआ के रूप में सेवा करने के लिए पोषित किया था और मुझे प्रशिक्षित होने का अवसर दिया था, फिर भी मैं कर्तव्यों से भागती रही और इनकार करती रही। यहाँ तक कि एक टीम अगुआ के रूप में भी मुझमें अपने कर्तव्य करने का संकल्प नहीं था, मैं नकारात्मक और निष्क्रिय थी और इस्तीफा देना चाहती थी। अपने आत्मसम्मान और रुतबे की रक्षा के लिए मैं अपने कर्तव्यों से बचती रही, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की चाहत छिपाने के लिए अपनी खराब काबिलियत को एक बहाने के रूप में इस्तेमाल करती रही। इस तरह भाई-बहन न सिर्फ मेरे कर्तव्य निभाने से इनकार करने पर सवाल नहीं उठाएँगे, बल्कि वे मुझे उचित, आत्म-जागरूक और रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा न करने वाली इंसान समझेंगे और वे मेरे बारे में अच्छी धारणा बनाएँगे। मैं अपने आत्मसम्मान और रुतबे की रक्षा के लिए धूर्त तरीकों का इस्तेमाल कर रही थी और ऐसा करके मैं अपने भाई-बहनों को धोखा दे रही थी और गुमराह कर रही थी। यह वाकई में मेरी धोखेबाजी थी!

चीजों की खोज और चिंतन के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मेरे भीतर एक और दृष्टिकोण था। मेरा मानना था कि सिर्फ अच्छे वक्ता ही अगुआ और कार्यकर्ता बनने के योग्य होते हैं और अगर किसी में अच्छी वाक्पटुता का हुनर नहीं है तो वह इस भूमिका के लिए उपयुक्त नहीं है। लेकिन क्या यह दृष्टिकोण वाकई सही था? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जिन विभिन्न प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों का मैंने अभी-अभी जिक्र किया, उनमें पहला प्रकार उन लोगों का था जो कार्य की विभिन्न मदों के निरीक्षक बन सकते हैं। उनसे पहली अपेक्षा यह होती है कि उनमें सत्य को समझने की योग्यता और काबिलियत हो। यह न्यूनतम अपेक्षा है। दूसरी अपेक्षा यह है कि वे कोई बोझ उठाएँ—यह अपरिहार्य है। कुछ लोग साधारण लोगों के मुकाबले ज्यादा तेजी से सत्य समझ लेते हैं, उनमें आध्यात्मिक समझ होती है, वे अच्छी काबिलियत वाले होते हैं, उनमें कार्यक्षमता होती है, और कुछ समय तक अभ्यास करने के बाद वे पूरी तरह से अपने दो पैरों पर खड़े हो सकते हैं। लेकिन ऐसे लोगों के साथ एक गंभीर समस्या होती है—वे कोई बोझ नहीं उठाते। ... ऐसे लोग भी उपलब्ध हैं जिनकी काबिलियत किसी काम के लिए पर्याप्त से अधिक है, लेकिन दुर्भाग्य से वे कोई बोझ उठाते ही नहीं, वे जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते, उन्हें तकलीफ पसंद नहीं है और वे चिंता करना पसंद नहीं करते। वे उस काम के लिए अंधे हो जाते हैं जो करना होता है, और भले ही वे इसे देख लें, तो भी उसे करना नहीं चाहते। क्या इस प्रकार के लोग पदोन्नति और विकास के उम्मीदवार हैं? बिल्कुल नहीं; पदोन्नत और विकसित होने के लिए लोगों को बोझ उठाना चाहिए। बोझ उठाने का जिम्मेदारी की भावना होने के रूप में भी वर्णन किया जा सकता है। जिम्मेदारी की भावना होने का मानवता से अधिक संबंध है; बोझ उठाना लोगों को मापने के परमेश्वर के घर द्वारा प्रयुक्त मानकों में से एक से संबंधित है। जो लोग दो अन्य चीजों—सत्य को समझने की योग्यता और काबिलियत और कार्यक्षमता—के होने के साथ-साथ बोझ भी उठाते हैं, वे ऐसे लोग हैं जिन्हें पदोन्नत और विकसित किया जा सकता है और इस प्रकार के लोग कार्य की विभिन्न मदों के निरीक्षक बन सकते हैं। ये विभिन्न प्रकार के निरीक्षक बनने हेतु लोगों को पदोन्नत और विकसित करने के लिए अपेक्षित मानक हैं, और जो लोग इन मानकों पर खरे उतरते हैं, वे पदोन्नत और विकसित किए जाने के उम्मीदवार होते हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि अगुआ और कार्यकर्ता होना खासकर किसी व्यक्ति की मानवता पर और सत्य को समझने की उसकी क्षमता पर निर्भर करता है। साथ ही यह इस भी निर्भर करता है कि क्या उनमें काम के प्रति दायित्व और जिम्मेदारी की भावना है। जब अच्छे संवाद कौशल वाले लोग समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य की संगति करते हैं तो वे अपने विचार स्पष्ट और तार्किक रूप से व्यक्त कर सकते हैं और वे मुख्य बिंदु समझ सकते हैं, जिससे दूसरे लोग उन्हें तुरंत समझ सकें। यह उनके कर्तव्यों की पूर्ति के लिए लाभदायक है। हालाँकि अगर किसी पर्यवेक्षक में बोलने का अच्छी वाक्पटुता, काबिलियत और मजबूत कार्य क्षमताएँ हैं, लेकिन उसमें मानवता की कमी है, आराम की लालसा है और वह काम करना पसंद नहीं करता है और उसमें अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व की भावना की कमी है और वह गैर-जिम्मेदार है तो ऐसा व्यक्ति भी अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लिए अनुपयुक्त है। कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं में अच्छी वाक्पटुता और काबिलियत थी, लेकिन अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व की भावना की कमी होने और वास्तविक काम न करने और अपने पदों के लाभों में लिप्त होने के कारण उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था। इसके विपरीत ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता भी रहे हैं, जिनकी वाक्पटुता और काबिलियत थोड़ी कमजोर थी, लेकिन उन्हें अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व और जिम्मेदारी का अहसास था, वे लगन से काम करते थे और वे अपने कर्तव्यों में भाई-बहनों के लिए वास्तविक मुद्दे सुलझा सकते थे। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य भी कर सकते हैं और कलीसिया उन्हें प्रशिक्षण के अवसर देती है। अतीत में मैं सिर्फ अपनी खराब वाक्पटुता और संवाद कौशल के कारण खुद को टीम अगुआ या पर्यवेक्षक बनने के लिए अयोग्य मानती थी। यह सत्य की खोज करने में मेरी नाकामी के कारण था और मैं इन भ्रामक विचारों के साथ खुद को सीमित नहीं रख सकती थी।

आगे बढ़ते हुए मैंने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि मैं कैसे अपनी क्षमताओं के अनुसार अपने कर्तव्य ठीक से निभा सकती हूँ और कैसे अपनी क्षमता तक पहुँचने का प्रयास कर सकती हूँ और मैंने सचेत रूप से परमेश्वर के वचनों पर भी चिंतन किया, अपने सामने आने वाली परिस्थितियों में सत्य की खोज और अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित किया। जब मुझे परमेश्वर के वचनों की कुछ वास्तविक समझ आई तो मैंने गवाही लेख लिखने का अभ्यास किया। धीरे-धीरे मैंने तर्कसंगत और सुसंगत तरीके से बोलना सीखा और अपने विचारों को स्पष्ट व्यक्त करना सीखा ताकि दूसरे लोग समझ सकें और मैं संवाद में शामिल कौशलों को समझने लगी। सभाओं के दौरान कार्य के क्रियान्वयन का समय आने पर जब मेरी साथी ने मुझे अगुआई करने के लिए कहा तो मुझे अब पहले जितना डर नहीं लगा और मैं सभी के साथ मुद्दों और विचलनों का सारांश भी प्रस्तुत कर सकी जिससे मेरे कर्तव्यों की प्रभावशीलता में सुधार हुआ। इस तरह से अभ्यास करने से मुझे शांति मिली और मैं सहज हो गई और धीरे-धीरे मैं अपनी हीन भावनाओं की छाया से बाहर निकल गई और मैं पहले से कहीं अधिक उज्ज्वल हो गई। मैं अब वह इंसान नहीं थी जो अंधेरे कोने में छिप जाती थी, कुछ भी कहने से डरती थी। मैं परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ, जिसने मुझे धीरे-धीरे अपनी हीनता की छाया से बाहर निकलने और सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम होने की अनुमति दी।

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