86. विपत्तियों के बीच आगे बढ़ना

झेनई, चीन

23 अगस्त 2022 को, जिले के अगुआ ने हम में से कई प्रचारकों को एक सभा के लिए बुलाया। हमने दोपहर तक इंतजार किया लेकिन अगुआ नहीं आया। बाद में, हमें पता चला कि कलीसिया के अगुआओं और कई भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया है। मेरे साथ रहने वाली बहन लू यांग को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके अलावा, जिस अगुआ ने हमें सभा में आमंत्रित किया था, उससे पूरे दिन और रात संपर्क नहीं हो पाया था, यह लगभग तय ही था कि उसके साथ कुछ हुआ है। यह खबर सुनकर मैं स्तब्ध रह गई। इस गिरफ्तारी के कारण दर्जनों कलीसिया प्रभावित हुई थीं और यह सब 23 तारीख की सुबह ही हुआ था जो सीसीपी की ओर से की गई एक समन्वित कार्रवाई की ओर इशारा कर रहा था। मुझे याद आया कि कुछ ही दिन पहले अगुआ मेरे घर कई बार आया था, मैं सोच रही थी कि क्या मैं भी निशाने पर हूँ। अगर ऐसा है, तो क्या मुझे भी एक दिन गिरफ्तार किया जाएगा? सीसीपी विश्वासियों को इंसान नहीं मानती और उन्हें परमेश्वर से विश्वासघात करने को मजबूर करने के लिए हर तरह की यातना देती है। मैं कई कलीसियाओं के काम की निगरानी कर रही थी, अगर मुझे गिरफ्तार किया जाता है, तो निश्चित रूप से सीसीपी मुझे आसानी से नहीं छोड़ेगी। इस बारे में सोचते ही मेरे मन में दबाव महसूस होने लगा, मैं बाहर हो रही हर छोटी-बड़ी हरकत पर चिंतित होने लगी, मैं डरने लगी कि मुझे किसी भी पल गिरफ्तार किया जा सकता है। यह महसूस करके कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है, मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, कलीसिया पर बड़ी कार्रवाई होने के कारण मुझे बहुत डर महसूस हो रहा है। मेरी रक्षा करो और मुझे आस्था दो ताकि मैं इस माहौल में बेबस न रहूँ।” प्रार्थना के बाद मुझे फिल्म, “मेरी कहानी, हमारी कहानी” याद आ गई, और मैंने उसे देखने के लिए जल्दी से ढूँढ़ निकाला। फिल्म में परमेश्वर के वचनों के एक अंश से मुझे आस्था मिली।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “हालाँकि शैतान ने अय्यूब को ललचाई आँखों से देखा, लेकिन परमेश्वर की अनुमति के बिना उसने अय्यूब के शरीर का एक बाल भी छूने की हिम्मत नहीं की। हालाँकि शैतान अंतर्निहित रूप से दुष्ट और क्रूर है, लेकिन परमेश्वर द्वारा उसे आदेश दिए जाने के बाद, उसके पास परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इस प्रकार, भले ही शैतान जब वह अय्यूब के पास आया, तो वह भेड़ों के बीच भेड़िये की तरह उन्मत्त था, लेकिन उसने परमेश्वर द्वारा उसके लिए निर्धारित सीमाएँ भूलने की हिम्मत नहीं की, परमेश्वर के आदेशों का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं की, और जो कुछ भी उसने किया, उसमें शैतान ने परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों और सीमाओं से भटकने की हिम्मत नहीं की—क्या यह एक तथ्य नहीं है? इससे यह देखा जा सकता है कि शैतान यहोवा परमेश्वर के किसी भी वचन का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं करता। शैतान के लिए परमेश्वर के मुख से निकला प्रत्येक वचन एक आदेश और एक स्वर्गिक व्यवस्था है, परमेश्वर के अधिकार की अभिव्यक्ति है—क्योंकि परमेश्वर के प्रत्येक वचन के पीछे परमेश्वर के आदेशों का उल्लंघन करने वालों और स्वर्गिक व्यवस्थाओं की अवज्ञा और विरोध करने वालों के लिए परमेश्वर की सजा निहित है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर के वचन हमें स्पष्ट रूप से बताते हैं कि शैतान चाहे जितना भी क्रूर हो, वह परमेश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं कर सकता या परमेश्वर द्वारा तय की गई हदों या सीमाओं को पार नहीं कर सकता। शैतान चाहे जितना भी दुष्ट हो, वह तब भी परमेश्वर के हाथों में सेवा की वस्तु है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पूर्ण बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक औजार है। परमेश्वर के वचनों पर आत्म-चिंतन करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि बड़े पैमाने पर कठोर कार्रवाई के दिन अगुआ ने हम में से कुछ लोगों के साथ इकट्ठा होने की योजना बनाई थी और अगर पुलिस ने थोड़ी देर बाद अभियान चलाया होता, तो हम प्रचारकों को अगुआ के साथ ही गिरफ्तार कर लिया गया होता। मैंने देखा कि भाई-बहनों की गिरफ्तारी के लिए परमेश्वर की ओर से अनुमति है। शैतान परमेश्वर की अनुमति के बिना कार्य नहीं कर सकता; यह परमेश्वर का अधिकार है। यह विशेष रूप से तब जाकर स्पष्ट हुआ जब मैंने फिल्म में जेल में बंद भाइयों को देखा, जो कड़ी निगरानी में परमेश्वर पर भरोसा रखते हुए उसके वचनों को आगे बढ़ा रहे थे और एक-दूसरे की मदद और समर्थन कर रहे थे, और इससे परमेश्वर में उनकी आस्था और भी मजबूत हुई थी। चाहे सीसीपी ने कितनी भी धमकियाँ या प्रलोभन क्यों न दिए हों, वे अपनी गवाही में अडिग रहे। इसने परमेश्वर के वचनों के सामर्थ्य को प्रदर्शित किया। इन भाइयों के अनुभव को देखने के बाद मैं अब इतनी अधिक भयभीत नहीं थी। मैंने सोचा कि कैसे मैं अक्सर परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और सभी चीजों पर संप्रभुता की घोषणा करती थी और कैसे मैं अक्सर कहती थी कि मैं कलीसिया के कार्य की रक्षा करूँगी। मगर जब मैंने सुना कि अधिक से अधिक लोग गिरफ्तार किए जा रहे हैं, तो मैं घबराहट और भय से भर गई। लगता है कि मैं अपना पिछला संकल्प और वायदे पहले ही भूल चुकी थी, और खास तौर पर, गिरफ्तारी होने पर यातना सहने के विचार ने मेरी चिंताओं को उभार दिया। अंतत: वास्तविकता का सामना होने पर मैंने देखा कि मेरी आस्था कितनी कम थी। जैसे ही खतरा मेरे सामने आया, मैं डरपोक और भयभीत हो गई, और अपनी शारीरिक सुरक्षा के बारे में चिंता करने लगी। मुझमें किस तरह का आध्यात्मिक कद था? यह महसूस करने के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे आस्था प्रदान करे ताकि मैं अपने कर्तव्य पूरे कर सकूँ और विपत्ति के दौरान अपनी गवाही में अडिग रह सकूँ।

इस घटना के होने पर, बाद में ऐसे कई महत्वपूर्ण काम थे जिन पर ध्यान देने की जरूरत थी। परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को सीसीपी के हाथों में पड़ने से रोकने के लिए, यह निर्णय लिया गया कि बहन गाओ किंग और मैं उन्हें स्थानांतरित करने की जिम्मेदारी लेंगे। मुझे इतना महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए कहा जा रहा था, यह देखकर और इस जिम्मेदारी के महत्व को जानकर, मैं इसे करने के लिए तैयार थी। हालाँकि इस स्थानांतरण के दौरान शामिल खतरों के बारे में सोचते हुए मुझे थोड़ा डर भी महसूस हुआ, “अगर हमें गिरफ्तार कर लिया जाता है और सीसीपी को पता चले कि हम परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें ले जा रहे हैं, तो वे निश्चित रूप से हमें कलीसिया की और अधिक जानकारी देने के लिए मजबूर करेंगे और इसके लिए हमें यातना देंगे। अगर हम न भी मरें, तो भी हमें कपड़े निचोड़ने की मशीन से गुजारा जाएगा! अगर मैं विकलांग हो गई तो मैं क्या करूँगी? न केवल मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी, बल्कि मुझे अपना ही ख्याल रखने में समस्या आएगी। क्या यह मेरे लिए अंत नहीं होगा? क्या मैं तब भी बचाई जा सकूँगी? मुझमें साहस और बुद्धि दोनों की कमी है। क्या मैं वास्तव में इस कर्तव्य को सँभाल सकती हूँ? क्या हमें इस जिम्मेदारी के लिए किसी ज्यादा साहसी और समझदार व्यक्ति को नहीं ढूँढ़ना चाहिए?” मैं बहनों से यह कहने ही वाली थी, लेकिन मैं झिझक गई और शब्द मेरे मुँह में ही रह गए। मैंने सोचा कि कैसे इस संदर्भ में संपर्क किए जा सकने वाले लोगों की सीमित संख्या को देखते हुए, सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद ही सभी ने निर्णय लिया था कि मैं यह कार्य करूँ। मुझे परमेश्वर के इन वचनों का ध्यान आया : “तुम्‍हें उस हर चीज का समर्थन करना चाहिए और उसके प्रति जवाबदेह होना चाहिए जो परमेश्वर के घर के हित से संबंध रखती है, या जिसका ताल्‍लुक परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के नाम से है। तुममें से हर एक की यह जिम्‍मेदारी और दायित्व है, और यही तुम सबको करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, राज्य के युग में परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के बारे में)। चाहे कोई भी समय हो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से प्रत्येक की जिम्मेदारी और दायित्व है। मैं कई वर्षों तक विश्वासी रहकर परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का आनंद लेती रही थी, फिर भी, जब परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों की सुरक्षा खतरे में थी और उन्हें स्थानांतरित करना था, मैं इस कार्य को करने को लेकर सक्रिय नहीं थी। इसके बजाय, मैं केवल अपने भविष्य की संभावनाओं और रास्तों पर ही विचार कर रही थी। गिरफ्तार होने और प्रताड़ित होने के डर से मैं यह कर्तव्य किसी और के मत्थे मढ़ देना चाहती थी। मैं बेहद स्वार्थी थी और मेरे पास अंतरात्मा और विवेक की कमी थी! चूँकि हर कोई इससे सहमत था कि मैं परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को स्थानांतरित करने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हूँ, तो इसमें अवश्य ही परमेश्वर का इरादा होगा। विशेष रूप से यह देखते हुए कि मुझे बड़े पैमाने पर हुई इस कठोर कार्रवाई के दौरान गिरफ्तार नहीं किया गया था, स्पष्ट रूप से मेरी एक भूमिका थी, और मुझे इसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए। मैं एक सृजित प्राणी हूँ; परमेश्वर जानता है कि मैं क्या कर सकती हूँ। मुझे गिरफ्तार किया जाएगा या नहीं, यह परमेश्वर के हाथ में है। अगर मेरी गिरफ्तारी परमेश्वर का आदेश है, तो मैं समर्पण कर दूँगी, लेकिन अगर इसके लिए परमेश्वर की अनुमति नहीं है, तो सीसीपी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। जैसे दानिय्येल को परमेश्वर में आस्था थी, और जब उसे शेर की मांद में फेंक दिया गया, तब भी शेरों ने उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचाया। सीसीपी चाहे जितनी भी उग्र हो, वह तब भी परमेश्वर के हाथों में होती है, और वह परमेश्वर के काम के लिए सिर्फ एक सेवा की वस्तु है। इस समझ के साथ मैंने आस्था पाई और परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, अब जबकि तुम्हारे वचनों की पुस्तकों को तुरंत स्थानांतरित करना है, मैं डरपोक और भयभीत महसूस कर रही हूँ, लेकिन मुझे पता है कि शैतान तुम्हारे हाथों में है। मैं अपनी सुरक्षा को दरकिनार करने के लिए तैयार हूँ और पुस्तकों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने के लिए बहन गाओ किंग के साथ काम करने को तैयार हूँ। हमारा मार्गदर्शन करो।” अगली सुबह, हम घने कोहरे में निकल पड़े और सफलतापूर्वक पुस्तकों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया।

चूँकि कई कलीसिया अगुआ गिरफ्तार किए जा चुके थे, बहन गाओ किंग और मुझे इन कलीसियाओं के काम की निगरानी करने के लिए अस्थायी रूप से पदोन्नत कर दिया गया। मुझे पता था कि मुझे अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटना चाहिए, पर मुझे बहुत दबाव महसूस हुआ। ऐसे नाजुक समय में इस कर्तव्य को हाथ में लेना वाकई बहुत खतरनाक था। मगर अगुआओं की गिरफ्तारी और कलीसिया के काम के लगभग ठप हो जाने के कारण, भाई-बहन अपना कलीसियाई जीवन नहीं जी पा रहे थे और उन्हें तत्काल किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो काम सँभाल सके। इस समय इस कर्तव्य से मुँह मोड़ने का मतलब था मुझमें मानवता नहीं है। बहुत विचार-विमर्श के बाद मैंने वह कर्तव्य स्वीकार कर लिया। हालाँकि, कुछ ही समय बाद, मुझे पता चला कि पूछताछ के दौरान, पुलिस गिरफ्तार भाई-बहनों को तस्वीरें दिखा रही थी और उनसे अगुआओं की पहचान करने को कह रही थी। सीसीपी लगातार अगुआओं की गिरफ्तारी में जुटी थी, और अगर उन्हें पता चल जाता कि मैं अब कलीसिया की अगुआ हूँ, तो क्या गिरफ्तार होने पर मुझे भी कड़ी सजा नहीं दी जाती? मैंने उन भाई-बहनों के बारे में सोचा जिन्हें गिरफ्तार करके सजा सुनाई गई थी। कुछ के साथ जेल में कैदियों ने दुर्व्यवहार किया था, दूसरों को जेल पहरेदारों ने बुरी तरह पीटा और प्रताड़ित किया था, और उन्हें हर दिन भारी शारीरिक श्रम करना पड़ता था। पहले से ही अपने कमजोर स्वास्थ्य को देखते हुए, एक बार अगर गिरफ्तार करके मुझे सजा सुना दी गई, तो हर दिन मुझे जेल में एक साल जितना लगेगा, और कहना मुश्किल है कि मैं इससे बाहर निकल भी पाऊँगी या नहीं। चीन में कर्तव्य करना वाकई खतरे से भरा होता है, जैसे चाकू की धार पर खड़े रहकर लगातार जान को जोखिम में डालना। मैं सोचती रही कि अगर मैंने यह कर्तव्य न लिया होता तो बेहतर होता ... मैं बहुत चिंतित थी और अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रही थी। यह महसूस करते हुए कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है, मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे अपने दिल की रक्षा करने के लिए कहा।

उस रात, मैं बिल्कुल भी नहीं सो पाई। मैंने सोचा कि कैसे कलीसिया पर बड़े पैमाने पर कठोर कार्रवाई के दौरान, मैंने केवल कायरता और भय ही प्रकट किया था, और मैं खुद को बचाने के लिए अपने कर्तव्य से भी मुँह मोड़ लेना चाहती थी। विपत्ति का सामना करते समय मैं अपने बारे में ही क्यों सोचती रहती थी? अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “मसीह-विरोधी अपनी सुरक्षा बनाए रखने के लिए हरसंभव प्रयास करते हैं। वे मन ही मन यह सोचते हैं : ‘मुझे अपनी सुरक्षा अवश्य सुनिश्चित करनी चाहिए। चाहे जो भी पकड़ा जाए, मैं न पकड़ा जाऊँ।’ इसे लेकर, वे अक्सर प्रार्थना करने परमेश्वर के सामने आते हैं और गुहार लगाते हैं कि परमेश्वर उन्हें मुसीबत में पड़ने से बचाए। उन्हें लगता है कि चाहे कुछ भी हो, वे वास्तव में एक कलीसिया अगुआ का काम कर रहे हैं और परमेश्वर को उनकी रक्षा करनी चाहिए। अपनी सुरक्षा की खातिर और गिरफ्तार होने से बचने के लिए, तमाम उत्पीड़न से बचने और खुद को एक सुरक्षित वातावरण में रखने के लिए मसीह-विरोधी अक्सर अपनी सुरक्षा के लिए याचना और प्रार्थना करते हैं। जब उनकी अपनी सुरक्षा की बात आती है, तभी वे वास्तव में परमेश्वर पर भरोसा और खुद को परमेश्वर को अर्पित करते हैं। बात जब इस पर आती है, तभी वे वास्तविक आस्था रखते हैं और तभी परमेश्वर पर उनका भरोसा वास्तविक होता है। कलीसिया के काम या अपने कर्तव्य के बारे में जरा-सा भी विचार न करते हुए वे केवल परमेश्वर से यह कहने के लिए प्रार्थना करने की जहमत उठाते हैं कि वह उनकी सुरक्षा करे। अपने काम में व्यक्तिगत सुरक्षा ही वह सिद्धांत होता है, जो उनका मार्गदर्शन करता है। अगर कोई स्थान सुरक्षित होता है, तो मसीह-विरोधी उस स्थान को कार्य करने के लिए चुनेगा, और बेशक, वह बहुत सक्रिय और सकारात्मक दिखाई देगा, अपनी महान ‘जिम्मेदारी की भावना’ और ‘निष्ठा’ दिखाएगा। अगर किसी कार्य में जोखिम होता है और उसके घटना का शिकार होने या उसे करने वाले के बारे में बड़े लाल अजगर को पता चल जाने की संभावना होती है, तो वे बहाने बना देते हैं और इससे इनकार करते हुए बचकर भागने का मौका ढूँढ़ लेते हैं। जैसे ही कोई खतरा होता है, या जैसे ही खतरे का कोई संकेत होता है, वे भाई-बहनों की परवाह किए बिना, खुद को छुड़ाने और अपना कर्तव्य त्यागने के तरीके सोचते हैं। वे केवल खुद को खतरे से बाहर निकालने की परवाह करते हैं। दिल में वे पहले से ही तैयार रह सकते हैं : जैसे ही खतरा प्रकट होता है, वे उस काम को तुरंत छोड़ देते हैं जिसे वे कर रहे होते हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि कलीसिया का काम कैसे होगा, या इससे परमेश्वर के घर के हितों या भाई-बहनों की सुरक्षा को क्या नुकसान पहुँचेगा। उनके लिए जो मायने रखता है, वह है भागना(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। “मसीह-विरोधी बेहद स्वार्थी और घिनौने होते हैं। उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था नहीं होती, परमेश्वर के प्रति निष्ठा तो बिल्कुल नहीं होती; जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो वे केवल अपना बचाव और अपनी सुरक्षा करते हैं। उनके लिए, उनकी अपनी सुरक्षा से ज्यादा जरूरी और कुछ नहीं है। अगर वे जिंदा रह सकें और गिरफ्तार न हों, तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि कलीसिया के काम को कितना नुकसान हुआ है। ये लोग बेहद स्वार्थी हैं, वे भाई-बहनों या कलीसिया के काम के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते, सिर्फ अपनी सुरक्षा के बारे में सोचते हैं। वे मसीह-विरोधी हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी की प्रकृति अत्यंत स्वार्थी और घृणित होती है। वे अपने हितों को हर चीज से ऊपर रखते हैं, और किसी भी हालत में, यदि कोई चीज उनके हितों पर असर डालती है, तो वे खुद को बचाने से पीछे नहीं हटते। मसीह-विरोधी पूरी तरह से लाभ-प्रेरित होते हैं, और उनमें अंतरात्मा या विवेक की कोई समझ नहीं होती। वे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” के शैतानी फलसफे के मुताबिक चलते हैं, और पूरी तरह से शैतान की छवि के अनुसार जीवन जीते हैं। परमेश्वर के वचनों और अपने व्यवहार पर आत्म-चिंतन करते हुए, क्या मैंने मसीह-विरोधी के स्वार्थी और घृणित स्वभाव को प्रकट नहीं किया था? आम तौर पर, जब गिरफ्तारी का कोई खतरा नहीं होता था, तो मैं अपने कर्तव्य करने में बहुत सक्रिय रहती थी, चाहे वे कितने भी कठिन या थकाऊ क्यों न हों, अपने कर्तव्यों के प्रति वफादारी और परमेश्वर के प्रति समर्पण का दिखावा करती थी। लेकिन जब कलीसिया को बड़े पैमाने पर कठोर कार्रवाई का सामना करना पड़ा और मेरे लिए निर्धारित कर्तव्यों में मेरे निजी हित शामिल थे, तो मेरे स्वार्थ और घृणा बेनकाब हो गए। जब भाई-बहनों ने मुझे परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को हस्तांतरित करने के लिए आगे किया, तो मैं खुद को बचाने के लिए यह काम किसी और के मत्थे मढ़ना चाहती थी। जब कलीसिया ने मुझे अस्थायी रूप से अगुआ के रूप में पदोन्नत किया, तो कलीसिया के काम को अच्छी तरह से करने और इस जिम्मेदारी को निभाने पर ध्यान देने के बजाय, मुझे गिरफ्तार होने और सजा सुनाए जाने की चिंता सताने लगी, और मैंने खुद को बचाने के लिए कर्तव्य से मुँह मोड़ने के बारे में भी सोच लिया। मैं मरने से बहुत डरती थी! ऐसा कहा जाता है कि विपत्ति में ही ईमानदारी का खुलासा होता है, मगर क्या मैंने विपत्ति का सामना करते हुए ईमानदारी से व्यवहार किया? नहीं! मैंने स्वार्थ और कपट के अलावा कुछ भी नहीं प्रकट नहीं किया था! मुझे ख्याल आया कि मैंने बरसों परमेश्वर के वचनों के सिंचन और प्रावधान का आनंद लिया है, लेकिन जब कलीसिया बड़े पैमाने पर कठोर कार्रवाई से जूझ रही थी और उसे जरूरत थी कि मैं अपनी भूमिका निभाऊँ, तो मैंने इससे बचने और खुद को बचाने के बहाने तलाशने शुरू कर दिए। किस मायने में मेरे पास कोई मानवता थी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की थी कि मैं उसके लिए खुद को खपाने और उसके प्रेम का बदला चुकाने को तैयार हूँ, फिर भी मैं स्वार्थपूर्ण और घृणित जीवन जी रही थी और खुद को बचाने की कोशिश कर रही थी। क्या यह परमेश्वर को धोखा देना नहीं है? अगर इन तथ्यों का खुलासा और परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन न होता, मुझे अभी भी अपने स्वार्थी और स्व-सेवी शैतानी स्वभाव की कोई सच्ची समझ नहीं होती। मैं अभी भी सोचती रहती कि मैं परमेश्वर के प्रति ईमानदार हूँ और वह मुझे निश्चित रूप से स्वीकार करता है, और परमेश्वर का कार्य समाप्त होने के बाद, मैं राज्य में प्रवेश करूँगी और परमेश्वर के आशीषों का आनंद लूँगी। मैं सचमुच खुद को नहीं जानती थी! परमेश्वर का कार्य बहुत व्यावहारिक है। बड़े लाल अजगर द्वारा किए गए उत्पीड़न और गिरफ्तारियों के जरिए परमेश्वर ने मेरी भ्रष्टता का खुलासा किया है और मुझे खुद को समझने में मदद की है। यही मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार है! इस पर विचार करते हुए, मुझे पश्चात्ताप हुआ और अब मैं शैतान के फलसफे के अनुसार नहीं जीना चाहती थी।

बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जो मेरे लिए बहुत प्रबुद्ध करने वाला था। परमेश्वर कहता है : “यदि तुम यह स्वीकारते हो कि तुम सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें सुसमाचार फैलाने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करने और अपना कर्तव्य समुचित रूप से निभाने की खातिर कष्ट भुगतने और कीमत चुकाने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। यह कीमत कोई शारीरिक बीमारी या कठिनाई या बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न या सांसारिक लोगों की गलतफहमियाँ, और साथ ही वे क्लेश सहना भी हो सकती है जिनसे सुसमाचार फैलाते समय व्यक्ति गुजरता है : जैसे विश्वासघात किया जाना, पिटाई और डाँट-फटकार किया जाना; निंदा किया जाना—यहाँ तक कि घेरकर हमला किया जाना और मृत्यु के खतरे में डाल दिया जाना। सुसमाचार फैलाने के दौरान, यह संभव है कि परमेश्वर का कार्य पूरा होने से पहले ही तुम्हारी मृत्यु हो जाए, और तुम परमेश्वर की महिमा का दिन देखने के लिए जीवित न बचो। तुम्हें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। इसका उद्देश्य तुम लोगों को भयभीत करना नहीं है; यह सच्चाई है। ... इतना ही नहीं, प्रभु यीशु के उन अनुयायियों की मौत कैसे हुई? उनमें ऐसे अनुयायी थे जिन्हें पत्थरों से मार डाला गया, घोड़े से बाँध कर घसीटा गया, सूली पर उलटा लटका दिया गया, पाँच घोड़ों से खिंचवाकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए—हर प्रकार की मौत उन पर टूटी। उनकी मृत्यु का कारण क्या था? क्या उन्हें उनके अपराधों के लिए कानूनी तौर पर फाँसी दी गई थी? नहीं। उनकी भर्त्सना की गई, पीटा गया, डाँटा-फटकारा गया और मार डाला गया, क्योंकि उन्होंने प्रभु का सुसमाचार फैलाया था और उन्हें इस संसार के लोगों ने ठुकरा दिया था—इस तरह वे शहीद हुए। ... वास्तव में, उनके शरीर इसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुए और चल बसे; यह मानव संसार से प्रस्थान का उनका अपना माध्यम था, तो भी इसका यह अर्थ नहीं था कि उनका परिणाम भी वैसा ही था। उनकी मृत्यु और प्रस्थान का साधन चाहे जो रहा हो, या यह चाहे जैसे भी हुआ हो, यह वैसा नहीं था जैसे परमेश्वर ने उन जीवनों के, उन सृजित प्राणियों के अंतिम परिणाम को परिभाषित किया था। तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्होंने इस संसार की भर्त्सना करने और परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए ठीक उन्हीं साधनों का उपयोग किया। इन सृजित प्राणियों ने अपने सर्वाधिक बहुमूल्य जीवन का उपयोग किया—उन्होंने परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए अपने जीवन के अंतिम क्षण का उपयोग किया, परमेश्वर के महान सामर्थ्य की गवाही देने के लिए उपयोग किया, और शैतान तथा इस संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए किया कि परमेश्वर के कर्म सही हैं, प्रभु यीशु परमेश्वर है, वह प्रभु है, और परमेश्वर का देहधारी शरीर है। यहां तक कि अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम क्षण तक उन्होंने प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं छोड़ा। क्या यह इस संसार के ऊपर न्याय का एक रूप नहीं था? उन्होंने अपने जीवन का उपयोग किया, संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए, मानव प्राणियों के समक्ष यह पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु प्रभु है, प्रभु यीशु मसीह है, वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है, कि समस्त मानवजाति के लिए उसने जो छुटकारे का कार्य किया, उसी के कारण मानवता जीवित है—यह सच्चाई कभी बदलने वाली नहीं है। जो लोग प्रभु यीशु के सुसमाचार को फैलाने के लिए शहीद हुए, उन्होंने किस सीमा तक अपने कर्तव्य का पालन किया? क्या यह अंतिम सीमा तक किया गया था? यह अंतिम सीमा कैसे परिलक्षित होती थी? (उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया।) यह सही है, उन्होंने अपने जीवन से कीमत चुकाई। परिवार, सम्पदा, और इस जीवन की भौतिक वस्तुएँ, सभी बाहरी उपादान हैं; स्वयं से संबंधित एकमात्र चीज जीवन है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के लिए, जीवन सर्वाधिक सहेजने योग्य है, सर्वाधिक बहुमूल्य है, और असल में कहा जाए तो ये लोग मानव-जाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की पुष्टि और गवाही के रूप में, अपनी सर्वाधिक बहुमूल्य चीज अर्पित कर पाए, और वह चीज है—जीवन। अपनी मृत्यु के दिन तक उन्होंने परमेश्वर का नाम नहीं छोड़ा, न ही परमेश्वर के कार्य को नकारा, और उन्होंने जीवन के अपने अंतिम क्षणों का उपयोग इस तथ्य के अस्तित्व की गवाही देने के लिए किया—क्या यह गवाही का सर्वोच्च रूप नहीं है? यह अपना कर्तव्य निभाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है; अपना उत्तरदायित्व इसी तरह पूरा किया जाता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मुझे समझ में आया कि अगर हम वास्तव में जीवन के अर्थ और जीवन और मृत्यु के मूल्य को स्पष्ट रूप से देखते हैं, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीते हैं, तो हम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण करके विपत्ति के समय में उसकी गवाही में अडिग रह सकते हैं। हममें से प्रत्येक के लिए जीवन सबसे कीमती चीज है। अगर हम अपना जीवन परमेश्वर को सौंप सकें, तो कोई भी चीज हमें पराजित नहीं कर सकती। मैंने सोचा कि कैसे इस मुकाम तक मैंने परमेश्वर का अनुसरण किया था, धीरे-धीरे काम, परिवार, विवाह और पैसा जैसी चीजों को छोड़ने में सक्षम हो पाई थी, लेकिन जब मेरे सामने खतरा आया और अपने जीवन को खोने की आशंका पैदा हुई, तो मेरी विद्रोहीपन उजागर हो गया। मैं खुद को बचाने के लिए अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ना चाहती थी। मैं मरने से बहुत डरती थी! सीसीपी के उन्मादी उत्पीड़न और गिरफ्तारियों का उद्देश्य हमें डरपोक बनाना और भयभीत करना, परमेश्वर में आस्था का त्याग करवाना, अपने कर्तव्यों को छुड़वाना और परमेश्वर को धोखा दिलवाना है, ताकि हम उद्धार का मौका गँवा दें। यह शैतान की साजिश है। केवल अपना जीवन परमेश्वर को सौंपकर, परमेश्वर चाहे जैसे भी चीजों का आयोजन और व्यवस्था करे, अपने कर्तव्यों को समर्पित हृदय से पूरा करके, हम शैतान को पराजित और उसे शर्मिंदा कर सकते हैं। मैं हमेशा सोचती थी कि अगर मैं उत्पीड़न से मर गई, तो मुझे बचाया नहीं जाएगा, लेकिन यह मेरी अपनी धारणा और कल्पना थी। अनुग्रह के युग में, प्रेरितों ने रोमन सरकार द्वारा उत्पीड़न और गिरफ्तारी का अनुभव किया था। कुछ तलवार से मारे गए थे, और अन्य को सूली पर उल्टा लटकाया गया था। उन्होंने स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया, अपने जीवन का उपयोग प्रभु यीशु के उद्धार की गवाही देने के लिए किया, जिससे उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिली। आज, कई भाई-बहन भी अंत के दिनों के परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने के लिए गिरफ्तार किए और सताए जाते हैं। वे यातना और मारपीट सहते हैं, जिसके कारण विकलांगता या यहाँ तक कि मौत भी हो जाती है, लेकिन वे परमेश्वर की गवाही में अडिग रहना चुनते हैं, मृत्यु में भी शैतान के आगे झुकने से इनकार कर देते हैं। ऐसी मृत्यु ही सार्थक होती है। हालाँकि इंसानी नजरिए से भौतिक शरीर मरते हैं, लेकिन उनकी आत्माएँ नहीं मरतीं। यह सब परमेश्वर की व्यवस्था के तहत होता है। परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपना जीवन अर्पित करना गवाही का सर्वोच्च रूप है। इस पर आत्म-चिंतन करते हुए, मैंने प्रबुद्ध महसूस किया। यह मौजूदा परिवेश परमेश्वर द्वारा मुझे परखने का तरीका था, यह देखने के लिए कि क्या इस प्रतिकूल परिस्थिति में मैं अपने कर्तव्य पूरे करना और अपनी गवाही में अडिग रहना चुनूँगी या मैं अपने कर्तव्यों को त्याग दूँगी और एक व्यर्थ जीवन जियूँगी। परमेश्वर मेरे रवैये और अभ्यासों को देख रहा था। प्रभु यीशु ने कहा था : “जो शरीर को घात करते हैं, पर आत्मा को घात नहीं कर सकते, उनसे मत डरना; पर उसी से डरो, जो आत्मा और शरीर दोनों को नरक में नष्‍ट कर सकता है(मत्ती 10:28)। “जो अपने प्राण बचाता है, वह उसे खोएगा; और जो मेरे कारण अपना प्राण खोता है, वह उसे पाएगा(मत्ती 10:39)। मेरा जीवन परमेश्वर के हाथों में है। भले ही शैतान मेरे शरीर को कैद कर उसे नुकसान पहुँचा दे, लेकिन वह मेरे भाग्य या गंतव्य को नियंत्रित नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन परमेश्वर के हाथों में है, हम जो कुछ भी अनुभव करते हैं, वह उसके द्वारा उचित रूप से व्यवस्थित किया जाता है। अगर मैं खुद को बचाने के लिए अपने कर्तव्य त्याग दूँ, तो यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात होगा और मैं उद्धार का अपना मौका खो दूँगी। परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया और वह मुझे इस दुनिया में लाया, इसलिए मुझे एक मिशन को पूरा करना है। सृष्टिकर्ता का अनुसरण करने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करने में सक्षम होने का मतलब है कि मेरा जीवन व्यर्थ नहीं गया! परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को प्रेरणा दी। भविष्य में चाहे जो हो, एक सृजित प्राणी के लिए सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। मैं अपना जीवन परमेश्वर को सौंपने, जो मैं कर सकती थी वह करने और अपने कर्तव्य पूरे करने को तैयार थी। बाद में, कलीसिया के जीवन को जल्दी से बहाल करने के लिए, हमने कलीसिया के उपयाजकों की एक सभा बुलाई। हमने संगति की कि विपत्ति के समय में अपने कर्तव्यों को कैसे निभाएँ, और उत्पीड़न और गिरफ्तारी से जूझने के दौरान परमेश्वर के इरादे क्या होते हैं, और हमने विभिन्न कार्यों को भी लागू किया। दो महीने बाद, भाई-बहनों का कलीसियाई जीवन धीरे-धीरे सामान्य हो गया।

नवंबर में एक दिन, हमें अचानक खबर मिली कि कलीसिया के अगुआ ली झोंग और पंद्रह दूसरे भाई-बहनों को पुलिस जबरन गिरफ्तार करके ले गई है। मुझे फिर से तनाव हो गया, और मुझे दानव सीसीपी के प्रति और भी अधिक घृणा महसूस हुई। अगली सुबह, हमने तुरंत सहकर्मियों के साथ परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के मुद्दे पर चर्चा की। चूँकि मैं ही एकमात्र व्यक्ति थी जो नए स्थान के बारे में जानती थी, यह निर्णय लिया गया कि मैं ही पुस्तकों को नई जगह पर ले जाऊँगी। लेकिन मैंने मन में सोचा, “इस यात्रा में हर जगह हमेशा वाहन और कैमरे लगे होते हैं, उनसे बचना असंभव है। अगर इस यात्रा के दौरान मेरा पता चल गया, तो यह अकाट्य सबूत होगा, और मुझे निश्चित रूप से सजा सुनाई जाएगी। अगर मुझे मौत की हद तक सताया गया तो क्या होगा? यह बहुत खतरनाक है! शायद किसी और को चले जाना चाहिए।” मैं यह सुझाव देने ही वाली थी कि मेरे शब्द मुँह में ही रह गए। इस महत्वपूर्ण क्षण में, मैं अभी भी अपनी निजी सुरक्षा के बारे में ही सोच रही थी। मैं किस तरह से वफादारी दिखा रही थी? मैं मौत से बहुत डरती थी! मेरा जीवन परमेश्वर के हाथों में है, मेरे अपने नियंत्रण में नहीं। मुझे परमेश्वर के प्रति वफादार होना चाहिए था। यह सोचते हुए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं बहुत स्वार्थी और नीच हूँ। मैं फिर से अपने कर्तव्यों को टालने की कोशिश कर रही थी। अब मैं अपना जीवन तुम्हें सौंपने के लिए तैयार हूँ। इस महत्वपूर्ण क्षण में अपने कर्तव्य पूरे करने और पुस्तकों को सुरक्षित ढंग से स्थानांतरित करने में मेरा मार्गदर्शन करो।” इस क्षण, मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “अपने कर्तव्य और जो तुम्हें करना है, और उससे भी बढ़कर, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश और तुम्हारे दायित्व, साथ ही वह महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे कर्तव्य से बाहर है, मगर उसे पूरा करने में तुम्हारी जरूरत है, ऐसे कार्य जिसकी व्यवस्था तुम्हारे लिए हुई है और जिसे करने के लिए तुम्हें नामित किया गया है—यह कितना भी कठिन क्यों न हो, तुम्हें इसकी कीमत चुकानी चाहिए। भले ही तुम्हें अपनी पूरी शक्ति से इसमें जुट जाना हो, भले ही उत्पीड़न सामने मंडरा रहा हो, और भले ही इससे तुम्हारा जीवन जोखिम में पड़ जाए, तुम्हें यह कीमत चुकाने में संकोच न करते हुए अपनी मृत्यु तक अपनी वफादारी दिखाकर समर्पण करना है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी। उस दिन मुझे जो कर्तव्य मिला, उसमें परमेश्वर का इरादा था, और मुझे गिरफ्तार किया जाएगा या नहीं, यह भी परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया गया था। चूँकि उस समय परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को स्थानांतरित करना मेरे लिए सबसे उपयुक्त था, इसलिए मुझे बिना शर्त समर्पित होना चाहिए। बाद में, सभी के सहयोग से, मैंने पुस्तकों को सफलतापूर्वक सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया।

इस अनुभव के माध्यम से, मुझे कुछ अंतर्दृष्टियाँ प्राप्त हुईं : जब मैं एक खतरनाक स्थिति में थी, तो परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और साहस प्रदान किया, जिससे मैं अपने कर्तव्यों में दृढ़ रह पाई। साथ ही, मैंने देखा कि मैं कितनी भयभीत थी और अपने जीवन को कितना महत्व देती थी। मुझे अपने स्वार्थी और लाभ से प्रेरित शैतानी स्वभाव के बारे में कुछ समझ प्राप्त हुई, और मृत्यु को अधिक स्पष्ट रूप से देखने पर मेरा भय कम हो गया। मैं परमेश्वर का अनुसरण करने और सार्थक जीवन जीने के लिए अपनी आस्था में और अधिक दृढ़ हो गई। ये अंतर्दृष्टियाँ मैं किसी आरामदायक परिवेश में प्राप्त नहीं कर सकती थी।

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