33. दुर्भाग्य में सौभाग्य की प्राप्ति

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब कोई व्यक्ति पीछे मुड़कर उस मार्ग को देखता है जिस पर वह चला था, जब कोई व्यक्ति अपनी यात्रा के हर एक चरण का स्मरण करता है, तो वह देखता है कि हर एक कदम पर, चाहे उसका मार्ग कठिन रहा था या सरल रहा हो, परमेश्वर उसके पथ का मार्गदर्शन कर रहा था, और उसकी योजना बना रहा था। ये परमेश्वर की कुशल व्यवस्थाएँ थी, और उसकी सतर्क योजना थी, जिन्होंने आज तक, अनजाने में, व्यक्ति की अगुवाई की है। सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करने, उसके उद्धार को प्राप्त करने में समर्थ होना—कितना बड़ा सौभाग्य है! ... जब किसी व्यक्ति का कोई परमेश्वर नहीं होता है, जब वह उसे नहीं देख सकता है, जब वह स्पष्ट रूप से परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं देख सकता है, तो हर एक दिन निरर्थक, बेकार, और दयनीय है। कोई व्यक्ति जहाँ कहीं भी हो, उसका कार्य जो कुछ भी हो, उसके जीवन जीने का अर्थ और उसके लक्ष्यों की खोज उसके लिए अंतहीन मर्मभेदी दुःख और असहनीय पीड़ा के सिवाय और कुछ लेकर नहीं आती है, कुछ इस तरह कि वह पीछे मुड़कर देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता है। जब वह सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करेगा, उसके आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करेगा, और सच्चे मानव जीवन की खोज करेगा, केवल तभी वह धीरे-धीरे सभी मर्मभेदी दुःख और पीड़ा से छूटकर आज़ाद होगा, और जीवन के सम्पूर्ण खालीपन से छुटकारा पाएगा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के इन वचनों में अपने जीवन का सटीक वर्णन देखकर मैं सचमुच प्रेरित हुई।

मेरा जन्म एक गरीब देहाती परिवार में हुआ था, इस कारण लोग हमेशा मुझे नीची नज़रों से देखते थे। मेरा परिवार गरीब था, कभी-कभी तो पता नहीं होता था कि अगले वक्त का खाना कहाँ नसीब होगा, मैं अपनी बहन के फटे-पुराने कपड़े पहना करती थी। कपड़े मुझ पर लहराया करते थे। मेरी सारी सहपाठी मेरा मज़ाक उड़ातीं, मेरे साथ उठने-बैठने से परहेज़ करतीं। मेरा बचपन वाकई कष्टों से भरा था। उस वक्त, मैंने संकल्प लिया : बड़ी होकर मैं बहुत सारा पैसा कमाऊँगी, अच्छी ज़िंदगी जिऊँगी, फिर कोई मुझे नीची नज़रों से नहीं देखेगा। मेरा घरवालों के पास पैसा न होने के कारण मुझे अपनी स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर अपने प्रांत की फार्मास्युटिकल फैक्टरी में काम करना पड़ा। मैं रात को दस-दस बजे तक जी-जान से काम करती ताकि कुछ ज़्यादा कमा सकूँ। बाद में मुझे पता चला कि मैं एक महीने में जितना कमाती हूँ, उतना तो मेरी बड़ी बहन पाँच दिन सब्ज़ियाँ बेचकर कमा लेती है। मैंने तुरंत फार्मास्युटिकल फैक्टरी की नौकरी छोड़कर सब्ज़ियाँ बेचने का फैसला कर लिया। शादी के बाद, मैंने और मेरे पति ने एक रेस्टॉरेंट खोल लिया। मुझे लगा मैं रेस्टॉरेंट खोलकर एक शानदार और इज़्ज़त की ज़िंदगी बसर कर पाऊँगी, दूसरे लोग मुझे सम्मान से देखेंगे। इस कारोबार में ज़बर्दस्त स्पर्धा थी, हम लोग पैसे बचाने के लिए एक से ज़्यादा बैरे नहीं रख सकते थे। मैंने जी-जान लगा दी, कभी रसोई में दौड़ती, कभी डाइनिंग हॉल में। कभी-कभी तो थककर चूर हो जाती। कुछ सरकारी अफसर आते, तो वो खाने का बिल नहीं देते, और फिर ऊपर से दुनिया भर के जुर्माने और टैक्स भरो। कभी-कभी तो वो लोग जुर्माना ठोकने के लिए कोई भी बहाना बना देते और दिन भर की कमाई लेकर निकल जाते। मैं बौरा गयी, लेकिन आप चीन में कुछ नहीं कर सकते। बस सिर झुका कर रहो। जी-तोड़ मेहनत करके भी, हम ज़्यादा कुछ नहीं कमा पाए। इतने समय तक कारोबार में रहकर, अब हमें चिंता होने लगी थी, मैं सोचती, "मैं ऐसा अच्छा जीवन कब जी पाऊँगी जब मेरे पास ढेर सारा पैसा होगा?"

2008 में, एक दोस्त ने कहा, जापान में तुम एक दिन में उतना कमा सकते हो जितना चीन में दस दिनों में कमाते हो। ये सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मुझे लगा आखिरकार अच्छा-खासा पैसा कमाने का मौका मिल ही गया। जापान जाने का इंतज़ाम करने वाले एजेंट की फीस काफी ज़्यादा थी, लेकिन मैंने सोचा, "बिना तकलीफ के कुछ नहीं मिलता। जैसे ही हमें जापान में काम मिलेगा, वो पैसा तो फौरन वसूल हो जाएगा।" अपने सपने पूरे करने के लिए मैंने और मेरे पति ने तुरंत जापान जाने का फैसला कर लिया। वहाँ पहुँचकर, हमें रोज़ 13-14 घंटे काम करना पड़ता था। हम थककर इतना चूर हो जाते कि बस मन करता कि बिस्तर पर पड़कर आराम करें। खाने का भी मन न करता। मेरी कमर में हर वक्त दर्द रहता, इतनी हैसियत नहीं थी कि डॉक्टर को दिखा पाऊँ, किसी तरह दर्द को काबू में रखने के लिए दर्दनाशक दवा खाती। दर्द के अलावा, बॉस की झाड़ पड़ती, सहकर्मी धौंस दिखाते। जब नयी-नयी नौकरी लगी थी तो एक बार मुझसे कोई छोटी-सी भूल हो गयी। मेरा बॉस मुझ पर पिल पड़ा, मैं तंग आकर रो पड़ी। मैं और कर ही क्या सकती थी? पैसा कमाने के लिए मैं अपने जज़्बात को दबाकर रखती। बार-बार खुद को समझाती, "अभी हालात मुश्किल ज़रूर हैं, लेकिन जब कुछ पैसा कमा लूँगी, तो लोगों की आँखों में आँखें डालकर बात कर सकूँगी। तब तक हिम्मत रखनी होगी।" इस तरह, मैं पैसा कमाने की मशीन बनी, दिन भर काम में जुटी रहती। 2015 में, मैं काम के बोझ से अचानक बीमार पड़ गयी। चेक-अप के लिए हॉस्पिटल गयी तो डॉक्टर बोला मेरी कमर की कोई नस दब गयी है, ऐसी हालत में काम करती रही तो बिस्तर पकड़ लूँगी और फिर संभलना मुश्किल हो जाएगा। मुझे जैसे करंट लगा हो, मैं एकदम से निढ़ाल हो गयी। चीज़ें ठीक होती हुईं और सपना साकार होता दिख रहा था... ऐसे में, ये मुसीबत आ गयी। मैं ये बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी, मैंने सोचा : "अभी मेरी उम्र ही क्या है। अगर मैं ठान लूँ तो इस मुसीबत से उबर सकती हूँ। अगर कुछ पैसा कमाए बिना खाली हाथ ही चीन वापस जाना पड़ा, तो क्या ये बड़ी शर्म की बात नहीं होगी?" मैंने कमर कसी और इसी हालत में फिर से काम में जुट गयी। अगर दर्द ज़्यादा बढ़ जाता, तो मैं कमर पर पट्टा बाँध लेती और किसी तरह काम करती रहती। दिन भर काम करने से रात को दर्द इतना बढ़ जाता कि मैं सो नहीं पाती। करवट लेना भी मुश्किल हो जाता। कुछ दिनों के बाद, हालत ये हो गयी कि बिस्तर से उठना मुश्किल हो गया।

बिस्तर पर पड़ी-पड़ी मैं खुद को बेबस और अकेला महसूस करती और सोचती, "इतनी कम उम्र में मैं यहाँ बिस्तर पर क्यों पड़ी हूँ? क्या बिस्तर में पड़े-पड़े ही दम तोड़ दूँगी?" मैं अपनी पीड़ा बयाँ नहीं कर सकती, यही सोचती रहती, "आखिर इंसान किन चीज़ों के लिए जीता है? सिर्फ पैसा कमाने और अलग दिखने के लिए? क्या पैसा सचमुच खुशी दे सकता है? क्या महज़ पैसे के लिए दिन-रात खटना जायज़ है?" तीस साल मैंने अपनी हड्डियाँ गलायी हैं, फैक्टरी में काम किया, सब्ज़ियाँ बेचीं, रेस्टोरेंट चलाया और काम के लिए ही जापान आयी। थोड़ा-बहुत पैसा ज़रूर कमाया, लेकिन मुसीबतें भी तो झेली हैं। पहले तो ये सोचा कि जापान आकर मेरे सपने पूरे हो जाएँगे, रातोंरात अमीर बनकर इज़्ज़त की ज़िंदगी जिऊँगी, लेकिन बदले में बिस्तर पकड़ लिया, और शायद बाकी का जीवन व्हीलचेयर पर गुज़रे। लेकिन ये सोचकर मुझे बेहद पछतावा हुआ कि पैसा कमाने और दूसरों से बेहतर दिखने के चक्कर में मैंने खुद को तबाह कर लिया। मुझे दुख हुआ, मैं टूट गयी और रो पड़ी। मैंने मन ही मन पुकार उठी : "हे परमेश्वर, मुझे बचा! मेरा जीवन इतना थकाऊ और तकलीफदेह क्यों है?"

बेबसी और पीड़ा के इस दौर में, मुझे परमेश्वर के अंत के दिनों के उद्धार का सहारा मिला। संयोग से मेरी मुलाकात परमेश्वर की विश्वासी दो बहनों से हुई। उनके साथ परमेश्वर के वचनों का पाठ करने और सत्य पर उनकी सहभागिता सुनने से, मुझे समझ में आया कि हर चीज़ परमेश्वर ने बनायी है। परमेश्वर ही पूरी कायनात पर शासन करता है, हर एक की नियति परमेश्वर के हाथों में है, परमेश्वर ही इंसान का मार्गदर्शन और पोषण करता है, वही इंसान की देखभाल और रक्षा करता है। लेकिन कुछ तो था जिसे लेकर मैं अभी भी असमंजस में थी। हमारी नियति परमेश्वर के नियंत्रण में है, परमेश्वर ही हमारा मार्गदर्शन और रक्षा करता आ रहा है, लिहाज़ा हमें खुश रहना चाहिए। लेकिन उसके बाद भी हमें दुख और बीमारी क्यों आती है? ज़िंदगी इतनी मुश्किल क्यों है? इतना सारा दुख आखिर आता कहाँ से है? मैंने ये सवाल बहनों से पूछा।

बहन किन ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के ये वचन पढ़कर सुनाए : "मनुष्य जीवन-भर जन्म, मृत्यु, बीमारी और वृद्धावस्था के कारण जो सहता है उसका स्त्रोत क्या है? किस कारण लोगों को ये चीज़े झेलनी पड़ीं? जब मनुष्य को पहली बार सृजित किया गया था तब ये चीजें नहीं थीं। है ना? तो फिर, ये चीज़ें कहाँ से आईं? वे तब अस्तित्व में आयीं जब शैतान ने इंसान को प्रलोभन दिया और उनकी देह पतित हो गयी। मानवीय देह की पीड़ा, उसकी यंत्रणा और उसका खोखलापन साथ ही मानवीय दुनिया की दयनीय दशा, ये सब तभी आए जब शैतान ने मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया। जब मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया, तब वह उसे यंत्रणा देने लगा। परिणामस्वरूप, मनुष्य अधिकाधिक अपभ्रष्ट हो गया। मनुष्य की बीमारियाँ अधिकाधिक गंभीर होती गईं, और उसका कष्ट अधिकाधिक घोर होता गया। मनुष्य, मानवीय दुनिया के खोखलेपन, त्रासदी और साथ ही वहाँ जीवित रहने में अपनी असमर्थता को ज़्यादा से ज़्यादा महसूस करने लगा, और दुनिया के लिए कम से कमतर आशा महसूस करने लगा। इस प्रकार, यह दुःख मनुष्य पर शैतान द्वारा लाया गया था" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर द्वारा जगत की पीड़ा का अनुभव करने का अर्थ')। और फिर उन्होंने ये संगति साझा की : "परमेश्वर ने जब इंसान को बनाया, तो इंसान ने उसकी बात सुनी और वो परमेश्वर के प्रति समर्पित हो गया। परमेश्वर ने उसका साथ दिया, उसकी देखभाल और रक्षा की। न कोई जन्म, न बुढ़ापा, न बीमारी, न मृत्यु, न चिंता, न परेशानी। इंसान बेपरवाह होकर अदन के बगीचे में ज़िंदगी जी रहा था, उसे परमेश्वर ने जो नियामतें बख्शी थीं, वो उनका भरपूर आनंद ले रहा था। वो परमेश्वर के मार्गदर्शन में प्रसन्नता और आनंद का जीवन जी रहा था। लेकिन शैतान ने इंसान को धोखे से भ्रष्ट कर दिया। इंसान ने उसकी झूठ पर भरोसा करके, पाप किया और परमेश्वर के साथ छल किया, ऐसा करके उसने परमेश्वर की देखरेख और सुरक्षा गँवा दी। तब से हम लोग शैतान के कब्ज़े में हैं और अंधकार में पड़े हैं। हम मेहनत-मशक्कत, चिंता और दुख-दर्द का जीवन जी रहे हैं। हज़ारों साल से, शैतान भौतिक सुख-सुविधा, नास्तिकता, क्रमिक विकास जैसे पाखंड और भ्रांतियों का इस्तेमाल करता आ रहा है, लोगों को भटकाने और नुकसान पहुँचाने के लिए प्रसिद्ध और बड़ी हस्तियों के सूत्र वाक्यों का प्रयोग कर रहा है, जैसे, जैसे 'संसार में कोई परमेश्वर नहीं है,' 'किसी व्यक्‍ति की नियति उसी के हाथ में होती है,' 'स्वर्ग उन लोगों को नष्ट कर देता है जो स्वयं के लिए नहीं हैं,' 'भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो,' और 'अमीर बनने के लिए इंसान कुछ भी कर सकता है,' 'दुनिया पैसों के इशारों पर नाचती है', वगैरह-वगैरह। इन शैतानी भ्रांतियों को स्वीकार कर, लोगों ने परमेश्वर के अस्तित्व और शासन को नकार दिया, परमेश्वर से दूरी बनाकर उसके साथ छल किया। इंसान का स्वभाव अहंकारी और दंभी हो गया है, वो स्वार्थी, चालाक और दुष्ट बन गया है। शोहरत, रुतबे और धन के लिए लोग षडयंत्र, लड़ाई-झगड़ा और हत्याएं कर रहे हैं। पति-पत्नी, यार-दोस्त एक-दूसरे से कपट और धोखा कर रहे हैं, यहाँ तक कि पिता-पुत्र और भाई-भाई दुश्मन बनकर एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं। हम लोग पूरी तरह से इंसानियत गँवा चुके हैं, इंसानों के बजाय जंगली जानवरों की तरह रह रहे हैं। शैतान की भ्रांतियों ने इंसान का बहुत नुकसान किया है। अपनी नियति को बदलने के इरादे से, लोग अपनी तकदीर से लड़ते हैं। ज़िंदगी भर लड़कर नियति तो बदल नहीं पाते, हाँ, इस कोशिश में खुद को ज़रूर तबाह कर लेते हैं। शैतान ने इंसान को भ्रमित और भ्रष्ट कर दिया है। हम दिन भर मेहनत-मशक्कत करके, देह और दिमाग को तोड़ डालते हैं। दुनिया भर की बीमारियाँ और कष्ट बढ़ रहे हैं। ये दुख और परेशानियाँ हमें एहसास दिलाती हैं कि इस दुनिया में जीना बहुत मुश्किल और थकाऊ है। ये सब शैतान द्वारा इंसान की भ्रष्टता के बाद ही हुआ है, शैतान हमें नुकसान पहुँचा रहा है, यह इंसान द्वारा परमेश्वर को नकारने और उसे धोखा देने का भी नतीजा है।"

बहन किन की संगति से मैंने जाना कि इंसान की बीमारी की मुख्य वजह शैतान है। शैतान से भ्रष्ट होने के बाद, हमने परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा को गँवा दिया, तमाम किस्म की बीमारियों और परेशानियों को दावत दे बैठे। फिर बहन ने कहा : "परमेश्वर शैतान द्वारा इंसान के साथ खिलवाड़ और उसकी दुर्गति सह नहीं पाता। उसने इंसान के छुटकारे और बचाव के लिए दो बार देहधारण किया। पहली बार, उसने प्रभु यीशु के तौर पर देहधारण किया, हमें पाप से छुटकारा दिलाने के लिए पापबलि के रूप में सूली पर चढ़ा। प्रभु यीशु में विश्वास रखकर हमारे पाप ज़रूर माफ़ कर दिए जाते हैं, लेकिन हमारी प्रकृति पापमयी ही रहती है, हम अभी भी पूरी तरह से पाप-मुक्त नहीं हुए हैं। परमेश्वर ने एक बार फिर से सत्य व्यक्त करने, न्याय और शुद्धिकरण का कार्य करने के लिए अंत के दिनों में इंसानों के बीच देहधारण किया है ताकि हम शैतान से पूरी तरह बचाए जा सकें और पाप को ख़त्म कर शुद्ध किए जा सकें, जिससे कि अंतत: हम परमेश्वर के राज्य में ले जाए जा सकें। परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़कर, हम सत्य का ज्ञान और विवेक प्राप्त कर सकते हैं। इससे हम लोग ये समझ पाएँगे कि शैतान किस तरह इंसान को भ्रष्ट करता है, उसके दुष्ट सार को भी हम जान पाएँगे। तब हम शैतान को नकारकर, उसके प्रभाव से बच सकते हैं, फिर शैतान हमारे साथ न तो खिलवाड़ कर सकेगा, न ही हमें नुकसान पहुँचा सकेगा।" मैं इस बात से रोमाँचित हो गयी कि परमेश्वर खुद हमें बचाने आया है। मैं नहीं चाहती थी कि शैतान इस तरह मुझे नुकसान पहुँचाता रहे, लेकिन मैं ठीक से समझ नहीं पायी कि वो मुझे किस तरह नुकसान पहुँचा रहा है, तो मैंने बहनों से पूछा : "मैंने दूसरों से बेहतर और अलग दिखने के लिए बहुत मेहनत की है, लेकिन इस कारण मुझे भयंकर दुख झेलने पड़े हैं। तो क्या ये सारी हरकतें शैतान की हैं?"

तब बहन झांग ने मेरे सवाल से जुड़े सर्वशक्तिमान परमेश्वर के ये वचन पढ़कर सुनाए। "शैतान बहुत ही धूर्त किस्म का तरीका चुनता है, ऐसा तरीका जो मनुष्य की धारणाओं से बहुत अधिक मिलता जुलता है; यह किसी प्रकार का अतिवादी मार्ग नहीं है, जिसके जरिए वह लोगों से अनजाने में जीवन जीने के उसके रास्‍ते को, जीने के उसके नियमों को स्वीकार करवाता है, और जीवन के लक्ष्यों और जीवन में अपनी दिशा को स्थापित करवाता है, और ऐसा करने से वे अनजाने में ही जीवन में महत्‍वाकांक्षाएं पालने लगते हैं। चाहे जीवन में ये महत्‍वाकांक्षाएं कितनी ही ऊँची प्रतीत क्यों न होती हों, वे 'प्रसिद्धि' और 'लाभ' से अविभाज्‍य रूप से जुडी होती हैं। कोई भी महान या प्रसिद्ध व्यक्ति, वास्तव में सभी लोग, वे जीवन में जिस किसी चीज़ का अनुसरण करते हैं वह केवल इन दो शब्दों से ही जुड़ा होता हैः 'प्रसिद्धि' एवं 'लाभ'। लोग सोचते हैं कि जब एक बार उनके पास प्रसिद्धि एवं लाभ आ जाए, तो वे ऊँचे रुतबे एवं अपार धन-सम्पत्ति का आनन्द लेने के लिए, और जीवन का आनन्द लेने के लिए इन चीजों का लाभ उठा सकते हैं। वे सोचते हैं कि प्रसिद्धि एवं लाभ एक प्रकार की पूंजी है, जिसका उपयोग करके वे मौजमस्‍ती और देहसुख का आनंद लेने का जीवन हासिल कर सकते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ, जो मनुष्‍य को इतना प्‍यारा है, के लिए लोग स्वेच्छा से, यद्यपि अनजाने में, अपने शरीरों, मनों, वह सब जो उनके पास है, अपने भविष्य एवं अपनी नियतियों को ले जा कर शैतान के हाथों में सौंप देते हैं ताकि उस प्रसिद्धि एवं लाभ को अर्जित कर सकें जिनकी उन्हें लालसा है। लोग वास्तव में इसे एक पल की हिचकिचाहट के बगैर सदैव करते हैं, और इस सब कुछ को पुनः प्राप्त करने की आवश्यकता के प्रति सदैव अनजान होकर ऐसा करते हैं। क्या लोगों के पास तब भी स्वयं पर कोई नियन्त्रण हो सकता है जब एक बार वे इस प्रकार से शैतान की शरण ले लेते हैं और उसके प्रति वफादार हो जाते हैं? कदापि नहीं। उन्हें पूरी तरह से और सर्वथा शैतान के द्वारा नियन्त्रित किया जाता है। साथ ही वे पूरी तरह से और सर्वथा दलदल में धंस गए हैं और अपने आप को मुक्त कराने में असमर्थ हैं। एक बार जब कोई प्रसिद्धि एवं लाभ के दलदल में पड़ जाता है, तो वह आगे से उसकी खोज नहीं करता है जो उजला है, जो धार्मिक है या उन चीज़ों को नहीं खोजता है जो खूबसूरत एवं अच्छी हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रसिद्धि एवं लाभ की जो मोहक शक्ति लोगों के ऊपर है वह बहुत बड़ी है, वे लोगों के लिए उनके पूरे जीवन भर और यहाँ तक कि पूरे अनंतकाल तक अनवरत अनुसरण करने की चीज़ें बन जाती हैं। क्या यह सत्य नहीं है? ... शैतान मनुष्य के विचारों को नियन्त्रित करने के लिए प्रसिद्धि एवं लाभ का तब तक उपयोग करता है जब तक लोग केवल और केवल प्रसिद्धि एवं लाभ के बारे में सोचने नहीं लगते। वे प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए कठिनाइयों को सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए जो कुछ उनके पास है उसका बलिदान करते हैं, और प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते वे किसी भी प्रकार की धारणा बना लेंगे या निर्णय ले लेंगे। इस तरह से, शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनके पास इन्हें उतार फेंकने की न तो सामर्थ्‍य होती है न ही साहस होता है। वे अनजाने में इन बेड़ियों को ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पाँव घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)

परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, उन्होंने सत्य पर संगति की कि किस तरह शैतान इंसान को भ्रष्ट करने के लिए शोहरत और लाभ का इस्तेमाल करता है। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि शैतान कितना घिनौना है! शैतान जीवन जीने के अपने नियमों को हमारे अंदर भरने के लिए औपचारिक शिक्षा और सामाजिक मान्यताओं का इस्तेमाल करता है, जैसे, "तुम जितना अधिक सहोगे, उतना अधिक सफल होगे," "अगर उस समय इज़्ज़त चाहिये जब लोग देख रहे हों, तो उस समय कष्ट उठाओ, जब लोग न देख रहे हों," और "दुनिया पैसों के इशारों पर नाचती है," इन नियमों के धोखे में आकर, लोगों को लगता है, पैसे के बिना जीना मुश्किल है, अगर उनके पास पैसा होगा, तो लोग उनकी इज़्ज़त करेंगे, उनकी प्रतिष्ठा होगी, और गरीब होने का मतलब निकम्मा होना है। इसलिए लोग पैसे, शोहरत और लाभ के लिए आजीवन संघर्ष करते हैं, और उन्हें पाने के लिए, नतीजे की परवाह किए बिना, किसी भी हद तक जाते हैं। लोग और अधिक भ्रष्ट होकर, अपने जीवन को नरक बना लेते हैं। और इस तरह, हम शैतान की बेड़ियों में जकड़े रहते हैं, यह हमें भ्रष्ट करने की शैतान की चाल है। दूसरों से बेहतर होने के संघर्ष और ज़्यादा पैसा कमाने की ललक ने, ताकि लोग मेरी इज़्ज़त करें, मुझे पैसा कमाने की मशीन बना दिया। मेरी ख्वाहिशें बढ़ती गयीं, मैं कभी संतुष्ट नहीं रही, और जब मेरी सेहत बर्बाद हो गयी, तब जाकर मैं मजबूरन शांत बैठी। मैं पैसे, शोहरत और लाभ की गुलाम बन चुकी थी। शोहरत और लाभ के पीछे भागकर, मैंने अपने जीवन को मुश्किल और थका देने वाला बना लिया था! इतने साल उन चीज़ों के पीछे भागकर, आखिरकार मैंने दुख और पीड़ा ही पायी। वो तमाम कष्ट शैतान द्वारा किये गए नुकसान और भ्रष्टता का नतीजा थे! परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के बिना, मैं कभी न जान पाती कि लोगों को भ्रष्ट करने के लिए शैतान पैसे, शोहरत और लाभ का इस्तेमाल करता है, ये जानना को दूर की बात है कि शोहरत और लाभ इंसान के लिए शैतान की बेड़ियाँ हैं।

उसके बाद, बहन किन संगति करने के लिए कई बार मेरे पास आयीं। समय के साथ, मैं इंसान को भ्रष्ट करने वाली शैतान की चालबाज़ियों को समझने लगी। मुझे यह बात भी समझ में आयी कि सबसे महत्वपूर्ण क्या है: परमेश्वर के वचनों को पढ़ना, सत्य पर चलना, और परमेश्वर के नियमों और व्यवस्थाओं को मानना। यह जीने का सबसे सार्थक, खुशनुमा तरीका है, यही एकमात्र मार्ग है जिसकी परमेश्वर सराहना करता है।

एक दिन, मुझे पता चला कि मेरी एक सहकर्मी अपने पति के साथ सिर्फ पैसा कमाने के मकसद से जापान आई हुई है। हालाँकि उन्होंने थोड़ा-बहुत पैसा ज़रूर कमाया था, लेकिन बाद में उसके पति की सेहत खराब हो गयी और पति को इलाज के लिए चीन वापस जाना पड़ा। उसे आखिरी चरण का कैंसर निकला। उसका परिवार भय और दुख में जी रहा था। उसकी बदकिस्मती में, मैंने जीवन की क्षणभंगुरता और मूल्य को गहराई से महसूस किया। अगर जीवन ही न रहे, तो धन का क्या फायदा? क्या पैसे से जीवन मिल सकता है? मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : "लोग धन-दौलत और प्रसिद्धि का पीछा करते हुए अपनी ज़िन्दगियाँ बिता देते हैं; वे इन तिनकों को मज़बूती से पकड़े रहते हैं, यह सोचते रहते हैं कि केवल ये ही उनका सहारा हैं, मानों कि उन्हें प्राप्त करके वे निरन्तर जीवित रह सकते हैं, और अपने आपको मृत्यु से बचा सकते हैं। परन्तु जब वे मरने के करीब होते हैं केवल तभी उनकी समझ में आता है कि ये चीज़ें उनसे कितनी दूर हैं, मृत्यु के सामने वे कितने कमज़ोर हैं, वे कितनी आसानी से चकनाचूर हो जाते हैं, वे कितने एकाकी और असहाय हैं, और कहीं नहीं भाग सकते हैं। उनकी समझ में आता है कि जीवन को धन-दौलत और प्रसिद्धि से नहीं खरीदा जा सकता है, कोई व्यक्ति कितना ही धनी क्यों न हो, उसका पद कितना ही ऊँचा क्यों न हो, मृत्यु का सामना होने पर सभी लोग समान रूप से कंगाल और महत्वहीन होते हैं। उनकी समझ में आता है कि धन-दौलत से जीवन को नहीं खरीदा जा सकता है, प्रसिद्धि मृत्यु को नहीं मिटा सकती है, यह कि न तो धन-दौलत और न ही प्रसिद्धि किसी व्यक्ति के जीवन को एक मिनट, या एक पल के लिए भी बढ़ा सकती है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना, अगर हम परमेश्वर में विश्वास न रखें या सत्य को न समझें, तो हम शैतान की चालबाज़ियों को समझ ही न पाएँ, हम जान ही न पाएँ कि शैतान इंसान को भ्रष्ट करने के लिए पैसे और शोहरत का इस्तेमाल करता है। हम एक ऐसे भँवरजाल में फँस जाते हैं जिससे निकल ही नहीं पाते। हम चाहते हुए भी, शैतान के हाथों इस कदर बेवकूफ़ बन जाते हैं कि अपना जीवन खुद ही बर्बाद कर लेते हैं। कैसी विडंबना है। अपनी आस्था और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने की वजह से, आखिरकार मैं इन चीज़ों को समझ गयी हूँ। अगर मुझमें आस्था न होती या मैंने परमेश्वर के वचन न पढ़े होते, तो मैं शैतान की भ्रष्टता से कभी भी दूर न हो पाती। मैं अंधकार और पीड़ा में ही संघर्ष कर रही होती और कभी न निकल पाती।

मेरी तकलीफ के दौरान, कलीसिया की बहनें मुझसे कई बार मिलने आती थीं और मेरे कष्टों को कम करने में मदद करती थीं। वो मेरे परिवार की तरह घर का काम भी कर देती थीं और मेरी देखभाल करती थीं। एक पराए देश में, उन बहनों की प्यार-भरी देखभाल ने मेरे दिल को छू लिया। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर की और भी आभारी हो गयी। परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा से, मैं कब ठीक हो गयी, मुझे पता भी नहीं चला।

फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "जब कोई व्यक्ति पीछे मुड़कर उस मार्ग को देखता है जिस पर वह चला था, जब कोई व्यक्ति अपनी यात्रा के हर एक चरण का स्मरण करता है, तो वह देखता है कि हर एक कदम पर, चाहे उसका मार्ग कठिन रहा था या सरल रहा हो, परमेश्वर उसके पथ का मार्गदर्शन कर रहा था, और उसकी योजना बना रहा था। ये परमेश्वर की कुशल व्यवस्थाएँ थी, और उसकी सतर्क योजना थी, जिन्होंने आज तक, अनजाने में, व्यक्ति की अगुवाई की है। सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करने, उसके उद्धार को प्राप्त करने में समर्थ होना—कितना बड़ा सौभाग्य है! यदि भाग्य के प्रति किसी व्यक्ति की प्रवृत्ति निष्क्रिय है, तो इससे साबित होता है कि वह हर एक चीज़ का विरोध कर रहा है या कर रही है जो परमेश्वर ने उसके लिए व्यवस्थित की है, और यह कि उसकी विनम्र प्रवृत्ति नहीं है। यदि मनुष्य के भाग्य के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति किसी व्यक्ति की प्रवृत्ति सक्रिय है, तो जब वह अपनी यात्रा को पीछे मुड़कर देखता है, जब सचमुच में परमेश्वर की संप्रभुता उसकी समझ में आने लगती है, तो वह और भी अधिक ईमानदारी से हर उस चीज़ के प्रति समर्पण करना चाहेगा जिनकी परमेश्वर ने व्यवस्था की है, उसके पास परमेश्वर को उसके भाग्य का आयोजन करने देने, और परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह रोकने के लिए और अधिक दृढ़ संकल्प और आत्मविश्वास होगा। क्योंकि वह देखता है कि जब वह भाग्य को नहीं बूझता है, जब वह परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझता है, जब वह जानबूझकर अँधेरे में टटोलते हुए आगे बढ़ता है, कोहरे के बीच लड़खड़ाता और डगमगाता है, तो यात्रा बहुत ही कठिन, और बहुत ही मर्मभेदी होती है। इसलिए जब लोग मनुष्य के भाग्य के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता को पहचान जाते हैं, तो चतुर मनुष्य, स्वयं के तरीके से भाग्य के विरुद्ध लगातार संघर्ष करने और जीवन के अपने तथाकथित लक्ष्यों की खोज करने के बजाय, इसे जानना और स्वीकार करना, उन दर्द भरे दिनों को अलविदा कहना चुनते हैं जब उन्होंने अपने दोनों हाथों से एक अच्छे जीवन का निर्माण करने का प्रयास किया था। जब किसी व्यक्ति का कोई परमेश्वर नहीं होता है, जब वह उसे नहीं देख सकता है, जब वह स्पष्ट रूप से परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं देख सकता है, तो हर एक दिन निरर्थक, बेकार, और दयनीय है। कोई व्यक्ति जहाँ कहीं भी हो, उसका कार्य जो कुछ भी हो, उसके जीवन जीने का अर्थ और उसके लक्ष्यों की खोज उसके लिए अंतहीन मर्मभेदी दुःख और असहनीय पीड़ा के सिवाय और कुछ लेकर नहीं आती है, कुछ इस तरह कि वह पीछे मुड़कर देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता है। जब वह सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करेगा, उसके आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करेगा, और सच्चे मानव जीवन की खोज करेगा, केवल तभी वह धीरे-धीरे सभी मर्मभेदी दुःख और पीड़ा से छूटकर आज़ाद होगा, और जीवन के सम्पूर्ण खालीपन से छुटकारा पाएगा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर का वचन बहुत व्यवहारिक है, हर वाक्य गहराई से मेरे दिल को छूता है। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि परमेश्वर ही सृष्टिकर्ता है और हम उसके सृजित प्राणी हैं। हर इंसान का जीवन परमेश्वर के हाथों में है, उसी के नियंत्रण और व्यवस्था के अधीन है। हम जो कुछ भी पाते हैं, वो परमेश्वर के नियंत्रण में है और उसी के द्वारा पूर्वनियत है। यह यकीनन इधर-उधर भाग-दौड़ करने से तय नहीं होता। परमेश्वर जितना देता है, हमें उतना ही मिलता है। अगर परमेश्वर हमें कुछ न दे, तो हम चाहे जितना काम कर लें, सब बेकार है। यह इस कहावत की तरह है "बीज इंसान बोता है, मगर फसल परमेश्वर तय करता है।" "परमेश्वर की इच्छा के आगे, इंसान दुर्बल है।" हमें सृष्टिकर्ता के नियमों और व्यवस्थाओं के आगे सिर झुका देना चाहिए। खुशहाल जीवन का यही राज़ है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि पैसा और रुतबा दुनियावी चीज़ें हैं। शोहरत और लाभ के पीछे भागते रहने से, अंत में इंसान के हाथ खालीपन और पीड़ा ही लगती है। अंतत: आपको शैतान नष्ट कर देता है। मैंने विचार किया कि किस तरह मैं इन शैतानी फलसफों के सहारे जी रही थी, "तुम जितना अधिक सहोगे, उतना अधिक सफल होगे," मैं पैसे और शोहरत के पीछे भाग रही थी। मुझे लगता था कि मेरा जीवन खुशहाल हो जाएगा, लोग मुझे इज़्ज़त से देखेंगे और मुझसे ईर्ष्या करेंगे, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि इन चीज़ों के बजाय मुझे पीड़ा और कड़वाहट मिलेगी, मेरे जीवन में कोई शांति और सुख नहीं था। अब मुझे परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, परमेश्वर की इच्छा समझ में आयी। अब मैं अपनी नियति से लड़ना नहीं चाहती, न ही शोहरत और लाभ के पीछे भागना चाहती हूँ। अब मुझे ऐसा जीवन नहीं चाहिए। मैंने जीवन की अलग राह लेने की ठानी, मैंने बस इतना चाहा कि मैं अपने शेष जीवन की व्यवस्था परमेश्वर के हाथों में सौंप दूँ, मैं परमेश्वर के आज्ञापालन का प्रयास करूँ और अपने कर्तव्य का निर्वहन करूँ।

मैंने अपनी आस्था को अधिक समय देने और सभाओं में शामिल होने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी और एक नयी और आसान-सी नौकरी ले ली। अब जब काम नहीं कर रही होती हूँ, तो मैं परमेश्वर के वचन पढ़ा करती हूँ, मैं जितना अधिक पढ़ती हूँ, मेरा दिल उतना ही अधिक रोशन होता है। मैंने इंसान के पापों के मूल को भी जान लिया है। मैंने जाना कि कैसे परमेश्वर धीरे-धीरे इंसान को बचाता है, इंसान के जीवन का लक्ष्य क्या हो, और उसे कैसे एक सार्थक जीवन जीना चाहिए। मैं अपने अनुभव साझा करने और परमेश्वर के वचनों के भजन गाने के लिए अक्सर भाई‌-बहनों से मिलती-जुलती हूँ। मेरा जीवन अब बेहद खुशहाल है। मैं पहले जितना तो नहीं कमाती, लेकिन मुझे शांति और स्थिरता का अनुभव होता है जो पहले कभी नहीं हुआ। अब जब पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो लगता है, मैंने दुर्भाग्य में सौभाग्य पाया है! यह सचमुच मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार है।

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