85. अपनी सच्चाइयों के साथ कैसे पेश आना चाहिए
नवंबर 2017 में, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। जब मैंने पहली बार भाई-बहनों के साथ सभा या चर्चा करनी शुरू की थी, तो मैं अपने विचार साझा कर पाती थी, और मेरी संगति में भी थोड़ी रोशनी थी। भाई-बहनें मेरे बारे में काफी ऊँचा सोचते और मुझसे आदर के साथ पेश आते थे। तो मुझे लगा मैं बड़ी खास हूँ और इस बात से बहुत खुश थी। कुछ समय बाद, मैंने देखा कि मेरी साथी, बहन वेंडी, मुझसे बहुत बेबाकी से बात करती है, और कभी-कभी जैसे ही उसे मेरी कोई गलती नजर आती तो मुझे साफ-साफ बता देती। जैसे कि जब मैंने कलीसिया के सामान्य मामलों पर ध्यान नहीं दिया, तो उसने मुझे बताकर उन बातों पर ध्यान देने को कहा। मगर मुझे लगा मेरी इज्जत थोड़ी कम हो गई, तो मैंने कह दिया कि आगे से ध्यान दूँगी, वरना लोगों के सामने मेरी छवि खराब हो जाएगी। मगर मैं इस मामले में काफी कमजोर थी—या तो मैं कुछ चीजों पर ध्यान ही नहीं दे पाती थी, या अगर ध्यान दिया, तो नहीं जानती थी कि उन्हें करना कैसे है। बाद में, जब वेंडी ने इस समस्या के बारे में मुझे कई बार और बोला, तो मैंने कह तो दिया कि आगे से ध्यान दूँगी, पर असल में सोच रही थी : “सभी ने हमेशा कहा है कि मैं अपने कर्तव्य में बोझ उठाती हूँ, फिर भी वेंडी इस तरह मेरी आलोचना कर रही है। पता नहीं दूसरे अब मेरे बारे में क्या सोचेंगे।” लगा जैसे वेंडी मेरी समस्याओं पर कड़ी नजर रख रही है, वह मुझे नीची नजर से देखती है, तो मेरा उसे नजरंदाज करने का मन हुआ। कभी-कभी जब हम काम की चर्चा कर रहे होते और मैं कोई विचार बताती, तो वेंडी मुझे साफ बोल देती कि उसे यह विचार सही नहीं लगा। कभी-कभी उसका लहजा गलत होता और वह मुझे मुश्किल में डाल देती। मुझे वो बहुत गुस्से वाली लगी और उसे मेरी इज्जत की कोई कद्र भी नहीं थी। मुझे लगा उसकी मानवता खराब है और उसके साथ मिलकर रहना आसान नहीं है। कई बार मैं वेंडी से बात करने की कोशिश करती या जब वो फोन पर होती तो उसे खाना खाने के लिए बुलाती, तो वह तुरंत जवाब नहीं देती, जिससे मुझे और भी यकीन हो गया कि उसकी मानवता खराब है और वह बहुत रूखी है, तो उससे बात करने में मेरी दिलचस्पी और कम हो गई। अन्य दो बहनों के साथ मैं बड़ी आसानी से मिलकर काम कर पाती थी। मैं समझ सकती थी कि वो मेरे बारे में ऊँचा सोचती हैं, जब हम काम या अपनी वर्तमान मनोदशाओं के बारे में बात करते तो वे मुझसे आदर के साथ बात करती थीं। मुझे समझ आता था कि वेंडी मेरे साथ मिलकर काम करना चाहती है, मुझे उनसे बात करके या काम की चर्चा करके बहुत अच्छा लगता था। मैं जितना उनसे बातचीत करती, उतना ही लगता कि वेंडी के साथ रहना मुश्किल है, और मैं जितना हो सके उससे दूरी बनाए रखती थी। दरअसल मुझे लगा कि वेंडी मेरे साथ मिलकर काम करना चाहती थी, वो चीजों पर चर्चा करने के लिए मेरे पास आती थी, पर मैं अनमने ढंग से जवाब देती, और उसके करीब नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि मुझे लगता कि उसकी मानवता खराब थी। कभी-कभी, मेरे मन में कुछ बुरे विचार आते, “वेंडी हमारे समूह में नहीं होती तो ही बेहतर होता, तब मेरी खामियाँ निकालने वाला कोई नहीं होता।” मुझे याद है एक बार कलीसिया अगुआ के सालाना चुनाव के दौरान, मैंने वेंडी के चुनावी नतीजों पर कड़ी नजर रखी हुई थी। मैंने मन में सोचा : “ऐसा नहीं हो सकता कि वो अपनी खराब मानवता के साथ चुनाव जीत जाए।” मगर मुझे हैरानी हुई, जब सबने कहा कि उसने अपने कर्तव्य में बोझ उठाया और बहुत जिम्मेदार भी थी। किसी ने भी उसकी मानवता के साथ कोई गंभीर समस्या होने को लेकर कुछ नहीं कहा। ऊपरी अगुआओं ने भी यही कहा कि वेंडी सही इंसान है। मैं बड़ी उलझन में थी : “तो कोई भी वेंडी को पहचान नहीं पाया? वो इतनी अहंकारी है और लोगों की कमजोरियाँ गिनाना पसंद करती है—जो खराब मानवता के साफ लक्षण हैं।” मैं वाकई उसके साथ फिर से काम नहीं करना चाहती थी, मगर जब नतीजे सामने आए, तो पता चला हम दोनों को अगुआ चुना गया था। जब मैंने इस बारे में सोचा तो मुझे बहुत दबाव महसूस हुआ कि कैसे आगे चलकर मुझे वेंडी के साथ काम करना होगा। इसके बाद, मैं काम की चर्चा के लिए शायद ही कभी वेंडी के पास जाती। ज्यादातर वेंडी ही मेरे पास आती और जहाँ तक संभव होता मैं हमारी बैठक टाल देती। मैं उसके साथ तभी चर्चा करती जब चीजों को और टाल नहीं सकती थी, मैं उसे खुलकर अपने दिल की बात नहीं कहना चाहती थी।
एक बार, दो भाइयों ने वेंडी की किसी समस्या की शिकायत की। उन्होंने कहा कि वो जीवन प्रवेश पर बहुत कम संगति करती और काम पर ज्यादा ध्यान देती थी। मुझे एहसास हुआ कि जब से मैंने वेंडी के साथ काम शुरू किया, वो जीवन प्रवेश के बारे में बहुत कम बोलती थी, और सभाओं में भी सक्रियता से संगति नहीं करती थी। मैं उसकी वास्तविक स्थिति को समझने या उसके साथ संगति करने की परवाह किए बिना, फौरन दो उपयाजकों को इस समस्या के बारे में बता दिया। वैसे तो, मैं बस उसकी समस्या पर चर्चा कर रही थी, पर वास्तव में मैं यह कहना चाहती थी : “वेंडी कलीसिया अगुआ है, अगर वो सिर्फ काम पर ध्यान देती है और समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करने पर जोर नहीं देती, तो वह इस भूमिका के लिए सही नहीं है।” उस वक्त मैं अपने निजी इरादों के दबाव में बोल रही थी। उपयाजक मेरे साथ सहमत थे कि वेंडी जीवन प्रवेश को अहमियत नहीं देती है और कलीसिया अगुआ बनने के काबिल नहीं है। मैंने उनसे यह भी कहा : “वेंडी बहुत घमंडी है, और जब बोलती है तो दूसरों की भावनाओं का ख्याल नहीं रखती है, जिससे लोग बेबस हो जाते हैं।” जैसे ही मैंने यह कहा, दूसरी बहन भी कहने लगी कि वेंडी ने हाल ही में उसकी खामियाँ बताई थी और उसे काफी असहज महसूस हुआ था। इससे और भी अच्छी तरह साबित हो गया कि वेंडी की मानवता में समस्या थी। फिर मैंने कहा : “वेंडी की मानवता खराब है और वो बहुत रूखी है।” फिर मैंने उन्हें इसके कुछ उदाहरण बताए। भले ही मुझे यह बताते हुए थोड़ा बुरा लगा, जब मैंने याद किया कि कैसे वेंडी ने मुझे बेबस किया, मुझे यकीन था कि उसके साथ कोई समस्या जरूर थी। मेरी बात सुनने के बाद, दोनों उपयाजक भी सहमत थे कि वेंडी की मानवता खराब थी। वे भी निजी तौर पर वेंडी की आलोचना करने लगे, और जब हमारी ऑनलाइन सभाएँ होतीं, जब वेंडी संगति कर रही होती तो हम एक-दूसरे को संदेश भेजते, कि वेंडी का जीवन प्रवेश और संगति कितनी बुरी थी। एक बार, एक उपयाजक और दूसरी बहन मेरी वर्तमान मनोदशा के बारे में मुझसे बात करने आए। जब उन्होंने मुझसे पूछा कि वेंडी के साथ मेरी भागीदारी कैसी चल रही है, तो मैंने कहा : “वो काफी घमंडी है, उसका लहजा ठीक नहीं है और कभी-कभी उससे बात करती हूँ तो वो मुझे नजरंदाज करती है। वो बहुत रूखी है और मैं उससे बेबस महसूस करती हूँ।” उस वक्त इन दोनों बहनों को मेरी पहचान नहीं थी और उन्होंने कहा कि वो ऊपरी अगुआ से बात करेंगी। आखिर, वेंडी एक कलीसिया अगुआ थी, अगर उसमें कोई समस्या हुई तो उसका असर कलीसिया के कार्य पर पड़ेगा। यह सुनकर मैंने सोचा : “अगर ऊपरी अगुआ ने उसे हटा दिया, तो मुझे उसके साथ और काम नहीं करना पड़ेगा।” अगले दिन ऊपरी अगुआ के साथ हमारी एक बैठक हुई जिसमें मैंने वेंडी की समस्याओं को सामने रखा, मैंने उसके खराब जीवन प्रवेश और खराब मानवता का जिक्र किया और बताया कि मैं उससे बेबस महसूस करती हूँ। उन दो बहनों ने भी अपनी अपनी बात रखी। ऊपरी अगुआ यह सब सुनकर थोड़ी हैरान थी—उन्होंने कहा कि वो वेंडी को जानती थी, मगर उन्हें नहीं पता था कि वो ऐसी होगी। उन्होंने इस मामले की छानबीन करने का वादा किया।
कुछ ही दिन बाद ऊपरी अगुआ ने मुझे बताया कि जिस तरह मैं वेंडी के साथ पेश आई, जैसे मैंने उसके खिलाफ लोगों को खड़ा किया, चोरी-छिपे उसे उसे कमजोर करने की कोशिश की, उसकी आलोचना की, और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई, उससे स्पष्ट था कि मेरी मानवता खराब थी, मैं विकसित करने लायक नहीं थी, और सिद्धांतों के अनुसार, मुझे हटा दिया जाना चाहिए। मैं हैरान रह गई—मैंने कभी नहीं सोचा था कि ये सब हो जाएगा। “लोगों को खड़ा करना,” “चोरी-छिपे उसे कमजोर करना,” “आलोचना करना,” “खराब मानवता,” “विकसित करने लायक नहीं,” ये चित्रण मुझे ईंटों की बौछार जैसे लगे। मुझे यकीन नहीं हुआ, मैं इसे स्वीकारने को तैयार नहीं थी। मुझे कुछ समझ नहीं आया : बचपन से ही, सब मेरे बारे में अच्छा सोचते थे। ऐसा कैसे हो सकता है कि अब वो मुझे खराब मानवता वाला बता रही है? क्या मैंने कुछ गलत सुना? उजागर और गहन-विश्लेषण किए जाने की प्रक्रिया किसी बुरे सपने जैसी थी, और मैं बेहद पीड़ा में थी।
अगुआ पद से हटाए जाने के बाद, जो हुआ मैं उसका सामना नहीं करना चाहती थी। मैं अपनी मानवता की ऐसी आलोचना स्वीकार नहीं कर सकी, मुझे नहीं लगा कि मैं ऐसी इंसान थी और मैंने आत्म-चिंतन करने की परवाह तक नहीं की। जब मैंने अपने हटाए जाने पर चर्चा की, तो हालात की गंभीरता पर विचार नहीं किया, कहा कि लोग हमेशा यही कहते हैं कि मेरी मानवता अच्छी है, मैं दयालु और बात समझने वाली हूँ। मेरा मतलब था कि यह सब बस एक गलती थी और यह मेरी वास्तविक प्रकृति को नहीं दर्शाता था। इसके बाद, कई बार मेरी अगुआ ने मुझे कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य सौंपने की सोची, पर मेरी खराब मानवता के कारण आखिर में अपना फैसला बदल लिया। इससे मुझे बहुत बुरा लगा, मैंने रोते हुए परमेश्वर से कहा : “हे परमेश्वर, क्या सच में मेरा कुछ नहीं हो सकता? क्या मेरी मानवता सच में इतनी खराब है? मेरी मदद करो कि मैं खुद को पहचान सकूँ। मैं आत्म-चिंतन के लिए तैयार हूँ।” प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “अपने दैनिक जीवन में तुम लोगों का दिल किन मामलों में परमेश्वर का भय मानता है? और किन मामलों में नहीं? जब कोई तुम्हें ठेस पहुँचाता है या तुम्हारे हितों का अतिक्रमण करता है तो क्या तुम उससे नफरत कर पाते हो? और जब तुम किसी से नफरत करते हो, तो क्या उसे दंडित कर बदला लेने में सक्षम हो? (हाँ।) फिर तो तुम बहुत डरावने हो! अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है, और तुम बुरे काम करने में सक्षम हो, तो तुम्हारा यह दुष्ट स्वभाव बहुत ज्यादा गंभीर है! प्रेम और नफरत ऐसे गुण हैं जो एक सामान्य इंसान में होने चाहिए, लेकिन तुम्हें साफ तौर पर यह भेद पता होना चाहिए कि तुम किन चीजों से प्रेम करते हो और किनसे नफरत। अपने दिल में, तुम्हें परमेश्वर से, सत्य से, सकारात्मक चीजों और अपने भाई-बहनों से प्रेम करना चाहिए, जबकि दानवों और शैतान से, नकारात्मक चीजों से, मसीह-विरोधियों से और बुरे लोगों से नफरत करनी चाहिए। अगर तुम नफरत वश अपने भाई-बहनों को दबाकर उनसे बदला ले सकते हो तो यह बहुत भयावह होगा और यह दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव है। कुछ लोगों में केवल नफरत और दुष्टता के सोच-विचार आते हैं, लेकिन वे लोग कभी कोई दुष्टता नहीं करते। ये बुरे लोग नहीं हैं क्योंकि जब कुछ घटित होता है तो वे सत्य को खोजने में सक्षम होते हैं, और अपने आचरण में और चीजों से निपटने के तरीके में सिद्धांतों का ध्यान रखते हैं! दूसरों से बातचीत करते समय जितना पूछना चाहिए, वे उससे ज्यादा नहीं पूछते हैं; अगर उस व्यक्ति के साथ उनकी पटरी बैठ रही है तो वे बातचीत जारी रखते हैं; अगर पटरी नहीं बैठती तो बातचीत नहीं करेंगे। इसका असर न तो उनके कर्तव्यों पर पड़ता है, न जीवन-प्रवेश पर। उनके दिल में परमेश्वर है और उनका दिल परमेश्वर का भय मानता है। उनमें परमेश्वर के अपमान की इच्छा नहीं होती और वे ऐसा करने से भी डरते हैं। हालांकि ऐसे लोगों के अंदर कुछ गलत सोच-विचार हो सकते हैं, लेकिन वे उन विचारों के खिलाफ विद्रोह कर उनका परित्याग कर सकते हैं। वे अपने कार्य-कलापों पर लगाम लगाकर रखते हैं और ऐसी कोई बात नहीं बोलते जो अनुचित हो या परमेश्वर का अपमान करती हो। जो लोग इस तरह से बोलते और पेश आते हैं, वे सिद्धांत वाले होते हैं और सत्य का अभ्यास करते हैं। हो सकता है कि तुम्हारा व्यक्तित्व किसी और से मेल न खाए, और तुम उसे पसंद भी न करो, लेकिन जब तुम उसके साथ मिलकर काम करते हो, तो तुम निष्पक्ष रहते हो और अपना कर्तव्य निभाने में अपनी भड़ास नहीं निकालते, या परमेश्वर के परिवार के हितों पर अपनी चिढ़ नहीं दिखाते; तुम सिद्धांतों के अनुसार मामले संभाल सकते हो। यह कौन-सी अभिव्यक्ति है? यह परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होने की अभिव्यक्ति है। अगर तुममें इससे थोड़ी अधिक श्रद्धा है तो जब तुम यह देखते हो कि किसी व्यक्ति में कुछ कमियाँ या कमजोरियाँ हैं, तो भले ही उन्होंने तुम्हें ठेस पहुंचाई हो या वे तुम्हारे प्रति पूर्वाग्रह रखते हों, फिर भी तुम उनके साथ सही व्यवहार करते हो और प्यार से उनकी मदद करते हो। इसका मतलब है कि तुममें प्रेम है, तुममें इंसानियत है, तुम दयालु हो और सत्य का अभ्यास करते हो, तुम एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति हो जिसमें सत्य वास्तविकताएँ हैं और जिसका दिल परमेश्वर का भय मानता है। यदि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, लेकिन तुममें इच्छा है, तुम सत्य के लिए प्रयास करने को तैयार हो, सिद्धांत के अनुसार कार्य करने को तैयार हो, चीजों से निपट सकते हो और लोगों के साथ सिद्धांत के अनुसार व्यवहार कर सकते हो, तो इसे भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल ही माना जाएगा; यह बहुत ही बुनियादी बात है। यदि तुम इसे भी प्राप्त नहीं कर सकते, और अपने-आपको रोक नहीं सकते हो, तो तुम्हें बहुत खतरा है और तुम काफी भयावह हो। यदि तुम्हें कोई पद दिया जाए, तो तुम लोगों को दंडित कर सकते हो और उनके लिए जिंदगी को कठिन बना सकते हो; फिर तुम किसी भी क्षण मसीह-विरोधी में बदल सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि जिनके दिल में परमेश्वर का भय होता है वे बिना सोचे-समझे नहीं बोलते या कार्य नहीं करते। भले ही उनके हितों को दूसरों से खतरा हो, वे परमेश्वर को नाराज करने के डर से लोगों पर हमला या उनका बहिष्कार नहीं करेंगे। परमेश्वर का भय न मानने वालों के दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं होती, इसलिए वो जो चाहे वो कहते और करते हैं। जो भी उनके हितों के लिए खतरा बनता है वे उन्हें सबक सिखाते और बदला लेते हैं। परमेश्वर इसे एक बुरे व्यक्ति का स्वभाव बताता है। “बुरे व्यक्ति का स्वभाव” ये शब्द मेरे दिल को चुभ गए, और वेंडी के साथ हुई मेरी हरेक बातचीत के दृश्य एक-एक कर याद आने लगे। वह काफी खुलकर बात करती थी, अक्सर कुछ सलाह देती और मेरे कर्तव्य में मेरी खामियाँ बताती थी, जिससे मुझे लगता मेरी इज्जत कम हो गई है। इसलिए मुझे लगा कि वेंडी की मानवता खराब है और उसके साथ काम करना मुश्किल है। कभी-कभी वेंडी से बात करते समय जब उसने तुरंत जवाब नहीं दिया, तो मेरा यकीन और पक्का हो गया कि उसकी मानवता खराब है और मैं उसे ज्यादा नापसंद करने लगी। जब मैंने किसी को कहते सुना कि वह जीवन प्रवेश पर ध्यान नहीं देती है, तो मैंने इसके संदर्भ और उसके हमेशा के व्यवहार पर विचार नहीं किया, बल्कि मौके का फायदा उठाकर अपने साथियों से उसकी शिकायत की। मैंने उनसे कहा कि वेंडी कार्य पर ध्यान देती है न कि जीवन प्रवेश पर, और वह अगुआ बने रहने लायक नहीं है। मैं वेंडी को अलग-थलग करने के लिए उन्हें अपनी तरफ करना चाहती थी। अब सोचती हूँ तो लगता है वेंडी कलीसिया के सुसमाचार कार्य की सुपरवाइजर होने के नाते बहुत दबाव में थी। उसे बहुत सारे काम संभालने होते थे और कभी-कभार जब काम में समस्याएँ आतीं और अच्छे परिणाम नहीं मिलते तो वह परेशान हो जाती थी। सिर्फ काम के बारे में बातें करना और सत्य सिद्धांतों पर संगति करने पर ध्यान न देना उसके कर्तव्य में एक भटकाव था। इसका मतलब यह नहीं कि वो कर्तव्य के लायक ही नहीं है। मगर मैंने वेंडी को हटाने के इरादे से उसके बारे में राय बना ली ताकि मुझे उसके साथ और काम न करना पड़े। क्या मैं उसे दंड देने की कोशिश नहीं कर रही थी? यही नहीं, हर किसी की मनोदशा कभी न कभी बुरी होती है। ऐसा कौन है जो हर वक्त खुश रह सकता है? आखिर वेंडी काम में व्यस्त रहती थी, तो उसका मुझ पर ध्यान न दे पाना सामान्य बात थी, जो मुझे समझना चाहिए था। मगर मैंने इस बात का बतंगड़ बना दिया कि उसने मुझे नजरंदाज किया, और मान बैठी कि उसकी मानवता खराब है और वह बहुत रूखी है। वास्तव में ऐसा नहीं था—मैं बिना सोचे-समझे उस पर कलंक लगाकर उसकी निंदा कर रही थी। मैंने ये विचार दूसरी बहनों में भी फैला दिए, जिससे वे वेंडी के बिलकुल खिलाफ सोचने लगीं। उन्होंने पीठ-पीछे वेंडी की आलोचना करने में मेरा साथ दिया और अपने कर्तव्यों पर ध्यान देना बंद कर दिया। मेरा स्वभाव वाकई दुष्ट रहा होगा जो मैंने यह सब किया। जब वेंडी की कथनी और करनी से मेरे हितों और प्रतिष्ठा पर खतरा आया, तो मैंने उसकी निंदा की, उस पर हमला किया और उससे बदला लिया। मैंने देखा कि मेरे दिल में परमेश्वर का भय जरा भी नहीं था। कलीसिया अगुआ होने के नाते, न सिर्फ मैं भाई-बहनों के साथ अच्छे से काम करने और सिद्धांत के अनुसार कर्तव्य निभाने में नाकाम रही, बल्कि मैंने कुकर्म किया और कलीसिया के कार्य में भी रुकावट डाली। मैं वाकई ऐसा महत्वपूर्ण कार्य करने लायक नहीं थी। मैं सोचती थी मेरी मानवता बहुत अच्छी है, मैं दयालु और समझदार हूँ, पर ऐसा बस इसलिए था क्योंकि दूसरों से मेरे हितों को खतरा नहीं था। जैसे ही ऐसा हुआ, मेरी दुष्ट प्रकृति उजागर हो गई और मैंने लोगों की आलोचना की, उन पर हमला किया और बदला लिया। इसका एहसास होने पर ही मैं देख पाई कि मेरी मानवता खराब थी। परमेश्वर की धार्मिकता से ही मुझे पद से हटाया गया, मैं उसी के लायक थी। उसके बाद, मैंने भाई-बहनों को खुलकर सब बताया, मेरे क्रियाकलापों के पीछे के इरादों का गहन-विश्लेषण किया और खुद के बारे में अपने विचार और जानकारी दूसरों के साथ साझा की। सभी भाई-बहनों ने मेरा हौसला बढ़ाया। उन्होंने कहा, “तुम्हें हटाया गया तो तुम आत्म-ज्ञान पा सकी, यह अच्छी बात है!” उस अनुभव से मैं अपने बारे में कुछ जान सकी और अब उतनी उदास नहीं रही। मैं अपने उजागर किए जाने को भी कुछ हद तक स्वीकार सकी। फिर मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैंने सच में कुकर्म किया है। अब मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।” इसके बाद, जब भी दूसरों से मेलजोल के समय मेरा भ्रष्ट स्वभाव सामने आता, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना और आत्म-चिंतन करती, दूसरों के साथ मिलकर काम करने पर ध्यान देती। मैं अपने कर्तव्य में भी ईमानदारी से सत्य खोजने लगी और मेरे दिन परिपूर्ण और संतुष्ट लगने लगे। कुछ ही दिनों बाद, ऊपरी अगुआ मुझसे मिलने आई और कहा कि पहले मैं बहुत अहंकारी थी, दूसरों की सलाह नहीं मानती थी और उनके साथ सिद्धांत के अनुसार पेश नहीं आती थी, मगर हटाए जाने के बाद, मैंने आत्म-चिंतन करके खुद को पहचानना सीखा, इसलिए सब चाहते हैं कि मैं फिर से अपने अगुआ के पद पर आ जाऊँ। यह सुनकर मुझे बहुत हैरानी हुई। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे अगुआ के तौर पर काम करने का दूसरा मौका मिलेगा। बता नहीं सकती मैं कितनी भावुक और परमेश्वर के प्रति आभार से भरी हुई थी। साथ ही, मैंने अतीत में जो कुछ भी किया उसका मुझे बहुत पछतावा था। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चाताप करने, अपनी पुरानी गलतियाँ न दोहराने, दूसरों के साथ मिलकर काम करने और कर्तव्य निभाने में दिल लगाने का संकल्प लिया। बाद में, मैंने फिर से आत्म-चिंतन किया : “मैं वेंडी के प्रति अपना पूर्वाग्रह पहले क्यों नहीं छोड़ पाई, यहाँ तक कि पीठ पीछे उसकी आलोचना की और उसे कमजोर किया?” एक बार अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “पहली बात तो यह है कि जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट का मसला आता है तो वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते। और इसे स्वीकार न कर पाने के अपने कारण हैं। मुख्य कारण यह है कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो उन्हें लगता है कि उनकी इज्जत कम हो गई है, उनकी प्रतिष्ठा, रुतबा और उनकी गरिमा छिन गई है, और अब वे सबके सामने अपने सिर उठाकर नहीं चल सकेंगे। इन बातों का उनके दिलों पर असर पड़ता है, इसलिए उन्हें अपनी काट-छाँट स्वीकारना मुश्किल लगता है, और उन्हें लगता है कि जो भी उनकी काट-छाँट करता है वह उनसे द्वेष रखता है और उनका शत्रु है। काट-छाँट होने पर मसीह-विरोधियों की यही मानसिकता रहती है। यह बिल्कुल पक्की बात है। दरअसल, काट-छाँट किए जाने के वक्त ही यह बात खुलकर उजागर होती है कि कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार सकता है कि नहीं और कोई व्यक्ति सचमुच समर्पण कर सकता है या नहीं। मसीह-विरोधियों का काट-छाँट के प्रति इतना अधिक प्रतिरोध करना यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे सत्य से विमुख होते हैं और वे इसे रत्तीभर भी स्वीकार नहीं करते। तो सारी समस्या की जड़ यही है। उनका गर्व इस मसले की जड़ नहीं है; सत्य को स्वीकार न करना ही इस समस्या का सार है। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो मसीह-विरोधी चाहते हैं कि यह सब मीठे स्वर और नर्म रवैये के साथ किया जाए। अगर ऐसा करने वाले का स्वर गंभीर है और रवैया सख्त है, तो मसीह-विरोधी इसका प्रतिरोध और अवहेलना करेगा, और शर्म से लाल हो जाएगा। मसीह-विरोधी इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते कि उनमें जो उजागर हुआ है क्या वह सही है या क्या वह एक तथ्य है, न ही वे अपनी गलती या सत्य को स्वीकारने के प्रश्न पर चिंतन करते हैं। वे सिर्फ यह सोचते हैं कि क्या उनके दंभ और गर्व पर वार हुआ है। मसीह-विरोधी यह एहसास करने में पूरी तरह अक्षम होते हैं कि काट-छाँट लोगों के लिए मददगार होती है, लोगों को प्रेम और सुरक्षा देने वाले और उन्हें लाभ पहुँचाने वाली होती है। वे इतना भी नहीं समझ पाते। क्या उनमें भले-बुरे की पहचान और तर्कसंगतता का अभाव नहीं है? तो काट-छाँट किए जाने का सामना करते हुए मसीह-विरोधी कैसा स्वभाव प्रकट करते हैं? निस्संदेह, यह सत्य से विमुख होने और साथ ही अहंकार और अड़ियलपन वाला स्वभाव है। इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख होना और उससे घृणा करना है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर खुलासा करता है कि कैसे मसीह-विरोधी अपना रुतबा और प्रतिष्ठा बचाने में लगे रहते हैं, और जब उनकी काट-छाँट होती है, तो वे आत्म-चिंतन करने या खुद को जानने के बजाय, विरोध करते हैं, ठुकराते हैं, और सोचते हैं कि हर कोई उनके पीछे पड़ा है। वो लोगों को नुकसान पहुँचाकर उनसे बदला तक लेते हैं—ये सभी व्यवहार उनके स्वभावों की अभिव्यक्तियाँ हैं जो सत्य से विमुख होकर उससे नफरत करने वाली हैं। परमेश्वर के वचनों के खुलासों को अपने हालात पर लागू किया, तो देखा कि मेरा वेंडी की आलोचना करना, उसे कमजोर करना, हमला करना, और बदला लेना, सभी मेरे मसीह-विरोधी स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ थीं। जब मैं वेंडी के साथ काम करती थी, वो अक्सर मुझे सलाह देती और मेरी खामियाँ बताती थी, पर वो मेरी काट-छाँट नहीं कर रही थी। मैंने विचार नहीं किया कि वेंडी की बात सही थी या नहीं, कहीं मैंने कुछ गलत तो नहीं किया या उसने जो कहा उससे क्या मैं कुछ सीख सकती हूँ। इसके बजाय, मैं हमेशा उसे घूरती रहती, सोचती कि वो मेरे पीछे पड़ी है और मुझे नीची नजर से देखती है। मैंने तो यह मान लिया कि उसकी मानवता ही खराब थी। मैंने अपनी समस्याओं को बिलकुल नहीं पहचाना। तब, मैं कलीसिया अगुआ के तौर पर काम करने के साथ ही सामान्य मामलों की निगरानी भी करती थी, मगर मैं सामान्य मामलों की जानकार नहीं थी, तब भी मैंने उस कार्य को संभालने या पूछताछ करने की नहीं सोची, और न ही मैं मदद के लिए उन लोगों के पास गई जो इनके जानकार थे। मैं व्यावहारिक काम नहीं कर पा रही थी—वेंडी का इस बारे में बात करना सही था! जब वेंडी ने मेरे कार्य में खामियाँ बताईं और मुझे कुछ सुझाव दिए, तो वह बेहतर होने में मेरी मदद ही कर रही थी। फिर भी, मैंने सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की सोची, मुझे लगा वह मेरी क्षमताओं पर सवाल उठा रही है। मैंने उसके याद दिलाने और मदद को भी निजी हमला मान लिया, दूसरों को अपने पक्ष में एकजुट करके उसे सबक सिखाने की कोशिश की, मैंने लोगों को मेरे साथ वेंडी की आलोचना और बहिष्कार करने के लिए उकसाया, ये सब वेंडी के लिए हानिकारक थे। इससे एक विवादास्पद माहौल भी बन गया जिससे कोई भी अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं दे सका और कलीसिया के कार्य में रुकावट आई। क्या मैं शैतान की भूमिका नहीं निभा रही थी? मुझे वाकई धिक्कार कर दंडित किया जाना चाहिए था! मैंने उन कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा जिन्हें कलीसिया से निकाला गया था, वे सत्य से विमुख थे और उससे नफरत करते थे, वे परमेश्वर से स्थितियों को स्वीकारने में विफल रहे, और अपने हितों को खतरे में डालने वालों पर अटक जाते थे, सोचते थे कि सब उन्हीं के पीछे पड़े हैं, सब जो भी करते उसकी वे बाल की खाल निकालते थे, जब दूसरे अक्सर उन्हें याद दिलाते, उनकी मदद करते या उनकी काट-छाँट करते तो वे चिंतन करने और आत्म-ज्ञान पाने में पूरी तरह नाकाम रहते। यही नहीं, जो कोई भी उन्हें सुधारने की कोशिश करता वे उससे नफरत करते और उन पर हमले करके उन्हें बहिष्कृत कर देते, अपने आस-पास के लोगों को बाधित करते, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करते और आखिर में उन्होंने इतने कुकर्म किए कि उन्हें निकाल दिया गया। ये सब सत्य न स्वीकारने और उससे विमुख होने के नतीजे हैं—उन्हें वही मिला जिसके वो लायक थे! इन लक्षणों को देखते हुए, क्या मैं भी कुकर्मी और मसीह-विरोधी जैसा बर्ताव नहीं कर रही थी? मुझे पश्चात्ताप करने का मौका पकड़कर सत्य का अनुसरण करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए, मुझे बहुत डर लगा, मैं बड़ी संकटपूर्ण स्थिति में फँस गई थी, अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया तो परमेश्वर मुझसे नफरत करेगा और हटा देगा। मुझे पश्चात्ताप करने का मौका पाकर सत्य का अनुसरण करने की भरसक कोशिश करनी थी, परमेश्वर का भय मानने वाले दिल से हालात को देखकर सत्य खोजना और आत्म-चिंतन करके खुद को जानना चाहिए, अपनी बोल-चाल में स्पष्टवादी होकर अच्छे इरादों के साथ लोगों से मेलजोल करना चाहिए। मैं प्रार्थना करने परमेश्वर के समक्ष आई और कहा कि अब से पहले की तरह काम करना छोड़ दूँगी, और मैं परमेश्वर की जाँच स्वीकार करके वास्तव में पश्चात्ताप करने को तैयार थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे यह समझने में मदद मिली कि व्यक्ति की मानवता को कैसे आँकना चाहिए, और खुलकर बोलने और मुझे सुझाव देने वाले लोगों के साथ कैसे पेश आना चाहिए। परमेश्वर कहते हैं : “तुम्हें उन लोगों के करीब जाना चाहिए जो तुमसे सच्ची बात कह सकें; इस तरह के लोगों का साथ होना तुम्हारे लिए बहुत फायदेमंद है। खास तौर पर ऐसे लोगों का तुम्हारे आसपास होना तुम्हें भटकने से बचा सकता है जो तुममें किसी समस्या का पता चलने पर तुम्हें डाँटने-फटकारने और तुम्हें उजागर करने का साहस रखते हों। उन्हें तुम्हारे रुतबे से कोई फर्क नहीं पड़ता है, और जिस पल उन्हें पता चलता है कि तुमने सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध कुछ किया है, तो आवश्यक होने पर वे तुम्हें फटकारेंगे और तुम्हें उजागर भी करेंगे। केवल ऐसे लोग ही सीधे-सच्चे और न्यायप्रिय लोग होते हैं और चाहे वे तुम्हें कैसे भी उजागर करें और कैसे भी तुम्हें डाँटें-फटकारें, यह सब तुम्हारी मदद करने, तुम्हारी निगरानी करने और तुम्हें आगे बढ़ाने के लिए होता है। तुम्हें ऐसे लोगों के करीब जाना चाहिए; ऐसे लोगों को अपने साथ रखने से, ऐसे लोगों की मदद से, तुम अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित हो जाते हो—परमेश्वर की सुरक्षा पाने का भी यही अर्थ है। सत्य समझने वाले और सिद्धातों का पालन करने वाले लोगों का तुम्हारे साथ होना और रोजाना तुम्हारी निगरानी करना, तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य निभाने और अच्छे से काम करने के लिए बहुत फायदेमंद है। ... जब तुम ऐसा कुछ करते हो जो सिद्धांतों के विरुद्ध है, तो वे तुम्हें उजागर कर देंगे, तुम्हारी समस्याओं पर राय देंगे, और स्पष्ट रूप से और ईमानदारी से तुम्हारी समस्याएँ और त्रुटियाँ बताएँगे; वे तुम्हारी इज्जत बचाने में मदद करने की कोशिश नहीं करेंगे, और तुम्हें बहुत सारे लोगों के सामने शर्मिंदगी से बचने का मौका भी नहीं देंगे। तुम्हें ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? क्या तुम्हें उन्हें सजा देनी चाहिए या उनके करीब जाना चाहिए? (उनके करीब जाना चाहिए।) सही है। तुम्हें उनके साथ दिल खोलकर बात करनी चाहिए और उनके साथ यह कहते हुए संगति करनी चाहिए, ‘तुमने मेरी जिस समस्या के बारे में बताया वह सही थी। उस समय, मैं घमंड और रुतबे के विचारों से भरा था। मुझे लगा कि मैं इतने सालों से अगुआ रहा हूँ, इसके बावजूद तुमने न केवल मेरी इज्जत बचाने की कोशिश नहीं की, बल्कि इतने सारे लोगों के सामने मेरी समस्याएँ भी बताई, और इसलिए मैं इसे स्वीकार नहीं कर सका। हालाँकि, अब मुझे दिखाई देता है कि मैंने जो किया वो वास्तव में सिद्धांतों और सत्य के विरुद्ध था, और मुझे वह नहीं करना चाहिए था। अगुआ का पद होने के क्या मायने होते हैं? क्या यह बस मेरा कर्तव्य नहीं है? हम सभी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और हम सबका रुतबा एक समान है। केवल अंतर यह है कि मेरे कंधों पर थोड़ी ज्यादा जिम्मेदारी है, बस इतना ही। यदि तुम्हें भविष्य में किसी समस्या का पता चले तो जो तुम्हें कहना हो कह देना, और हमारे बीच कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं होगा। अगर सत्य की हमारी समझ में अंतर है तो हम एक साथ संगति कर सकते हैं। परमेश्वर के घर में और परमेश्वर और सत्य के सामने, हम एक होंगे, अलग-अलग नहीं।’ यह सत्य का अभ्यास करने और उससे प्रेम करने का रवैया है। यदि तुम मसीह-विरोधी के मार्ग से दूर रहना चाहते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें ऐसे लोगों के करीब आने की पहल करनी चाहिए जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो ईमानदार हैं, ऐसे लोगों के करीब आना चाहिए जो तुम्हारी समस्याएँ बता सकते हैं, जो तुम्हारी समस्याओं का पता चलने पर सच बोल सकते हैं और तुम्हें डांट-फटकार सकते हैं, और विशेष रूप से ऐसे लोगों के जो तुम्हारी समस्याओं का पता चलने पर तुम्हारी काट-छाँट कर सकते हैं—ये वे लोग हैं जो तुम्हारे लिए सबसे अधिक फायदेमंद हैं और तुम्हें उन्हें संजोना चाहिए। यदि तुम ऐसे अच्छे लोगों को छोड़ देते हो और उनसे छुटकारा पा लेते हो तो तुम परमेश्वर की सुरक्षा गँवा दोगे और आपदा धीरे-धीरे तुम्हारे पास आ जाएगी। अच्छे लोगों और सत्य को समझने वाले लोगों के करीब आने से तुम्हें शांति और आनंद मिलेगा, और तुम आपदा को दूर रख सकोगे; बुरे लोगों, बेशर्म लोगों और तुम्हारी चापलूसी करने वाले लोगों के करीब आने से तुम खतरे में पड़ जाओगे। न केवल तुम आसानी से ठगे और छले जाओगे, बल्कि तुम पर कभी भी आपदा आ सकती है। तुम्हें पता होना चाहिए कि किस तरह के लोग तुम्हारे लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हो सकते हैं—ये वे लोग हैं जो तुम्हारे कुछ गलत करने पर, या जब तुम अपनी बड़ाई करते हो और अपने बारे में गवाही देते हो और दूसरों को गुमराह करते हो तो, तुम्हें चेतावनी दे सकते हैं, इससे तुम्हें सर्वाधिक फायदा हो सकता है। ऐसे लोगों के करीब जाना ही सही मार्ग है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि न्याय की भावना रखने वाले लोग, जो सत्य सिद्धांत को कायम रखते हैं, भाई-बहनों को कोई समस्या या उनमें कोई खामी होने पर उन्हें बता सकते हैं, वे अपने क्रियाकलापों में सिद्धांतों के विरुद्ध जाने वालों की काट-छाँट कर सकते हैं, उन्हें उजागर कर गहन-विश्लेषण कर सकते हैं, ऐसे लोगों में अच्छी मानवता होती है और मुझे उनके करीब रहना चाहिए। अगर कोई बाहर से प्यारा है, लोगों के साथ मिलजुलकर रहता है, वह किसी को नाराज नहीं करता और सभी उसे पसंद करते हैं, मगर जब वह कुछ ऐसा देखता है जो सिद्धांत के अनुरूप नहीं है या कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाने वाला है, तो वे अपने रिश्तों को बचाने की खातिर सच का साथ नहीं देता, उसे उजागर करके समस्या का हल नहीं करता, ऐसा व्यक्ति स्वार्थी और धूर्त है और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं कर रहा है। मैंने सोचा कि कैसे मैंने हमेशा लोगों की मानवता को इस आधार पर आँका कि वो मिलनसार हैं या नहीं, और क्या वो इस तरह बात करते हैं जिससे लोगों की गरिमा सुरक्षित रहे, मगर यह आकलन सत्य के अनुरूप नहीं था। मुझे एहसास हुआ कि वेंडी का अक्सर मेरी समस्याएँ और खामियाँ बताना सही था। इस तथ्य के बावजूद कि वेंडी बहुत बेबाकी से बात करती थी, वह सच कहती और मेरी समस्याएँ बता सकती थी, इससे मुझे अपने कर्तव्य निर्वहन और जीवन प्रवेश को बेहतर बनाने में मदद मिलती। मुझे उसके साथ और समय बिताकर उसके सुझावों को सुनना चाहिए। उसके बाद, मैंने वेंडी से माफी माँगी। मैं जानती थी मैंने उसका अपूरणीय नुकसान किया है, लेकिन अगर मुझे उसके साथ काम करने का दूसरा मौका मिले, तो मैं उस मौके को संजोकर रखूँगी।
बाद में, मुझे भाई लेनर्ड के साथ काम सौंपा गया। लेनर्ड की काबिलियत अच्छी थी और वह अपने कर्तव्य में काफी जिम्मेदार था। अगर वह मुझे अपने कर्तव्य से भटकते देखता, तो सबके सामने मुझे जरूर बताता। पहले-पहल, थोड़ी शर्मिंदा महसूस करने के बाद भी, मैं उसकी आलोचनाओं को परमेश्वर की सीख समझ कर स्वीकार सकी। मगर समय के साथ यह सिलसिला चलता रहा, तो मैं थोड़ी तंग आ गई। कभी-कभी लेनर्ड अपनी आलोचना में थोड़ा निंदात्मक हो जाता, और मेरे काम में गलतियाँ निकालता। मुझे बहुत शर्मिंदगी होती, जैसे उसने मेरी असलियत देख ली हो और अब मैं उसके साथ काम नहीं करना चाहती थी। मुझे लगा वो बहुत अहंकारी है और उसके बोलने का लहजा अस्वीकार्य है। कई बार दूसरों के साथ अपनी भागीदारी पर चर्चा करते समय, मैंने लेनर्ड को नीचा दिखाना चाहा, लेकिन जैसे ही मैं कुछ कहने वाली होती, मुझे एहसास होता कि मैं गलत थी—लेनर्ड की आलोचना में बेशक कई चीजें ऐसी थीं जिनमें मैं प्रवेश कर सकती थी। तो, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, सही इरादे रखे और खोजा कि लेनर्ड के साथ इस तरह कैसे काम करें जो परमेश्वर के इरादे के अनुरूप हो। मैं बुरे इरादों के साथ लेनर्ड को नहीं आँक सकती थी। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे काफी मदद मिली। “जब तुम्हें पता चलता है कि तुम कुछ गलत कर रहे हो, या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हो, तो अगर तुम दूसरे लोगों के साथ खुलकर बात करने में सक्षम होते हो, तो इससे तुम्हारे आसपास के लोगों को तुम पर नजर रखने में आसानी होगी। पर्यवेक्षण को स्वीकार करना निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन मुख्य बात है परमेश्वर से प्रार्थना करना, उस पर भरोसा करना और खुद को निरंतर जाँच के अधीन रखना। खासकर जब तुम गलत मार्ग पर चले पड़े हो, कुछ गलत कर दिया हो या जब तुम कोई काम खुद ही करने या खुद ही फैसला लेने वाले हो और आस-पास का कोई व्यक्ति इस बात का उल्लेख कर तुम्हें सचेत कर दे, तो तुम्हें इसे स्वीकार कर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए और अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सुधारना चाहिए। इससे तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने से बच जाओगे। अगर कोई इस तरह तुम्हारी मदद कर तुम्हें सचेत कर रहा है, तो क्या तुम्हारे जाने बगैर ही तुम्हें सुरक्षित नहीं रखा जा रहा है? तुम हो—यही तुम्हारी सुरक्षा है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे याद दिलाया कि मेरे साथ किसी ऐसे का होना, जिसमें न्याय की भावना हो, सीधे तौर पर बोलने और फौरन मेरी खामियाँ बताने का आत्मविश्वास हो, एक प्रकार का सुरक्षा कवच था, जो मुझे भटकने से रोकता था और यह परमेश्वर का प्रेम था। हालात को स्वीकार लेना ही सही था! उस दौरान, मैं कुछ छोटे-मोटे काम करके ही संतुष्ट थी। मगर नए विश्वासियों का सिंचन करने जैसा जरूरी काम करके कीमत चुकाने में मैं नाकाम थी। लेनर्ड के बार-बार याद दिलाने से मैं अपने कर्तव्य में थोड़ी और व्यावहारिक बन गई। लेनर्ड के बताए अभ्यास के मार्ग से भी मैंने काफी कुछ सीखा। मुझे एहसास हुआ कि उसकी मदद और सुझाव वाकई मूल्यवान थे। यह देखते हुए कि मेरे पास सत्य नहीं था, मुझमें अभी भी गंभीर भ्रष्ट स्वभाव थे और मैं कभी भी गलत कर सकती थी, लेनर्ड का मुझ पर नजर रखना बहुत फायदेमंद रहा और इसने मुझे कई सारे कुकर्म करने से बचाए रखा। यह जानकर मुझे लगा मैं अपने कर्तव्य के भटकावों को दूर करने के लिए तैयार हूँ और मैंने लेनर्ड की सलाह के प्रति एक बेहतर रवैया अपनाया। मैंने उसे एक संदेश भेजा कि : “आगे से, अगर तुम्हें मुझमें कोई भी समस्या दिखे तो मुझे जरूर बताना। शायद मुझे थोड़ी शर्मिंदगी महसूस हो, पर यह मेरे लिए मददगार रहेगा।” अब सोचूती हूँ तो लगता है कि इन कुछ सालों में परमेश्वर ने कई ऐसे लोगों को मेरे साथ रखा था, मगर मैंने हमेशा उनसे दूर रहना चाहा, क्योंकि मुझे लगा उनके साथ मिलजुलकर रहना मुश्किल है। असल में, मैं ही लोगों को पहचान नहीं पाती थी, मुझे लोगों को आँकना या उनके साथ पेश आना नहीं आता था, और इसलिए अनजाने में ही मैंने अपने साथियों से सीखने के कई सारे मौके गँवा दिए। जब परमेश्वर ने फिर से ऐसे हालात बनाए, तो मैं आखिरकार उसका इरादा समझ पाई, लोगों के साथ सिद्धांत के अनुसार व्यवहार किया और अब बहुत आजाद महसूस कर रही हूँ! मैंने मन-ही-मन परमेश्वर का धन्यवाद किया!