84. मैं अपनी बीमारी की चिंता से उबर पाई
जून 2022 में, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने आस-पास की कई कलीसियाओं में छापा मारा। करीब सभी अगुआ, कार्यकर्ता, और पाठ-आधारित काम करने वाले कार्यकर्ता गिरफ्तार हो गए, और क्योंकि अब पाठ-आधारित काम करने के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति मौजूद नहीं था, तो मुझे लाया गया। एक महीने के अंदर ही, मैं कोविड-19 वायरस की चपेट में आ गई, मुझे समय-समय पर बुखार चढ़ता, सीने में जकड़न और साँस लेने में तकलीफ होती थी। दवाओं और सूइयों से मुझे काफी आराम मिलता, पर मेरी बगलों और बाँहों के अंदरूनी हिस्सों में दर्दनाक गाँठें होने लगीं, मेरी जाँघों में पानी इकठ्ठा हो गया, मेरे पैर और कूल्हे काफी सूज गए थे। मेरे पैरों में भी हल्के छाले हो गए और उनसे पीप निकलने लगा। मुझे पहले सर्वाइकल कैंसर हो चुका था, और जब ये लक्षण दिखाई दिए तो मैं बहुत बेचैन हो गई, खासकर इसलिए क्योंकि मेरी माँ की मौत भी कैंसर से हुई थी, और उनके गुजरने से छह महीने पहले, उनके पैरों में छाले हो गए थे और उनसे पीप निकलता था। इसके अलावा, जिस जगह कैंसर था वहाँ अक्सर दर्द होता, मैं यह सोचकर और ज्यादा परेशान हो गई, “मेरा कैंसर पहले से ही अंतिम चरणों में था। क्या ये लक्षण इस बात का संकेत हैं कि मेरा कैंसर फैल गया है? अगर ऐसी बात है तो मेरे पास ज्यादा समय नहीं बचा है... मैंने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास रखा, पर मेरे भ्रष्ट स्वभाव में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। अगर मैं मर गई, तो क्या बचाए जाने का मौका नहीं खो दूँगी?” मैंने यह भी सोचा कि कुछ कैंसर रोगी मौत से पहले कितनी पीड़ा से गुजरते हैं, और मैं बहुत परेशान हो गई, मुझे डर था कि मैं भी उनकी तरह पीड़ा सहूँगी और मौत से और भी ज्यादा डरने लगी। बाद में, मैं जाँच के लिए अस्पताल गई। डॉक्टर ने कहा कि मेरे लक्षण मेरे कोविड-19 के संक्रमण से संबंधित हैं, और मेरे गुर्दे कमजोर हैं। उन्होंने मुझे ज्यादा से ज्यादा आराम करने और रात में देर तक न जागने की सलाह दी। मैंने सोचा, “मैं दिन-रात अपना कर्तव्य करने के लिए कंप्यूटर के सामने बैठी रहती हूँ। अगर मेरी स्थिति बिगड़ी और मैं ज्यादा बीमार हो गई, तो क्या अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ नहीं हो जाऊँगी? क्या उससे मेरे जीवन प्रवेश में देरी नहीं होगी? क्या मैं तब भी उद्धार प्राप्त कर सकूँगी?” उसके बाद से, जैसे ही मुझे असहज लगता मैं तुरंत लेट जाती थी। क्योंकि मेरा ध्यान अपने शरीर का ख्याल रखने पर था, कर्तव्य निभाने पर नहीं, मेरे काम में देरी होने लगी। बाद में, इलाज के साथ मेरी स्थिति में सुधार होने लगा, पर मैं अभी भी यह सोचकर परेशान थी, “पाठ-आधारित काम में दिमाग लगता है, और हर दिन कंप्यूटर के सामने बैठे रहने में बहुत मेहनत लगती है। क्या यह लंबे समय में मेरे सुधार के लिए हानिकारक नहीं होगा? क्यों न मैं अगुआ से कोई हल्का काम सौंपने को कहूँ ताकि मैं अपने शरीर का ख्याल रखते हुए अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकूँ?” उस समय मेरे मन में ऐसे विचार आते रहे, मगर फिर मैंने सोचा, “मुझे यहाँ इसलिए लाया गया है क्योंकि पाठ-आधारित काम के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति मौजूद नहीं था, और अगर मैंने इस्तीफा दिया, तो क्या इससे पाठ-आधारित काम प्रभावित नहीं होगा? अगर मैंने सिर्फ अपने बारे में सोचा और कलीसिया के काम के बारे में नहीं, तो क्या यह अविवेकपूर्ण नहीं होगा?” इसलिए, मैंने इस्तीफा देने का विचार छोड़ दिया। उसके बाद, भले ही मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए आती रही, पर लगातार बेचैन रहती थी, मुझे डर था कि अगर मेरी स्थिति खराब हुई और मैं अचानक मर गई, तो परमेश्वर के काम का अनुभव नहीं कर पाऊँगी, और उद्धार पाने का अपना मौका खो दूँगी। इन विचारों के साथ मैं अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं दे पा रही थी। कभी-कभी तो मैं यह भी उम्मीद करती, “परमेश्वर इस बीमारी को दूर कर सके तो कितना अच्छा हो!”
एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अगर तुम्हें बीमारी हो जाए, और तुम सिद्धांत को चाहे जितना समझ लो, फिर भी इस पर विजय न पा सको, तुम्हारा दिल अभी भी संतप्त, व्याकुल और चिंतित होगा, और न सिर्फ तुम इस मामले का शांति से सामना नहीं कर पाओगे, बल्कि तुम्हारा दिल भी शिकायतों से भर जाएगा। तुम निरंतर सोचते रहोगे, ‘किसी दूसरे व्यक्ति को यह बीमारी क्यों नहीं हुई? मुझे ही यह बीमारी क्यों पकड़ा दी गई? मेरे साथ ऐसा कैसे हो गया? यह इसलिए हुआ कि मैं दुर्भाग्यशाली हूँ, मेरा भाग्य खराब है। मैंने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया, न ही मैंने कोई पाप किया, तो फिर मुझे यह क्यों हुआ? परमेश्वर मुझसे बहुत अनुचित बर्ताव कर रहा है!’ देखा, संताप, व्याकुलता और चिंता के अलावा तुम अवसाद में भी डूब जाते हो, एक नकारात्मक भावना के बाद दूसरी, और तुम जितना भी चाहो, इनसे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। चूँकि यह एक असली बीमारी है, इसलिए इसे आसानी से तुमसे दूर नहीं किया जा सकता या ठीक नहीं किया जा सकता, तो फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम समर्पण करना चाहते हो, मगर नहीं कर सकते, और अगर किसी दिन तुम समर्पण कर भी दो और अगले ही दिन तुम्हारी हालत बिगड़ जाए, बहुत तकलीफ हो, तब तुम और समर्पण नहीं करना चाहते हो, और फिर से शिकायत करना शुरू कर देते हो। तुम इसी तरह हमेशा आगे-पीछे होते रहते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? आओ, मैं तुम्हें सफलता का रहस्य बताता हूँ। तुम्हें कोई बड़ी बीमारी हो या छोटी, जब तुम्हारी बीमारी गंभीर हो जाए या तुम मौत के करीब पहुँच जाओ, बस एक चीज याद रखो : मृत्यु से डरो मत। चाहे तुम कैंसर की अंतिम अवस्था में हो, तुम्हारी खास बीमारी की मृत्यु दर बहुत ज्यादा हो, फिर भी मृत्यु से डरो मत। तुम्हारा कष्ट चाहे जितना बड़ा हो, अगर तुम मृत्यु से डरोगे, तो समर्पण नहीं करोगे। ... मृत्यु से न डरने का सही रवैया क्या है जो तुम्हें अपनाना चाहिए? अगर तुम्हारी बीमारी इतनी गंभीर हो जाए कि शायद तुम मर सकते हो, और इस बीमारी की मृत्यु दर ज्यादा हो, भले ही व्यक्ति की उम्र जितनी भी हो जिसे भी यह बीमारी हुई हो, और लोगों के बीमार होने से लेकर मरने तक का अंतराल बहुत कम हो, तब तुम्हें अपने दिल में क्या सोचना चाहिए? ‘मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए, अंत में सबकी मृत्यु होती है। लेकिन परमेश्वर के प्रति समर्पण एक ऐसी चीज है जो ज्यादातर लोग नहीं कर पाते, और मैं इस बीमारी का उपयोग परमेश्वर के प्रति समर्पण को अमल में लाने के लिए कर सकता हूँ। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने की सोच और रवैया अपनाना चाहिए, और मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।’ मरना आसान है, जीने से ज्यादा आसान। तुम अत्यधिक पीड़ा में हो सकते हो, और तुम्हें इसका पता भी नहीं होगा, और जैसे ही तुम्हारी आँखें बंद होती हैं, तुम्हारी साँस थम जाती है, तुम्हारी आत्मा शरीर छोड़ देती है, और तुम्हारा जीवन खत्म हो जाता है। मृत्यु इसी तरह होती है; यह इतनी ही सरल है। मृत्यु से न डरना वह रवैया है जिसे अपनाना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि क्या बीमारी बदतर हो जाएगी, या इलाज नहीं हो सका तो क्या तुम मर जाओगे, या तुम्हारे मरने में कितना वक्त लगेगा, या मृत्यु का समय आने पर तुम्हें कैसी पीड़ा होगी। तुम्हें इन चीजों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए; ये वो चीजें नहीं हैं जिनकी तुम्हें चिंता नहीं करनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि वह दिन तो आना ही है, किसी वर्ष, किसी महीने, या किसी निश्चित दिन आना ही है। तुम इससे छुप नहीं सकते, इससे बचकर नहीं निकल सकते—यह तुम्हारा भाग्य है। तुम्हारा तथाकथित भाग्य परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और पहले ही उसके द्वारा व्यवस्थित है। तुम्हारा जीवनकाल और मृत्यु के समय तुम्हारी उम्र और समय परमेश्वर ने पहले ही तय कर रखा है। तो फिर तुम किसकी चिंता कर रहे हो? तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर इससे कुछ भी नहीं बदलेगा; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम इसे होने से नहीं रोक सकते; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम उस दिन को आने से नहीं रोक सकते। इसलिए, तुम्हारी चिंता बेकार है, और इससे बस तुम्हारी बीमारी का बोझ और भी भारी हो जाता है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैंने समझा कि हमें चाहे कोई भी बीमारी हो—चाहे यह हमारे जीवन के लिए बदतर हो या घातक—हमें मौत से डरना नहीं चाहिए, न ही उस पीड़ा से डरना चाहिए जो मौत के साथ आती है। हमें इन चीजों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर के विधान के अनुसार हर कोई मरेगा। हर एक व्यक्ति की मौत का समय और तरीका पहले ही परमेश्वर ने निर्धारित कर दिया है। कोई भी इससे बच नहीं सकता। कष्ट और मौत का सामना करते हुए हमें जिस सत्य में प्रवेश करना चाहिए, वह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना है। मगर मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं की सच्ची समझ नहीं थी और मैं हमेशा इस स्थिति से भागना चाहती थी। क्योंकि मेरा कैंसर पहले से ही अंतिम चरणों में था और मेरा शरीर कुछ बुरे लक्षण दिखा रहा था, मुझे चिंता थी कि मेरी हालत बदतर हो जाएगी और मैं अचानक मर जाऊँगी, इसलिए मैं एक आसान कर्तव्य निभाना चाहती थी। वास्तव में, चाहे कर्तव्य थका देने वाला हो या आसान, और चाहे इसमें ऊर्जा लगती हो या नहीं, इसका किसी के जीने-मरने से कोई लेना-देना नहीं है। यह सब परमेश्वर के विधान और व्यवस्थाओं से निर्धारित होता है। जैसे कि मैं कुछ लोगों को जानती हूँ जो तंदुरुस्त और स्वस्थ लगते थे, उन्हें कोई बीमारी नहीं थी, और वे आसान, मामूली काम करते थे, पर वे भरी जवानी में ही गुजर गए। कुछ लोग कमजोर और बीमार होकर भी कठिन परिस्थितियों में रहते हुए अस्सी-नब्बे साल तक जीते हैं। इससे पता चलता है कि किसी व्यक्ति का जीना-मरना इन वस्तुगत परिस्थितियों से संबंधित नहीं है। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर द्वारा निर्धारित जीवनकाल तक पहुँचेगा तो वह यकीनन मर जाएगा। चाहे तुम कितनी भी देखभाल कर लो, इससे तुम्हारा जीवनकाल एक पल के लिए भी नहीं बढ़ सकता। खासकर जब मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “मरना आसान है, जीने से ज्यादा आसान। तुम अत्यधिक पीड़ा में हो सकते हो, और तुम्हें इसका पता भी नहीं होगा, और जैसे ही तुम्हारी आँखें बंद होती हैं, तुम्हारी साँस थम जाती है, तुम्हारी आत्मा शरीर छोड़ देती है, और तुम्हारा जीवन खत्म हो जाता है। मृत्यु इसी तरह होती है; यह इतनी ही सरल है। मृत्यु से न डरना वह रवैया है जिसे अपनाना चाहिए।” मेरा मन एकदम से साफ हो गया। मुझे इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं थी कि मेरा शरीर मौत का सामना कर पाएगा या नहीं। मौत उतनी भयानक नहीं है जितनी मैंने सोची थी। चूँकि परमेश्वर ने तय किया था कि मैं इस तरह की स्थिति से गुजरूँगी, मुझे बीमारी के बीच में समर्पण करते हुए अपना कर्तव्य निभाने की पूरी कोशिश करनी थी। अगर किसी दिन मेरी बीमारी गंभीर हो गई और मौत सचमुच आ गई तो मैं शांति से उसका सामना करते हुए परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करूँगी।
मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े, जिससे मुझे उसके नेक इरादों की थोड़ी और समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “चाहे तुम्हारे सामने कोई भी परीक्षण क्यों न हो, तुम्हें इसे परमेश्वर द्वारा दिए गए एक बोझ के रूप में देखना चाहिए। कुछ लोगों को कोई बड़ी बीमारी और असहनीय कष्ट झेलने पड़ते हैं, और कुछ मृत्यु का भी सामना करते हैं। उन्हें इस तरह की स्थिति को कैसे देखना चाहिए? कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर के इरादों को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में देर नहीं करते और वफादारी से उस पर डटे रहते हो, तो परमेश्वर संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैंने समझा कि परमेश्वर के इरादे में, बीमारी का उद्देश्य लोगों को शुद्ध करके बदलना है, जो कि व्यक्ति के जीवन के लिए लाभदायक है। परमेश्वर उम्मीद करता है कि लोग समर्पण करने में सक्षम होंगे, अपनी भ्रष्टता और विद्रोह पर चिंतन करेंगे, इसे दूर करने के लिए सत्य खोजेंगे, और बीमारी के बीच भी निष्ठा के साथ अपना कर्तव्य निभाएँगे। लोगों को यही करना चाहिए। आत्म-चिंतन करके मुझे एहसास हुआ कि मेरी बीमारी के दौरान मेरे पास कोई समर्पण नहीं था, न ही मैंने इससे कोई सबक सीखा, बल्कि मैं हमेशा इस स्थिति से बचना चाहती थी, यह सोचती थी कि पाठ-आधारित काम में बहुत मेहनत लगती है, और चिंतित रहती थी कि अगर मेरी बीमारी बिगड़ी और मैं मर गई तो मैं उद्धार पाने का अपना मौका खो दूँगी, और इसलिए मैं हमेशा एक आसान कर्तव्य चुनने के बारे में सोचती थी। जमीर और विवेक वाला व्यक्ति बीमार होने पर भी अपना कर्तव्य निभाने में निष्ठावान रहेगा, खासकर तब जब कलीसिया के काम में उसकी सबसे ज्यादा जरूरत होगी। लेकिन बीमारी के दौरान मैंने प्रतिरोध के साथ-साथ परहेज की भावना भी प्रदर्शित की। मुझमें निष्ठा और परमेश्वर के प्रति समर्पण का पूरा अभाव था, मैंने सिर्फ अपने हितों की सोची। इस पर विचार करते हुए मैंने पश्चात्ताप करना चाहा। बीमारी चाहे कैसी भी हो या वह कितनी भी गंभीर हो, जब तक मेरी साँस चलती रहेगी, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगी, इस परिवेश का पूरा अनुभव करते हुए अपना कर्तव्य निभाने की पूरी कोशिश करूँगी। मैंने किसी दूसरे कर्तव्य को चुनने का विचार छोड़ दिया, और अपना कर्तव्य निभाने में दिल लगाना शुरू कर दिया। कभी-कभी, जब मेरा शरीर असहज महसूस करता और मैं वास्तव में इसे सह नहीं पाती, तो मैं लेट कर थोड़ी देर आराम कर लेती थी, और जब मुझे बेहतर महसूस होता तो मैं अपना कर्तव्य निभाने लगती थी। इस अवधि के दौरान उपचार के लिए पारंपरिक चीनी दवा लेने के अलावा, मैंने दर्द को कम करने के लिए उचित शारीरिक चिकित्सा भी ली। चार महीने बीत गए और बीमारी की जगह पर अभी भी दर्द था, पर दूसरे असहज लक्षण काफी कम हो गए थे और मेरी मानसिक स्थिति भी काफी अच्छी थी।
बाद में मैंने उन कारणों को खोजना जारी रखा कि मैं बीमारी के दौरान समर्पण क्यों नहीं कर पाई थी। एक दिन भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, जिससे मुझे अपनी समस्याओं की थोड़ी समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब लोग सिर्फ अपनी संभावनाओं, भाग्य और हितों के बारे में सोचते हैं तो इसका क्या नतीजा निकलता है? उनके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान नहीं होता, और वे चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकते। जो लोग खास तौर पर अपनी संभावनाओं, भाग्य और हितों को अहमियत देते हैं, वे हमेशा यही पड़ताल करते रहते हैं कि क्या परमेश्वर का कार्य उनकी संभावनाओं, उनके भाग्य और उन्हें आशीष दिलाने में लाभकारी है या नहीं। अंत में उनकी पड़ताल का क्या नतीजा निकलता है? वे सिर्फ परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध करते हैं। वे जब अपने कर्तव्य निभाने पर अड़ते भी हैं तो भी इसे अनमने होकर और नकारात्मक मनःस्थिति के साथ निभाते हैं; वे अपने दिल में यह सोचते रहते हैं कि लाभ कैसे उठाएँ, और हारने वालों में कैसे न हों। अपने कर्तव्य निभाते हुए उनके यही इरादे होते हैं, और वे इसमें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी का प्रयास कर रहे होते हैं। ... वे कभी भी कलीसिया के काम के बारे में, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, बल्कि सिर्फ अपनी खातिर तिकड़में भिड़ाते रहते हैं, और सिर्फ अपने हितों, गर्व और रुतबे के लिए योजनाएँ बनाते रहते हैं, वे न सिर्फ अपने कार्य अच्छे से नहीं करते हैं, बल्कि कलीसिया के काम में भी देर करवाते और उसे प्रभावित करते हैं। क्या यह रास्ते से भटक जाना और अपने कर्तव्यों की अवहेलना करना नहीं है? अगर कोई अपना कर्तव्य निभाते हुए हमेशा अपने खुद के हितों और बेहतर संभावनाओं के लिए योजना बनाता रहता है, और कलीसिया के काम या परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रखता, तो यह कर्तव्य निभाना नहीं है। यह अवसरवादिता है, यह अपने फायदे और खुद के लिए आशीष पाने की खातिर काम करना है। इस प्रकार, उनके कर्तव्य पालन के पीछे की प्रकृति बदल जाती है। इसका उद्देश्य सिर्फ परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करना और अपने कर्तव्य-निर्वहन का उपयोग अपने लक्ष्य साधना है। इस तरह कार्य करने से बहुत संभावना है कि परमेश्वर के घर का काम बाधित हो जाएगा। अगर इससे कलीसिया के काम को मामूली नुकसान होता है, तब तो फिर भी छुटकारा पाने की गुंजाइश है, उन्हें निकालने के बजाय कर्तव्य-निर्वहन का अवसर दिया जा सकता है; लेकिन अगर इससे कलीसिया के काम को भारी नुकसान होता है और यह परमेश्वर तथा लोगों के क्रोध का कारण बनता है, तो उनका खुलासा कर उन्हें हटा दिया जाएगा, फिर उनके पास कर्तव्य-निर्वहन का कोई और अवसर नहीं होगा। कुछ लोगों को इस तरह से बर्खास्त कर हटा दिया जाता है। उन्हें क्यों हटाया जाता है? क्या तुम लोगों ने इसका मूल कारण पता किया है? इसका मूल कारण यह है कि वे हमेशा अपने लाभ-हानि के बारे में सोचते हैं, केवल अपने हितों की सोचते हैं, दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाते और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया जरा-सा भी आज्ञाकारी नहीं होता, इसलिए वे लापरवाही से व्यवहार करते हैं। वे केवल लाभ, अनुग्रह और आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, न कि रंच-मात्र भी सत्य पाने के लिए, इसलिए परमेश्वर में उनका विश्वास विफल हो जाता है। यही समस्या की जड़ है। क्या तुम लोगों को लगता है कि उनका खुलासा कर उन्हें हटा देना अन्यायपूर्ण है? यह जरा-सा भी अन्यायपूर्ण नहीं है, यह पूरी तरह से उनकी प्रकृति से निर्धारित होता है। जो इंसान सत्य से प्रेम नहीं करता या सत्य का अनुसरण नहीं करता, अंततः उसका खुलासा कर उसे हटा दिया जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। “यह कोई संयोग नहीं है कि मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं—वे निश्चित रूप से अपने इरादों और मकसद के साथ और आशीष पाने की इच्छा के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं। वे जो भी कर्तव्य करते हैं, उनका मकसद और रवैया बेशक आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और अच्छी संभावनाएँ और नियति से जुड़ा होता है जिसके बारे में वे दिन-रात सोचते हैं और चिंतित रहते हैं। वे उन कारोबारियों की तरह हैं जो अपने काम के अलावा किसी और चीज के बारे में बात नहीं करते। मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं वह सब शोहरत, लाभ और रुतबे से जुड़ा होता है—यह सब आशीष पाने और संभावनाओं और नियति से जुड़ा होता है। उनके दिल अंदर तक ऐसी चीजों से भरे हुए हैं; यही मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है। ठीक इसी तरह के प्रकृति सार के कारण दूसरे लोग स्पष्ट रूप से यह देख पाते हैं कि उनका अंतिम परिणाम हटा दिया जाना ही है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य परमेश्वर के कार्य को अनुभव करने और सत्य प्राप्त करने के लिए नहीं निभाते, बल्कि अपने कर्तव्य निभाने के मौके का फायदा अपने हितों को पूरा करने और स्वर्ग के राज्य के आशीष माँगने के लिए निभाते हैं। चूँकि अपने कर्तव्य निभाने में मसीह-विरोधियों के इरादे गलत होते हैं, जब उनका सामना ऐसे परिवेश से होता है जो उन्हें अपनी संभावनाओं और मंजिल के लिए हानिकारक लगता है, तो उनके लिए समर्पण करना मुश्किल हो जाता है। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते हुए दिखाई देते हों, पर वे बस औपचारिकताएँ निभा रहे होते हैं, कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाते हुए बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा कर रहे होते हैं। इसके अलावा, उनमें पश्चात्ताप करने वाले दिल का लगातार अभाव होता है, और अंत में परमेश्वर उन्हें बेनकाब करके हटा देता है। अपनी बीमारी में, मैं भी कलीसिया के काम के बारे में कोई विचार किए बिना बस अपनी संभावनाओं और मंजिल के बारे में सोच रही थी। इन कलीसियाओं में केवल मैं ही वह व्यक्ति थी जो पाठ-आधारित काम कर रही थी, मगर मुझे चिंता थी कि यह काम मेरे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होगा, मुझे डर था कि अगर मेरी हालत खराब हो गई और मैं मर गई तो उद्धार पाने का मौका खो दूँगी, और इसलिए मैं अपने कर्तव्य से बचकर कोई आसान काम करना चाहती थी। सच तो यह है कि मेरी बीमारी बहुत गंभीर नहीं थी, और कोविड-19 से संक्रमित होने के बाद मेरा शरीर थोड़ा कमजोर हो गया था और मुझमें कुछ प्रतिकूल लक्षण भी दिखे थे, मगर जब असहज महसूस होता तो कुछ देर आराम करने से मदद मिलती थी। मगर फिर भी मैं अपने शरीर के बारे में सोचती रही, जिससे काम में देरी हुई। मैं वाकई स्वार्थी और नीच थी, मेरे पास अंतरात्मा और विवेक की कमी थी। मैंने उन लोगों के बारे में सोचा जिन्हें बेनकाब करके हटा दिया गया था। कुछ लोग शुरू में जोशीले थे और उन्होंने खुद को खूब खपाया था, मगर उन्होंने सत्य नहीं खोजा और सिर्फ आशीष पाना चाहा। जब बीमारी और मौत का सामना करना पड़ा, तो आशीष पाने की अपनी उम्मीदों को चकनाचूर होते देख, वे शिकायत, नकारात्मकता और लापरवाही से भर गए, उन्होंने अपने कर्तव्यों को भी त्याग दिया, परमेश्वर को छोड़कर उसके साथ विश्वासघात किया। अनुसरण को लेकर मेरे विचार भी उनके जैसे ही थे, और अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करती तो मैं भी उनकी तरह ही हटा दी जाती।
एक दिन मुझे लगा कि कैंसर वाली जगह पर दर्द काफी बढ़ रहा है, और मेरे मन में फिर से अजीबोगरीब विचार आने लगे, मैंने सोचा, “क्या कैंसर मेरे पूरे शरीर में फैल गया है?” मैं बहुत डरी हुई थी और खुद से कहा, “भले ही कैंसर फैल गया हो, मैं फिर भी परमेश्वर की संप्रभु व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगी।” मैं जाँच के लिए अस्पताल गई तो डॉक्टर ने कहा कि उस जगह पर केवल हल्की सूजन है, कोई कैंसर कोशिका नहीं है, और सुझाव दिया कि मैं उपचार के लिए पारंपरिक चीनी दवा लेना जारी रखूँ। जाँच के परिणामों को देखते हुए मुझे पता था कि यह मेरे प्रति परमेश्वर की दया है और परमेश्वर मुझे जीने का मौका दे रहा है ताकि मैं पश्चात्ताप करके बदल सकूँ। अपने भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मेरे दिल को छू लिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “इस जीवन में, सृष्टिकर्ता के बारे में सच्ची समझ, ज्ञान, और श्रद्धा पाने, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलने के लिए, लोगों के पास चीजों को समझने से लेकर इस अवसर को पाने, यह क्षमता होने, और सृष्टिकर्ता के साथ संवाद में शामिल होने की शर्तों को पूरा करने के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सीमित समय होता है। अब अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हें जल्दी से मार्ग दिखाए, तो तुम अपने ही जीवन के प्रति जिम्मेदार नहीं हो। जिम्मेदार होने के लिए, तुम्हें खुद को सत्य से सुसज्जित करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, जब तुम्हारे साथ कुछ घटे तो अधिक आत्म-चिंतन करना चाहिए, और जल्दी से अपनी कमियों की भरपाई करनी चाहिए। सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने, परमेश्वर के बारे में और अधिक जानने, परमेश्वर के इरादे जानने और समझने में सक्षम होने और अपना जीवन व्यर्थ न होने देने के लिए तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि सृष्टिकर्ता कहाँ है, सृष्टिकर्ता के इरादे क्या हैं, और सृष्टिकर्ता आनंद, क्रोध, और दुख, और खुशी कैसे व्यक्त करता है—भले ही तुम गहरी जागरूकता या संपूर्ण ज्ञान नहीं पा सकते, पर कम से कम तुम्हें परमेश्वर के बारे में बुनियादी समझ तो होनी ही चाहिए, परमेश्वर से कभी विश्वासघात मत करो, मौलिक रूप से परमेश्वर के अनुकूल रहो, परमेश्वर के प्रति विचारशील रहो, परमेश्वर को बुनियादी सांत्वना दो, और वह सब करो जो एक सृजित प्राणी के लिए उचित और मूल रूप से हासिल करने योग्य हो। ये कोई आसान चीजें नहीं हैं। अपने कर्तव्यों को निभाने की प्रक्रिया में, लोग धीरे-धीरे खुद को और इस तरह परमेश्वर को जान सकते हैं। यह प्रक्रिया दरअसल सृष्टिकर्ता और सृजित प्राणियों के बीच एक संवाद है, और यह एक ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जो व्यक्ति के लिए जीवन भर याद रखने लायक हो। यह कोई कष्टदायी या मुश्किल प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए, बल्कि लोगों को इसका आनंद लेने में सक्षम होना चाहिए। इसलिए, लोगों को अपने कर्तव्य निभाने में बिताए गए दिनों और रातों, वर्षों और महीनों को संजोना चाहिए। उन्हें जीवन के इस चरण को संजोना चाहिए और इसे बोझ या बाधा नहीं मानना चाहिए। उन्हें अपने जीवन के इस चरण का आनंद लेना और अनुभवात्मक ज्ञान हासिल करना चाहिए। तभी, वे सत्य की समझ प्राप्त करेंगे और एक इंसान की तरह जीवन जिएंगे, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होगा, और वे कम-से-कम बुरे कर्म करेंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास और सत्य में प्रवेश का मार्ग मिला। बचाए जाने और पूर्ण किए जाने के लिए, व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करना चाहिए, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न परिवेशों को संजोना चाहिए, उनसे अपनी भ्रष्टता और कमियों को समझना चाहिए, सब कुछ परमेश्वर के वचनों पर आधारित करना, सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जीना चाहिए, तभी वह उद्धार के मार्ग पर चल सकता है। अपनी बीमारी पर फिर से सोचूँ तो मैं असफल इसलिए हुई क्योंकि मैंने परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बारे में केवल खोखली घोषणाएँ कीं, मैंने परमेश्वर द्वारा सावधानीपूर्वक व्यवस्थित इस परिवेश को नहीं संजोया और इस बात पर तो विचार भी नहीं किया कि इस बीमारी के जरिये परमेश्वर किस भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट कर रहा था या मुझे सत्य के किन पहलुओं में प्रवेश करना चाहिए। बल्कि मैंने इस बीमारी को एक बाधा और बोझ मान लिया। चीजों को अनुभव करने के मेरे तरीके के अनुसार, अगर मेरा शरीर स्वस्थ और बीमारी या परेशानी से मुक्त भी होता, तब भी मुझे बचाया नहीं जा सकता था। परमेश्वर ने अभी तक मेरा जीवन न लेकर मुझे अभी भी जीने का मौका दिया है। मेरे पास अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए, खुद को सत्य से युक्त करते हुए परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जीने पर ध्यान देना चाहिए।
बाद में, मुझे लगातार दो बार कोविड-19 हुआ और मेरे सीने का दर्द काफी बढ़ गया। मेरे मन में फिर से अजीबोगरीब विचार आने लगे, जैसे कि “कहीं ऐसा तो नहीं कि कैंसर मेरे फेफड़ों तक फैल गया हो?” यह सोचकर मेरे दिल में अत्यधिक बेचैनी होने लगी। पाठ-आधारित काम करने वाली टीम के साथ काम का सारांश तैयार करते हुए मैं फिर से बेचैन थी और यह सोच रही थी, “मैं अभी-अभी ठीक हुई हूँ; अगर बाहर जाने पर फिर से संक्रमित हो गई तो क्या होगा? मेरा शरीर अब और ज्यादा कष्ट सहन नहीं कर सकता।” मैं अपनी जगह अगुआ को जाने के लिए कहना चाहती थी। मगर जब ये ख्याल आए तो मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को याद किया : “लोगों को अपने कर्तव्य निभाने में बिताए गए दिनों और रातों, वर्षों और महीनों को संजोना चाहिए। उन्हें जीवन के इस चरण को संजोना चाहिए और इसे बोझ या बाधा नहीं मानना चाहिए। उन्हें अपने जीवन के इस चरण का आनंद लेना और अनुभवात्मक ज्ञान हासिल करना चाहिए। तभी, वे सत्य की समझ प्राप्त करेंगे और एक इंसान की तरह जीवन जिएंगे, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होगा, और वे कम-से-कम बुरे कर्म करेंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैं धीरे-धीरे शांत हुई और मुझे एहसास हुआ कि मेरी बीमारी वास्तव में अभी तक मेरे जीवन के लिए घातक नहीं थी और यह केवल सीने में मामूली-सा दर्द था। मैंने शारीरिक परेशानी के कारण अपने कर्तव्य से बचने की अपनी इच्छा पर विचार किया। मैं किस तरह से परमेश्वर के प्रति निष्ठावान और समर्पित रही हूँ? मैं कितनी स्वार्थी थी! मैंने सत्य खोजने या परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने पर ध्यान नहीं दिया और सत्य प्राप्त करने के कई अवसर गँवा दिए। अब मैं इन अवसरों को और नहीं गँवा सकती थी। मुझे इसे स्वीकार करके समर्पित होना चाहिए और वास्तव में इस परिवेश का अनुभव करना चाहिए। भले ही मैं फिर से कोविड-19 से संक्रमित हो जाऊँ, मगर यह पीड़ा तो मुझे सहनी ही होगी और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाना ही होगा। जब मैंने इस तरह से सोचा, तो मेरा दिल चिंतामुक्त हो गया और अब मैं नकारात्मक भावनाओं से बंधी या बेबस नहीं थी। पूरे दिल से अपना कर्तव्य निभाने के बाद, मैं स्थिर और शांत महसूस करने लगी।