83. मैं आखिरकार बुरे लोगों का भेद पहचान सकती हूँ

एन शुन, चीन

मार्च 2020 में मुझे अपनी माँ का एक पत्र मिला। मुझे पता चला कि लगभग एक साल पहले ही उसे कलीसिया से एक बुरे व्यक्ति के रूप में निकाल दिया गया था। अचानक मिले इस संदेश ने मुझे हिलाकर रख दिया। पूरा पत्र पढ़ने से पहले ही मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। अंत के दिनों में परमेश्वर का उद्धार कार्य जीवन में एक बार मिलने वाला मौका है! चूँकि मेरी माँ को कलीसिया से निकाल दिया गया था तो क्या उसने बचाए जाने की अपनी उम्मीद नहीं गँवा दी है? उस पल मेरे दिमाग में बस यही बात कौंधी कि मेरी माँ मेरे लिए कितनी अच्छी थी : बचपन से ही मेरी माँ ने मुझे परमेश्वर के वचन पढ़ना और प्रार्थना करना सिखाया था। मेरे पिता चाहते थे कि मैं ठीक से पढ़ाई करूँ और भविष्य में आगे बढ़ूँ, लेकिन यह मेरी माँ ही थी जिसने जोर दिया कि मैं परमेश्वर में विश्वास करूँ और कर्तव्य निभाऊँ, जिससे मैं जीवन में सही मार्ग पर चल सकी। बाद में सुसमाचार फैलाने के लिए पुलिस मेरी माँ के पीछे पड़ गई और उसे भागना पड़ा। हर बार जब वह मुझे पत्र लिखती थी तो मुझे ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित करती थी... यह यादें मेरे दिमाग में किसी फिल्म के दृश्यों की तरह घूमने लगीं। मेरी माँ को सोलह साल से परमेश्वर में विश्वास था और भले ही वह दो बार गिरफ्तार हुई, लेकिन उसने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया और घर से दूर रहकर अपने कर्तव्य करती रही, जिससे मुझे विश्वास हो गया कि वह वाकई परमेश्वर में विश्वास करती है। तो उसे कैसे बाहर निकाला जा सकता है? क्या अगुआ ने कोई गलती की थी? क्या इतने साल के त्याग और खपाने को देखते हुए उसे पश्चात्ताप का एक और मौका नहीं मिल सकता था? उसने अपने पत्र में कहा कि वह अपने कर्तव्यों में लापरवाह रही थी और आपे से बाहर हो गई थी और वह भाई-बहनों के बीच मतभेद पैदा कर रही थी और गुट बना रही थी, जिससे कलीसिया के काम को नुकसान पहुँच रहा था, और जब भी उसकी काट-छाँट की गई तो उसने आत्म-चिंतन नहीं किया या खुद को नहीं पहचाना और हमेशा सोचा कि समस्या किसी और के साथ है। उसने कहा कि उसने बहुत सारी बुराइयाँ की हैं और उसे बाहर निकालना उचित था, उसने एक दशक से अधिक समय तक आस्था में कोई गवाही नहीं दी और इसके बजाय उसने कई बुराइयाँ कीं और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाया। उसने कहा कि वह बूढ़ी शैतान, शैतान की अनुचर और बुरी राक्षस है, उसका जीवित रहना शर्म की बात है और वह इतनी तकलीफ में है कि खुद को मार डालना चाहती है। फिर मैंने सोचा कि कैसे मेरी माँ ने बाहर निकाले जाने के बाद भी मेरे कर्तव्यों में मेरा साथ देने के लिए अपनी कमाई से पैसे भेजे। मेरी माँ के व्यवहार ने मुझे दुविधा में डाल दिया : क्या यह सिर्फ इसलिए था कि उसका भ्रष्ट स्वभाव बहुत गंभीर था, न कि उसके सार में कुछ गड़बड़ थी? अगर उसे एक और मौका मिले तो क्या वह पश्चात्ताप कर पाएगी और बाहर निकाले जाने से बच पाएगी? परमेश्वर लोगों को यथासंभव अधिकतम सीमा तक बचाता है और परमेश्वर का घर उन लोगों को वापस लौटने की अनुमति देता है जो बाहर निकाले गए हैं, अगर वे वाकई पश्चात्ताप करते हैं। चूँकि मेरी माँ ने बाहर निकाले जाने के बाद कुछ अच्छे व्यवहार दिखाए थे, शायद कलीसिया उसे एक और मौका दे सकती है? इसलिए मैंने उसकी मदद करने के लिए एक पत्र लिखा, जिसमें उसे ईमानदारी से पश्चात्ताप करने के लिए कहा और कहा कि अगर वह वाकई पश्चात्ताप करती है तो उसे कलीसिया में फिर स्वीकारा जा सकता है।

एक सभा के दौरान मैंने अपने विचारों का उल्लेख किया और एक बहन ने मुझसे कहा कि मुझे अपनी माँ के सार के भेद की पहचान नहीं है, इसलिए मैं हमेशा चाहती हूँ कि उसे कलीसिया में फिर से स्वीकारा जाए और उसने मुझसे कहा कि मुझे इस मामले में सत्य की खोज करने की जरूरत है। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर इस बहन का उपयोग मुझे सबक सीखने की याद दिलाने के लिए कर रहा है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अपनी माँ को बाहर निकाले जाने के बारे में उलझन में हूँ, मुझे सत्य समझने के लिए प्रबुद्ध करो और मुझे अपनी माँ के प्रकृति सार का भेद पहचानने और भावनाओं के बंधन से बचने की अनुमति दो।”

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “जो लोग कलीसिया के भीतर विषैली, दुर्भावनापूर्ण बातों का गुबार निकालते हैं, भाई-बहनों के बीच अफवाहें व अशांति फैलाते हैं और गुटबाजी करते हैं, तो ऐसे सभी लोगों को कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए था। अब चूँकि यह परमेश्वर के कार्य का एक भिन्न युग है, इसलिए ऐसे लोग नियंत्रित हैं, क्योंकि उन्हें निश्चित रूप से निकाला जाना है। शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली दानव और शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और विघ्न पैदा होता है; इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में विघ्न पड़ता है और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचती है। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन अनुचरों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। “जो लोग सचमुच में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, ये वे लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने को तैयार रहते हैं, और सत्य को अभ्यास में लाने को तैयार हैं। जो लोग सचमुच में परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं ये वे लोग हैं जो उसके वचनों को अभ्यास में लाने को तैयार हैं, और जो सचमुच सत्य के पक्ष में खड़े हो सकते हैं। जो लोग चालबाज़ियों और अन्याय का सहारा लेते हैं, उनमें सत्य का अभाव होता है, वे सभी परमेश्वर को लज्जित करते हैं। जो लोग कलीसिया में कलह में संलग्न रहते हैं, वे शैतान के अनुचर हैं, और शैतान के मूर्तरूप हैं। इस प्रकार का व्यक्ति बहुत द्वेषपूर्ण होता है। जिन लोगों में विवेक नहीं होता और सत्य के पक्ष में खड़े होने का सामर्थ्य नहीं होता वे सभी दुष्ट इरादों को आश्रय देते हैं और सत्य को मलिन करते हैं। ये लोग शैतान के सर्वोत्कृष्‍ट प्रतिनिधि हैं; ये छुटकारे से परे हैं, और स्वाभाविक रूप से निकाल दी जाने वाली वस्तुएँ हैं। परमेश्वर का परिवार उन लोगों को बने रहने की अनुमति नहीं देता है जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, और न ही यह उन लोगों को बने रहने की अनुमति देता है जो जानबूझकर कलीसियाओं को ध्वस्त करते हैं। हालाँकि, अभी निष्कासन के कार्य को करने का समय नहीं है; ऐसे लोगों को सिर्फ उजागर किया जाएगा और अंत में निकाल दिया जाएगा। इन लोगों पर व्यर्थ का कार्य और नहीं किया जाना है; जिनका सम्बंध शैतान से है, वे सत्य के पक्ष में खड़े नहीं रह सकते हैं, जबकि जो सत्य की खोज करते हैं, वे सत्य के पक्ष में खड़े रह सकते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन ने मुझे समझाया कि सिर्फ वही लोग जो सत्य स्वीकार कर सकते हैं और उसका अभ्यास कर सकते हैं, असल में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और जो लोग सत्य स्वीकारने से इनकार करते हैं, लगातार बुराइयाँ करते हैं और कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं और कभी पश्चात्ताप नहीं करते, वही असली राक्षस और शैतान हैं। वे ही हैं जिन्हें परमेश्वर बेनकाब करके हटा देगा और कलीसिया उन्हें बाहर निकाल देगी। यह कलीसिया का एक प्रशासनिक आदेश है। अपने भाई-बहनों से मैंने जाना कि मेरी माँ अपने कुकर्मों में लगातार पश्चात्ताप नहीं करती रही थी। उसने एक बहन द्वारा बेनकाब किए गए भ्रष्टाचार का फायदा उठाकर उस पर हमला और आलोचना की और उसने इस बहन की आलोचना करने और उसे बहिष्कृत करने के लिए दूसरों से मिलीभगत की, जिससे इस बहन की अवस्था खराब हो गई। मेरी माँ को अपने कर्तव्यों में कोई नतीजा नहीं मिला था और जब उनके टीम अगुआ ने उसकी प्रगति के लिए दबाव डाला तो उसने उनकी पीठ पीछे उसे अप्रेमपूर्ण करार दिया। एक पर्यवेक्षक ने संगति की और उसकी समस्याएँ उजागर कीं, लेकिन उसने कहा कि वे उसे दबा रहे हैं और उसे बोलने नहीं दे रहे हैं। उसने पर्यवेक्षक के प्रति भी अपनी असंतुष्टि जताई, जिससे दूसरों में उसके प्रति पूर्वाग्रह पैदा हो गया, जिससे काम में गंभीर गड़बड़ियाँ और विघ्न-बाधाएँ पड़ीं। अगुआ ने उसके कार्यों और आचरण का गहन विश्लेषण किया, उसे चेतावनी दी और उसे अलग-थलग कर आत्म-चिंतन करने को कहा। लेकिन मेरी माँ ने आत्म-चिंतन नहीं किया और इसके बजाय मनमर्जी से विभिन्न सभाओं में जाती रही, और भाई-बहनों और अगुआओं के बीच कलह पैदा करती रही। इन तथ्यों ने मुझे स्तब्ध कर दिया। मेरी माँ का स्वभाव बहुत ही क्रूर था! अगर कोई भी उसकी इच्छा के विरुद्ध जरा भी कुछ करता तो वह उसके प्रति द्वेष रखने लगती, पीठ पीछे उसकी आलोचना करती, असंतोष पैदा करती और भाई-बहनों के बीच कलह फैलाती, कलीसिया के काम में बाधा डालती। दूसरों ने उसे बार-बार चेतावनी दी थी, लेकिन वह पूरी तरह से पश्चात्ताप नहीं करती थी, लगातार बुराई करती थी और कलीसिया का काम और भाई-बहनों का जीवन प्रवेश बाधित करती थी। यह भ्रष्टता का सामान्य बेनकाब होना नहीं था, न ही यह गंभीर भ्रष्ट स्वभाव की समस्या थी जैसा मैंने सोचा था, बल्कि उसका स्वभाव कूर था और बुरी इंसान के रूप में उसका सार बेनकाब हो गया था। अगर उसे एक और मौका दिया जाता तो भी वह पश्चात्ताप नहीं करती। कलीसिया ने उसे सिद्धांतों के अनुसार बाहर निकाला था ताकि कलीसिया के काम और भाई-बहनों को और अधिक गड़बड़ी से बचाया जा सके। इस तरह से चीजें सँभालना पूरी तरह से न्यायसंगत और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप था। मैंने हमेशा सोचा था कि सोलह साल की आस्था, कई साल तक कर्तव्य निभाने, दो बार गिरफ्तार होने के बाद भी उसका विश्वास करते रहना, परिवार और करियर त्यागना, और उसके सारे प्रयास और खपना बताता है कि वह सच्ची विश्वासी थी। लेकिन अब मैंने साफ देखा कि मेरी माँ सिर्फ कलीसिया में घुसने और आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करती थी, और वह स्वर्ग के आशीषों के लिए अपने दिखावटी त्याग और बलिदान का लेन-देन करना चाहती थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, लेकिन उसने एक भी सत्य नहीं स्वीकारा या अभ्यास नहीं किया। इसके बजाय उसने बुराई की और कलीसिया में बाधाएँ पैदा कीं और पश्चात्ताप करने से हठपूर्वक इनकार कर दिया। यह एक बुरी व्यक्ति है। यह फरीसियों से कैसे अलग है, जिन्होंने प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त सत्य स्वीकारने से इनकार कर दिया और जिन्होंने लोगों को धर्मांतरित करने के लिए दुनिया भर में यात्रा करने के बावजूद प्रभु यीशु को सूली पर लटका दिया? मुझे प्रभु यीशु द्वारा कही गई एक बात याद आई : “हर वो व्यक्ति जिसने मुझ प्रभु को प्रभु कहा, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा; बल्कि वो करेगा जो स्वर्ग में रहने वाले मेरे पिता की इच्छा के अनुसार चलता है। उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’(मत्ती 7:21-23)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझाया कि कोई व्यक्ति बाहरी त्याग और प्रयास कर सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह सच्चा विश्वासी है और परमेश्वर इस प्रकार की आस्था को मान्यता नहीं देता। सिर्फ सत्य स्वीकारने और उसका अभ्यास करने वाले लोग ही सच्चे विश्वासी हैं। ऐसे लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने, परमेश्वर का उद्धार पाने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने की उम्मीद होती है। मैंने यह भी सोचा कि मेरी माँ को बाहर निकालने के बाद उसका अपने बुरे कर्मों और खुद को राक्षस और शैतान के रूप में पहचानना क्या सच्चा पश्चात्ताप था और क्या यह कलीसिया द्वारा उसे वापस आने की अनुमति देने के लिए काफी था।

अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “परमेश्वर नीनवे के लोगों से चाहे जितना भी क्रोधित रहा हो, लेकिन जैसे ही उन्होंने उपवास की घोषणा की और टाट ओढ़कर राख पर बैठ गए, वैसे ही उसका हृदय नरम होने लगा, और उसने अपना मन बदलना शुरू कर दिया। उनसे यह घोषणा करने के एक क्षण पहले कि वह उनके नगर को नष्ट कर देगा—उनके द्वारा अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने से पहले के क्षण तक भी—परमेश्वर उनसे क्रोधित था। लेकिन जब वो लोग लगातार पश्चात्ताप के कार्य करते रहे, तो नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर का कोप धीरे-धीरे उनके प्रति दया और सहनशीलता में बदल गया। एक ही घटना में परमेश्वर के स्वभाव के इन दो पहलुओं के एक-साथ प्रकाशन में कोई विरोध नहीं है। तो विरोध के न होने को कैसे समझना और जानना चाहिए? नीनवे के लोगों द्वारा पहले और बाद में पश्चात्ताप करने पर परमेश्वर ने ये दो एकदम विपरीत सार व्यक्त और प्रकाशित किए, जिससे लोगों ने परमेश्वर के सार की वास्तविकता और अनुल्लंघनीयता देखी। परमेश्वर ने लोगों को निम्नलिखित बातें बताने के लिए अपने रवैये का उपयोग किया : ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों को बरदाश्त नहीं करता, या वह उन पर दया नहीं दिखाना चाहता; बल्कि वे कभी परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप नहीं करते, और उनका सच में अपने कुमार्ग को छोड़ना और हिंसा त्यागना एक दुर्लभ बात है। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर मनुष्य से क्रोधित होता है, तो वह आशा करता है कि मनुष्य सच में पश्चात्ताप करेगा और वह मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप देखने की आशा करता है, और उस दशा में वह मनुष्य पर उदारता से अपनी दया और सहनशीलता बरसाता रहेगा। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का बुरा आचरण परमेश्वर के कोप को जन्म देता है, जबकि परमेश्वर की दया और सहनशीलता उन लोगों पर बरसती है, जो परमेश्वर की बात सुनते हैं और उसके सम्मुख वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं, जो कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं। नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के व्यवहार में उसका रवैया बहुत साफ तौर पर प्रकट हुआ था : परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त करना बिल्कुल भी कठिन नहीं है; और वह इंसान से सच्चा पश्चात्ताप चाहता है। यदि लोग कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं, तो परमेश्वर उनके प्रति अपना हृदय और रवैया बदल लेता है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। “जब तुम देखते हो कि दुनिया में दानव और शैतान कैसे परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं, तो तुम देखते हो कि आध्यात्मिक क्षेत्र के दानव और शैतान किस तरह परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं—इनमें बिल्कुल भी अंतर नहीं है। उनका स्रोत एक ही है और दोनों में एक ही प्रकृति सार है, इसीलिए वे एक-जैसे काम करते हैं। वे चाहे जो रूप धरें, सभी एक ही काम करते हैं। ... अगर वे परमेश्वर पर हमला करते हैं, उसकी ईशनिंदा करते हैं, तो वे दानव हैं, इंसान नहीं। इंसानी रूप में वे चाहे जितनी बढ़िया या सही बातें करें, उनका प्रकृति सार दानवों का ही है। लोगों को गुमराह करने के लिए दानव सुनने में अच्छी लगने वाली बातें कह सकते हैं, फिर भी वे सत्य बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, उस पर अमल करना तो बहुत दूर की बात है—बात बिल्कुल यही है। उन बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों और परमेश्वर की अवज्ञा कर उसके साथ विश्वासघात करने वाले लोगों पर गौर करो—क्या वे इस किस्म के व्यक्ति नहीं हैं? ... मुझे बताओ, इन दानवी लोगों या दानवी प्रकृति सार वाले लोगों को क्या परमेश्वर के घर में बने रहने देना उपयुक्त है? (बिल्कुल नहीं।) नहीं, यह उपयुक्त नहीं है। ये परमेश्वर के चुने हुए लोगों के समान नहीं हैं : परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के होते हैं, जबकि ये लोग दानवों और शैतान के हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने से मुझे नीनवे के लोगों के बारे में समझ आया, जिन्होंने अपने कुकर्मों के कारण परमेश्वर का क्रोध भड़काया और विनाश का सामना किया। परंतु क्योंकि “अपने कुमार्ग को छोड़ना और हिंसा त्यागना एक दुर्लभ बात है” और क्योंकि उन्होंने सच्चा पश्चात्ताप किया, वे परमेश्वर की दया और क्षमा पाने में सक्षम थे। केवल तब जब तुम उस बुरे मार्ग को लेकर आत्म-चिंतन करते हो, उसे पहचानते हो, पछताते हो और उससे घृणा करते हो जिस पर तुम कभी चल रहे थे, और जब तुम परमेश्वर के वचन को सुनते हो और नए सिरे से शुरू कर पाते हो और उस बुरे मार्ग पर चलना बंद कर देते हो तो तुम परमेश्वर की दया और क्षमा पाने में सक्षम होते हो। सत्य स्वीकारे या उसका अभ्यास किए बिना सिर्फ अच्छे लगने वाले शब्द कहना सच्चा पश्चात्ताप नहीं है और परमेश्वर ऐसे लोगों के प्रति कोई दया या क्षमा नहीं दिखाएगा। मैंने अपनी माँ के व्यवहार पर गौर किया और पाया कि उसे अभी भी उन सभी गंभीर बुराइयों का एहसास नहीं था जो उसने की थीं। इसके बजाय उसने दूसरों पर दोष मढ़ते हुए कहा कि उस समय एक बहन ने पर्यवेक्षक का तिरस्कार किया था, अक्सर उसकी गलतियाँ दिखाईं और उसकी खामियों के बारे में गपशप की और क्योंकि वह खुद भेद नहीं पहचानती थी, इसलिए उसने बुराई करने में इस बहन का साथ दिया। मेरी माँ को अभी भी उसके द्वारा किए गए सभी बुरे कामों या उसकी कपटी और द्वेषपूर्ण शैतानी प्रकृति के बारे में कोई समझ नहीं थी और उसे इन चीजों के लिए कोई वास्तविक पछतावा और घृणा महसूस नहीं हुई तो वह वाकई पश्चात्ताप कैसे कर सकती थी? अगर उसे फिर से स्वीकारा जाता तो वह पहले की तरह ही कुकर्म करती और कलीसिया के काम में बाधा डालती रहती। साथ ही, भले ही उसने खुद को एक बूढ़ी दानव, शैतान की अनुचर और एक बुरी राक्षस के रूप में पहचाना था, उसने जो भी बुरे काम किए थे, उसने उन्हें क्यों किया था, कौन से इरादे उसे नियंत्रित कर रहे थे, वह कौन से शैतानी जहरों का अनुसरण कर रही थी और उसका कौन सा शैतानी स्वभाव शामिल था, उसके पास कोई वास्तविक चिंतन या समझ नहीं थी। मैंने उन सभी सही बातों के बारे में सोचा जो मेरी माँ ने मुझे बचपन में बताई थीं, जैसे कि अंत के दिनों में परमेश्वर का उद्धार कार्य कितना मूल्यवान है और ईमानदारी से कर्तव्य निभाना और सत्य का अनुसरण करना जीवन में सही मार्ग है लेकिन भले ही वह एक दशक से अधिक समय से यह बातें कह रही थी, उसने किसी सत्य का स्वीकार या उसका अभ्यास नहीं किया था। उसने मौखिक रूप से अपने कुकर्मों को स्वीकारा था और वह सही बातें कहने में सक्षम थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि उसने वाकई पश्चात्ताप किया। कलीसिया उन लोगों को वापस आने की अनुमति देती है जिन्होंने सच्चा पश्चात्ताप किया हो, मेरी माँ जैसे लोगों को नहीं, जिन्होंने सिर्फ मौखिक स्वीकारोक्ति की और असल बदलाव नहीं किया।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “चाहे तुम एक मसीह-विरोधी या कुकर्मी हो, या चाहे तुम्हें बहिष्कृत या निष्कासित किया गया हो, एक व्यक्ति के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना एक ऐसी चीज है जो तुम्हें करनी ही चाहिए। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह एक ऐसी चीज है जो तुम्हें करनी ही चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से सत्यों की बहुत बड़ी आपूर्ति मिली है, और यह परमेश्वर के कड़ी मेहनत वाले प्रयास भी हैं। परमेश्वर के घर ने इतने वर्षों तक तुम्हें सींचा है और तुम्हारा भरण-पोषण किया है, लेकिन क्या परमेश्वर तुमसे कुछ माँगता है? नहीं। परमेश्वर के घर द्वारा वितरित तरह-तरह की सभी किताबें मुफ्त हैं, किसी को भी एक पैसा तक खर्च नहीं करना पड़ता है। इसी तरह, परमेश्वर के शाश्वत जीवन का सच्चा तरीका और जीवन के वचन जो वह लोगों को प्रदान करता है, मुफ्त हैं, और परमेश्वर के घर के धर्मोपदेश और संगतियाँ सभी लोगों के सुनने के लिए मुफ्त हैं। इसलिए, चाहे तुम एक साधारण व्यक्ति हो या किसी खास समूह के सदस्य हो, तुम्हें परमेश्वर से मुफ्त में बहुत सारे सत्य मिले हैं, इसलिए यकीनन यह उचित ही है कि तुम, लोगों में परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के सुसमाचार का प्रचार करो और लोगों को परमेश्वर की मौजूदगी में लेकर आओ, है ना? परमेश्वर ने मानवजाति को सभी सत्य प्रदान किए हैं; ऐसे महान प्रेम का प्रतिदान कर पाना किसके सामर्थ्य में है? परमेश्वर का अनुग्रह, परमेश्वर के वचन और परमेश्वर का जीवन अनमोल हैं, और किसी भी मनुष्य में उनका प्रतिदान कर पाने का सामर्थ्य नहीं है! क्या मनुष्य का जीवन इतना कीमती है? क्या इसकी कीमत सत्य जितनी हो सकती है? इसलिए, किसी में भी परमेश्वर के प्रेम और अनुग्रह का प्रतिदान कर पाने का सामर्थ्य नहीं है, और इसमें वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें कलीसिया द्वारा निष्कासित कर दिया गया है, बहिष्कृत कर दिया गया है और हटा दिया गया है—वे कोई अपवाद नहीं हैं। जब तक तुम्हारे पास थोड़ा जमीर, सूझ-बूझ और मानवता है, तब चाहे परमेश्वर का घर तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार क्यों ना करे, तुम्हें परमेश्वर के वचनों को फैलाने और उसके कार्य की गवाही देने का अपना दायित्व पूरा करना ही चाहिए। यह लोगों की अनिवार्य जिम्मेदारी है। इसलिए, चाहे तुम कितने भी लोगों में परमेश्वर के वचनों का प्रचार करो और सुसमाचार फैलाओ, या तुम कितने भी लोगों को प्राप्त कर लो, यह ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए तुम्हारी तारीफ की जाए। परमेश्वर ने इतने सारे सत्य अभिव्यक्त किए हैं और फिर भी तुम उन्हें सुनते नहीं हो या स्वीकार नहीं करते हो। यकीनन थोड़ी सेवा करना और दूसरों में सुसमाचार का प्रचार करना वही चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए, है ना? यह देखते हुए कि तुम आज इतनी दूर तक आ गए हो, क्या तुम्हें पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए? क्या तुम्हें परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने के अवसरों की तलाश नहीं करनी चाहिए? तुम्हें वास्तव में यही करना चाहिए! परमेश्वर के घर में प्रशासनिक आदेश हैं, और लोगों को बहिष्कृत करना, निष्कासित करना और हटा देना ऐसी चीजें हैं जो प्रशासनिक आदेशों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार की जाती हैं—ये चीजें करना सही है। कुछ लोग कह सकते हैं, ‘जिन लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित किया गया है, उनके द्वारा सुसमाचार का प्रचार करने से प्राप्त लोगों को कलीसिया में स्वीकार करना कुछ हद तक शर्मनाक है।’ दरअसल, यह वही कर्तव्य है जिसे लोगों को करना चाहिए, और इसमें शर्मिंदा होने वाली कोई बात नहीं है। सभी लोग सृजित प्राणी हैं। भले ही तुम्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया गया हो, कुकर्मी या मसीह-विरोधी के रूप में तुम्हारी निंदा की गई हो, या तुम हटाए जाने के लिए एक लक्ष्य हो, क्या फिर भी तुम सृजित प्राणी नहीं हो? एक बार जब तुम्हें बहिष्कृत कर दिया जाता है, तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हारा परमेश्वर नहीं रहता है? क्या परमेश्वर ने तुमसे जो वचन कहे हैं और परमेश्वर ने तुम्हें जो चीजें प्रदान की हैं, वे एक ही झटके में मिट जाती हैं? क्या उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है? उनका अस्तित्व अब भी है, बस यही है कि तुमने उन्हें संजोया नहीं है। सभी धर्मांतरित लोग, चाहे किसी ने भी उन्हें धर्मांतरित किया हो, सृजित प्राणी हैं और उन्हें स्वयं सृष्टिकर्ता के सामने समर्पण करना चाहिए। इसलिए, अगर ये लोग जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया गया है, सुसमाचार का प्रचार करने के इच्छुक हैं, तो हम उन्हें प्रतिबंधित नहीं करेंगे; लेकिन चाहे वे कैसे भी प्रचार करें, लोगों का उपयोग करने के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांत और परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेश अपरिवर्तनीय हैं, और यह चीज कभी नहीं बदलेगी(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (6))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि परमेश्वर ने बहुत से वचन व्यक्त किए हैं और हमेशा लोगों को बचाने का काम करता रहा है, यह उद्धार हमें मुफ्त में दिया गया है और यह स्वाभाविक है कि हम अपने कर्तव्य करें। भले ही मेरी माँ को बाहर निकाल दिया गया था, फिर भी वह एक सृजित प्राणी थी और जीने के लिए भोजन, पानी और हवा के लिए हर दिन परमेश्वर पर निर्भर थी। परमेश्वर ने उसे अपना वचन खाने और पीने के अधिकार से वंचित नहीं किया था। वह सुसमाचार फैलाना चाहती थी और मेरे कर्तव्यों में मदद करने के लिए मुझे पैसे देती थी, जिससे सिर्फ उसकी कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी होती थीं, लेकिन उसने वाकई पश्चात्ताप नहीं किया था और सिद्धांतों के अनुरूप वह वापस लौटने के लिए उपयुक्त नहीं थी। मैं भ्रमित रहती थी, सत्य की खोज नहीं करती थी और मुझे परमेश्वर के स्वभाव की समझ नहीं थी। मैंने देखा कि मेरी माँ का कुछ आचरण अच्छा था और वह कुछ सही बातें बोल पाती थी, इसलिए मुझे हमेशा उम्मीद थी उसे कलीसिया उसे वापस ले पाएगी। मैं बहुत भ्रमित थी! मैंने मन में खुद से यह भी पूछा, अगर किसी और को बाहर निकाल दिया गया होता तो भी क्या मैं उम्मीद करती कि उसे वापस स्वीकार लिया जाए? मैं नहीं करती। मैं क्यों उम्मीद कर रही थी कि मेरी माँ को एक और मौका दिया जाएगा और उसे बाहर निकाल दिए जाने के बाद वापस स्वीकार कर लिया जाएगा? इस समस्या का मूल क्या था? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर के वचनों का अंतिम भाग मानवजाति की सबसे बड़ी कमजोरी को प्रकट करता है—वे सभी भावनाओं की एक दशा में जीते हैं—और इसलिए परमेश्वर उनमें से किसी एक को भी बख़्शता नहीं है, और संपूर्ण मानवजाति के हृदयों में छिपे रहस्यों को उजागर करता है। लोगों के लिए स्वयं को अपनी भावनाओं से पृथक करना इतना कठिन क्यों है? क्या ऐसा करना अंतरात्मा के मानकों के परे जाना है? क्या अंतरात्मा परमेश्वर की इच्छा पूरी कर सकती है? क्या भावनाएँ विपत्ति में लोगों की सहायता कर सकती हैं? परमेश्वर की नज़रों में, भावनाएँ उसकी दुश्मन हैं—क्या यह परमेश्वर के वचनों में स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 28)। परमेश्वर उजागर करता है कि भावनाएँ उसकी दुश्मन हैं, वे मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी हैं, भावनाओं में जीना तुम्हें चीजों और लोगों को सिद्धांतों के अनुरूप देखने से रोकेगा और इस तरह जीने से तुम कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा करने में प्रवृत्त होगे। पहले मुझे नहीं पता था कि मेरी भावनाएँ कितनी प्रबल हैं। पिछले कुछ सालों में मेरे आसपास के लोगों को बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों के रूप में बेनकाब किया गया था और मैं उनकी समस्याओं का सच्चाई से मूल्यांकन करने और उन्हें उजागर करने में सक्षम थी। इस वजह से मुझे लगा कि मुझमें अभी भी न्याय की भावना है, लेकिन मेरी माँ को बाहर निकाले जाने से मैं पूरी तरह से बेनकाब हो गई। मेरी माँ ने बहुत सी बुराइयाँ की थीं और फिर भी मैं उससे घृणा नहीं करती थी। इसके विपरीत जब भी मैं उसे बाहर निकाले जाने के बारे में सोचती थी तो दुखी होकर रो पड़ती थी और मुझे उसके उद्धार का अवसर खोने पर बहुत तकलीफ होती थी, इस हद तक कि मुझे संदेह होने लगा कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने उसे बाहर निकालकर कोई गलती की है और उसकी ओर से मुझे लगा कि अन्याय हुआ है। अपनी माँ द्वारा कुछ अच्छे व्यवहार दिखाने और बाहर निकाले जाने के प्रति कोई बाहरी हठ या प्रतिरोध नहीं दिखाने पर मैंने हमेशा उम्मीद जताई कि कलीसिया उसे वापस ले लेगी। भले ही मैंने उसकी ओर से नरमी की अपील नहीं की, अपनी सोच में मैं परमेश्वर के खिलाफ खड़ी थी। अगर परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन और तथ्यों का खुलासा नहीं होता, जिसने मुझे उसका सार साफ देखने का मौका दिया, तो मैं उसकी ओर से वाकई नरमी की याचना करती और मैं एक बुरी इंसान के पक्ष में खड़ी हो जाती और परमेश्वर का प्रतिरोध करती। आत्म-चिंतन करने पर मैंने आखिरकार पहचाना कि ये शैतानी जहर जैसे “खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं” और “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” मेरे दिल में गहराई तक समा चुके थे, जिससे मैं भावनाओं के अनुसार जी रही थी और भले-बुरे में फर्क नहीं कर पा रही थी। चाहे मेरी माँ ने कोई भी बुराई की हो, मुझे यही लगता था कि वह अच्छी इंसान है और मेरे सबसे करीब है। मुझे लगा कि अगर मैं उसका पक्ष नहीं लूँगी तो उसकी ऋणी हो जाऊँगी और इस बोझ के साथ नहीं जी पाऊँगी। अब इस पर सोचूँ तो बचपन से ही माँ ने मेरे साथ परमेश्वर के वचन पढ़े थे, मुझे प्रार्थना करना सिखाया था, मुझे ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने के लिए प्रेरित किया था और घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य निभाने में मेरी मदद के लिए मुझे पैसे भेजे थे। यह सब और ऐसी अन्य चीजें सिर्फ एक माँ के रूप में उसकी जिम्मेदारियाँ पूरा करने के लिए थीं और इसमें भी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था थी। मैंने उन सभी वर्षों के बारे में सोचा जब मैंने सीसीपी द्वारा शासित राक्षसों के गढ़ में परमेश्वर पर विश्वास किया था। मैंने कई बार खतरों का सामना किया, लेकिन परमेश्वर ने ही मेरी देखभाल की और मुझे कठिनाइयों से उबारा। साथ ही जब मेरी गिरफ्तार होने का डर था तो मेरे भाई-बहनों ने मुझे बचाने के लिए खुद को जोखिम में डाला, जिनके साथ मेरा कोई खून का रिश्ता तक नहीं है। अपना कर्तव्य करते हुए मुझे दो बार गिरफ्तार किया गया और मेरा आपराधिक रिकॉर्ड बन गया, लेकिन मेरे भाई-बहन ही थे जिन्होंने मुझे अपने घर में रखा और मेरी देखभाल की, मानो मैं उनका अपना खून हूँ। यह सब परमेश्वर के प्रेम के कारण था, इसलिए मुझे परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और उनके प्रेम का बदला चुकाना चाहिए! मेरी माँ एक बुरी इंसान है, उसने पहले ही कलीसिया के काम में बहुत बाधा डाली है और यहाँ तक कि बाहर निकाले जाने के बाद भी अभी तक सच्चा पश्चात्ताप नहीं किया है। उसका भेद पहचाने बिना मैं अभी भी चाहती थी कि कलीसिया उसे एक और मौका दे और उसे वापस ले। मुझे परमेश्वर के घर के हितों या भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के बारे में जरा भी परवाह नहीं थी। क्या मैं सिर्फ एक बुरी इंसान का साथी बनकर परमेश्वर का विरोध और प्रतिरोध नहीं कर रही थी? मैं एक बुरी इंसान के प्रति कर्तव्यनिष्ठ और प्रेमपूर्ण बन रही थी, जो परमेश्वर के प्रति विश्वासघाती, भाई-बहनों के प्रति क्रूर और मानवता से रहित है। मैंने देखा कि मैं शैतानी जहरों के अनुसार जी रही थी और मैं एक मूर्ख थी जो भेद नहीं पहचानती थी और भले-बुरे में फर्क नहीं कर पाती थी। मैं लगभग शैतान के पक्ष में खड़ी थी और परमेश्वर का विरोध कर रही थी। मैं बहुत गंभीर संकट में थी! इन बातों का एहसास होने पर मैंने आखिरकार पहली बार समझा कि परमेश्वर का क्या मतलब है “भावनाएँ उसकी दुश्मन हैं” ये वचन बहुत व्यावहारिक और सत्य हैं! बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “तुझे शीघ्रातिशीघ्र अपनी भावनाओं को निकाल फेंकना चाहिए; मैं भावनाओं के वशीभूत कार्य नहीं करता हूँ, बल्कि धार्मिकता का प्रयोग करता हूँ। यदि तेरे माता-पिता कुछ भी ऐसा करते हैं जिससे कलीसिया को कोई लाभ नहीं होता, तो वे बच नहीं सकते हैं!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 9)। यह ठीक इसलिए है क्योंकि परमेश्वर भावनाओं के आधार पर कार्य करने के बजाय धार्मिकता बनाए रखता है और परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का शासन है, जो मसीह-विरोधी और बुरे लोग बिना पश्चात्ताप के परमेश्वर का कार्य बाधित करते हैं और उसे नष्ट करते हैं और भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाते हैं, उन्हें बाहर निकाला जा सकता है, ताकि कलीसिया का सारा काम सुचारू रूप से आगे बढ़ सके और भाई-बहनों को सामान्य कलीसियाई जीवन और परिवेश मिले जिसमें वे कर्तव्य कर सकें। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि हम अपनी कथनी-करनी में भावनाओं पर निर्भर रहने से बचें, और इसके बजाय सिद्धांतों पर भरोसा करें। हमें अपने माता-पिता के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए। और मुझे इसी सत्य का अभ्यास करना चाहिए। भले ही मेरी माँ ने मुझे शारीरिक रूप से जन्म दिया, वह सार रूप में एक बुरी इंसान है, परमेश्वर की दुश्मन है और परमेश्वर उससे घृणा करता है। मुझे इस मामले में सिद्धांतवादी होना चाहिए, परमेश्वर के साथ खड़े होना चाहिए और उसकी ओर से बोलने के लिए भावनाओं पर निर्भर नहीं होना चाहिए।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि मुझे अपनी माँ के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। परमेश्वर कहता है : “तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हैं, उनका प्रकृति सार छद्म-विश्वासियों और अविश्वासियों का या बुरे लोगों और राक्षसों तक का है, और वे उस मार्ग पर नहीं हैं जिस पर तुम हो। दूसरे शब्दों में, वे बिल्कुल भी तुम्हारे जैसे व्यक्ति नहीं हैं, और हालाँकि तुम कई वर्षों तक उनके साथ एक ही घर में रहे हो, लेकिन उनके अनुसरण या चरित्र तुम्हारे जैसे नहीं हैं, और निश्चित रूप से उनकी प्राथमिकताएँ या आकांक्षाएँ तुम्हारे जैसी नहीं हैं। तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और वे परमेश्वर में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते, यहाँ तक कि वे परमेश्वर का विरोध भी करते हैं। इन परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? (उन्हें नकार देना चाहिए।) परमेश्वर ने तुम्हें इन परिस्थितियों में उन्हें नकारने या कोसने के लिए नहीं कहा है। परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा। परमेश्वर की ‘अपने माता-पिता का सम्मान करने’ की अपेक्षा अभी भी कायम है। इसका मतलब यह है कि अगर तुम अपने माता-पिता के साथ रह रहे हो, तो तुम्हें अभी भी अपने माता-पिता का सम्मान करने की यह अपेक्षा कायम रखनी चाहिए। इस बात में कोई विरोधाभास नहीं है, है न? (नहीं है।) इसमें बिल्कुल भी कोई विरोधाभास नहीं है। दूसरे शब्दों में, जब तुम उनसे मिलने के लिए घर लौट पाते हो, तो तुम उनके लिए खाना पका सकते हो या कुछ पकौड़ियाँ तल सकते हो, और अगर संभव हो तो उनके लिए कुछ स्वास्थ्य-उत्पाद खरीद सकते हो, वे तुमसे बहुत संतुष्ट होंगे। ... अपने माता-पिता समेत, अन्य सभी लोगों के प्रति तुम्हारे व्यवहार के सिद्धांत होने चाहिए; चाहे वे परमेश्वर में विश्वास करते हों या नहीं, और चाहे वे दुष्ट लोग हों या नहीं, तुम्हें उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। परमेश्वर ने मनुष्य को यह सिद्धांत बताया है : यह दूसरों के साथ उचित व्यवहार करने के बारे में है—बात बस इतनी है कि लोगों की अपने माता-पिता के प्रति अतिरिक्त जिम्मेदारी है। तुम्हें बस यह जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है। चाहे तुम्हारे माता-पिता विश्वासी हों या नहीं, चाहे वे अपने विश्वास का अनुसरण करते हों या नहीं, चाहे जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण और उनकी मानवता तुम्हारे साथ मेल खाती हो या नहीं, तुम्हें बस उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है। तुम्हें उनसे बचने की जरूरत नहीं—बस हर चीज परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के अनुसार स्वाभाविक रूप से होने दो। अगर वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हों, तो भी तुम्हें अपनी पूरी क्षमता से अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, ताकि कम से कम तुम्हारा जमीर उनके प्रति ऋणी महसूस न करे। अगर वे तुम्हें बाधित नहीं करते और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का समर्थन करते हैं, तो तुम्हें भी सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, उचित हो तो उनके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे खुश कर दिया और मुझे परिवार के सदस्यों के साथ आचरण करने के सिद्धांत समझाए। मेरी माँ सार रूप में एक बुरी इंसान है और हम अलग-अलग रास्तों पर हैं। मुझे भावनाओं पर भरोसा करके नहीं, बल्कि सिद्धांतों पर काम करना चाहिए। भले ही उसने मुझे पाला, मेरे साथ सुसमाचार साझा किया और आज तक आस्था में मेरा साथ देती है और जब तक इससे मेरे कर्तव्यों में हस्तक्षेप नहीं होता, मैं अभी भी उसकी देखभाल कर सकती हूँ और उसके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकती हूँ।

मेरी माँ को निकाले जाने के मामले ने उजागर किया कि मैं कितनी अंधी और अत्यधिक भावुक थी। ये परमेश्वर के वचन थे जिन्होंने मेरी माँ के बुरी इंसान होने के सार का भेद पहचाने में मेरा मार्गदर्शन किया और मुझे यह जानने की अनुमति दी कि मुझे क्या रुख अपनाना चाहिए। इसने मेरे लिए बेहद भावुक होने के खतरों और परिणामों को भी पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया, और मुझे कुछ भी विघटनकारी करने से रोका। मैं अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ।

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