82. विपत्ति में दृढ़ता से डटे रहना

मई 2022 में, कई गाँवों के लोगों ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। मगर जल्द ही, कई नए विश्वासियों ने सभाओं में आना बंद कर दिया। छानबीन करने पर पता चला कि सशस्त्र सिपाही रात में गश्त लगाते थे और जो कोई भी सभा करता उसे गिरफ्तार कर लेते थे। दूसरे इलाकों में, कुछ भाई-बहन पहले ही अपनी आस्था के कारण जुर्माने, गिरफ्तारी, और कैद का सामना कर चुके थे। उन गाँवों के नए विश्वासी इतने डरे हुए थे कि सभाओं में आने की हिम्मत नहीं करते। तब मेरे अगुआ ने ईसा और मुझे नए विश्वासियों की मदद करने का जिम्मा सौंपा। उस वक्त मैं और ईसा अलग-अलग नए विश्वासियों का सिंचन कर रहे थे।

एक रात मेरे घर लौटने से पहले, ईसा ने अचानक मुझे कॉल करके बताया कि हमारी मेजबानी करने वाली बहन जुर्माने या जेल जाने के डर से चाहती थी कि हम चले जाएँ। मैंने सोचा, “हमें इस वक्त मेजबानी के लिए दूसरा परिवार कहाँ से मिलेगा?” फिर हमने बहन याना को मनाने की कोशिश की, मगर याना और उसके बेटे ने गिरफ्तारी के डर से हमारी मेजबानी करने की हिम्मत नहीं की, तो आधी रात हम बेघर हो गए थे। मैं उदास थी, लगा मेरे साथ अन्याय हुआ है। उस रात बारिश हो रही थी, ईसा और मैं नहीं जानते थे कि कहाँ जाएँ, हम बस वहाँ से निकलना चाहते थे, पर अभी भी कई सारे नए विश्वासियों को हमारे सिंचन और सहयोग की जरूरत थी। अगर हम वहाँ से चले गए और नए विश्वासियों को सिंचन नहीं मिला, तो वो अपने आप दृढ़ नहीं रह पाएँगे और हम अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे होंगे। यह सोचकर मैंने फैसला किया कि मैं वहीं रहकर देखूँगी कि कोई और हमारी मेजबानी के लिए तैयार हो जाए। फिर एक नए विश्वासी ने हमें अपने घर रहने दिया, मगर हम वहाँ बस एक ही रात गुजार सकते थे। तब मैं यह सोचते हुए रो पड़ी, “मैं वहाँ बस एक ही रात रह सकती हूँ और फिर से बेघर हो जाऊँगी। मैं काम करना चाहती हूँ पर बाधाएँ बहुत हैं; हमें इस इलाके की ज्यादा जानकारी नहीं है, और अगर सरकार को हमारे सुसमाचार फैलाने का पता चला तो हमें गिरफ्तार करके सताया जाएगा।” मैं हताश हो गई और हार मान लेना चाहती थी। जब मेरी सुपरवाइजर को पता लगा कि मैं चली जाना चाहती थी, तो उसने कहा, “नए विश्वासी सत्य नहीं समझते और इसलिए कायरता और डर में जीते हैं—उन्हें सिंचन और हमारे सहयोग की जरूरत है। हम नए विश्वासियों को नहीं छोड़ सकते, यहाँ टिके रहने का कोई तरीका ढूँढ़ो। हमें परमेश्वर पर भरोसा करना सीखना होगा, वह तुम्हें कोई-न-कोई जगह जरूर देगा।” उनकी सलाह से एहसास हुआ कि मुझे इस मुश्किल वक्त में परमेश्वर पर और अधिक भरोसा रखना चाहिए। तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर हमें रास्ता दिखाने को कहा। उसके बाद, हमारे ग्रुप चैट के कुछ संदेश पढ़ते हुए, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “जब से परमेश्वर ने नूह को जहाज निर्माण का काम सौंपा था, तब से नूह ने अपने मन में कभी यह नहीं सोचा, ‘परमेश्वर कब दुनिया का नाश करने वाला है? वह मुझे ऐसा करने का संकेत कब देगा?’ ऐसे मामलों पर विचार करने के बजाय नूह ने परमेश्वर की कही हर बात को गंभीरतापूर्वक अपने दिल में बसाया, और फिर उसे पूरा भी किया। परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को स्वीकार करने के बाद नूह जरा भी लापरवाही न बरतते हुए परमेश्वर द्वारा कहे गए जहाज का निर्माण पूरा करने को अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम मानते हुए इसमें जुट गया। दिन बीतते गए, साल बीतते गए, दिन पर दिन, साल-दर-साल। परमेश्वर ने कभी नूह की निगरानी नहीं की, उसे प्रेरित भी नहीं किया, परंतु इस पूरे समय में नूह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कार्य में दृढ़ता से लगा रहा। परमेश्वर का हर शब्द और वाक्यांश नूह के हृदय पर पत्थर की पटिया पर उकेरे गए शब्दों की तरह अंकित हो गया था। बाहरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर, अपने आसपास के लोगों के उपहास से बेफिक्र, उस काम में आने वाली कठिनाई या पेश आने वाली मुश्किलों से बेपरवाह, वह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम में दृढ़ता से जुटा रहा, वह न कभी निराश हुआ और न ही उसने कभी काम छोड़ देने की सोची। परमेश्वर के वचन नूह के हृदय पर अंकित थे, और वे उसके हर दिन की वास्तविकता बन चुके थे। नूह ने जहाज के निर्माण के लिए आवश्यक हर सामग्री तैयार कर ली, और परमेश्वर ने जहाज के लिए जो रूप और विनिर्देश दिए थे, वे नूह के हथौड़े और छेनी के हर सजग प्रहार के साथ धीरे-धीरे आकार लेने लगे। आँधी-तूफान के बीच, इस बात की परवाह किए बिना कि लोग कैसे उसका उपहास या उसकी बदनामी कर रहे हैं, नूह का जीवन साल-दर-साल इसी तरह गुजरता रहा। परमेश्वर बिना नूह से कोई और वचन कहे उसके हर कार्य को गुप्त रूप से देख रहा था, और उसका हृदय नूह से बहुत प्रभावित हुआ। लेकिन नूह को न तो इस बात का पता चला और न ही उसने इसे महसूस किया; आरंभ से लेकर अंत तक उसने बस परमेश्वर के वचनों के प्रति दृढ़ निष्ठा रखकर जहाज का निर्माण किया और सब प्रकार के जीवित प्राणियों को इकट्ठा कर लिया। नूह के हृदय में कोई उच्चतर निर्देश नहीं था जिसका उसे पालन और क्रियान्वयन करना था : परमेश्वर के वचन ही उसकी जीवन भर की दिशा और लक्ष्य थे। इसलिए, परमेश्वर ने उससे चाहे जो कुछ भी बोला, उसेजो कुछ भी करने को कहा, उसे जो कुछ भी करने की आज्ञा दी हो, नूह ने उसे पूरी तरह से स्वीकार कर दिल में बसा लिया; उसने उसे अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज माना और उसे उसी के अनुसार सँभाला। वह न केवल उसे भूला नहीं, उसने न केवल उसे अपने दिल में बसाए रखा, बल्कि उसे अपने दैनिक जीवन में महसूस भी किया, और अपने जीवन का इस्तेमाल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार कर उसे क्रियान्वित करने के लिए किया। और इस प्रकार, तख्त-दर-तख्त, जहाज बनता चला गया। नूह का हर कदम, उसका हर दिन परमेश्वर के वचनों और उसकी आज्ञाओं के प्रति समर्पित था। भले ही ऐसा न लगा हो कि नूह कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, नूह ने जो कुछ भी किया, यहाँ तक कि कुछ हासिल करने के लिए उसके द्वारा उठाया गया हर कदम, उसके हाथ द्वारा किया गया हर श्रम—वे सभी कीमती, याद रखने योग्य और इस मानवजाति द्वारा अनुकरणीय थे। परमेश्वर ने नूह को जो कुछ सौंपा था, उसने उसका पालन किया। वह अपने इस विश्वास पर अडिग था कि परमेश्वर द्वारा कही हर बात सत्य है; इस बारे में उसे कोई संदेह नहीं था। और परिणामस्वरूप, जहाज बनकर तैयार हो गया, और उसमें हर किस्म का जीवित प्राणी रहने में सक्षम हुआ(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक))। नूह ने परमेश्वर के वचन सुने, और उसके वचनों और आदेश को अपने दिल से लगाया; उसने जहाज बनाने को अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू और इसे पूरा करने को अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी माना। दिन, महीने, साल बीतते गए, और कष्ट, थकान, कठिनाइयों, बुरे मौसम, दूसरों द्वारा की गई निंदा, उनके उपहास और परित्याग के बावजूद, वह परमेश्वर के दिए आदेश पर दृढ़ रहा और एक बार भी हार मानने की नहीं सोची। उसने ऐसा किया क्योंकि उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल था, तो परमेश्वर का हरेक वचन उसके दिल में छप गया था। नूह और मेरे व्यवहार की तुलना करें, तो मैं चाहती थी कि मैं हमेशा आराम से कर्तव्य निभाऊँ, कभी कठिनाई का सामना न करूँ। जब मेरे कर्तव्य में कठिनाइयाँ आईं, मेरे पास रहने की जगह नहीं थी और गिरफ्तारी का खतरा था, तब मैं भाग जाना चाहती थी, कष्ट सहना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी। मैंने देखा कि मुझे परमेश्वर के इरादे की कोई परवाह नहीं थी और सच में उसे संतुष्ट करना नहीं चाहती थी। नूह के अनुभव से मुझे काफी प्रेरणा मिली और शर्मिंदगी भी महसूस हुई। अब मैं देह-सुख के आगे झुकना नहीं चाहती थी, मैंने नए विश्वासियों का साथ देने के लिए वहीं रहने का फैसला किया। अगर कोई मेरी मेजबानी नहीं करेगा, तो मैं खेतों में सो जाऊँगी, पर मैं सुसमाचार फैलाने और नए विश्वासियों के सिंचन में डटी रहूँगी।

फिर ईसा और मैंने नेविन नाम के नए विश्वासी से संपर्क किया और पूछा कि क्या हम उसके खेत में एक केबिन में रह सकते हैं। नेविन और उसके माँ-बाप ने इजाजत दे दी। मैं जानती थी कि परमेश्वर ने हमारे लिए एक रास्ता खोला है। उसके बाद, मैंने गाँव के सभी नए विश्वासियों को सभा के लिए बुलाया और उनके साथ संगति की : “जब परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए अपना कार्य करता है, तो शैतान लगातार परेशानियाँ खड़ी करता है। परमेश्वर शैतान को परेशानियाँ लाने और हमें कष्ट देने देता है ताकि मनुष्य की आस्था और प्रेम को पूर्ण बना सके, लोगों को उजागर करके हटा सके और उनकी आस्था की परीक्षा ले सके। अगर हम विश्वासी सत्य और जीवन पाना चाहते हैं, तो हम कष्ट से नहीं भाग सकते। कष्ट के कारण, हम अपने घरों में सभा नहीं कर सकते, इसलिए हमें पहाड़ों में सभा करनी पड़ रही है। इन हालात की कठिनाई के बावजूद, हम जिस कष्ट से गुजरे हैं वह सार्थक रहा है। अगर हम परमेश्वर में विश्वास के लिए शैतानी शासन के पतन या कष्ट खत्म होने का इंतजार करते रहें, तब तक परमेश्वर का कार्य पूरा हो चुका होगा और हम उद्धार पाने का मौका खो देंगे। हमें सुसमाचार क्यों फैलाना चाहिए? क्योंकि ये अंत के दिन हैं, यह मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के कार्य का आखिरी चरण है। अगर हम इस बार पीछे रह गए, तो कभी नहीं बचाए जाएँगे। भविष्य में, आपदाएँ और ज्यादा गंभीर और असहनीय हो जाएँगी।” उस वक्त हमने काफी संगति की, और फिर कुछ नए विश्वासियों ने कहा, “हम इन आपदाओं से अपना बचाव नहीं कर सकते, और न तो कोई और, न ही सरकार हमें बचा सकती है। सिर्फ परमेश्वर ही हमें बचा सकता है, तो हमें परमेश्वर में विश्वास करना और सभाओं में आना चाहिए।” कुछ नए विश्वासियों ने कहा, “हम सरकार द्वारा गिरफ्तारी या जुर्माना लगाने से नहीं डर सकते, सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है, हमें सभाओं में आते रहना चाहिए।” उसके बाद, हमने देहधारण के सत्य और न्याय के कार्य के बारे में संगति की। अगले दस दिनों तक उनका सिंचन करने के बाद, वे सभी नियमित रूप से सभाओं में आने लगे।

अगले करीब दस दिनों के बाद, पुलिस ने फिर से रात में गश्त लगाने का आदेश दिया। नेविन फँस जाने के डर से नहीं चाहता था कि अब हम उसके केबिन में रहें। इन हालात का सामना करते ही मैं शिकायत करने लगी। हमें इतने सारे नए विश्वासियों का सिंचन और सहयोग करना था, हमारे काम में बहुत सारी कठिनाइयाँ थीं, और अब हमारे पास रहने की जगह भी नहीं है। मैं काफी उदास थी, नए विश्वासियों की समस्याएँ हल करने का भी मन नहीं हुआ। फिर एक बहन ने परमेश्वर के वचनों का यह अंश भेजा : “क्योंकि जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के सौंपे हुए को स्वीकार करता है, तो परमेश्वर के पास न्याय करने के लिए एक मापदंड होता है कि उस व्यक्ति के कार्य अच्छे हैं या बुरे, उस व्यक्ति ने समर्पण किया है या नहीं, उस व्यक्ति ने परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट किया है या नहीं और उसने जो किया वह पर्याप्त है या नहीं। परमेश्वर जिसकी परवाह करता है वह है व्यक्ति का हृदय, न कि ऊपरी तौर पर किए गए उसके कार्य। ऐसी बात नहीं है कि परमेश्वर को किसी व्यक्ति को तब तक आशीष देना चाहिए जब तक वे कुछ करते हैं, इसकी परवाह किए बिना कि वे इसे कैसे करते हैं। यह परमेश्वर के बारे में लोगों की ग़लतफ़हमी है। परमेश्वर सिर्फ चीज़ों के अंतिम नतीजे ही नहीं देखता, बल्कि इस पर अधिक ज़ोर देता है कि किसी व्यक्ति का हृदय कैसा है और चीज़ों के आगे बढ़ने के दौरान किसी व्यक्ति का रवैया कैसा रहता है और वह यह देखता है कि उसके हृदय में समर्पण, लिहाज और परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा है या नहीं(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने आत्म-चिंतन किया : जब मैंने पहली बार नए विश्वासियों का सहयोग करना शुरू किया था, मुझे लगा मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूँ और यह काम सहजता से चलना चाहिए, और नए विश्वासी चीजों को समझेंगे, मेरी मेजबानी, और सुरक्षा करेंगे। जब मैंने कष्ट का सामना किया, तो किसी ने मेरी मेजबानी नहीं की, और हमारे कार्य में कई परेशानियाँ सामने आईं, मैंने बस शिकायत की कि मैं कितनी मुसीबत में हूँ, और कैसे नए विश्वासी सत्य के लिए इच्छुक नहीं हैं। मुझे यह काम बहुत मुश्किल लगा, और बस घर जाना चाहती थी। जब कष्ट सहने और कीमत चुकाने की बात आई, मैं समर्पण नहीं करना चाहती थी। मैंने बस अपने देह-सुख की सोची और परमेश्वर के इरादे की बिलकुल भी परवाह नहीं की। इस बारे में सोचकर, मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। फिर एक बहन ने मुझे याद दिलाने के लिए यह संदेश भेजा : “जब कष्ट सहने और कीमत चुकाने की बारी आई, तो तुम समर्पण क्यों नहीं कर पाई? तुम हमेशा सिर्फ अपने देह-सुख के बारे में ही क्यों सोचती रही? ऐसा किस भ्रष्ट स्वभाव के कारण हुआ?” मैं उस बहन के सवालों पर लगातार विचार करती रही।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अब, अगर तुम्हारे साथ कुछ ऐसी चीजें होती हैं जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, क्या वे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं? उदाहरण के लिए, कभी-कभी काम ज्यादा हो जाता है और लोगों को अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए कुछ कठिनाई सहनी पड़ती है और थोड़ी कीमत चुकानी पड़ती है; तब कुछ लोग अपने मन में धारणाएँबना लेते हैं और उनमें प्रतिरोध पैदा हो जाता है, और वे नकारात्मक होकर अपने काम में ढीले पड़ सकते हैं। कभी-कभी, काम ज्यादा नहीं होता और कर्तव्यों का निर्वाह करना आसान हो जाता है, तब कुछ लोग ख़ुशी महसूस करते हैं और सोचते हैं, ‘कितना अच्छा होता अगर मेरे लिए कर्तव्य का निर्वाह करना हमेशा इतना आसान होता।’ वे किस तरह के लोग हैं? वे आलसी व्यक्ति हैं जो दैहिक सुख-सुविधाओं के लालची हैं। क्या ऐसे लोग अपने कर्तव्य निर्वहन में निष्ठावान होते हैं? (नहीं।) ऐसे लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के इच्छुक होने का दावा करते हैं, लेकिन उनके समर्पण में शर्तें होती हैं—चीजें उनकी अपनी धारणाओं के मुताबिक होनी चाहिए और उन्हें समर्पण करने में किसी भी कठिनाई का सामना न करना पड़े। यदि उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़े और कठिनाई सहन करनी पड़े तो वे बहुत शिकायत करते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका विरोध भी करते हैं। वे किस तरह के लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते। वे तभी समर्पण करने में सक्षम होते हैं जब परमेश्वर के कार्य उनकी अपनी धारणाओं और इच्छाओं के अनुरूप हों और उन्हें कोई कठिनाई न सहनी पड़े या कोई कीमत न चुकानी पड़े। लेकिन अगर परमेश्वर का कार्य उनकी धारणाओं या प्राथमिकताओं से मेल न खाता हो और इसके लिए उन्हें कठिनाई सहने और कीमत चुकाने की आवश्यकता हो तो वे समर्पण करने में सक्षम नहीं होते। वे भले ही इसका खुलकर विरोध न करें लेकिन वे अपने मन में प्रतिरोधी और नाराज होते हैं। वे खुद को बहुत बड़ी कठिनाई सहने वाला समझते हैं और अपने हृदय में शिकायतें पालते हैं। यह किस तरह की समस्या है? इससे पता चलता है कि उन्हें सत्य से प्रेम नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि कुछ लोग चाहते हैं कि उनके कर्तव्य में चीजें बिलकुल सहजता से चलें। कठिनाइयों का सामना करने, कष्ट सहने या कीमत चुकाने की बारी आते ही वे प्रतिरोधी होकर शिकायत करते हैं। ऐसे लोग आलसी और देह-सुख के लालची होते हैं, अपने कर्तव्य में निष्ठावान नहीं होते, परमेश्वर के इरादे की जरा भी परवाह नहीं करते, और सत्य से प्रेम नहीं करते। मुझे एहसास हुआ कि मैं भी ऐसी ही थी। मैं बस एक आसान कर्तव्य चाहती थी जो सहजता से चलता रहे। मैं कष्ट सहने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं थी। यातना का सामना होने पर, जब नए विश्वासियों ने गिरफ्तारी के डर से हमारी मेजबानी करने या सभाओं में आने की हिम्मत नहीं की और बेघर होने पर न सिर्फ मेरी देह को कष्ट सहना पड़ा बल्कि नए विश्वासियों को ढूँढ़ने के लिए मुझे बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, और उनकी मदद के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करनी पड़ी, तो मैंने शिकायत की कि कष्ट का सामना करना कितना मुश्किल था, नए विश्वासी कितने डरपोक थे, और मैं बस अपना कर्तव्य छोड़कर भाग जाना चाहती थी। मुश्किलों का सामना होते ही, मैं अपने देह-सुख के बारे में सोचने लगती थी, मुझमें जरा सी भी वफादारी या समर्पण नहीं था। परमेश्वर ने ऐसे हालात पैदा किए ताकि मैं सत्य खोजकर इस अनुभव से सबक सीख सकूँ, मगर मैंने जीवन प्रवेश को महत्व नहीं दिया, मैंने हमेशा देह-सुख की लालसा की और अपना कर्तव्य अपने हिसाब से निभाना चाहा। मैं सत्य से प्रेम करने वालों में से नहीं थी। वचनों के एक और अंश का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। परमेश्वर कहते हैं : “आज, तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और उन पर ध्यान नहीं देते; जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओगे। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? आज, यद्यपि परमेश्वर के कार्य का अगला कदम अभी शुरू होना बाकी है, फिर भी तुमसे जो कुछ अपेक्षित है और तुम्हें जिन्हें जीने के लिए कहा जाता है, उनमें कुछ भी अतिरिक्त नहीं है। इतना सारा कार्य है, इतने सारे सत्य हैं; क्या वे इस योग्य नहीं हैं कि तुम उन्हें जानो? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुम्हारी आत्मा को जागृत करने में असमर्थ हैं? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुममें खुद के प्रति नफरत पैदा करने में असमर्थ हैं? क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? ... मैं तुम्‍हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्‍हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्‍हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि परमेश्वर इस उम्मीद में अपने वचन व्यक्त करता है, हमें सिंचन, पोषण और अपने कर्तव्य निभाने का मौका देता है कि हम अपने कर्तव्यों में सत्य का अनुसरण करके उसे प्राप्त करें, स्वभाव में बदलाव लाएँ और बचाए जा सकें। यह परमेश्वर का उत्कर्ष और अनुग्रह है। सत्य से प्रेम करने वाले इन मौकों को संजोते हैं। अपने कर्तव्यों के दौरान, वो सत्य का अनुसरण करके उसे हासिल करते हैं। जबकि मुझे सत्य से प्रेम नहीं था और जब मुझे कर्तव्य में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, तो मैंने प्रतिरोध किया और अपनी हालत के बारे में शिकायत की। मुझे लगा कि यह बहुत थकाऊ और मुश्किल था, मैं कष्ट सहने या कीमत चुकाने के बजाय भाग जाना चाहती थी। चूँकि मैं आलसी और सत्य का अनुसरण करने की अनिच्छुक थी, अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करती, तो भी कभी सत्य प्राप्त करने या स्वभाव में बदलाव लाने में कामयाब नहीं होती और आखिर में मुझे हटाकर दंडित किया जाता। मुझे देह-सुख की परवाह करना बंद करके इसके खिलाफ विद्रोह करना था और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना था। मुझे एहसास हुआ कि ये नए विश्वासी इसलिए सहमे और डरे हुए थे क्योंकि उन्होंने हाल ही में आस्था में प्रवेश किया था, उनमें अब तक सच्चे मार्ग की जड़ें नहीं जमी थीं और वो सत्य नहीं समझते थे। अगर मैंने उनके सिंचन और सहयोग के लिए कीमत नहीं चुकाई और थोड़ा कष्ट नहीं सहा, तो ये नए विश्वासी अपने दम पर दृढ़ता से डटे नहीं रह पाएँगे, और मुझसे अपराध हो जाएगा। चाहे हमारे पास कोई मेजबान परिवार हो या नहीं और भले ही हमें कष्ट सहना पड़े, मैं अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहकर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को तैयार थी। उस दिन, नेविन की माँ मुझसे खेत में मिलने आई और कहा, “सिपाहियों ने अब रात में गश्त लगाना शुरू कर दिया है, हमें डर है कि कहीं वो आपको न देख लें, क्योंकि आप बाहरी हैं और गाँव में आपका आना-जाना लगा रहता है।” मैंने उसके साथ यह कहते हुए संगति की, “जब परमेश्वर सदोम को नष्ट करने वाला था, तब सदोम के लोग परमेश्वर द्वारा वहाँ भेजे दो स्वर्गदूतों को नुकसान पहुँचाना चाहते थे। लूत बच गया क्योंकि उसने उन दो स्वर्गदूतों की अपने घर पर मेजबानी की थी। परमेश्वर अब मानवजाति के उद्धार के अपने कार्य के आखिरी चरण पर है। विश्वासियों पर अत्याचार करने वाले ये लोग सदोम के लोगों जैसे ही बुरे हैं। फिक्रमंद होना सामान्य है, पर हमें आस्था रखनी होगी। सिपाही हमें पकड़ पाएँगे या नहीं, यह परमेश्वर के हाथों में है। हमें परमेश्वर से और प्रार्थना करनी चाहिए, वह खुद अपने कार्य की रक्षा करेगा। अगर तुमने हमारी मेजबानी नहीं की और हमें जाना पड़ा, तो हम तुम्हारा सिंचन नहीं कर पाएँगे। अगर यहाँ सुसमाचार फैलाते समय तुम हमारी मेजबानी करती हो, तो यह तुम्हारा नेक कर्म है, और परमेश्वर इसे याद रखेगा।” मेरी संगति के बाद, उसका डर कम हुआ और काफी खुश भी थी। उसके बाद, उसने हमारा अच्छे से ख्याल रखा और मैं नए विश्वासियों के साथ संगति करते हुए अच्छे से दिन-रात सभाएँ कर सकी। कुछ सत्य समझने के बाद, नए विश्वासियों ने अपने दोस्तों और परिवार वालों को भी सुसमाचार सुनने के लिए बुलाया। सिर्फ दो महीनों में, 120 गाँव वालों ने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार लिया। सभी नए विश्वासियों को सभाओं में आते देखकर मुझे बड़ी खुशी हुई। इस तथ्य के बावजूद कि यह एक कठिन प्रक्रिया थी और मुझे थोड़ा कष्ट हुआ, मगर इस बात से शांति मिली कि मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया। परमेश्वर का मार्गदर्शन देखकर मुझे आस्था मिली।

बाद में, हमारी सुपरवाइजर ने हमें किसी दूसरे गाँव में नए विश्वासियों की मदद के लिए भेज दिया। हम पहले भाई जॉन नाम के नए विश्वासी के घर गए। जॉन अपने कर्तव्यों में काफी सक्रिय था और सभाओं के लिए नए विश्वासियों को साथ लाने में सक्षम था, मगर फिर गिरफ्तारी के डर से उसने सभाओं में आना बंद कर दिया। हम पहले जॉन की मदद करके उसके जरिए दूसरे नए विश्वासियों की मदद करना चाहते थे, मगर जॉन हमसे बात नहीं करना चाहता था। उसकी पत्नी ने कहा, “हमारे गाँव की एक बैठक में, हमें परमेश्वर के उपदेश सुनने या उस पर विश्वास करने से मना कर दिया गया है। सिपाही रात में गश्त लगाते हैं और अगर कोई उपदेश सुनते दिख गया तो उसे गिरफ्तार कर लेंगे। उन्होंने हमें उपदेश सुनने से मना किया है, हमें गिरफ्तार होने का डर है; और हम काफी व्यस्त भी हैं तो सुनने का समय नहीं बचता है।” इतना कहकर, वह हमें नजरंदाज करने लगी। यह देखकर कि कैसे इस नई विश्वासी ने हमें बोलने भी नहीं दिया और हमें नजरंदाज किया, मुझे लगा कि हम सचमुच मुश्किल हालात में हैं। गाँव आना-जाना एक लंबी और थकाऊ यात्रा थी, तो मैं नए विश्वासियों का सहयोग करना बंद करके दूसरे काम में लग गई। कुछ समय बाद, मेरी सुपरवाइजर ने मुझे फिर से याद दिलाया कि नए विश्वासी दिन में व्यस्त रहते होंगे तो मैं रात में वहाँ जा सकती हूँ। मैंने मन में सोचा, “वो हमें नजरंदाज कर रहे हैं और उपदेश नहीं सुनना चाहते; अगर मैं गई भी, तो मुझे नहीं पता वहाँ क्या करूँगी। वहाँ तक पहुँचने में बहुत समय लगता है, रात में तो और भी मुश्किल होगा।” मैं वहाँ नहीं जाना चाहती थी। फिर मुझे एहसास हुआ कि लगातार वहाँ जाना टालकर मैं नए विश्वासियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भाग रही हूँ। मैंने परमेश्वर के इस खुलासे पर विचार किया कि झूठे अगुआ कैसे काम करते हैं। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मान लो कि किसी काम को एक व्यक्ति एक महीने में पूरा कर सकता है। अगर इस काम को करने में छह महीने लग जाते हैं, तो क्या बाकी पाँच महीने के खर्चे नुकसान नहीं होंगे? मैं सुसमाचार प्रचार का एक उदाहरण देता हूँ। मान लो कि कोई व्यक्ति सच्चे मार्ग की छानबीन करना चाहता है और संभवतः सिर्फ एक महीने में उसे राजी किया जा सकता है, जिसके बाद वह कलीसिया में प्रवेश करेगा और सिंचन और पोषण प्राप्त करता रहेगा, और छह महीने के भीतर ही वह एक नींव तैयार कर सकता है। लेकिन अगर सुसमाचार प्रचार करने वाले व्यक्ति का रवैया इस मामले को अवमानना और अनमनेपन की ओर ले जाता है, और अगुआ और कार्यकर्ता भी अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा करते हैं, और अंत में उस व्यक्ति को राजी करने में छह महीने लग जाते हैं, तो यह छह महीने का समय उसके जीवन के लिए एक नुकसान नहीं बन जाएगा? अगर वह भीषण आपदाओं का सामना करता है और उसने अब तक सच्चे मार्ग पर अपनी नींव नहीं तैयार की है, तो वह खतरे में होगा, और तब क्या ऐसे लोग असफल नहीं हो गए होंगे? ऐसे नुकसान को पैसे या भौतिक चीजों से मापा नहीं जा सकता है। ऐसे लोगों ने उस व्यक्ति को सत्य समझने से छह महीने तक रोक दिया होगा, उन्होंने उसके द्वारा एक नींव तैयार करने और अपना कर्तव्य करना शुरू करने में छह महीने की देरी कर दी होगी। इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या अगुआ और कार्यकर्ता इसकी जिम्मेदारी का भार उठा सकते हैं? किसी व्यक्ति के जीवन को रोककर रखने की जिम्मेदारी का भार कोई भी नहीं उठा सकता। चूँकि कोई भी इस जिम्मेदारी का भार नहीं उठा सकता, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए क्या करना उचित है? चार शब्द : तुम अपना सर्वस्व दो। क्या करने के लिए अपना सर्वस्व दो? अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने, वह सब कुछ करने के लिए जो तुम अपनी आँखों से देख सकते हो, अपने मन में सोच सकते हो, और अपनी काबिलियत से हासिल कर सकते हो। यह अपना सर्वस्व देना है, यह निष्ठावान और जिम्मेदार होना है, और यही वह जिम्मेदारी है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पूरी करनी चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि चाहे कोई कुछ भी काम करे, अगर उसे एक महीने में निपटाया जा सकता था, पर उसमें छह महीने लग गए, तो यह बहुत बड़ा नुकसान है। जैसे कि, सुसमाचार फैलाने के मामले में, अगर कोई सच्चे मार्ग की छानबीन करने को तैयार है, तो उसे एक महीने में आस्था में लाया जा सकता है और वह समय पर परमेश्वर के घर में प्रवेश कर सकता है बशर्ते सुसमाचार फैलाने वाला अपनी जिम्मेदारी निभाए। इससे वह जल्दी सत्य समझ सकेगा और सच्चे मार्ग पर अपनी जड़ें जमा सकेगा। अगर हम अपने कर्तव्य में कीमत नहीं चुकाते हैं, लापरवाह और अनमना रवैया अपनाते हैं जिससे इस व्यक्ति को आस्था में लाने में छह महीने लग जाते हैं, तो यह उनके जीवन के लिए बड़ा नुकसान होगा। अगर आपदाएँ आईं और इन लोगों ने तब तक परमेश्वर का कार्य नहीं स्वीकारा, सिंचन और पोषण के अभाव में ये लोग मर गए, तो इन मौतों की जिम्मेदारी कोई नहीं उठा सकता। इसलिए, हमें अपने कर्तव्यों में लापरवाही बिलकुल नहीं करनी चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए ताकि हमारी अंतरात्मा साफ हो। नए विश्वासियों की मदद करते और सुसमाचार फैलाते समय, मैं कीमत चुकाने और कष्ट सहने को तैयार नहीं थी। जब मुझे उस गाँव में नए विश्वासियों की मदद करने और सुसमाचार फैलाने का काम मिला, कठिनाइयाँ झेलकर लंबी यात्राएँ करने की बात आई, तो मैंने अपने देह-सुख की परवाह करके वहाँ नहीं जाना चाहा, दिन-ब-दिन इसे टालती रही। ये नए विश्वासी डरे-सहमे थे, सरकार के अत्याचार के कारण सभाओं में आने की हिम्मत नहीं करते थे; सत्य समझने और अपनी बेड़ियों से मुक्त होने के लिए उन्हें सिंचन और सहयोग की सख्त जरूरत थी। अगर परमेश्वर का कार्य खत्म हो गया और तब तक ये लोग अँधेरी शक्तियों से मुक्त नहीं हो सके, सभाओं में एकत्र होकर इन्होंने परमेश्वर के वचन नहीं पढ़े, तो वे न तो सत्य समझ सकेंगे, न ही परमेश्वर का उद्धार पा सकेंगे और आपदाओं में तबाह हो जाएँगे। यही नहीं, उस गाँव में कई ऐसे लोग थे जिन्होंने अब तक परमेश्वर की वाणी नहीं सुनी थी। अगर दूसरे भी मेरी तरह अपने देह-सुख की परवाह करके कठिनाइयाँ आने पर सुसमाचार फैलाने से पीछे हट गए, तो वे लोग परमेश्वर की वाणी नहीं सुन पाएँगे और उन्हें परमेश्वर का उद्धार नहीं मिलेगा। मुझे चीजों को टालना बंद करके अपनी चिंताओं को दरकिनार करना होगा। हालात चाहे जैसे भी हों, मुझे उनका सामना करके अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी होंगी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचन के एक और अंश पर विचार किया : “सृजित प्राणी होने के नाते, परमेश्वर का अनुसरण करने वालों में से एक होने के नाते, चाहे व्यक्ति की उम्र, लिंग कोई भी हो या वह कितना भी जवान या बूढ़ा क्यों न हो, सुसमाचार फैलाना एक ऐसा ध्येय और जिम्मेदारी है जिसे हर किसी को स्वीकार करना चाहिए। अगर यह ध्येय तुम्हें दिया जाता है और तुमसे खुद को खपाने, कीमत चुकाने या अपने जीवन की आहुति देने की अपेक्षा की जाती है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इसे स्वीकार करने के लिए कर्तव्यबद्ध महसूस करना चाहिए। यही सत्य है, तुम्हें यही बात समझनी चाहिए। यह कोई साधारण धर्म-सिद्धांत नहीं है—यही सत्य है। मैं क्यों कहता हूँ कि यही सत्य है? क्योंकि चाहे समय किसी भी तरह से बदलता रहे, दशक कैसे भी गुजरते रहें, या जगहें और खाली स्थान किसी भी तरह से बदलते रहें, सुसमाचार फैलाना और परमेश्वर की गवाही देना हमेशा सकारात्मक कार्य ही बना रहेगा। इसका मतलब और मूल्य कभी नहीं बदलेगा : समय या भौगोलिक स्थान में हुए बदलावों से इस पर बिल्कुल प्रभाव नहीं पड़ेगा। सुसमाचार फैलाना और परमेश्वर की गवाही देना शाश्वत है, और सृजित प्राणी होने के नाते तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और इसका अभ्यास करना चाहिए। यह शाश्वत सत्य है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर के अनुग्रह से मैं उसकी वाणी सुन पाई। सुसमाचार फैलाना और नए विश्वासियों का सिंचन करना मेरा कर्तव्य था जिसे हर हाल में पूरा करना था। कष्ट सहने और कीमत चुकाने की बारी आने पर, मुझे उसे बिना शर्त स्वीकारना चाहिए। चाहे जैसी भी कठिनाइयों या हालात का सामना करना पड़े, मुझे समर्पण करके अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। इसका एहसास होने पर, मैं अकेली गाँव चली गई। मुझे निकलते हुए शाम हो गई और बारिश भी होने लगी। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए सड़क पर चल रही थी। तभी मेरे रास्ते में एक बूढ़ी औरत आई। मैंने उससे कहा कि मैं उसके गाँव जा रही हूँ, फिर हम आगे-पीछे चलने लगे। गाँव पहुँचने के बाद मैंने फिर कभी उस बूढ़ी औरत को नहीं देखा। रात हो गई थी। रास्ते पता नहीं थे, यह भी नहीं जानती थी कि जाना कहाँ है, तो मैं सड़क के किनारे जाकर बैठ गई। मैं बहुत बेचैन थी, चिंता हो रही थी कि अगर गश्त करने वाले सिपाही ने देख लिया तो मैं उससे क्या कहूँगी, इसलिए मन में परमेश्वर से प्रार्थना करती रही। तभी एक औरत खेतों में काम करके वापस आ रही थी और मुझे अकेले बैठे देखकर उसने पूछा, “तुम यहाँ बैठी क्या कर रही हो? तुम मेरे घर चल सकती हो।” मैं उसके साथ उसके घर चली गई, और जब उसके साथ सुसमाचार साझा किया, तो उसने उसे स्वीकार लिया। बाद में, वह दूसरों को भी सुनने के लिए साथ लाई। जब लोगों को पता चला कि मैं सुसमाचार फैला रही हूँ, तो कुछ लोग खुद मेरे पास आए और मुझसे उनके घर आकर सुसमाचार साझा करने को कहा। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की गवाही दी और उन्हें इस बारे में सुनकर बहुत अच्छा लगा। कुछ ने कहा, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है, दोनों एक ही परमेश्वर है। हमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुनते रहना चाहिए।” दूसरों ने कहा, “अगर सरकार हम पर अत्याचार करती है, तब भी हम सुसमाचार सुनते रहेंगे।” कुछ नए विश्वासी सभाओं में काफी उत्साहित रहते थे, वो सुबह और रात को सभा में आते, और उनमें वाकई सभा करने और उपदेश सुनने की लालसा थी। मुझे बहुत हैरानी हुई। पहले, मैं हमेशा अपने देह-सुख की परवाह करती थी, कष्ट सहना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी, मगर जब मैंने अपनी मनोदशा ठीक की और सहयोग करने का फैसला किया, तो देखा कि परमेश्वर जो करता है वह हमारी कल्पना से परे है। उस औरत के जरिये हमारा विस्तार से सुसमाचार फैला पाना एक संकेत था कि परमेश्वर अपना कार्य कर रहा है। इससे मैं परमेश्वर का अधिकार देख पाई और सुसमाचार फैलाते रहने का मेरा संकल्प दृढ़ हो गया। करीब एक महीने बाद, हमने पूरे गाँव में सुसमाचार फैला दिया। जो नए विश्वासी पहले गिरफ्तारी से डरते थे, वे सभी फिर से सभाओं में आने लगे। 80 से ज्यादा गाँव वाले सामान्य रूप से सभा करने लगे, हम एक कलीसिया भी शुरू कर पाए। परमेश्वर का धन्यवाद!

इस अनुभव से, मैंने सीखा कि कर्तव्य के प्रति व्यक्ति का रवैया बहुत महत्वपूर्ण होता है। जब हम परमेश्वर के प्रति समर्पण करके उसके इरादे की परवाह करते हैं, तो हमारा कार्य चाहे कितना भी मुश्किल हो, अगर हम ईमानदारी से मिलकर काम करें, तो परमेश्वर मार्गदर्शन देता रहेगा। भ्रष्टता दिखाने, नकारात्मक होने, कमजोर पड़ने और हार मानने को तैयार होने के बावजूद, परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पोषण से, मैंने सुसमाचार फैलाने से हार नहीं मानी और किसी बात का पछतावा नहीं रहा। यह सब परमेश्वर की सुरक्षा से मुमकिन हुआ। इस अनुभव से मुझे आस्था मिली और मैंने जीवन में प्रगति की। परमेश्वर का धन्यवाद!

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