81. सुख-सुविधा की लालसा करने के परिणाम
प्रिय लिन यी,
मुझे तुम्हारा पत्र मिल गया है। समय कितनी जल्दी बीत जाता है। पलक झपकते ही लगभग एक साल हो गया और हमने एक-दूसरे को नहीं देखा है। तुमने पत्र में पूछा है कि अपना कर्तव्य निभाने से मुझे अब तक क्या हासिल हुआ। एक पल के लिए तो मुझे यह समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं कहाँ से शुरू करूँ, लेकिन मेरे लिए सबसे यादगार अनुभव वह था जब मुझे दूसरे कर्तव्य सौंपे गए, जिससे मुझे आराम और आसानी चाहने वाली अपनी प्रकृति के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ। इस समय तुम सोच रही होगी कि मैंने क्या अनुभव किया है। चलो मुझे तुम्हें सब कुछ बताने दो।
इस साल जनवरी में मैं पाठ आधारित कार्य की प्रभारी थी। चूँकि मैं इस भूमिका में नई थी, मैंने कई सिद्धांतों में महारत हासिल नहीं की थी और यह नहीं जानती थी कि इसे कैसे किया जाए, इसलिए मैं एक साझेदार बहन के साथ सीखती और प्रशिक्षण लेती थी। अक्सर मैं विभिन्न समूहों के कार्य देखने की पहल भी करती थी। बाद में इनमें से हर समूह बहुत सारे सवालों पर सलाह माँगता था और मुझे उनकी स्थिति और उनके कार्य में विचलनों पर संगति और समाधान करने के लिए पत्र लिखने पड़ते थे। मैं हर दिन सुबह से देर रात तक व्यस्त रहती थी। जैसे-जैसे समय बीतता गया, मैं अपने दिल ही दिल में थोड़ी बड़बड़ाती थी, “इन स्थितियों को हल करने के लिए मुझे हर समस्या के मूल कारण पर सावधानीपूर्वक विचार करना पड़ता है और परमेश्वर के प्रासंगिक वचन और सिद्धांत खोजने पड़ते हैं, जिसके लिए बहुत सोच-विचार करने की जरूरत होती है। यह वास्तव में थका देने वाला कार्य है!” मैं नहीं चाहती थी कि मेरा दिमाग हर समय इतना तनाव में रहे, इसलिए मुझे उम्मीद थी कि भाई-बहन कम सवाल पूछेंगे। इस तरह मैं थोड़ा अधिक आराम से रह सकती थी। बाद में दो और बहनों ने हमारे साथ साझेदारी की। मैं यह सोचकर बहुत खुश हुई कि इससे मेरा कार्यभार कम हो जाएगा और फिर मुझे इतना चिंतित होने की या खुद को इतना थकाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। कभी-कभी जब मैं देखती थी कि कोई भाई या बहन बुरी स्थिति में है और यह कि उसके कार्य के नतीजे खराब हो रहे हैं तो मैं सोचती थी कि मुझे इसे हल करने के लिए तुरंत उनके साथ संगति करनी चाहिए। लेकिन फिर मैं यह भी सोचती थी, “मैं इन समस्याओं की असलियत भी तो पूरी तरह नहीं समझती हूँ। मुझे सोच-विचार करने और परमेश्वर के प्रासंगिक वचन और सिद्धांत खोजने के लिए समय खपाना पड़ेगा। यह काम बहुत परेशान करने वाला होगा! बेहतर होगा कि मैं अपनी साझेदार बहनों को ही इस समस्या का समाधान करने दूँ।” इसलिए मैंने इन पर ध्यान देना बंद कर दिया। बस इसी तरह, जब भी मुझे किसी जटिल समस्या का सामना करना पड़ता तो मुझे यह परेशानी भरा कार्य लगता और मैं इसे हल करने का काम अपने साथियों पर छोड़ देती थी। अपने कर्तव्यों में मैं कम से कम जिम्मेदारी उठाती थी और बस अपनी दिनचर्या का पालन करती थी और हर दिन अपने दैनिक काम सँभालती थी। अगर मुझे थोड़ा-सा और काम सौंपा जाता या अगर यह थोड़ा-सा कठिन होता तो मैं परेशान हो जाती थी। मैं केवल सरल कार्यों पर ध्यान केंद्रित करती और सत्य का अनुसरण करने के लिए कोई प्रयास नहीं करती, जिसका परिणाम यह हुआ कि मैंने ज्यादा प्रगति नहीं की। मेरे साथियों ने बताया कि मेरे कर्तव्यों में जिम्मेदारी की भावना की कमी है और उन्होंने मुझे इस पर विचार करने और इसे हल करने की सलाह दी। लेकिन मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। धीरे-धीरे मुझे समस्याओं को स्पष्ट रूप से देखना कठिन लगने लगा और मैं अक्सर ऊँघने लगती थी और मेरे काम की दक्षता बहुत कम हो गई।
बाद में अगुआओं ने देखा कि मुझमें कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी की भावना नहीं है और मैं नतीजे नहीं दे रही हूँ, इसलिए मुझे बर्खास्त कर दिया गया। तब जाकर मैंने आत्मचिंतन करना शुरू किया। एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “आलसी लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसे संक्षेप में प्रस्तुत करें, तो वे बेकार लोग हैं; उनमें एक द्वितीय-श्रेणी की अक्षमता है। आलसी लोगों की क्षमता कितनी भी अच्छी क्यों न हो, वह नुमाइश से ज्यादा कुछ नहीं होती; भले ही उनमें अच्छी काबिलियत हो, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। वे बहुत ही आलसी होते हैं—उन्हें पता होता है कि उन्हें क्या करना चाहिए, लेकिन वे वैसा नहीं करते हैं, और भले ही उन्हें पता हो कि कोई चीज एक समस्या है, फिर भी वे इसे हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हैं, और वैसे तो वे जानते हैं कि कार्य को प्रभावी बनाने के लिए उन्हें क्या कष्ट सहने चाहिए, लेकिन वे इन उपयोगी कष्टों को सहने के इच्छुक नहीं होते हैं—इसलिए वे कोई सत्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं, और वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं। वे उन कष्टों को सहना नहीं चाहते हैं जो लोगों को सहने चाहिए; उन्हें सिर्फ सुख-सुविधाओं में लिप्त रहना, खुशी और फुर्सत के समय का आनंद लेना और एक मुक्त और शांतिपूर्ण जीवन का आनंद लेना आता है। क्या वे निकम्मे नहीं हैं? जो लोग कष्ट सहन नहीं कर सकते हैं, वे जीने के लायक नहीं हैं। जो लोग हमेशा परजीवी की तरह जीवन जीना चाहते हैं, उनमें जमीर या विवेक नहीं होता है; वे पशु हैं, और ऐसे लोग श्रम करने के लिए भी अयोग्य हैं। क्योंकि वे कष्ट सहन नहीं कर पाते हैं, इसलिए श्रम करते समय भी वे इसे अच्छी तरह से करने में समर्थ नहीं होते हैं, और अगर वे सत्य प्राप्त करना चाहें, तो इसकी उम्मीद तो और भी कम है। जो व्यक्ति कष्ट नहीं सह सकता है और सत्य से प्रेम नहीं करता है, वह निकम्मा व्यक्ति है; वह श्रम करने के लिए भी अयोग्य है। वह एक पशु है, जिसमें रत्ती भर भी मानवता नहीं है। ऐसे लोगों को हटा देना चाहिए; सिर्फ यही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों में ये शब्द देखे—“बेकार लोग,” “दूसरे दर्जे की विकलांगता,” “जानवर,” “मजदूरी करने के लायक भी न होना,” और “जीने के लायक न होना,”—तो ये मेरे दिल को चुभ गए। मुझे आलसी लोगों के प्रति परमेश्वर की घृणा महसूस हुई। परमेश्वर ने मुझे ऊँचा उठाया और मुझ पर अनुग्रह किया था, मुझे सुपरवाइजर का कर्तव्य निभाने का अवसर दिया था ताकि मैं समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में प्रशिक्षित हो सकूँ। चाहे मैं कितनी भी संगति कर पाती और समस्याओं को हल कर पाती, मुझे अपनी तरफ से पूरी कोशिश करनी चाहिए थी; यह वह जिम्मेदारी थी जिसे मुझे निभाना चाहिए था। लेकिन जब मैंने देखा कि भाई-बहनों की स्थितियाँ खराब हैं और उनके कार्य के नतीजे बिगड़ रहे हैं, तो मुझे लगा कि इसे हल करना बहुत परेशान करने वाला और मानसिक रूप से थका देने वाला कार्य है, इसलिए मैंने यह कार्य दूसरों पर डाल दिया। मैंने वह भी नहीं किया जो मेरी क्षमता में था। जब मुझे अधिक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ा था, तो मैं स्पष्ट रूप से उनमें से कुछ को सावधानीपूर्वक सोच-विचार करके हल कर सकती था, लेकिन मैंने प्रयास करने और कीमत चुकाने की जहमत नहीं उठाई, इसलिए मैंने ऐसे बहाने बनाए कि “मैं इसकी असलियत नहीं जान पाई हूँ” या “मुझे नहीं पता था कि कैसे करना है” और ये समस्याएँ अपनी साझेदार बहनों के कंधों पर डाल दीं। मैं हर दिन केवल कोई साधारण कार्य ही करती थी और अपने कर्तव्य के प्रति मुझमें थोड़ी भी जिम्मेदारी नहीं होती थी और मैं हर दिन लक्ष्यहीन होकर भटकती रहती थी। क्या यह परमेश्वर के घर में बस एक परजीवी होने जैसा नहीं था? मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे कुछ भाई-बहनों में बहुत ज्यादा काबिलियत नहीं थी, लेकिन वे पूरे दिल से अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम थे और वे इसमें अपनी पूरी ताकत झोंक देते थे और इसलिए अपने कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया परमेश्वर को स्वीकार्य था। जबकि मेरी काबिलियत उतनी भी कम नहीं थी और मैं कुछ समस्याओं को हल करने में सक्षम थी, लेकिन मैं हमेशा देह को महत्व देती थी, आराम में लिप्त रहती थी और अपने कर्तव्य निभाते हुए कड़ी मेहनत करने और कष्ट सहने तक को तैयार नहीं थी। मेरे अंदर सचमुच कोई अंतरात्मा या सूझ-बूझ नहीं थी। मैं एक सुपरवाइजर बनने के योग्य कैसे थी! मेरे कर्तव्य के प्रति रवैये से परमेश्वर घृणा करता था और अप्रसन्न था। अगर इसी तरह चलता रहता, तो मैं अच्छी तरह से श्रम भी नहीं कर पाती और मुझे परमेश्वर द्वारा केवल ठुकराया जाता और निकाल दिया जाता। यह एहसास होने पर मैंने प्रार्थना की और वास्तव में आत्मचिंतन करने के लिए तैयार हो गई।
इसके बाद मैंने विचार किया, आखिर इस बात का मूल कारण क्या है कि मैं हमेशा आराम में लिप्त रहती हूँ और परेशानी उठाने और कष्ट सहने के लिए तैयार नहीं रहती हूँ? तब मैंने परमेश्वर के ये वचन देखे : “बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें खुद से ऊपर उठने के संकल्प का सर्वथा अभाव है, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। “क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्हें नहीं बचाया? तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचन से मैंने समझा कि मेरा निरंतर शारीरिक सुख-सुविधा की तलाश करना इसलिए था क्योंकि मैं “जिंदगी का उद्देश्य अच्छे खाने खाना और अच्छे कपड़े पहनना है,” “जिंदगी छोटी है; जब तक उठा सकते हो आनंद उठाओ,” “अपने साथ अच्छा बर्ताव करो,” “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना,” “जिंदगी बहुत छोटी है, तो इसे अपने लिए चीजें मुश्किल क्यों बनाना,” और ऐसे ही अन्य शैतानी फलसफों पर चलती थी, जो शारीरिक सुख-सुविधा को जिंदगी का सबसे बड़ा लक्ष्य मानते हैं। इन गलत दृष्टिकोणों के प्रभाव में, मैंने हमेशा सुख-सुविधा का अनुसरण किया, यह सोचते हुए कि इंसान को अपने साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिए और बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी चाहिए। अगर मैं पीछे मुड़कर देखूँ तो मेरे माता-पिता ने मुझे छोटी उम्र से ही घर पर लाड़-प्यार मैं बिगाड़ दिया था। उन्होंने मेरे लिए सब कुछ किया ताकि मुझे किसी बात की चिंता न करनी पड़े और मैं एक ग्रीनहाउस में उगे फूल की तरह उनकी सावधानीपूर्वक सुरक्षा में बड़ी हुई। चूँकि मैं एक सुख-सुविधा वाले जीवन की आदी थी, इसलिए मैं हमेशा मेहनत करने और खुद को थका देने से डरती थी। जब मैं कॉलेज में थी, तो मैंने कुछ सहपाठियों को ग्रेजुएट स्कूल के लिए मेहनत करते और देर रात तक पढ़ाई करते देखा, लेकिन मैं इसके प्रति बेपरवाह रही। मैंने सोचा, “जिंदगी केवल कुछ ही दशकों की तो होती है। खुद को इतना थकाने की क्या जरूरत है? बैचलर डिग्री ही काफी है। बस एक ऐसी नौकरी ढूँढो जो बहुत थका देने वाली न हो और जिसमें अच्छी तनख्वाह मिलती हो।” जब मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए कलीसिया में आई थी तो तब भी मेरे यही विचार थे। मैंने हमेशा सुख-सुविधा की तलाश में रहती और मेहनत करने या खुद को परेशान करने के लिए तैयार नहीं होती। जब भी मुझे जटिल या कठिन कार्यों का सामना करना पड़ता था, तो मैं उन्हें दूसरों पर थोप देती थी। मैं आसान कार्यों को चुनती और मुश्किल कार्यों से बचती थी, इसलिए मैंने बहुत धीमी प्रगति की। यह मेरे लिए इतना बड़ा सम्मान था कि परमेश्वर के घर ने मुझे अगुआई का कर्तव्य निभाने के लिए विकसित किया, लेकिन मैंने इसे संजोकर नहीं रखा और हमेशा अपने शरीर पर ध्यान दिया। जब मैंने देखा कि भाई-बहन नकारात्मक महसूस कर रहे हैं और कार्य की प्रभावशीलता कम हो रही है, तो मैंने परवाह नहीं की और यहाँ तक कि मैंने कठिन कार्य दूसरों पर डाल दिए। मैं अपनी जिम्मेदारियों को बिल्कुल भी निभा नहीं रही थी। मैं इतनी ज्यादा स्वार्थी और घृणित थी! मैं हमेशा सुख-सुविधा का आनंद लेती थी, कठिन कर्तव्यों की बजाय आसान कर्तव्य चुनती थी और मैं चालाक और धोखेबाज थी। भले ही मैंने कोई प्रयास नहीं किया, लेकिन मैंने कोई प्रगति भी नहीं की। मुझे समस्याओं को स्पष्ट रूप से देखना कठिन से कठिन लगने लगा और मैं वह कार्य भी संभाल नहीं पा रही थी जो मैं पहले अच्छे से करती थी। जैसे प्रभु यीशु ने कहा था : “जिसके पास है, उसे दिया जाएगा, और उसके पास बहुत हो जाएगा; पर जिसके पास कुछ नहीं है, उससे जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा” (मत्ती 13:12)। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर उम्मीद करता है कि वयस्क अपनी जिम्मेदारी निभा सकते हैं, उचित चीजों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और अपने उचित कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं, लेकिन मेरा दिल केवल शारीरिक सुख-सुविधाओं पर केंद्रित था। मैंने शारीरिक आसानी को सबसे अधिक महत्व दिया और मैं धीरे-धीरे अधिक पतनशील और भ्रष्ट होती गई, अपनी मानवता का स्वरूप दिन-ब-दिन खोती गई। मैं इस गलत मार्ग पर और आगे नहीं बढ़ सकती थी। मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए सत्य को खोजना था और अपने कर्तव्यों को सही तरीके से निभाना होगा।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह केवल खाने, पीने और मनोरंजन जैसे शारीरिक सुखों में शामिल होने की खातिर है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर यह क्या है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का लक्ष्य हासिल करना चाहिए।) सही कहा। ... एक ओर, यह सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने के बारे में है। दूसरी ओर, यह अपनी क्षमता और काबिलियत के दायरे में रहकर अपना सर्वश्रेष्ठ और हरसंभव योगदान देने के बारे में है; यह कम से कम उस बिंदु तक पहुँचने के बारे में है जहाँ तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें दोषी नहीं ठहराती है, जहाँ तुम अपनी अंतरात्मा के साथ शांति से रह सकते हो और दूसरों की नजरों में स्वीकार्य साबित हो सकते हो। इसे एक कदम आगे बढ़ाते हुए, अपने पूरे जीवन में, चाहे तुम किसी भी परिवार में पैदा हुए हो, तुम्हारी शैक्षिक पृष्ठभूमि या काबिलियत चाहे जो भी हो, तुम्हें उन सिद्धांतों की थोड़ी समझ होनी चाहिए जिन्हें लोगों को जीवन में समझना चाहिए। उदाहरण के लिए, लोगों को किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए, उन्हें कैसे रहना चाहिए, और एक सार्थक जीवन कैसे जीना चाहिए—तुम्हें कम से कम जीवन के असली मूल्य का थोड़ा पता लगाना चाहिए। यह जीवन व्यर्थ नहीं जिया जा सकता, और कोई इस पृथ्वी पर व्यर्थ में नहीं आ सकता। दूसरे संदर्भ में, अपने पूरे जीवनकाल के दौरान, तुम्हें अपना लक्ष्य पूरा करना चाहिए; यह सबसे महत्वपूर्ण है। हम किसी बड़े लक्ष्य, कर्तव्य या जिम्मेदारी को पूरा करने की बात नहीं कर रहे हैं; लेकिन कम से कम, तुम्हें कुछ तो हासिल करना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि जीवन का मूल्य खाने-पीने, मौज-मस्ती करने और शरीर के सुख-सुविधाओं में लिप्त रहने में नहीं है, बल्कि एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में है। परमेश्वर ने मुझे अंत के दिनों में जन्म लेने, उसकी वाणी सुनने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए नियत किया है और यह जीवन में केवल एक बार मिलने वाला अवसर है। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि मैं सुख-सुविधाओं में लिप्त रहकर साधारण जीवन बिताऊँ और अपना जीवन व्यर्थ गँवाऊँ। परमेश्वर आशा करता है कि मैं सत्य का अनुसरण करूँ और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाऊँ ताकि मैं अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकूँ, परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकूँ और एक सच्चे मानव स्वरूप को जी सकूँ। जब मैंने यह सोचा कि कैसे मैं जीवन प्रवेश पर ध्यान नहीं देती थी, केवल परमेश्वर के वचनों को सरसरी निगाह से देखती थी, मेरे जीवन का अनुभव सतही था और सत्य के संबंध में मेरी समझ सीमित थी। मैं अपने भाई-बहनों की स्थितियों और कठिनाइयों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाती थी, जिससे पता चलता है कि मैं इस पहलू के सत्य को समझती ही नहीं थी। यह वह समय था जब मुझे सत्य की खोज करने और उससे खुद को सुसज्जित करने की आवश्यकता थी और अगर मैं सच्चा बोझ उठाकर सत्य की खोज करती और परमेश्वर के वचनों को ढूँढती, तो मैं अधिक सत्य समझ पाती और जीवन में अधिक तेजी से आगे बढ़ पाती। लेकिन लेकिन मैंने केवल अस्थायी सुख-सुविधा और आनंद के लिए सत्य को पाने के इतने अवसर गँवा दिए थे, जिससे मेरे जीवन प्रवेश में बाधा आई। मैंने अपने कर्तव्य में पीछे बहुत सारे पछतावे छोड़े थे। मैं वास्तव में मूर्ख और नासमझ थी! अब मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि चाहे मैं कितना भी शारीरिक सुख-सुविधाओं का आनंद क्यों ने ले लूँ, वह केवल अस्थायी होगा और इसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं होगा और यह कि अगर मैं सत्य को सही तरीके से नहीं खोजती, हमेशा अपने कर्तव्य में बेपरवाह रहती हूँ और परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश करती रहती हूँ, तो मैं केवल बेनकाब होकर रह जाऊँगी और मुझे बाहर निकाल दिया जाएगा और इसके परिणामस्वरूप मुझे अनंत दण्ड मिलेगा और फिर उस समय, कितना भी पछतावा, रोना या दाँत पीसना काम नहीं आएगा।
बाद में, अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के उन वचनों को पढ़ने पर ध्यान केंद्रित किया, जो मेरी सुख-सुविधाओं की लालसा को हल करने से संबंधित थे और मैंने अपनी समझ को रिकॉर्ड किया। दो महीने बाद, सुपरवाइजर ने मुझे फिर से अपना कर्तव्य निभाने के लिए नियुक्त किया और मैं बहुत आभारी थी। जब मुझे पता चला कि मुझे एक कलीसिया की देखरेख करने का कार्य सौंपा गया है, तो मैं हैरान रह गई। इस कलीसिया में कई नए लोग थे और कई समस्याएँ थीं और इन समस्याओं को हल करने में बहुत मेहनत लगनी थी। लेकिन फिर मैंने सोचा कि कैसे अतीत में मैं हमेशा चिंताओं से बचने और समस्याओं को दूसरों पर डालने की कोशिश करती थी। अब इस कलीसिया की देखरेख करने के लिए मुझे नियुक्त किया जाना परमेश्वर की तरह से मेरे लिए एक अवसर था, जिससे मैं सत्य पर संगति करने और समस्याओं को हल करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकता था। यह सब मेरी कमियों को पूरा करने के लिए था और यह मेरे जीवन प्रवेश के लिए लाभदायक था। इसलिए, मैंने इस कार्य को स्वीकार किया। शुरुआत में, मैं सक्रिय रूप से इसे कर पाई, लेकिन कुछ दौर की संगति के बाद, जब परिणाम स्पष्ट नहीं थे, तो मैं हतोत्साहित हो गई। मुझे लगा कि यह सब बहुत कठिन और तनावपूर्ण था। जब मैंने इस तरह से सोचा, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने शारीरिक हितों के बारे में सोच रही थी इसलिए मैंने अपनी स्थिति से संबंधित परमेश्वर के वचनों को खाया और पिया। परमेश्वर के वचनों का एक अंश था जिसने मुझे सचमुच प्रभावित किया। परमेश्वर कहता है : “जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे अपनी लाभ-हानि की गणना किए बिना स्वेच्छा से अपने कर्तव्य निभाते हैं। चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण और विवेक पर निर्भर होना चाहिए और सच में प्रयास करना चाहिए। प्रयास करने का क्या मतलब है? यदि तुम केवल कुछ सांकेतिक प्रयास करने और थोड़ी शारीरिक कठिनाई झेलने से संतुष्ट हो, लेकिन अपने कर्तव्य को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते, तो यह बेमन से काम करना है—इसे वास्तव में प्रयास करना नहीं कहते। प्रयास करने का अर्थ है उसे पूरे मन से करना, अपने दिल में परमेश्वर का भय मानना, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहना, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसे आहत करने से डरना, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किसी भी कठिनाई को सहना : यदि तुम्हारे पास इस तरह से परमेश्वर से प्रेम करने वाला दिल है, तो तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे। यदि तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय नहीं है, तो अपने कर्तव्य का पालन करते समय, तुम्हारे मन में दायित्व वहन करने का भाव नहीं होगा, उसमें तुम्हारी कोई रुचि नहीं होगी, अनिवार्यतः तुम अनमने रहोगे, तुम चलताऊ काम करोगे और उससे कोई प्रभाव पैदा नहीं होगा—जो कि कर्तव्य का निर्वहन करना नहीं है। यदि तुम सच में दायित्व वहन करने की भावना रखते हो, कर्तव्य निर्वहन को निजी दायित्व समझते हो, और तुम्हें लगता है कि यदि तुम ऐसा नहीं समझते, तो तुम जीने योग्य नहीं हो, तुम पशु हो, अपना कर्तव्य ठीक से निभाकर ही तुम मनुष्य कहलाने योग्य हो और अपनी अंतरात्मा का सामना कर सकते हो—यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय दायित्व की ऐसी भावना रखते हो—तो तुम हर कार्य को निष्ठापूर्वक करने में सक्षम होगे, सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाओगे और इस तरह अच्छे से अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। अगर तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मिशन, परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो त्याग किए हैं और उसे तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, उन सबके योग्य हो, तो इसी को वास्तव में प्रयास करना कहते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि जो लोग स्वेच्छा और निष्ठा से अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं वही परमेश्वर के घर के सच्चे लोग हैं। वे अपने व्यक्तिगत शारीरिक हितों की चिंता नहीं करते और वास्तविक कीमत चुकाते हैं, अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं। ऐसे लोग जिम्मेदार और भरोसेमंद होते हैं और उनमें अंतरात्मा और विवेक होता है। यद्यपि उन्हें थोड़ा बहुत शारीरिक कष्ट सहना पड़ सकता है, फिर भी वे परमेश्वर को संतुष्ट कर पाते हैं, आंतरिक शांति प्राप्त करते हैं, और एक अर्थपूर्ण जीवन जीते हैं। इसके विपरीत, जब काम कठिन होता था और परिणाम अच्छे नहीं होते थे, तो मुझे लगता था कि काम बहुत मुश्किल और तनावपूर्ण है, इसलिए मैं अपनी सुख-सुविधाओं के बारे में सोचने लगती थी और पीछे हटना चाहती थी। जब मैं सुख-सुविधा में डूब जाती थी, कठिन कार्यों से बचते हुए आसान कार्य लेती थी और चालाकी से काम लेती थी, तो यद्यपि मेरे शरीर को कोई कष्ट नहीं पहुँचता था, पर मेरा दिल अंधेरे में होता था। मैं परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर पाती और मेरे मन में कोई शांति या खुशी नहीं होती थी। मैं फिर कभी वैसा नहीं बनना चाहती थी। मुझे अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाना था और चाहे मैं जितना भी सहयोग कर सकूँ, मुझे अपनी तरफ से पूरी कोशिश करनी थी और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना था। इसलिए मैंने सत्य की खोज की और अपने भाइ-बहनों के दृष्टिकोण और कठिनाइयों को संबोधित करने के लिए संगति की। कुछ समय बाद, कार्य में कुछ प्रगति हुई और मैंने अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर का धन्यवाद किया। बाद में, जब भी मुझे किसी चीज का सामना करना पड़ता, तो मैं जानबूझकर अपने शरीर के खिलाफ विद्रोह करती थी। यद्यपि हर दिन बहुत कार्य संभालना होता था और मेरे पास खाली समय नहीं बचता था, लेकिन फिर भी फिर भी मुझे थकान महसूस नहीं होती थी। इस तरह से अभ्यास करने पर, मैं खुद को परमेश्वर के और करीब महसूस करने लगी और मुझे अपने कर्तव्य में सहयोग करने के कुछ नए तरीके मिले। मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करके अपने दिल में शांति और सुकून पाया।
खैर, मैं अभी यहीं बस करती हूँ। क्या तुमने इस साल भी बहुत कुछ हासिल किया है? मुझे लिखने में संकोच मत करना और मेरे साथ साझा करो कि तुमने क्या हासिल किया है और समझा है।
सादर,
बाई लु
15 अक्टूबर 2023