80. एक नए विश्वासी के साथ काम करने की मेरी कहानी

क्लेयर, म्यांमार

अप्रैल 2020 में, मुझे कलीसिया की उपयाजक के रूप में सेवा करने के लिए चुना गया। शुरू में तो मैं काफी घबराई हुई और चिंतित थी कि कहीं मेरा प्रदर्शन खराब न हो, लेकिन भाई-बहनों की मदद और समर्थन से मैंने धीरे-धीरे कुछ सिद्धांत समझ लिए और थोड़ा-बहुत काम कर पाने योग्य हो गई। फिर मुझे कलीसिया अगुआ बना दिया गया और मैं दूसरे कामों की देखरेख भी करने लगी। मेरे वरिष्ठ अगुआ कभी-कभी मेरी काफी तारीफ भी करते। जैसे वह कहते कि मुझे काम सौंपकर वह निश्चिंत हो जाते हैं जबकि वही काम दूसरों को दिए जाने पर उन्हें उसकी देखरेख करनी पड़ती है। इससे मुझे लगता कि मैं काफी अच्छा कर रही हूँ। बाद में क्रिस्टोफर नाम के एक भाई को कलीसिया अगुआ चुना गया जिसका सिंचन मैंने किया था। क्रिस्टोफर औसत काबिलियत का इंसान था, लेकिन उसे सुसमाचार का प्रचार करना पसंद था और अच्छे परिणाम हासिल करता था। उसके चयन से मैं खुश थी क्योंकि यह मेरी काबिलियत दर्शाता था, मैंने ही उसका सिंचन कर उसे विकसित किया था।

जून 2022 की शुरुआत में, सुसमाचार के काम की जाँच के लिए मेरा एक गाँव में जाना हुआ। सुरक्षा कारणों से क्रिस्टोफर खुद नहीं जा पाया, लेकिन मुझसे ऑनलाइन जुड़ा रहा। वह मुझसे गाँव में मेरी स्थिति के बारे में पूछता, इससे हमें समस्याएँ पहचानने और तुरंत उन्हें हल करने में मदद मिलती। लेकिन उस समय मुझे लगा कि चूँकि वह आस्था में नया है और अभी-अभी अगुआ बना है, तो काम में उतना काबिल नहीं होगा। मैं दो साल से अगुआ थी और थोड़े-बहुत सिद्धांत समझ चुकी थी; इसके अलावा खुद मैंने क्रिस्टोफर का सिंचन किया था, इसलिए मैं उसे अपने साथ नहीं जोड़ना चाहती थी और नहीं चाहती थी कि वह मेरे साथ पर्यवेक्षण का काम करे। एक दिन क्रिस्टोफर ने मुझे एक संदेश भेजा : “गाँव को आगे बढ़ाने को लेकर तुम्हारी क्या योजनाएँ हैं? जब तुम्हारे पास समय हो तो बताना, बात करेंगे।” उसका संदेश पढ़कर मुझे थोड़ा अच्छा नहीं लगा : “अभी कुछ ही दिन हुए हैं और तुम मेरे काम की प्रगति भी पूछने लगे? यह सब इतनी जल्दी नहीं होता। आखिरकार, मेरे पास यही एक प्रोजेक्ट थोड़ी है।” मैं उसके साथ इस मामले पर आगे बात नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने बस जवाब दिया : “मैं अभी-अभी आई हूँ और अभी तक योजना बनाना शुरू नहीं किया है।” उसने जवाब दिया : “तो तुम्हें जल्द से जल्द योजना बनाना शुरू कर देना चाहिए।” उसका संदेश देखकर मैंने सोचा : “अगर मैं किसी कम काबिलियत और कम अनुभव वाले व्यक्ति को अपना सहभागी बना लूँ तो क्या यह प्रोजेक्ट वाकई सफल हो पाएगा?” यह सब सोचकर मुझे अच्छा नहीं लगा। उसके बाद जब भी क्रिस्टोफर मेरे काम की प्रगति के बारे में जानकारी लेने आता तो मैं उसे नजरअंदाज कर देती। मैंने उसके साथ काम के बारे में चर्चा करना बंद कर दिया, मुझे लगा इसका कोई मतलब नहीं है, आखिरकार यह सब मुझे ही करना पड़ेगा। तो मैंने गाँव का सारा काम खुद ही व्यवस्थित किया। एक दिन क्रिस्टोफर ने मुझे एक संदेश भेजा : “पड़ोसी गाँव में कुछ नवागंतुक हैं जो गिरफ्तारी के डर से सुसमाचार का प्रचार नहीं कर पा रहे। वे पहले बहुत प्रेरित हुआ करते थे, लेकिन हाल ही में उन्होंने सभाओं में जाना बंद कर दिया है। क्या तुम जाकर उनकी कुछ सहायता कर सकती हो?” जब मैंने उसका संदेश देखा तो सोचा : “यह सब मुझे बताने की जरूरत नहीं है। जाहिर है उन्हें मेरा सहयोग चाहिए, लेकिन मेरे पास अभी समय नहीं है। वह गाँव काफी दूर पड़ता है, वहाँ जाना कोई आसान काम नहीं है। आखिर में जाना तो मुझे ही है, तुम्हें नहीं। वैसे भी तुम कुछ नहीं करते, तो तुम्हारे साथ चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है। इन प्रोजेक्ट के लिए मेरे अपने विचार और योजनाएँ हैं, और मैं अपने कार्यक्रम के अनुसार आगे बढ़ूँगी। मुझे तुम्हारे मार्गदर्शन और जाँच-पड़ताल की जरूरत नहीं है।” तो मैंने जवाब दिया : “अभी मेरे पास वहाँ जाने का समय नहीं है। नवागंतुक दिन में काम करते हैं और कार्यक्रम अभी तय नहीं हुआ है।” क्रिस्टोफर ने एक लाइन का जवाब लिखा : “अच्छा, ठीक है।” उस समय मुझे लगा कि वह मेरे कारण विवश महसूस कर रहा है। मेरी जगह कोई और होता तो वह काम के बारे में और पूछताछ करता, लेकिन मेरे जवाब देने के बाद उसने ऐसा करने की हिम्मत नहीं की। उसके बाद मैंने क्रिस्टोफर के साथ काम पर चर्चा करना बंद कर दिया, वह जब भी मुझसे मिलने की बात करता, तो मैं कह देती : “मैं अभी दूसरे कामों में व्यस्त हूँ, जब समय होगा मिल लेंगे।” यहाँ तक कि जब मेरे पास खाली समय होता, तो भी मैं उससे बात नहीं करती थी और दूसरे काम करती रहती। धीरे-धीरे, जिन तीन टीमों की मैं देखरेख कर रही थी, उनके भाई-बहन सौहार्दपूर्ण ढंग से काम नहीं कर पा रहे थे, वे बस अपने-अपने स्तर पर काम करते और शायद ही कभी एक-दूसरे से चर्चा करते थे। बाकी कलीसियाओं की तुलना में हमारी सभाओं के दौरान माहौल बेजान-सा रहता था और हमें अपने सुसमाचार कार्य में अच्छे परिणाम नहीं मिल रहे थे। उस समय मुझे इस बात का थोड़ा एहसास था, यह जानते हुए कि यह समस्या मेरी गलती है, लेकिन मैंने अपने लिए बहाने बनाए। मैं कहती कि मैं उसे सहभागी बनाने से बच नहीं रही थी, बात सिर्फ इतनी है कि मेरे पास और भी काम थे और उसके साथ चर्चा करने का मेरे पास ज्यादा समय नहीं था। उसके बाद मैंने अपना काम करना जारी रखा। एक बार, क्रिस्टोफर ने मुझे तीन टीमों के पर्यवेक्षकों से मिलने के लिए बुलाया ताकि हम अपने कामों में आने वाली समस्याओं का सार निकालकर संगति कर सकें। परमेश्वर के वचनों का संदर्भ देते हुए क्रिस्टोफर ने कहा : “परमेश्वर के वचन कहते हैं कि जब हमारे कामों में रुकावट आए, तो हमें थोड़ा रुककर ऐसे मुद्दों का सार लेना चाहिए और किसी भी विचलन को पहचानना चाहिए। फिलहाल हम सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहभागी नहीं हो रहे हैं, हर कोई अपने हिसाब से काम कर रहा है, हम एकमत नहीं हैं और हमने सही मायने में भाई-बहनों का साथ नहीं दिया है, जिसके कारण हमारे काम की प्रगति रुक गई है। हमें आगे बढ़ते हुए, काम को अच्छी तरह से करने के लिए अधिक संवाद और चर्चा करनी चाहिए और मिलकर काम करना चाहिए।” उसने और बाकी लोगों ने अभ्यास के अच्छे तरीकों पर भी संगति की जिन्हें अन्य कलीसियाओं ने अपनाया है, लेकिन मुझे सुनने का मन नहीं हुआ और मैं अपने तरीके से अभ्यास करती रही। नतीजा यह हुआ कि जो काम मेरी देखरेख में था, तीन महीने तक उससे कोई परिणाम नहीं निकला। एक दिन, जिस गाँव में मैं रह रही थी, वहाँ के पाँच अधिकारी मुझसे जवाब-तलब करने आए, मेरे फोन की तलाशी लेने की कोशिश की और मुझे चेतावनी दी कि अगर उन्होंने मुझे गाँव में सुसमाचार का प्रचार करते हुए पकड़ लिया तो वे मुझे जिला सरकार के पास भेज देंगे और फिर वही मेरे साथ निपटेंगे। इस सबसे मुझे झटका लगा और मैं सोचने लगी : “ऐसा क्यों हुआ? पिछले कुछ महीनों में मुझे अपने काम में खराब नतीजे मिले थे और क्रिस्टोफर के साथ काम के बारे में मैंने कोई चर्चा नहीं की थी—क्या परमेश्वर इस स्थिति के जरिए मुझे इन असफलताओं से सबक लेने के लिए चेता रहा है? अगर मैंने अपने मुद्दों पर चिंतन कर सुधार नहीं किया, तो शायद मैं इस कर्तव्य को ज्यादा समय तक नहीं कर पाऊंगी।”

अगस्त के अंत में एक दिन, मैंने कुछ सहकर्मियों से ऑनलाइन मुलाकात कर चर्चा की कि क्या मुझे वह गाँव छोड़ देना चाहिए। एक टीम अगुआ ने मुझसे पूछा : “पिछले तीन महीनों में तुम्हें उस गाँव से कोई परिणाम नहीं मिला है, उसकी वजह तुम्हें क्या लगती है?” मैंने कहा, कह नहीं सकती। फिर टीम अगुआ ने कहा : “क्या तुम्हें इस मुद्दे पर थोड़ा विचार नहीं करना चाहिए? भाई-बहनों का कहना है कि तुम मनमाने ढंग से काम करती हो और दूसरों को भागीदार नहीं बनाती। जब वे काम को लेकर चर्चा के लिए तुम्हें बुलाते हैं तो तुम उपलब्ध नहीं रहती। हमने तुम्हें भाई-बहनों को प्रेरित करने और सुसमाचार के काम को बढ़ावा देने के लिए इस गाँव में भेजा था, लेकिन तुम्हें जो काम करना चाहिए था वह तुमने नहीं किया।” एक अन्य टीम अगुआ ने कहा : “अगर तुमने वह काम नहीं किया जो तुम्हें सौंपा गया था तो तुम्हें वापस आ जाना चाहिए!” मेरा चेहरा लाल पड़ गया और उसकी हर बात मेरे दिल पर घूंसे की तरह लग रही थी। उस पल जैसे मैं किसी कोने में दुबक जाना चाहती थी। मुझे लगा मेरे साथ नाइंसाफी हुई है : मैं यह काम करने से पूरी तरह इनकार नहीं कर रही थी और सारी गलती मेरी नहीं थी कि हमें नतीजे नहीं मिल रहे थे। सरकार हमें बहुत सता रही थी और मैं बाकी परियोजनाओं की भी प्रभारी थी। वे ऐसा कैसे कह सकते हैं कि मैंने वह नहीं किया जो मुझे करना चाहिए था? टीम अगुआ ने पूछा कि क्या मेरे पास कोई आइडिया है, लेकिन मुझसे कुछ कहते नहीं बना, मैंने बस इतना कहा : “तो फिर मैं वापस चली जाऊँगी।” और मैंने जल्दी से कॉल खत्म कर दी। फोन रखकर मैं बिस्तर पर पड़ गई और फूट-फूट कर रोने लगी। मेरे दिमाग में बार-बार टीम अगुआ की बातें घूम रही थीं : “अगर तुमने वह नहीं किया जो तुम्हें करना चाहिए था तो तुम अभी तक वहाँ क्या कर रही हो?” “अगर तुमने वह काम नहीं किया जो तुम्हें सौंपा गया था तो तुम्हें वापस आ जाना चाहिए!” सोच-सोचकर मैं नकारात्मक हो गई। अगले कुछ दिनों तक मैं लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, मेरे अगुआ ने मेरे साथ संगति की और मेरा साथ दिया। इससे मुझे अपने विचारों को शांत करने और उस दौरान अपनी स्थिति पर चिंतन करने का मौका मिला। मैंने सोचा, “मैं हाल ही में सब कुछ अपने आप कर रही हूँ। मैंने क्रिस्टोफर को नीची नजरों से देखा और उसके साथ काम पर कोई चर्चा नहीं की। जब भी उसने मुझसे काम पर चर्चा करनी चाही, तो मैंने हमेशा कहा कि मैं व्यस्त हूँ। दरअसल, मैं चाहती ही नहीं थी कि वह मेरे काम में हिस्सेदार बने। मैं साफ तौर पर अपने भ्रष्ट स्वभाव में फँसकर काम में देरी कर रही थी, लेकिन जब काट-छाँट हुई तो मैंने पलटवार किया, मैं एकदम विवेकशून्य हो गई थी।” मैंने भाई-बहनों की बातों पर विचार किया जो कह रहे थे कि मैं मनमाने ढंग से काम करती थी और दूसरों के साथ काम पर चर्चा नहीं करती थी—यह एक बहुत गंभीर समस्या थी, तो मैंने परमेश्वर के वचनों का एक प्रासंगिक अंश खोजकर पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “ऊपर से लग सकता है जैसे कुछ मसीह-विरोधियों के सहायक या साझेदार होते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि कुछ घटित होने पर दूसरे लोग चाहे जितने भी सही हों, मसीह-विरोधी उनकी बात कभी नहीं सुनते। उस बारे में चर्चा करना या उस पर संगति करना तो दूर, वे उस पर ध्यान भी नहीं देते हैं। वे बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं मानो दूसरे वहाँ हों ही नहीं। जब मसीह-विरोधी दूसरों की बातें सुनते हैं, तो वे महज खानापूर्ति कर रहे होते हैं, या दूसरों के दिखाने के लिए नाटक कर रहे होते हैं। लेकिन अंततः जब अंतिम निर्णय का समय आता है, तो फैसले मसीह-विरोधी ही लेते हैं; किसी दूसरे व्यक्ति के कथन व्यर्थ होते हैं, उनके बिल्कुल भी कोई मायने नहीं होते। उदाहरण के लिए, जब दो लोग किसी काम के लिए जिम्मेदार होते हैं, और उनमें से एक में मसीह-विरोधी सार होता है, तो उस व्यक्ति में क्या प्रदर्शित होता है? चाहे कोई भी काम हो, वह और सिर्फ वह है जो उसकी शुरुआत करता है, जो सवाल पूछता है, जो चीजें सुलझाता है, और जो समाधान सुझाता है। और ज्यादातर समय वह अपने साथी को पूरी तरह से अँधेरे में रखता है। उसकी नजर में उसका साथी क्या होता है? उसका सहायक नहीं, बल्कि सिर्फ सजावट का सामान। मसीह-विरोधी की नजर में, उनका साझेदार होता ही नहीं। जब भी कोई समस्या आती है, तो मसीह-विरोधी उस पर विचार करता है, और जब वह तय कर लेता कि कार्य कैसे करना है, तो बाकी सभी को सूचित कर देता है कि उसे कैसे करना है, और किसी को उस पर सवाल नहीं उठाने दिया जाता। दूसरों के साथ उनके सहयोग का सार क्या होता है? मूल रूप से यह अपनी बात मनवाना, समस्याओं पर किसी और के साथ चर्चा न करना, काम की अकेले जिम्मेदारी लेना और अपने सहयोगियों को सजावटी सामान में बदलना है। वे हमेशा अकेले ही काम करते हैं और कभी किसी के साथ सहयोग नहीं करते। वे अपने काम के बारे में कभी किसी और के साथ चर्चा या संवाद नहीं करते, वे अक्सर अकेले निर्णय लेते हैं और अकेले ही मुद्दों से निपटते हैं, और कई चीजों में, दुसरे लोगों को काम पूरा होने के बाद ही पता चलता है कि चीजें कैसे पूरी हुईं या सँभाली गईं। दूसरे लोग उनसे कहते हैं, ‘सभी समस्याओं पर हमारे साथ चर्चा होनी चाहिए। तुमने उस व्यक्ति को कब संभाला था? तुमने उसे कैसे संभाला? हमें इसके बारे में कैसे पता नहीं चला?’ वे न तो कोई स्पष्टीकरण देते हैं और न ही इस पर कोई ध्यान देते हैं; उनके लिए उनके साथियों का कोई उपयोग नहीं है, और वे सिर्फ सजावट की वस्तुएँ हैं। जब कुछ घटित होता है, तो वे उस पर विचार करते हैं, अपना मन बनाते हैं, और जैसा भी चाहें वैसा ही करते हैं। उनके आसपास चाहे जितने भी लोग हों, ऐसा लगता है मानो वे लोग वहाँ हों ही नहीं। मसीह-विरोधी के लिए वे लोग हवा की तरह अदृश्य होते हैं। इसे देखते हुए, क्या दूसरों के साथ उसकी साझेदारी का कोई असली पहलू भी है? बिल्कुल नहीं, वह बस बेमन से काम करता है और एक भूमिका निभाता है। दूसरे उससे कहते हैं, ‘जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आती है, तो तुम बाकी सबके साथ सहभागिता क्यों नहीं करते?’ वह उत्तर देता है, ‘वे क्या जानते हैं? मैं टीम-अगुआ हूँ, निर्णय मुझे लेना है।’ दूसरे कहते हैं, ‘और तुमने अपने साथी के साथ संगति क्यों नहीं की?’ वह जवाब देता है, ‘मैंने उनसे कहा था, उनकी कोई राय नहीं थी।’ वह दूसरे लोगों की कोई राय न होने या उनके खुद सोचने में सक्षम न होने का उपयोग इस तथ्य को ढकने के बहाने के रूप में करता है कि वह खुद को ऐसे दिखा रहा है मानो वह अपने आप में एक कानून हो। और इसके बाद थोड़ा-सा भी आत्मनिरीक्षण नहीं किया जाता। ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य स्वीकारना असंभव होगा। मसीह-विरोधी की प्रकृति के साथ यह एक समस्या है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर ने उजागर किया है कि कैसे मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से काम करते हैं, दूसरों के साथ सहयोग नहीं करते, स्वेच्छा से निर्णय लेते हैं, आखिरी निर्णय हमेशा उनका होता है, अपने सहयोगियों के साथ काम पर चर्चा नहीं करते और खुद ही निर्णय लेकर आगे बढ़ जाते हैं। वे दूसरों के अच्छे सुझाव नहीं मानते और यह सोचकर कि उनके अपने विचार बहुत अच्छे हैं, अक्सर दूसरों की उपेक्षा करते हैं। मसीह-विरोधियों की नजर में, उनके साथी महज कठपुतली होते हैं। मुझे एहसास हुआ कि मैं एक मसीह-विरोधी की तरह काम कर रही थी : जब से क्रिस्टोफर मेरा सहयोगी बना था, तब से मैं उसे नाकाबिल, घटिया कार्यक्षमता वाला और तुलनात्मक रूप से अनुभवहीन मानकर हेय दृष्टि से देखती थी। मैं नहीं चाहती थी कि वह मेरी परियोजना में हिस्सेदार बने। मुझे लगता था कि मैंने उससे अधिक समय तक अगुआ के तौर पर काम किया है, उससे ज्यादा समझती हूँ और काम की व्यवस्था स्वयं कर सकती हूँ; मुझे लगता था कि वह कोई अच्छा सुझाव नहीं दे सकता, इसलिए उसके साथ चर्चा करना व्यर्थ है। जब उसने मुझसे काम के लिए मेरी योजनाओं के बारे में पूछा, तो मैंने प्रतिरोध महसूस किया, मैंने सोचा फौरन मेरी प्रगति के बारे में पूछकर वह खुद को मेरा वरिष्ठ दिखा रहा है, इसलिए मैंने उसे अनदेखा कर दिया। जब कुछ भाई-बहनों ने गिरफ्तारी के डर से अपना कर्तव्य निभाने की हिम्मत नहीं की और क्रिस्टोफर ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उनका साथ दूँगी, तो वह तो बस अपनी जिम्मेदारी निभा रहा था, लेकिन मेरे अहंकार ने सोचा, “वह मुझे हुक्म देने वाला कौन होता है जबकि वह खुद समस्या का समाधान नहीं कर सका?” बाद में जब हम मुद्दों के सार पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा हुए, तो भाई-बहनों ने अभ्यास के कुछ मार्ग बताए, लेकिन मैंने उन्हें नहीं माना। क्योंकि मैं मनमाने ढंग से काम करती थी, दूसरों के साथ भागीदारी करना या उनके सुझाव मानना मुझे पसंद नहीं था, मैं अपने काम में परिणाम लाने में लगातार नाकाम रही थी। मैं हमेशा अपनी मान्यताओं के अनुसार काम करती थी, और जो मुझे सही लगता मैं वही करती, कभी दूसरों के साथ मिलकर काम नहीं किया, इसी वजह से काम में देरी हुई। मैं दुष्टता कर रही थी! इन बातों पर विचार करने पर मैं टीम अगुआओं के काट-छाँट स्वीकार करने को तैयार हो गई। मेरा व्यवहार पहले ही कलीसिया के काम को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर चुका था। अगर उन्होंने इस तरह से मेरी काट-छाँट न की होती, तो मैं आत्म-चिंतन न कर पाती या यह नहीं पहचान पाती कि मेरी समस्या कितनी गंभीर है। काट-छाँट परमेश्वर के प्रेम का एक रूप है!

इसके बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना और खोजने की कोशिश की कि मैं दूसरों के साथ मिलकर काम क्यों नहीं कर पाती और हमेशा अपनी बात ही ऊँची क्यों रखना चाहती हूँ। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जो वास्तव में मेरी स्थिति को दर्शाता था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “हो सकता है, तुम लोगों ने कई वर्षों तक अपने कर्तव्य निभाए हों, लेकिन तुम्हारे जीवन-प्रवेश में कोई स्पष्ट प्रगति नहीं हुई है, तुम केवल कुछ सतही सिद्धांत समझते हो, और तुम्हें परमेश्वर के स्वभाव और सार का कोई सच्चा ज्ञान नहीं है, तुमने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किए हैं—अगर आज तुम लोगों का यह आध्यात्मिक कद है, तो तुम्हारे क्या करने की संभावना होगी? तुम लोगों में कौन-सी भ्रष्टताएँ प्रकट होंगी? (अहंकार और दंभ।) क्या तुम्हारा अहंकार और दंभ घनीभूत होंगे, या अपरिवर्तित रहेंगे? (वे घनीभूत होंगे।) वे घनीभूत क्यों होंगे? (क्योंकि हम खुद को अत्यधिक योग्य समझेंगे।) और लोग किस आधार पर अपनी ही योग्यता के स्तर को परखते हैं? इस पर कि उन्होंने कोई कर्तव्य विशेष कितने वर्षों तक किया है, कितना अनुभव प्राप्त किया है, है न? अगर बात ऐसी है तो, क्या तुम लोग धीरे-धीरे वरिष्ठता को ध्यान में रखकर सोचना शुरू नहीं कर दोगे? उदाहरण के लिए, एक भाई ने कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया है और लंबे समय तक कर्तव्य निभाया है, इसलिए वह बात करने के लिए सबसे योग्य है; एक बहन को यहाँ कुछ ही समय हुआ है, और हालाँकि उसमें थोड़ी क्षमता है, पर उसे यह कर्तव्य निभाने का अनुभव नहीं है, और उसे परमेश्वर पर विश्वास किए लंबा समय नहीं हुआ है, इसलिए वह उसके बारे में बात करने के लिए सबसे कम योग्य है। बात करने के लिए सबसे योग्य इंसान मन में सोचता है, ‘चूँकि मेरे पास वरिष्ठता है, इसलिए इसका अर्थ है कि मेरा कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का है, और मेरा अनुसरण अपने चरम पर है, और ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए मुझे प्रयास करना चाहिए या जिसमें मुझे प्रवेश करना चाहिए। मैंने यह कर्तव्य बखूबी निभाया है, मैंने यह काम कमोबेश पूरा कर दिया है, परमेश्वर को संतुष्ट होना चाहिए।’ और इस तरह वे बेपरवाह होने लगते हैं। क्या यह इस बात का संकेत है कि उन्होंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? उनकी तरक्की बंद हो गयी है। उन्होंने अभी भी सत्य या जीवन प्राप्त नहीं किया है, और फिर भी वे खुद को अत्यधिक योग्य समझते हैं, और वरिष्ठता को ध्यान में रखकर बात करते हैं, और परमेश्वर द्वारा पुरस्कार की प्रतीक्षा करते हैं। क्या यह अहंकारी स्वभाव का खुलासा नहीं है? जब लोग ‘अत्यधिक योग्य’ नहीं होते, तो वे सतर्क रहना जानते हैं, वे खुद को गलतियाँ न करने की याद दिलाते हैं; जब वे खुद को अत्यधिक योग्य मान लेते हैं, तो वे अहंकारी हो जाते हैं, अपने बारे में ऊँची राय रखना शुरू कर देते हैं, और उनके बेपरवाह होने की संभावना होती है। ऐसे समय, क्या यह संभव नहीं कि वे परमेश्वर से पुरस्कार और मुकुट माँगें, जैसा कि पौलुस ने किया था? (हाँ।) इंसान और परमेश्वर के बीच क्या संबंध है? यह सृजनकर्ता और सृजित प्राणियों के बीच का संबंध नहीं है। यह एक लेनदेन के संबंध से ज्यादा कुछ नहीं। और जब ऐसा होता है, तो लोगों का परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं होता, और संभव है कि परमेश्वर उनसे अपना चेहरा छिपा ले—जो एक खतरनाक संकेत है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है)। परमेश्वर ने इस बात को उजागर किया है कि अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता और स्वयं को नहीं जानता, तो वह सोचने लगता है कि कुछ समय तक कर्तव्य करके उसके पास पूंजी और अनुभव आ गया है और वह अपनी वरिष्ठता की धौंस जमाकर दूसरों को नीचा दिखाने लगता है, अहंकार में फूल जाता है, सत्य सिद्धांत खोजने में नाकाम रहता है, अपने कामों में दूसरों को भागीदार नहीं बनाता, मनमाने ढंग से, स्वेच्छानुसार काम करता है और परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चलने लगता है। जब से मैंने आस्था में प्रवेश किया, मैंने हमेशा कर्तव्य किया और दो साल तक अगुआ रही। मुझे लगा कि मैं लंबे समय से आस्था में हूँ, मेरे पास अच्छा कार्यक्षमता है और मुझे काम का थोड़ा-बहुत अनुभव भी है, तो मैं अहंकारी हो गई। मैं दूसरों को विकसित करने और उनके काम की जाँच करने में बहुत खुश थी, लेकिन जब क्रिस्टोफर मेरा भागीदार बन गया और मेरे काम में हिस्सा लेने लगा तो मुझे पसंंद नहीं आया। मैंने सोचा कि मैंने ही उसका सिंचन कर उसे विकसित किया है, वह मेरे जितना काबिल नहीं है, वह अभी शुरुआत ही कर रहा है और ज्यादा अनुभवी भी नहीं है, इसलिए मैं नहीं चाहती थी कि वह मेरे काम का हिस्सा बने। जब उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं नवागंतुकों की सहायता कर रही हूँ और मेरा आगे का कार्यक्रम क्या है, तो मैं परेशान हो गई और मैं उसे अनमने ढंग से जवाब देने लगी। मुझे नहीं लगा कि उसके साथ चर्चा करना जरूरी है और अगर मैं करती भी, तो उसके पास कोई सार्थक सुझाव न होता। मैंने सोचा कि मैं उसके बिना ही काम कर सकती हूँ, तो मैंने उसके साथ चर्चा या भागेदारी नहीं की और ज्यादातर फैसले और व्यवस्थाएँ खुद ही कीं। मेरे लिए वह एक कठपुतली भर था। परमेश्वर चाहता है कि हम अपने कामों में दूसरों को भागीदार बनाएँ, यह हमारे कर्तव्यों को करने का एक मुख्य सिद्धांत है, लेकिन मैंने परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके घर के सिद्धांतों की अनदेखी की। मुझे हमेशा लगता था कि मैं अपने आप में खुश हूँ, अपना काम खुद कर सकती हूँ और मुझे किसी और की भागीदारी की जरूरत नहीं है। मुझे लगता था कि मैं यह सब अकेले संभाल सकती हूँ और मुझे अपने काम की निगरानी करने वाले की जरूरत नहीं है। मैं कितनी घमंडी और दंभी थी! मेरे अहंकारी स्वभाव के कारण मुझमें दूसरों के प्रति कोई सम्मान नहीं रहा और मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। मुझमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं था और मैं परमेश्वर के प्रति शत्रुता के मार्ग पर चल रही थी। जब मैं पहली बार गाँव में आई तो मुझमें अटूट आस्था थी और मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए काम करना चाहती थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि चीजें इस तरह से होंगी। मैं इतनी अहंकारी और संवेदनशून्य कैसे हो सकती थी? मुझे इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि मैं गलत रास्ते पर चल रही हूँ। अगर मेरा रवैया ऐसा ही रहता, तो मैं मसीह-विरोधी बनकर परमेश्वर के काम में बाधा डालती और अंततः परमेश्वर द्वारा उजागर कर हटा दी जाती। उसके बाद मेरी आस्था का जीवन समाप्त हो जाता। यह सब सोचकर, मुझे थोड़ा डर लगा और मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैंने कलीसिया का काम बाधित किया है। अब मैंने अपनी भ्रष्टता और समस्याओं की गंभीरता को पहचान लिया है। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव से तेरा विरोध नहीं करना चाहती।”

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला : “परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी करते हो, तुम अपने खुद के उपक्रम में भाग नहीं ले रहे हो; यह परमेश्वर के घर का काम है, यह परमेश्वर का काम है। तुम्हें इस ज्ञान और जागरुकता को लगातार ध्यान में रखना होगा और कहना होगा, ‘यह मेरा अपना मामला नहीं है; मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। मैं कलीसिया का काम कर रहा हूँ। यह काम मुझे परमेश्वर ने सौंपा है और मैं इसे उसके लिए कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है कोई निजी मामला नहीं है।’ यह पहली बात है जो लोगों को समझ लेनी चाहिए। यदि तुम किसी कर्तव्य को अपना निजी मामला मान लेते हो, अपने कार्य करते हुए सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और उसे अपने निजी उद्देश्यों, विचारों और एजेंडे के अनुसार कार्यान्वित करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम गलतियाँ करोगे। अगर तुम अपने कर्तव्य और अपने निजी मामलों में स्पष्ट अंतर कर लेते हो और जानते हो कि यह कर्तव्य है, तो तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? (परमेश्वर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को खोजना चाहिए।) बिल्कुल सही। यदि तुम्हारे साथ कुछ हो जाए और तुम्हें सत्य न समझ आए, और तुम्हें कुछ समझ आ रहा है, लेकिन चीजें अभी भी तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं हैं तो तुम्हें संगति के लिए किसी ऐसे भाई-बहनों को खोजना चाहिए जो सत्य को समझते हों; यह सत्य खोजना है और सबसे पहले, अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। तुम्हें जो उचित लगे उसके आधार पर तुम्हें चीजों का फैसला नहीं करना चाहिए, हथौड़ा उठाया और मेज पर ठोककर कहा कि मामला खत्म—इससे समस्याएं आसानी से पैदा हो जाती हैं। ... परमेश्वर इस बात से वास्ता नहीं रखता कि तुम्हारे साथ हर दिन क्या होता है, तुम कितना काम करते हो, कितनी मेहनत करते हो—वह सिर्फ यह देखता है कि इन चीजों के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है। और तुम इन चीजों को जिस रवैये और तरीके से करते हो, उसका संबंध किससे है? इसका संबंध तुम्हारे सत्य का अनुसरण करने या न करने के साथ ही तुम्हारे जीवन-प्रवेश से भी है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन-प्रवेश को देखता है, तुम जिस मार्ग पर चलते हो, उसे देखता है। अगर तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलते हो, तुम जीवन-प्रवेश कर चुके हो, तो तुम कर्तव्य निभाते समय दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग कर सकोगे और अपना कर्तव्य समुचित रूप से पूरा कर लोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचन एकदम स्पष्ट हैं। परमेश्वर के घर में कार्य करने का मतलब यह नहीं है कि हम अपनी मर्जी से काम करें और उसमें दूसरे लोगों की कोई भागीदारी न हो। हमारा कर्तव्य परमेश्वर के घर के काम का एक हिस्सा है, अगर हम मनमाने ढंग से काम करेंगे और सहयोग नहीं करेंगे, तो हम काम को बाधित कर उसमें रुकावट डालेंगे। मैंने यह भी जाना कि परमेश्वर लोगों को इस आधार पर नहीं तौलता कि वे कितने समय से आस्था में हैं, उन्होंने कितना काम किया है या उन्हें अपने कार्य का कितना अनुभव है, बल्कि वह देखता है कि सत्य के प्रति उनका दृष्टिकोण क्या है, और क्या वे अपना कर्तव्य करने में सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हैं। अगर मैं सत्य की खोज न करूँ, दूसरों के अच्छे सुझाव न स्वीकारूँ और हमेशा अपनी बात ही ऊपर रखूँ, तो मुझे अपने कार्य के अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे। मैंने हमेशा अपनी कथित काबिलियत को, कुछ समय तक अगुआ बनने को और अपने अनुभव को पूंजी के रूप में लिया। मैंने सोचा कि इन योग्यताओं के साथ मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से पूरा कर पाऊँगी। सच तो यह है कि उस अनुभव और काबिलियत का मतलब यह नहीं था कि मुझमें सत्य सिद्धांत हैं; वे उपकरण मात्र थे जिनका मैं अपने कर्तव्य में उपयोग कर सकती थी। मुझे एहसास हुआ कि मैंने अनुभव और काबिलियत को सत्य सिद्धांत समझ लिया और सोचा कि मैंने सत्य समझ लिया है और सिद्धांत के अनुसार काम किया है। मैं अहंकारी होती चली गई, भाई-बहनों को हेय दृष्टि से देखने लगी और मनमानी करने लगी। नतीजतन, तीन महीने बाद भी मैं अपने काम में कोई परिणाम हासिल नहीं कर पाई। मुझे एहसास हुआ कि अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाने के लिए, यह मायने नहीं रखता कि आप कितने समय से विश्वासी हैं, आपने पहले कितना योगदान दिया है या आपके पास कितना अनुभव है। अहम यह है कि सत्य की खोज करें, सिद्धांत के अनुसार कार्य करें और दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से भागीदारी करें।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े जिनसे मुझे दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से भागीदारी करने का एक स्पष्ट मार्ग मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “सामंजस्यपूर्ण सहयोग में कई चीजें शामिल होती हैं। कम से कम, इन कई चीजों में से एक है दूसरों को बोलने देना और विभिन्न सुझाव देने देना। अगर तुम वास्तव में विवेकशील हो, तो चाहे तुम जिस भी तरह का काम करते हो, तुम्हें पहले सत्य सिद्धांतों की खोज करना सीखना चाहिए, और तुम्हें दूसरों की राय लेने की पहल भी करनी चाहिए। अगर तुम हर सुझाव गंभीरता से लेते हो, और फिर एकदिल हो कर समस्याएँ हल करते हो, तो तुम अनिवार्य रूप से सामंजस्यपूर्ण सहयोग प्राप्त करोगे। इस तरह, तुम्हें अपने कर्तव्य में बहुत कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, उन्हें हल करना और उनसे निपटना आसान होगा। सामंजस्यपूर्ण सहयोग का यह परिणाम होता है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातों पर विवाद हो जाते हैं, लेकिन अगर काम पर उनका असर नहीं पड़ता, तो कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन, महत्वपूर्ण मामलों और कलीसिया के काम से जुड़े प्रमुख मामलों में तुम्हें आम सहमति पर पहुँचना चाहिए और उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। ... तुम्हें अगुआई की उपाधियाँ छोड़नी होंगी, हैसियत की गंदी अकड़ छोड़नी होगी, खुद को एक साधारण व्यक्ति समझना होगा, दूसरों के समान स्तर पर खड़े होना होगा, और अपने कर्तव्य के प्रति एक जिम्मेदार रवैया रखना होगा। अगर तुम हमेशा अपने कर्तव्य को एक आधिकारिक पदवी और हैसियत, या एक तरह की प्रतिष्ठा समझते हो, और कल्पना करते हो कि दूसरे लोग काम करने और तुम्हारे पद की सेवा के लिए हैं, तो यह तकलीफदेह है, और परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा और तुमसे नाराज होगा। अगर तुम मानते हो कि तुम दूसरों के बराबर हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर की ओर से थोड़ा ज्यादा आदेश और जिम्मेदारी है, अगर तुम खुद को उनके साथ समान स्तर पर रखना सीख सको, यहाँ तक कि झुककर पूछ सको कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं, और अगर तुम ईमानदारी, बारीकी और ध्यान से उनकी बात सुन सको, तो तुम दूसरों के साथ सामंजस्य में सहयोग करोगे। इस सामंजस्यपूर्ण सहयोग का क्या परिणाम होगा? परिणाम बहुत बड़ा है। तुम वे चीजें प्राप्त करोगे जो तुम्हारे पास पहले कभी नहीं थीं, जो सत्य की रोशनी और जीवन की वास्तविकताएँ हैं; तुम्हें दूसरों के गुण पता लगेंगे और तुम उनकी खूबियों से सीखोगे। कुछ और भी है : तुम दूसरे लोगों को मूर्ख, मंदबुद्धि, नासमझ, अपने से कमतर समझते हो, लेकिन जब तुम उनकी राय सुनोगे, या दूसरे लोग तुमसे खुलकर बात करेंगे, तो अनजाने ही तुम्हें पता चलेगा कि कोई भी उतना साधारण नहीं है जितना तुम समझते हो, कि हर व्यक्ति भिन्न विचार और मत पेश कर सकता है, और सबकी अपनी खूबियाँ होती हैं। अगर तुम सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना सीखते हो, तो दूसरों की खूबियों से सीखने में मदद करने के अलावा, यह तुम्हारे अहंकार और आत्म-तुष्टि को प्रकट कर सकता है, और तुम्हें यह कल्पना करने से रोक सकता है कि तुम चतुर हो। जब तुम खुद को बाकी सबसे ज्यादा होशियार और बेहतर नहीं मानते, तो तुम इस आत्म-मुग्धता और आत्म-प्रशंसा की अवस्था में रहना बंद कर दोगे। और यह तुम्हारी रक्षा करेगा, है न? दूसरों के साथ सहयोग करने से तुम्हें ऐसा सबक सीखना और यह लाभ प्राप्त करना चाहिए(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। “क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है, और यह वह दृष्टिकोण है जो उन्हें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं या दोषों के प्रति रखना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, उनकी खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे अभ्यास का पाठ मिला। इन साझेदारी में हम सबको एक ही स्तर पर होना चाहिए और उनकी बातें ध्यान से सुननी चाहिए और जो बात समझ न आए उसके बारे में बेझिझक पूछना चाहिए। इस तरह अभ्यास करने से हम भाई-बहनों की ताकत का पता लगा सकते हैं और जान सकते हैं कि वे हमसे किन मामलों ज्यादा मजबूत हैं। तब हम उन्हें हेय दृष्टि से नहीं देखेंगे और अपने व्यवहार में इतने आत्म-तुष्ट और मनमाने नहीं रहेंगे। हमें खुद के बारे में भी स्पष्ट समझ होनी चाहिए और अपने आपको ऊँचे पायदान पर नहीं चाहिए। हमें दूसरों की ताकत को पहचानना चाहिए और उनकी कमजोरियों के प्रति सही रवैया अपनाना चाहिए। जब मैं बतौर अगुआ अपने दो साल के सेवाकार्य को देखती हूँ, तो लगता है कि मैंने सुसमाचार प्रचार का कार्य अच्छे से नहीं किया और उसकी जाँच करते समय मुझे सहयोग की आवश्यकता थी। क्रिस्टोफर लंबे समय से आस्था में नहीं था, लेकिन उसने हमेशा सुसमाचार का प्रचार किया, शानदार परिणाम हासिल किए और कई लोगों को आस्था में लाया। सुसमाचार प्रचार करने के मामले में वह ज्यादा अनुभवी था और मुझे सक्रिय रूप से उसकी मदद लेनी चाहिए थी। इसके अलावा, क्रिस्टोफर अपने काम में बहुत जिम्मेदार इंसान था, अपने कार्य का भार वहन करता था, हमारे काम को संक्षेप में बताने के लिए सक्रिय रूप से मुझसे संपर्क करता था और अन्य कलीसियाओं की अच्छी बातों को लागू करता था। मैं उसकी ये अच्छी बातें सीख सकती थी। मैंने सोचा कि कैसे मैं बेहद घमंडी होने के कारण क्रिस्टोफर की खूबियों को पहचान नहीं पाई, मैं उसे हेय दृष्टि से देखती थी। मैं न तो उसके सुझाव स्वीकारती और न ही उसे अपने काम में हिस्सा नहीं लेने देती। मैं कुछ नहीं थी फिर भी मैं इतनी आत्मविश्वासी थी—कितनी शर्मनाक बात है। मुझमें कोई आत्म-जागरुकता नहीं थी। अगर मैंने पहले ही क्रिस्टोफर का सहयोग ले लिया होता, तो काम में देरी की नौबत नहीं आती। उन सब बातों को सोचकर मुझे बड़ा पछतावा होता है। मेरे पिछले अपराधों की कोई भरपाई संभव नहीं थी, लेकिन मैं आगे बढ़कर अच्छे से अपना कर्तव्य निभाने को तैयार थी। मैं समस्याएँ आने पर औरों के साथ चर्चा और संवाद करती, कलीसिया के हितों को प्राथमिकता देती, दूसरों के साथ भागीदारी करना सीखती और मैंने घिसे-पिटे रास्ते पर चलना बंद कर दिया।

फिर मैंने गाँव छोड़ दिया। मुझे अलग-अलग प्रोजेक्ट सौंपे गए और एक नया साथी मिला। इस बार मुझे बहन मीना का साथ मिला। मैं अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने के लिए उसका सामंजस्यपूर्ण साथ पाकर खुश थी। धीरे-धीरे मैंने गौर करना शुरू किया कि मीना भले ही मुझसे बड़ी थी, लेकिन वह आस्था में या अपने कर्तव्य निर्वहन में उतने समय से नहीं थी जितने समय से मैं थी। काम की देखरेख और जाँच करने के मामले में वह अभी भी कमजोर थी। कभी-कभी मैं भाई-बहनों को उसकी कुछ समस्याओं के बारे में बात करते सुनती। मेरा अहंकारी स्वभाव फिर से सिर उठाने लगा। मुझे लगने लगा कि मैं हमारे काम में मुख्य भूमिका निभा रही हूँ और बहन मीना सिर्फ अभ्यास करने के लिए है। एक बार हमें एक कार्य प्रस्ताव लिखना था, हमारे अगुआ ने हमें विशेष रूप से कहा कि हम काम पर मिलकर चर्चा करें, लेकिन मैंने सोचा : “यह कोई मुश्किल काम नहीं है, इसे तो मैं अकेले ही आसानी से कर सकती हूँ, इस पर दोनों को काम करने की जरूरत नहीं है। ऐसा नहीं है कि मैं यह काम खुद नहीं कर सकती।” सभा के बाद मैं अकेले ही काम शुरू करना चाहती थी, लेकिन तुरंत ही मेरे पास मीना का फोन आ गया और मुझे पता था कि वह चर्चा करना चाहेगी। लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने फोन ही नहीं उठाया। लेकिन बाद में मुझे थोड़ी ग्लानि हुई। मुझे लगा कि क्रिस्टोफर के साथ मिलकर काम न करने का मेरा अहंकार और अनिच्छा पहले ही काम में बाधा डाल चुके हैं, अगर मैंने अभी भी वही हरकत जारी रखी, तो यकीनन काम पर इसका बुरा असर पड़ेगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मीना काम पर चर्चा करने के लिए मुझे ढूँढ रही थी, लेकिन मैं अहंकारवश उसके साथ मिलकर काम नहीं करना चाहती थी। हे परमेश्वर, मैं नहीं चाहती कि मनमाने ढंग से काम करके मैं कलीसिया के काम में बाधा डालती रहूँ। मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं अपने अहंकारी स्वभाव में जीने के बजाय मीना के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से मिलकर काम कर सकूँ।” तभी मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “परमेश्वर के कार्य के प्रयोजन के लिए, कलीसिया के फ़ायदे के लिये और अपने भाई-बहनों को आगे बढ़ाने के वास्ते प्रोत्साहित करने के लिये, तुम लोगों को सद्भावपूर्ण सहयोग करना होगा। परमेश्वर के इरादों के प्रति लिहाज दिखाने के लिए तुम्हें एक दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिये, एक दूसरे में सुधार करके कार्य का बेहतर परिणाम हासिल करना चाहिये। सच्चे सहयोग का यही मतलब है और जो लोग ऐसा करेंगे सिर्फ़ वही सच्चा प्रवेश हासिल कर पाएंगे(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। परमेश्वर के वचनों ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए मुझे मीना के साथ सामंजस्य बिठाना सीखना होगा और अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार जीना और मनमाना व्यवहार करना बंद करना होगा। उसके बाद मैंने मीना को फोन किया और हमारी आगे की कार्य व्यवस्था पर चर्चा की। मीना ने अपने विचार मेरे साथ साझा किए, मुझे वे काफी अच्छे लगे और मैंने उन्हें लागू किया। कुछ ही समय में हमने पहले की तुलना में कहीं ज्यादा तेजी से एक योजना तैयार कर ली। मैं बेहद खुश थी। यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं थी, लेकिन अपने अहंकार को त्यागकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना बहुत अच्छा लगा। उसके बाद मैंने दूसरे भाई-बहनों के साथ मिलकर काम करना सीख लिया और देखा कि महीने दर महीने हमारे काम में बेहतर नतीजे मिल रहे हैं। मैंने मन ही मन परमेश्वर को धन्यवाद दिया!

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