88. दूसरों से बातचीत करने के सिद्धांत
अगस्त 2022 में मैं वीडियो बनाने के लिए लियू ज़ुआन और झांग क्यू का सहयोग किया करती थी। चूँकि मैं वीडियो बनाने में नई थी और कुछ सिद्धांत नहीं समझ पाई थी, इसलिए टीम अगुआ लियू ज़ुआन अक्सर मेरी मदद करती थी। हम लगभग एक ही उम्र की थीं और हमारी दिलचस्पियाँ एक जैसी थीं, इसलिए हम जल्दी ही एक-दूसरे से घुल मिल गईं और हमारे बीच अच्छे संबंध बन गए।
एक बार झांग क्यू को वीडियो बनाते समय कुछ जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ा और उसने लियू ज़ुआन से मदद माँगी। लियू ज़ुआन ने उसके साथ समस्याओं का विश्लेषण और चर्चा की, लेकिन झांग क्यू के बनाए वीडियो में फिर भी कुछ समस्याएँ रह गईं। लियू ज़ुआन ने तब तिरस्कारपूर्वक कहा, “हमने कल ही इस पर चर्चा की थी और फिर भी तुमने ऐसा वीडियो बनाया!” यह देखकर कि झांग क्यू थोड़ी-सी बेबस हो गई है और बिना कुछ कहे अपना सिर झुकाए हुए है, मैंने सोचा, “लियू ज़ुआन का रवैया झांग क्यू को चोट पहुँचाएगा। जब हम समस्याओं का सामना करते हैं तो हमें शांति से संवाद करना चाहिए, जो भविष्य में सुधार के लिए ज्यादा अनुकूल होगा।” मैंने इसके बारे में लियू ज़ुआन के साथ बात करने के बारे में सोचा, लेकिन मैं झिझक कर सोचने लगी, “अगर लियू ज़ुआन इसे स्वीकारती है तो ठीक है। लेकिन अगर वह ऐसा नहीं करती है और पलटकर जवाब देती है तो मेरे लिए अजीब स्थिति बन जाएगी, इससे मुझे बहुत शर्मिंदगी होगी! अगर लियू ज़ुआन को लगा कि मैं झांग क्यू का पक्ष ले रही हूँ और वह मुझे नापसंद करने लगे तो क्या होगा? भविष्य में मेरी उसके साथ कैसे निभेगी? इसे भूल जाओ। शायद कुछ न कहना ही बेहतर है।” बाद में लियू ज़ुआन को भी एहसास हुआ कि उसने घमंडी स्वभाव प्रकट किया है, लेकिन उसने खुद को सही मायने में समझे बिना सिर्फ साधारण स्वीकारोक्ति की। मैंने उसके साथ संगति करने के बारे में सोचा, लेकिन जब कुछ कहने की बारी आई तो मैं फिर से झिझक गई : “वह पहले ही मान चुकी है कि वह घमंडी है। अगर मैं फिर यही बताती हूँ और उसके साथ संगति करती हूँ तो क्या वह सोचेगी कि उससे मेरी अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा हैं? क्या होगा अगर वह मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह विकसित कर लेती है? इसे छोड़ देना ही बेहतर होगा।” और इस तरह बात आई गई हो गई। एक और समय की बात है जब हमारी टीम ने एक ऐसा वीडियो बनाया जो मानक के अनुरूप नहीं था। एक टीम अगुआ के रूप में लियू ज़ुआन ने इसकी वजह पता लगाने में हमारी अगुआई नहीं की। कुछ दिनों बाद अन्य भाई-बहनों ने सिद्धांतों के आधार पर हमारे साथ विश्लेषण और संवाद किया। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि समस्या कहाँ थी। मैंने सुझाव दिया कि हमें तकनीकी कौशल का यह पहलू जल्दी से सीख लेना चाहिए। लेकिन लियू ज़ुआन ने इसे गंभीरता से नहीं लिया, बस कह दिया कि वह तकनीकी कौशल के इस पहलू का अध्ययन पहले भी कर चुकी है और इसे पहले से जानती है, इसलिए उसने इसे हमें सिखाने की व्यवस्था नहीं की। मैंने तकनीकी अध्ययन के प्रति लियू ज़ुआन का लापरवाह रवैया देखा। वह बिल्कुल भी कुशल नहीं थी, बल्कि वह आत्मसंतुष्ट थी और सीखने को तैयार नहीं थी। और टीम अगुआ के रूप में उसने भटकावों की समीक्षा नहीं की थी। मैं उससे उसकी समस्याओं के बारे में बात करना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं यह कहूँगी तो क्या लियू ज़ुआन शर्मिंदा हो जाएगी? अगर मैंने उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा दी और उसने मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह पाल लिया तो क्या होगा?” इसलिए मैंने उसे कुछ कहने के बजाय एक बार फिर चुप्पी ओढ़ ली। बाद में जब हमारी पर्यवेक्षक ने मेरी दशा के बारे में पूछा तो मैं उसे ये बातें लिख देना चाहती थी। लेकिन मुझे चिंता हुई, “अगर लियू ज़ुआन यह देखेगी तो क्या वह यह नहीं कहेगी कि मैंने उसके मुँह पर ये बातें बताने की जगह उसकी पीठ पर छुरा घोंपा है और मैंने उसकी समस्याएँ बताने के लिए अपनी अवस्था के बारे में लिखने का फायदा उठाया है? अगर लियू ज़ुआन ने मेरे बारे में नकारात्मक राय बना ली तो भविष्य में उसके साथ मेरी कैसे निभेगी?” इन चिंताओं के साथ मैंने लियू ज़ुआन की समस्याओं का बिल्कुल भी जिक्र नहीं किया। बाहर से मैं और लियू ज़ुआन एक साथ बातें करतीं और हँसती थीं, लेकिन जब भी मुझे उसकी समस्याएँ बताने की जरूरत होती तो मैं लगातार उसके जवाब का अनुमान लगाने लगती थी। यहाँ तक कि जब मैं उसकी समस्याएँ साफ देख लेती थी तो भी ईमानदारी से बोलने की हिम्मत नहीं करती थी। यह बहुत दुखद और दमघोटू था! उस दौरान मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती थी, खुद को समझने और अपने भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों से मुक्त होने के लिए उसका प्रबोधन और मार्गदर्शन माँगती थी।
एक दिन अपनी दशाओं के बारे में संवाद के दौरान लियू ज़ुआन ने जिक्र किया कि हमारे बीच ईमानदार संवाद की कमी है। उसने बताया कि मेरी प्रवृत्ति खुशामद करने वाली है और कहा कि मैं शायद ही कभी उसकी समस्याएँ बताती हूँ, भले ही मैंने उन्हें देखा क्यों न लिया हो। उसने कहा कि उसे भी दूसरों से सुधार और मदद की भी जरूरत होती है और यह कहते-कहते वह दुखी होकर रोने लगी। लियू ज़ुआन की बात सुनकर मुझे बहुत ज्यादा अपराध बोध और तकलीफ हुई। यह पता चला कि उसकी नजर में मैं खुशामदी हूँ और उसमें सत्य के प्रति उतना प्रतिरोध नहीं है, जितना मैं सोचे बैठी थी। मैं उसकी समस्याएँ बताने या उजागर करने के लिए एक भी शब्द क्यों नहीं कह पाई? मैंने इस समस्या पर केंद्रित परमेश्वर के वचनों को खाया और पिया। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “भाई-बहनों के साथ बातचीत करते समय तुम्हें अपना दिल खोलकर उनके सामने रखना चाहिए और उन पर भरोसा करना चाहिए, ताकि इससे तुम्हें फायदा हो। अपना कर्तव्य निभाते समय तो अपना दिल खोलकर लोगों के सामने रखना और उन पर भरोसा करना और भी महत्वपूर्ण है; तभी तुम साथ मिलकर अच्छी तरह से काम करोगे। ... कभी-कभी, जब दो लोग बातचीत करते हैं, तो उनके व्यक्तित्व टकराते हैं, या उनके पारिवारिक परिवेश, पृष्ठभूमि या उनकी आर्थिक स्थितियाँ मेल नहीं खातीं। लेकिन अगर वे दो लोग एक-दूसरे के सामने अपने दिल खोलकर रख सकें, और अपने मुद्दों के प्रति बिल्कुल स्पष्ट हो सकें, बिना झूठ और धोखे के बातचीत कर सकें, एक-दूसरे को अपने दिल दिखा पाएँ, तो इस तरह वे सच्चे मित्र बन सकेंगे, जिसका मतलब है अंतरंग मित्र बनना। शायद, जब दूसरा व्यक्ति किसी मुसीबत में होगा, तो वह किसी और की नहीं, तुम्हारी तलाश करेगा, और तुम्हीं पर यह भरोसा करेगा कि तुम उसकी मदद करने में सक्षम हो। तुम अगर उसे फटकार भी दो, तो भी वह पलटकर बहस नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि तुम एक सच्चे हृदय वाले ईमानदार व्यक्ति हो। वह तुम पर भरोसा करता है, इसलिए चाहे तुम कुछ भी कहो या उससे कैसे भी व्यवहार करो, वह समझने में सक्षम होगा। क्या तुम लोग ऐसे व्यक्ति बन सकते हो? क्या तुम लोग ऐसे व्यक्ति हो? अगर नहीं, तो तुम ईमानदार लोग नहीं हो। जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करते हो, तब तुम्हें पहले उन्हें अपने सच्चे दिल और ईमानदारी का एहसास कराना चाहिए। अगर बोलने और इकट्ठे कार्य करने, और दूसरों के साथ संपर्क करने में, किसी के शब्द लापरवाह, आडंबरपूर्ण, मजाकिया, चापलूसी करने वाले, गैर-जिम्मेदाराना और मनगढ़ंत हैं, या उसकी बातें केवल सामने वाले से अपना काम निकालने के लिए हैं, तो उसके शब्द विश्वसनीय नहीं हैं, और वह थोड़ा भी ईमानदार नहीं है। दूसरों के साथ बातचीत करने का उनका यही तरीका होता है, चाहे वे कोई भी हों। ऐसे व्यक्ति का दिल सच्चा नहीं होता। यह व्यक्ति ईमानदार नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आया कि भले ही मैंने देख लिया था कि लियू ज़ुआन अपने घमंडी स्वभाव के कारण दूसरों को बेबस करती है और तकनीकी अध्ययन को लेकर लापरवाह रवैया अपनाती है, लेकिन मैंने उसे सुधारने या उसकी मदद करने के लिए कुछ नहीं कहा। मेरी कपटी प्रकृति और दूसरों के प्रति अत्यधिक सतर्क रहने की भावना इसकी वजहें थीं। मुझे चिंता थी कि अगर लियू ज़ुआन ने मेरे सुझाव नहीं स्वीकारे और मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह विकसित कर लिया तो इससे हमारे आपसी रिश्ते में खटास पड़ जाएगी। पीछे मुड़कर देखें तो आमतौर पर जब लियू ज़ुआन मेरी समस्याएँ देखती थी तो वह सीधे उन्हें बताती थी, जिससे मुझे वाकई मदद मिलती थी। लेकिन मैं उसके प्रति बहुत रक्षात्मक रहती थी। भले ही मैंने उसकी समस्याएँ पहचान ली हों, मैंने कभी उन पर संगति नहीं की या उन्हें बताया नहीं, बिना किसी ईमानदारी के सिर्फ झूठा दिखावा किया। मैं वाकई धोखेबाज थी! मुझे लगा कि दूसरों की समस्याएँ बताना अपमानजनक है और इससे उन्हें चोट पहुँचेगी, लेकिन यह विचार गलत था। दरअसल जब हम दूसरे लोगों को अपनी भ्रष्टताएँ प्रकट करते देखते हैं तो हमें वास्तव में ईमानदार होना चाहिए और उनके प्रति अपना दिल खोलना चाहिए और उनकी समस्याएँ तुरंत बतानी चाहिए। इससे उन्हें आत्म-चिंतन करने और गलतियाँ सुधारने में मदद मिलेगी और कलीसिया के काम में होने वाले नुकसान को भी रोका जा सकेगा। यह दूसरों की मदद करने का एक तरीका है। मुझे एहसास हुआ कि चीजों के बारे में मेरे विचार पूरी तरह से विकृत थे और सत्य से जरा भी मेल नहीं खाते थे। बाद में मैंने लियू ज़ुआन के साथ उसकी समस्याएँ साझा कीं जो मैंने देखी थीं। पर्यवेक्षक ने भी लियू ज़ुआन की मदद करने के लिए संगति करने के लिए लिखा।
कुछ समय बाद लियू ज़ुआन को अपने घमंडी स्वभाव की कुछ समझ होने लगी और उसने तकनीकी कौशल सीखने में हमारी अगुआई करने की पहल की। हमारे कर्तव्यों की दक्षता भी बढ़ गई। ये नतीजे देखकर मुझे बहुत शर्मिंदगी और अपराध बोध हुआ। अगर मैंने पहले ही खुलकर बता दिया होता तो लियू ज़ुआन अपनी समस्याएँ शीघ्र पहचान सकती थी, जिससे हमारे सामंजस्यपूर्ण सहयोग और तकनीकी कौशल के संवाद दोनों को लाभ होता। पछतावे के साथ मैंने आत्म-चिंतन किया और सोचा : मैं जब भी दूसरों की समस्याएँ देखती थी तो जुबान पर बात आने के बावजूद बोलने का साहस क्यों नहीं कर पाती थी? कौन सा भ्रष्ट स्वभाव मुझे पर्दे के पीछे से नियंत्रित कर रहा है? एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “जब लोग अपने कर्तव्यों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, इन्हें अनमने ढंग से निभाते हैं, चापलूसों जैसे पेश आते हैं, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह चालाकी है, यह शैतान का स्वभाव है। चालाकी इंसान के सांसारिक आचरण के फलसफों का सबसे प्रमुख पहलू है। लोग सोचते हैं कि अगर वे चालाक न हों, तो वे दूसरों को नाराज कर बैठेंगे और खुद की रक्षा करने में असमर्थ होंगे; उन्हें लगता है कि कोई उनके कारण आहत या नाराज न हो जाए, इसलिए उन्हें पर्याप्त रूप से चालाक होना चाहिए, जिससे वे खुद को सुरक्षित रख सकें, अपनी आजीविका की रक्षा कर सकें, और दूसरे लोगों के बीच सुदृढ़ता से पाँव जमा सकें। सभी अविश्वासी शैतान के फलसफों के अनुसार जीते हैं। वे सभी चापलूस होते हैं और किसी को ठेस नहीं पहुँचाते। तुम परमेश्वर के घर आए हो, तुमने परमेश्वर के वचन पढ़े हैं और परमेश्वर के घर के उपदेश सुने हैं, तो तुम सत्य का अभ्यास करने, दिल से बोलने और एक ईमानदार इंसान बनने में असमर्थ क्यों हो? तुम हमेशा चापलूसी क्यों करते हो? चापलूस केवल अपने हितों की रक्षा करते हैं, कलीसिया के हितों की नहीं। जब वे किसी को बुराई करते और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाते देखते हैं, तो इसे अनदेखा कर देते हैं। उन्हें चापलूस होना पसंद है, और वे किसी को ठेस नहीं पहुँचाते। यह गैर-जिम्मेदाराना है, और ऐसा व्यक्ति बहुत चालाक होता है, भरोसे लायक नहीं होता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “देखने में, मसीह विरोधियों की बातें हर तरह से दयालुतापूर्ण, सुसंस्कृत और विशिष्ट प्रतीत होती हैं। मसीह-विरोधी सिद्धांत का उल्लंघन करने, कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा पैदा करने वाले को उजागर नहीं करते या उसकी आलोचना नहीं करते; वे आंखें मूंद लेते हैं, ताकि लोग यह सोचें कि वे हर मामले में उदार-हृदय हैं। लोगों ने चाहे किसी भ्रष्टता का खुलासा किया हो और जो भी दुष्कर्म करते हों, मसीह-विरोधीउसके प्रति सहानुभूति और सहनशीलता रखता है। वे क्रोधित नहीं होते, या अचानक आगबबूला नहीं हो जाते, जब वे कुछ गलत करते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं, तो वे लोगों को नाराज नहीं करेंगे और उन्हें दोष नहीं देंगे। चाहे कोई भी बुराई करे और कलीसिया के काम में बाधा डाले, वे कोई ध्यान नहीं देते, मानो इससे उनका कोई लेना-देना न हो, और वे इस कारण लोगों को कभी नाराज नहीं करेंगे। मसीह-विरोधी सबसे ज्यादा चिंता किस बात की करते हैं? इस बात की कि कितने लोग उनका सम्मान करते हैं, और जब वे कष्ट झेलते हैं तो कितने लोग उन्हें सम्मान देते हैं और इसके लिए उनकी प्रशंसा करते हैं। मसीह-विरोधी मानते हैं कि कष्ट कभी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए; चाहे वे कोई भी कठिनाई सहें, कितनी भी कीमत चुकाएँ, कोई भी अच्छे कर्म करें, दूसरों के प्रति कितने भी दयालु, विचारशील और स्नेही हों, यह सब दूसरों के सामने किया जाना चाहिए, ताकि अधिक लोग इसे देख सकें। और ऐसा करने का उनका क्या उद्देश्य होता है? लोगों का समर्थन पाना, अपने कार्यों, आचरण और चरित्र के प्रति ज्यादा लोगों के दिलों में स्वीकृति बना पाना, शाबासी पाना। यहाँ तक कि ऐसे मसीह-विरोधी भी हैं, जो इस बाहरी अच्छे व्यवहार के माध्यम से अपनी छवि ‘एक अच्छे व्यक्ति’ के रूप में स्थापित करने की कोशिश करते हैं, ताकि अधिक लोग मदद की तलाश में उनके पास आएँ” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दस))। परमेश्वर के वचन कितने स्पष्ट रूप से सत्य उजागर करते हैं! धोखेबाज और चालाक स्वभाव वाले लोग जब दूसरों को भ्रष्टता प्रकट करते या कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा करते देखते हैं तो वे कभी भी यह बताते नहीं और न उन्हें उजागर करते हैं। बाहर से वे सहनशील और धैर्यवान लगते हैं, लेकिन उनका असली मकसद बाहरी दयालुता का इस्तेमाल करना है ताकि दूसरों को लगे कि वे प्रेमपूर्ण और विचारशील हैं, जिससे वे लोगों का मन जीत सकें और उन्हें अपने पक्ष में कर सकें। उनकी प्रकृति अत्यंत दुष्ट होती है। ठीक मेरी तरह, जब मैंने लियू ज़ुआन को झांग क्यू का तिरस्कार करते और उसे बेबस करते देखा और यह देखा कि हमारी टीम अगुआ के रूप में लियू ज़ुआन तकनीकी अध्ययन की व्यवस्था करने में विफल रही है और उसने काम में देरी की है तो मैं उसकी समस्याएँ बताना चाहती थी। लेकिन जुबान पर बात आकर भी मैंने अपने होंठ सिल दिए, मुझे यह चिंता थी कि लियू ज़ुआन शायद स्वीकारोक्ति न करे और मेरे प्रति पूर्वाग्रह पाल ले जिससे भविष्य में हमारी बातचीत मुश्किल हो जाएगी। इसलिए मैं हमेशा चुप रही। अपनी अवस्था के बारे में लिखते समय भी मुझे डर था कि जब लियू ज़ुआन इसे देखेगी तो उसे लगेगा कि मैं उसकी पीठ पीछे उसकी समस्याएँ बता रही हूँ, इसलिए मैंने उसका जिक्र करने से परहेज किया। ऊपरी तौर पर मैंने किसी को नाराज नहीं किया और मैं काफी मिलनसार लगती थी, लेकिन मेरा असली इरादा लियू ज़ुआन के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना था। उसके मन में सकारात्मक छवि बनाए रखने के लिए मैं कुछ भी सचमुच ईमानदार या फायदे की बात बोलने का साहस नहीं कर पाई। मैंने इस बात पर विचार नहीं किया कि क्या इससे भाई-बहनों का जीवन प्रवेश प्रभावित होगा या क्या इसके कारण कलीसिया के काम में देरी होगी। मैं बहुत स्वार्थी, नीच, चालाक और धोखेबाज थी! मैं वाकई एक निरी चापलूस थी! आखिर परमेश्वर मुझसे क्यों न खीझता और घृणा करता?
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “सांसारिक आचरण के फलसफों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—उन्हें लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब किसी व्यक्ति को कोई भी धमका नहीं रहा होता, तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, एक दूसरे का शोषण कर रहे हैं और एक दूसरे को मात दे रहे हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। इसके सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के नैतिक आचरण से यह माँग कि ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ नेक है? क्या यह सकारात्मक माँग है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को नाराज नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी, कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो, तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी : वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। लोगों को ऐसा करना सिखाने से कौन-सी समस्याएँ हल हो सकती हैं? भले ही इस तरह से कार्य करने से, तुम शत्रु नहीं बनाते और कुछ शत्रु कम भी हो जाते हैं, तो क्या इससे लोग तुम्हारी प्रशंसा और अनुमोदन करेंगे और हमेशा तुम्हारे मित्र बने रहेंगे? क्या यह नैतिक आचरण के मानक को पूरी तरह से हासिल करता है? अपने सर्वोत्तम रूप में, यह सांसारिक आचरण के एक फलसफे से अधिक कुछ नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि ऐसी कहावतें, जैसे, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” “दूसरों की भावनाओं और सूझ-बूझ का ध्यान रखते हुए अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है” और “जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है,” सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे हैं। शैतान इंसानों के मन में ये विचार भरता है, उन्हें यकीन दिलाता है कि समाज में टिके रहने के लिए उन्हें लोगों के साथ संबंध बनाए रखने चाहिए, हमेशा दूसरों का लिहाज करना चाहिए, चालाक और खुशामदी होना चाहिए। वरना उन्हें बहिष्कार झेलना होगा। जब लोग दूसरों के साथ बातचीत करने के लिए सांसारिक आचरण के लिए इन फलसफों पर भरोसा करते हैं तो वे एक-दूसरे के प्रति संदिग्ध और रक्षात्मक हो जाते हैं। जब वे बोलते या कुछ करते हैं तो वे लगातार दूसरों के लहजे और हाव-भाव ताड़ते रहते हैं, ऊपरी तौर पर अलग तरह से काम करते हैं और अपने असली विचार छिपाते हैं। वे कभी भी ईमानदारी या दिल से बात नहीं करते हैं, पाखंडी और दुष्ट बनते जाते हैं और गरिमा या ईमानदारी के बिना जीते हैं। मैं लियू ज़ुआन की समस्याएँ बताने से सिर्फ इसलिए हमेशा डरा करती थी क्याेंकि मैं सांसारिक आचरण के इन शैतानी फलसफों से प्रभावित थी। मैं मानती थी कि लोगों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने और उनके बीच अपनी जगह सुरक्षित रखने के लिए मुझे अपनी कथनी और करनी में सावधान रहना होगा, दूसरों से कभी कोई अप्रिय बात नहीं कहनी होगी या उनकी कमियाँ और खामियाँ नहीं बतानी होंगी। मैं मानती थी कि मुझे दूसरों का सम्मान बनाए रखना है। वरना मैं उन्हें नाराज कर बैठूँगी और दुश्मन बना लूँगी। परमेश्वर में विश्वास करने से पहले मैं लोगों के साथ ऐसे ही बर्ताव करती थी—हमेशा सावधान रहना, दूसरों का लहजा और हाव-भाव पढ़ना और दूसरों के प्रति संदिग्ध और सतर्क रहना। यहाँ तक कि अपने सबसे करीबी परिवारवालों और जिगरी दोस्तों को भी मैं उनकी समस्याएँ नहीं बताती थी, डरती थी कि वे मुझे नापसंद करेंगे और अलग-थलग कर देंगे। भले ही लोग कहते थे कि मैं अच्छी हूँ, लेकिन असल में मैं बहुत थकाऊ जीवन जी रही थी। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं भाई-बहनों से उसी तरह संवाद करती रही, बिना ईमानदार दिल के। मैंने लियू ज़ुआन की समस्याएँ साफ देख ली थीं लेकिन उसके साथ रिश्ता कायम रखने के लिए मैंने ये उसे कभी नहीं बताईं और अपने सच्चे विचार अपने तक ही सीमित रखे। बाहरी तौर पर मैं उसके साथ अच्छी तरह से घुल-मिल गई और ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके बारे में हम बात न कर सकें। इन शैतानी फलसफों के अनुसार जीवन जीते हुए मैंने बीच का रास्ता अपनाया, किसी को नाराज न करने की कोशिश की, दूसरों के साथ बातचीत में हमेशा उनका लहजा और हाव-भाव ताड़ती रही। इससे न सिर्फ लियू ज़ुआन को नुकसान पहुँचा और काम में देरी हुई बल्कि मुझे भी घुटन और तकलीफ हुई। आखिरकार होगा यही कि परमेश्वर मुझे तिरस्कृत करेगा और निकाल देगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। वह उम्मीद करता है कि हम दूसरों के साथ खुलकर और ईमानदारी से बातचीत कर सकें, एक-दूसरे के साथ अपने दिल की बात साझा करें। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे भी ईमानदार लोगों के साथ जुड़ना पसंद करते हैं। शैतानी फलसफे के अनुसार जीने से अस्थायी रूप से लोगों के साथ संबंध बनाए रखने में मदद मिल सकती है, लेकिन यह बिल्कुल भी टिकाऊ नहीं है। आखिरकार जो सत्य का अनुसरण और उससे प्रेम करते हैं वे ऐसे लोगों का भेद पहचान लेंगे और उन्हें अस्वीकार कर देंगे। सांसारिक आचरण के इन फलसफों पर भरोसा करके मैं न सिर्फ लियू ज़ुआन के साथ अपना रिश्ता कायम रखने में नाकाम रही, बल्कि उसका भरोसा भी खो बैठी। आखिरकार उसने मुझे चापलूस बताकर कह दिया कि दूसरों के साथ मेरे व्यवहार में ईमानदारी नहीं है। इस पर आत्म-चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि सांसारिक आचरण के लिए इन शैतानी फलसफों को अपनाना कितनी बड़ी मूर्खता थी। मैंने देखा कि मुझे शैतान ने कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था और मुझे एहसास हुआ कि मुझे वाकई परमेश्वर के उद्धार की जरूरत है। मैंने ऐसा स्वार्थी और धोखेबाज जीवन जीना बंद करने का फैसला किया।
बाद में मैं सोचने लगी : मुझे दूसरों के साथ कैसे पेश आना चाहिए? मुझे परमेश्वर के इरादे के अनुरूप कैसे बोलना और काम करना चाहिए? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “लोगों के बोलने का और उनके कार्यों का आधार क्या होना चाहिए? परमेश्वर के वचन। तो, लोगों के बोलने और उनके कार्यों के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ और मानक हैं? (कि वे लोगों के लिए रचनात्मक हों।) सही कहा। सबसे बुनियादी तौर पर तुम्हें सच बोलना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए और दूसरों को फायदा पहुँचाना चाहिए। कम से कम, तुम्हारा बोलना लोगों को शिक्षित करे, उन्हें छले नहीं, गुमराह न करे, उनका मजाक न उड़ाए, उन पर व्यंग्य न करे, उनका उपहास न करे और उनकी हँसी न उड़ाए, उन्हें जकड़े नहीं, उनकी कमजोरियाँ उजागर न करे, न उन्हें चोट पहुँचाए। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। यह मानवता का गुण है। ... रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न? उदाहरण के लिए, मान लो, तुम बेहद उद्दंड और अहंकारी हो। तुम्हें इसका कभी पता नहीं चला, लेकिन कोई व्यक्ति जो तुम्हें अच्छी तरह से जानता है, स्पष्टवादिता से काम लेते हुए तुम्हें तुम्हारी समस्या बता देता है। तुम मन ही मन सोचते हो, ‘क्या मैं उद्दंड हूँ? क्या मैं अहंकारी हूँ? किसी और ने मुझे बताने की हिम्मत नहीं की, लेकिन वह मुझे समझता है। उसका यह कह सकना बताता है कि यह वास्तव में सच है। मुझे इस पर चिंतन करने पर कुछ समय लगाना चाहिए।’ इसके बाद तुम उस व्यक्ति से कहते हो, ‘दूसरे लोग मुझसे केवल अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं, वे मेरा प्रशंसा-गान करते हैं, कोई मुझे खुलकर नहीं बताता, किसी ने कभी मेरी इन कमियों और समस्याओं को नहीं उठाया। केवल तुम ही मुझे बता पाए हो, तुम ही मेरे साथ खुल पाए हो। यह बहुत अच्छा रहा, इससे मेरी बहुत बड़ी मदद हुई।’ यह घनिष्ठ होना है, है न? धीरे-धीरे, दूसरा व्यक्ति तुम्हें अपने मन की बात, तुम्हारे बारे में अपने विचार और इस मामले में अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ, नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में अपने अनुभव बताता है, और यह भी कि कैसे वह सत्य की खोज करके इससे बचने में सक्षम रहा। यह घनिष्ठ होना है; यह आत्माओं का मिलन है। और संक्षेप में, बोलने के पीछे का सिद्धांत क्या है? वह यह है : वह बोलो जो तुम्हारे दिल में है, और अपने सच्चे अनुभव सुनाओ और बताओ कि तुम वास्तव में क्या सोचते हो। ये शब्द लोगों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं, वे लोगों को पोषण प्रदान करते हैं, वे उनकी मदद करते हैं, वे सकारात्मक हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि लोगों के साथ सामान्य संबंध स्थापित करने के लिए मुझे परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार दूसरों से आचरण करना चाहिए। जब मैं किसी को भ्रष्टता प्रकट करते, काम में रुकावट डालते या सिद्धांतों के विरुद्ध कार्य करते देखूँ तो मुझे यह तुरंत बता देना चाहिए। इससे काम और उस व्यक्ति के जीवन प्रवेश दोनों को लाभ होगा। सिर्फ ऐसा व्यवहार करके ही मैं सिद्धांतों का पालन कर सकती हूँ और खुलेपन और स्पष्टवादिता के साथ जी सकती हूँ और मानवता और न्याय की भावना रख सकती हूँ। कभी-कभी भले ही लोग इसे तुरंत न स्वीकार सकें, लेकिन अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं तो बाद में सत्य खोजेंगे और आत्म-चिंतन करेंगे। वे घृणा या अस्वीकृति महसूस नहीं करेंगे, बल्कि मेरी मदद के लिए मेरे आभारी होंगे। अगर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं या सत्य नहीं स्वीकारते हैं तो भी इससे वे खुद को प्रकट करेंगे और मुझे कुछ भेद पहचानने में मदद मिलेगी। मुझे केवल अपना सम्मान बचाने पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए। मुझे सिर्फ इन बातों की परवाह करनी चाहिए कि मेरे प्रति परमेश्वर का क्या रवैया है, क्या मेरे कार्य परमेश्वर को संतुष्ट करते हैं और क्या मैं सिद्धांतों का पालन करती हूँ और लोगों के साथ परमेश्वर के वचनों में सत्य के अनुरूप आचरण करती हूँ। अतीत पर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने हमेशा सांसारिक आचरण के फलसफे के आधार पर लोगों के साथ बातचीत की। मेरी कथनी और करनी लगातार बेबस थी और मैं बिना किसी राहत के दमन की अवस्था में जीती थी। इस तरह मैं कभी भी सत्य नहीं पा सकूँगी, हमेशा शैतान की कैद और गुलामी में रहूँगी। इस मुकाम पर मैं समझ गई कि मुझे लोगों के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण करना चाहिए, लोगों के साथ खुलकर और ईमानदारी से बातचीत करनी चाहिए, अपने दिल से बोलना चाहिए और ऐसी बातें कहनी चाहिए जो दूसरों के लिए फायदेमंद हों। चाहे मैं दूसरों की काट-छाँट कर रही हूँ, दूसरों को फटकार रही हूँ या शांति से उनके साथ सत्य पर संगति कर रही हूँ, मुझे अपने सच्चे दिल से बर्ताव करना चाहिए। इस तरह दूसरों के साथ मेरे रिश्ते सामान्य और स्थायी हो सकते हैं और मैं अपने दमन से छुटकारा पा सकती हूँ और राहत और स्वतंत्रता पा सकती हूँ।
बाद में जब हम अपने वीडियो में कुछ समस्याओं पर चर्चा करती थीं तो लियू ज़ुआन हर बार दूसरों की समस्याएँ बताने के लिए ही अपनी राय रखती थी। वह शायद ही कभी सिद्धांतों के बारे में संगति करती थी। सभाओं के दौरान वह शायद ही कभी अपने द्वारा प्रकट भ्रष्टता के बारे में खुल कर बात करती थी और शायद ही कभी अपने काम में आने वाली समस्याओं के बारे में हमसे खुल कर बात करती थी। इससे दूसरों को तुरंत यह लगता था कि उसके पास आध्यात्मिक कद और कार्यक्षमता है और वे उसका सम्मान करने लगे। मुझे लगा कि यह सबके लिए हानिकारक है और मुझे इस पर बात करनी चाहिए। लेकिन जब मैं बात करने ही वाली थी तो हिचकिचा गई और सोचने लगी, “अगर मैं यह कहूँगी तो क्या लियू ज़ुआन नाराज हो जाएगी? अगर इसका असर हमारे आपसी रिश्ते पर पड़ता है तो क्या इससे हमारी भविष्य की बातचीत मुश्किल नहीं हो जाएगी?” मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरों के साथ रिश्ता कायम रखने के लिए फिर से चापलूसी पर उतर आई हूँ। इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे सत्य का अभ्यास करने और खुद के खिलाफ विद्रोह करने की शक्ति माँगी। प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “अगर हरेक सैद्धांतिक या मीमांसात्मक ज्ञान के बारे में बताए, मगर वास्तविक अनुभवों से हासिल ज्ञान के बारे में कुछ न बोले; और अगर सत्य पर संगति करते समय वे अपने निजी जीवन, असली जीवन की समस्याओं और अपने भीतरी संसार के बारे में बोलने से बचें, तो फिर सच्चा संचार कैसे हो पाएगा? कोई वास्तविक भरोसा कैसे होगा? ... अगर लोगों के बीच कोई बोलचाल या आध्यात्मिक संचार न हो, तो उनके बीच अंतरंगता की कोई संभावना नहीं होती, और वे एक-दूसरे की जरूरतें पूरी नहीं कर सकते या एक-दूसरे की मदद नहीं कर सकते। तुम लोगों को ऐसा अनुभव हुआ होगा, हुआ है न? अगर तुम्हारा मित्र तुमसे अपने दिल की सारी बातें कहे, वह जो भी सोच रहा है, उसे जो भी तकलीफ या खुशी है, उनके बारे में तुम्हें खुलकर बताए, तो क्या तुम खुद को विशेष रूप से उसके करीब महसूस नहीं करोगे? वे तुम्हें ये सब बताने को इसलिए तैयार होते हैं क्योंकि तुमने भी अपने अंतरंग विचार उन्हें बताए हैं। तुम लोग खास तौर पर करीब हो, और इसी वजह से तुम लोगों की आपस में बहुत बनती है और तुम एक-दूसरे की मदद कर पाते हो। कलीसिया के भाई-बहन आपस में इस प्रकार के संचार और बातचीत के बिना सद्भाव के साथ एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर नहीं रह सकेंगे, और उनके लिए अपने कर्तव्य निभाते समय साथ मिल कर काम करना नामुमकिन हो जाएगा। इसीलिए सत्य पर संगति करने के लिए आध्यात्मिक संचार और दिल से बात करने की सामर्थ्य जरूरी होती है। यह उन सिद्धांतों में से एक है जो ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए किसी में होना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे जगा दिया। मैंने सोचा कि सांसारिक आचरण के फलसफों के आधार पर लियू ज़ुआन के साथ बातचीत करके मैंने कभी भी उसके सामने अपना दिल नहीं खोला या उसकी मदद नहीं की और कभी भी संगति नहीं की या उसकी समस्याएँ नहीं बताईं और मैंने उसको सिर्फ धोखा दिया और नुकसान पहुँचाया, जिससे लोग मुझसे नफरत करने लगे और परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगा। मुझे एहसास हुआ कि मैं अब स्वार्थी, धोखेबाज, खुशामदी नहीं रह सकती, और मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार एक ईमानदार व्यक्ति बनना होगा और जो समस्याएँ मैंने देखी हैं उनके बारे में बोलना होगा। अगले दिन जब हमने अपनी अवस्था के बारे में बात की तो मैंने लियू ज़ुआन को बताया कि उसने कभी भी अपनी भ्रष्टता के बारे में नहीं बताया, वह हमारे कर्तव्यों के सिद्धांतों में सभी का मार्गदर्शन करने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रही थी और इस कारण दूसरे लोग आसानी से उसका आदर करने की ओर अग्रसर हो सकते हैं। इसी बीच मैंने उसे चेताया कि इस तरह से कर्तव्य निभाना सही मार्ग पर चलना नहीं है। बात सुनने के बाद लियू ज़ुआन को अपनी समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ, वह सत्य खोजने और आत्म-चिंतन करने के लिए तैयार हो गई। बाद में लियू ज़ुआन ने इस अनुभव से एक सबक सीखा। उसने हमारे साथ सिद्धांत बताने पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया और वह अक्सर अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात करती थी। इस वजह से हमारा रिश्ता टूटा नहीं, बल्कि हम एक-दूसरे के और करीब आ गए। कभी-कभी जब मैं अपनी दशा नहीं समझ पाई तो इस बारे में लियू ज़ुआन के साथ संवाद करने से मुझे खुद को समझने में मदद मिली। मुझे वाकई लगा कि लोगों के साथ मिलना-जुलना और परमेश्वर के वचनों के अनुसार दूसरों के लिए अपना दिल खोलना न सिर्फ दूसरों की मदद करता है बल्कि मुझे भी लाभ पहुँचाता है। उस दौरान हमने अपने जीवन प्रवेश और अपने तकनीकी कौशल दोनों में प्रगति की। हमारे कर्तव्यों की प्रभावशीलता में भी सुधार हुआ और हमने वाकई परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस किया। अतीत के बारे में सोचती हूँ तो सांसारिक आचरण के फलसफे के आधार पर लियू ज़ुआन के साथ व्यवहार करने से मेरा जीवन बहुत ही पीड़ादायक और थकाऊ बन गया था। मैंने कलीसिया के कार्य को कायम रखने की जिम्मेदारियाँ भी अच्छे से नहीं निभाईं। इसकी तुलना वर्तमान से करूँ तो अब जबकि मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार एक ईमानदार व्यक्ति हूँ और अपने दिल से बोलती हूँ, मैं परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस करती हूँ और अपने हृदय में सहजता और मुक्ति अनुभव करती हूँ। इसमें ऐसी मिठास और आनंद है जिसका वर्णन करना कठिन है। मैं यह भी समझती हूँ कि भाई-बहनों के बीच सामान्य संबंधों में कोई संदेह या बाधा नहीं होनी चाहिए। हमें एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से पेश आना चाहिए और जीवन प्रवेश और कर्तव्यों में एक-दूसरे को मदद और सहारा देना चाहिए। इससे हमें, दूसरों को और कलीसिया के कार्य को लाभ होता है। ये परमेश्वर के वचन ही हैं जिन्होंने मुझे दूसरों के साथ व्यवहार करना सिखाया है और मैं अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ।