89. सत्य नहीं स्वीकारने पर चिंतन
ऐ शी को एक पत्र
प्रिय आइ शी,
बहुत दिनों से मुलाकात नहीं हुई! तुम कैसी हो? हमने एक-दूसरे को लगभग एक साल से नहीं देखा है, लेकिन यूँ लगता है कि साथ में अपना कर्तव्य निभाने के दौरान जो कुछ हुआ उसकी यादें अब भी मेरे जेहन में ताजा हैं। चूँकि मैंने सत्य नहीं स्वीकारा, तुम्हें तकलीफ दी और हम अलग हो गए। हर बार जब मैं इसके बारे में सोचती हूँ तो मुझे अपराध बोध होता है। मैं वाकई तुमसे माफी माँगना चाहती हूँ। मैं अपने विचार और अपनी समझ के बारे में बताने के लिए तुम्हें यह पत्र लिख रही हूँ।
उन दिनों हमारे पास सिंचन कार्य की जिम्मेदारी थी। चूँकि मैंने अभी-अभी काम शुरू किया था, इसलिए मैं इस कर्तव्य के बारे में ज्यादा नहीं जानती थी और तुम अक्सर मेरी मदद करती थी। जब तुम यह देखती थी कि मैंने कोई चीज ठीक से नहीं की है तो तुम मुझे इशारा कर देती थी और टोक देती थी। मुझे पता था कि इस तरह तुम मेरी मदद कर रही हो। लेकिन जैसे-जैसे तुमने मुझे और चीजें बताईं मैं असहज होने लगी। एक बार सिंचन कार्य करने वाले लोग साथ मिलकर काम नहीं कर रहे थे, इसलिए मुझे स्थिति सुलझाने के लिए एक पत्र लिखना पड़ा। मुझे उनके प्रति कुछ तिरस्कार महसूस हुआ और मैंने उन्हें सवालिया लहजे में डाँटा। यह देखकर तुमने मुझसे पूछा कि पत्र लिखते समय मेरी मानसिकता क्या थी और खुलकर मेरी समस्याएँ बताईं। तुमने कहा कि ऐसे पत्र लिखना सही नहीं है, मैं बड़ी होने का नाटक कर रही हूँ और इससे लोग आसानी से बेबस हो जाएँगे। तुमने मुझे आत्म-चिंतन करने और पत्र में संशोधन करने के लिए कहा। यूँ तो मुझे भी यह एहसास हो गया था कि मैं अहंकारी स्वभाव प्रकट कर रही हूँ, लेकिन मैं तुम्हारी बातों के खिलाफ अपने दिल में तर्क-वितर्क करती रही और सोचती रही, “हर बार जब मैं पत्र लिखती हूँ तो तुम्हें इससे कोई समस्या क्यों होती है? तुम इस तरह बातें करके मुझे नीचा दिखाती हो, जैसे मैं इतनी सरल समस्या भी नहीं सुलझा सकती। अगर दूसरों को पता चल गया तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” मैं इसे अपने दिल में स्वीकार नहीं पाई और तुम्हारे प्रति पूर्वाग्रही हो गई। मैंने यह भी सोचा कि जब मुझे भविष्य में तुम्हारी कोई समस्या मिलेगी तो मैं भी बताऊँगी ताकि तुम्हें न लगे कि मुझे ऐसे ही दबाया जा सकता है। एक बार परमेश्वर के वचनों की किताबों की सुरक्षा का जिम्मा सँभालने वाला कोई व्यक्ति गैर-जिम्मेदार था और उसका रवैया ढीला था। तुमने उसे एक पत्र लिखा और काफी कठोर भाषा का इस्तेमाल करते हुए इस तरह के कार्यकलापों की प्रकृति और नतीजों पर संगति की और इनका गहन-विश्लेषण किया। मैंने यह मुद्दा लपक लिया और कहा कि तुमने जिस तरह से पत्र लिखा वह सही नहीं था, तुम बड़े होने का नाटक कर रही थी और लोगों को डाँट रही थी और इस तरह से संगति करने से लोगों के लिए इसे स्वीकारना कठिन हो गया। तुमने मेरे साथ संगति की कि किन परिस्थितियों में हम दूसरों की काट-छाँट कर सकते हैं, किन परिस्थितियों में हम दूसरों की संगति और मदद कर सकते हैं और कहा कि यह व्यक्ति सब कुछ समझता है, बस गैर-जिम्मेदार है और ऐसी परिस्थितियों में हम उसकी काट-छाँट कर सकते हैं। मैं जानती थी कि तुमने जो कहा वह सही था और काम के लिए फायदेमंद था, लेकिन मेरा दिल इसे स्वीकार नहीं कर पाया। ऐसा लगा कि तुम जो कुछ भी कहती हो वह सही होता है और मेरा हर काम गलत होता है और लगा कि तुम हमेशा मुझमें दोष ढूँढ़ती हो। ऐसा लग रहा था कि मुझे भविष्य में और अधिक सावधान रहना होगा ताकि मैं कोई भी भ्रष्टता प्रकट करने या कुछ भी गलत कहने से बच सकूँ और तुम मुझे उजागर और शर्मिंदा न कर सको। तब से मैं अपने कर्तव्य में झिझकने लगी और संकोची हो गई और मुझे जरा भी राहत महसूस नहीं होती थी। मैं अंदर से बहुत थकान महसूस कर रही थी। आमतौर पर जब तुम मुझे अपने कर्तव्य में लापरवाह होते देखती थी तो तुम मुझे बता देती थी। और जब समय पर काम न निपटाने के कारण मेरे पास काम का ढेर लग जाता था तो तुम कहती थी कि मैं आलसी हूँ और आराम की लालसा रखती हूँ, अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी नहीं समझती। मैं जानती थी कि तुम मेरी समस्याओं के बारे में बात कर रही हो लेकिन हर बार मेरा दिल उबल पड़ता था और मुझे लगता था कि तुम हमेशा मेरी समस्याएँ उजागर करती रहती हो और बड़ी मुँहफट हो, व्यवहार कुशल नहीं हो और मेरे स्वाभिमान और भावनाओं का ख्याल नहीं करती हो और मुझे मुश्किल में डाल देती हो। मैं इसे अपने दिल से नहीं स्वीकार सकी। मैं बस इतना ही कर सकती थी कि असहाय और प्रतिरोधी महसूस करते हुए जल्दी से अपना कर्तव्य पूरा कर दूँ ताकि तुम फिर से मेरी समस्याएँ न बता पाओ। चूँकि मैंने सत्य नहीं खोजा या आत्म-चिंतन नहीं किया, इसलिए मेरे कर्तव्य में समस्याएँ कभी नहीं सुलझीं।
बाद में एक बार मैंने सिंचनकर्मियों को पत्र लिखकर काम में कुछ भटकावों के बारे में बताया जिन्हें सुधारने की जरूरत थी। पत्र लिखते वक्त मैंने देखा कि मैं चीजें साफ नहीं बता पा रही हूँ, लेकिन मैंने इसे सुधारने की जहमत नहीं उठाई। जब तुमने मेरा पत्र देखा तो तुमने फिर से मेरी समस्याएँ बताईं, कहा कि मैंने चीजों को स्पष्टता से नहीं समझाया है, तुम यह भी नहीं बता पा रही हो कि मैं कौन सी समस्या सुलझाना चाहती हूँ। तुमने मुझे इस पर सावधानी से विचार करने और लापरवाह नहीं होने के लिए कहा और मेरे साथ विस्तार से संगति की कि पत्र कैसे लिखना है। मैं अपने दिल में फिर से प्रतिरोधी हो गई और मैंने सोचा, “तुम हमेशा मेरी गलतियाँ क्यों निकालती रहती हो और मेरे लिए चीजें मुश्किल क्यों बनाती रहती हो? मैंने पहले भी पत्र लिखे हैं, तब तो मुझे इतनी समस्याएँ कभी नहीं हुई थीं तो तुम्हें इतनी सारी चीजें गलत कैसे लगती हैं? अगर अगुआ या भाई-बहनों को पता चल गया तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं इतनी छोटी-छोटी समस्याएँ भी नहीं सुलझा सकती और मुझे सिंचन कार्य का प्रभारी बनाना एक गलती थी? मुझे नहीं पता कि अब इस काम में कैसे सहयोग करना है। तुम हमेशा मेरी कमियाँ उजागर करती रहती हो और मेरा जरा भी ख्याल नहीं करती हो। तो बस इसे खुद कर लो और यह पत्र भी तुम खुद ही लिख लो। तुम्हारे साथ काम करके मैं बहुत बेबस हो जाती हूँ!” मैंने इस बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतनी ही परेशान होती गई और मैंने तुमसे बदला लेने के बारे में भी सोचा, “अगर बात नहीं बनी तो मैं अगुआ को पत्र लिखकर तुम्हारी समस्याएँ बताऊँगी और अपने इस्तीफे की पेशकश कर दूँगी। इस तरह अगुआ को पता चल जाएगा कि काम न करने की वजह मैं नहीं हूँ, बल्कि तुम्हारे घोर अहंकार के कारण मैं सहयोग करने की अनिच्छुक रहती हूँ और अगुआ निश्चित रूप से तुम्हारी काट-छाँट करेगा। अगर मैं चली जाती हूँ और काम प्रभावित होता है तो यह तुम्हारा अपराध होगा और तुम्हें अपराध बोध और आत्म-ग्लानि होगी। हमेशा मेरी समस्याएँ बताते रहने के बदले तुम्हारे साथ यही सब होगा!” मैंं जानती थी कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने का मतलब मुझमें मानवता न होना है, लेकिन मैं तुम्हारे खिलाफ पूर्वाग्रह पालने से खुद को नहीं रोक पाई। हाल ही में मैं जो कुछ भी प्रकट कर रही थी, उसके बारे में सभाओं में बात कर रही थी लेकिन चूँकि मुझे कोई आत्म-ज्ञान नहीं था, इसलिए मैंने जो कुछ भी कहा उसके पीछे शिकायत करना और दोष देना था, जिससे तुम बेबस हो गई थी। मैंने महसूस किया कि उसके बाद मुझसे बात करते वक्त तुम बहुत सतर्क रहने लगी, मेरी समस्याएँ बताने को लेकर चिंता करने लगी कि कहीं मैं इसे अस्वीकार न कर दूँ, इसलिए तुमने मेरे साथ चतुराई से संगति करने की पूरी कोशिश की। चूँकि मुझे आत्म-ज्ञान नहीं था, फिर भी जब तुमने फिर से मेरी समस्याओं का जिक्र किया तो मैंने तुरंत चुप्पी साध ली और तुम्हें नजरअंदाज कर दिया। एक बार एक दिन से ज्यादा गुजर गया और मैंने तुमसे कोई बात नहीं की, जिससे काम में देरी हुई क्योंकि इसके लिए हमारा संवाद होना बहुत जरूरी था। मुझे बहुत घुटन और तकलीफ हुई और मैं बाथरूम में जाकर रोने लगी। मैंने तुम्हें कंप्यूटर पर काम करने के लिए दूसरे कमरे में जाते देखा और मैं जान गई कि तुम्हारी अवस्था भी बुरी है। उस समय मेरे दिमाग में “भावनात्मक शोषण” शब्द आया और मुझे लगा कि मैं ऐसा व्यवहार कैसे कर रही थी, जिससे तुम्हें तकलीफ हो रही थी। लेकिन मैं खुद को इस अवस्था से छुड़ा नहीं पाई और रोती रही और परमेश्वर से प्रार्थना करती रही कि वह अवस्था ठीक कर दे।
मैंने उस समय परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े और उनमें एक अंश देखकर मैं भावुक हो गई। परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग कहते हैं, ‘अपनी काट-छाँट से पहले मुझे लगता था कि मेरे पास अनुसरण का एक मार्ग है, मगर काट-छाँट किए जाने के बाद मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।’ ऐसा क्यों है कि अपने साथ काट-छाँट किए जाने के बाद उन्हें नहीं पता होता कि क्या करना है? इसका क्या कारण है? (काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर, वे सत्य नहीं स्वीकारते या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते। वे कुछ धारणाएँ पालते हैं और उन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते। इससे उनके पास कोई मार्ग नहीं बचता। अपने भीतर कारण खोजने के बजाय वे इसके विपरीत दावा करते हैं कि काट-छाँट किए जाने के कारण ही वे अपना मार्ग खो बैठे।) क्या यह आरोप-प्रत्यारोप नहीं है? यह ऐसा कहने जैसा है, ‘मैंने जो किया वह सिद्धांतों के अनुसार था, मगर तुम्हारा मेरी काट-छाँट करना यह स्पष्ट करता है कि तुम मुझे सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करने दे रहे हो। तो, मैं भविष्य में अभ्यास कैसे करूँगा?’ ऐसी बातें कहने वाले लोगों का यही मतलब होता है। क्या वे अपनी काट-छाँट स्वीकार रहे हैं? क्या वे यह तथ्य स्वीकारते हैं कि उन्होंने गलतियाँ की हैं? (नहीं।) क्या वास्तव में इस कथन का मतलब यह नहीं है कि वे यह जानते हैं कि लापरवाही से बुरे कर्म कैसे किए जाते हैं, मगर जब उनकी काट-छाँट की जाती है और सिद्धांतों के अनुसार काम करने के लिए कहा जाता है तो वे नहीं जानते कि क्या करना है और वे उलझन में पड़ जाते हैं? (हाँ।) तो, वे पहले कैसे काम करते थे? जब किसी की काट-छाँट की जाती है, तो क्या यह इसलिए नहीं होता कि उसने सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं किया? (बिल्कुल।) वे लापरवाही से बुरे कर्म करते हैं, सत्य नहीं खोजते और सिद्धांतों या परमेश्वर के घर के नियमों के अनुसार काम नहीं करते हैं, इसलिए उनकी काट-छाँट की जाती है। काट-छाँट किए जाने का उद्देश्य लोगों को सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार काम करने में सक्षम बनाना है, ताकि उन्हें फिर से लापरवाही से बुरे कर्म करने से रोका जा सके। लेकिन काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर वे लोग कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि अब कैसे काम करना है या कैसे अभ्यास करना है—क्या इन शब्दों में आत्म-ज्ञान का कोई तत्व है? (नहीं।) उनका खुद को जानने का या सत्य खोजने का कोई इरादा नहीं है। इसके बजाय वे कहते हैं : ‘मैं अपने कर्तव्य बहुत अच्छी तरह से करता था, मगर जब से तुमने मेरी काट-छाँट की है, तुमने मेरे विचारों को अस्त-व्यस्त कर दिया और अपने कर्तव्यों के प्रति मेरे दृष्टिकोण को भ्रमित कर दिया है। अब मेरी सोच सामान्य नहीं है और मैं पहले की तरह निर्णायक या साहसी नहीं रहा, मैं उतना बहादुर नहीं रहा, और यह सब मेरी काट-छाँट किए जाने के कारण हुआ है। जब से मेरी काट-छाँट की गई है, मेरे दिल को बहुत चोट पहुँची है। तो, मैं दूसरों से अपने कर्तव्य निभाते समय बेहद सावधानी बरतने के लिए कहूँगा। उन्हें अपनी गलतियाँ या खामियाँ नहीं दिखानी चाहिए; अगर वे गलती करते हैं तो उनकी काट-छाँट की जाएगी, फिर वे डरपोक बन जाएँगे और उनमें वह जोश नहीं रहेगा जो पहले था। उनका साहस काफी हद तक सुस्त पड़ जाएगा और उनका युवा हौसला और अपना सब कुछ देने की इच्छा गायब हो जाएगी, जिससे वे बहुत कायर हो जाएँगे, अपनी ही परछाई से डरेंगे और महसूस करेंगे कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह सही नहीं है। वे अब अपने दिलों में परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं करेंगे और उससे लगातार दूर होते जाएँगे। यहाँ तक कि परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसके सामने रोने का भी कोई जवाब नहीं मिलेगा। उन्हें लगेगा कि उनमें पहले जैसा जोश, उल्लास और प्रेम नहीं रहा और वे खुद को नीचा समझने लगेंगे।’ क्या ये किसी अनुभवी व्यक्ति द्वारा दिल से कहे गए शब्द हैं? क्या ये सच्चे हैं? क्या ये लोगों को शिक्षित करते हैं या उन्हें लाभ पहुँचाते हैं? क्या यह तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना नहीं है? (हाँ, ये शब्द काफी बेतुके हैं।)” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे अचानक अपने व्यवहार और खुलासों का ख्याल आया। मैं हमेशा यह सोचती थी कि बस मैं ही बेबस हूँ। मैं सोचती थी कि मुझे पहले कभी पत्र लिखने में इतनी समस्याएँ नहीं आईं, लेकिन अब तुम्हारे साथ इतनी सारी समस्याएँ दिख रही थीं और मुझे नहीं पता था कि अब एक साथ मिलकर यह काम कैसे करें—वाकई ये सभी विचार विकृत थे। जब मैं पत्र लिखती थी तो मैं अपना घमंडी स्वभाव दिखाती थी और लोगों को बेबस करती थी। मैं समस्याओं का समाधान करते समय बेपरवाह रहती थी और आमतौर पर आलस करती थी और अपने कर्तव्य के लिए कोई जिम्मेदारी नहीं समझती थी। मुझे ये समस्याएँ बताकर तुम काम की जिम्मेदारी ले रही थीं और मेरी मदद कर रही थीं, मुझे समय पर अपनी समस्याओं पर आत्म-चिंतन करने और इन्हें जानने और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाने और समस्याएँ सुलझाने में नतीजे पाने में सक्षम बना रही थी। लेकिन मैंने इसे स्वीकार नहीं किया बल्कि मैंने यह सोचा कि तुम काम करने के गलत तरीके छुड़वाने के लिए मेरी समस्याएँ बताकर मुझे बेबस कर रही हो और मैं अपने कर्तव्य में झिझकने लगी। मैं पहले की तरह अच्छे से पत्र नहीं लिख पाई और मुझे नहीं पता था कि अपने कर्तव्य में साथ मिलकर कैसे काम करूँ। इसका निहितार्थ यह था कि मैं जिस तरह से काम कर रही थी वह सत्य के अनुरूप था, तुम्हारा मार्गदर्शन गलत था और अगर तुम मुझे मन मुताबिक अपना कर्तव्य निभाने दो तो मैं इसे बिल्कुल ठीक से निभाऊँगी। मैंने तुम्हारे उचित मार्गदर्शन को नकारात्मक माना और अपने काम करने के गलत तरीकों को सही माना। मैं वाकई सत्य नहीं स्वीकार रही थी, मैं सकारात्मक और नकारात्मक में फर्क नहीं कर पा रही थी और सभी तर्कों को अनसुना कर रही थी!
उस समय मेरे पास केवल यह सतही समझ थी। क्या तुम्हें याद है? बाद में हमने एक-दूसरे के सामने खुलकर अपनी अवस्थाओं के बारे में बात की। तुमने कहा कि तुमने मुझे नीची नजरों से नहीं देखा और ऐसा नहीं था कि तुम मुझे परेशान कर रही थी और तुमने कहा कि जब मैंने तुम्हें अनदेखा किया तो तुम नहीं जानती थी कि मुझसे कैसे बात करनी है, तुम्हें लगा कि इस तरह से काम करना वाकई मुश्किल है और यहाँ तक कि तुम यहाँ अपना काम छोड़ना चाहती थी। मैं तुम्हें बता दूँ, जब मैंने तुम्हें यह कहते सुना तो मैं अंदर से टूट गई थी। मुझे कभी एहसास नहीं हुआ था कि मैंने तुम्हें इतना बेबस और आहत किया है। मैंने हमेशा सोचा कि मेरी मानवता ठीक है और अगर मैं थोड़ी-सी भ्रष्टता प्रकट भी करती हूँ तो भी मैं किसी को बेबस नहीं करूँगी या तकलीफ नहीं पहुँचाऊँगी। लेकिन मुझे यह स्वीकार करना ही था और मुझे इसका सामना और आत्म-चिंतन करना ही था। मुझे उन दो दिनों में एक और कर्तव्य सौंपा गया और मुझे बहुत अपराध बोध और पछतावा हुआ।
बाद में मैंने अपनी समस्याएँ समझने के लिए खोज और आत्म-चिंतन किया। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट का मसला आता है तो वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते। और इसे स्वीकार न कर पाने के अपने कारण हैं। मुख्य कारण यह है कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो उन्हें लगता है कि उनकी इज्जत कम हो गई है, उनकी प्रतिष्ठा, रुतबा और उनकी गरिमा छिन गई है, और अब वे सबके सामने अपने सिर उठाकर नहीं चल सकेंगे। इन बातों का उनके दिलों पर असर पड़ता है, इसलिए उन्हें अपनी काट-छाँट स्वीकारना मुश्किल लगता है, और उन्हें लगता है कि जो भी उनकी काट-छाँट करता है वह उनसे द्वेष रखता है और उनका शत्रु है। काट-छाँट होने पर मसीह-विरोधियों की यही मानसिकता रहती है। यह बिल्कुल पक्की बात है। दरअसल, काट-छाँट किए जाने के वक्त ही यह बात खुलकर उजागर होती है कि कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार सकता है कि नहीं और कोई व्यक्ति सचमुच समर्पण कर सकता है या नहीं। मसीह-विरोधियों का काट-छाँट के प्रति इतना अधिक प्रतिरोध करना यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे सत्य से विमुख होते हैं और वे इसे रत्तीभर भी स्वीकार नहीं करते। तो सारी समस्या की जड़ यही है। उनका गर्व इस मसले की जड़ नहीं है; सत्य को स्वीकार न करना ही इस समस्या का सार है। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो मसीह-विरोधी चाहते हैं कि यह सब मीठे स्वर और नर्म रवैये के साथ किया जाए। अगर ऐसा करने वाले का स्वर गंभीर है और रवैया सख्त है, तो मसीह-विरोधी इसका प्रतिरोध और अवहेलना करेगा, और शर्म से लाल हो जाएगा। मसीह-विरोधी इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते कि उनमें जो उजागर हुआ है क्या वह सही है या क्या वह एक तथ्य है, न ही वे अपनी गलती या सत्य को स्वीकारने के प्रश्न पर चिंतन करते हैं। वे सिर्फ यह सोचते हैं कि क्या उनके दंभ और गर्व पर वार हुआ है। मसीह-विरोधी यह एहसास करने में पूरी तरह अक्षम होते हैं कि काट-छाँट लोगों के लिए मददगार होती है, लोगों को प्रेम और सुरक्षा देने वाले और उन्हें लाभ पहुँचाने वाली होती है। वे इतना भी नहीं समझ पाते। क्या उनमें भले-बुरे की पहचान और तर्कसंगतता का अभाव नहीं है? तो काट-छाँट किए जाने का सामना करते हुए मसीह-विरोधी कैसा स्वभाव प्रकट करते हैं? निस्संदेह, यह सत्य से विमुख होने और साथ ही अहंकार और अड़ियलपन वाला स्वभाव है। इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख होना और उससे घृणा करना है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर के वचनों ने जो उजागर किया, उससे मैंने देखा कि जब मसीह-विरोधी किसी दूसरे के मार्गदर्शन, मदद और काट-छाँट से अपना मान खो देते हैं, यहाँ तक कि जब वे जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति जो उजागर कर रहा है, वह सत्य है तो वे कभी भी अपनी समस्याओं पर आत्म-चिंतन नहीं करते हैं और मानते हैं कि यह दूसरा व्यक्ति ही है जो उन्हें परेशान कर रहा है और इसलिए वे घृणा और चिढ़ महसूस करते हैं और यहाँ तक कि उस व्यक्ति से बदला लेना चाहते हैं। मैंने देखा कि एक मसीह-विरोधी की प्रकृति सत्य से विमुख रहने और घृणा करने वाली होती है। परमेश्वर वचन पढ़ते हुए मुझे उस भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ मिली जो मैं प्रकट कर रही थी। मैंने सोचा कि मैं कितनी लापरवाह थी और अपने कर्तव्य के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं समझती नहीं थी, कैसे मैं पत्र लिखते समय ध्यान नहीं देती थी और चीजें साफ नहीं बताती थी। तुमने समस्याएँ बताईं ताकि मैं उन्हें जल्दी से ठीक कर सकूँ और यह काम के लिए भी फायदेमंद होता, लेकिन मुझे लगा कि तुम मुझे परेशान कर रही हो और मैंने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए इसे स्वीकारने से इनकार कर दिया। मैंने तुम पर दोष मढ़ दिया, मैं तुम्हें अगुआ के पास ले जाना चाहती थी और मैंने तुम्हें नजरअंदाज भी किया, जिससे तुम दुखी हो गई और काम की प्रगति में देरी हुई। तुम्हारी मदद हमेशा सकारात्मक और सत्य के अनुरूप रही और मुझे इसे स्वीकार कर तुरंत अपने में सुधार लाना चाहिए था। इसके बजाय मैंने तुम्हारी उदार मदद को अपनी तौहीन माना और इस कारण मुझमें चिढ़, नफरत और तुमसे बदला लेने की इच्छा पैदा हो गई। ऊपरी तौर पर ऐसा लग रहा था कि मैं तुम्हारा मार्गदर्शन नहीं स्वीकार रही हूँ लेकिन असल में मैं सकारात्मक चीजें या सत्य नहीं स्वीकार रही थी, मैं सत्य के विरोध में थी और इससे साबित होता है कि दरअसल मैं सत्य के प्रति समर्पण करने वाली इंसान नहीं थी। मुझे यह पसंद नहीं था कि तुम मेरी वास्तविक स्थिति उजागर करो। मुझे सम्मान और प्रशंसा पाना पसंद था। मैंने देखा कि अपनी प्रकृति में मैं घमंडी, दुष्ट थी और सत्य से प्रेम नहीं करती थी और मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। मैं ऐसी तकलीफ में थी, अपने भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी और मैं इसी की हकदार थी! मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “जब कोई व्यक्ति सत्य से विमुख हो जाता है, तो यह निस्संदेह उसकी उद्धार प्राप्ति के लिए घातक बात है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे माफ किया या नहीं किया जा सकता, यह व्यवहार का एक रूप या कुछ ऐसा नहीं है जो उनमें क्षणिक रूप से अभिव्यक्त हुआ हो। यह किसी व्यक्ति का स्वभाव सार है, और परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे अधिक चिढ़ता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। मैंने महसूस किया कि परमेश्वर उन लोगों से कैसे तिरस्कार और घृणा करता है जो सत्य से विमुख हैं। मैं बखूबी जानती थी कि तुम्हारा मेरी समस्याएँ बताना तथ्यों के अनुसार और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, लेकिन यह मुझे स्वीकार नहीं था और इसके बजाय मैं बिल्कुल एक छद्म-विश्वासी की तरह इसका जरूरत से ज्यादा विश्लेषण करती रही। ऐसा करने से मेरी भ्रष्टता नहीं सुलझ सकी और मेरे पास सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य करने का कोई तरीका नहीं था। मैं बस कलीसिया के कार्य को हानि पहुँचाती रही, इसमें बाधाएँ डालती रही और परमेश्वर को मुझसे घृणा करने को बाध्य करती रही।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मुझे काट-छाँट न स्वीकारने के पीछे छिपे शैतानी जहरों के बारे में कुछ समझ मिली। परमेश्वर कहता है : “अगर कोई तुम्हारी कमियों की आलोचना करता रहता है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम कह सकते हो, ‘अगर तुम मेरी आलोचना करते हो, तो मैं भी तुम्हारी आलोचना करूँगा!’ क्या एक-दूसरे को इस तरह निशाना बनाना सही है? क्या लोगों को इसी तरह से आचरण, कार्य और दूसरों के साथ व्यवहार करना चाहिए? (नहीं।) हो सकता है, लोग जानते हों कि उन्हें सिद्धांत के तौर पर ऐसा नहीं करना चाहिए, फिर भी बहुत-से लोग ऐसे प्रलोभनों और फंदों से बचकर निकल नहीं पाते। हो सकता है, तुमने किसी को अपनी कमियों की आलोचना करते हुए, या खुद को निशाना बनाते हुए, या अपनी पीठ पीछे अपनी आलोचना करते हुए न सुना हो—लेकिन जब तुम किसी को ऐसी बातें कहते हुए सुनते हो, तो तुम इसे सहन नहीं कर पाओगे। तुम्हारा दिल जोरों से धड़केगा और तुम्हारा गुस्सा बाहर आ जाएगा; तुम कहोगे, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी आलोचना करने की? अगर तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहोगे तो मैं तुम्हारा बुरा करूँगा! अगर तुम मेरी कमियों की आलोचना करते हो, तो यह मत सोचना कि मैं तुम्हारे जख्मों पर नमक नहीं छिड़कूँगा!’ दूसरे कहते हैं, ‘एक कहावत है, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” इसलिए मैं तुम्हारी कमियों की आलोचना नहीं करूँगा, लेकिन मैं तुम्हें देख लेने और तुम्हारी औकात दिखाने के दूसरे तरीके ढूँढूँगा। देखते हैं, किसमें कितना दम है!’ ये तरीके अच्छे हैं या नहीं? (नहीं।) यह पता चलने पर कि किसी ने उनकी कमियाँ गिनाई हैं, उनकी आलोचना की है या उनकी पीठ पीछे उनके बारे में कुछ बुरा कहा है, लगभग सभी लोगों की पहली प्रतिक्रिया गुस्से की होगी। वे आगबबूला हो जाएँगे, उनका खाना या सोना दूभर हो जाएगा—और अगर किसी तरह सो भी गए, तो अपने सपनों में भी गाली-गलौज कर रहे होंगे! उनकी उतावलेपन की कोई सीमा नहीं होगी! यह इतनी मामूली बात है, फिर भी वे इससे उबर नहीं पाते। लोगों पर उतावलेपन का यही प्रभाव होता है, भ्रष्ट स्वभावों के प्रतिकूल नतीजे ऐसे ही हैं। जब कोई भ्रष्ट स्वभाव किसी का जीवन बन जाता है, तो यह मुख्यतः कहाँ प्रदर्शित होता है? यह तब प्रदर्शित होता है जब कोई व्यक्ति किसी ऐसी चीज का सामना करता है जो उसे अप्रिय लगती है, वह चीज पहले उसकी भावनाओं को प्रभावित करती है, और फिर उस व्यक्ति का उतावलापन फूट पड़ता है। और ऐसा होने पर व्यक्ति अपने उतावलेपन में रहेगा और मामले को अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार देखेगा। उसके दिल में शैतान के दार्शनिक विचार उठेंगे, और वह इस बात पर विचार करना शुरू कर देगा कि वह अपना बदला लेने के लिए किन तरीकों और साधनों का उपयोग करे, और इस तरह वह अपना भ्रष्ट स्वभाव उजागर कर देगा। इस तरह की समस्याओं से निपटने के बारे में लोगों के विचार और दृष्टिकोण, और उनके द्वारा अपनाए जाने वाले तरीके और साधन, यहाँ तक कि उनकी भावनाएँ और उतावलापन, सभी भ्रष्ट स्वभावों से आते हैं। तो, इस मामले में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव सामने आते हैं? पहला निश्चित रूप से द्वेष है, जिसके बाद आते हैं अहंकार, छल, दुष्टता, हठधर्मिता, सत्य से विमुखता और सत्य से घृणा। इन भ्रष्ट स्वभावों में से अहंकार सबसे कम प्रभावशाली हो सकता है। तो फिर, वे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं, जो व्यक्ति की भावनाओं और विचारों पर हावी होने में सबसे अधिक सक्षम हैं, और यह निर्धारित करते हैं कि वे अंततः इस मामले से कैसे निपटेंगे? वे हैं द्वेष, हठधर्मिता, सत्य से विमुखता और सत्य से घृणा। ये भ्रष्ट स्वभाव व्यक्ति को मौत के शिकंजे में जकड़ देते हैं, और यह स्पष्ट है कि वे शैतान के मकड़जाल में जी रहे हैं। शैतान का मकड़जाल कैसे उत्पन्न होता है? क्या ये भ्रष्ट स्वभाव ही नहीं हैं, जो उसे जन्म देते हैं? तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों ने तुम्हारे लिए हर तरह के शैतानी मकड़जाल बुन दिए हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम सुनते हो कि कोई तुम्हारी आलोचना जैसी चीज कर रहा है, तुम्हें कोस रहा है, या तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी कमियाँ बता रहा है, तो तुम शैतानी फलसफों और भ्रष्ट स्वभावों को अपना जीवन बनने देकर उन्हें अपने विचारों, दृष्टिकोणों और भावनाओं पर हावी होने देते हो, और इस प्रकार क्रियाकलापों का एक क्रम उत्पन्न कर देते हो। ये भ्रष्ट क्रियाकलाप मुख्य रूप से तुम्हारी शैतानी प्रकृति और स्वभाव का परिणाम हैं। चाहे तुम्हारी परिस्थितियाँ कुछ भी हों, जब तक तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से बंधे हो, उससे नियंत्रित और शासित हो, तुम जो कुछ भी जीते हो, जो कुछ भी प्रकट करते हो और जो कुछ भी प्रदर्शित करते हो—या फिर तुम्हारी भावनाएँ, विचार, दृष्टिकोण, और तुम्हारे काम करने के तरीके और साधन—सभी शैतानी हैं। ये सभी चीजें सत्य का उल्लंघन करती हैं, परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य से जितने दूर होते हो, उतने ही अधिक तुम शैतान के जाल से नियंत्रित होते और उसमें फँसते हो। इसके बजाय, अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों की बेड़ियों और नियंत्रण से मुक्त हो पाओ, और उनके खिलाफ विद्रोह कर पाओ, परमेश्वर के सामने आ सको, और उन तरीकों और सिद्धांतों से कार्य और समस्याओं का समाधान कर पाओ जिनके बारे में परमेश्वर के वचन तुम्हें बताते हैं, तो तुम धीरे-धीरे शैतान के मकड़जाल से मुक्त हो जाओगे। मुक्त होने के बाद, फिर तुम उसी पुराने शैतानी व्यक्ति के समान नहीं जीते हो जो अपने भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित होता है, बल्कि एक नए व्यक्ति के समान जीते हो जो परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन समझता है। तुम्हारे जीने का पूरा तरीका बदल जाता है। लेकिन अगर तुम उन भावनाओं, विचारों, दृष्टिकोणों और अभ्यासों के आगे झुक जाते हो जिन्हें शैतानी स्वभाव जन्म देते हैं, तो तुम शैतानी फलसफों और विभिन्न तकनीकों की स्तुति-माला जपने लगोगे, जैसे कि ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,’ ‘सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या,’ ‘नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,’ ‘जो बदला नहीं लेता वह मर्द नहीं है।’ ये तुम्हारे दिल में होंगे, तुम्हारे क्रियाकलापों को निर्देशित करेंगे। अगर तुम इन शैतानी फलसफों को अपने क्रियाकलापों का आधार समझ लेते हो, तो तुम्हारे क्रियाकलापों का चरित्र बदल जाएगा, और तुम बुराई और परमेश्वर का विरोध कर रहे होगे। अगर तुम इन नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को अपने क्रियाकलापों का आधार समझ लेते हो, तो यह स्पष्ट है कि तुम परमेश्वर की शिक्षाओं और वचनों से बहुत दूर भटक गए हो, और शैतान के मकड़जाल में गिर गए हो और खुद को छुड़ा नहीं सकते” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि शैतान लोगों के अंदर ऐसे शैतानी फलसफे भर देता है : “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” “अगर तुम निर्दयी हो तो मैं निष्पक्ष नहीं होऊँगी” और “अपनी ही दवा का स्वाद चखो।” ये फलसफे लोगों को आवेगपूर्ण तरीके से कार्य करने के लिए उकसाते हैं, ये कहते हैं कि जो भी व्यक्ति किसी की प्रतिष्ठा और हितों को नुकसान पहुँचाता है उससे उसी तरह बदला लेना चाहिए। इससे लोग परस्पर लड़ते हैं, हमला करते हैं और चोट पहुँचाते हैं। इसलिए लोग अधिक से अधिक दुष्ट और भयावह बन जाते हैं और वे अपनी सामान्य मानवता खो बैठते हैं। मैंने देखा कि मैं लगातार इन्हीं शैतानी जहरों के अनुसार जी रही थी। जब मैं यह देखती थी कि कोई मेरी भ्रष्टता और समस्याएँ उजागर कर रहा है तो मैं इसे विनम्रता से स्वीकार नहीं करती थी, बल्कि उग्रता दिखाती थी और उसके साथ बेरुखा और शत्रुतापूर्ण व्यवहार करती थी। ठीक उसी तरह मैंने तुम्हारे मार्गदर्शन और मदद को नकारात्मक माना, सोचा कि कि तुम मेरी कमियाँ उजागर कर रही हो और मेरी प्रतिष्ठा और हितों को नुकसान पहुँचा रही हो, इसलिए मैंने इसकी दिशा बदल दी और तुम्हारी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया और कहा कि तुम मेरी काट-छाँट करके श्रेष्ठ बनने का नाटक कर रही हो, जबकि यह काट-छाँट सिद्धांतों के अनुरूप थी और मैं यहाँ तक चाहती थी कि अगुआ तुम्हारी काट-छाँट करे और मैं अपने पद से इस्तीफा देकर तुम्हें आत्म-ग्लानि और अपराध बोध महसूस कराना चाहती थी। मैंने पीड़ित होने का नाटक किया और जानबूझकर तुम्हें नजरअंदाज और बहिष्कृत किया। मेरा लक्ष्य था कि तुम मेरी समस्याओं के बारे में बात करना बंद कर दो, जिससे मेरी प्रतिष्ठा और हितों की रक्षा हो सके। मैं वाकई बिना किसी अंतरात्मा और विवेक वाले गुस्सैल भालू की तरह थी जिसे कोई भी छेड़ने की हिम्मत नहीं करता! मेरी समस्याएँ बताते हुए तुम्हें यहाँ तक देखना पड़ता था कि मेरे हाव-भाव क्या हैं और तुम मुझसे बेबस हो जाती थी, तुम इस स्थिति से बचना चाहती थी और आगे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी और आखिरकार इससे काम में देरी हो गई। मैं जो कर रही थी वह कैसे एक इंसान के कार्यकलाप जैसा था? मैं बुराई कर रही थी और परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी! मुझे अपने ही व्यवहार से घिन आने लगी और मेरा दिल अपने प्रति घृणा से भर गया था। मैं शैतानी जहर के अनुसार जी रही थी और अभिमानी, दुष्ट और स्वार्थी बन गई थी। मैंने न सिर्फ तुम्हें चोट पहुँचाई, बल्कि मैंने अपराध किए और खुद भी पछताई—मैं वाकई खुद को भी नुकसान पहुँचा रही थी और दूसरों को भी! मैंने यह सोचा कि कुछ मसीह-विरोधी तब कैसे प्रतिक्रिया देते हैं जब न्याय की भावना के साथ सत्य का अनुसरण करने वाले भाई-बहन उन्हें सुझाव देते हैं और उनके द्वारा की गई उन चीजों को उजागर करते हैं जो सत्य सिद्धांतों के विपरीत हैं, जिससे उनकी प्रतिष्ठा और रुतबा प्रभावित होता है। वे घृणा और प्रतिरोध महसूस करते हैं और शर्मिंदा होकर भड़क जाते हैं। वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं और दोष भाई-बहनों पर डालते हैं, न्याय की भावना रखने वालों को दबाते और सताते हैं ताकि अपनी स्थिति मजबूत कर सकें। उनके कार्यकलाप भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाते हैं, कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करते हैं और उसे तहस-नहस करते हैं और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करते हैं, जिसके कारण उन्हें कलीसिया से निकाल दिया जाता है। क्या मेरे व्यवहार की प्रकृति ऐसी ही नहीं थी? मैंने देखा मैं कैसे अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार व्यवहार और कार्य करके वास्तव में परमेश्वर को मुझसे घृणा करने के लिए बाध्य कर रही थी और अगर मैंने पश्चात्ताप न किया तो मैं ठीक मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों की तरह देर-सबेर ऐसे बुरे काम करने लगूँगी जो कलीसिया के कार्य को नष्ट और बाधित करते हैं, और इस तरह परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दूँगी और परमेश्वर द्वारा निकाल दी जाऊँगी—मैं वास्तव में ऐसे खतरे में थी! यह सोचकर मैं डर गई और मुझे बहुत पछतावा हुआ और पश्चात्ताप और कबूल करने के लिए परमेश्वर के सामने आने को तैयार थी।
फिर मैंने अभ्यास के मार्ग की तलाश शुरू की और परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा : “यदि तुम मसीह-विरोधी के मार्ग से दूर रहना चाहते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें ऐसे लोगों के करीब आने की पहल करनी चाहिए जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो ईमानदार हैं, ऐसे लोगों के करीब आना चाहिए जो तुम्हारी समस्याएँ बता सकते हैं, जो तुम्हारी समस्याओं का पता चलने पर सच बोल सकते हैं और तुम्हें डांट-फटकार सकते हैं, और विशेष रूप से ऐसे लोगों के जो तुम्हारी समस्याओं का पता चलने पर तुम्हारी काट-छाँट कर सकते हैं—ये वे लोग हैं जो तुम्हारे लिए सबसे अधिक फायदेमंद हैं और तुम्हें उन्हें संजोना चाहिए। यदि तुम ऐसे अच्छे लोगों को छोड़ देते हो और उनसे छुटकारा पा लेते हो तो तुम परमेश्वर की सुरक्षा गँवा दोगे और आपदा धीरे-धीरे तुम्हारे पास आ जाएगी। अच्छे लोगों और सत्य को समझने वाले लोगों के करीब आने से तुम्हें शांति और आनंद मिलेगा, और तुम आपदा को दूर रख सकोगे; बुरे लोगों, बेशर्म लोगों और तुम्हारी चापलूसी करने वाले लोगों के करीब आने से तुम खतरे में पड़ जाओगे। न केवल तुम आसानी से ठगे और छले जाओगे, बल्कि तुम पर कभी भी आपदा आ सकती है। तुम्हें पता होना चाहिए कि किस तरह के लोग तुम्हारे लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हो सकते हैं—ये वे लोग हैं जो तुम्हारे कुछ गलत करने पर, या जब तुम अपनी बड़ाई करते हो और अपने बारे में गवाही देते हो और दूसरों को गुमराह करते हो तो, तुम्हें चेतावनी दे सकते हैं, इससे तुम्हें सर्वाधिक फायदा हो सकता है। ऐसे लोगों के करीब जाना ही सही मार्ग है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़ने से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। मुझे उन लोगों के करीब आना चाहिए जो मेरा मार्गदर्शन करते हैं और मेरी मदद करते हैं, न कि उनसे दूर रहना चाहिए। मुझे ख्याल आया कि जब तुम मेरी समस्याएँ बताती थी तो तुम्हारा कोई बुरा इरादा नहीं होता था। भले ही तुम कभी-कभी खुलकर बोलती थी लेकिन तुम्हारी बातें तथ्यात्मक और सिद्धांतों के अनुरूप होती थी, इसलिए मुझे जल्दबाजी में प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए थी। भले ही मैं उस समय इसे स्वीकार या समझ नहीं पाई, लेकिन मेरे पास सत्य की खोज करने वाला हृदय होना चाहिए था, मुझे यह विचार करना चाहिए था कि परमेश्वर के घर के कार्य के लिए क्या लाभदायक होगा और फिर वही करना चाहिए था, समस्याओं और विचलनों को कम करना चाहिए था। मैंने सोचा कि कैसे अपने कर्तव्य को लेकर मुझमें जिम्मेदारी की भावना नहीं थी, कैसे मैं पत्र लिखते समय बड़ी बनने की प्रवृत्ति रखती थी, कैसे मैं दूसरे व्यक्ति की वास्तविक मुश्किलोंं और भावनाओं पर विचार नहीं करती थी, और मैं कितनी लापरवाह और असावधान थी। मेरी समस्याएँ बताने और मेरे भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने से तुम आत्म-चिंतन करने में मेरी मदद कर रही थी और इससे मुझे अपने कर्तव्य को गंभीरता और ध्यानपूर्वक करने और नतीजे पाने में मदद मिलती। मुझे तुम्हें धन्यवाद देना चाहिए था और तुम्हारे पर्यवेक्षण और मदद को और अधिक स्वीकारना चाहिए था। तुम्हारे द्वारा मेरी समस्याएँ बताना सकारात्मक था और इससे मैं संयमित हो गई, वरना मैं अनजाने में ही अपने भ्रष्ट स्वभाव के भीतर जीती रहती, मैं अपना कर्तव्य लापरवाही से और जिम्मेदारी की भावना के बिना निभाती रहती जिससे काम को नुकसान होता और मैं अविश्वसनीय व्यक्ति बन जाती जिससे परमेश्वर घृणा करता। यह एहसास होने पर मैंने सचेत होकर खुद को बदला और अपने कर्तव्य में पहले से अधिक जिम्मेदारी की भावना समझने लगी। जब समस्याएँ आईं तो मैंने गुस्से या अपने घमंडी स्वभाव पर भरोसा किए बिना उनसे निपटने पर ध्यान केंद्रित किया और मैंने सोचा कि कैसे इस तरह से संगति की जाए जिससे नतीजे मिलें। इस तरह से अभ्यास करने से मुझे अपने दिल में बहुत स्थिरता महसूस हुई। मैंने वास्तव में यह भी महसूस किया कि प्रतिष्ठा त्यागने और सत्य स्वीकारने और उसके प्रति समर्पण करने से कोई भी व्यक्ति सचमुच ईमानदारी, प्रतिष्ठा, मानवता और विवेक पा सकता है। अगर कोई सत्य से विमुख है तो न केवल उसे सत्य की समझ नहीं होती, बल्कि वह अपना कर्तव्य भी ठीक से नहीं निभा सकता और परमेश्वर उससे घृणा करता है। इस तरह से आचरण करने से व्यक्ति बहुत नीच और बेकार हो जाता है।
बाद में दूसरे भाई-बहनों के साथ मिलकर अपना कर्तव्य निभाते हुए भी मैं यह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करती थी लेकिन तब मैं सचेत होकर परमेश्वर से प्रार्थना करती, खुद को त्यागती, दूसरों से मार्गदर्शन और मदद स्वीकारती और प्रवेश का अभ्यास करती थी। धीरे-धीरे ये स्वभाव पहले जितने गंभीर नहीं रहे। मुझे लगा कि दूसरे लोगों के सुझाव अपनाना वास्तव में बहुत बड़ी मदद है और कार्य के लिए हितकारी है। मैंने अपने दिल में स्थिरता और स्वतंत्रता महसूस की और मुझे लगा कि यह अभ्यास करने का बेहतरीन तरीका है। इन बातों पर विचार करते हुए मैं परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी महसूस करती हूँ। परमेश्वर मुझे इस तरह बेनकाब न करता और उसके वचनों का न्याय और प्रकाशन न होता तो मेरे पास जरा भी आत्म-ज्ञान नहीं होता और मैं यह नहीं देख पाती कि मैं शैतान द्वारा इतनी भ्रष्ट कर दी गई हूँ कि मेरा स्वभाव दुष्ट और सत्य से विमुख हो गया है। जब मेरे हित प्रभावित होते थे तो मैं अपने कर्तव्य में अपना गुस्सा निकालती थी, परमेश्वर के प्रति जरा भी समर्पण नहीं दिखाती थी और मानव के समान नहीं जीती थी। मेरी बुरी मानवता ने मुझे इतना गंदा और भ्रष्ट बना दिया था, फिर भी परमेश्वर ने मुझे इस कारण निकाला नहीं, बल्कि उसने मुझे आत्म-चिंतन और पश्चात्ताप करने का मौका दिया ताकि मैं जान सकूँ कि मुझे कैसे व्यवहार करना चाहिए। उसने मुझे धीरे-धीरे सत्य समझने और स्वीकारने के लिए प्रेरित किया और मैं अपने दिल की गहराई से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ। भले ही मैं अभी भी बहुत भ्रष्ट हूँ और मुझमें कई कमियाँ हैं, फिर भी मैं सत्य का अनुसरण करने और अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए तैयार हूँ। मैं परमेश्वर को उसके मार्गदर्शन और उद्धार के लिए धन्यवाद देती हूँ!
खैर, अभी के लिए मैं बस इतना ही कहना चाहती थी। अगर तुम्हें लगता है कि कुछ ऐसा है जो मुझे समझ नहीं आया है तो मुझे बताना क्योंकि इससे मुझे बहुत मदद मिलेगी।
सादर,
शि जिंग
19 सितंबर 2023