70. कैसे मैंने अपनी घृणित भावनाएँ उतार फेंकी

ली जिया, चीन

ली शिन पाठ-आधारित काम की देखरेख में मेरी साझेदार थी, लेकिन बाद में उसे बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि वह वास्तविक काम करने में असमर्थ थी। वह इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकी कि उसे बर्खास्त कर दिया गया है और वह रुतबे की होड़ में लगी रही और मुझसे प्रतिस्पर्धा करती रही। मैं देख सकती थी कि ली शिन का मेरे प्रति खराब रवैया था—जब मैं उससे बात करती थी तो वह मुझे नजरअंदाज कर देती थी और काम पर चर्चा करने में सक्रियता नहीं दिखाती थी, जिससे कुछ परियोजनाओं की प्रगति में देरी हुई। वह मेरे काम में कमियों के लिए भी मुझे नीची नजरों से देखती थी, मेरे सामने अपने काम के तरीके के बारे में शेखी बघारती थी और अपमानजनक टिप्पणियों के साथ मेरी भ्रष्टता बताती थी। मैं थोड़ी बेबस हो गई थी और आँख मूंदकर पहचान सकती थी कि मुझे अपनी प्रतिष्ठा की बहुत परवाह है। मुझे लगता था कि मैं उससे कम सक्षम कार्यकर्ता हूँ और टीम अगुआ के रूप में काम करने के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। मैं थोड़ी नकारात्मक हो गई थी और यहाँ तक कि इस्तीफा देने और ली शिन को कार्यभार सँभालने देने के बारे में सोचने लगी थी। बाद में अपने अगुआ की संगति और मदद से ही मेरी अवस्था में थोड़ा सुधार हुआ, लेकिन ली शिन के साथ काम करते समय मैं अभी भी बेबस हो जाती थी। बाद में जब मेरे अगुआ को पता चला कि ली शिन अपना कर्तव्य निभाने में स्वेच्छाचारी है, अक्सर रुतबे के लिए होड़ करती है और दूसरों पर हमला कर उन्हें बहिष्कृत कर देती है, अगुआ ने उसके मुद्दों का गहन-विश्लेषण करके उन्हें उजागर किया। मैं शुरुआत में ली शिन के साथ सही तरीके से व्यवहार कर लेती थी और प्यार से उसकी मदद और मार्गदर्शन भी करती थी ताकि वह अपने मुद्दों पर चिंतन करे लेकिन बाद में जब मैंने देखा कि उसने अपने विचारों और समझ में क्या लिखा है तो मैं पूरी तरह से आपा खो बैठी। उसने लिखा था कि उसने न सिर्फ मेरे सामने मुझ पर हमला किया और मुझे बहिष्कृत किया था, उसने मेरी पीठ पीछे अन्य सदस्यों और अगुआ के सामने भी मेरी आलोचना की थी। मैं बहुत क्रोधित और परेशान थी और सोच रही था कि वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकती है। क्या वह मेरी पीठ पीछे मेरी प्रतिष्ठा नष्ट नहीं कर रही थी? मुझे यह अस्वीकार्य लगा कि वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करे जबकि जब वह नकारात्मक और कमजोर थी तो मैंने प्यार से उसके साथ संगति की थी और उसकी मदद की थी। मुझे लगा कि मैं उसके साथ सहनशील और धैर्यवान होने के लिए बहुत डरपोक थी और सिर्फ आत्म-चिंतन करती रही और मुझे ली शिन के प्रति थोड़ी घृणा महसूस होने लगी। मैं हमेशा दूसरों को माफ क्यों कर देती हूँ? क्या इससे मैं निपट भोली और बहुत अधिक मिलनसार नहीं लगती हूँ? इस बार मैं उसे इतनी आसानी से माफ नहीं कर सकती थी, मुझे उसे दिखाना था कि मैं सख्त हो सकती हूँ और मेरे साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। खासकर उन दो दिनों तक मुझे बहुत दमन और तकलीफ महसूस होती रही और मैं गुस्से और नफरत की भावनाओं में डूब गई थी। कभी-कभी जब ली शिन मुझसे काम के बारे में बात करने की पहल करती थी तो मैं उससे पहले की तरह सामान्य तरीके से बात करना चाहती थी, लेकिन बीती बातों की यादें मेरे दिमाग में भर जाती थीं और मैं एक दृढ़ विश्वास से जकड़ जाती थी, “मैं उसके साथ इतनी आसानी से समझौता नहीं कर सकती, मुझे सख्ती दिखानी होगी। ‘जैसे शरीफ घोड़े की सवारी की जाती है, वैसे ही भले व्यक्ति पर धौंस जमाई जाती है।’ मैं उसके साथ बहुत स्नेहपूर्ण और अच्छी नहीं बन सकती। उसने मेरे साथ इतना बुरा व्यवहार किया है तो मैं उसे थोड़ी तकलीफ क्यों नहीं दे सकती?” उसके बाद जब ली शिन मुझसे बात करती थी तो मैं सामान्य रूप से जवाब देती थी, लेकिन मैं ठंडा भाव अपनाती थी और थोड़ा रूखा रहती थी और मैं जानबूझकर नजरें मिलाने से भी बचती थी। उस दौरान मैं बहुत बेचैन रहती थी और बस शांति और सुकून से अकेले रहना चाहती थी। मैंने इन परेशान करने वाली चीजों के बारे में न सोचने की कोशिश की, लेकिन मैं उन विचारों को अपने दिमाग से निकाल ही नहीं पाई। बाद में मैंने उन नकारात्मक भावनाओं को दबा दिया और ली शिन के साथ काम के बारे में सामान्य रूप से बातचीत करने लगी, लेकिन मुझे हमेशा अपना असंतोष, क्रोध और नफरत उस पर निकालने का मन करता था। मैं काफी दुखी और परेशान थी और मुझे नहीं पता था कि अपनी अवस्था कैसे सुधारूँ। मैं बस इतना कर सकती थी कि अपने भीतर के विचारों को परमेश्वर के सामने लाऊँ, उससे बार-बार प्रार्थना करूँ, “हे परमेश्वर, ली शिन ने मेरे साथ जो किया, उसे देखकर मुझे बहुत गुस्सा आता है। मुझे उसके प्रति कुछ नफरत महसूस होती है और यहाँ तक कि बदला लेने की इच्छा भी होती है। हे परमेश्वर, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहती और मैं उसके साथ सामान्य तरीके से बातचीत करना चाहती हूँ, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाती हूँ, मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। मेरी मदद और मार्गदर्शन करो।”

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “यदि किसी ने पहले कभी तुम्हें आहत किया और तुम भी उसके साथ वैसे ही पेश आते हो तो क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? चूँकि उसने तुम्हें आहत किया है—बहुत बुरी तरह आहत किया है—इसलिए अगर तुम उससे प्रतिशोध लेने और उसे दंडित करने के लिए कोई भी उचित या अनुचित तरीका अपनाते हो, तो गैर-विश्वासियों के अनुसार यह उचित और तर्कसंगत है, और इसमें कुछ भी बुरा नहीं है; लेकिन यह किस प्रकार का कार्यकलाप है? यह क्रोध है। वह तुम्हें आहत करता है तो यह भ्रष्ट शैतानी प्रकृति का प्रकटावा है, लेकिन अगर तुम उससे प्रतिशोध लेते हो तो क्या तुम जो कर रहे हो वह भी उसी की तरह नहीं है? तुम्हारे प्रतिशोध के पीछे की मानसिकता, प्रारंभिक बिंदु और स्रोत उसके समान ही हैं; दोनों में कोई अंतर नहीं है। तो तुम्हारे कार्यों का चरित्र निश्चित रूप से क्रोधपूर्ण, आवेगपूर्ण और शैतानी है। इसके शैतानी और क्रोधपूर्ण होने के मद्देनजर क्या तुम्हें अपने कार्यकलाप नहीं बदलने चाहिए? क्या तुम्हारे कार्यकलापों के पीछे का स्रोत, इरादे और प्रेरणाएँ बदलनी चाहिए? (हाँ।) तुम इन्हें कैसे बदलते हो? अगर तुम्हारे साथ घटित होने वाली चीज छोटी-मोटी है लेकिन यह तुम्हें असहज करती है तो जब तक यह तुम्हारे हितों को छेड़ती नहीं है या तुम्हें बुरी तरह आहत नहीं करती, या तुम्हें नफरत करने के लिए नहीं उकसाती, या प्रतिशोध लेने के लिए तुम्हारे जीवन को जोखिम में नहीं डालती, तो तुम क्रोध का सहारा लिए बिना अपनी नफरत को त्याग सकते हो; बल्कि, तुम इस मामले को ठीक से और शांत होकर संभालने के लिए अपनी तार्किकता और मानवता पर भरोसा कर सकते हो। तुम सामने वाले को यह मामला स्पष्टता और ईमानदारी से समझा सकते हो और अपनी नफरत का समाधान कर सकते हो। लेकिन, अगर नफरत इतनी भारी है कि तुम बदला लेने की सोचने लगो और भयंकर नफरत महसूस करने लगो तो क्या तुम तब भी धैर्य रख सकते हो? जब तुम अपने क्रोध पर निर्भर नहीं रहते और शांत होकर कह सकते हो, ‘मुझे तर्कसंगत व्यवहार करना चाहिए। मुझे अपने विवेक और तर्क के अनुसार जीना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार जीना चाहिए। मैं बुराई का जवाब बुराई से नहीं दे सकता, मुझे अपनी गवाही में दृढ़ रहकर शैतान को शर्मिंदा करना चाहिए,’ तो क्या यह एक अलग दशा नहीं है? (है।) अतीत में तुम्हारी किस प्रकार की दशाएँ थीं? अगर कोई व्यक्ति तुम्हारी कोई चीज चुरा ले या तुम्हारी कोई चीज खा ले, तो यह किसी बड़ी, गहरी नफरत के तुल्य नहीं है, इसलिए तुम उसके साथ तब तक बहस करना जरूरी नहीं समझोगे जब तक कि इस कारण तुम गुस्सा न हो जाओ—यह तुम्हारे योग्य नहीं है और बिल्कुल फिजूल है। ऐसी स्थिति में तुम इस मामले को तर्कसंगत ढंग से संभाल सकते हो। क्या मामले को तर्कसंगत ढंग से संभालने में सक्षम होना सत्य का अभ्यास करने के समतुल्य है? क्या यह इस मामले में सत्य वास्तविकता होने के समतुल्य है? बिल्कुल भी नहीं। तर्कसंगत होना और सत्य का अभ्यास करना दो अलग चीजें हैं। अगर तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से हो जो तुम्हें खास तौर पर आग बबूला कर दे, लेकिन तुम अपना क्रोध या भ्रष्टता प्रकट किए बिना तर्कसंगत रूप से और शांत रहकर इससे निपट सकते हो, तो इसके लिए तुम्हें सत्य सिद्धांतों को समझने और इससे निपटने के लिए बुद्धि पर भरोसा करने की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना या सत्य की खोज नहीं करते तो तुममें आसानी से क्रोध घर कर लेगा—यहाँ तक कि हिंसा भी। अगर तुम सत्य नहीं खोजते, केवल इंसानी तरीके अपनाते हो और अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार मामले से निपटते हो तो तुम इसे थोड़ा-सा सिद्धांत बघारकर या बैठकर अपना दिल खोलकर बात करने भर से नहीं सुलझा सकते। यह इतना सरल नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है)। जैसे-जैसे मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, मुझे अपराध बोध होने लगा। चूँकि मुझे लगता था कि ली शिन ने दूसरों के सामने मेरी आलोचना करके मेरी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाया है, मैं उससे बदला लेना चाहती थी और उसके लिए जीना मुश्किल करना चाहती थी। मेरे कार्यकलाप उसके कार्यकलापों से किस तरह भिन्न थे? क्या मैं सिर्फ अपने क्रोध और भ्रष्ट स्वभाव को अपने कार्यकलापों को संचालित नहीं होने दे रही थी? क्या शैतान इस सब के मूल में नहीं था? मैं सत्य का अभ्यास नहीं कर रही थी! मैंने हमेशा खुद को काफी दयालु और सहनशील माना था और लोगों के साथ आमतौर पर क्षुद्र और हिसाब रखने वाली नहीं थी। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ उन मामलों के संबंध में क्षुद्र नहीं होती जिनमें मेरा कोई हित नहीं होता है। मुझे तुच्छ और महत्वहीन मामलों में बहुत अधिक उलझना जरूरी नहीं लगता था। अगर मैं बहुत क्षुद्र होती तो मैं अशोभनीय और संकीर्ण सोच वाली लगती। मैं इन मुद्दों से उचित तरीके से निपटने में सक्षम थी और उदार और क्षमाशील प्रतीत होती थी। ठीक वैसे ही जैसे पहले जब ली शिन का मेरे प्रति रवैया खराब था, मैं उसके साथ ठीक से व्यवहार करने और उसके प्रति समझदारी दिखाने में सक्षम थी। मुझे लगता था कि उसका भ्रष्टता प्रकट करना सामान्य बात है और मैंने खुद को काफी क्षमाशील बना लिया था। लेकिन जब मुझे पता चला कि ली शिन अन्य टीम के सदस्यों और अगुआ के सामने मेरी आलोचना कर रही थी, तो मैंने इसे अपनी ईमानदारी और गरिमा का बड़ा अपमान माना; मैं इसे और बर्दाश्त नहीं कर पाई और क्रोध और घृणा में डूब गई। मैंने देखा कि मैं असल में धैर्यवान और सहनशील नहीं थी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से हो जो तुम्हें खास तौर पर आग बबूला कर दे, लेकिन तुम अपना क्रोध या भ्रष्टता प्रकट किए बिना तर्कसंगत रूप से और शांत रहकर इससे निपट सकते हो, तो इसके लिए तुम्हें सत्य सिद्धांतों को समझने और इससे निपटने के लिए बुद्धि पर भरोसा करने की आवश्यकता है।” फिर मैंने मन ही मन सोचा, “इन घृणित भावनाओं से छुटकारा पाने के लिए मुझे कौन से सत्य समझने चाहिए?”

अपनी खोज में मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “हमला और प्रतिशोध एक प्रकार का क्रियाकलाप और प्रकटावा है जो एक दुर्भावनापूर्ण शैतानी प्रकृति से आता है। यह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव भी है। लोग इस प्रकार सोचते हैं : ‘अगर तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहोगे तो मैं तुम्हारा बुरा करूँगा! अगर तुम मेरे साथ इज्जत से पेश नहीं आओगे तो भाल तुम्हारे साथ मैं इज्जत से क्यों पेश आऊँगा?’ यह कैसी सोच है? क्या यह प्रतिशोध लेने की सोच नहीं है? किसी साधारण व्यक्ति के विचार में क्या यह उचित नजरिया नहीं है? क्या इस बात में दम नहीं है? ‘मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा’ और ‘अपनी ही दवा का स्वाद चखो’—अविश्वासी अक्सर आपस में ऐसी बातें कहते हैं, ये सभी तर्क दमदार और पूरी तरह इंसानी धारणाओं के अनुरूप हैं। फिर भी, जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें इन वचनों को कैसे देखना चाहिए? क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) ये सही क्यों नहीं हैं? इन्हें किस तरह पहचानना चाहिए? ये चीजें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? (शैतान से।) ये शैतान से उत्पन्न होती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। ये शैतान के किस स्वभाव से आती हैं? ये शैतान की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति से आती हैं; इनमें विष होता है, और इनमें शैतान का असली चेहरा अपनी पूर्ण दुर्भावना तथा कुरूपता के साथ होता है। इनमें इस तरह का प्रकृति सार होता है। इस प्रकार की प्रकृति सार वाले नजरियों, विचारों, प्रकटावों, कथनी-करनियों का चरित्र क्या होता है? बेशक, यह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है—यह शैतान का स्वभाव है। क्या ये शैतानी चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हैं? क्या ये सत्य के अनुरूप हैं? क्या इनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार है? (नहीं।) क्या ये ऐसे कार्य हैं, जो परमेश्वर के अनुयायियों को करने चाहिए, और क्या उनके ऐसे विचार और दृष्टिकोण होने चाहिए? क्या ये विचार और कार्यकलाप सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं।) माना कि ये चीजें सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो क्या ये सामान्य मानवता के विवेक और तर्क के अनुरूप हैं? (नहीं।) अब तुम स्पष्ट रूप से समझ सकते हो कि ये चीजें सत्य या सामान्य मानवता के अनुरूप नहीं हैं। क्या तुम लोग पहले सोचते थे कि ये कार्यकलाप और विचार उचित, आकर्षक और आधार युक्त हैं? (हाँ, ऐसा सोचते थे।) ये शैतानी विचार और सिद्धांत लोगों के दिलों में प्रभुत्व जमाकर उनके विचारों, दृष्टिकोणों, आचार-व्यवहार और कार्यकलापों के साथ ही उनकी विभिन्न दशाओं को संचालित करते हैं; तो क्या लोग सत्य समझ सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं। इसके उलट—क्या लोग जिन चीजों को सही समझते हैं, उनका अभ्यास कर उन्हें इस तरह पकड़े नहीं रखते कि मानो वे सत्य हों? अगर ये बातें सत्य हैं तो इन पर टिके रहने से तुम्हारी व्यावहारिक समस्याएँ हल क्यों नहीं होतीं? इन पर टिके रहने से तुममें सच्चा परिवर्तन क्यों नहीं आता जबकि तुम वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हो? तुम शैतान से आने वाले इन फलसफों को पहचानने के लिए परमेश्वर के वचनों का प्रयोग क्यों नहीं कर पाते? क्या तुम अभी भी इन शैतानी फलसफों को इस तरह पकड़े हुए हो कि मानो ये सत्य हैं? अगर तुममें सचमुच विवेक है तो क्या तुम्हें समस्याओं का मूल नहीं मिला? क्योंकि तुम जिन चीजों को लेकर बैठे थे वे कभी सत्य नहीं थीं—बल्कि ये शैतानी भ्रांतियाँ और फलसफे थे—समस्या यहीं है। तुम सब लोगों को अपनी जाँच-पड़ताल करने के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए; देखो कि तुम्हारे भीतर ऐसी कौन-सी चीजें हैं जो तुम्हें आधार युक्त लगती हैं, जो सामान्य समझ और सांसारिक बुद्धि के अनुरूप हैं, जिन्हें तुम चर्चा की मेज पर रखने लायक समझते हो—गलत विचार, दृष्टिकोण, कार्यकलाप और वे आधार जिन्हें तुम तहेदिल से सत्य मानते आए हो और जिन्हें भ्रष्ट स्वभाव नहीं मानते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मैं एक दुष्ट और द्वेषपूर्ण स्वभाव प्रकट कर रही थी। मुझे लगा कि ली शिन ने जिस तरह दूसरों के सामने मेरी आलोचना की और मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे को नुकसान पहुँचाया, वह बहुत ज्यादा था। जैसी कि कहावत है, “जैसे शरीफ घोड़े की सवारी की जाती है, वैसे ही भले व्यक्ति पर धौंस जमाई जाती है।” अगर मैंने इसे जाने दिया तो दूसरे लोग निश्चित रूप से कहेंगे कि मैं बेकार और निपट भोली हूँ, उन्हें लगेगा कि वे मेरे साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार कर सकते हैं। मैं इसे अनसुलझा नहीं छोड़ सकती थी और मैं बदला लेना चाहती थी और ली शिन को नजरअंदाज करना चाहती थी। मैंने यह भी सोचा : पहले ली शिन ने ही मेरे साथ बुरा व्यवहार किया। मैं जिस ढंग से भी जवाब दूँगी वह अनुचित नहीं होगा। कम से कम मुझे उसे यह महसूस कराना चाहिए कि चोट लगने पर कैसा महसूस होता है ताकि मैं अपना असंतोष और दमन बाहर निकाल सकूँ। ठीक जैसी कहावत है, “दाँत के बदले दाँत, आँख के बदले आँख” और “अगर तुम निर्दयी हो तो अन्यायी होने का दोष मुझ पर मत डालो।” परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से, मैंने देखा कि मेरे विचार और दृष्टिकोण सभी क्रोध, शैतानी फलसफों और मेरे भ्रष्ट स्वभाव से उपजे थे। मैं उन सभी पर हमला करना और बदला लेना चाहती थी जिन्होंने मुझे नुकसान पहुँचाया या अपमानित किया था। अगर मैं असहज हुई तो मैं अपने हमलावर को भी वैसा ही महसूस कराऊँगी। मुझे एहसास हुआ कि मैं काफी दुष्ट और द्वेषपूर्ण थी। जब मैंने अपना भ्रष्ट स्वभाव अपने जीवन पर हावी होने दिया तो मैंने सिर्फ इस बारे में सोचा कि मैं खुद को कैसे खुश और संतुष्ट रखूँ और अपने हितों की रक्षा कैसे करूँ। मैं यह सोचने के लिए रुकी ही नहीं कि क्या मेरे कार्यकलाप सत्य के अनुरूप हैं या क्या वे ली शिन के लिए हानिकारक होंगे। मैं बहुत स्वार्थी और संकीर्ण सोच वाली हो गई थी। ली शिन आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने में सक्षम थी, उसने अपनी भ्रष्टता उजागर करने की हिम्मत की थी। वह सत्य का अभ्यास करने और पश्चात्ताप करने की इच्छा दिखा रही थी। मुझे उसके साथ उचित व्यवहार करना चाहिए था और अपने पूर्वाग्रहों को अलग रखना चाहिए था। लेकिन मैंने न सिर्फ उसे प्रोत्साहित नहीं किया, बल्कि उसकी भ्रष्टता के खुलासे पर ध्यान केंद्रित किया और उससे बदला लेने की कोशिश की। क्या मैं सही होते हुए भी निर्मम नहीं थी? इसका एहसास होने पर मुझे लगा कि मेरी मानवता काफी कमजोर है। जब मैं नफरत की भावनाओं में डूबी हुई थी, भले ही बदला लेने की मेरी इच्छा पूरी हो गई थी तो भी मुझे कोई खुशी या शांति महसूस नहीं हुई। इसके बजाय मुझे और भी बुरा लगा, मुझे अपराध बोध हुआ और मैंने खुद को दोषी पाया। मैंने खुद अनुभव किया कि कैसे भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीने से व्यक्तिगत दुख होता है और हमारे आस-पास के लोगों को नुकसान पहुँचता है। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मुझे यह भी एहसास हुआ कि मेरे विचार बिल्कुल वैसे ही थे जैसे अविश्वासियों के होते हैं। मुझे लगा था कि मैं बुराई का जवाब बुराई से देकर ही अपनी रक्षा कर सकती हूँ। लौकिक संसार में निष्कपट लोगों को अक्सर धमकाया जा सकता है और वे बस इतना ही कर सकते हैं कि अपमान सहें और समझौता करें। लेकिन परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का शासन चलता है। चाहे हमारे साथ कुछ भी हो या दूसरे हमारे साथ कैसा भी व्यवहार करें, यह सब परमेश्वर की अनुमति से होता है और हमारे पास इन चीजों से सीखने के लिए सबक होते हैं और अभ्यास करने के लिए सत्य होते हैं। मुझे परमेश्वर से यह स्वीकारना चाहिए और उसके वचनों के अनुसार ली शिन के साथ सही व्यवहार करना चाहिए।

अगले दिन जब मैंने इस मुद्दे के बारे में सोचा तो मुझे अभी भी बुरा लगा और मैं सुनिश्चित नहीं थी कि ली शिन का सामना कैसे करना चाहिए, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मुझे पता है कि मुझे शैतानी फलसफे के आधार पर ली शिन से बर्ताव नहीं करना चाहिए, लेकिन इस मुद्दे के बारे में मेरा ज्ञान बहुत सतही है और मुझमें मुक्ति की भावना की कमी है। मुझे नहीं पता कि मुझे उसका सामना कैसे करना चाहिए। हे परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो।” उसके बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला : “परमेश्वर कोप है, और वह अपमानित किया जाना सहन नहीं करता—इसका तात्पर्य यह नहीं है कि परमेश्वर का क्रोध कारणों के बीच अंतर नहीं करता या वह सिद्धांतविहीन है; क्रोध के सिद्धांतविहीन, बेतरतीब विस्फोट पर तो एकमात्र अधिकार भ्रष्ट मनुष्य का है, उस प्रकार का क्रोध, कारणों के बीच अंतर नहीं करता। एक बार जब मनुष्य को हैसियत मिल जाती है, तो उसे अक्सर अपनी मनःस्थिति पर नियंत्रण पाने में कठिनाई महसूस होगी, और इसलिए वह अपना असंतोष व्यक्त करने और अपनी भावनाएँ प्रकट करने के लिए अवसरों का इस्तेमाल करने में आनंद लेता है; वह अक्सर बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के क्रोध से आगबबूला हो जाता है, ताकि वह अपनी योग्यता दिखा सके और दूसरे जान सकें कि उसकी हैसियत और पहचान साधारण लोगों से अलग है। निस्संदेह, बिना किसी हैसियत वाले भ्रष्ट लोग भी अक्सर नियंत्रण खो देते हैं। उनका क्रोध अक्सर उनके निजी हितों को नुकसान पहुँचने के कारण होता है। अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए वे बार-बार अपनी भावनाएँ जाहिर करते हैं और अपना अहंकारी स्वभाव दिखाते हैं। मनुष्य पाप के अस्तित्व का बचाव और समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला हो जाता है, अपनी भावनाएँ जाहिर करता है, और इन्हीं तरीकों से मनुष्य अपना असंतोष व्यक्त करता है; वे अशुद्धताओं, कुचक्रों और साजिशों से, मनुष्य की भ्रष्टता और दुष्टता से, और अन्य किसी भी चीज़ से बढ़कर, मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब भरे हैं(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। मैंने देखा कि परमेश्वर का सार धार्मिक और पवित्र है और वह बहुत ही सैद्धांतिक तरीके से अपना कार्य करता है। परमेश्वर का क्रोध और दया विशेष रूप से शुद्ध और निष्कलंक है। उदाहरण के लिए परमेश्वर ने सदोम और नीनवे के शहरों के साथ कैसा व्यवहार किया। दोनों शहरों ने परमेश्वर को अस्वीकार दिया और बुराई और अनैतिकता में गिर गए। उनके बुरे कर्म परमेश्वर को बहुत पहले से पता थे और उन्हें उनके द्वारा किए गए बुरे कामों के लिए नष्ट कर दिया जाना चाहिए था। लेकिन दोनों शहरों ने उन दूतों के प्रति बिल्कुल अलग प्रतिक्रियाएँ कीं, जिन्हें परमेश्वर ने भेजा था। सदोमियों ने दूतों को क्रूरतापूर्वक सताया और सकारात्मक चीजों से बेहद नफरत की। आखिरकार उन्होंने परमेश्वर के स्वभाव को भड़का दिया और वे जलती हुई गंधक से नष्ट हो गए। इसके विपरीत नीनवे के लोगों ने योना की घोषणा पर विश्वास किया और उसका पालन किया और पूरा शहर पश्चात्ताप करने और कबूलने के लिए परमेश्वर के सामने आया, जिसके कारण परमेश्वर ने आखिरकार अपना मन बदल लिया और उन पर दया की और उन्हें क्षमा कर दिया। परमेश्वर लोगों के साथ जिस तरह से पेश आता है, उसमें वह बहुत ही सिद्धांतवादी है। अगर लोग पश्चात्ताप करने से हठपूर्वक इनकार करते हैं तो परमेश्वर उनकी निंदा करेगा और उन्हें नष्ट कर देगा। लेकिन जब वे वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं और अपने पाप स्वीकारते हैं तो परमेश्वर तुरंत अपना क्रोध वापस ले लेता है और उन पर दया दिखाता है और उन्हें क्षमा कर देता है। मानवजाति के प्रति परमेश्वर के रवैये से मुझे एहसास हुआ कि मैं जिस तरह से पेश आती थी और लोगों के साथ व्यवहार करती थी, उसमें मैं बिल्कुल भी सिद्धांतवादी नहीं थी, मैं पूरी तरह से अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर पेश आती थी। जब ली शिन ने भ्रष्टता प्रकट की लेकिन इससे मेरे हितों को बहुत नुकसान नहीं पहुँचा तो मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उसकी मदद नहीं की और बस उसे खुश किया। जब मेरे हितों को बहुत नुकसान पहुँचा और मैं इसे और बर्दाश्त नहीं कर पाई तो मैं अपनी उग्रता से उससे बदला लेना चाहती थी और जब वह पश्चात्ताप करना चाहती थी, तब भी मैं उसे माफ नहीं कर पाई। मैं घृणा की भावनाओं में डूब गई थी और मेरे मन में गहरा द्वेष था। मुझे एहसास हुआ कि दोनों मामलों में मैंने ली शिन के साथ अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर व्यवहार किया था और अपने हितों के लिए काम किया था। मैंने अपना आत्मसम्मान, रुतबा और गरिमा कायम रखने के लिए उग्र होकर बदला लेने की कोशिश की इस प्रक्रिया में ली शिन के प्रति अपने असंतोष को व्यक्त किया। मेरा क्रोध और घृणा स्वार्थी और संकीर्ण सोच वाले थे, और शैतानी थे। यह मेरे भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा था!

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों के दो और अंश भी मिले : “अगर कुछ ऐसा हुआ हो जिसने तुम्हारी घृणा भड़का दी हो तो तुम उसे कैसे देखोगे? तुम उसे किस आधार पर देखोगे? (परमेश्वर के वचनों के आधार पर।) सही कहा। अगर तुम नहीं जानते कि इन चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार कैसे देखा जाए तो तुम सिर्फ जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बन सकते हो, अपना आक्रोश दबा सकते हो, रियायतें दे सकते हो और बदला लेने के अवसर तलाशते हुए उचित समय की प्रतीक्षा कर सकते हो—यही वह रास्ता है जिस पर तुम चलोगे। अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो तो तुम्हें लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना चाहिए और खुद से पूछना चाहिए : ‘यह व्यक्ति मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है? मेरे साथ ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा परिणाम क्यों हो सकता है?’ ऐसी चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखी जानी चाहिए। पहली चीज यह करनी चाहिए कि इस मामले को परमेश्वर से स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए और सक्रिय रूप से यह स्वीकारना चाहिए कि यह परमेश्वर की ओर से आया है और तुम्हारे लिए सहायक और लाभदायक है। इस मामले को परमेश्वर से स्वीकारने के लिए तुम्हें पहले यह मानना चाहिए कि यह परमेश्वर द्वारा आयोजित और शासित है। पृथ्वी पर जो कुछ भी होता है, वह सब जो तुम महसूस कर सकते हो, वह सब जो तुम देख सकते हो, वह सब जो तुम सुन सकते हो—सब परमेश्वर की अनुमति से होता है। इस मामले को परमेश्वर से स्वीकारने के बाद इसे परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसो और पता करो कि जिसने भी यह काम किया है वह किस तरह का व्यक्ति है और इस मामले का सार क्या है, फिर चाहे उसकी कथनी-करनी ने तुम्हें ठेस पहुँचाई हो या तुम्हारे हृदय और आत्मा को आघात पहुँचाया हो या फिर तुम्हारे चरित्र को रौंद दिया हो। पहले यह देखो कि वह व्यक्ति कोई बुरा व्यक्ति है या कोई साधारण भ्रष्ट व्यक्ति है, पहले परमेश्वर के वचनों के अनुसार उसकी असलियत जानो और फिर इस मामले को परमेश्वर के वचनों के अनुसार समझकर इससे निपटो। क्या ये कदम उठाना सही नहीं है? (बिल्कुल सही है।) पहले इस मामले को परमेश्वर से स्वीकारो और इस मामले में शामिल लोगों को उसके वचनों के अनुसार देखो ताकि यह निर्धारित कर सको कि क्या वे साधारण भाई-बहन हैं या बुरे लोग, मसीह-विरोधी, छद्म-विश्वासी, बुरी आत्माएँ, गंदे राक्षस या बड़े लाल अजगर के जासूस हैं, और उन्होंने जो किया वह भ्रष्टता का एक सामान्य नमूना था या एक दुष्ट कार्य था जिसका उद्देश्य जानबूझकर परेशान करना और बाधित करना था। यह सब परमेश्वर के वचनों से तुलना करके निर्धारित किया जाना चाहिए। चीजों को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसना सबसे सटीक और वस्तुनिष्ठ तरीका है। परमेश्वर के वचनों के अनुसार ही लोगों में अंतर करना और मामलों को निपटाना चाहिए। तुम्हें विचार करना चाहिए : ‘इस घटना ने मेरे हृदय और आत्मा को बहुत आहत किया है और मेरी स्थिति बिगाड़ी है। लेकिन यह घटना घटित होने से मुझे जीवन-प्रवेश के लिए क्या शिक्षा मिली है? परमेश्वर का इरादा क्या है?’ यह तुम्हें मामले की जड़ तक ले जाता है जिसे तुम्हें जानना-समझना चाहिए—यह सही रास्ते पर चलना है। तुम्हें यह सोचते हुए परमेश्वर का इरादा खोजना चाहिए : ‘इस घटना ने मेरे दिल और मेरी आत्मा को आघात पहुँचाया है। मुझे पीड़ा और दर्द महसूस होता है, पर मैं नकारात्मक और तिरस्कारपूर्ण नहीं हो सकता। सबसे महत्वपूर्ण बात परमेश्वर के वचनों के अनुसार यह समझना, पहचानना और तय करना है कि यह घटना वास्तव में मेरे लिए फायदेमंद है या नहीं। अगर यह परमेश्वर के अनुशासन करने से आती है और मेरे जीवन-प्रवेश और मेरी आत्म-समझ के लिए लाभदायक है तो मुझे इसे स्वीकारकर इसके प्रति समर्पित होना चाहिए; अगर यह शैतान की ओर से प्रलोभन है तो मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और इससे बुद्धिमानी से निपटना चाहिए।’ क्या इस तरह खोजना और सोचना सकारात्मक प्रवेश है? क्या यह लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना है? (बिल्कुल।) इसके बाद तुम जिस भी मामले से निपट रहे हो या लोगों के साथ तुम्हारे संबंधों में जो भी समस्याएँ उत्पन्न होती हों, उन्हें हल करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों की तलाश करनी चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (9))। “अगर तुम सही मार्ग चुनते हो तो जब कोई व्यक्ति इस तरह से बोलता है जो तुम्हारी छवि या गौरव को नुकसान पहुँचाता है या तुम्हारी ईमानदारी और गरिमा का अपमान करता है तो तुम सहिष्णु होना चुन सकते हो। तुम किसी भी तरह की भाषा का उपयोग करके उसके साथ बहस में लिप्त नहीं होगे या जानबूझकर खुद को सही ठहराते हुए और दूसरे पक्ष पर हमला करते हुए अपने भीतर घृणा को जन्म नहीं दोगे। सहिष्णु होने का सार और महत्व क्या है? तुम कहते हो, ‘उसकी कही कुछ चीजें तथ्यों से मेल नहीं खातीं, लेकिन सत्य समझने और उद्धार प्राप्त करने से पहले हर कोई ऐसा ही होता है और मैं भी कभी ऐसा ही था। अब जबकि मैं सत्य समझता हूँ तो मैं सही-गलत के बारे में बहस करने या लड़ाई के फलसफे में लिप्त होने के गैर-विश्वासियों के मार्ग पर नहीं चलता—मैं सहिष्णुता और दूसरों के साथ प्रेम से पेश आना चुनता हूँ। उसकी कही कुछ चीजें तथ्यों से मेल नहीं खातीं, लेकिन मैं उन पर ध्यान नहीं देता। मैं वही स्वीकारता हूँ जो मैं पहचान और समझ सकता हूँ। मैं इसे परमेश्वर से स्वीकारता हूँ और प्रार्थना में परमेश्वर के सामने लाता हूँ, उससे ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित करने के लिए कहता हूँ जो मेरे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, मुझे इन भ्रष्ट स्वभावों का सार जानने दें और इन समस्याओं पर ध्यान देना शुरू करने, धीरे-धीरे इन पर काबू पाने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का अवसर दें। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि कौन मुझे अपने शब्दों से ठेस पहुँचाता है और वह जो कहता है वह सही है या नहीं या उसके इरादे क्या हैं तो एक ओर मैं इसे समझने का अभ्यास करता हूँ और दूसरी ओर मैं इसे बर्दाश्त करता हूँ।’ अगर यह व्यक्ति ऐसा है जो सत्य स्वीकारता है तो तुम उसके साथ शांति से बैठकर संगति कर सकते हो। अगर वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, अगर वह बुरा व्यक्ति है तो उस पर ध्यान मत दो। तब तक प्रतीक्षा करो जब तक वह पर्याप्त सीमा तक प्रदर्शन न कर ले और सभी भाई-बहन और तुम भी उसे अच्छी तरह से न पहचान लो और जब तक अगुआ और कार्यकर्ता उसे हटाने और सँभालने वाले न हों—तभी परमेश्वर के लिए उस पर ध्यान देने का समय आएगा और निश्चित रूप से तुम भी प्रसन्न महसूस करोगे। लेकिन तुम्हें जो मार्ग चुनना चाहिए वह बुरे लोगों के साथ मौखिक झगड़ों में लिप्त होना या उनसे बहस करना और खुद को सही ठहराने की कोशिश करना बिल्कुल नहीं है। इसके बजाय यह जब भी कुछ हो तो सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना है। चाहे यह उन लोगों से बर्ताव करना हो जिन्होंने तुम्हें ठेस पहुँचाई है या उन लोगों से जिन्होंने तुम्हें ठेस नहीं पहुँचाई है और जो तुम्हारे लिए फायदेमंद हैं, अभ्यास के सिद्धांत समान होने चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (15))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे अंदर से और भी अधिक स्पष्टता महसूस हुई और अभ्यास के कुछ मार्ग मिले। मैंने देखा कि हमारे साथ चाहे जो भी हो, यह सब परमेश्वर की अनुमति से होता है और ऐसे सबक हैं जो हमें सीखने चाहिए। परमेश्वर चाहता है कि हम लोगों के साथ सिद्धांतपूर्वक व्यवहार करें। जब हम उन लोगों के साथ व्यवहार करते हैं जिन्होंने हमें नुकसान पहुँचाया है तो हमें हमेशा अपमान और समझौता नहीं स्वीकारना चाहिए, न ही हमें घृणा में डूबकर बदला लेना चाहिए। इसके बजाय हमें परमेश्वर से स्थिति को स्वीकार करना चाहिए, परमेश्वर के इरादे की तलाश करनी चाहिए और मामले को सत्य सिद्धांतों के अनुसार सँभालना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति भ्रष्टता प्रकट कर रहा है और अनजाने में अपनी कथनी या करनी से हमें नुकसान पहुँचाता है तो हमें प्रेमपूर्ण सहिष्णुता और धैर्य दिखाना चाहिए, अपनी समस्याओं पर आत्म-चिंतन करने के लिए उनकी आलोचनाओं और प्रकाशन का उपयोग करना चाहिए और अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अगर उनके बोलने और काम करने के तरीके में गलत इरादे हैं, जो कि हमारी पीठ पीछे हमारी आलोचना और हमला करना है, तो हम आँख मूँदकर आत्म-चिंतन नहीं कर सकते, बल्कि हमें यह भेद भी पहचानना चाहिए कि वे किस तरह के व्यक्ति हैं, उनके इरादे क्या हैं और उनके मुद्दों को बताना चाहिए। अगर वे सत्य स्वीकारने, पश्चात्ताप करने और परिवर्तन करने के लिए तैयार हैं तो उनके साथ भाई-बहनों की तरह व्यवहार किया जाना चाहिए और उन्हें संगति और समर्थन दिया जाना चाहिए। अगर वे जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते हैं और बुरे लोग और मसीह-विरोधी हैं तो उन्हें उजागर किया जाना चाहिए, पहचाना जाना चाहिए, बेपर्दा किया जाना चाहिए और सत्य के अनुसार रिपोर्ट किया जाना चाहिए और उन्हें तिरस्कृत और अस्वीकार भी किया जाना चाहिए। लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने का यही वास्तविक तरीका है। ली शिन का भ्रष्ट स्वभाव अपेक्षाकृत गंभीर था, लेकिन वह सत्य स्वीकारने, पश्चात्ताप करने और बदलने के लिए तैयार थी, इसलिए मुझे उसके साथ उचित व्यवहार करना चाहिए। मुझे उसके साथ सहनशील और धैर्यवान होना था और मुझे नुकसान पहुँचाने के लिए उसे माफ करना था। जहाँ तक उसके उन मुद्दों का सवाल है जिन्हें उसने नहीं पहचाना था, मुझे उन्हें बताना चाहिए और उसकी मदद करनी चाहिए, उसे खुद को जानने और अपना भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने के लिए मार्गदर्शन देना चाहिए। साथ ही इस स्थिति के माध्यम से मैंने आत्म-चिंतन किया और खुद को जाना। मैंने देखा कि मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था और प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी चाहत बहुत प्रबल थी। जब ली शिन की कथनी और करनी ने मेरा रुतबा और आत्मसम्मान खतरे में डाल दिया, तो मैंने उग्र होकर बदला लेना चाहा और वह विवेक खो दिया जो एक सामान्य व्यक्ति के पास होना चाहिए। ली शिन की ओर से मेरी कुछ आलोचनाओं में निष्पक्षता का अभाव था, लेकिन कुछ ने मेरी वास्तविक समस्याओं को स्पष्ट कर दिया। उदाहरण के लिए, मैं अपने कर्तव्य में परमेश्वर के वचनों को अनुभव करने के बजाय सिर्फ अपने काम पर ध्यान केन्द्रित करती थी; मेरे पास कामों को प्राथमिकता देने की क्षमता नहीं थी; इत्यादि। ये सभी मेरी कमियाँ थीं। आलोचनाओं से मेरी कुछ प्रतिष्ठा धूमिल पड़ गई होगी, लेकिन इससे मुझे अपने मुद्दे और स्पष्टता से पहचानने में मदद मिली। यह मेरे जीवन प्रवेश के लिए भी सहायक था। तो मुझे उससे घृणा और तिरस्कार क्यों करना चाहिए? जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही ज्यादा मैं प्रभावित हुई और ली शिन के प्रति मेरा पूर्वाग्रह आखिरकार पूरी तरह से गायब हो गया।

बाद में एक सभा के दौरान मैंने अपने द्वारा प्रकट भ्रष्टता और अपने जीवन प्रवेश के बारे में ली शिन से खुलकर बात की। एक बार जब मैंने ऐसे अभ्यास किया तो मुझे लगा कि हमारे बीच का मनमुटाव गायब हो गया है और मैं आखिरकार उसके साथ ठीक से व्यवहार कर सकती हूँ। बाद में ली शिन के साथ साझेदारी करते हुए मुझे एहसास हुआ कि रुतबे के लिए उसमें अभी भी बहुत तीव्र होड़ है और उसने खुद को बहुत ज्यादा नहीं जाना था। कभी-कभी मेरे बारे में उसका मूल्यांकन निष्पक्ष नहीं होता था। मैंने इसे परमेश्वर से स्वीकारने, अपने मुद्दों पर चिंतन करने और उग्रता से बदला लेने से बचने की कोशिश की, साथ ही भेद पहचानने और अवलोकन पर भी ध्यान केंद्रित किया। जब मैंने देखा कि ली शिन का भ्रष्ट स्वभाव काफी गंभीर हो चुका है, उसकी मानवता खराब है, वह सचमुच पश्चात्ताप करने में निरंतर विफल है और बाधा और गड़बड़ी पैदा कर रही है तो मैंने उसकी अवस्था की रिपोर्ट अगुआ को दे दी। आखिरकार ली शिन को बर्खास्त कर दिया गया। इस तरह से अभ्यास करने से मुझे बहुत शांति और मुक्ति महसूस हुई। परमेश्वर का धन्यवाद! इस अनुभव के माध्यम से मैंने पाया है कि सिर्फ सत्य का अभ्यास करके और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीकर ही हम वास्तव में एक मानवीय स्वरूप को जी सकते हैं।

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