71. क्या बुजुर्गों का सम्मान करना और युवाओं की देखभाल करना एक अच्छे व्यक्ति की पहचान है?
मेरा जन्म एक पारंपरिक चीनी परिवार में हुआ था। बचपन से ही मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया था कि मुझे एक सुशिक्षित, समझदार और विनम्र बच्ची बनना है, बड़ों को देखने पर उनको सम्मानपूर्वक अभिवादन करना है और अभद्रता नहीं करनी है वरना लोग कहेंगे कि मैं अशिष्ट हूँ। जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया, तो हमारे शिक्षक अक्सर हमें बताते थे कि चीन हमेशा से ही एक ऐसा देश रहा है जो रीति-रिवाजों और शिष्टाचार पर जोर देता है और यह कि लोगों को अपने व्यवहार में अच्छे आचरण का पालन करना चाहिए। मैं अपनी पाठ्यपुस्तकों में अक्सर कोंग रोंग के बड़े नाशपाती देने की कहानी जैसी नैतिक कहानियाँ पढ़ा करती थी, और ये कहानियाँ मेरे मन में गहराई से समा गई थीं। मैं सोचती थी कि एक व्यक्ति में उचित शिष्टाचार होना चाहिए, उसे बड़ों का आदर करना चाहिए और युवाओं की देखभाल करनी चाहिए; तभी वह एक सुसंस्कृत और अच्छा व्यक्ति बन सकता है। इसी पारंपरिक संस्कृति के अनुसार मैंने सदैव जीवन जिया, अपने बुजुर्गों के प्रति सम्मान और विनम्रता दिखाई और उन्हें कभी भी नाराज़ नहीं किया। यहाँ तक कि अगर कभी मैंने उन्हें कुछ गलत करते हुए देखा, तो भी मैं उनके सामने उनकी गलती की तरफ इशारा करने की हिम्मत नहीं कर पाई। परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य करना शुरू करने के बाद, कलीसिया में भी मैं सुशिक्षित और समझदार होने, बुजुर्गों का आदर और युवाओं की देखभाल करने के पारंपरिक विचारों के अनुसार जीती थी। खासतौर पर जब बड़े भाई-बहनों को संबोधित करने की बात आती थी, तो मैं कभी उनके नाम सीधे नहीं पुकारती थी, बल्कि हमेशा उन्हें आदरपूर्वक “श्रीमती फलां” या “श्रीमान फलां” कहकर संबोधित करती थी, ताकि लोग सोचें कि मैं विचारशील और शिष्ट हूँ। जब मैं किसी बड़े भाई-बहन के साथ भागीदारी करती थी और देखती थी कि उन्हें अपने कर्तव्यों में कुछ समस्याएँ हैं, तो मैं उन्हें बताने की हिम्मत नहीं करती थी। मैं मन ही मन में सोचती थी, “ये सभी भाई-बहन मेरे माता-पिता की पीढ़ी के हैं और उनमें से कुछ तो मेरे दादा या दादी की उम्र के भी हैं। अगर मैं उनकी समस्याओं की ओर सीधे इशारा करूँ, तो क्या वे यह नहीं कहेंगे कि मैं अनादर कर रही हूँ और अशिष्ट हूँ?” इसी कारण से, मैं शायद ही कभी उनकी समस्याओं की ओर इशारा करती थी। और अगर मैं कुछ कहती भी, तो पहले सही शब्द ढूँढ़ने और नरम लहजे में बोलने की कोशिश करती, ताकि उनके गौरव को कोई ठेस न पहुँचे। चूँकि मैं भाई-बहनों के सामने हमेशा परिष्कृत, सभ्य और शिष्ट तरीके से व्यवहार करती थी, हर कोई सोचता था कि मैं परिपक्व, स्थिर हूँ और मुझमें अच्छी मानवता है और मुझे लगता था कि ऐसा करके मैं सत्य का अभ्यास कर रही हूँ।
बाद में, मैंने कलीसिया में पाठ-आधारित कर्तव्य सँभाला। एक बार, अगुआ ने कहा कि पाठ-आधारित कार्य के लिए कर्मचारियों की कमी है। उसने बताया कि एक भाई वेन ताओ ने अतीत में पाठ-आधारित कर्तव्य किया है और उसे कुछ सिद्धांतों की समझ है, इसलिए वह उसे इस कार्य के लिए नियुक्त करना चाहती थी और उसने मुझे उसके साथ संगति करने को कहा। जब मैं वेन ताओ के साथ संगति करने गई, तो वह कर्तव्य करने के लिए तैयार हो गया, केवल इतना कहा कि उसकी सेहत खराब है और वह काम का अधिक बोझ नहीं उठा सकता। मैंने उसे बताया कि हम उसके स्वास्थ्य की स्थिति के आधार पर उसके कार्यभार को उचित रूप से व्यवस्थित कर सकते हैं और इस तरह उसका स्वास्थ्य और ऊर्जा अच्छी तरह से बनी रहेंगी। वह इस पर सहमत हो गया। हालाँकि कुछ ही दिन हुए थे कि जब अगुआ ने बताया कि वेन ताओ ने उसे एक पत्र लिखा है जिसमें उसने अपने खराब स्वास्थ्य का हवाला देते हुए कहा था कि वह पाठ-आधारित कर्तव्य करने के बजाय सुसमाचार फैलाना चाहता है। अगुआ ने मुझसे कहा कि मैं फिर से वेन ताओ के साथ संगति करूँ। मैंने मन ही मन में सोचा, “जब वह सुसमाचार फैलाएगा, तो उसे अक्सर इधर-उधर भाग-दौड़ करनी पड़ेगी; क्या उसे तब भी तकलीफ नहीं होगी? आखिर वह सुसमाचार फैलाने के लिए क्यों तैयार है, लेकिन पाठ-आधारित कर्तव्य करने के लिए तैयार नहीं है। क्या उसे कोई और मुश्किल आ रही है? या उसे लगता है कि पाठ-आधारित कर्तव्य करने से उसे सुर्खियों में आने का अवसर नहीं मिलेगा?” इसलिए मैं उसके साथ संगति करना चाहती थी, लेकिन मुझे यह भी चिंता थी कि अगर मैंने यह बात उसके सामने उठाई, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा। शायद वह मुझे कम उम्र और घमंडी कहेगा और कहेगा कि, “तुमने अभी हाल ही में परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया है और तुम अभी से मेरी समस्याओं की ओर इशारा कर रही हो। तुम अशिष्ट और असम्मानजनक हो!” वेन ताओ की उम्र को देखें तो उसे मुझसे बड़ा माना जा सकता है और जब भी मैं उसे मिलती, आमतौर पर उसे “श्रीमान वेन” कहती थी। अगर मैंने इस बार उसके सामने उसकी समस्याओं की ओर इशारा किया, क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मेरी परवरिश खराब है और मैं अनादरपूर्ण हूँ? यह सोचकर, मैंने निर्णय लिया कि मुझे अपना मुँह बंद रखना चाहिए। अगले दिन, जब मैं वेन ताओ से मिली, तो मैंने उससे केवल उसकी स्थिति के बारे में कुछ सवाल पूछे और पूछा कि क्या उसे अपने कर्तव्य को लेकर कोई चिंता है, और फिर मैंने अपने अनुभव के आधार पर उसके साथ संगति की। अंत में, वह पाठ-आधारित कर्तव्य जारी रखने के लिए सहमत हो गया।
इसके कुछ ही समय बाद, वेन ताओ ने एक सभा के दौरान अपनी स्थिति के बारे में चर्चा की और एक बहन ने उसकी समस्याओं की ओर इशारा करते हुए कहा, “क्या ऐसी कोई कठिनाई थी जिसके कारण तुमने पाठ-आधारित कर्तव्य करने से मना किया? या इसके पीछे तुम्हारा कोई उद्देश्य था? क्या यह इसलिए था क्योंकि यह कर्तव्य सुर्खियों से दूर है, या कुछ और कारण था?” इस बहन के याद दिलाने के कारण वेन ताओ ने आत्म-चिंतन करना शुरू कर दिया, उसे एहसास हुआ कि अपने कर्तव्य को लेकर उसका यह चुनाव उसकी प्रतिष्ठा और रुतबे की चाह से प्रभावित था। उसने सोचा कि सुसमाचार फैलाने से उसे सुर्खियों में आने का मौका मिलेगा, जिससे जहाँ भी वह जाएगा, वहाँ भाई-बहन उसकी बहुत प्रशंसा करेंगे। जबकि पाठ-आधारित कर्तव्य उसे सुर्खियों में नहीं लाएगा और किसी को यह पता ही नहीं चलेगा कि उसने कितना काम किया है। इसी कारण वह सुसमाचार फैलाना चाहता था, ऐसा कर्तव्य जो उसे सुर्खियों में रखे। इसके बाद वेन ताओ ने परमेश्वर के वचनों को खाया और पिया, आत्म-चिंतन किया और खुद को जानने की कोशिश की और उसे यह एहसास हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे की उसकी यह चाह उसे पौलुस के मार्ग पर ले जा रही थी। उसने अपने कर्तव्यों को लेकर अपनी गलत धारणा को बदला और एक अनुभवात्मक गवाही वाला लेख लिखा। यह सुनकर, मैंने आत्मचिंतन किया और सोचा कि, “मुझे भी पता था कि वेन ताओ के पाठ-आधारित कर्तव्य करने की अनिच्छा के पीछे कोई न कोई कारण जरूर था, तो फिर मैंने इतनी देर से प्रतिक्रिया क्यों दिखाई और मैं उसकी समस्याओं की ओर इशारा करने के लिए तैयार क्यों नहीं थी? मुझे यहाँ कौन सी चीज नियंत्रित कर रही है?” फिर, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “कलीसिया में, अगर कोई बुजुर्ग है या कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता है, तो तुम हमेशा उसे सम्मान देना चाहते हो। तुम उसे बोलने देते हो, भले ही वह बकवास कर रहा हो, उसे बीच में नहीं टोकते हो, और यहाँ तक कि जब वह कुछ गलत करता है और उसे काट-छाँट करने की जरूरत होती है, तब भी तुम उसका सम्मान बचाने की कोशिश करते हो और दूसरों के सामने उसकी आलोचना करने से बचते हो, यह सोचते हो कि चाहे उसके कार्य कितने भी अनुचित या भयानक क्यों न हों, सभी को उसे माफ करने और सहन करने की जरूरत है। तुम अक्सर दूसरों को सिखाते भी हो : ‘हमें बुजुर्गों को कुछ सम्मान देना चाहिए और उनकी गरिमा को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। हम उनके जूनियर हैं।’ यह ‘जूनियर’ शब्द कहाँ से आया है? (पारंपरिक संस्कृति से।) यह पारंपरिक सांस्कृतिक विचार से आया है। इसके अलावा, कलीसिया में एक खास माहौल बन गया है, जिसके तहत लोग बड़े भाई-बहनों से मिलने पर उन्हें गर्मजोशी से ‘भैया,’ ‘दीदी,’ ‘चाची’ या ‘बड़े भाई’ कहकर संबोधित करते हैं, जैसे कि हर कोई एक बड़े परिवार का हिस्सा हो; इन बड़े लोगों को अतिरिक्त सम्मान दिया जाता है, जो अनजाने में दूसरों के मन में छोटे लोगों के बारे में अच्छी छाप छोड़ देता है। पारंपरिक संस्कृति के यह तत्व चीनी लोगों के खून और विचारों में गहराई तक समाए हुए हैं, वे इस हद तक समाए हुए हैं कि वे कलीसियाई जीवन में लगातार फैलते रहते हैं और वहाँ के माहौल को आकार देते हैं। क्योंकि लोग अक्सर इन अवधारणाओं से प्रतिबंधित और नियंत्रित होते हैं, वे न केवल व्यक्तिगत रूप से उनका समर्थन करते हैं, इस दिशा में कार्य करने और अभ्यास करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, बल्कि दूसरों को भी ऐसा करने की मंजूरी देते हैं, उन्हें भी ऐसा करने का निर्देश देते हैं। पारंपरिक संस्कृति सत्य नहीं है; यह निश्चित है। लेकिन क्या लोगों के लिए यह जानना ही काफी है कि यह सत्य नहीं है? यह सत्य नहीं है, यह एक पहलू है; हमें इसका गहन-विश्लेषण क्यों करना चाहिए? इसकी जड़ क्या है? समस्या का सार कहाँ है? कोई इन चीजों को कैसे जाने दे सकता है? पारंपरिक संस्कृति का गहन-विश्लेषण करने का मकसद तुम्हारे दिल की गहराई में बसे इस पहलू के सिद्धांतों, विचारों और दृष्टिकोणों की तुम्हें एक नई समझ प्रदान करना है। यह नई समझ कैसे हासिल की जा सकती है? सबसे पहले, तुम्हें यह जानना होगा कि पारंपरिक संस्कृति शैतान से उत्पन्न होती है। और शैतान पारंपरिक संस्कृति के इन तत्वों को मनुष्यों में कैसे डालता है? शैतान, हर युग में इन विचारों, इन तथाकथित कहावतों और सिद्धांतों को फैलाने के लिए कुछ मशहूर हस्तियों और महान लोगों का इस्तेमाल करता है। फिर, धीरे-धीरे, ये विचार व्यवस्थित और ठोस हो जाते हैं, लोगों के जीवन के और करीब आते हैं, और अंततः वे लोगों के बीच व्यापक हो जाते हैं; धीरे-धीरे ये शैतानी विचार, कहावतें और सिद्धांत लोगों के मन में डाल दिए जाते हैं। शैतान से आने वाले इन विचारों और सिद्धांतों में शिक्षित होने के बाद, लोग इन्हें सबसे सकारात्मक चीजें मानते हैं जिनका उन्हें अभ्यास और पालन करना चाहिए। फिर शैतान इन चीजों का इस्तेमाल लोगों के मन को कैद करने और नियंत्रित करने के लिए करता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को ऐसी परिस्थितियों में शिक्षित, अनुकूलित और नियंत्रित किया जाता रहा है, जो आज तक जारी है। इन सभी पीढ़ियों ने माना है कि पारंपरिक संस्कृति सही और अच्छी है। कोई भी इन तथाकथित अच्छी और सही चीजों की उत्पत्ति या स्रोत का गहन-विश्लेषण नहीं करता है—यही वह चीज है जो समस्या को गंभीर बना देती है। यहाँ तक कि कुछ विश्वासी जो कई सालों से परमेश्वर के वचनों को पढ़ते आए हैं, वे अभी भी सोचते हैं कि ये सही और सकारात्मक चीजें हैं, इस हद तक कि वे मानते हैं कि ये सत्य की जगह ले सकती हैं, परमेश्वर के वचनों की जगह ले सकती हैं। इससे भी बढ़कर, कुछ लोग सोचते हैं, ‘चाहे लोगों के बीच रहते हुए हम परमेश्वर के कितने भी वचन क्यों न पढ़ लें, तथाकथित पारंपरिक विचार और संस्कृति के पारंपरिक तत्व—जैसे तीन आज्ञाकारिताएँ और चार गुण, साथ ही परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता जैसी अवधारणाएँ—छोड़े नहीं जा सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे हमारे पूर्वजों से आए हैं, जो संत थे। हम सिर्फ इसलिए अपने पूर्वजों की शिक्षाओं के खिलाफ नहीं जा सकते क्योंकि हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और हम अपने पूर्वजों की और उन प्राचीन संतों की शिक्षाओं को बदल या छोड़ नहीं सकते।’ ऐसे विचार और जागरूकता सभी लोगों के हृदय में मौजूद हैं। अनजाने में, वे सब अभी भी पारंपरिक संस्कृति के इन तत्वों द्वारा नियंत्रित और बंधे हुए हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई बच्चा देखता है कि तुम्हारी उम्र बीस-तीस साल है और वह तुम्हें ‘चाचा’ कहता है, तो तुम खुश और संतुष्ट महसूस करते हो। अगर वह तुम्हें सीधे तुम्हारे नाम से बुलाता है, तो तुम असहज महसूस करते हो, तुम सोचते हो कि बच्चा असभ्य है और उसे डांटना चाहिए, और तुम्हारा रवैया बदल जाता है। वास्तविकता में, चाहे वे तुम्हें चाचा कहे या तुम्हारे नाम से बुलाए, इसका तुम्हारी समग्रता पर कोई असर नहीं पड़ता। तो जब वह तुम्हें चाचा नहीं कहता तो तुम दुखी क्यों होते हो? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम पर पारंपरिक संस्कृति हावी और प्रभावी है; यह पहले से ही तुम्हारे मन में जड़ें जमा चुकी है और यह लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ व्यवहार करने और सभी चीजों का मूल्यांकन और निर्णय करने के लिए तुम्हारा सबसे बुनियादी मानक बन गई है। जब तुम्हारा मानक ही गलत है, तो क्या तुम्हारे कार्यों की प्रकृति सही हो सकती है? निश्चित रूप से नहीं हो सकती” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सटीक स्थिति को उजागर कर दिया। मैं पारंपरिक संस्कृति और विचारों जैसे बुजुर्गों का आदर करने, युवाओं की देखभाल करने, और परिष्कृत और सुसंस्कृत बनने से गहराई से प्रभावित थी। बचपन से ही, मेरे घर और स्कूल की शिक्षा ने मुझे यह विश्वास दिलाया था कि केवल शिष्ट, शिक्षित और समझदार होने पर ही मुझे एक अच्छा व्यक्ति माना जा सकता है, और जो लोग बुजुर्गों को अनुचित तरीके से संबोधित करते हैं और उनका आदर नहीं करते, वे अशिष्ट होते हैं और लोगों के आदर के योग्य नहीं होते। चाहे मैं गैर विश्वासियों के साथ बातचीत कर रही होती या परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य कर रही होती, मैं हमेशा इन्हीं पारंपरिक विचारों के अनुसार जीती थी, और मैं उन्हें अपने आचरण के लिए कानून मानती थी और मानती थी कि इस तरह का व्यवहार करने का मतलब है कि मैं सत्य का अभ्यास कर रही हूँ। जब मैं उन भाई-बहनों के साथ बातचीत करती जो मुझसे उम्र में बड़े होते थे, तो उनके सामने एक सकारात्मक छवि दिखाने के लिए कि मैं एक शिष्ट व्यक्ति हूँ, मैं कभी भी उन्हें सीधे उनके नाम से नहीं पुकारती थी, बल्कि उन्हें सम्मानपूर्वक “श्रीमान” या “श्रीमती” कहकर संबोधित करती थी। कभी-कभी जब मैं उनके कुछ भ्रष्ट खुलासों को देखती थी, तो मुझे एक ईमानदार व्यक्ति बनकर उनके साथ इस बारे में बात करनी चाहिए थी ताकि उन्हें इसे हल करने के लिए सत्य की खोज करने में मदद मिल सके, लेकिन भाई-बहनों के मन में बनी हुई अपनी सकारात्मक छवि को चकनाचूर होने से बचाने के लिए, मैं कभी उनकी समस्याओं की ओर सीधे इशारा करने की हिम्मत नहीं कर पाई। मुझे लगा कि ऐसा करना दिखाएगा कि मेरी परवरिश सही नहीं हुई है और मुझमें कोई शिष्टाचार नहीं था और अगर मैं कुछ कहती भी थी, तो मैं इधर-उधर की बातें करती थी और असल विषय पर बहुत सावधानी से बात करती थी, जिससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। पिछली बार की तरह, जब मैंने वेन ताओ के साथ उसके कर्तव्यों के बारे में इस मामले पर संगति की थी, तो मैंने स्पष्ट रूप से उसकी समस्या देखी थी कि वह अपने कर्तव्य को अस्वीकार कर रहा था और मुझे इस बात की तरफ इशारा करके उसकी मदद करनी चाहिए थी ताकि वह आत्मचिंतन कर सके और सबक सीख सके, लेकिन मैंने इस मुद्दे पर उसके साथ सीधे तौर पर चर्चा करने से परहेज किया, ताकि वह यह न सोचे कि मैं अनादर करती हूँ और मेरी परवरिश खराब हुई है और मैंने केवल कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर बात करके इस विषय को हल्का सा छुआ और सोचा कि यह समस्या को हल करने के लिए पर्याप्त था। हकीकत में, यह उसके लिए बिल्कुल भी मददगार नहीं था; इसके विपरीत, मैं उसे नुकसान पहुँचा रही थी! आखिरकार मुझे स्पष्ट हो गया कि बड़ों का सम्मान करना और युवाओं की देखभाल करना सत्य नहीं है और न ही यह स्व-आचरण का कोई सिद्धांत है, और न ही यह किसी व्यक्ति की मानवता की आलोचना का आधार है।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ा : “परमेश्वर मनुष्य से दूसरों का माप किस आधार पर करवाता है? वह मनुष्य को लोगों और चीजों को किसके अनुसार दिखवाता है? (अपने वचनों के अनुसार।) वह मनुष्य को लोगों को अपने वचनों के अनुसार दिखवाता है। विशेष रूप से, इसका अर्थ है उसके वचनों के अनुसार यह मापना कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं। यह तो रहा इसका एक हिस्सा। इसके अलावा, यह आधार भी है कि वह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं, उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है या नहीं, और वह सत्य के प्रति समर्पित हो सकता है या नहीं। क्या ये इसकी विशिष्टताएँ नहीं हैं? (हाँ, हैं।) तो, मनुष्य दूसरे की अच्छाई किस आधार पर मापता है? इस आधार पर कि वे सुसंस्कृत और सुनियंत्रित हैं या नहीं, खाना खाते समय अपने होंठ चाटते या निवाले खोजते हैं या नहीं, भोजन के लिए बैठने से पहले अपने बड़ों के बैठने का इंतजार करते हैं या नहीं। दूसरों को मापने के लिए वह ऐसी चीजों का इस्तेमाल करता है। क्या इन चीजों का इस्तेमाल करना सुशिक्षित और समझदार होने जैसे व्यवहार के मानक का इस्तेमाल करना नहीं है? (हाँ, है।) क्या ऐसे माप सटीक हैं? क्या वे सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं।) यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। तो फिर, इस तरह के माप से अंततः क्या नतीजा निकलता है? मापने वाला मानता है कि जो भी व्यक्ति सुशिक्षित और समझदार है, वह अच्छा व्यक्ति है, और अगर तुम उससे सत्य के बारे में संगति करवाओगे, तो वह हमेशा लोगों के मन में वही घरेलू नियम और शिक्षाएँ और अच्छे व्यवहार बैठाएगा। और लोगों के मन में ये चीजें बैठाने का नतीजा अंततः यह होता है कि ये चीजें लोगों को अच्छे व्यवहारों की ओर तो ले जाएँगी, लेकिन उन लोगों का भ्रष्ट सार बिल्कुल नहीं बदलेगा। काम करने का यह तरीका सत्य और परमेश्वर के वचनों से बिल्कुल अलग है। ऐसे लोगों में सिर्फ कुछ अच्छे व्यवहार होते हैं। तो, क्या अच्छे व्यवहार के कारण उनके अंदर के भ्रष्ट स्वभाव बदले जा सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पण और निष्ठा प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। ये लोग क्या बन गए हैं? फरीसी, जिनमें सिर्फ बाहरी अच्छा व्यवहार होता है, लेकिन जो मूलभूत रूप से सत्य नहीं समझते और परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो सकते। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) फरीसियों को देखो—दिखने में क्या वे निर्दोष नहीं थे? वे सब्त मनाते थे; सब्त के दिन वे कुछ नहीं करते थे। वे बोलचाल में विनम्र, काफी नियंत्रित और नियमों का पालन करने वाले, काफी सुसंस्कृत, काफी सभ्य और विद्वान थे। चूँकि वे स्वाँग रचने में अच्छे थे और परमेश्वर का भय बिल्कुल भी नहीं मानते थे, बल्कि उसकी आलोचना और निंदा करते थे, इसलिए अंत में उन्हें परमेश्वर द्वारा शाप दिया गया। परमेश्वर ने उन्हें पाखंडी फरीसी ठहराया, जो सभी दुष्ट हैं। ऐसे ही, जिस तरह के लोग सुशिक्षित और समझदार बनने के अच्छे व्यवहार को अपने आचरण और कार्य की कसौटी के रूप में इस्तेमाल करते हैं, वे स्पष्ट रूप से वे लोग नहीं हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। जब वे इस नियम का इस्तेमाल दूसरों को मापने और अपना आचरण और कार्य करने के लिए करते हैं, तो वे निस्संदेह सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे होते; और जब वे किसी व्यक्ति या चीज के बारे में कोई निर्णय लेते हैं, तो उस निर्णय के मानक और आधार सत्य के अनुरूप नहीं होते, बल्कि उसका उल्लंघन करते हैं। एकमात्र चीज जिस पर वे ध्यान केंद्रित करते हैं, वह है व्यक्ति का व्यवहार, उसके तरीके, न कि उसका स्वभाव और सार। उनका आधार परमेश्वर के वचन नहीं होते, सत्य नहीं होता; इसके बजाय, उनके माप परंपरागत संस्कृति के सुशिक्षित और समझदार होने जैसे व्यवहार के मानक पर आधारित होते हैं। इस तरह के माप का निष्कर्ष यह होता है कि अगर व्यक्ति में सुशिक्षित और समझदार होने जैसे बाहरी अच्छे व्यवहार हैं, तो वह अच्छा और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। जब लोग ऐसे वर्गीकरण अपनाते हैं, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति विरोधी रुख अपना लिया होता है। और जितना ज्यादा वे लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के लिए इस व्यवहारगत मानदंड का इस्तेमाल करते हैं, इसका नतीजा उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य से और भी दूर ले जाता है। फिर भी, वे जो कर रहे होते हैं, उसका आनंद लेते हैं और मानते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। परंपरागत संस्कृति के कुछ अच्छे कथनों को कायम रखकर वे मानते हैं कि वे सत्य और सच्चे मार्ग को कायम रख रहे हैं। लेकिन वे इन चीजों का चाहे जितना पालन करें, इन पर चाहे जितना जोर दें, अंततः उन्हें परमेश्वर के वचनों का, सत्य का कोई अनुभव नहीं होगा या पूरी समझ नहीं होगी, न ही वे परमेश्वर के प्रति जरा भी समर्पित होंगे। इससे परमेश्वर के प्रति सच्चा भय तो बिल्कुल भी उत्पन्न नहीं हो सकता। ऐसा तब होता है, जब लोग सुशिक्षित और समझदार होने जैसे तमाम अच्छे व्यवहार अपनाते हैं। मनुष्य अच्छे व्यवहार पर, उसे जीने पर, उसका अनुसरण करने पर जितना ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है, उतना ही वह परमेश्वर के वचनों से दूर होता जाता है—और मनुष्य परमेश्वर के वचनों से जितना ज्यादा दूर होता है, वह सत्य समझने में उतना ही कम सक्षम होता है। यह बिल्कुल सामान्य है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। बाहरी तौर पर, ऐसा लगता है कि पारंपरिक संस्कृति हमें शिक्षित, समझदार और महान व्यक्ति बनने में मदद करती है लेकिन वास्तविकता में, यह हमें यह सिखाती है कि कैसे छिपाया जाए और खुद को सजाया-सँवारा जाए और कैसे सतही झूठे दिखावे का उपयोग करके लोगों को धोखा दिया जाए। इस पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीवन जीते हुए हम केवल अस्थायी रूप से अच्छे व्यवहार का झूठा दिखावा कर सकते हैं और अपने भ्रष्ट स्वभाव को बिल्कुल भी हल नहीं कर सकते। पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीवन यापन करके, हम कभी भी सचमुच मानव समान नहीं जी सकते। एक विश्वासी के रूप में, परमेश्वर की हमसे अपेक्षा यह है : “पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2))। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों को परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ बोलना और कार्य करना चाहिए, अपने कर्तव्यों में परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करनी चाहिए, भाई-बहनों के साथ पूरी तरह से खुल कर और ईमानदारी से बातचीत करनी चाहिए और जीवन प्रवेश में एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए। यही वह मानवता और सूझ-बूझ है जो लोगों के पास होनी चाहिए। हालाँकि, मैंने खुद को परमेश्वर की माँगों के अनुसार संचालित नहीं किया, बल्कि शैतान द्वारा हमारे भीतर डाली गई पारंपरिक संस्कृति, जैसे कि शिक्षित, समझदार, परिष्कृत और सभ्य बनने को, सत्य के रूप में पकड़ लिया और सतही तौर पर अच्छे व्यवहार का उपयोग करके खुद को सजाया। खासतौर पर जब मैं बुजुर्ग भाई-बहनों के साथ साझेदारी करती थी और अंदर से स्पष्ट रूप से उन्हें पसंद नहीं करती थी, तो भी मैं उनके प्रति धैर्यवान और प्रेमपूर्ण होने का दिखावा करती थी और मैं इसका प्रयोग लोगों को गुमराह करने और उन्हें अपने बारे में अच्छी राय बनाने के लिए करती थी। जब मैं भाई-बहनों के कर्तव्यों में कोई समस्याएँ देखती थी, तो मैं उनकी ओर इशारा करके उनकी मदद नहीं करती थी, बल्कि हमेशा उनकी भावनाओं का ध्यान रखते हुए चुप रहती थी और यह सोचकर डरती रहती थी कि मेरे बोलने से उन्हें ठेस पहुँच सकती है। मुझे लगता था कि इस तरह से व्यवहार करने का मतलब है कि मैं भाई-बहनों का आदर कर रही थी और शोधन का प्रदर्शन कर रही थी, लेकिन वास्तविकता में, मैं इसका उपयोग खुद को एक परिष्कृत और सभ्य व्यक्ति के रूप में स्थापित करने के साधन के बतौर कर रही थी। मेरे जैसे व्यक्ति में मानवता कैसे हो सकती है? मैं स्वार्थी और धोखेबाज थी, उन पाखंडी फरीसियों से अलग नहीं थी जो लोगों को गुमराह करते थे। मैं पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीवन जी रही थी और अंतरात्मा और विवेक के बगैर अधिकाधिक बेईमान और धोखेबाज होती जा रही थी। मुझे यह भी समझ में आया कि परमेश्वर जो सत्य का अभ्यास करने की माँग करता है, वह केवल सतही तौर पर अच्छे व्यवहार का दिखावा करना नहीं है, बल्कि हर चीज को सत्य सिद्धांतों के अनुसार करने में सक्षम होना और अब और अपने भ्रष्ट स्वभाव के साथ जिंदगी गुजारना बंद करना है। इस बीच, मैंने गलती से ऐसी पारंपरिक संस्कृति को, जैसे बुजुर्गों का आदर और युवाओं की देखभाल करना, सत्य समझ लिया था, यह सोचकर कि जब तक मैं इन सतही अच्छे व्यवहारों पर अडिग रहूँगी, मैं सत्य का अभ्यास कर रही होंगी और मैंने परमेश्वर के वचनों और माँगों को मन में पीछे धकेल दिया होगा। क्या मैं वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने वाली थी? चाहे मैं इन अच्छे व्यवहारों का कितना भी पालन कर लेती, यह चीज इस बात का सबूत नहीं था कि मैं सत्य का अभ्यास कर रही थी और मेरे लिए परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करना असंभव होता।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों से अभ्यास का मार्ग खोजा। मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ा : “लोगों के बोलने का और उनके कार्यों का आधार क्या होना चाहिए? परमेश्वर के वचन। तो, लोगों के बोलने और उनके कार्यों के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ और मानक हैं? (कि वे लोगों के लिए रचनात्मक हों।) सही कहा। सबसे बुनियादी तौर पर तुम्हें सच बोलना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए और दूसरों को फायदा पहुँचाना चाहिए। कम से कम, तुम्हारा बोलना लोगों को शिक्षित करे, उन्हें छले नहीं, गुमराह न करे, उनका मजाक न उड़ाए, उन पर व्यंग्य न करे, उनका उपहास न करे और उनकी हँसी न उड़ाए, उन्हें जकड़े नहीं, उनकी कमजोरियाँ उजागर न करे, न उन्हें चोट पहुँचाए। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। यह मानवता का गुण है। क्या परमेश्वर ने तुम्हें बताया है कि कितनी ऊँची आवाज में बोलना है? क्या उसने यह अपेक्षा की है कि तुम मानक भाषा का प्रयोग करो? क्या उसने यह अपेक्षा की है कि तुम लच्छेदार बयानबाजी या उदात्त, परिष्कृत भाषा-शैली का इस्तेमाल करो? (नहीं।) उसने इन सतही, पाखंडपूर्ण, झूठी, ठोस रूप से अलाभप्रद चीजों में से किसी की भी लेशमात्र अपेक्षा नहीं की है। परमेश्वर की सभी अपेक्षाएँ वे चीजें हैं, जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए, वे मनुष्य की भाषा और व्यवहार के लिए मानक और सिद्धांत हैं। कोई कहाँ जन्मा है या कौन-सी भाषा बोलता है, यह मायने नहीं रखता। हर हाल में, तुम जो भी शब्द बोलो—उनकी शब्दावली और विषयवस्तु—दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होनी चाहिए। उनके लिए शिक्षाप्रद होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि दूसरे लोग उन्हें सुनकर सच मानें, उनसे समृद्ध होकर सहायता प्राप्त करें, सत्य समझ सकें, अब और भ्रमित न हों, न ही आसानी से दूसरों से गुमराह हों। इसलिए परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सच बोलें, वही कहें जो वे सोचते हैं, दूसरों को छलें नहीं, उन्हें गुमराह न करें, उनका मजाक न उड़ाएँ, उन पर व्यंग्य न करें, उनका उपहास न करें, उनकी हँसी न उड़ाएँ, या उन्हें जकड़ें नहीं, या उनकी कमजोरियाँ उजागर न करें, या उन्हें चोट न पहुँचाएँ। क्या ये बोलने के सिद्धांत नहीं हैं? यह कहने का क्या मतलब है कि लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए? इसका मतलब है दूसरे लोगों पर कीचड़ न उछालना। उनकी आलोचना या निंदा करने के लिए उनकी पिछली गलतियाँ या कमियाँ न पकड़े रहो। तुम्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए। सक्रिय पहलू से, रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न? ... और संक्षेप में, बोलने के पीछे का सिद्धांत क्या है? वह यह है : वह बोलो जो तुम्हारे दिल में है, और अपने सच्चे अनुभव सुनाओ और बताओ कि तुम वास्तव में क्या सोचते हो। ये शब्द लोगों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं, वे लोगों को पोषण प्रदान करते हैं, वे उनकी मदद करते हैं, वे सकारात्मक हैं। वे नकली शब्द कहने से इनकार कर दो, जो लोगों को लाभ नहीं पहुँचाते या उन्हें कुछ नहीं सिखाते; यह उन्हें नुकसान पहुँचने या उन्हें गलती करने, नकारात्मकता में डूबने और नकारात्मक प्रभाव ग्रहण करने से बचाएगा। तुम्हें सकारात्मक बातें कहनी चाहिए। तुम्हें लोगों की यथासंभव मदद करने, उन्हें लाभ पहुँचाने, उन्हें पोषण प्रदान करने, उनमें परमेश्वर में सच्ची आस्था पैदा करने का प्रयास करना चाहिए; और तुम्हें लोगों को मदद लेने देनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभवों से और समस्याएँ हल करने के अपने ढंग से बहुत-कुछ हासिल करने देना चाहिए, और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने के मार्ग को समझने में सक्षम होने देना चाहिए, उन्हें जीवन-प्रवेश करने और अपना जीवन विकसित करने देना चाहिए—जो कि तुम्हारे शब्दों में सिद्धांत के होने और उनके लोगों के लिए शिक्षाप्रद होने का परिणाम है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि लोगों के साथ बातचीत करने के सिद्धांत पारंपरिक संस्कृति द्वारा सिखाए गए बुजुर्गों का सम्मान करने, युवाओं की देखभाल करने और शिष्टाचारपूर्ण व्यवहार करने पर आधारित नहीं हैं और न ही ये इस बात से जुड़े हैं कि हम नरम, परिष्कृत और सभ्य भाषा में बात करते हैं या नहीं। बल्कि इसमें यह देखना होता है कि जो हम कहते हैं वह सत्य के अनुरूप है या नहीं और क्या यह भाई-बहनों के लिए शिक्षाप्रद है या नहीं। परमेश्वर के घर में, भाई-बहनों को किसी रुतबे के आधार पर अलग नहीं किया जाता, न ही लोगों को वरिष्ठता के क्रम में इस आधार पर व्यवस्थित किया जाता है कि कौन सबसे पुराना है या कौन सबसे लंबे समय तक परमेश्वर पर विश्वास करता आया है। चाहे भाई-बहन बूढ़े हों या युवा, जो भी परमेश्वर में विश्वास करता है और अपने कर्तव्यों को पूरा करता है, उसका रुतबा समान होता है। जब लोग दूसरों की समस्याओं को देखते हैं, तो वे सत्य पर संगति कर सकते हैं और एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं, साथ ही, जब आवश्यक हो, वे सीधे समस्याओं की ओर इशारा कर सकते हैं और परमेश्वर के वचनों के आधार पर संगति, मार्गदर्शन और काट-छाँट कर सकते हैं। जब तक किसी के इरादे सही हैं और वह दूसरों का जान-बूझकर लाभ उठाने और उन्हें चोट पहुँचाने के बजाय भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में मदद कर सकता है तब तक उनका थोड़ा कठोर लहजे में बोलना भी स्वीकार्य है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे सिर्फ मेरे बोलने के तरीके या लहजे के कारण मेरे प्रति पूर्वाग्रह विकसित नहीं करेंगे, न ही मुझे केवल इसलिए तुच्छ समझेंगे क्योंकि मैं बस एक युवा हूँ। इसके बजाय, वे इसे परमेश्वर से स्वीकार करेंगे, सत्य की खोज करेंगे और अपनी समस्याओं को समझने की कोशिश करेंगे। मुझे किसी तरह की चिंता या गलतफहमी रखने की आवश्यकता नहीं है। जिस बहन ने वेन ताओ की समस्याओं की ओर इशारा किया था, वह भी काफी युवा थी, और जब उसने समस्या पहचानी, तो वह पूरी तरह से खुलकर और शुद्ध हृदय से बोल पाई, जिससे वेन ताओ को खुद को समझने में मदद मिली। वें ताओ इस बहन की युवावस्था के कारण नाराज़ नहीं हुई, बल्कि उसने उसकी बात को खुले मन से स्वीकार किया और सत्य की खोज भी की, आत्मचिंतन भी किया और खुद को समझने की कोशिश भी की, और इससे उसे वास्तविक लाभ हुआ। जहाँ तक मेरी बात है, मैं लगातार बड़ों का सम्मान करने और युवाओं की देखभाल करने जैसी पारंपरिक संस्कृति के अनुसार ही जी रही थी। जब मैंने वेन ताओ की समस्याओं को देखा, तो मैं प्रतिक्रिया देने में धीमी थी और उनकी तरफ इशारा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई बस कुछ सतही और बेईमानी भरे शब्द कहे ताकि खुद को छिपा सकूँ और यह चाहा कि वेन ताओ के मन में मेरे प्रति एक अच्छी धारणा बने। मेरा इस तरह का व्यवहार वेन ताओ के लिए शिक्षाप्रद नहीं था और न ही इससे कलीसिया के कार्य को कोई लाभ हुआ। मुझे यह भी समझ में आया कि केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना ही उसके इरादों के अनुरूप होना है और यह कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन के लिए लाभदायक होता है। इसके बाद, जब मैंने देखा कि भाई-बहन अपने कर्तव्यों में भ्रष्टता का खुलासा कर रहे हैं या ऐसी चीजें कर रहे हैं जिनसे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है, तो मैंने उनकी समस्याओं की ओर इशारा करती थी और उनकी मदद करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करती थी, चाहे वे मुझसे उम्र में बड़े ही क्यों न हों। हालाँकि, कुछ भाई-बहन शुरुआत में अपनी समस्याओं को पहचानने और मेरी मदद को स्वीकार करने में असमर्थ थे, लेकिन समय के साथ, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने, खोजने और आत्मचिंतन करने से वे मेरी सलाह को स्वीकार कर सके और उनसे कुछ सबक भी सीख सके।
एक समय ऐसा भी आया जब मैंने देखा कि अगुआ हर दिन काफी व्यस्त दिखती थी लेकिन वास्तव में वह बस औपचारिकता निभा रही थी और कार्यान्वयन के दौरान निर्देशों को आगे बढ़ा रही थी। वह कलीसिया के कार्य में स्पष्ट समस्याओं को हल करने के बारे में नहीं सोचती थी और न ही उसने भाई-बहनों की वास्तविक स्थितियों के बारे में पूछा। अगर सब कुछ इसी तरह चलता रहता, तो कलीसिया के कार्य के अच्छे परिणाम प्राप्त करना मुश्किल हो जाता। मैंने मन ही मन में सोचा, “मैंने पहले इस समस्या का उल्लेख उसके सामने परोक्ष रूप से किया था, लेकिन शायद उसने इस मुद्दे की गंभीरता को महसूस नहीं किया। शायद मुझे उसे फिर से यह बात बतानी चाहिए।” लेकिन फिर, मैंने सोचा कि यह अगुआ मेरी माँ की उम्र की है और मेरे लिए एक बुजुर्ग की तरह है और मैं बचपन से उसे आदरपूर्वक संबोधित करती आई हूँ। अगर मैंने उसे यह कहकर आरोपित किया कि वह वास्तविक कार्य नहीं कर रही है और एक झूठी अगुआ की तरह व्यवहार कर रही है, तो क्या वह नहीं सोचेगी कि मैं अनादर कर रही हूँ? शायद इसके बारे में उच्च-स्तरीय अगुआओं को रिपोर्ट करना और उन्हें इसके बारे में संगति करने देना बेहतर होगा। इस विचार के आने पर, मैंने परमेश्वर के वचनों के वचनों के बारे में सोचा : “तुम्हें सच बोलना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए और दूसरों को फायदा पहुँचाना चाहिए। कम से कम, तुम्हारा बोलना लोगों को शिक्षित करे” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। मुझे अचानक एहसास हुआ कि इस मामले में मेरा दृष्टिकोण गलत था। मैंने स्पष्ट रूप से देखा था कि इस अगुआ के कर्तव्य में समस्याएँ थीं, और मुझे उनकी ओर इशारा करके उसकी मदद करनी चाहिए थी ताकि वह अपनी समस्याओं को पहचान सके और तुरंत सुधार कर सके। ऐसा करना उसके लिए और कलीसिया के कार्य के लिए लाभकारी होता। हालाँकि, मैं झिझकी और कहने की हिम्मत नहीं कर पाई, क्योंकि मैं अब भी बड़ों का सम्मान करने और युवाओं की देखभाल करने जैसे पारंपरिक विचारों और शैतान के जीवन-निर्वाह के नियमों से नियंत्रित थी। यह बहन वर्तमान में अपनी समस्याओं से अनजान थी और उसे अपने आसपास ऐसे भाई-बहनों की आवश्यकता थी, जो प्यार से उनकी ओर ध्यान दिलाएँ और उसकी मदद करें। चूँकि मैंने उसकी समस्याओं को देखा था, मुझे उनसे इसका उल्लेख करना चाहिए था। यही मेरी जिम्मेदारी निभाने का सही तरीका होता। इसके बाद, अगली बार जब मैं उस अगुआ से मिली, तो मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश लिया और उसके साथ संगति की और मैंने उसे यह भी बताया कि केवल सभाएँ आयोजित करके और समस्याओं का समाधान किए बिना, वह झूठे अगुआ के मार्ग पर चल रही थी। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, उसने स्वीकार किया कि उसमें एक झूठे अगुआ होने की अभिव्यक्तियाँ दिख रही थीं और उसने इस पर आत्म-चिंतन किया कैसे उसने देह को महत्व दिया और चिंता या कीमत चुकाना नहीं चाहा, और वह आगे चलकर सुधार करने के लिए तैयार थी। इसके बाद, वह थोड़ा बदल गई, अपने काम में और अधिक विस्तृत हो गई और कुछ समस्याओं के हल के लिए भाई-बहनों के साथ संगति कर उनकी मदद करने लगी। मैंने अपने दिल ही दिल में परमेश्वर का धन्यवाद किया!
इस अनुभव से, मैंने देखा कि शैतान की पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीवन जीना हमें सतही रूप से सम्मानजनक और शिष्ट दिखा सकता है और दूसरों का आदर अर्जित करने में मदद कर सकता है, लेकिन यह हमारे भ्रष्ट स्वभाव को बिल्कुल भी नहीं बदलता। इन चीजों के अनुसार जीवन जीने से, हम एक मुखौटा पहन लेते हैं और धीरे-धीरे अधिक पाखंडी बनते जाते हैं और लोगों के प्रति बेईमान होते जाते हैं। केवल लोगों और चीजों को देखकर, खुद आचरण करके और परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करके ही कोई व्यक्ति जो कुछ भी करता है वह कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन के लिए फायदेमंद हो सकता है, और केवल तभी कोई व्यक्ति सच्चे मानव समान जी सकता है।