72. क्या रुतबा होना उद्धार की गारंटी है?

क्लाउड, कैमरून

मई 2018 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। एक साल बाद मुझे एक कलीसिया अगुआ चुना गया और फिर चार साल बाद कैमरून में एक कलीसिया सुपरवाइजर चुन लिया गया। मुझे लगा कि मैं उत्कृष्ट हूँ, मानो मैं कोई दूसरे लोगों से श्रेष्ठ हूँ। मेरी यह धारणा बन गई कि रुतबे वाले लोगों को परमेश्वर ज्यादा महत्व देता है, ये लोग दूसरों से ज्यादा मूल्यवान होते हैं और इनके पास बचाए जाने की बेहतर संभावना होती है। पिछले कुछ साल से अगुआ होने के कारण मैंने बहुत कुछ हासिल किया था, इसलिए मैं अपने उद्धार को लेकर आश्वस्त था। इसी वजह से मैं अपने कर्तव्य के प्रति अधिक प्रेरित रहता था। रात को जब दूसरे लोग सोने जा चुके होते थे तो मैं तब भी अपना कर्तव्य निभा रहा होता था। मुझे लगता था कि मैं दूसरों से ज्यादा कीमत चुका रहा हूँ और ज्यादा जिम्मेदारियाँ उठा रहा हूँ, इसलिए परमेश्वर मुझे अधिक आशीष देगा। एक अगुआ के रूप में मैं श्रेष्ठता की भावना के साथ हमेशा अपना सिर ऊँचा उठाकर चलता था। मुझे लगता था कि जब तक मैं अगुआ रहता हूँ, मेरा उद्धार सुनिश्चित है। लेकिन जैसा मैंने सोचा था, वैसा हुआ नहीं।

सुसमाचार कार्य के लिए लोगों की तुरंत जरूरत थी, इसलिए मुझे सुसमाचार फैलाने के लिए भेज दिया गया। इसमें सब कुछ सुचारु रूप से चला और अपने कर्तव्य में मुझे कुछ अच्छे खासे नतीजे मिले। समूह का अगुआ बनने में मुझे ज्यादा देर नहीं लगी। तरक्की पाकर मैं बेहद खुश था। अब मैं एक समूह का अगुआ भी था और कलीसिया का सुपरवाइजर भी। मुझे लगा कि अब मैं उद्धार के और भी करीब हूँ, कि मेरी मंजिल और अधिक सुरक्षित हो गई है। सितंबर 2022 की शुरुआत में मुझे न्यू लाइट कलीसिया में कर्तव्य निभाने भेज दिया गया। वहाँ पहले से ही सुसमाचार समूह अगुआ और कलीसिया सुपरवाइजर थे। इसलिए मैं एक साधारण सुसमाचार प्रचारक बनकर रह गया और मेरे पास सुसमाचार समूह अगुआ और कलीसिया सुपरवाइजर की पदवियाँ नहीं रहीं। ऐसे बदलावों का सामना होने पर मुझे लगा कि मेरा रुतबा घट गया है। मुझमें श्रेष्ठता का बोध नहीं रहा और मुझे यह भी लगा कि मैं शायद अपने उद्धार का अवसर गँवा बैठा हूँ। उसके बाद मेरा कर्तव्य-निर्वहन का जोश जाता रहा और मैं बस खामोश रहना चाहता था। जब मेरे पास रुतबा था तो मैं सिर उठाकर चलता था, बहुत गर्व महसूस करता था, लेकिन रुतबे के बिना मैं उत्साह खो बैठा। फिर भी मैं यह सोचकर उम्मीद लगाए रहा, “मैं अभी-अभी तो आया हूँ, न्यू लाइट कलीसिया के भाई-बहन मुझे अभी जानते ही कहाँ हैं। अगर मैं मेहनत से अपना कर्तव्य निभाता रहा तो अपनी काबिलियत और कार्यक्षमताओं के कारण मैं यकीनन अपने आसपास के लोगों का ध्यान खींच लूँगा और देर-सबेर फिर से कलीसिया का अगुआ चुन लिया जाऊँगा। मेरे पास बचाए जाने की अभी भी उम्मीद है!” यह सोचकर मैं बहुत ज्यादा निराश नहीं हुआ और अपना कर्तव्य निभाता रहा।

दिसंबर 2022 के अंत में न्यू लाइट कलीसिया को फिर से कलीसिया सुपरवाइजर चुनने की जरूरत पड़ी। चुनाव प्रक्रिया के दौरान मैं खूब आत्मविश्वास से भरा था और मुझे लगता था कि मैं निश्चित रूप से चुन लिया जाऊँगा क्योंकि सब जानते थे कि मैं कई बरस अगुआ रह चुका हूँ और इसके लिए मुझमें योग्यताएँ हैं। लेकिन अनपेक्षित रूप से जब मतदान के आँकड़े सामने आए तो पता चला कि मुझे सिर्फ दो वोट मिले हैं। मैं चुनाव हार चुका था। इसे बर्दाश्त करना वास्तव में कठिन था। मुझे लगा कि मैं बिल्कुल बेकार हूँ, मानो किसी पक्षी के सारे पंख उखाड़ दिए गए हों और दूसरों की निगाहें मुझे काट खाने को आती थीं। उस दौरान मैं बहुत नकारात्मक होकर परमेश्वर के प्रति गलतफहमियाँ पालने लगा था। मुझे लगता था कि रुतबा मिलने से मैं अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभा सकता हूँ और परमेश्वर से स्वीकृति पा सकता हूँ। अब जबकि मैं अपना रुतबा खो चुका था तो मुझे लगता था कि इसका मतलब यह है कि परमेश्वर अब मुझे बचाएगा नहीं और मैं अपनी अच्छी मंजिल गँवा चुका हूँ। मेरा मन समूह की सभाओं में हिस्सा लेने या अपने भाई-बहनों के संदेशों का जवाब देने का नहीं करता था। मैं बस खुद को छिपा लेना और बाहरी दुनिया से काट लेना चाहता था। मैं अनिच्छा से सभाओं में जाता था और इन सभाओं के दौरान मैं संगति में सक्रिय होकर भाग नहीं लेता था। मैं नहीं चाहता था कि लोग मेरी उपस्थिति पर गौर करें क्योंकि मेरे पास कोई रुतबा नहीं बचा था। मुझे यह डर था कि भाई-बहन मुझे बस एक ऐसे पूर्व अगुआ के रूप में याद रखेंगे जिसे हटा दिया गया था। यहाँ तक कि मैं परमेश्वर के वचन पढ़ना या प्रार्थना करना भी नहीं चाहता था और जब प्रार्थना करता भी था तो अनमना रहता था और यह नहीं जानता था कि परमेश्वर से क्या कहना है। मैं अपने कर्तव्य में सक्रिय नहीं था और कभी-कभी अपने दिल को शांत नहीं रख पाता था और खबरों की वेबसाइटों, राजनीतिक वेबसाइटों और जानवरों के वीडियो देखा करता था। ये चीजें देखकर मुझे ऐसा नहीं लगता था कि मुझे कुछ हासिल हुआ है और मैं अंदर से खालीपन महसूस करता था। मुझे लगा कि मेरी दशा ठीक नहीं है और यह भी लगा कि चुनाव में मेरी हार के पीछे परमेश्वर का इरादा हो सकता है। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, अब मैं अपने कर्तव्य निभाने के लिए खुद को शांत नहीं रख पाता हूँ और तुमसे भी दूर रहना चाहता हूँ। मैं नहीं समझ रहा हूँ कि मैं ऐसा क्यों हो गया हूँ। मुझे प्रबोधन और मार्गदर्शन दो ताकि मैं अपनी दशा को समझ सकूँ।”

फिर मैंने अपनी दशा के बारे में भाई मैथ्यू को बताया और उसने मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़ाए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम लोगों के अनुसरण में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं की काट-छाँट करने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। लोगों के हृदय में इन चीज़ों के होने का कारण पूरी तरह से यह है कि शैतान का विष हमेशा लोगों के विचारों को दूषित कर रहा है, और लोग शैतान के इन प्रलोभनों से पीछा छुड़ाने में हमेशा असमर्थ रहे हैं। वे पाप के बीच रह रहे हैं, मगर इसे पाप नहीं मानते, और अभी भी सोचते हैं : ‘हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें आशीष प्रदान करना चाहिए और हमारे लिए सब कुछ सही ढंग से व्यवस्थित करना चाहिए। हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए हमें दूसरों से श्रेष्ठतर होना चाहिए, और हमारे पास दूसरों की तुलना में बेहतर हैसियत और बेहतर भविष्य होना चाहिए। चूँकि हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें असीम आशीष देनी चाहिए। अन्यथा, इसे परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं कहा जाएगा।’ ... क्या तुम लोगों के वर्तमान विचार और दृष्टिकोण ठीक ऐसे ही नहीं हैं? ‘चूँकि मैं परमेश्वर पर विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझ पर आशीषों की वर्षा होनी चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मेरी हैसियत कभी न गिरे, यह अविश्वासियों की तुलना में अधिक बनी रहनी चाहिए।’ तुम्हारा यह दृष्टिकोण कोई एक-दो वर्षों से नहीं है; बल्कि बरसों से है। तुम लोगों की लेन-देन संबंधी मानसिकता कुछ ज़्यादा ही विकसित है। यद्यपि आज तुम लोग इस चरण तक पहुँच गए हो, तब भी तुम लोगों ने हैसियत का राग अलापना नहीं छोड़ा, बल्कि लगातार इसके बारे में पूछताछ करते रहते हो, और इस पर रोज नज़र रखते हो, इस गहरे डर के साथ कि कहीकहीं किसी दिन तुम लोगों की हैसियत खो न जाए और तुम लोगों का नाम बर्बाद न हो जाए। लोगों ने सहूलियत की अपनी अभिलाषा का कभी त्याग नहीं किया(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। “अब तुम लोग अनुयायी हो, और तुम लोगों को कार्य के इस स्तर की कुछ समझ प्राप्त हो गयी है। लेकिन, तुम लोगों ने अभी तक हैसियत के लिए अपनी अभिलाषा का त्याग नहीं किया है। जब तुम लोगों की हैसियत ऊँची होती है तो तुम लोग अच्छी तरह से खोज करते हो, किन्तु जब तुम्हारी हैसियत निम्न होती है तो तुम लोग खोज नहीं करते। तुम्हारे मन में हमेशा हैसियत के आशीष होते हैं। ऐसा क्यों होता है कि अधिकांश लोग अपने आप को निराशा से निकाल नहीं पाते? क्या उत्तर हमेशा निराशाजनक संभावनाएँ नहीं होता? ... जितना अधिक तू इस तरह से तलाश करेगी उतना ही कम तू पाएगी। हैसियत के लिए किसी व्यक्ति की अभिलाषा जितनी अधिक होगी, उतनी ही गंभीरता से उसकी काट-छाँट की जाएगी और उसे उतने ही बड़े शोधन से गुजरना होगा। इस तरह के लोग निकम्मे होते हैं! उनकी अच्छी तरह से काट-छाँट करने और उनका न्याय करने की ज़रूरत है ताकि वे इन चीज़ों को पूरी तरह से छोड़ दें। यदि तुम लोग अंत तक इसी तरह से अनुसरण करोगे, तो तुम लोग कुछ भी नहीं पाओगे। जो लोग जीवन का अनुसरण नहीं करते वे रूपान्तरित नहीं किए जा सकते; जिनमें सत्य की प्यास नहीं है वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। तू व्यक्तिगत रूपान्तरण का अनुसरण करने और प्रवेश करने पर ध्यान नहीं देता; बल्कि तू हमेशा उन अनावश्यक अभिलाषाओं और उन चीज़ों पर ध्यान देती है जो परमेश्वर के लिए तेरे प्रेम को बाधित करती हैं और तुझे उसके करीब आने से रोकती हैं। क्या ये चीजें तुझे रूपान्तरित कर सकती हैं? क्या ये तुझे राज्य में ला सकती हैं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने आत्म-चिंतन किया। कलीसिया में शामिल होने के बाद से ही मैं हमेशा अगुआ रहा था और मैं मानता था कि मेरे पास रुतबा होना मेरे उद्धार की गारंटी है। जैसे-जैसे साल गुजरते गए, मेरा ध्यान रुतबे पर बढ़ता गया। मुझे जितनी ज्यादा तरक्की मिलती गई, उतना ही ज्यादा मुझे यह लगा कि परमेश्वर मुझे महत्व और मान्यता देता है, जिससे मुझे अपने कर्तव्य में कष्ट सहने और कीमत चुकाने में मदद मिली। मुझे यहाँ तक लगता था कि अगर परमेश्वर आज अपना कार्य समाप्त कर दे तो मुझे इस लायक होना चाहिए कि बचा लिया जाऊँ। चुनाव के दौरान मुझे उम्मीद थी कि मैं चुन लिया जाऊँगा और मुझे लगता था कि मैं अतीत में अगुआ होने के नाते दूसरों से ज्यादा योग्य हूँ। लेकिन मैं चुनाव हार गया और मुझे रुतबा हासिल नहीं हुआ। मुझे लगा कि यह मेरी एक नाकामी है और मैं बचाए जाने की उम्मीद खो चुका हूँ, इसलिए मैंने अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो दी। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने बंद कर दिए, भाई-बहनों के संदेशों को नजरअंदाज कर दिया, मैं सभाओं में मनमाने ढंग से हिस्सा लेता था और मैंने सुसमाचार प्राप्त करने वाले संभावित लोगों की समय पर निगरानी नहीं की। मेरा मन भाई-बहनों के साथ बातचीत या संपर्क का नहीं करता था। मैं बस अकेला रहना चाहता था। मैं परमेश्वर के समक्ष खुद को शांत नहीं रख पाता था और सत्य के अनुसरण की इच्छा खो बैठा था। मैं लौकिक फिल्में तक देखने लगा था। मेरा दिल कलुषित होता गया और मुझे लगा कि मैं पवित्र आत्मा का कार्य खो चुका हूँ। परमेश्वर कहता है : “तू व्यक्तिगत रूपान्तरण का अनुसरण करने और प्रवेश करने पर ध्यान नहीं देता; बल्कि तू हमेशा उन अनावश्यक अभिलाषाओं और उन चीज़ों पर ध्यान देती है जो परमेश्वर के लिए तेरे प्रेम को बाधित करती हैं और तुझे उसके करीब आने से रोकती हैं। क्या ये चीजें तुझे रूपान्तरित कर सकती हैं? क्या ये तुझे राज्य में ला सकती हैं?” रुतबे का अनुसरण मुझे सत्य या अच्छी मंजिल प्रदान नहीं कर सकता है और रुतबा होना मुझे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं दिला सकता है। चूँकि रुतबे का अनुसरण एक भ्रष्ट स्वभाव है और यह शैतान से आता है, इसलिए यह मेरे सत्य के अनुसरण को बाधित करता है और मुझे परमेश्वर से दूर होने और उसका विरोध करने की ओर ले जाता है। अंत में यह मुझे बर्बादी की ओर ही ले जा सकता है। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह दिखाया कि इस चुनावी हार के पीछे परमेश्वर का इरादा था। परमेश्वर इस हार का इस्तेमाल मेरी रुतबे की इच्छा की काट-छाँट करने और मुझे रुतबे की असंयमी इच्छा छोड़ने और आत्मचिंतन करने के लिए कर रहा था। परमेश्वर के दिली इरादे को समझकर मैंने उससे प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं खुद को जान सकूँ।”

बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन और अनुभवजन्य गवाहियों के कुछ लेख पढ़े। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कुछ लोगों का मानना है कि अगर उन्होंने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो उनके बचाए जाने की संभावना है। कुछ लोग सोचते हैं कि अगर वे बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हैं, तो उनके बचाए जाने की संभावना है, या कुछ लोग सोचते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता निश्चित रूप से बचाए जाएँगे। ये सभी मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को समझना चाहिए कि उद्धार का क्या अर्थ होता है। मुख्य रूप से बचाए जाने का अर्थ है पाप से मुक्त होना, शैतान के प्रभाव से मुक्त होना, सही मायने में परमेश्वर की ओर मुड़ना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना। पाप से और शैतान के प्रभाव से मुक्त होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? सत्य होना चाहिए। अगर लोग सत्य प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के कई वचनों से युक्त होना चाहिए, उन्हें उनका अनुभव और अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे सत्य को समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। तभी उन्हें बचाया जा सकता है। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि उसने कितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, उसके पास कितना ज्ञान है, उसमें गुण या खूबियाँ हैं या नहीं, या वह कितना कष्ट सहता है। एकमात्र चीज, जिसका उद्धार से सीधा संबंध है, यह है कि व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं। तो आज, तुमने वास्तव में कितने सत्य समझे हैं? और परमेश्वर के कितने वचन तुम्हारा जीवन बन गए हैं? परमेश्वर की समस्त अपेक्षाओं में से तुमने किसमें प्रवेश किया है? परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों के दौरान तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है? अगर तुम नहीं जानते या तुमने परमेश्वर के किसी भी वचन की किसी वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो स्पष्ट रूप से, तुम्हारे उद्धार की कोई आशा नहीं है। तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। यह कुछ महत्व नहीं रखता कि तुम्हारे पास उच्च स्तर का ज्ञान है या नहीं, या तुमने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है या नहीं, तुम्हारा रूप-रंग अच्छा है या नहीं, तुम अच्छा बोल सकते हो या नहीं, और तुम कई वर्षों तक अगुआ या कार्यकर्ता रहे हो या नहीं। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और परमेश्वर के वचनों का ठीक से अभ्यास और अनुभव नहीं करते, और तुममें वास्तविक अनुभवजन्य गवाही की कमी है, तो तुम्हारे बचाए जाने की कोई आशा नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और सबसे कम, इस आधार पर तय नहीं करता कि वह किस हद तक दया का पात्र है, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित भी किए जाएँगे। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कोई व्यक्ति नहीं बदल सकता। इसलिए, जो लोग दंडित किए जाते हैं, वे सब इस तरह परमेश्वर की धार्मिकता के कारण और अपने अनगिनत बुरे कार्यों के प्रतिफल के रूप में दंडित किए जाते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गया कि परमेश्वर सबके साथ निष्पक्ष व्यवहार करता है और वह लोगों के परिणाम इस आधार पर निर्धारित करता है कि क्या उनके पास सत्य है। लोगों को परमेश्वर की स्वीकृति मिलने और बचा लिए जाने का कारण यह नहीं है कि वे अगुआ हैं या उनके पास कोई पद-विशेष है, बल्कि इसका कारण यह है कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं और अंततः इसे हासिल कर लेते हैं। मुझे लगता था कि मैं कई बरसों से अगुआ हूँ और रुतबा रखता हूँ, इसलिए परमेश्वर मुझे स्वीकृति दे देगा, कि परमेश्वर मुझे तरजीह देता है और मुझे विशेषाधिकार मिला है, कि मुझे पहले से ही परमेश्वर के राज्य में स्थान मिला है और मैं बचाया जा सकता हूँ और उसके राज्य में प्रवेश कर सकता हूँ। मेरा यह दृष्टिकोण ही गलत था। हकीकत में देखें तो कलीसिया में कोई पद होना उद्धार की शर्त नहीं है, न ही रुतबा होने से यह संकेत मिलता है कि व्यक्ति दूसरों से ज्यादा मूल्यवान है या उसे परमेश्वर की मान्यता मिलने की अधिक संभावना है। परमेश्वर के घर में रुतबे के आधार पर अंतर नहीं किया जाता है। परमेश्वर के सामने हर व्यक्ति समान है। कोई व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाता हो, अगर वह मन लगाकर सत्य का अनुसरण करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागता है और परमेश्वर के प्रति समर्पित हो जाता है तो वह परमेश्वर का उद्धार पा सकता है। व्यक्ति चाहे समूह अगुआ हो या कलीसिया अगुआ हो, यह सिर्फ एक ऐसा मौका है जो परमेश्वर ने सत्य हासिल करने के लिए प्रदान किया है। यह हमें अपने कर्तव्य निर्वहन के जरिए परमेश्वर के कार्य को अनुभव करने, अधिक से अधिक सत्य समझने और तेजी से विकास करने में मदद करता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि समूह अगुआ या कलीसिया अगुआ होना उद्धार की गारंटी है। मैंने यह आत्मचिंतन किया कि कैसे मैं बरसों अगुआ रहा, कष्ट सहे और कीमत चुकाई, समय की परवाह किए बिना हर सभा में हिस्सा लिया, कभी-कभी जब दूसरे सो गए तो भी मैं देर रात तक काम करता रहा, कार्य को जल्द से जल्द पूरा करने के जतन करता रहा और इसलिए मैंने यह सोच लिया कि मैं अपने कर्तव्य अच्छे से निभा रहा हूँ और मैं परमेश्वर से प्रेम करता हूँ। लेकिन जब मैं चुनाव में हार गया और अपना रुतबा खो बैठा तो मेरी विद्रोहशीलता और परमेश्वर के प्रति गलतफहमियाँ बेनकाब हो गईं। मुझे लगा कि मेरा उद्धार नहीं हो सकता है, इसलिए मैंने सत्य का अनुसरण करना छोड़ दिया, अपने कर्तव्यों में नकारात्मक और सुस्त हो गया, परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ने चाहे और लौकिक फिल्में तक देखने लगा। मैंने देखा कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता हूँ और अपने कर्तव्य में मेरी सक्रियता का उद्देश्य एक अच्छी मंजिल पाना था, न कि सत्य, इसी कारण परमेश्वर में विश्वास के पाँच वर्षों में मैंने ज्यादा सत्य हासिल नहीं किया था। इस चुनावी हार ने मेरी भ्रष्टता बेनकाब कर दी, मुझे यह एहसास करा दिया कि मैंने पहले जो कुछ भी किया था, वह सब रुतबे और एक अच्छी मंजिल की खातिर था और मैं परमेश्वर के साथ लेनदेन करने की कोशिश कर रहा था। सच्चाई यह थी कि मैं जैसा सोचता था वैसा सत्य से प्रेम नहीं करता था, मैं परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर रहा था, उसके वचन नहीं सुन रहा था और अपना रुतबा खोने के कारण मैंने परमेश्वर से दूरी तक बना ली थी और मैं अपने कर्तव्य नहीं निभाना चाहता था। मुझे प्रभु यीशु की यह वाणी याद आई : “हर वो व्यक्ति जिसने मुझ प्रभु को प्रभु कहा, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा; बल्कि वो करेगा जो स्वर्ग में रहने वाले मेरे पिता की इच्छा के अनुसार चलता है(मत्ती 7:21)। परमेश्वर उन लोगों को चाहता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं और उसके मार्ग पर चलते हैं। ऐसे लोग बचाए जाने के योग्य होते हैं और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करते हैं। पहले मैं हमेशा व्यस्त रहा करता था, हर सभा में हिस्सा लेता था, सबको यह आभास कराता था कि मैं अपने कर्तव्यों में मेहनती और जिम्मेदार हूँ, लेकिन यह सब कपट था। मैं आशीष पाने के इरादे से अपने कर्तव्य निभाता आ रहा था जो कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलना नहीं था और यह न उसे संतुष्ट कर सकता था, न ही उसकी स्वीकृति पा सकता था। आँखों में आँसू लिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं बदलना चाहता हूँ और फिर से तुम्हारी ओर मुड़ना चाहता हूँ, मेरी काट-छाँट और मेरा न्याय करो, ताकि मैं अपने असंयमित विचारों और माँगों को त्याग सकूँ, तुम मुझे चाहे किसी भी पद पर रखो, भले ही लोग उसे सबसे नीचा पद मानें, तो भी मैं उसे स्वीकार करूँगा, मैं तुम्हारी सारी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ।”

एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य को सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़कर परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढ़ने चाहिए या वह नहीं ढूँढ़ना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। यदि तुम जिसे खोजते हो वह देह के आशीष हैं, और तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह तुम्हारी अपनी अवधारणाओं का सत्य है, और यदि तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है, और तुम देहधारी परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी समर्पित नहीं हो, और तुम अभी भी अस्पष्टता में जीते हो, तो तुम जिसकी खोज कर रहे हो वह निश्चय ही तुम्हें नरक ले जाएगा, क्योंकि जिस पथ पर तुम चल रहे हो वह विफलता का पथ है। तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या निकाला जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे परमेश्वर के इरादे के अनुसार सत्य का अनुसरण करना चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए, किसी प्रतिफल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। अतीत में मैं सोचता था कि रुतबा होने से मुझे उद्धार पाने में मदद मिलेगी और अगुआ का रुतबा पाने और कायम रखने से मैं अपने लिए एक अच्छा परिणाम सुनिश्चित कर लूँगा, इसलिए मैंने सत्य खोजने के बजाय पूरे मनोयोग से रुतबे और प्रतिष्ठा का अनुसरण किया, इसका नतीजा यह निकला कि बरसों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद मेरा भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तित रहा। अगर मैंने अपना अनुसरण नहीं सुधारा तो परमेश्वर मुझे निश्चित तौर पर हटा देगा। मैं यह भी समझ गया कि कलीसिया में विभिन्न कर्तव्य होते हैं और हर कोई अपनी परिस्थिति और कार्य की जरूरत के अनुसार अपने कर्तव्य निभाता है और चाहे कर्तव्य किसी भी प्रकार का हो, हमें यह निभाना चाहिए, इसका एकमात्र उद्देश्य लोगों को सत्य का अभ्यास करने और अपना स्वभाव बदलने में सक्षम बनाना है। यह हमारे शरीर जैसा है जो कई अंगों से मिलकर बना है। हर अंग का अपना कार्य होता है और कोई भी अंग किसी दूसरे से ज्यादा उपयोगी नहीं होता है। शरीर को जिंदा रखने के लिए सारे कार्य जरूरी हैं और एक भी अंग गँवाया नहीं जा सकता है। कर्तव्यों को ऊँचे-नीचे स्तरों में नहीं बाँटा जाता है। कोई खास काम करना या अगुआ होना व्यक्ति को दूसरों से ऊँचा, दूसरों से श्रेष्ठ या बचाए जाने के लिए ज्यादा संभावनायुक्त नहीं बनाता है और इस तरीके से सोचना गलत है। सत्य का अभ्यास किए बिना मैं अगुआ होकर भी सत्य हासिल नहीं कर सकता या बचाया नहीं जा सकता हूँ। यह समझ में आने के बाद मुझे हमेशा रुतबे के पीछे भागते रहने पर पछतावा हुआ और मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने का संकल्प लिया। मेरी नकारात्मकता मिट गई और मैंने लौकिक फिल्में देखनी बंद कर दीं, मैं नियमित रूप से सभाओं में जाने लगा और अक्सर अपने आत्म-ज्ञान पर संगति करने लगा, मैंने अपने कर्तव्य के प्रति रवैया बदल दिया और सुसमाचार प्रचार करने में सक्रिय हो गया। मैंने भााई-बहनों के साथ परमेश्वर के वचन भी साझा किए और उनकी असामान्य दशाएँ दूर करने में मदद की और मेरे कर्तव्य की प्रभावकारिता बढ़ गई।

जून 2023 के अंत में एक और कलीसिया की स्थापना हुई और उसके लिए अगुआ और उपयाजक चुनने की जरूरत पड़ी। मैंने सोचा, “मैं बहुत समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहा हूँ और पहले अगुआ रह चुका हूँ, इसलिए मेरे चुन लिए जाने की सर्वाधिक संभावना है।” लेकिन अंत में मैं सिर्फ सुसमाचार उपयाजक चुना गया। मुझे पहला ख्याल यही आया कि मेरे बचाए जाने की उम्मीद धूमिल पड़ गई है, खासकर जब मैंने यह देखा कि जिस बहन को परमेश्वर में विश्वास रखते हुए मुझसे कई कम बरस हुए थे वह कलीसिया की अगुआ चुन ली गई है तो मैं बहुत परेशान हो गया। मैंने यह भी सोचा कि भविष्य में कहीं अधिक नए सदस्य कलीसिया से जुड़ेंगे, वे मुझसे आगे निकल जाएँगे और समय बीतने के साथ मेरे पास कोई जगह नहीं बचेगी। इन चीजों में बारे में सोचकर मैं बहुत परेशान हो गया और अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो बैठा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरे दिल को इन दशाओं से परेशान होने से बचा लो। मैं अपनी संभावनाओं और रुतबे का अनुसरण करना छोड़ने को तैयार हूँ, तुम्हारी सारी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ और सिर्फ तुम्हें संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ। अगर मैं अब भी रुतबे के अनुसरण से चिपटा रहता हूँ तो मुझे उम्मीद है कि तुम मुझे अनुशासित करोगे।” मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “आखिरकार, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसके आयोजन की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और ये वे मानक हैं जिनका उपयोग वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए करता है। ये मानक अपरिवर्तनीय हैं, और यह तुम्हें याद रखना चाहिए। इन मानकों को अपने मन में अंकित कर लो, और किसी अवास्तविक चीज को पाने की कोशिश करने के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूँढ़ने की मत सोचो। उद्धार पाने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक हमेशा के लिए अपरिवर्तनशील हैं। वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है और परमेश्वर हर व्यक्ति की मंजिल इस आधार पर निर्धारित करता है कि क्या वह सत्य हासिल कर चुका है। मुझे भी परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अनुसरण करना चाहिए, रुतबे और मंजिल के अनुसरण की अपनी इच्छा छोड़नी चाहिए और पूरे मनोयोग से अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने चाहिए और सत्य का अनुसरण करना चाहिए। यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। मेरी कार्यक्षमता में कुछ कमी है और अब मेरा सुसमाचार उपयाजक के रूप में चुना जाना परमेश्वर द्वारा अभ्यास के लिए प्रदान किया गया एक और मौका है। मुझे इस अवसर को संजोकर खुद को पूरे मनोयोग से अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित करना चाहिए, सत्य का अनुसरण करना और इसे हासिल करना चाहिए, अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करना चाहिए और परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने चाहिए। यही सबसे महत्वपूर्ण है। इसके बाद मैंने खुद को अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित किया और मैंने जिन परिवर्तनों को अनुभव किया उनका सारा श्रेय परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन को जाता है। परमेश्वर के उद्धार के लिए धन्यवाद!

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