73. जब एक ऐसे अगुआ को बर्खास्त कर दिया गया जिसकी मैं प्रशंसक थी
ली चेंग एक कलीसिया अगुआ था, उसके पास मुख्य रूप से लोगों को बहिष्कृत और निष्कासित करने के कार्य की जिम्मेदारी थी और वह मेरे कार्यों की भी निगरानी करता था। उसके साथ एक साल से भी लंबी बातचीत के बाद मैंने देखा कि वह खूब काबिल है, अपने कर्तव्य में दायित्व-बोध दिखाता है और कार्य में समस्याओं का पता लगाकर लोगों की दशाओं का भेद पहचान सकता है। खासकर बहिष्कृत और निष्कासित करने की सामग्री को व्यवस्थित करते समय वह प्रमुख घटनाओं को समझ लेता था और उन लोगों को परिभाषित करने के लिए परमेश्वर के उपयुक्त वचन खोज लेता था जिन्हें उनके व्यवहार के आधार पर बहिष्कृत और निष्कासित किया जा रहा होता था, ये ऐसी चीजें थीं जिन्हें मैं खुद नहीं संभाल पाती थी। जब भी हम विभिन्न प्रकार के लोगों का भेद पहचानने के बारे में सभा और संगति करते थे तो मैं हमेशा यही चाहती थी कि काश ली चेंग वहाँ रहे। अगर वह नजर नहीं आता था तो मैं निराश हो जाती थी, मानो मेरा आधार स्तंभ ही न हो। तकरीबन पिछले एक साल के दौरान ली चेंग जिन कलीसियाओं का प्रभारी था, उन सबने कुछ बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों को दूर कर कलीसियाओं को काफी शुद्ध कर दिया था। मेरा दृढ़ मत था कि ली चेंग सत्य का अनुसरण करने वाला और इसे समझने वाला इंसान है, मुझे तो यहाँ तक लगता था कि उस जैसा व्यक्ति ही अगुआ हो सकता है। मैं उसकी बहुत बड़ी प्रशंसक थी और आस्था की अपनी यात्रा में उसे एक आदर्श मानती थी।
मई 2023 में एक दिन मुझे उच्च-स्तर के अगुआ से यह पत्र मिला कि ली चेंग को बर्खास्त कर दिया गया है। मैं दंग रह गई और इस समाचार पर यकीन नहीं कर पाई, मैं सोचने लगी, “ली चेंग खूब काबिल और गुणवान है और अपने कर्तव्य में नतीजे पैदा करता है। उस जैसे व्यक्ति को कैसे बर्खास्त किया जा सकता है? क्या अगुआ उससे बहुत ज्यादा अपेक्षा कर रहे हैं? जब मैं उनसे मिलूँगी तो जरूर पूछूँगी कि ली चेंग को क्यों बर्खास्त किया गया?” फिर मैं ली चेंग से अपनी तुलना किए बिना नहीं रह पाई। वह न केवल लोगों की दशाओं को भली-भाँति समझकर उनकी कठिनाइयाँ हल करने के लिए परमेश्वर के उपयुक्त वचन खोज लेता था, बल्कि उसे अपने कार्य में नतीजे भी मिलते थे। जहाँ तक मेरी बात है, मुझमें उसके जैसे गुण नहीं थे, मैं उसके जितना कष्ट नहीं सह सकती थी और मूल्य नहीं चुका सकती थी और मैं अक्सर लोगों की दशाओं का समाधान करने में लड़खड़ा जाती थी और बार-बार उससे मदद माँगती थी। अब जबकि ली चेंग जैसे व्यक्ति को भी बर्खास्त कर दिया गया है तो मुझे लगा कि मेरी बर्खास्तगी भी ज्यादा दूर नहीं है। इस विचार ने मेरी आत्मा को कुंद कर दिया और अगले कुछ दिनों तक मैं अपने कर्तव्य में निस्तेज पड़ी रही और मुझे अपने आगे सिर्फ अँधेरा दिखाई देता था। मुझे लग गया कि मेरी दशा ठीक नहीं है और अपनी समस्याएँ हल करने के लिए मैं सत्य खोजना चाहती थी। मैं जानती थी कि लोगों को बर्खास्त करने वाले कलीसिया के फैसले सिद्धांतों पर आधारित होते हैं और ली चेंग की बर्खास्तगी निश्चित रूप से अपने कर्तव्य में सिद्धांतों का उल्लंघन करने के कारण हुई। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया और मैंने इसे खोजकर पढ़ा। परमेश्वर कहता है : “हर अवधि और हर चरण में कलीसिया में कुछ विशेष चीजें घटित होती हैं जो लोगों की धारणाओं के विपरीत होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बीमार हो जाते हैं, अगुआओं और कर्मियों को बदल दिया जाता है, कुछ लोग उजागर करके निकाल दिए जाते हैं, कुछ को जिंदगी और मौत की परीक्षा का सामना करना पड़ता है, कुछ कलीसियाओं में बुरे लोग और मसीह-विरोधी भी होते हैं जो परेशानियाँ खड़ी करते हैं, वगैरह। ये चीजें समय-समय पर होती रहती हैं, लेकिन ये संयोगवश बिल्कुल नहीं होती हैं। ये सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के परिणाम हैं। एक बहुत शांत अवधि में अचानक कई घटनाएं या असामान्य चीजें घटित हो सकती हैं, जो या तो तुम लोगों के आस-पास होंगी या व्यक्तिगत रूप से तुम लोगों के साथ होंगी, और ऐसी घटनाएं लोगों के जीवन की सामान्य व्यवस्था और सामान्य गतिविधि में बाधक बनती हैं। बाहर से, ये चीजें लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होती हैं, लोग नहीं चाहते कि उनके साथ ऐसी चीजें हों या वे इन्हें घटित होते देखना नहीं चाहते हैं। तो क्या इन चीजों के घटित होने से लोगों को फायदा होता है? लोगों को उनसे कैसे निपटना चाहिए, उनका अनुभव कैसे करना चाहिए और उन्हें कैसे समझना चाहिए? क्या तुम लोगों में से किसी ने इसके बारे में सोचा है? (हमें यह समझना चाहिए कि यह परमेश्वर की संप्रभुता का परिणाम है।) क्या इतना समझ लेना काफी होगा कि यह परमेश्वर की संप्रभुता का परिणाम है? क्या तुमने इससे कोई सबक सीखा है? ... लोगों के पास पहले ही परमेश्वर की कोई समझ नहीं थी, और जब उनका सामना कुछ ऐसी चीजों से होता है जो उनकी धारणाओं के विपरीत होती हैं, तो वे सत्य नहीं खोजते या दूसरों के साथ संगति नहीं करते, बल्कि केवल अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर उनसे पेश आते हैं, और आखिर में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, ‘ये चीजें परमेश्वर की ओर से आई हैं या नहीं, यह अभी भी निश्चित नहीं है’ और फिर वे परमेश्वर के बारे में आशंकाएँ पालने और यहाँ तक कि उसके वचनों पर भी संदेह करने लगते हैं। इस कारण, परमेश्वर को लेकर उनके संदेह, अटकलें और सावधानी अधिक से अधिक गंभीर हो जाती है, और वे अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा खो देते हैं। वे कष्ट सहना और त्याग करना नहीं चाहते, वे ढीले पड़ जाते हैं, और प्रतिदिन जैसे-तैसे अपना काम निकालते हैं। कुछ विशेष घटनाओं का अनुभव करने के बाद, जो थोड़ा सा उत्साह, संकल्प और इच्छा उनमें पहले थी, वह भी गायब हो जाती है, उनके मन में बस भविष्य के लिए अपनी योजनाएँ बनाने और अपना रास्ता निकालने के ख्याल बाकी रह जाते हैं। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं हैं। चूँकि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और उसे खोजते नहीं, इसलिए जब भी उनके साथ कोई बात हो जाती है तो वे इसे कभी भी परमेश्वर से स्वीकार करना सीखे बिना अपने नजरिये से देखते हैं। वे जवाब पाने के लिए परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजते हैं, और वे इन चीजों पर संगति करके इन्हें हल करने के लिए ऐसे लोगों को भी नहीं खोजते जो सत्य को समझते हों। बल्कि, वे अपने साथ हुई बातों को समझने और उनका आकलन करने के लिए हमेशा दुनिया से निपटने के अपने ज्ञान और अनुभव का उपयोग करते हैं। और अंतिम परिणाम क्या निकलता है? वे खुद को एक अजीब स्थिति में फँसा लेते हैं जहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं होता है—सत्य नहीं खोजने का यही परिणाम होता है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। परमेश्वर के वचनों से मैं यह समझ गई कि जब कलीसिया में ऐसी चीजें घटित होती हैं जो लोगों की धारणाओं से मेल नहीं खाती हैं, तो सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग चीजों को परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते हैं। इसके बजाय वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर से शिकायत करते हैं और उसे गलत समझते हैं और उनकी दशाएँ बिगड़ जाती हैं और उनके कर्तव्यों पर असर पड़ता है। मैंने भी ठीक इसी तरह व्यवहार किया था। मैं हमेशा ली चेंग के बारे में ऊँचे विचार रखती थी और उसे सम्मान की नजरों से देखती थी। यह देखते हुए कि वह खूब काबिल और गुणवान है, हर दिन अपने कर्तव्य में व्यस्त रहता है और भाई-बहनों की दशाओं का समाधान करने के लिए हमेशा परमेश्वर के उचित वचन खोज लेता है, मुझे लगता था कि वह सत्य का अनुसरण करने वाला इंसान है। अब उसे बर्खास्त कर दिया गया था जो मेरी धारणाओं के अनुरूप बिल्कुल नहीं था। मैंने इस मामले में सत्य नहीं खोजा, बल्कि मुझे लगा कि ली चेंग के साथ अन्याय हुआ है और मैंने यहाँ तक सोचा कि अगुआओं ने उसके साथ ठीक नहीं किया है। क्या मैं इस मामले को सतही ढंग से नहीं ले रही थी? परमेश्वर का इरादा यह था कि मैं ऐसी स्थितियों से सबक सीखूँ और सत्य के पहलुओं को समझूँ, जो मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाते। लेकिन यह सुनकर कि ली चेंग को बर्खास्त कर दिया गया है, मेरी पहली प्रतिक्रिया यह शिकायत थी कि अगुआओं ने इस स्थिति को अनुचित ढंग से संभाला है, मैंने यह सोचा कि उनकी अपेक्षाएँ बहुत ऊँची थीं और ली चेंग के साथ उनके ऐसा व्यवहार करने के कारणों को लेकर मैं अगुआओं से कड़ी पूछताछ तक करना चाहती थी। मैं यह भी सोचा कि मैं ली चेंग से कमतर हूँ और शायद मुझे भी बर्खास्तगी का सामना करना पड़े, जिसके कारण मैं निराशा और गलतफहमी में जीने लगी और मेरा कर्तव्य प्रभावित हो गया। परमेश्वर के वचनों से मैंने यह देख लिया था कि अपने साथ चीजें घटित होने पर सत्य न खोजने का खतरा क्या होता है। यह जानकर मेरी प्रतिरोध की भावना मिट गई और मैं इस मामले में सत्य खोजने के लिए तैयार थी।
बाद में जब अगुआ ने ली चेंग के व्यवहार के बारे में संगति कर इसे उजागर किया तो मैंने जाना कि ली चेंग वास्तव में अहंकारी और आत्मतुष्ट था और अपने कर्तव्य में मनमाने ढंग से पेश आता था और अपने साथी कार्यकर्ताओं के साथ मामलों पर चर्चा किए बिना हर चीज पर खुद फैसले लेता था। बार-बार की संगति के बावजूद उसने अपना रास्ता नहीं बदला जिससे कलीसिया के कार्य में बाधा पैदा हुई। तब जाकर उसे बर्खास्त किया गया और आत्मचिंतन करने को मजबूर किया गया। अगुआ ने ली चेंग के विशिष्ट व्यवहारों के उदाहरण भी दिए। हाल ही में एक कलीसिया अगुआ ने अपनी पारिवारिक उलझनों के कारण अपने कर्तव्य को टाल दिया था और इस मामले में सिद्धांतों को खोजे बिना, संदर्भ पर गौर किए बिना या साथी कार्यकर्ताओं की राय लिए बिना ली चेंग ने इस व्यक्ति को कलीसिया से बाहर निकाल देने के लिए सामग्री की व्यवस्था कर ली थी। खुशकिस्मती से उच्च-स्तरीय अगुआ ने इसे रोकने के लिए हस्तक्षेप कर दिया। दूसरे मौके पर ली चेंग ने किसी से भी सलाह लिए बिना निजी तौर पर एक सुपरवाइजर की नियुक्ति कर दी थी। इस सुपरवाइजर में काबिलियत नहीं थी और वह कार्य को व्यवस्थित नहीं कर पाया जिससे कलीसिया के कार्य पर असर पड़ा। जब अगुआ ने मनमाने ढंग से कार्य करने के लिए ली चेंग की काट-छाँट की तो उसने इसे स्वीकारने से इनकार कर दिया। बाद में दूसरी बहनों ने भी ली चेंग द्वारा अपने कर्तव्य में मनमाने ढंग से पेश आने की कुछ अभिव्यक्तियों के बारे में बताया। ये तथ्य सुनकर मैं दंग रह गई और मैं यह नहीं मानना चाहती थी कि ली चेंग ऐसा अहंकारी व्यक्ति है। तब अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश दिखाया : “मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते; वे हमेशा एकाकी शासन स्थापित करने की कामना करते हैं। इस अभिव्यक्ति का लक्षण है ‘एकल।’ इसका वर्णन करने के लिए ‘एकल’ शब्द का उपयोग क्यों करें? इस कारण से कि कार्रवाई करने से पहले वे परमेश्वर के समक्ष आ कर प्रार्थना नहीं करते, न ही वे सत्य सिद्धांतों को खोजते हैं, संगति करने के लिए किसी को ढूँढ़ कर उससे यह कहना तो दूर की बात है कि ‘क्या यह सही मार्ग है? कार्य व्यवस्थाओं में क्या निर्धारित किया गया है? इस प्रकार की चीज को कैसे सँभाला जाए?’ वे अपने सहकर्मियों और साझेदारों के साथ कभी विचार-विमर्श नहीं करते, न ही उनके साथ सहमति बनाने का प्रयास करते हैं—वे चीजों पर खुद ही सोच-विचार कर केवल अपने ही दम पर उपाय करते हैं, अपनी ही योजनाएँ और व्यवस्थाएँ बनाते हैं। परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं पर सिर्फ सरसरी नजर डाल कर वे सोचते हैं कि उन्होंने उन्हें समझ लिया है, और फिर वे आँखें मूँद कर काम की व्यवस्था करते हैं—और जब तक दूसरों को इसकी खबर लगती है, तब तक काम की व्यवस्था हो चुकी होती है। किसी भी व्यक्ति के लिए उनके अपने मुँह से उनके विचारों या राय को पहले से सुन पाना असंभव होता है, क्योंकि वे कभी भी अपने मन में छिपे विचारों या नजरियों के बारे में किसी को नहीं बताते। कोई पूछ सकता है, ‘क्या सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साझेदार नहीं होते हैं?’ नाममात्र के लिए वे किसी को साझेदार बना सकते हैं, लेकिन काम का समय आने पर उनका कोई साझेदार नहीं होता—वे अकेले काम करते हैं। हालाँकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथी होते हैं, और कर्तव्य निभाने वाले प्रत्येक व्यक्ति का एक साझेदार होता है, मसीह-विरोधी मानते हैं कि उनमें अच्छी क्षमता है और वे आम लोगों से बेहतर हैं, इसलिए आम लोग उनके साथी बनने लायक नहीं हैं, वे उनसे कमतर हैं। इसीलिए मसीह-विरोधी अधिकार अपने हाथों में रखते हैं, किसी और से चर्चा करना पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से वे नाकाबिल और निकम्मे जैसे नजर आएँगे। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? यह कैसा स्वभाव है? क्या यह अहंकारी स्वभाव है? उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ सहयोग और चर्चा करना, उनसे कुछ पूछना और उनसे कुछ खोजने का प्रयास करना, उनकी गरिमा को कम करता है, अपमानजनक है, उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाता है। तो अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें पारदर्शिता नहीं आने देते, न ही वे इस बारे में किसी को बताते हैं, उनसे उस पर चर्चा करना तो दूर की बात है। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ चर्चा करना खुद को अक्षम दिखाना है; हमेशा लोगों की राय माँगने का मतलब है कि वे मूर्ख हैं और अपने आप सोचने में असमर्थ हैं; उन्हें लगता है कि किसी कार्य को पूरा करने में या किसी समस्या को सुलझाने में दूसरों के साथ काम करने से वे नाकारा दिखने लगेंगे। क्या यह उनकी अहंकारी और बेतुकी मानसिकता नहीं है? क्या यह उनका भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? उनके भीतर का अहंकार और आत्माभिमान बहुत स्पष्ट होता है; वे सामान्य मानवीय विवेक पूरी तरह गँवा चुके होते हैं और उनका दिमाग भी ठिकाने पर नहीं होता। वे हमेशा सोचते हैं कि उनके पास काबिलियत है, वे स्वयं चीजों को समाप्त कर सकते हैं, और उन्हें दूसरों के साथ सहयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चूंकि उनके स्वभाव इतने भ्रष्ट हैं, इसलिए वे सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर पाने में असमर्थ होते हैं। वे मानते हैं कि दूसरों के साथ सहयोग करना अपनी ताकत को कम और खंडित करना है, जब काम दूसरों के साथ साझा किया जाता है, तो उनकी अपनी शक्ति घट जाती है और वे सब कुछ स्वयं तय नहीं कर सकते यानी उनकी असली ताकत भी कम हो जाती है, जो उनके लिए एक जबरदस्त नुकसान होता है। और इसलिए, चाहे वे उनके साथ कुछ भी हो, अगर उन्हें भरोसा है कि वे समझते हैं और जानते हैं कि इसे संभालने का उपयुक्त तरीका क्या है, तो वे किसी और के साथ इस पर चर्चा नहीं करेंगे, और सारे फैसले वे खुद लेंगे। वे दूसरों को जानने देने के बजाय गलतियाँ करना पसंद करेंगे, किसी और के साथ सत्ता साझा करने के बजाय वे गलत साबित होना पसंद करेंगे, अपने काम में दूसरों की दखल बर्दाश्त करने के बजाय, वे बर्खास्त होना पसंद करेंगे। ऐसा होता है मसीह-विरोधी” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से कार्य करते हैं, वे अपनी सत्ता कायम रखने के लिए सारे फैसले खुद लेते हैं। जब उनके साथ चीजें घटती होती हैं तो वे न तो सत्य सिद्धांत खोजते हैं, न ही दूसरों के साथ चर्चा करते हैं और उनकी प्रकृति अहंकारी और अविवेकी होती है। ली चेंग के व्यवहार से इसकी तुलना करें तो एक अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य में उसने मनमाने ढंग से कार्य किया और सत्ता अपने कब्जे में रखी और जब भाई-बहनों ने उसे उसकी समस्याएँ बताईं तो उसने न सिर्फ आत्म-चिंतन नहीं किया, बल्कि वह यह भी मानता था कि वह स्थिति को समझता है और अपने बलबूते निर्णय ले सकता है। उसने लोगों को बाहर निकालते समय सिद्धांतों की खोज नहीं की, अपने साथी कार्यकर्ताओं को हाशिये पर डाल दिया और निजी तौर पर सामग्री की व्यवस्था की, साथ ही उसने एक नालायक सुपरवाइजर की नियुक्ति भी की, कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा कर दी और दूसरों की बातों को अनदेखा कर दिया। क्या ली चेंग के ये व्यवहार वास्तव में परमेश्वर के इस खुलासे से मेल नहीं खाते कि कैसे मसीह-विरोधी हर चीज “अकेले” करते हैं? उसने कलीसिया को नियंत्रित करने के लिए सत्ता पर एकाधिकार जमा लिया और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा कर दी जो मसीह-विरोधियों का बिल्कुल वही व्यवहार है जिसे परमेश्वर ने उजागर किया है। वह पहले ही एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने लगा था। अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने कई बार उसकी समस्याएँ बताईं लेकिन उसने इन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया। उच्च-स्तरीय अगुआ द्वारा सिद्धांतों के आधार पर उसकी बर्खास्तगी पूरी तरह उचित थी!
मैं आत्मचिंतन किए बिना न रह पाई और सोचने लगी, “ली चेंग के साथ इतने लंबे समय तक बातचीत करने के बावजूद मैं उसका भेद कैसे नहीं जान पाई और मैं यहाँ तक सोच बैठी थी कि उसमें सत्य वास्तविकता है और मैं उसकी सराहना करती थी?” मैंने खोज करते समय परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “कुछ लोग अक्सर ऐसे लोगों से गुमराह हो जाते हैं जो बाहर से आध्यात्मिक, कुलीन, ऊँचे और महान प्रतीत होते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो वाक्पटुता से शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं, और जिनकी कथनी-करनी सराहनीय लगती है, तो जो लोग उनके हाथों धोखा खा चुके हैं उन्होंने उनके कार्यकलापों के सार को, उनके कर्मों के पीछे के सिद्धांतों को, और उनके लक्ष्य क्या हैं, इसे कभी नहीं देखा है। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि ये लोग वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं या नहीं, वे लोग सचमुच परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं या नहीं। उन्होंने इन लोगों के मानवता सार को कभी नहीं पहचाना। बल्कि, उनसे परिचित होने के साथ ही, थोड़ा-थोड़ा करके वे उन लोगों की तारीफ करने, और आदर करने लगते हैं, और अंत में ये लोग उनके आदर्श बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ लोगों के मन में, वे आदर्श जिनकी वे उपासना करते हैं, मानते हैं कि वे अपने परिवार एवं नौकरियाँ छोड़ सकते हैं, और सतही तौर पर कीमत चुका सकते हैं—ये आदर्श ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, और एक अच्छा परिणाम और एक अच्छी मंजिल प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें मन में लगता है कि परमेश्वर इन आदर्श लोगों की प्रशंसा करता है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मैं ली चेंग की आराधना मुख्य रूप से इसलिए करती थी कि वह कलीसिया के सफाई कार्य का निरीक्षण करते समय नतीजे उत्पन्न करता था और उसमें दृढ़ कार्यक्षमताएँ थीं। उसमें कुछ बुद्धिमानी और खूबियाँ भी थीं और वह लोगों की दशाओं पर लक्ष्यकेंद्रित संगति करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन भी खोज सकता था, इसलिए मुझे लगा कि वह सत्य समझता है और उसमें वास्तविकता है। लेकिन तथ्यों ने सिद्ध कर दिया कि ली चेंग अपने द्वारा प्रकट गंभीर मसीह-विरोधी स्वभाव से पूरी तरह बेखबर था। वह अगुआओं के हाथों अपनी काट-छाँट स्वीकारने को तैयार नहीं था और यह स्पष्ट था कि वह सत्य नहीं स्वीकारता है और आम तौर पर खुद को सिर्फ धर्म-सिद्धांतों से सुसज्जित करता है। वह अपने कर्तव्य में खुद को व्यस्त इसलिए रखता था कि वह नतीजे हासिल कर सके और लोगों से सराहना पा सके, उसने अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य का अनुसरण बिल्कुल भी नहीं किया, फिर भी मैं एक मूर्ति की तरह उसकी आराधना करती थी और मिसाल मानकर उसका अनुकरण तक करती थी; मैं कितनी अज्ञानी थी! मुझे यह ख्याल आया कि कैसे परमेश्वर ने पतरस को स्वीकृति दी थी क्योंकि उसने अपने दैनिक जीवन और कर्तव्य, दोनों में ही सत्य खोजने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने पर ध्यान दिया। हर छोटे-मोटे मामले में उसने अपने पुराने स्वभाव को बदलने पर ध्यान दिया। इसके विपरीत मैं लोगों का आकलन उनकी बुद्धिमानी और खूबियों, उनके किए कार्य और वे ऊपरी तौर पर जो कष्ट सहते थे, उनके आधार पर करती थी। मैंने देखा कि लोगों के आकलन का मेरा दृष्टिकोण परमेश्वर की अपेक्षाओं के विरुद्ध है। अगर ली चेंग को बर्खास्त न किया गया होता तो मैं इन समस्याओं पर आत्मचिंतन न करती और उसका अनुकरण करती रहती। इस क्षण मैंने सच्चे मन से परमेश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने ऐसे लोगों, घटनाओं और चीजों का आयोजन किया। यह परमेश्वर का मुझे बचाना था। यह देखते हुए कि कलीसिया में कुछ भाई-बहन अभी तक ली चेंग का भेद नहीं जानते हैं, मैंने उनके साथ यह संगति की कि मनमाने ढंग से कार्य करने का मतलब क्या होता है और यह संगति भी की कि लोगों का आकलन सिर्फ उनके बाहरी रूप के आधार पर नहीं करना चाहिए, बल्कि इस आधार पर करना चाहिए कि क्या वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करते हैं और कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। यह सुनने के बाद भाई-बहन ली चेंग का थोड़ा-बहुत भेद पहचानने में सक्षम हो पाए।
बाद में मैं यह आत्मचिंतन करती रही : ली चेंग की बर्खास्तगी पर मैंने इतनी तीखी प्रतिक्रिया क्यों जताई और क्यों तुरंत हताश हो गई? मैंने आत्म-परीक्षण कर जाना कि मैं यह मानती थी कि अगर हर लिहाज से मुझसे बेहतर ली चेंग जैसे किसी व्यक्ति को बर्खास्त किया जा सकता है तो फिर मेरी बर्खास्तगी भी नजदीक है। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान, मसीह-विरोधी लगातार अपनी संभावनाओं और भाग्य का हिसाब लगाते रहते हैं : वे कितने वर्षों से अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, उन्होंने कितनी कठिनाइयाँ झेली हैं, परमेश्वर के लिए कितना त्याग किया है, कितनी कीमत चुकाई है, अपनी कितनी ऊर्जा खर्च की है, अपनी जवानी के कितने वर्ष त्याग दिए हैं, और क्या अब उनके पास इनाम और मुकुट पाने का अधिकार है; क्या उन्होंने अपने कर्तव्य निभाते हुए इन कुछ वर्षों में पर्याप्त पूँजी जमा की है, क्या वे परमेश्वर की नजरों में उसके पसंदीदा व्यक्ति हैं, और क्या वे ऐसे व्यक्ति हैं जो परमेश्वर की नजरों में इनाम और मुकुट पा सकते हैं। ... वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं पर दृढ़ता से अड़े रहते हैं, उन्हें सत्य मानते हैं, जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं, और सबसे सही उपक्रम मानते हैं। वे यह सत्य नहीं जानते कि अगर किसी व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदलता है तो वह हमेशा परमेश्वर का शत्रु बना रहेगा, और वे नहीं जानते कि परमेश्वर किसी व्यक्ति को क्या आशीष देता है और परमेश्वर किसी व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है यह उसकी काबिलियत, खूबियों, प्रतिभा या पूँजी पर आधारित नहीं है, बल्कि इस बात पर आधारित है कि वह कितने सत्यों का अभ्यास करता है और कितना सत्य प्राप्त करता है, और क्या वह परमेश्वर का भय मानने वाला और बुराई से दूर रहने वाला व्यक्ति है। ये ऐसे सत्य हैं जिन्हें मसीह-विरोधी कभी नहीं समझ पाएँगे। मसीह-विरोधी इसे कभी नहीं देख पाएँगे, और यहीं पर वे सबसे बड़े मूर्ख हैं। शुरू से अंत तक, अपने कर्तव्य के प्रति मसीह-विरोधियों का क्या रवैया रहता है? वे मानते हैं कि अपना कर्तव्य निभाना एक लेन-देन है, जो कोई भी अपने कर्तव्य में खुद को सबसे अधिक खपाता है, परमेश्वर के घर में सबसे बड़ा योगदान देता है और परमेश्वर के घर में सबसे अधिक वर्षों तक कष्ट सहता है, उसके पास अंत में आशीष और मुकुट प्राप्त करने की अधिक संभावना होगी। यही मसीह-विरोधियों का तर्क है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों से मेरी समझ में आया कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों को एक लेन-देन मानते हैं, वे ज्यादा कार्य करने और अपने कर्तव्य में नतीजों को परमेश्वर से आशीष पाने के लिए सौदेबाजी के सिक्कों के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। यही मसीह-विरोधियों का तर्क होता है। मेरा भी यही नजरिया था। जब मैंने देखा कि हर तरह से मुझसे अधिक उत्कृष्ट किसी व्यक्ति को बर्खास्त कर दिया गया है तो मैंने यह सोच लिया कि देर-सबेर मुझे भी बर्खास्त कर दिया जाएगा। मुझे लगा कि मेरी भविष्य की संभावनाएँ अनिश्चित हैं, इस कारण मैं नकारात्मक हो गई। हकीकत में लोगों का न्याय करने के परमेश्वर के मापदंडों का आधार यह नहीं होता कि वे कितने गुणवान हैं या वे कितना कष्ट सहते हुए या कार्य करते हुए दिखते हैं, बल्कि यह है कि अपने कर्तव्यों में वे सत्य का कितना अधिक अभ्यास कर इसे हासिल करते हैं। इस बीच मैंने लोगों का आकलन परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं किया, बल्कि अपनी ही धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर किया, मैं यह सोचती थी कि जो लोग गुणवान हैं और कड़ी मेहनत करते हैं वे जरूर परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होते होंगे और वे उसकी स्वीकृति पा लेंगे। इसलिए जब मैंने यह सुना कि ली चेंग को बर्खास्त कर दिया गया है तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाई, मैंने यहाँ तक चाहा कि उसे बर्खास्त करने के कारणों के बारे में अगुआओं से सवाल करूँ और उसके लिए इंसाफ माँगूँ। हकीकत में मेरा ली चेंग की मदद के लिए आना वास्तव में सिर्फ अपने लिए लड़ने का एक बहाना था। मुझे यह चिंता थी कि बर्खास्त होने की अगली बारी मेरी है और यह डर था कि मेरा अच्छा भविष्य नहीं होगा। अगुआओं पर सवाल उठाने की मेरी इच्छा के पीछे वास्तव में परमेश्वर पर सवाल उठाने की इच्छा थी, यह शिकायत करने की इच्छा थी कि परमेश्वर पक्षपाती है और लोगों के प्रति बहुत कठोर है। मैंने एक सृजित प्राणी की स्थिति में रहकर परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण नहीं किया था; बल्कि मैंने परमेश्वर से झगड़कर उसके विरुद्ध शोर मचाया था। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैंने जो प्रकट किया उसकी प्रकृति कितनी गंभीर है। मुझे पौलुस का ख्याल आया जिसने परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाने और उससे धार्मिकता का मुकुट माँगने के लिए अपने कार्य को पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया। अंत में उसे परमेश्वर ने दंड और शाप दिया। अगर मैंने अब भी पश्चात्ताप न किया तो मैं अपने कर्तव्य में चाहे कितना ही कष्ट उठा लूँ, परमेश्वर मुझे स्वीकृति नहीं देगा और अंत में मुझे पौलुस की तरह ही दंड मिलेगा! ली चेंग की बर्खास्तगी ने एक चेतावनी के रूप में मेरी मदद की, मुझे एहसास कराया कि भले ही मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी, फिर भी मैं लोगों की आराधना कर रही थी और गलत मार्ग पर चल रही थी। मैंने अपने दिल की गहराई से महसूस किया कि यह परमेश्वर द्वारा मुझसे प्रेम करना और बचाना है।
बर्खास्त होने के बाद ली चेंग ने कुछ समय आत्मचिंतन किया, अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ हासिल की और फिर कलीसिया ने उसे एक दूसरा कर्तव्य सौंप दिया। अब मैं फिर से ली चेंग के साथ अपना कर्तव्य निभाती हूँ लेकिन अब पहले की तरह उसकी आराधना नहीं करती। इसके बजाय मैं यह भेद जानने पर ध्यान देती हूँ कि वह जो कहता है क्या वह परमेश्वर के वचनों पर आधारित है। अगर मेरी अलग राय होती है तो मैं उसे सामने रखती हूँ, जो चीजें मैं नहीं समझती हूँ उनके बारे में सत्य सिद्धांत खोजती हूँ और जिन मसलों की असलियत नहीं समझ पाती हूँ उनकी रिपोर्ट अगुआओं को करती हूँ। इस तरीके से अभ्यास करके मैं कुछ सिद्धांतों को समझने और आगे का मार्ग खोजने में सक्षम हूँ। इस अनुभव के जरिए मुझे सत्य खोजने के महत्व का एहसास हो गया और मैं अपने उन कार्यों के बारे में आत्मचिंतन करने पर ध्यान देने लगी हूँँ जो अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों के आड़े आते हैं। अपने कर्तव्यों में सत्य सिद्धांतों को खोजने के लिए मैं भाई-बहनों की अगुआई भी करती हूँ ताकि हर कोई बाहरी कार्यकलापों पर ध्यान देना बंद कर दे और इसके बजाय अपना सारा ध्यान सत्य का अनुसरण करने और सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य निभाने पर केंद्रित करे। इस अनुभव ने चीजों को लेकर मेरे गलत नजरिये को सुधार दिया है और मैं परमेश्वर के उद्धार के लिए कृतज्ञ हूँ!