33. अब मैं अगुआ बनने की होड़ में नहीं रहती हूँ

फेंगशियान, चीन

2016 में मेरे पास कलीसिया में पाठ आधारित कार्य की जिम्मेदारी थी। उस समय एक खास काम के नतीजे लगातार खराब निकल रहे थे, इसलिए अगुआ ने कहा कि सीधे मैं इसकी निगरानी करूँ। परमेश्वर पर भरोसा रखकर और सिद्धांतों के अध्ययन के जरिए वास्तविक प्रयास कर जल्द ही मुझे कार्य में सुधार दिखने लगा। बाद में एक और काम में समस्याएँ आईं और अगुआ ने फिर मुझे कमान सँभालने और समाधान निकालने को कहा। यह सुनकर मैं फूली नहीं समाई। यह देखकर कि अगुआ सारे कठिन कार्यों की जिम्मेदारी मुझे सौंप रहा है, मुझे लगा कि मैं एक दुर्लभ प्रतिभासंपन्न इंसान और अपनी कलीसिया की आधार-स्तंभ हूँ।

बाद में हमारी कलीसिया में एक अगुआ का चुनाव होने जा रहा था तो मैंने सोचा, “क्या इस बार मैं अगुआ चुन ली जाऊँगी? इस समय मैं पाठ आधारित कर्तव्य निभा रही हूँ, जो मुझे सबसे अलग नहीं करता या रुतबा नहीं दिलाता है। अगर मैं अगुआ चुन ली जाती हूँ तो बात अलग ही होगी। मेरे पास आदेश देने और निर्णय लेने की सामर्थ्य होगी और भाई-बहन अपनी समस्याएँ और कठिनाइयाँ लेकर मेरे पास आया करेंगे। यह कितनी शानदार बात होगी! जब मैं स्कूल में थी तो क्लास की मॉनीटर बनना चाहती थी लेकिन यह मुराद कभी पूरी नहीं हुई। अगर मैं कलीसिया में अगुआ चुन ली गई तो इससे मेरी क्षमताएँ साबित हो जाएँगी और मेरा ख्वाब भी पूरा हो जाएगा।” उसके बाद मैं अपने कर्तव्य में खास तौर पर मेहनत करती थी और भाई-बहनों की किसी भी दशा का समाधान करने के लिए सक्रिय होकर संगति करती थी। उनकी स्वीकृति पाकर मैं बहुत खुश होती थी, मुझे यह उम्मीद रहती थी कि वे चुनाव के दौरान मेरे पक्ष में मतदान करेंगे। लेकिन अंत में मुझे नहीं चुना गया। मैं बहुत निराश हो गई। बाद में मैंने भाई-बहनों को कहते सुना कि मेरे न चुने जाने का कारण यह है कि उन्हें लगता है कि मैं अपरिपक्व हूँ और मेरे जीवन प्रवेश में गहराई नहीं है। इसलिए मैंने फौरन सोचा कि खुद को कैसे अधिक परिपक्व और स्थिर दिखाऊँ। जहाँ तक जीवन प्रवेश की बात है, मैंने लोगों के प्रकृति सार की आलोचना और इसे उजागर करने संबंधी परमेश्वर के अधिकाधिक वचन पढ़े, मुझे उम्मीद थी कि मैं अधिक सीखूँगी और खुद को योग्य बनाऊँगी, साथ ही मैंने दैनिक जीवन में सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान दिया, ताकि हर कोई मुझमें प्रगति और बदलाव देख सके और अगले चुनाव में मेरे पक्ष में मतदान करे।

लेकिन बाद में भी मैं कई बार चुनाव में हार गई। विशेष रूप से एक चुनाव में बहन सियू अगुआ चुन ली गई। यह सुनकर मुझे बहुत अचंभा हुआ और मैंने सोचा, “उसकी काबिलियत और कार्य क्षमताएँ औसत हैं। अधिकतर भाई-बहनों ने उसके पक्ष में ऐसे कैसे मतदान कर दिया? वह किस मायने में मुझसे बेहतर है?” मेरे अंदर ईर्ष्या और प्रतिकार पैदा हुआ और मैं फट पड़ी, “क्या वह काबिल है?” सभी बहनों ने जिज्ञासावश मुझसे पूछा, “क्या तुम उसे ठीक से जानती हो?” मैंने बिना सोचे-समझे कहा, “मैं उसके साथ पहले काम कर चुकी हूँ। मुझे लगता है कि उसकी काबिलियत और कार्य क्षमताएँ औसत हैं और मैंने उसे कोई अच्छा अनुभवजन्य गवाही लेख लिखते नहीं देखा है। मुझे तो यह भी शक है कि क्या उसके पास कोई जीवन प्रवेश है।” यह सुनकर सभी बहनों ने कहा, “अगर तुम उसकी असलियत जानती हो और तुम्हें लगता है कि वह उपयुक्त नहीं है तो तुम्हें अपनी बात खुलकर कहनी चाहिए। कलीसिया की अगुआई बहुत ही महत्वपूर्ण है; हमें सही लोग चुनने चाहिए।” सभी भाई-बहन इसकी चर्चा करने लगे। अगले दिन मेरी साझेदार बहन ने सख्ती से मेरी काट-छाँट की और कहा, “कल तुमने जो कहा वह अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बारे में फैसला सुनाने की श्रेणी में आता है। हालाँकि सियू का जीवन प्रवेश उथला है, लेकिन उसमें अच्छी-खासी काबिलियत है, एक उचित हृदय है और वह सत्य के लिए प्रयास करती है और कार्य का बोझ उठाती है। तुमने उसे सिद्धांतों के आधार पर नहीं आँका या उसके वर्तमान प्रदर्शन पर विचार नहीं किया, बल्कि तुम उसकी पुरानी कमियों को ही लेकर बैठी हुई हो। तुम्हारे इस तरह के दबे-छिपे इरादे से बोलने के कारण भाई-बहनों के मन में सियू के प्रति पूर्वाग्रह पैदा हो गया है, मानो कि कलीसिया ने गलत व्यक्ति चुन लिया हो। इसकी प्रकृति काफी गंभीर है और चुनाव को अस्त-व्यस्त करने के समान है। तुम्हें इस बारे में सही तरीके से आत्मचिंतन कर इसे समझ लेना चाहिए!” बहन की बातें सुनकर मुझे लगा कि मेरा चेहरा तप रहा है। यह सोचकर कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बारे में फैसला सुनाने की प्रकृति उनके लिए परेशानी खड़ी कर रही है और उनकी तौहीन कर रही है और यह एक बुरा कर्म है, इसलिए मैं थोड़ी-सी भयभीत हो गई। मैंने आगे मौखिक रूप से आलोचना करने का साहस नहीं किया लेकिन अपने दिल में समर्पण करने से भी इनकार कर दिया।

एक बार एक सभा के दौरान जब एक अगुआ संगति कर रही थी तो मैंने देखा कि सबका ध्यान उसी पर है। उस पल मुझे लगा कि अगुआ के चेहरे से आभा फैलती दिख रही है और मैं कल्पना करने लगी, अगर मैं अगुआ होती तो कितना अच्छा होता। मैंने खिड़की से बाहर झाँका, मेरी नाक में सिहरन हुई और आँख डबडबा गई, मैं सोचने लगी, “मैंने जब से परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया है, मैं कभी अगुआ नहीं रही। मुझे क्यों नहीं यह अवसर मिला? मैं इतना अच्छा काम कर रही हूँ, फिर भी मैं अगुआ नहीं बन सकती हूँ। परमेश्वर मेरे साथ अन्याय कर रहा है! मेरे इस तरह अनुसरण करते रहने की क्या तुक है?” उस दौरान मैं अंधकार और उदासी से घिर गई और मैं परमेश्वर के करीब आने या उसे अपने दिल की बात बताने को तैयार नहीं थी। भाई-बहनों को खराब दशा में देखकर मैं अब और संगति कर उनकी मदद नहीं करना चाहती थी। मैं अब भी सियू को हेय दृष्टि से देखती थी, मुझे लगता था कि उसकी बुद्धि, काबिलियत और कार्य क्षमताएँ मुझसे कमतर हैं। मैंने सोचा, “मुझे क्यों नहीं अगुआ चुना जा सकता है?” अनजाने में ही मैं अपने परिवारवालों के सामने अपना असंतोष जाहिर करने लगी। यह देखकर कि मैं खुद को बिल्कुल नहीं जानती हूँ, उन्होंने यह कहकर मेरी काट-छाँट की, “तुम रुतबे का अनुसरण कर रही हो और तुम इसका जितना अधिक पीछा करोगी, यह तुम्हें उतना ही छलेगा!” मैंने प्रतिकार करते हुए कहा, “किस आधार पर?” यह कहकर मैं डर गई : क्या मैं परमेश्वर के खिलाफ खुलेआम शोर नहीं मचा रही हूँ? मेरी कुछ और कहने की हिम्मत नहीं पड़ी।

एक सभा के दौरान मैंने खुलकर अपनी यह दशा उजागर की कि मुझमें हमेशा एक अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा और इच्छा रही है। एक बहन ने मेरी मदद करने के लिए अपने अनुभव पर संगति की और कहा, “हमें अक्सर लगता है कि हम दूसरों से बेहतर हैं और सोचते हैं कि वे क्यों अगुआ हो सकते हैं और हम नहीं, हम उद्धत और असंतुष्ट हो जाते हैं और यहाँ तक कि पीठ पीछे उनके बारे में फैसले सुनाने लगते हैं। यह परमेश्वर का विरोध करने और उसके खिलाफ शोर मचाने की प्रकृति है।” बहन की संगति सुनकर मैंने आत्मचिंतन किया। मैं इस पूरी अवधि में अगुआ नहीं चुनी गई और अपने दिल में विरोध पाले रही और परमेश्वर से बहस करती रही, “तुम किस आधार पर मुझे अगुआ नहीं बनने दे रहे हो?” यह “किस आधार पर” मेरी ओर से परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने से इनकार करना और परमेश्वर का विरोध और उसके खिलाफ शोर मचाना था। एक भ्रष्ट इंसान के रूप में मैं इसी लायक थी कि परमेश्वर मुझसे जैसा चाहे व्यवहार करे। इसके अलावा, अगुआओं का चुनाव भाई-बहन करते हैं; मैंने चुनाव में अपनी लगातार नाकामयाबी के लिए न सिर्फ आत्मचिंतन नहीं किया, बल्कि परमेश्वर का विरोध भी किया और उससे बहस भी की। मैं सचमुच विवेकहीन थी! अगुआ ने मेरी समस्या भी बताई, “तुम रुतबा तलाशने की खातिर अपना कर्तव्य निभाती हो और जब तुम्हें यह नहीं मिलता तो तुम नकारात्मक और प्रतिरोधी बन जाती हो। तुम एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही हो, इसलिए तुम्हें अगुआ चुनने का साहस कोई नहीं करता।” अगुआ का कहा हर शब्द मेरे दिल में चुभता रहा। मैं बहुत हताश और व्यथित हो गई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अब बहुत भयभीत हूँ। मेरे रुतबे का अनुसरण तुम्हारा तिरस्कार है। मुझ पर दया-दृष्टि बनाए रखो। मुझे अपना भ्रष्ट स्वभाव जानने दो ताकि मैं अब आगे से तुमसे बहस न करूँ और तुम्हारा विरोध न करूँ।” घर लौटकर मैंने परमेश्वर के वो वचन ढूँढ़े जो रुतबे के अनुसरण को उजागर करते हैं। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जिन लोगों के मन में परमेश्वर को लेकर गलतफहमियाँ और कल्पनाएँ होती हैं, या जिनके मन में उससे बड़ी-बड़ी इच्छाएँ और माँगें होती हैं, वे कर्तव्य निभाते हुए सर्वाधिक मिलावटी होते हैं। वे प्रतिष्ठा, रुतबा और पुरस्कार चाहते हैं, और यदि कोई बड़ा पुरस्कार अभी तक उन्हें नहीं मिला और उनकी नजरों से दूर है तो वे सोचने लगते हैं, ‘चूँकि मैं इसे तुरंत हासिल नहीं कर सकता, इसलिए मुझे बस इंतजार कर धीरज रखना पड़ेगा। मगर मुझे कुछ न कुछ फायदे अभी ही ले लेने चाहिए, या कम से कम कोई रुतबा तो मिल जाना चाहिए। पहले मैं कलीसिया में अगुआ बनने का प्रयास करूँगा, दर्जनों लोगों की जिम्मेदारी उठाऊँगा। हमेशा लोगों से घिरे रहना कितनी फख्र की बात है।’ और तब परमेश्वर में उनके विश्वास में यह खोट दिखाई देती है। जब तुमने कोई कर्तव्य नहीं निभाया है, या परमेश्वर के घर के लिए कोई व्यावहारिक कार्य नहीं किया है, तो तुम्हें लगेगा कि तुम योग्य नहीं हो, और तुम में ये चीजें पैदा नहीं होंगी। मगर जब तुम कुछ करने में समर्थ होते हो और तुम्हें लगता है कि तुम अधिकतर लोगों से कुछ श्रेष्ठ हो, और तुम कुछ धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर सकते हो, तो ये चीजें तुम्हारे भीतर आएँगी। उदाहरण के लिए, अगुआ का चुनाव होते समय यदि परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास एक-दो वर्ष से ही है, तो तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, तुम कोई धर्मोपदेश देने में समर्थ नहीं हो और तुम योग्य नहीं हो, तो तुम अपनी उम्मीदवारी से पीछे हट जाओगे। तीन या पाँच साल के विश्वास के बाद तुम कुछ आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने में सक्षम हो जाओगे, तो दोबारा अगुआ चुनने का समय आने पर तुम सक्रिय रूप से उस पद के लिए कोशिश करते हुए प्रार्थना करोगे, ‘हे परमेश्वर! मैं एक जिम्मेदारी ले रहा हूँ, मैं कलीसिया में अगुआ बनना चाहता हूँ और तुम्हारे इरादों के प्रति विचारशील रहने को तैयार हूँ। लेकिन चाहे मैं चुना जाऊँ या न चुना जाऊँ, मैं तुम्हारी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को हमेशा तैयार हूँ।’ तुम यह तो कहोगे कि तुम समर्पण के लिए तैयार हो मगर अपने हृदय में सोचोगे, ‘लेकिन बेहतर हो कि तुम मुझे अगुआ बनने का मौका दो!’ यदि तुम्हारी ऐसी माँग होती है तो क्या परमेश्वर इसे पूरा करेगा? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि तुम्हारी यह माँग जायज अनुरोध नहीं है, बल्कि एक असंयत इच्छा है। भले ही तुम यह कहो कि तुम परमेश्वर की जिम्मेदारियों के प्रति सोच-विचार दिखाने के लिए अगुआ बनना चाहते हो, लेकिन इस बहाने को अपने औचित्य के रूप में प्रयोग करके और यह महसूस करके कि यह सत्य के अनुरूप है, तुम तब क्या सोचोगे जब परमेश्वर तुम्हारी माँग पूरी न करे? तुम कौन-सी अभिव्यक्तियाँ प्रकट करोगे? (मैं परमेश्वर को गलत समझूँगा और सोचूँगा कि उसने मुझे संतुष्ट क्यों नहीं किया, जबकि मैं तो उसकी जिम्मेदारियों के प्रति ही सोच-विचार दिखाना चाहता था। मैं नकारात्मक और प्रतिरोधी बन जाऊँगा और शिकायत करूँगा।) तुम नकारात्मक हो जाओगे और सोचोगे, ‘जिस व्यक्ति को उन्होंने चुना है, उसे परमेश्वर में विश्वास करते हुए उतना समय भी नहीं हुआ है जितना मुझे हो चुका है, वे मेरे जैसे सुशिक्षित नहीं हैं और उनकी काबिलियत मुझसे कमतर है। मैं भी धर्मोपदेश दे सकता हूँ, तो वे किस मायने में मुझसे बेहतर हैं?’ तुम सोचते रहोगे पर इसे समझ नहीं पाओगे, इसलिए तुम्हारे भीतर धारणाएँ पैदा होंगी और तुम परमेश्वर को अधार्मिक मानने लगोगे। क्या यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? क्या तुम अब भी समर्पण कर सकोगे? नहीं। यदि तुम में अगुआ बनने की यह इच्छा न होती, यदि तुम सत्य का अनुसरण कर पाते और यदि तुम में आत्मज्ञान होता, तो तुम कहते, ‘मैं बस एक साधारण अनुयायी बनकर ही खुश हूँ। मेरे पास सत्य वास्तविकता नहीं है, मेरी मानवता औसत है, और मैं बहुत अच्छा वक्ता नहीं हूँ। मेरे पास थोड़ा-बहुत अनुभव है, पर मैं इसके बारे में वाकई बता नहीं सकता। मैं इसके बारे में और बताना चाहता हूँ, पर मैं अपनी बात साफ तौर पर समझा नहीं सकता। यदि मैं ज्यादा बोलता भी हूँ तो संभव है कि लोग मेरी बातों से ऊब जाएँ। मैं इस पद के लायक बिल्कुल नहीं हूँ। मैं एक अगुआ बनने के लिए उपयुक्त नहीं हूँ, मुझे तो बस दूसरों से सीखते रहना चाहिए, अपनी भरसक योग्यता के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहिए और धरातल पर टिके रहकर सत्य का अनुसरण करना चाहिए। एक दिन जब मेरे पास आध्यात्मिक कद होगा और मैं नेतृत्व करने योग्य हो जाऊँगा, तब अगर मेरे भाई-बहन मुझे चुनेंगे तो मैं इनकार नहीं करूँगा।’ यह सही मनःस्थिति है। ... चाहे तुम जो करो, तुम्हें अपनी मंशाओं, अपने मूल बिंदु, अपने इरादों, अपने लक्ष्यों और अपने विचारों पर सत्य के अनुसार चिंतन कर इन्हें समझना चाहिए, और तब तय करना चाहिए कि क्या वे सही हैं या गलत। इन सभी चीजों की नींव और आधार परमेश्वर के वचन होने चाहिए, ताकि तुम गलत रास्ते पर न चले जाओ। भले ही तुम कुछ भी करना चाहो, या परमेश्वर के सामने जो कुछ खोजो, प्रार्थना करो या माँगो, यह जायज और तर्कसंगत होना चाहिए, यह कुछ ऐसा होना चाहिए जिसे सबके सामने रखा जा सके और जिसे हर कोई मंजूरी दे सके। ऐसी चीजों को खोजना और उनके लिए प्रार्थना करना बेकार है, जिन्हें सबके सामने न लाया जा सके। उन चीजों के लिए तुम चाहे जितनी भी प्रार्थना करो, इसका कोई फायदा नहीं होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफहमियों को दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर ने जो उजागर किया वही बिल्कुल मेरी सच्ची दशा थी। जब मैंने पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया तो मुझमें अगुआ बनने की कोई इच्छा नहीं थी क्योंकि मुझे लगता था कि मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मैं योग्य नहीं हूँ। समय के साथ जैसे-जैसे मैं अपना कर्तव्य निभाती गई, मैं कुछ आध्यात्मिक धर्मसिद्धांत सुनाने में सक्षम हो गई और मुझे अपने कार्य में कुछ नतीजे दिखने लगे, इसलिए मुझे लगा कि मुझमें अच्छी काबिलियत और पूँजी है, मैं कलीसिया में दुर्लभ प्रतिभासंपन्न इंसान हूँ और मुझे अगुआ चुन लिया जाना चाहिए। इस तरह हर चुनाव मेरी उत्सुकता जगाता था और मैं अगुआ चुन लिए जाने की खातिर सक्रिय होकर अपना कर्तव्य निभाती थी। लेकिन जब मुझे नहीं चुना गया तो मेरे घृणास्पद इरादे पूरी तरह बेनकाब हो गए। मैंने न केवल अपने कर्तव्य के लिए बोझ उठाना छोड़ दिया, समस्याएँ दिखने पर भी उनका समाधान नहीं किया, बल्कि मुझे जलन और नफरत भी होती थी और मैंने नवनिर्वाचित अगुआ की आलोचना भी की और यहाँ तक कि परमेश्वर के प्रति अपने दिल में शिकायत की, मैं यह विश्वास करने लगी कि परमेश्वर अन्यायी है और उसने मेरी प्रतिभा को दफन कर दिया है। मैंने देखा कि मुझमें परमेश्वर के प्रति कोई समर्पण नहीं है या परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं है और यह भी कि मेरे बुरे कर्मों का कारण रुतबे का अनुसरण है। अगर मेरे इरादों का उद्देश्य वास्तव में कलीसिया के कार्य की रक्षा करना होता तो एक साधारण विश्वासी के रूप में भी मैं परमेश्वर के इरादे के प्रति विचारशील हो सकती थी और शांत होकर अपना मुख्य काम कर सकती थी। तथ्यों से साबित हो गया कि मेरे कार्यकलापों का स्रोत और प्रस्थान बिंदु, दोनों का ही उद्देश्य रुतबा था। मैं बस यह चाहती थी कि अगुआ बन जाऊँ और लोगों से अपने इर्द-गिर्द चक्कर कटवाऊँ और एक “अधिकारी” बनने की अपनी महत्वाकांक्षा और इच्छा पूरी करूँ। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे ऐसे इरादों के कारण न केवल मैं अगुआ नहीं चुनी गई, बल्कि अपना मुख्य काम अच्छे से करने में भी नाकाम रही।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपनी समस्याओं की कुछ समझ हासिल की। परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर के प्रति मनुष्य की समस्त गलतफहमियाँ क्यों पैदा होती हैं? वे इसलिए पैदा होती हैं, क्योंकि लोग अपनी ही क्षमताओं को नहीं आंक पाते; सटीक रूप से कहें तो वे नहीं जानते कि परमेश्वर की दृष्टि में वे किस तरह की चीजें हैं। वे स्वयं को बहुत अधिक आँकते हैं और परमेश्वर की दृष्टि में अपनी स्थिति बहुत ऊँची मानते हैं, और वे किसी व्यक्ति की कीमत और पूँजी को सत्य की तरह समझते हैं, उसे परमेश्वर के वे मापदंड मान लेते हैं जिनसे वह निर्धारित करता है कि वे बचाए जाएँगे या नहीं। यह गलत है। तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि परमेश्वर के हृदय में तुम्हारा स्थान कैसा है और परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है और परमेश्वर से पेश आते हुए तुम्हारे द्वारा अपनाए जाने वाली कौन-सी स्थिति उचित है। तुम्हें इस सिद्धांत को जानना चाहिए; इस तरह तुम्हारे विचार सत्य से मेल खाएँगे और परमेश्वर के विचारों के अनुरूप होगे। तुममें यह समझ होनी चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना चाहिए; चाहे वह तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार करे, तुम्हें समर्पण करना चाहिए। तब तुम्हारे और परमेश्वर के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं होंगे। और जब परमेश्वर फिर से तुम्हारे साथ अपने ढंग से व्यवहार करेगा, तो क्या तुम समर्पण करने में सक्षम नहीं होगे? क्या तुम अब भी परमेश्वर से संघर्ष करोगे और उसका विरोध करोगे? तुम नहीं करोगे। भले ही तुम्हें अपने दिल में कुछ असुविधा महसूस हो, या तुम्हें लगे कि तुम्हारे प्रति परमेश्वर का व्यवहार वैसा नहीं है जैसा तुम चाहते हो और तुम यह नहीं समझते कि वह तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करता है, लेकिन तुम पहले से ही कुछ सत्य समझते हो और तुम्हारे पास कुछ वास्तविकताएँ हैं, और चूँकि तुम अपनी स्थिति में अडिग रहने में सक्षम हो, इसलिए तुम अब परमेश्वर के विरुद्ध नहीं लड़ोगे, जिसका अर्थ है कि तुम्हारे वे कार्य और व्यवहार जो तुम्हारे नष्ट होने का कारण बनते, वे अस्तित्वहीन हो जाएँगे। और क्या तब तुम सुरक्षित नहीं रहोगे? एक बार जब तुम सुरक्षित हो जाओगे, तो तुम जमीन से जुड़ा हुआ महसूस करोगे, जिसका मतलब है कि तुमने पतरस के रास्ते पर चलना शुरू कर दिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य का जो रवैया होना चाहिए)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि परमेश्वर को लेकर मेरी गलतफहमी और आलोचना और मेरे गंभीर अपराध का कारण मेरी अत्यंत अहंकारी प्रकृति और अपना अधिमूल्यांकन था। मुझे लगता था कि भले ही मुझे परमेश्वर में विश्वास रखते हुए थोड़ा-सा ही समय हुआ है, फिर भी मुझमें काबिलियत और कार्य क्षमताएँ हैं, मैं हमेशा एक सुपरवाइजर रही हूँ और जब भी महत्वपूर्ण कार्य सामने आता है तो अगुआ मेरे बारे में सोचते हैं। मैं खुद को कलीसिया में दुर्लभ प्रतिभासंपन्न इंसान मानती थी, इसलिए मुझे लगता था कि मुझे अगुआओं की पंगत में होना चाहिए। जब मैं कई चुनावों में हार गई और मेरी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं तो मैंने शिकायत की और सोचा कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है और मैं लगातार परमेश्वर से झगड़ने लगी। मैंने देखा कि मुझमें आत्म-जागरूकता नहीं है और मैं अपनी ही क्षमताओं को नहीं आँक पाती हूँ। मैं थोड़े-से ही समय से परमेश्वर में विश्वास कर रही थी और मुझे कोई कार्य अनुभव नहीं था। भले ही मैं कुछ पेशेवर कौशल समझती थी लेकिन मैं कई सत्य सिद्धांतों को लेकर स्पष्ट नहीं थी। जब भी मेरे सामने कठिनाइयाँ आती थीं, मैं ईमानदारी से परमेश्वर से प्रार्थना कर सिद्धांत खोजती थी। जब मेरे सही इरादे होते थे तो मैं अनजाने में ही कुछ चीजों को समझ लेती थी जो पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन होता था। लेकिन परमेश्वर का आभार व्यक्त करने के बजाय मैं इन्हें पूँजी मानती थी, यह डींग मारती थी कि मुझमें खूब काबिलियत और कार्य क्षमताएँ हैं और मुझे एक अगुआ का कर्तव्य निभाना चाहिए। मुझमें सचमुच विवेक और आत्म-जागरूकता की कमी थी। साथ ही, मुझे यह एहसास भी हुआ कि कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता चुने जाने के लिए उनमें कम से कम एक सही हृदय और अच्छी मानवता होनी चाहिए और उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए। लेकिन मैं रुतबे के पीछे भागती आ रही थी और चुनाव में कई नाकामियाँ झेलने के कारण जब परमेश्वर ने मेरी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी नहीं कीं तो मैंने नकारात्मक होकर उसका विरोध किया और जब मुझे कोई पद नहीं मिला तो मैंने अपने कर्तव्य में बोझ उठाना छोड़ दिया। मैं सत्य के अनुसरण के मार्ग पर नहीं चल रही थी और वास्तव में अगुआ होने की शर्तें पूरी नहीं करती थी। भाई-बहनों का मुझे न चुनना सही था। इस कारण मैंने यह भी देख लिया कि परमेश्वर हर चीज की जाँच कर रहा है।

आगे मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और हमेशा अगुआ बनने की इच्छा करते रहने की अपनी समस्या के बारे में कुछ और समझ हासिल की। परमेश्वर कहता है : “हैसियत के लिए होड़ करने की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर के घर के काम में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने की प्रकृति से जुड़ी हैं? सबसे आम है लोगों का हैसियत के लिए कलीसिया के अगुआओं के साथ होड़ करना, जो मुख्य रूप से उनके द्वारा अगुआओं की कुछ चीजों और त्रुटियों का फायदा उन्हें बदनाम करने और उनकी निंदा करने के लिए उठाने में अभिव्यक्त होता है, और जानबूझकर उनकी भ्रष्टता का प्रकाशन और उनकी मानवता और क्षमता की विफलताएँ और कमियाँ उजागर करने में प्रकट होता है, खासकर जब बात उनके द्वारा अपने काम में या लोगों को सँभालने की गई चूकों और गलतियों की हो। यह हैसियत के लिए कलीसिया के अगुआओं के साथ होड़ करने की सबसे आम तौर पर दिखने वाली और सबसे मुखर अभिव्यक्ति है। इसके अलावा, ये लोग इस बात की परवाह नहीं करते कि कलीसिया के अगुआ अपना काम कितनी अच्छी तरह से करते हैं, वे सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं या नहीं, या उनकी मानवता के साथ कोई समस्या है या नहीं, और बस इन अगुआओं के प्रति अवज्ञाकारी होते हैं। वे अवज्ञाकारी क्यों होते हैं? क्योंकि वे भी कलीसिया-अगुआ बनना चाहते हैं—यह उनकी महत्वाकांक्षा, उनकी इच्छा होती है, इसलिए वे अवज्ञाकारी होते हैं। चाहे कलीसिया-अगुआ कैसे भी काम करते हों या कैसे भी समस्याओं से निपटते हों, ये लोग हमेशा उनसे संबंधित खामियाँ पकड़ते हैं, उनकी आलोचना और निंदा करते हैं, यहाँ तक कि चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने, तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने और चीजों को जितना हो सके, बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की हद तक चले जाते हैं। वे उन मानकों का उपयोग नहीं करते, जिनकी अपेक्षा परमेश्वर का घर अगुआओं और कार्यकर्ताओं से यह मापने के लिए करता है कि क्या यह अगुआ सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है, क्या वह सही व्यक्ति है, क्या वह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है और क्या उसमें जमीर और विवेक है। वे अगुआओं का मूल्यांकन इन सिद्धांतों के अनुसार नहीं करते। इसके बजाय वे अपने ही इरादों और लक्ष्यों के आधार पर लगातार मीन-मेख निकालते हैं और शिकायतें गढ़ते हैं, अगुआओं या कार्यकर्ताओं के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए चीजें ढूँढ़ते हैं, उनकी पीठ पीछे उनके द्वारा की गई उन चीजों के बारे में अफवाहें फैलाते हैं जो सत्य के अनुरूप नहीं होतीं या उनकी कमियाँ उजागर करते हैं। ... यह सब करने के पीछे उनका क्या लक्ष्य होता है? यह सत्य समझने और नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने में लोगों की मदद करने के लिए नहीं होता, न ही यह लोगों को परमेश्वर के सामने लाने के लिए होता है। इसके बजाय, उनका उद्देश्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हराना और गिराना होता है, ताकि हर कोई अगुआ के रूप में सेवा करने के लिए उन्हें ही सबसे उपयुक्त उम्मीदवार समझे। इस बिंदु पर उनका लक्ष्य पूरा हो जाता है और उन्हें बस भाई-बहनों द्वारा उन्हें अगुआ के रूप में नामित किए जाने का इंतजार करना होता है। क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? उनके स्वभाव कैसे हैं? ये व्यक्ति स्वभाव से दुष्ट होते हैं, वे सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते और उसका अभ्यास भी नहीं करते; वे सिर्फ सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14))। परमेश्वर यह उजागर करता है कि रुतबे की होड़ करने वालों का स्वभाव बहुत क्रूर होता है, उनमें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता और उनकी मानवता खराब होती है। अपने व्यवहार के बारे में आत्मचिंतन कर मैं सत्ता के लिए अपनी ही महत्वाकांक्षा और इच्छा से शर्मिंदा हो गई, मैं अपने उचित कर्तव्य की अनदेखी कर लगातार रुतबे की होड़ में लगी रहती थी, साथ ही मैं अगुआ की आलोचना करती रहती थी और कलीसिया के चुनाव में बाधा डालती रहती थी। यह देखकर कि सियू अगुआ चुन ली गई है, मैंने यह नहीं सोचा कि कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के लिए उसके साथ कैसे सहयोग करूँ, बल्कि मैं प्रतिरोधी और उदास हो गई थी, उसे नीचा दिखाती थी, उसे हेय दृष्टि से देखती थी और छिपे हुए इरादे से उसकी आलोचना करती थी, मैं यह उम्मीद लगाए रहती थी कि भाई-बहनों को सियू मुझसे कम काबिल और अगुआ के कर्तव्य में अयोग्य दिखेगी, ताकि मुझे अगुआ बनने का मौका मिले। इस कारण आखिरकार भाई-बहनों ने सियू के बारे में नकारात्मक धारणा बना ली, इससे कलीसिया के चुनाव में बाधा पैदा हुई। जब बहन ने मेरी काट-छाँट की तो उसके बाद मैंने भले ही कलीसिया में लापरवाही से आलोचना करने का साहस नहीं किया लेकिन मेरे अंदर की अवज्ञा का समाधान नहीं हुआ और मैं अपने परिवार वालों के सामने गुबार निकालती रही, मुझमें रत्तीभर भी विवेक नही था! जब मैंने इस बारे में सोचा तो जाना कि जो अगुआ चुने जाते हैं वे सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया में होते हैं और उन सबमें अपनी-अपनी कमियाँ और अपर्याप्तताएँ होती हैं। अगर मेरे पास सही हृदय होता और मैं कलीसिया के हितों की रक्षा करने वाली इंसान होती तो मैं अगुआ की कमियाँ देखकर उसकी तौहीन न करती या उसे हेय दृष्टि से न देखती, बल्कि उसके साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करती, ताकि हम एक दूसरे की खूबियों और कमजोरियों की पूरक बन सकें। किसी मानवता-युक्त व्यक्ति ने यही किया होता। मैंने उन बुरे लोगों के बारे में सोचा जो कलीसिया से निष्कासित कर दिए गए थे। रुतबे की होड़ में उन्होंने हर अवसर पर अगुआओं का विरोध किया था, वे अक्सर मीन-मेख निकालते थे, उनकी पीठ पीछे कलह के बीज बोते थे, जिस कारण भाई-बहनों के मन में अगुआओं के खिलाफ पूर्वाग्रह पैदा हुए और आखिरकार इससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा हुई और उन्हें निष्कासित कर दिया गया। यह एहसास होने पर मैं बहुत घबरा गई, मैं जानती थी कि अगर मैंने पश्चात्ताप न किया तो इन बुरे लोगों की तरह मुझे भी परमेश्वर बेनकाब करेगा और हटा देगा। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे दया-दृष्टि और उद्धार माँगा। फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचनों के बारे में सोचा : “रुतबा न होना तुम्हारी सुरक्षा है। साधारण अनुयायी के रूप में तुम्हें बड़ी बुराई करने का मौका कभी नहीं मिल सकता, और तुम्हें दंडित किए जाने की संभावना शून्य हो सकती है। परंतु, जैसे ही तुम रुतबा हासिल करते हो, तुम्हारे द्वारा बुरा काम किए जाने की संभाव्यता सौ प्रतिशत हो जाती है, साथ ही तुम्हें दंडित किए जाने की संभाव्यता भी सौ प्रतिशत हो जाती है, और फिर तुम्हारे लिए सब कुछ खत्म हो जाता है, और तुम उद्धार पाने के अपने अवसरों को एकदम नष्ट कर देते हो। यदि तुममें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं, तो तुम्हें जल्दी से जल्दी परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, समस्या के हल के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए और आत्म-संयम का अभ्यास करना चाहिए, और अपने पद के नशे में नहीं डूबना चाहिए, और फिर तुम सामान्य तरीके से अपना कर्तव्य निभा सकोगे(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। चुनावों में अपनी बार-बार की नाकामियों के बारे में आत्मचिंतन करते हुए मैंने जाना कि इसके पीछे परमेश्वर का इरादा था। रुतबे के लिए मेरी इच्छा बहुत तीव्र थी और मेरी प्रकृति बहुत ही अहंकारी थी। अगर मुझे कोई पद मिल जाता तो जो भी व्यक्ति मेरी बात न सुनता या मेरे रुतबे के लिए खतरा बन जाता, वह मेरे हाथों दमन या बहिष्कार झेलता। अंततः मैं अनेक बुरे कर्म कर बैठती और एक मसीह-विरोधी की तरह बेनकाब कर हटा दी जाती। मुझे लगा कि परमेश्वर का मुझे रुतबा न देना मेरा बचाव था। इन घटनाओं के पीछे परमेश्वर का प्रेम छिपा था लेकिन मैंने उसे गलत समझा और उसके बारे में शिकायत की। मैं नहीं जानती थी कि मेरे लिए क्या अच्छा है और इससे परमेश्वर के दिल को सचमुच चोट पहुँची। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद मैंने खुद को खास तौर पर रोशन और मुक्त महसूस किया और मेरे और परमेश्वर के बीच की बाधा हट गई।

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब भी तुम कुछ करते हो, और चाहे उसका जो भी संदर्भ हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, ऐसा व्यक्ति बनने का अभ्यास करना चाहिए जो परमेश्वर के प्रति ईमानदार और आज्ञाकारी हो, और रुतबे और प्रतिष्ठा के अनुसरण को दरकिनार कर देना चाहिए। जब तुममें रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की निरंतर सोच और इच्छा होती है, तो तुम्हें यह बात पता होनी चाहिए कि अगर इस तरह की स्थिति को अनसुलझा छोड़ दिया जाए तो कैसी बुरी चीजें हो सकती हैं। इसलिए समय बर्बाद न करते हुए सत्य खोजो, रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की इच्छा पर प्रारंभिक अवस्था में ही काबू पा लो, और इसके स्थान पर सत्य का अभ्यास करो। जब तुम सत्य का अभ्यास करने लगोगे, तो रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की तुम्हारी इच्छा और महत्वाकांक्षा कम हो जाएगी और तुम कलीसिया के काम में बाधा नहीं डालोगे। इस तरह, परमेश्वर तुम्हारे क्रियाकलापों को याद रखेगा और उन्हें स्वीकृति देगा। तो मैं किस बात पर जोर दे रहा हूँ? वह बात यह है : इससे पहले कि तुम्हारी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पुष्पित और फलीभूत होकर बड़ी विपत्ति लाएँ, तुम्हें उनसे छुटकारा पा लेना चाहिए। यदि तुम उन्हें शुरुआत में ही काबू नहीं करोगे, तो तुम एक बड़े अवसर से चूक जाओगे; अगर वे बड़ी विपत्ति का कारण बन गईं, तो उनका समाधान करने में बहुत देर हो जाएगी। यदि तुममें दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने की इच्छा तक नहीं है, तो तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना बहुत मुश्किल हो जाएगा; यदि तुम शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के प्रयास में असफलताओं और नाकामयाबियों का सामना करने पर होश में नहीं आते, तो यह स्थिति बहुत खतरनाक होगी : इस बात की संभावना है कि तुम्हें हटा दिया जाए(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक मार्ग दिया। मैंने देखा कि रुतबा त्यागने के लिए सत्य खोजने की जरूरत पड़ती है। जब मुझमें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ हों तो मुझे उनके बदले सत्य का अभ्यास करने की जरूरत है। मुझे तुरंत अपने गलत विचारों और ख्यालों के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए और अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए तुरंत सत्य खोजना चाहिए। मुझे यह एहसास भी हुआ कि परमेश्वर व्यक्ति का परिणाम उसके रुतबे या पहचान के आधार पर तय नहीं करता, बल्कि इस आधार पर तय करता है कि व्यक्ति ने सत्य वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है और क्या उसमें परमेश्वर के लिए सच्चा समर्पण है और क्या चीजें घटित होने पर वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकता है। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद मैं समर्पण करने को तैयार थी। चूँकि मुझे पाठ आधारित कर्तव्य निभाने में लगाया गया था, इसलिए मुझे स्वीकार और आज्ञापालन करना चाहिए और व्यावहारिक होकर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए।

मार्च 2023 में अगुआ के पद भरने के लिए कलीसिया ने एक और चुनाव कराया। हालाँकि मुझमें अब भी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ थीं, मुझे लगता था कि यह चुनाव लड़ने और चुने जाने का एक और मौका है, लेकिन मैं जानती थी कि रुतबे के लिए मेरी इच्छा बहुत तीव्र है जो मुझे आसानी से एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर धकेल सकती है। मैं रुतबे का अनुसरण नहीं करती रह सकती थी। मुझे खुद को रोकना था और अपने खिलाफ विद्रोह करना था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे रुतबे के सामने बेबस होने से बचाए। अगर मैं चुन ली जाती हूँ तो मैं अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभाऊँगी। अगर नहीं चुनी गई तो मैं निराश नहीं होऊँगी या इससे अपने कर्तव्य पर असर नहीं पड़ने दूँगी। चाहे मेरे पास पद हो या न हो, मैं समर्पण करने और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने को तैयार थी। चुनाव के दिन मेरी यह मानसिकता नहीं थी कि मैं अगुआ की भूमिका के लिए बेसब्र होकर लड़ूँ। मैंने रुतबे के पीछे भागने के अपने अनुभव पर संगति की और अपने उन पुराने कार्यकलापों के प्रति घृणा और तिरस्कार व्यक्त किया जो मेरे रुतबे के पीछे भागने के कारण परमेश्वर का प्रतिरोध करते थे। अपनी संगति के बाद मैं वहीं बैठ गई और मुझे बहुत शांति महसूस हुई। जब चुनावी नतीजे घोषित किए गए तो अनपेक्षित रूप से सबसे ज्यादा मत मुझे मिले और मैं कलीसिया की अगुआ चुन ली गई। पहले की बात होती तो मैं फूली नहीं समाती, लेकिन अब मैं जानती थी कि इस कर्तव्य से बहुत बड़ी जिम्मेदारी जुड़ी हुई है। मैंने इसे एक बड़ी जिम्मेदारी के रूप में स्वीकारा, न कि पद के साथ आने वाली प्रतिष्ठा का आनंद लेने के रूप में। मैं जानती थी कि मुझमें इस छोटे-से बदलाव की सारी वजह परमेश्वर का उद्धार है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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