34. माँ के गुजरने के सदमे से उबरना
2012 में, कर्तव्य निभाने के कारण पुलिस ने मुझे गिरफ्तार किया और पाँच साल के लिए जेल भेज दिया। तब, मेरी माँ की उम्र 60 साल से ज्यादा थी। वह हेमिप्लेजिया से पीड़ित थी, फिर भी वह जेल में मुझसे मिलने आती थी। मेरी माँ आसानी से चल-फिर नहीं पाती थी या ठीक से खड़ी नहीं रह पाती थी, यह देखकर मैं बहुत परेशान थी। उन्होंने इतने सालों से मुझे पाला-पोसा था, पर मैं उनकी संतानोचित देखभाल तो कर नहीं पाई, ऊपर से वो बुढ़ापे में भी मेरी चिंता में डूबी थीं। जेल से छूटने के बाद, पता चला कि जब मैं जेल में थी, पुलिस मेरे बारे में पूछताछ करने के लिए मेरे घर आई थी। उन्होंने मेरी माँ को रिकॉर्ड किया और उन्हें डराया-धमकाया। वह डरी हुई थी, और उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ गया था। मुझे लगा कि मैं सच में उनकी ऋणी हूँ, मैंने सोचा, “अब से, मुझे अपनी माँ का अच्छे से ख्याल रखना होगा, ताकि उन्हें इतना कष्ट न सहना पड़े।” मगर मेरी इच्छा पूरी नहीं हो सकी। पुलिस अभी भी मेरे बारे में छानबीन करते हुए मुझ पर लगातार नजर रख रही थी, और अपनी सुरक्षा के लिए, मुझे अपना घर छोड़कर कर्तव्य निभाने जाना पड़ा।
दो साल बाद, मैंने सुना कि मेरी माँ मेरी बहन के घर पर थी, तो मैं चुपके से उनसे मिलने चली गई। मेरी माँ की नजर पहले से खराब हो गई थी और वह साफ नहीं देख पाती थी; वह एक बेंत के सहारे लंगड़ाती हुई चल रही थी। उनके लिए थोड़ा भी चलना-फिरना मुश्किल था, और बोलने में भी परेशानी होती थी। उन्हें इस हालत में देखना दर्दनाक था। खासकर जब उन्होंने मुझसे पूछा, “तुम फिर कब वापस आओगी?” मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहूँ। क्योंकि पुलिस अभी भी मुझे ढूँढ रही थी, इस बार यहाँ आकर मैंने बड़ा जोखिम उठाया था। अगर गई, तो पता नहीं वापस कब आऊँगी। माँ ने मेरे जवाब के इंतजार में मेरी ओर देखा, पर मुझे कुछ समझ नहीं आया, तो मैंने बस उनका कंधा सहलाया और चुप ही रही। वहाँ से जाने के बाद, माँ का सवाल मेरे कानों में गूँज रहा था। इस बारे में जितना सोचती, उतना ही बुरा लगता। मैं उनसे एक छोटा-सा वादा भी नहीं कर पाई और लगा कि मैंने उन्हें निराश किया था। कुछ ही समय बाद, मैंने सुना कि मेरी बहन को गिरफ्तार कर लिया गया। अब मैंने उसके घर जाने की हिम्मत नहीं की। लगा जैसे मेरे दिल में नश्तर चुभो दिया गया हो। मेरी माँ इतनी बूढ़ी थी, बिस्तर पर पड़ी थी, चल-फिर नहीं सकती थी। वो कभी भी गुजर सकती थी। उनकी बेटी होने के नाते, मेरे पास उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने का भी मौका नहीं था। कुछ ही समय बाद, कोरोनावायरस का प्रकोप फैला, और हर तरफ लोग मर रहे थे। मैं फिर से चिंता करने लगी, सोचा, “क्या मेरी माँ भी वायरस की चपेट में आ जाएगी? क्या वह इस आपदा से बच पाएगी? अगर वह मर गई, तो मुझे एक आखिरी बार उन्हें देखने का मौका भी नहीं मिलेगा।” बाद में, मैंने अपने परिवार से संपर्क करने का एक जरिया ढूँढा। मुझे पता चला कि मेरी माँ करीब एक महीने पहले ही गुजर गई थी। यह खबर सुनकर, मैं अपनी कुर्सी पर गिर पड़ी, दिमाग सुन्न पड़ गया, मैंने अपने आँसू रोकने की कोशिश की। मैं अपनी माँ के गुजरने से पहले आखिरी बार उन्हें देख भी नहीं पाई। क्या उन्होंने सोचा होगा कि मुझमें कोई जमीर नहीं है? क्या उन्होंने मुझे निष्ठुर कहा होगा? घर पहुँचकर मैं बहुत रोई। मेरी माँ ने मुझे इतने सालों से पाला-पोसा था, फिर भी उनके जिंदा रहते मैं उनका खयाल नहीं रख पाई, और जब वह मर गई, तो आखिरी बार उन्हें देख भी नहीं पाई। मेरा जमीर मुझे कचोट रहा था, और अपराध बोध ने मुझे घेर लिया था। उस दौरान, मैंने बूढ़े लोगों को अपने घर के सामने के दरवाजे पर धूप सेंकते देखा था, और उनके बेटे-बेटियाँ उनकी देखभाल किया करते थे, और सोचा, “जब मेरी माँ घर के सामने के दरवाजे पर धूप में बैठती थी, तो मैं उनके साथ नहीं होती थी। मैंने उनके नाखून या बाल नहीं काटे।” जब मेरे मेजबान परिवार की बहन ने बढ़िया खाना पकाया, तो भी मैंने सोचा, “मैं अपनी माँ के लिए ऐसा खाना नहीं बना पाई, और मुझे फिर कभी यह मौका नहीं मिलेगा।” बसंत उत्सव के दौरान, मैंने देखा कि सड़कों पर हर कोई अपने गाँव वापस जाने की जल्दी में था। उनमें से कुछ अपने बच्चों के साथ बुजुर्गों से मिलने के लिए अपने गाँव वापस जा रहे थे। मैं गिनने लगी कि मुझे अपनी माँ के साथ गए कितने साल हो गए थे। उस दौरान, मुझमें न तो कोई उत्साह था और न मेरा कोई लक्ष्य था। भले मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, पर जब भी मेरे पास खाली समय होता, मैं अपनी माँ के बारे में सोचकर उनकी ऋणी महसूस करती। परमेश्वर के वचन पढ़कर भी मेरा दिल शांत नहीं होता, और मैं हमेशा उनींदी रहती थी। मैं अपने कर्तव्य में अनमनी और बेपरवाह होने लगी, और मैं अपने साथी भाई-बहनों से भी बात नहीं करना चाहती थी। जब हम साथ में पेशेवर कौशल का अध्ययन करते थे, तो मेरा ध्यान कहीं और होता था। जब अगुआ काम के बारे में पूछने आई, तो मैंने जवाब देना नहीं चाहा, और अगर जवाब दिया भी, तो बस कुछ अनमने शब्द ही बोले। मैंने अपने कर्तव्य पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। मैं पतन की ओर बढ़ती रही, और मुझे अपने कर्तव्य में कोई नतीजे नहीं मिले। कर्तव्य निभाने के साथ ही मैं नौकरी भी करना चाहती थी, सारा समय खुद को खपाने में नहीं बिताना चाहती थी।
बाद में, मुझे एहसास हुआ कि इस तरह चलते रहना मेरे लिए खतरनाक था, तो मैं फौरन प्रार्थना करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने लगी। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अपने माता-पिता का बीमार होना तुम्हारे लिए पहले से ही एक गहरा झटका है, तो उनका निधन उससे भी बड़ा झटका होगा। तो फिर निधन होने से पहले तुम्हें उस अप्रत्याशित झटके का समाधान कैसे करना चाहिए, ताकि यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या चलने के पथ में रुकावट न डाले? सबसे पहले आओ देखें वास्तव में मृत्यु का अर्थ क्या है और गुजर जाना क्या होता है—क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई व्यक्ति इस दुनिया को छोड़ रहा है? (हाँ।) इसका अर्थ है कि शारीरिक मौजूदगी वाला किसी व्यक्ति का जीवन मनुष्य द्वारा देखे जा सकने वाले भौतिक संसार से हटा दिया जाता है और फिर वह गायब हो जाता है। वह व्यक्ति फिर किसी और दुनिया में, किसी और रूप में जीने के लिए चला जाता है। तुम्हारे माता-पिता के जीवन के प्रस्थान का अर्थ है कि इस संसार में उनसे तुम्हारा रिश्ता भंग, गायब और खत्म हो चुका है। वे किसी और दुनिया में किसी और रूप में जी रहे हैं। उस दूसरी दुनिया में उनका जीवन किस तरह चलेगा, क्या वे इस दुनिया में लौटकर आएँगे, तुमसे फिर मिलेंगे या तुम्हारे साथ उनका कोई शारीरिक संबंध होगा या वे तुमसे किसी भावनात्मक जाल में उलझेंगे, यह परमेश्वर द्वारा नियत है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। कुल मिलाकर, उनके निधन का अर्थ है कि इस दुनिया में उनके उद्देश्य पूरे हो चुके हैं, और उनके पीछे एक पूर्ण विराम लग चुका है। इस जीवन और संसार में उनका उद्देश्य समाप्त हो चुका है, इसलिए उनके साथ तुम्हारा रिश्ता भी खत्म हो चुका है। ... तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु बस वह आखिरी खबर होगी जो तुम इस संसार में उनके बारे में सुनोगे और वह अंतिम बाधा होगी जो तुम उनके जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मर जाने के अनुभवों के बारे में सुनोगे या देखोगे, बस और कुछ नहीं। उनकी मृत्यु तुमसे कुछ लेकर नहीं जाएगी न तुम्हें कुछ देगी, वे बस गुजर चुके होंगे, मनुष्यों के रूप में उनकी यात्रा समाप्त हो चुकी होगी। इसलिए उनकी मृत्यु की बात हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी मृत्यु दुर्घटना से हुई, सामान्य रूप से हुई, या बीमारी वगैरह से, किसी भी स्थिति में, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के बिना कोई भी व्यक्ति या ताकत उनका जीवन नहीं ले सकती। उनकी मृत्यु का अर्थ बस उनके शारीरिक जीवन का अंत है। अगर तुम्हें उनकी याद आए, तुम उनके लिए तरसते हो, या अपनी भावनाओं के चलते खुद से शर्मिंदा होते हो, तो तुम्हें इनमें से कुछ भी महसूस नहीं करना चाहिए, और इन्हें अनुभव करना जरूरी नहीं है। वे इस संसार से जा चुके हैं, इसलिए उन्हें याद करना अनावश्यक है, है कि नहीं? अगर तुम सोचते हो : ‘क्या मेरे माता-पिता इन तमाम वर्षों में मुझे याद करते रहे होंगे? इतने वर्षों तक संतानोचित निष्ठा दिखाते हुए मेरा उनके पास न रहना उनके लिए कितना कष्टप्रद रहा होगा? इन सभी वर्षों में मेरी हमेशा यह कामना रही कि मैं उनके साथ कुछ दिन बिता पाता, मुझे बिल्कुल आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी उनका निधन हो जाएगा। मुझे दुख और अपराध-बोध होता है।’ तुम्हारा इस तरह सोचना जरूरी नहीं है, उनकी मृत्यु का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। उनका तुमसे कोई लेना-देना क्यों नहीं है? क्योंकि भले ही तुम उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाते या उनके साथ रहते, यह वह दायित्व या कार्य नहीं है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। परमेश्वर ने यह नियत किया है कि तुम्हारे माता-पिता को तुमसे कितना सौभाग्य और कितना कष्ट मिलेगा—इसका तुम्हारे साथ बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। वे इस कारण से ज्यादा लंबे समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनके साथ हो, और इस वजह से कम समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनसे बहुत दूर हो और उनके साथ अक्सर नहीं रह पाए हो। परमेश्वर ने नियत किया है कि उनका जीवन कितना लंबा होगा, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, अगर तुम यह खबर सुनते हो कि तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु तुम्हारे जीवनकाल में हो गई है, तो तुम्हें अपराध-बोध पालने की जरूरत नहीं है। तुम्हें इस मामले को सही दृष्टि से देखकर स्वीकार करना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन मेरे दिल को छू गए, खासकर जब मैंने पढ़ा, “परमेश्वर ने यह नियत किया है कि तुम्हारे माता-पिता को तुमसे कितना सौभाग्य और कितना कष्ट मिलेगा—इसका तुम्हारे साथ बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है।” मेरी माँ ने अपने जीवन में चाहे जो भी कष्ट सहे, और अंत में चाहे जैसे भी उनकी मृत्यु हुई, यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित था। अगर मैं उनके पास होती और रोज उनका ध्यान रखती, तो भी उनकी शारीरिक तकलीफ दूर करने में कोई मदद नहीं कर पाती, उन्हें जीवित रखना तो दूर की बात है। जन्म, बुढ़ापा, बीमारी, और मौत सभी जीवन के नियम हैं जो परमेश्वर ने मनुष्य के लिए निर्धारित किए हैं; हर व्यक्ति को उनका सामना करना पड़ता है, और कोई उन्हें तोड़ नहीं सकता। मैं जानती थी मुझे अपराध बोध में नहीं जीना चाहिए। मुझे तर्कसंगत रवैया रखकर परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारना और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए। मेरी माँ बहुत बूढ़ी थी, और उनकी मृत्यु एक सामान्य घटना थी। उनकी मृत्यु का मतलब था कि इस संसार में उनका मकसद पूरा हो गया था। वह 20 साल से ज्यादा समय से बीमार थी, और उनकी जैसी बीमारी से पीड़ित कई लोग कुछ ही सालों में गुजर गए। वह जब तक जिंदा रह सकी और परमेश्वर के मुँह से बोले गए वचनों को सुन सकी यह पहले ही परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष थी। यह एहसास होने पर, मेरा दिल थोड़ा हल्का हो गया, और मुझे अपनी माँ के गुजरने से इतनी आत्म-ग्लानि और दबाव महसूस नहीं हुआ।
एक दिन एक सभा के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोग अपने परिवारों को त्याग देते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। वे इस वजह से प्रसिद्ध हो जाते हैं और सरकार अक्सर उनके घर की तलाशी लेती है, उनके माता-पिता को परेशान करती है और यहाँ तक कि उनके माता-पिता को उन्हें सौंपने के लिए धमकाती भी है। उनके सभी पड़ोसी उनके बारे में बात करते हुए कहते हैं, ‘इस आदमी में जरा भी अंतरात्मा नहीं है। वह अपने बुजुर्ग माता-पिता की परवाह नहीं करता। न केवल वह संतानोचित आचरण नहीं करता, बल्कि वह अपने माता-पिता के लिए बहुत परेशानी का कारण भी है। वह माता-पिता के प्रति अनुचित आचरण करने वाली संतान है!’ क्या इनमें से एक भी शब्द सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) लेकिन क्या ये सभी शब्द अविश्वासियों की नजर में सही नहीं माने जाते? अविश्वासियों के बीच उन्हें लगता है कि इसे देखने का यह सबसे वैध और तर्कसंगत तरीका है, और यह मानवीय नैतिकता के अनुरूप है, और मानव आचरण के मानकों के अनुरूप है। इन मानकों में चाहे कितनी ही चीजें शामिल हों, जैसे माता-पिता के प्रति संतानवत सम्मान कैसे दिखाया जाए, बुढ़ापे में उनकी देखभाल कैसे की जाए और उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था कैसे की जाए, या उनकी कितनी देखभाल की जाए, और बेशक ये मानक सत्य के अनुरूप हों या नहीं, अविश्वासियों की नजर में वे सकारात्मक चीजें होती हैं, वे सकारात्मक ऊर्जा हैं, वे सही चीजें हैं, और लोगों के सभी लोगों के समूहों में उन्हें अनिंद्य माना जाता है। अविश्वासियों में लोगों के लिए जीवन का यही मानक हैं, और तुम्हें उनके दिलों में ठीक-ठाक अच्छा इंसान बनने के लिए ये चीजें करनी होंगी। तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने तथा सत्य को समझने के पहले क्या तुम्हारा भी दृढ़ विश्वास नहीं था कि इस तरह का आचरण करना ही अच्छा इंसान होना है? (हाँ।) इसके अलावा तुम स्वयं अपना मूल्यांकन करने और स्वयं को सीमित करने के लिए भी इन चीजों का उपयोग करते थे और तुम खुद को इसी प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहते थे। यदि तुम अच्छा इंसान बनना चाहते थे तो तुमने निश्चित रूप से इन चीजों को अपने आचरण के मानकों में शामिल किया होगा : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित आचरण कैसे करें, उनकी चिंताएँ कम कैसे करें, उन्हें सम्मान और श्रेय कैसे दिलाएँ, और अपने पूर्वजों को गौरवान्वित कैसे करें। तुम्हारे दिल में आचरण के यही मानक थे और तुम्हारे आचरण की दिशा यही थी। हालाँकि जब तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों और उसके उपदेशों को सुना तो तुम्हारा दृष्टिकोण बदलना शुरू हो गया, और तुम समझ गए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तुम्हें सब कुछ त्यागना होगा, और कि परमेश्वर चाहता है कि लोग इस तरह का आचरण करें। यह निश्चित करने से पहले कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य है, तुम सोचते थे कि तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए, लेकिन तुम्हें यह भी लगता था कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और तुम्हें अपने अंदर इनके बीच संघर्ष की स्थिति महसूस होती थी। परमेश्वर के वचनों के निरंतर सिंचन और मार्गदर्शन के माध्यम से तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने लगे, और तब तुम्हें एहसास हुआ कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से प्राकृतिक और उचित है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर ने वाकई मेरे मन में जो विचार थे, उन्हें उजागर कर दिया। मेरी नजर में, अगर लोग अपने माँ-बाप के प्रति संतानोचित दायित्व निभाते हैं, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करते हैं, और उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करते हैं, तो वे कर्तव्यनिष्ठ हैं; वे अच्छे लोग हैं। अगर कोई संतानोचित दायित्व नहीं निभा सकता, तो उसके पास कोई जमीर नहीं है और वह अच्छा इंसान नहीं है। मैंने सदाचार, सद्गुण और नैतिकता के आधार पर किसी व्यक्ति को अच्छा या बुरा माना। यह बिल्कुल भी परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं है, न ही सत्य के अनुरूप है। मैंने पारंपरिक संस्कृति को सकारात्मक चीज माना, यह सोचकर कि मेरी माँ ने मुझे पाला है, तो मुझे भी बुढ़ापे में उनकी देखभाल करनी चाहिए। क्योंकि मैं अपना कर्तव्य निभाते समय माँ के प्रति अपना संतानोचित दायित्व नहीं निभा सकी और क्योंकि मेरे गिरफ्तार होने और जेल जाने के बाद मेरी माँ भी मेरे झमेले में फँस गई, तो मैंने सोचा कि मेरे पास कोई जमीर, कोई मानवता नहीं है। अब मैंने जाना कि मेरा दृष्टिकोण अविश्वासियों जैसा ही है; यह गैर-विश्वासियों का दृष्टिकोण है। मैंने उन शिष्यों और उन मिशनरियों के बारे में सोचा जो प्रभु यीशु का अनुसरण करते थे। उन्होंने परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने के लिए दूर देशों की यात्राएँ कीं। लोगों की नजरों में, उनका अपने माँ-बाप और परिवारों को त्यागना निर्दयी और अमानवीय व्यवहार था। मगर जिन्होंने सुसमाचार फैलाया और अपने कर्तव्यों को पूरा किया, वे ऐसे लोग थे जिनमें वास्तव में जमीर और मानवता थी। जैसा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, पत्नी (या पति), बेटे-बेटियों और माता-पिता के प्रति अत्यंत सौम्य और निष्ठावान हो सकते हो, और शायद कभी दूसरों का फायदा न उठाते हो, लेकिन अगर तुम मसीह के साथ संगत नहीं हो पाते, उसके साथ सामंजस्यपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाते, तो भले ही तुम अपने पड़ोसियों की सहायता के लिए अपना सब-कुछ खपा दो या अपने माता-पिता और घरवालों की अच्छी देखभाल करो, तब भी मैं कहूँगा कि तुम दुष्ट व्यक्ति हो, और इतना ही नहीं, शातिर चालों से भरे हुए हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि कोई अपने परिवार के सदस्यों की चाहे कितनी भी अच्छी तरह देखभाल करे, अगर वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, अच्छे से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकता या मसीह के अनुरूप नहीं हो सकता, तो वह बुरा व्यक्ति है। मेरी माँ के गुजरने के बाद, मैं हमेशा दुखी रहती थी, और मैंने अच्छे से अपना कर्तव्य निभाने के बारे में नहीं सोचा, मुझे इसका भी अफसोस था कि मैंने अपना सारा समय इसी काम में लगा दिया। मैंने इतने साल परमेश्वर में विश्वास किया, फिर भी चीजों के बारे में मेरे विचार अविश्वासियों जैसे ही थे। मैं एक गैर-विश्वासी थी। मैं बहुत परेशान थी, रोते हुए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया, अपने विचारों को बदलने और इस नकारात्मक दशा में न रहने की अपनी इच्छा जाहिर की।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े : “माता-पिता की अपेक्षाओं के विषय में क्या यह स्पष्ट है कि कौन-से सिद्धांतों का पालन करना है और कौन-से बोझों को त्याग देना है? (हाँ।) तो ठीक-ठीक वे कौन-से बोझ हैं जो लोग यहाँ ढोते हैं? उन्हें अपने माता-पिता की बात माननी चाहिए और अपने माता-पिता को अच्छा जीवन जीने देना चाहिए; उनके माता-पिता जो भी करते हैं, उनके अच्छे के लिए करते हैं; और उनके माता-पिता जिसे संतानोचित होना कहते हैं, वैसे काम करने चाहिए। इसके अतिरिक्त, वयस्कों के रूप में, उन्हें अपने माता-पिता के लिए चीजें करनी चाहिए, उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए, उनके प्रति संतानोचित बनना चाहिए, उनके साथ रहना चहिए, उन्हें दुखी या उदास नहीं करना चाहिए, उन्हें निराश नहीं करना चाहिए, और उनकी तकलीफें कम करने या पूरी तरह से दूर करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। अगर तुम यह हासिल नहीं कर सकते, तो तुम कृतघ्न हो, असंतानोचित हो, तुम पर बिजली गिर जानी चाहिए और दूसरों को तुम्हारा तिरस्कार करना चाहिए, और तुम एक बुरे इंसान हो। क्या ये तुम्हारे बोझ हैं? (हाँ।) चूँकि ये लोगों के बोझ हैं, इसलिए लोगों को सत्य स्वीकार कर उचित ढंग से उनका सामना करना चाहिए। सिर्फ सत्य को स्वीकार करके ही इन बोझों और गलत विचारों और नजरियों को त्यागा और बदला जा सकता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे सामने चलने का कोई दूसरा पथ है? (नहीं।) इस तरह परिवार के बोझों को त्यागने की बात हो या देह को, इन सबकी शुरुआत सही विचारों और नजरियों को स्वीकारने और सत्य को स्वीकारने से होती है। जब तुम सत्य को स्वीकारना शुरू करोगे, तो तुम्हारे अंदर के ये गलत विचार और नजरिये धीरे-धीरे विघटित हो जाएँगे, पूरी तरह समझ-बूझ लिए जाएँगे और फिर धीरे-धीरे ठुकरा दिए जाएँगे। विघटन, समझने-बूझने, और फिर इन गलत विचारों और नजरियों को जाने देने और ठुकराने की प्रक्रिया के दौरान, तुम धीरे-धीरे इन मामलों के प्रति अपना रवैया और नजरिया बदल दोगे। वे विचार जो तुम्हारे इंसानी जमीर या भावनाओं से आते हैं, धीरे-धीरे कमजोर पड़ जाएँगे; वे तुम्हें तुम्हारे मन की गहराई में न परेशान करेंगे, न बाँधकर रखेंगे, तुम्हारे जीवन को नियंत्रित या प्रभावित नहीं करेंगे, या तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में दखल नहीं देंगे। मिसाल के तौर पर, अगर तुमने सही विचारों और नजरियों और सत्य के इस पहलू को स्वीकार किया है, तो अपने माता-पिता की मृत्यु की खबर सुन कर तुम उनके लिए सिर्फ आँसू बहाओगे, यह नहीं सोचोगे कि कैसे इन वर्षों के दौरान तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में उनकी दयालुता का कर्ज तुमने नहीं चुकाया, कैसे तुमने उन्हें बहुत दुख दिए, कैसे उनकी जरा भी भरपाई नहीं की, या कैसे तुमने उन्हें अच्छा जीवन जीने नहीं दिया। अब तुम इन चीजों के लिए खुद को दोष नहीं दोगे—बल्कि सामान्य मानवीय भावनाओं से निकलने वाली सामान्य अभिव्यक्तियाँ दर्शाओगे; तुम आँसू बहाओगे, और फिर उनके लिए थोड़ा तरसोगे। जल्दी ही ये चीजें स्वाभाविक और सामान्य हो जाएँगी, और तुम तेजी से सामान्य जीवन और अपने कर्तव्य निर्वहन में डुब जाओगे; तुम इस मामले से परेशान नहीं होगे। लेकिन अगर तुम ये सत्य स्वीकार नहीं करते, तो अपने माता-पिता की मृत्यु की खबर सुनकर तुम निरंतर रोते रहोगे। तुम्हें अपने माता-पिता पर तरस आएगा कि जीवन भर उनके लिए चीजें कठिन रहीं, और उन्होंने तुम जैसे एक असंतानोचित बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा किया; जब वे बीमार थे, तो तुम उनके सिरहाने नहीं रहे, और उनकी मृत्यु पर उनकी अंत्येष्टि के समय चीख-चीख कर रोए नहीं या शोक-संतप्त नहीं हुए; तुमने उन्हें निराश किया, उन्हें हताश किया, और तुमने उन्हें एक अच्छा जीवन नहीं जीने दिया। तुम लंबे समय तक इस अपराध बोध के साथ जियोगे, और इस बारे में जब भी सोचोगे तो रोओगे, और तुम्हारे दिल में एक टीस उठेगी। जब भी तुम्हारा सामना संबंधित हालात या लोगों, घटनाओं और चीजों से होगा, तुम भावुक हो जाओगे; यह अपराध बोध शायद शेष जीवन भर तुम्हारे साथ रहे। इसका कारण क्या है? कारण यह है कि तुमने कभी सत्य या सही विचारों और नजरियों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार नहीं किया; इसके बजाय तुम्हारे पुराने विचार और नजरिये तुम पर हावी बने रहे हैं, तुम्हारे जीवन को प्रभावित करते रहे हैं। तो तुम अपने माता-पिता की मृत्यु के कारण अपना बचा हुआ जीवन पीड़ा में बिताओगे। इस निरंतर दुख के नतीजे थोड़ी-सी दैहिक बेचैनी से बढ़ कर कहीं ज्यादा हो जाएँगे; ये तुम्हारे जीवन को प्रभावित करेंगे, ये तुम्हारे अपने कर्तव्य निर्वहन, कलीसिया के कार्य, परमेश्वर, और साथ ही तुम्हारी आत्मा को छूने वाले किसी भी व्यक्ति या मामले के प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित करेंगे। शायद तुम और भी मामलों के प्रति भी निराश और हतोत्साहित, मायूस और निष्क्रिय हो जाओ, जीवन में विश्वास खो दो, किसी भी चीज के लिए उत्साह और अभिप्रेरणा, आदि खो दो। समय के साथ, यह प्रभाव तुम्हारे सरल दैनिक जीवन तक सीमित नहीं रहेगा; यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन और जीवन में जिस पथ पर चलते हो, उसके प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित करेगा। यह बहुत खतरनाक है। इस खतरे का नतीजा यह हो सकता है कि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में ढंग से अपने कर्तव्य न निभा सको, और आधे में ही अपना कर्तव्य निर्वहन बंद कर दो, या जिन कर्तव्यों का तुम निर्वाह करते हो उनके प्रति एक प्रतिरोधी मनोदशा और रवैया अपना लो। संक्षेप में कहें, तो ऐसी स्थिति समय के साथ जरूर बिगड़ेगी और तुम्हारी मनोदशा, भावनाओं और मानसिकता को एक घातक दिशा में ले जाएगी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। मैंने सोचा कि इन वर्षों के दौरान जब मैंने परमेश्वर में विश्वास किया, तो कैसे मैंने हमेशा “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो” जैसी पारंपरिक कहावतों को सकारात्मक चीजें माना, जो मेरे आचरण की कसौटी थी। जब मुझे कर्तव्य निभाने और अपनी माँ की देखभाल करने में किसी एक को चुनना पड़ता, तो भले ही मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर से निकलती, पर हमेशा उनकी चिंता रहती, और उनकी देखभाल न कर पाने के कारण खुद को उनकी ऋणी महसूस करती। अपनी माँ के गुजर जाने की खबर सुनकर, मैं आत्म-ग्लानि और पीड़ा में जीने लगी क्योंकि मैंने न तो बुढ़ापे में उनकी देखभाल की और न ही उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था की। मेरी माँ ने मुझे पाला था, मगर न सिर्फ मैंने उनकी देखभाल नहीं की, बल्कि उनके मरने से पहले उन्हें आखिरी बार देख भी नहीं पाई। मुझे लगा मुझमें कोई जमीर और मानवता नहीं है, सोचा कि दूसरे लोग मुझे कोसेंगे और मेरी आलोचना करेंगे। मैं अपनी माँ को खोने के दर्द में इसलिए जी रही थी क्योंकि मैंने “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “अपने माँ-बाप की बुढ़ापे में देखभाल करो और उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करो” जैसी कहावतों को सत्य मान लिया था जिनके अनुसार मुझे चलना चाहिए। क्योंकि मैं इन कहावतों के अनुसार नहीं चली, तो मैं अपराध बोध में जीने लगी, खुद को माफ नहीं कर पा रही थी, और अपने कर्तव्य के प्रति निष्क्रिय हो गई थी। मैं इन पारंपरिक धारणाओं से गुमराह हो गई थी। जब मैंने अपनी माँ के गुजर जाने के बारे में सुना, तो मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में असमर्थ थी, मैं उदासी, पछतावे और अपराध-बोध की दशा में जी रही थी, नकारात्मक होकर अपने कर्तव्य में ढिलाई बरत रही थी। अनजाने में ही, मैं परमेश्वर के विरुद्ध खड़ी हो गई और ऐसी इंसान बन गई जो उसकी दुश्मन थी। फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और जाना कि मुझे माँ-बाप के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहते हैं लेकिन अनुभूतियों के कारण वे यह भी महसूस करते हैं कि उन्हें अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए। यदि तुम केवल अपनी अनुभूतियों से पार पाने में लगे रहते हो, अपने आप से कहते हो कि माता-पिता तथा परिवार के बारे में न सोचकर केवल परमेश्वर के बारे में सोचना और सत्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, फिर भी अपने माता-पिता के बारे में सोचना बंद नहीं कर पाते तो इससे मूलभूत समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इस समस्या के समाधान के लिए तुम्हें उन चीजों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है जिन्हें तुम अब तक सही मानते थे, साथ ही तुम्हें उन कही-सुनी बातों, ज्ञान और सिद्धांतों का भी विश्लेषण करना होगा जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप हैं और तुम्हें विरासत में मिले हैं। इसके अलावा, अपने माता-पिता के बारे में सोचते समय एक संतान के रूप में उनकी देखभाल के दायित्वों को पूरा करने या न करने का फैसला पूरी तरह से तुम्हारी व्यक्तिगत स्थितियों और परमेश्वर की योजना के आधार पर होना चाहिए। क्या यह बात मामले को बिलकुल ठीक तरीके से स्पष्ट नहीं करती? जब कुछ लोग अपने माता-पिता से अलग होते हैं तो उन्हें लगता है कि उनके माता-पिता ने उनके लिए बहुत कुछ किया है पर वे उनके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। लेकिन, वे जब माता-पिता साथ रह रहे होते हैं तो संतानोचित तरीके से बिलकुल नहीं रहते और माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं करते। क्या ऐसा आदमी वास्तव में संतानोचित दायित्वों का निर्वाह करने वाला व्यक्ति है? वह केवल खोखली बातें करने वाला है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो, क्या सोचते हो, या क्या योजना बनाते हो, वे सब महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम यह समझ सकते हो और सचमुच विश्वास कर सकते हैं कि सभी सृजित प्राणियों का नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में हैं। कुछ माता-पिताओं को ऐसा आशीष मिला होता है और ऐसी नियति होती है कि वे घर-परिवार का आनंद लेते हुए एक बड़े और समृद्ध परिवार की खुशियां भोगें। यह परमेश्वर का अधिकारक्षेत्र है, और परमेश्वर से मिला आशीष है। कुछ माता-पिताओं की नियति ऐसी नहीं होती; परमेश्वर ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की होती। उन्हें एक खुशहाल परिवार का आनंद लेने, या अपने बच्चों को अपने साथ रखने का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यह परमेश्वर की व्यवस्था है और लोग इसे जबरदस्ती हासिल नहीं कर सकते। चाहे कुछ भी हो, अंततः जब संतानोचित शील की बात आती है, तो लोगों को कम से कम समर्पण की मानसिकता रखनी चाहिए। यदि वातावरण अनुमति दे और तुम्हारे पास ऐसा करने के साधन हों, तो तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्व निर्वाह का शील दिखाना चाहिए। अगर वातावरण उपयुक्त न हो और तुम्हारे पास साधन न हों, तो तुम्हें जबरन ऐसा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए—इसे क्या कहते हैं? (समर्पण।) इसे समर्पण कहा जाता है। यह समर्पण कैसे आता है? समर्पण का आधार क्या है? यह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और परमेश्वर द्वारा शासित इन सभी चीजों पर आधारित है। यद्यपि लोग चुनना चाह सकते हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते, उन्हें चुनने का अधिकार नहीं है, और उन्हें समर्पण करना चाहिए। जब तुम महसूस करते हो कि लोगों को समर्पण करना चाहिए और सब कुछ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित है, तो क्या तुम्हें अपने हृदय में शांति महसूस नहीं होती? (हां।) क्या तुम्हारी अंतरात्मा तब भी धिक्कार का अनुभव करती रहेगी? उसे अब लगातार धिक्कार की अनुभूति नहीं होगी, और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्वों का निर्वाह न कर पाने का विचार अब तुम पर हावी नहीं होगा। इतने पर भी कभी-कभी तुम्हें ऐसा महसूस हो सकता है क्योंकि मानवता में ये एक तरह से सामान्य विचार या सहज प्रवृत्ति है और कोई भी इससे बच नहीं सकता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। माँ-बाप के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसके अभ्यास के सिद्धांतों के बारे में परमेश्वर ने बहुत स्पष्ट रूप से बताया है। यह मुख्य रूप से लोगों की अपनी परिस्थितियों और क्षमताओं पर आधारित होना चाहिए। जब व्यक्ति की परिस्थितियाँ अनुकूल और उसमें पर्याप्त क्षमताएँ होती हैं, तो वह अपनी जिम्मेदारी और माँ-बाप के प्रति संतानोचित दायित्व निभा सकता है। मगर, हमें अभी भी परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। इन वर्षों में, अपनी माँ की देखभाल न कर पाने का यह मतलब नहीं था कि मैं उनकी देखभाल करना या अपनी जिम्मेदारी निभाना नहीं चाहती थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि पुलिस हमेशा मेरे पीछे पड़ी रहती थी। जब मैं अपनी सुरक्षा भी सुनिश्चित नहीं कर पा रही थी, तो अपनी माँ की देखभाल कैसे कर पाती? मैंने कम्युनिस्ट पार्टी से नफरत नहीं की, बल्कि परमेश्वर को ही दोषी ठहराया। मैंने देखा कि मैं वास्तव में तथ्यों को लेकर भ्रमित हो गई थी और सही-गलत में अंतर नहीं पाई; मेरे साथ तर्क करना असंभव था! मुझे अक्सर लगता था कि मैंने अपनी माँ की देखभाल नहीं की, खुशी से जीने में उनकी मदद नहीं की और न ही अंतिम वर्षों में उनकी देखभाल या उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था की, इसलिए मुझे लगा कि मैं उनकी ऋणी हूँ। मैंने सोचा कि मेरी देखभाल में मेरी माँ खुशी से रहती। वास्तव में, यह एक गलत दृष्टिकोण था। मनुष्य की खुशी परमेश्वर की देखभाल, सुरक्षा और आशीष से उत्पन्न होती है। कोई सिर्फ इसलिए खुश नहीं होता कि उसके बेटे-बेटियाँ बुढ़ापे में उसकी देखभाल करते हैं। मेरी माँ कई सालों तक हेमिप्लेजिया से पीड़ित रही, और उनके पूरे शरीर में दर्द रहता था। पहले, जब मैं घर पर उनकी देखभाल करती थी, तो डॉक्टर से संपर्क करके उनकी दवाइयाँ ला देती थी। भले ही मैं उनका इलाज करवाने और उनकी देखभाल करने की कोशिश करती थी, इससे उनका दर्द जरा भी कम नहीं हुआ। मेरी माँ को कितना दुख सहना चाहिए, यह परमेश्वर तय कर चुका था। अब, मेरी माँ गुजर गई, जिसका मतलब है कि उनका समय आ गया था। वह अब शारीरिक बीमारी से पीड़ित नहीं थी। यह एक अच्छी बात थी, और मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। लेकिन, मैंने इस मामले में सत्य नहीं खोजा या परमेश्वर के फैसलों के प्रति समर्पण नहीं किया। मैं नकारात्मक थी और अपने कर्तव्य में ढिलाई बरत रही थी, और मेरे व्यवहार का सार परमेश्वर के विरुद्ध था; मुझमें कोई मानवता या विवेक नहीं था!
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे यह और स्पष्ट हो गया था कि माँ-बाप के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “ऊपरी तौर पर यूँ लगता है कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे दैहिक जीवन को जन्म दिया और तुम्हारे माता-पिता ने ही तुम्हें जीवन दिया। लेकिन परमेश्वर के नजरिये से और इस मामले की जड़ से, तो तुम्हें यह दैहिक जीवन माता-पिता ने नहीं दिया, क्योंकि लोग जीवन का सृजन नहीं कर सकते। सरल शब्दों में कहें, तो कोई भी इंसान मनुष्य की साँस का सृजन नहीं कर सकता। जिस कारण से प्रत्येक व्यक्ति की देह एक व्यक्ति बन पाती है वह है उसकी साँस। मनुष्य का जीवन इस साँस में है, और यह एक जीवित व्यक्ति का चिह्न है। लोगों में यह साँस और जीवन होता है, और इन चीजों का स्रोत और उद्गम उनके माता-पिता नहीं हैं। बात बस इतनी है कि लोगों का निर्माण उनके माता-पिता द्वारा उन्हें जन्म देने के जरिए हुआ—मूल में, यह परमेश्वर ही है जो लोगों को ये चीजें देता है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं, तुम्हारे जीवन का विधाता परमेश्वर है। परमेश्वर ने मानवजाति को रचा, उसी ने मानवजाति के जीवन का सृजन किया, और उसी ने मानवजाति को जीवन की साँस दी, जोकि मनुष्य के जीवन का उद्गम है। इसलिए, क्या ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं’ पंक्ति समझने में आसान नहीं है? तुम्हारी साँस तुम्हारे माता-पिता ने नहीं दी, न यह साँस उनके कारण जारी है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन के प्रत्येक दिन की देखभाल करता है और उस पर राज करता है। तुम्हारे माता-पिता फैसला नहीं कर सकते कि तुम्हारा प्रत्येक दिन कैसा बीतता है, हर दिन खुशहाल और आसान है या नहीं, तुम हर दिन किससे मिलते हो, या हर दिन कैसे माहौल में जीते हो। बात बस इतनी है कि परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता के जरिए तुम्हारी देखभाल करता है—तुम्हारे माता-पिता बस वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने तुम्हारी देखभाल के लिए भेजा। जब पैदा होने पर तुम्हें जीवन देने वाले तुम्हारे माता-पिता नहीं थे, तो जिस जीवन के कारण तुम अब तक जीवित हो, वो क्या तुम्हारे माता-पिता ने दिया है? ऐसा नहीं है। तुम्हारे जीवन का उद्गम अभी भी परमेश्वर ही है, तुम्हारे माता-पिता नहीं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं—मनुष्य के जीवन का स्रोत परमेश्वर है। भले ही मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया, मेरा यह जीवन मेरे लिए परमेश्वर का उपहार है। परमेश्वर की आशीष और पोषण के बिना, मेरी माँ मुझे पाल-पोसकर बड़ा नहीं कर पाती। परमेश्वर ने मेरी माँ के जरिये मुझे पाला, उनके जरिये मुझे अपने समक्ष लाया, और उन्हीं के जरिये घर की परेशानियों के बारे में मेरी चिंता दूर की। चाहे मेरी माँ ने मेरे लिए खुद को कितना भी खपाया हो, यह परमेश्वर ने जो मुझे दिया उससे ही मुमकिन हुआ। मगर, मैंने हर बात को उल्टा समझ लिया, यह माना कि मेरी माँ ने मेरे लिए खुद को बहुत खपाया है और मैं हमेशा अपनी माँ का ऋण चुकाना चाहती थी, इसलिए मैंने परमेश्वर की संप्रभुता और उसके निर्धारणों को अनदेखा कर दिया। वास्तव में, चाहे मेरी माँ ने खुद को कितना भी खपाया हो, वह एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभा रही थी, जो कि परमेश्वर की व्यवस्था और संप्रभुता थी। मुझे जिसका धन्यवाद करना चाहिए वह परमेश्वर है। मैं यह भी समझ गई कि इस संसार में मेरा मकसद एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना है, न कि अपनी माँ की दयालुता का ऋण चुकाना। यह एहसास होने पर, मैं अब अपराध बोध में नहीं जीती, खुद को दोषी नहीं मानती और न ही ऋणी महसूस करती हूँ। मैं अपने दिल को शांत करने और अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हूँ। परमेश्वर के वचन रोशनी की किरण हैं। अगर मुझे सही समय पर परमेश्वर के वचनों का प्रबोधन और मार्गदर्शन नहीं मिला होता, तो मैं अभी भी “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो” जैसी कहावतों को समझने में असमर्थ होती, जो शैतान ने मेरे अंदर डाले थे, और मैं अपनी माँ के प्रति ऋणी होने की भावना के अंदर जीती, शैतान के हाथों नुकसान झेलती। अब, मैं स्पष्ट देख सकती हूँ कि पारंपरिक संस्कृति एक प्रतिक्रियावादी भ्रांति है जो परमेश्वर का विरोध करती है और ये विचार और दृष्टिकोण बहुत भ्रामक हैं। परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे इन शैतानी भ्रांतियों से दूर किया और मुझे अपनी माँ की मृत्यु को सही ढंग से देखने में सक्षम बनाया। मेरा दिल आजाद और मुक्त हो गया! मुझे बचाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!