15. बीमारी के बीच परमेश्वर का प्रेम

जियानशिन, चीन

बीस वर्ष पहले, मुझे गंभीर रूमेटाइड गठिया रोग हो गया था और मेरे पूरे शरीर में दर्द रहता था। मैं कई प्रमुख अस्पतालों में दिखाने के लिए गई, लेकिन मुझे किसी भी उपचार से कोई राहत नहीं मिली। आखिरकार, मुझे लक्षणों पर काबू पाने के लिए केवल हार्मोनल दवाओं पर निर्भर रहना पड़ा और दवाओं के बिना, मेरे सभी जोड़ों में अकड़न और दर्द रहता था। मैं पूरे दिन बिस्तर पर पड़ी रहती थी, मानो मैं निष्क्रिय स्थिति में थी, बिल्कुल भी हिल-डुल नहीं सकती थी। मुझे खाने, कपड़े पहनने, करवट लेने और शौचालय जाने के लिए दूसरों की मदद की जरूरत पड़ती थी। मैं पूरी तरह से बेकार महसूस कर रही थी। मैंने सोचा, “ऐसे दर्द में जीने से मर जाना बेहतर होगा।” लंबे समय तक हार्मोनल दवाओं के उपयोग के कारण, मेरी प्रतिरक्षा प्रणाली बहुत कमजोर हो गई थी। मुझे अक्सर खांसी और जुकाम हो जाता था, साथ ही मुझे फुफ्फुस में सूजन भी महसूस होती थी। मेरे दिल में भी समस्याएँ पैदा हो गईं, मेरे पूरे शरीर में दस से अधिक अलग-अलग बीमारियाँ थीं और मेरा चेहरा एक मरे हुए व्यक्ति जैसा दिखने लगा। गर्मी के मौसम में, जहाँ मेरे पति घर के अंदर एयर कंडीशनर चालू कर देते थे, वहीं मैं सूती गद्देदार कपड़े पहनती थी और बाहर धूप का आनंद लेती थी। यहाँ तक कि मुझे सोने के लिए इलेक्ट्रिक कंबल का उपयोग करना पड़ता था, वरना मुझे इतनी ठंड लगती कि मैं सो ही नहीं पाती थी। बाद में, मैंने सुना कि मेरी जैसी बीमारी से ग्रस्त कई परिचित लोगों की एक के बाद एक मृत्यु हो गई थी और मैं यह सुनकर बहुत डर गई। इतनी जिद्दी बीमारी के सामने मैं पूरी तरह से असहाय थी और मैं बस हर दिन डर और चिंता में गुजार रही थी।

2010 में, मैंने सौभाग्य से सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारा। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि परमेश्वर ने स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजें बनाईं, वह पूरी मानवजाति के भाग्य का स्वामी है, लोग जिन चीजों का भी आनंद लेते हैं, वह सब परमेश्वर द्वारा दी गई हैं और यह कि मनुष्य को परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए। हर दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों को खाया और पिया, परमेश्वर से प्रार्थना की और भाई-बहनों के साथ सभाएँ कीं, मुझे पता भी नहीं चला कि कब मेरी खांसी और जुकाम कम हो गई। तीन महीने बाद, मेरे पैर के जोड़ों का दर्द कम हो गया, मैंने हार्मोनल दवाओं सहित सभी दवाओं को लेना बंद कर दिया, मेरे जोड़ अधिक से अधिक लचीले हो गए और मेरे चेहरे पर रंगत लौट आई। जो लोग मुझे जानते थे, वे सभी कहने लगे कि मैं एक अलग व्यक्ति जैसी लग रही हूँ। मैंने अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर का धन्यवाद किया। परमेश्वर वास्तव में सर्वशक्तिमान और अद्भुत है! यह एक लाइलाज बीमारी थी और दवाओं के बावजूद मुझे इतना कष्ट सहना पड़ता था, लेकिन अब, मेरी बीमारी धीरे-धीरे कम हो रही थी और मुझे दवाओं की भी आवश्यकता नहीं थी! मुझे परमेश्वर में सही तरीके से विश्वास करना था, अधिक से अधिक सुसमाचार का प्रचार करना था और अधिक अच्छे कर्म करने थे और शायद तब परमेश्वर देखेगा कि कैसे मैंने खुद को खपाया है और फिर वह मेरी बीमारियों को पूरी तरह से ठीक कर देगा। इसके बाद, मैंने अपने पैरों के दर्द को नजरअंदाज कर दिया और अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, सहपाठियों और सहकर्मियों में सुसमाचार का प्रचार किया। चाहे आँधी हो या बारिश, चिलचिलाती गर्मी हो या कड़ाके की सर्दी या कोई व्यक्ति पास हो या दूर, अगर वह सुसमाचार ग्रहण करने के सिद्धांतों के अनुरूप और परमेश्वर के वचनों को सुनने के लिए तैयार था तो मैं उसके पास जाकर अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य की गवाही देती थी। कुछ लोग सातवीं या आठवीं मंजिल पर रहते थे और मुझे सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थीं, लेकिन फिर भी, मैं अक्सर उनका सिंचन और सहायता करने जाती थी। कुछ लोगों में अच्छी मानवता होती थी और वे सच्चे मार्ग को खोजने और जाँचने के लिए तैयार होते थे, लेकिन उनकी कई पारिवारिक उलझनें होती थीं, तो मैंने कई बार उनके साथ संगति की, जब तक कि उन्होंने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार नहीं कर लिया। उस समय, मैंने कई लोगों तक सुसमाचार फैलाया। समय के साथ, मैं सुसमाचार का प्रचार करने के लिए मशहूर हो गई और बुरे लोगों ने मेरी रिपोर्ट कर दी, इसलिए अगुआ ने मुझे मेजबानी का कर्तव्य देने की व्यवस्था की। मैंने सक्रिय रूप से कुछ अन्य कर्तव्यों को लेने का अनुरोध किया, यह सोचकर कि अगर मैं और अच्छे कर्म करूँगी, तो परमेश्वर मेरी देखभाल और रक्षा करेगा, और उद्धार पाने की मेरी उम्मीद बढ़ जाएगी।

मई 2019 में, मुझे पूरे शरीर में कमजोरी महसूस होने लगी और मेरे जोड़ों में फिर से दर्द होने लगा। मेरे पैरों के जोड़ों में दर्द विशेष रूप से गंभीर था और मेरा एकमात्र विकल्प बैसाखियों का सहारा लेना और दाँत भींचकर एक-एक कदम आगे बढ़ना था। दर्द मुझे पसीने से तर-बतर कर देता था। मैं खड़े होने के बाद बैठ नहीं पाती थी और किसी तरह बैठने के बाद, खड़ी नहीं हो पाती थी। यहाँ तक कि लेटे रहने पर भी मेरे सारे शरीर में दर्द होता था। मेरा रक्तचाप 200mmHg से ऊपर चला गया था और मेरी रक्त शर्करा भी बढ़ गई थी और दवाएँ भी इसे नियंत्रित नहीं कर पा रही थीं। मुझे बहुत घबराहट हो रही थी। मुझे डर था कि कहीं मेरा गठिया रोग फिर से लौट न आए। अस्पताल में जाँच कराने के लिए जाने के बाद पता चला कि ये लक्षण वास्तव में गठिया रोग के कारण ही थे। मेरा दिल सहम गया और मैंने सोचा, “जैसा कि कहा गया है, ‘बीमारी हो या न हो, अगर यह लौटती है, तो यह पहले से भी बदतर हो जाती है।’ क्या इस बार मैं पूरी तरह से पंगु हो जाऊँगी? अगर मैं जीवित रहकर भी बिस्तर पर पड़ी रही, तो वैसे भी बेकार हो जाऊँगी। मैं अपने कर्तव्य कैसे निभाऊँगी? इन सभी वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, मैंने खुद को इतना अधिक खपाया है! देखो, मैंने कैसे सुसमाचार फैलाया है। दर्द के बावजूद मैंने यह कार्य करना जारी रखा और मैं कई लोगों तक सुसमाचार पहुँचाने में कामयाब रही। सुसमाचार फैलाने के कारण बुरे लोगों द्वारा रिपोर्ट किए जाने के बाद, मुझे एक मेजबान की भूमिका सौंपी गई और मैंने वह कर्तव्य भी पूरी निष्ठा से निभाया। तो मेरा रोग फिर से कैसे लौट आया?” मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे इसी बीमारी से पीड़ित कई परिचित लोगों की मृत्यु हो गई थी और कैसे अगली मेरी बारी हो सकती है। जितना अधिक मैं इसके बारे में सोचती, उतना ही अधिक मैं निराश हो जाती थी। मैं अपनी भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचन पढ़ने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती थी और मेरा प्रार्थना करने का भी मन नहीं करता था। मैं अपने दिन जड़ता में बिताती थी, मानो मैं एक गहरे फ्रीजर में गिर गई हूँ, मेरा दिल पूरी तरह से जम गया हो। मैं बस और अधिक समय आराम करने और अपने स्वास्थ्य को बहाल करने में लगाना चाहती थी ताकि मेरे शरीर का दर्द कम हो सके। बाद में, मुझे पता चला कि इसी बीमारी से पीड़ित मेरे एक पड़ोसी की मृत्यु हो गई थी, इस बात ने मुझे और भी अधिक भयभीत कर दिया और मैंने सोचा, “शायद एक दिन मैं भी अपने पड़ोसी की तरह मर जाऊँगी। अगर मैं अभी मर गई, तो क्या इतने वर्षों में अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए मैंने जो कष्ट सहे हैं और त्याग किए हैं, वे सब व्यर्थ हो जाएँगे? न केवल मैं बचाए जाने से वंचित रहूँगी, बल्कि मैं श्रम करने और जीवित रहने के अपने सभी शेष अवसरों को भी खो दूँगी।” बस अपनी बीमारी के बारे में सोचते रहने से मैं न तो खा पाती थी और न ही सो पाती थी। मैं दुख, चिंता और भय की स्थिति में जी रही थी और अंदर से पूरी तरह से व्याकुल थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरा स्वास्थ्य दिन-ब-दिन बिगड़ता जा रहा है और मैं लगातार एक बेचैन मानसिक स्थिति में जी रही हूँ। मुझे पता है कि यह गलत है लेकिन मैं नहीं जानती कि इसे कैसे ठीक करूँ और भले ही मुझे पता है कि यह कष्ट तेरी अनुमति से हो रहा है, लेकिन मैं फिर भी समर्पण नहीं कर पाती। हे परमेश्वर, कृपया मुझे इस स्थिति में समर्पण करने और इससे सबक सीखने के लिए रास्ता दिखा।”

मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “जब लोग परमेश्वर द्वारा आयोजित माहौल और उसकी संप्रभुता को स्पष्ट रूप से देख, समझ और स्वीकार कर उसके आगे समर्पण नहीं कर पाते, और जब लोग अपने दैनिक जीवन में तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करते हैं, या जब ये मुश्किलें सामान्य लोगों के बरदाश्त के बाहर हो जाती हैं, तो अवचेतन रूप में उन्हें हर तरह की चिंता और व्याकुलता होती है, और यहाँ तक कि संताप भी हो जाता है। वे नहीं जानते कि कल या परसों कैसा होगा, या कुछ साल बाद चीजें कैसी होंगी, या उनका भविष्य कैसा होगा, और इसलिए वे हर चीज के बारे में संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। ऐसा कौन-सा संदर्भ होता है जिसमें लोग हर चीज को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित होते हैं? होता यह है कि वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं रखते—यानी वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास कर उसे समझ नहीं पाते। अपनी आँखों से देखने पर भी वे उसे नहीं समझ सकते, या उस पर यकीन नहीं कर सकते। वे नहीं मानते कि उनके भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है, वे नहीं मानते कि उनके जीवन परमेश्वर के हाथों में हैं, और इसलिए उनके दिलों में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति अविश्वास पैदा हो जाता है, और फिर दोषारोपण होता है, और वे समर्पण नहीं कर पाते(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “फिर ऐसे लोग होते हैं जिनकी सेहत ठीक नहीं है, जिनका शारीरिक गठन कमजोर और ऊर्जाहीन है, जिन्हें अक्सर छोटी-बड़ी बीमारियाँ पकड़ लेती हैं, जो दैनिक जीवन में जरूरी बुनियादी काम भी नहीं कर पाते, और जो न सामान्य लोगों की तरह जी पाते हैं, न तरह-तरह के काम कर पाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर बेआराम और बीमार महसूस करते हैं; कुछ लोग शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, कुछ को वास्तविक बीमारियाँ होती हैं, और बेशक कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञात और संभाव्य रोग हैं। ऐसी व्यावहारिक शारीरिक मुश्किलों के कारण ऐसे लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। ... बीमार लोग अक्सर सोचते हैं, ‘ओह, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने को दृढ़संकल्प हूँ, मगर मुझे यह बीमारी है। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे हानि न होने दे, और परमेश्वर की सुरक्षा के तहत मुझे डरने की जरूरत नहीं। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते समय अगर मैं थक गया, तो क्या मेरी हालत बिगड़ जाएगी? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो मैं क्या करूँगा? अगर किसी ऑपरेशन के लिए मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा और मेरे पास वहाँ देने को पैसे न हों, तो अगर मैं अपने इलाज के लिए पैसे उधार न लूँ, तो कहीं मेरी हालत और ज्यादा न बिगड़ जाए? और अगर ज्यादा बिगड़ गई, तो कहीं मैं मर न जाऊँ? क्या ऐसी मृत्यु को सामान्य मृत्यु माना जा सकेगा? अगर मैं सच में मर गया, तो क्या परमेश्वर मेरे निभाए कर्तव्य याद रखेगा? क्या माना जाएगा कि मैंने नेक कार्य किए थे? क्या मुझे उद्धार मिलेगा?’ ऐसे भी कुछ लोग हैं जो जानते हैं कि वे बीमार हैं, यानी वे जानते हैं कि उन्हें वास्तव में कोई-न-कोई बीमारी है, मिसाल के तौर पर, पेट की बीमारियाँ, निचली पीठ और टाँगों का दर्द, गठिया, संधिवात, साथ ही त्वचा रोग, स्त्री रोग, यकृत रोग, उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, वगैरह-वगैरह। वे सोचते हैं, ‘अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो क्या परमेश्वर का घर मेरी बीमारी के इलाज का खर्च उठाएगा? अगर मेरी बीमारी बदतर हो गई और इससे मेरा कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित हुआ, तो क्या परमेश्वर मुझे चंगा करेगा? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद दूसरे लोग ठीक हो गए हैं, तो क्या मैं भी ठीक हो जाऊँगा? क्या परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा, उसी तरह जैसे वह दूसरों को दयालुता दिखाता है? अगर मैंने निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर को मुझे चंगा कर देना चाहिए, लेकिन अगर मैं सिर्फ यह कामना करूँ कि परमेश्वर मुझे चंगा कर दे और वह न करे, तो फिर मैं क्या करूँगा?’ जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनके दिलों में व्याकुलता की तीव्र भावना उफनती है। हालाँकि वे अपना कर्तव्य-निर्वाह कभी नहीं रोकते, और हमेशा वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी वे अपनी बीमारी, अपनी सेहत, अपने भविष्य और अपने जीवन-मृत्यु के बारे में निरंतर सोचते रहते हैं। अंत में, वे खयाली पुलाव वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, ‘परमेश्वर मुझे चंगा कर देगा, परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखेगा। परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, और अगर वह मुझे बीमार पड़ता देखेगा, तो कुछ किए बिना अलग खड़ा नहीं रहेगा।’ ऐसी सोच का बिल्कुल कोई आधार नहीं है, और कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार की धारणा है। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ लोग कभी अपनी व्यावहारिक मुश्किलों को दूर नहीं कर पाएँगे, और अपनी सेहत और बीमारियों को लेकर अपने अंतरतम में वे अस्पष्ट रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेंगे; उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि इन चीजों की जिम्मेदारी कौन उठाएगा, या क्या कोई इनकी जिम्मेदारी उठाएगा भी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर ने जो कुछ उजागर किया था मेरी स्थिति ठीक वैसी ही थी। पीछे मुड़कर देखने पर, मैंने पाया कि परमेश्वर में विश्वास रखने के तीन महीने के अंदर ही मेरा गंभीर गठिया रोग लगभग ठीक हो चुका था, इसलिए मैं सक्रिय रूप से सुसमाचार का प्रचार करने लगी, अपने कर्तव्य निभाने लगी, और मैं अधिक अच्छे कर्म तैयार करना चाहती थी। मैंने सोचा कि शायद परमेश्वर मेरे त्यागों को देखेगा और मेरी बीमारी को पूरी तरह से ठीक कर देगा। लेकिन जब मेरी स्थिति फिर से खराब होने लगी और इतनी ज्यादा बिगड़ गई कि मैं लगभग अपनी देखभाल करने में असमर्थ हो गई, तो परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद भी मेरी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। इससे मैंने परमेश्वर की संप्रभुता पर संदेह करना शुरू कर दिया और यह चिंता करने लगी कि कहीं मैं पंगु होकर अपनी देखभाल करने में असमर्थ न हो जाऊँ और यह कि फिर मैं शारीरिक कष्ट सहन नहीं कर पाऊँगी। अगर मैंने फिर से हार्मोन की दवाएँ लेना शुरू कर दिया और मेरी कई अन्य बीमारियाँ लौट आईं, तो फिर भले ही मैं गठिया रोग से न मरूँ, लेकिन मैं अन्य बीमारियों से जरूर मर जाऊँगी। अगर मैं मर गई, तो मेरे पास उद्धार पाने का कोई अवसर नहीं होगा और न ही श्रम करने और जीवित रहने के कोई मौके मिलेंगे। इससे मैं कमजोर और व्यथित महसूस करने लगी और लगा कि वर्षों तक मेरा कर्तव्य निभाना, कष्ट सहना और त्याग करना, सब व्यर्थ हो गए हैं। जब मेरा बीमारी से सामना हुआ, तो मैंने स्वीकार नहीं किया कि यह परमेश्वर की तरफ से आया है और न ही मैंने परमेश्वर के इरादे को जानने का प्रयास किया। इसके बजाय, मैंने परमेश्वर को गलत समझा और उसकी शिकायत की। अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा रवैया भी बेपरवाही वाला था। इस बात को लेकर चिंतित थी कि अधिक कर्तव्यों का मतलब यह होगा कि मेरे शरीर की थकावट बढ़ जाएगी, मेरी स्थिति और खराब हो जाएगी और मैं जल्दी मर जाऊँगी। इसलिए मैं अपने कर्तव्यों को निभाना नहीं चाहती थी और मैं मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए चिंता और दुःख की स्थिति में जी रही थी। परमेश्वर के वचनों से मुझे अंततः समझ में आया कि मेरी बीमारी की वापसी की अनुमति परमेश्वर ने दी थी, लेकिन मैंने परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचाना, उसे गलत समझा और उसके बारे में शिकायत की। मेरा दिल शिकायतों से भरा हुआ था और जो कुछ मैंने प्रकट किया, वह विद्रोह और प्रतिरोध था। मेरी स्थिति बहुत खतरनाक थी! इसका एहसास होते ही मैं डर गई, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मुझे सत्य खोजने के लिए मार्गदर्शन देने का अनुरोध किया, ताकि मैं अपनी नकारात्मक भावनाओं को दूर कर सकूँ।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मेरा परिप्रेक्ष्य कुछ हद तक बदल गया। परमेश्वर कहता है : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि जिन बीमारियों का मैंने सामना किया, उनके पीछे परमेश्वर का इरादा शामिल था और यह मुझे सबक सिखाने, मेरे गलत दृष्टिकोणों और भ्रष्ट स्वभाव पर विचार करने, उन्हें पहचानने और परमेश्वर में विश्वास रखते हुए मेरी अनावश्यक इच्छाओं के लिए था। मैंने इस बात पर विचार किया कि मैंने इतने वर्षों तक जो कर्तव्य निभाए और जो त्याग किए, वे केवल इसलिए थे कि परमेश्वर मेरी बीमारी को ठीक कर दे। जब मेरा दर्द कम हो गया, तो मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया और उसकी स्तुति की और मैं अधिक कर्तव्य निभाने और अधिक अच्छे कर्म तैयार करने के लिए तैयार थी, लेकिन जब दर्द वापस आया और स्थिति बिगड़ गई, तो मैंने परमेश्वर को गलत समझा और उसकी शिकायत की, मैंने सोचा कि जब मैं अपने कर्तव्य निभा रही हूँ, तो परमेश्वर के लिए यही उचित था कि वह मुझे ठीक कर दे। इसलिए जब मेरी बीमारी वापस आई और मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं, तो अब मैं अपने कर्तव्य निभाना नहीं चाहती थी। जब मैं अनिच्छा से अपने कर्तव्य निभाती थी तब भी कोई प्रयास करने या कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं थी। मुझमें किसी प्रकार की अंतरात्मा या सूझ-बूझ कहाँ थी? जब यह बीमारी मुझ पर आई, तो परमेश्वर का इरादा मेरी आस्था में मौजूद मिलावटों को शुद्ध करना और अनुसरण के बारे में मेरे गलत दृष्टिकोणों को बदलना था, ताकि मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकूँ और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकूँ। फिर भी मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया और बीमारी का सामना करने पर मैंने परमेश्वर के इरादे को जानने का प्रयास नहीं किया। इसके बजाय, मैंने हमेशा प्रतिरोधी महसूस किया और अवज्ञाकारी की तरह काम किया और चाहती थी कि परमेश्वर मेरा दर्द जल्दी दूर करे। जब ऐसा नहीं हुआ, तो मैं दुःख, चिंता और व्याकुलता की स्थिति में चली गई और मैंने परमेश्वर का विरोध किया, जिससे सत्य प्राप्त करने का मेरा मौका खत्म हो गया। अगर मैं आगे भी इस तरह बिना बदले ही रही, तो न मेरा जीवन बढ़ेगा, न ही मेरा भ्रष्ट स्वभाव बदलेगा और उद्धार पाने की मेरी आशा और भी अधिक दूर हो जाएगी। जितना मैं समझती गई, उतना ही मुझे महसूस होने लगा कि परमेश्वर पर विश्वास रखने का उद्देश्य उससे माँगें करना नहीं होना चाहिए। मैंने देखा कि मैं कितनी अनुचित थी। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती, न तेरे कार्य को समझती हूँ और न ही तेरे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करती हूँ। मैं बहुत ज्यादा विद्रोही हूँ! हे परमेश्वर, कृपया खुद को समझने के लिए मेरा मार्गदर्शन कर।”

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अपना कर्तव्य निभाने का फैसला लेने से पहले, अपने दिलों की गहराई में, मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं की उम्मीदों, आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और यहाँ तक कि मुकुट पाने की उम्मीदों से भरे होते हैं, और उन्हें इन चीजों को पाने का पूरा भरोसा होता है। वे ऐसे इरादों और आकांक्षाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। तो, क्या उनके कर्तव्य निर्वहन में वह ईमानदारी, सच्ची आस्था और निष्ठा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है? इस मुकाम पर, अभी कोई भी उनकी सच्ची निष्ठा, आस्था या ईमानदारी को नहीं देख सकता, क्योंकि हर कोई अपना कर्तव्य करने से पहले पूरी तरह से लेन-देन की मानसिकता रखता है; हर कोई अपना कर्तव्य निभाने का फैसला अपने हितों से प्रेरित होकर और अपनी अतिशय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की पूर्व-शर्त पर करता है। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : ‘अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता, तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।’ वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है, और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है। इसलिए, बाहर से ऐसा लगता है कि निष्कासित किए जाने से पहले कई मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और उन्होंने एक औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक त्याग किया है और अधिक कष्ट झेला है। वे जो खुद को खपाते हैं और जो कीमत चुकाते हैं वह पौलुस के बराबर है, और वे पौलुस जितनी ही भागदौड़ भी करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई देख सकता है। उनके व्यवहार और कष्ट सहने और कीमत चुकाने की उनकी इच्छा के संदर्भ में, उन्हें कुछ न कुछ तो मिलना ही चाहिए। लेकिन परमेश्वर किसी व्यक्ति को उसके बाहरी व्यवहार के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सार, उसके स्वभाव, उसके खुलासे, और उसके द्वारा की जाने वाली हर एक चीज की प्रकृति और सार के आधार पर देखता है। जब लोग दूसरों का मूल्यांकन करते हैं और उनके साथ पेश आते हैं, तो वे कौन हैं इसका निर्धारण केवल उनके बाहरी व्यवहार के आधार पर, वे कितना कष्ट सहते हैं और वे क्या कीमत चुकाते हैं, इन बातों के आधार पर ही करते हैं, और यह बहुत बड़ी गलती है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। मैंने देखा कि परमेश्वर ने मसीह-विरोधियों के बारे में उजागर किया है कि वे आशीष और मुकुट पाने के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, उनके सारे त्याग स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के आशीष पाने के लिए परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के लिए होते हैं और यह कि इस प्रकार से कर्तव्यों का पालन करना वफादारी या ईमानदारी नहीं होती है। अगर उन्हें आशीष नहीं मिलते, तो वे अत्यधिक शिकायत करते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर से बहस करते हैं और हिसाब चुकाने की कोशिश करते हैं। मैंने अपने व्यवहार की तुलना की और देखा कि यह भी एक मसीह-विरोधी के समान ही था। शुरुआत में, जब मैंने परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद अपना पुराना गठिया रोग ठीक होते देखा, तो मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गई थी, और इस मानसिकता के साथ कि परमेश्वर ने मुझे ठीक किया है और अब मैं एक अच्छी मंजिल पा सकती हूँ, मैंने सक्रिय रूप से सुसमाचार फैलाया और अपने कर्तव्यों को निभाया। चाहे आंधी हो, बारिश हो, गर्मी हो या सर्दी, मैं सुसमाचार फैलाने के लिए बिना थके काम करती रही और अच्छे कर्म तैयार करने में जुटी रही, और रिश्तेदारों, दोस्तों और सहकर्मियों के मजाक उड़ाने और बदनामी करने पर भी मैं पीछे नहीं हटी। हालाँकि, जब मेरी बीमारी फिर से लौट आई, और मैंने देखा कि उसी बीमारी से पीड़ित लोग मर रहे थे, तो मैंने शिकायत की कि परमेश्वर मेरी रक्षा नहीं कर रहा है और मैं अपने कर्तव्यों को निभाना भी नहीं चाहती थी, इस भय से कि अधिक चिंताओं का सामना करने से मेरी स्थिति और खराब हो सकती है और मेरी मृत्यु जल्द हो सकती है। तथ्यों के प्रकाशन के माध्यम से, मैंने महसूस किया कि परमेश्वर में मेरा विश्वास और कर्तव्य निर्वहन केवल परमेश्वर से सौदेबाजी करने के लिए था, और मेरे सभी त्याग इसलिए थे ताकि परमेश्वर मुझे ठीक करे और मुझे एक अच्छा परिणाम और अच्छी मंजिल मिले। जब मेरी आशीष पाने की इच्छा टूटकर बिखर गई, तो मैं थोड़ा भी कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं थी, इस डर से कि कहीं इससे मेरे शारीरिक हितों को नुकसान न पहुँचे। मेरे अंदर परमेश्वर के प्रति वफादारी या ईमानदारी बिल्कुल भी नहीं थी। मैंने कहा था कि मैं अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह निभाऊँगी और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाऊँगी, लेकिन सच्चाई यह थी कि मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी, अपने कर्तव्यों को भविष्य के आशीषों के लिए सौदेबाजी का जरिया बना रही थी। मैं सचमुच स्वार्थी, घटिया और धोखेबाज थी! मैं शैतानी कानून “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” को मानकर चल रही थी, और जो कुछ भी करती, वह केवल अपने लिए होता, अगर मुझे लाभ न मिलता, तो मैं उंगली तक नहीं उठाती। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी मैंने जो कुछ भी किया, वह आशीष और लाभ के लिए ही था। मैं लालची और स्वार्थी थी और अगर मुझे कोई लाभ नहीं मिलता, तो मैं परमेश्वर के खिलाफ जाकर हिसाब बराबर करने की कोशिश करती। मुझमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था, और मैं सचमुच मानवता से रहित थी!

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन्हें कभी आसान प्रवेश नहीं दिया जो मेरी चापलूसी करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि केवल वे ही लोग जो सत्य को प्राप्त करते हैं और जिनका स्वभाव बदल चुका है, परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। ईमानदार लोग सत्य से प्रेम करते हैं और बिना सौदेबाजी या माँग किए अपना कर्तव्य निभाते हैं। वे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य ईमानदारी से निभा सकते हैं, और ऐसे लोगों को परमेश्वर बचाना चाहता है। हालाँकि, जो लोग परमेश्वर में विश्वास तो रखते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते और केवल आशीष पाने के लिए परमेश्वर से सौदेबाजी करते हैं जब उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, तो वे परमेश्वर से शिकायत करते हैं और उसका विरोध करते हैं। ऐसे लोग, चाहे वे कितना भी व्यस्त रहें या कष्ट सहें, परमेश्वर द्वारा हटा दिए जाएँगे। यह परमेश्वर के धार्मिक और पवित्र सार से निर्धारित होता है। अपने कर्तव्य निर्वहन और परमेश्वर में आस्था रखने के दौरान, मैंने परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश की, परमेश्वर को एक खजाने की पेटी और अपनी बीमारी को ठीक करने वाले डॉक्टर के रूप में देखा। जब मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं, तो मैंने परमेश्वर के खिलाफ आवाज उठाई और उसका विरोध किया। मैं सचमुच बेशर्म थी! परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और मैं एक सृजित प्राणी हूँ। अपना कर्तव्य निभाना मेरी जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर से ऐसी अनुचित माँगें करना और अपने कर्तव्यों में ऐसे इरादे रखना, यह परमेश्वर को मुझसे घृणा और नफरत करने पर मजबूर क्यों नहीं करेगा? मुझे पौलुस का ख्याल आया। शुरुआत से ही, उसने केवल धार्मिकता का मुकुट पाने के लिए कार्य किया और खुद को खपाया। उसने सुसमाचार फैलाने के लिए पूरे यूरोप का दौरा किया, बहुत दर्द सहा और काफी काम किया। लेकिन उसने जो कुछ भी किया, वह परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने या एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए नहीं था, बल्कि अपने लिए आशीष और इनाम पाने के लिए था, ताकि अंत में वह ये शब्द कह सके : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस के त्याग और प्रयास न तो ईमानदार थे और न ही समर्पित। वे केवल परमेश्वर से सौदेबाजी करने, उसे छलने और उपयोग करने के लिए किए गए थे। अंततः, उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और नर्क में डाल दिया गया। अपनी आस्था में, मैं हमेशा यही चाहती थी कि परमेश्वर मेरी बीमारी को ठीक करे, मेरी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करे, और पौलुस की तरह, मैं भी हमेशा परमेश्वर से आशीष प्राप्त करना चाहती थी। अगर मैंने अपनी गलती नहीं सुधारी, तो मेरा अंतिम परिणाम भी पौलुस की तरह ही दंडित होने जैसा होगा। इतने घृणित इरादों के साथ अपना कर्तव्य निभाते हुए और फिर भी परमेश्वर की स्वीकृति की उम्मीद करते हुए, मैं कितनी भ्रमित थी? यह एहसास होने पर, मुझे शर्म, संकोच और अपराध बोध हुआ। मैंने सोचा कि परमेश्वर ने हम भ्रष्ट लोगों को बचाने के लिए दो बार देहधारण किया, सभी प्रकार की मानवीय कठिनाइयाँ झेलीं, इतने सारे वचन बोले, और व्यक्तिगत रूप से हमारा मार्गदर्शन और सिंचन किया, लेकिन उसने न तो कभी भी हमसे कुछ माँगा और न ही कोई अपेक्षा रखी। मैंने परमेश्वर द्वारा दिए गए इतने सारे सत्यों का आनंद लिया, और अपना कर्तव्य निभाना मेरे जैसे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य है, फिर भी मैं परमेश्वर से सौदेबाजी और माँग करना चाहती थी। मैं सचमुच दुष्ट थी! मैंने सोचा कि कैसे मैं मृत्यु के कगार पर थी, मुझे परमेश्वर की वाणी सुनने और उसके घर लौटने का मौका मिला, परमेश्वर के वचन खाने-पीने और जीवन की आपूर्ति का आनंद लेने का मौका मिला, और कैसे परमेश्वर ने मेरी बीमारी को ठीक किया और मुझे अब तक जीने दिया। यह सब परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा थी। जो कुछ भी परमेश्वर ने मेरे लिए किया, वह उसका प्रेम और उद्धार था। कुछ कर्तव्य निभाने में सक्षम होना परमेश्वर का अनुग्रह था और यही मुझे करना चाहिए था। लेकिन मैंने कृतज्ञ होना नहीं सीखा, और इसके बजाय इन सबका उपयोग परमेश्वर से सौदेबाजी करने और लगातार उनसे माँग करने के लिए पूँजी के तौर पर किया। मुझमें सचमुच अंतरात्मा और मानवता की कमी थी, और मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी थी! जितना मैं इसके बारे में सोचती, उतना ही अधिक मुझे पछतावा होता, इसलिए मैंने अपने दिल ही दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, कसम खाई कि अब से मैं आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं जिऊँगी, बल्कि सत्य का अनुसरण करूँगी, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगी, और अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाऊँगी।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ा और यह समझा कि बीमारी और मृत्यु से सही तरीके से कैसे निपटना चाहिए। परमेश्वर कहता है : “कोई बीमार पड़ेगा या नहीं, उसे कौन-सा गंभीर रोग होगा, और जीवन के प्रत्येक चरण में उसकी सेहत कैसी होगी, उसे मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं बदल सकता, बल्कि ये सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित होते हैं। ... इसलिए, लोगों के शरीरों को कैसा रोग, किस वक्त, किस उम्र में पकड़ेगा, और उनकी सेहत कैसी होगी, ये सारी चीजें परमेश्वर व्यवस्थित करता है और लोग इन चीजों का फैसला खुद नहीं कर सकते; उसी तरह जैसे लोग अपने जन्म का समय स्वयं तय नहीं कर सकते। तो क्या जिन चीजों के बारे में तुम फैसला नहीं ले सकते, उनको लेकर तुम्हारा संतप्त, व्याकुल और चिंतित होना बेवकूफी नहीं है? (हाँ, है।) लोगों को उन चीजों को सुलझाने में लगना चाहिए जिन्हें वे खुद सुलझा सकें, और जो चीजें वे नहीं सुलझा सकते, उनके लिए उन्हें परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए; लोगों को चुपचाप समर्पण करना चाहिए, और परमेश्वर से उनकी रक्षा करने की विनती करनी चाहिए—लोगों की मनःस्थिति ऐसी ही होनी चाहिए। जब रोग सचमुच जकड़ ले और मृत्यु सचमुच करीब हो, तो लोगों को समर्पण कर देना चाहिए, परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत या विद्रोह नहीं करना चाहिए, परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं करनी चाहिए या उस पर हमला करने वाली बातें नहीं कहनी चाहिए। इसके बजाय, लोगों को सृजित प्राणियों की तरह परमेश्वर से आने वाली हर चीज का अनुभव कर उसकी सराहना करनी चाहिए—उन्हें अपने लिए चीजों को खुद चुनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यह तुम्हारे जीवन को संपन्न करने वाला एक विशिष्ट अनुभव होना चाहिए, और यह अनिवार्य रूप से कोई बुरी चीज नहीं है, है ना? इसलिए रोग की बात आने पर, लोगों को पहले रोग के उद्गम से जुड़े अपने गलत विचारों और सोच को ठीक करना चाहिए, और तब उन्हें उसकी चिंता नहीं होगी; इसके अलावा लोगों को ज्ञात-अज्ञात चीजों का नियंत्रण करने का कोई हक नहीं है, न ही वे उन्हें नियंत्रित करने में सक्षम हैं, क्योंकि ये तमाम चीजें परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं। लोगों के पास जो अभ्यास का सिद्धांत और रवैया होना चाहिए, वह प्रतीक्षा और समर्पण का है। समझने से लेकर अभ्यास करने तक, सब-कुछ सत्य सिद्धांतों के अनुरूप किया जाना चाहिए—यह सत्य का अनुसरण करना है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। “अगर कोई मृत्यु की भीख माँगे, तो जरूर नहीं कि वह मर जाए; अगर कोई जीने की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह जीवित रहे। ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन हैं, और परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से ही इसे बदला जा सकता है। इसलिए, मान लो कि तुम्हें कोई गंभीर रोग, संभावित घातक गंभीर रोग हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु हो जाए—तुम मरोगे या नहीं इसका फैसला कौन करता है? (परमेश्वर।) परमेश्वर फैसला लेता है। और चूँकि परमेश्वर निर्णय लेता है, और लोग ऐसी चीज का फैसला नहीं कर सकते, तो लोग किस बात को लेकर व्याकुल और संतप्त हैं? यह ऐसा ही है, जैसे तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तुम कब और कहाँ पैदा होते हो—ये चीजें भी तुम नहीं चुन सकते। इन मामलों में सबसे बुद्धिमान यह चुनाव है कि चीजों को कुदरती ढंग से होने दिया जाए, समर्पण किया जाए, चुना न जाए, इस विषय पर कोई विचार न किया जाए या ऊर्जा न खपाई जाए, और इसे लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित न हुआ जाए। चूँकि लोग खुद नहीं चुन सकते, इसलिए इस विषय पर इतनी ऊर्जा और विचार खपाना बेवकूफी और अविवेकपूर्ण है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैंने समझा कि किसी व्यक्ति को कौन-सी बीमारी कब होती है, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन है, यह मानव की पसंद पर निर्भर नहीं है, लोगों को दुख, चिंता और घबराहट जैसी नकारात्मक भावनाओं को छोड़ देना चाहिए, इन परिस्थितियों का शांत मन से सामना करना चाहिए, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, और परमेश्वर के इरादे को जानने और सबक सीखने का प्रयास करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों पर मनन करते हुए, मैंने अपने दिल में अचानक प्रबुद्धता महसूस की। जब मैं बीमार होती हूँ, मेरी बीमारी की गंभीरता और मेरी मृत्यु का समय, यह सब परमेश्वर के आयोजनों के अधीन है। ऐसा नहीं है कि मृत्यु के भय से मैं इसे टाल सकती हूँ और न ही केवल चाहने से मैं मर सकती हूँ। मेरी गंभीर बीमारी, मेरा पंगु होना या मेरी मृत्यु, यह सब परमेश्वर की अनुमति से है और मुझे परमेश्वर से शिकायत करने या कुछ माँगने का कोई अधिकार नहीं है। मैंने सोचा कि जब अय्यूब ने बीमारी और आपदाओं का सामना किया था, तो उसने परमेश्वर से शिकायत नहीं की और न ही आस्था खोई। इसके बजाय, उसने अपने दिल की गहराई से परमेश्वर की धार्मिकता की प्रशंसा की, यह कहते हुए : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का इतना अधिक आनंद लेने के बाद मुझे बीमारी का सामना करते समय परमेश्वर से कोई माँग नहीं करनी चाहिए। चाहे परमेश्वर मेरी बीमारी को दूर कर दे या इसे हमेशा मेरे साथ रहने दे, यह सब परमेश्वर की सद्भावना का हिस्सा है और मुझे शिकायत या माँग नहीं करनी चाहिए। भले ही एक दिन मैं पंगु हो जाऊँ या मृत्यु का सामना करूँ, तो भी मैं सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगी। अब मुझे बीमारी और मृत्यु का सही तरीके से सामना करना है, दुख, चिंता और घबराहट को छोड़ देना है और सब कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंप देना है। मैंने फिर से बीते बीस वर्षों पर विचार किया, जिन लोगों को मेरी तरह ही यह बीमारी थी, उनकी उम्र चाहे जो भी रही हो, चाहे वे पहले बीमार हुए हों या बाद में, उनमें से कई लोग मर चुके थे। अगर परमेश्वर की सुरक्षा न होती, तो मैं आज जीवित नहीं होती। यह तथ्य कि आज मैं जीवित हूँ और परमेश्वर के इतने वचनों के सिंचन का आनंद ले रही हूँ, यह पहले से ही परमेश्वर का अनुग्रह है। इन बातों को समझने के बाद, मुझे अब इस बात का डर नहीं रहा कि मैं कब मर सकती हूँ और मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हो गई। उसके बाद, हर दिन मैंने परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, उन पर मनन करने और अनुभवजन्य लेख लिखने पर ध्यान केंद्रित किया, मेरी बीमारी की गंभीरता चाहे जितनी भी हो, मैंने प्रार्थना की, परमेश्वर के वचनों को खाया-पिया, सभाओं में भाग लिया और अपने कर्तव्यों को हमेशा की तरह निभाया। कभी-कभी जब बीमारी दोबारा गंभीर रूप से उभरी, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसके समक्ष आई, उससे अपने दिल को समर्पण में बनाए रखने की प्रार्थना की। साथ ही, मैंने लगातार अपने भीतर के अशुद्ध इरादों पर मनन किया और उन्हें पहचानते हुए, उन्हें हल करने के लिए सत्य की खोज की। इस प्रकार अभ्यास करने से मेरा परमेश्वर के साथ संबंध और करीबी हो गया और मुझे महसूस हुआ कि यह बीमारी मेरे लिए एक बड़ी सुरक्षा थी। बाद में, मुझे पता भी नहीं चला और मेरे पूरे शरीर का दर्द कम हो गया और मेरा रक्तचाप और रक्त शर्करा भी सामान्य हो गया। मुझे पता था कि यह परमेश्वर की दया और सुरक्षा थी और मैंने अपने दिल में परमेश्वर का धन्यवाद और स्तुति की!

बाद में, मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “बताओ भला, पूरी दुनिया में खरबों लोगों के बीच कौन इतना धन्य है कि परमेश्वर के इतने सारे वचन सुन पाए, जीवन के इतने सत्य और इतने सारे रहस्य समझ पाए? उन सबमें कौन निजी तौर पर परमेश्वर का मार्गदर्शन, उसका पोषण, देखभाल और रक्षा प्राप्त कर सकता है? कौन इतना धन्य है? बहुत कम लोग। इसलिए तुम थोड़े-से लोगों का आज परमेश्वर के घर में जीवनयापन करने, उसका उद्धार पाना, और उसका पोषण पाने में समर्थ होना, ये सब तुम तुरंत मर जाओ तो भी सार्थक है। तुम अत्यंत धन्य हो, क्या यह सही नहीं है? (हाँ।) इस नजरिये से देखें, तो लोगों को मृत्यु के विषय से इतना अधिक भयभीत नहीं होना चाहिए, न ही इससे बेबस होना चाहिए। भले ही तुमने दुनिया की किसी महिमा या धन-दौलत के मजे न लिए हों, फिर भी तुम्हें सृष्टिकर्ता की दया मिली है, और तुमने परमेश्वर के इतने सारे वचन सुने हैं—क्या यह आनंददायक नहीं है? (जरूर है।) इस जीवन में तुम चाहे जितने साल जियो, ये सब इस योग्य है और तुम्हें कोई खेद नहीं, क्योंकि तुम परमेश्वर के कार्य में निरंतर अपना कर्तव्य निभाते रहे हो, तुमने सत्य समझा है, जीवन के रहस्यों को समझा है, और जीवन में जिस पथ और लक्ष्यों का तुम्हें अनुसरण करना चाहिए उन्हें समझा है—तुमने बहुत कुछ हासिल किया है! तुमने सार्थक जीवन जिया है!(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मेरी आँखें भर आईं। यह मेरा सौभाग्य था कि मैं परमेश्वर की प्रबंधन योजना के अंतिम युग में उसकी वाणी सुन सकी, परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में रह सकी, उनके इतने सारे वचनों के पोषण और सिंचन का आनंद ले सकी, सत्य के इतने सारे रहस्यों को समझ सकी, और उन आशीषों का आनंद उठा सकी जो इतिहास में किसी ने अनुभव नहीं किए। अगर मैं अभी मर भी जाऊँ, तो भी यह सार्थक होगा। चूँकि मैं अभी जीवित हूँ, मुझे अपने शेष दिनों को संजोना चाहिए और अपने कर्तव्यों को लगनपूर्वक निभाना चाहिए। मेरा दर्द दिन-ब-दिन कम हो रहा है, मेरे पैर के जोड़ों की सूजन बहुत हद तक घट गई है, मेरा दायाँ टखना लगभग सामान्य हो गया है, और मेरे पूरे शरीर का दर्द भी कम हो गया है। भाई-बहनों का कहना है कि मेरे चेहरे पर ज्यादा रंगत आ गई है, मैं स्वस्थ होकर चमक रही हूँ, और मानो मैं पूरी तरह बदल गई हूँ। मैं बहुत रोमांचित हूँ और अपने दिल में लगातार परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के लिए धन्यवाद करती हूँ!

इस बीमारी के प्रकट होने के माध्यम से ही मैं अंततः समझ पाई कि परमेश्वर में विश्वास रखने को लेकर मेरे दृष्टिकोण गलत थे, मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने के बजाय आशीष पाने की इच्छा रखती थी और अपने कर्तव्यों का उपयोग परमेश्वर से सौदेबाजी करने के लिए कर रही थी, जिससे मैंने एक सामान्य व्यक्ति की अंतरात्मा और विवेक खो दिया था। आज, मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ है और अनुसरण के बारे में मेरे गलत दृष्टिकोणों में कुछ बदलाव आए हैं। ये सब परमेश्वर के वचनों के नतीजे हैं, और यह परमेश्वर का प्रेम भी है। परमेश्वर के उद्धार के लिए उसका धन्यवाद!

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