16. जीवन की छोटी-छोटी चीजें भी सीखने के अवसर हैं

चिन शिन, चीन

कुछ समय के लिए, मुझे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पकड़े जाने से बचने के लिए मेजबान परिवार के घर में छिपकर अपने कर्तव्य निभाने पड़े। एक दिन, जब सुपरवाइजर बैठक से लौटा, तो उसने लोगों के भेद पहचानने के बारे में कुछ सत्य सिद्धांतों पर संगति की। मैं अपने दिल में ईर्ष्या महसूस करने से खुद को रोक नहीं पाई मैंने सोचा, “बाहर जाकर कर्तव्य निभाना तो फिर भी बेहतर काम है। आप अधिक सभाओं में भाग ले सकते हैं, अधिक सत्य प्राप्त कर सकते हैं और सत्य में तेजी से प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन इसके विपरीत मैं बाहर गए बिना पूरे दिन पाठ्य-सामग्री आधारित कर्तव्य निभाती हूँं। अपने मौजूदा कार्यों के अलावा, मैं केवल मेजबान परिवार के जोड़े और उनके कुत्ते के साथ ही बातचीत करती हूँ। मेरा सामाजिक दायरा इतना छोटा है कि मैं शायद ही किसी से मिलती हूँ। यहाँ तक कि ऐसा कोई अवसर नहीं आता जहाँ मैं अपनी भ्रष्टता प्रकट कर सकूँ। तो फिर मैं खुद को कैसे जान सकती हूँ? मैं अधिक सत्य कैसे प्राप्त कर सकती हूँ?” उस समय मैंने सोचा, “परमेश्वर लोगों के परिणाम इस आधार पर निर्धारित करता है कि उनके पास सत्य है या नहीं। अगर मैं सत्य प्राप्त नहीं कर सकी और मेरा स्वभाव नहीं बदला, तो क्या तब भी मुझे बचाया जा सकता है?” जब मैंने इस बारे में सोचा, तो अब मैं अपना पाठ्य-सामग्री आधारित कर्तव्य नहीं करना चाहती थी। मैं सुपरवाइजर से मुझे ऐसा कर्तव्य सौंपने के लिए कहना चाहती थी जिसमें अधिक लोगों से बातचीत करना और अधिक सभाएँ करना शामिल हों। बाद में, मुझे लगा कि यह उचित नहीं था। जो कर्तव्य लोगों को सौंपे गए थे, वे उनकी काबिलियत और क्षमताओं के व्यापक मूल्यांकन के आधार पर तय किए गए थे। अपनी इच्छा से कर्तव्य चुनने और चुनिंदा काम करने के कारण, मैं आज्ञाकारी नहीं बन रही थी। मैं कभी एक बात तो कभी दूसरी बात सोचते हुए एकटक कंप्यूटर को देखे जा रही थी, लेकिन मेरा दिल शांत नहीं हो पा रहा था।

अगले दिन दोपहर को जब मैंने देखा कि सुपरवाइजर फिर से एक और बैठक के लिए बाहर जा रही है, तो मुझे खासतौर पर ईर्ष्या हुई और मैंने सोचा, “सुपरवाइजर होना कितना अच्छा है। न केवल वे अक्सर अगुआओं के साथ बैठकें करते हैं और कई सत्यों को समझते हैं, बल्कि वे विभिन्न समूहों में सत्य का उपयोग करके समस्याओं को हल करने का अभ्यास भी करते हैं। हर दिन वे कुछ न कुछ हासिल करते हैं और उनका जीवन इतनी तेजी से प्रगति करता है! मेरा कर्तव्य तो मुझे घर के अंदर ही रखता है, जो सुरक्षित तो है लेकिन कम सभाओं में भाग लेकर मैं सत्य कैसे प्राप्त कर सकती हूँ?” मैं अपनी शिकायतों को रोक नहीं पाई और मैं इस कर्तव्य को जारी नहीं रखना चाहती थी। लेकिन फिर मैंने सोचा कि सुपरवाइजर ने पाठ्य-सामग्री आधारित कर्मियों को ढूँढ़ना मुश्किल होने के बारे में क्या कहा था। अगर मैं कह दूँ कि मैं यह कर्तव्य नहीं निभाना चाहती, तो क्या इससे कलीसिया के लिए परेशानी खड़ी नहीं हो जाएगी? इसलिए, मैंने इसे जारी रखा। भले ही मैं काम करती रही लेकिन मेरे दिल में किसी भी तरह का बोझ महसूस नहीं हुआ। अगले दो दिनों तक, मेरा कंप्यूटर बार-बार क्रैश होता रहा और साथ ही मेरी कर्तव्य के प्रति समर्पण की कमी के कारण, काम में देरी होती गई। सुपरवाइजर ने याद दिलाया कि मुझे केवल बाहरी कारणों की तलाश नहीं करनी चाहिए बल्कि अपनी खुद की स्थिति पर भी विचार करना चाहिए। इसलिए मैंने सुपरवाइजर के साथ उन बातों को साझा किया जो मैंने हाल ही में प्रकट की थीं। सुपरवाइजर ने पूछा, “क्या तुमने अपनी स्थिति का समाधान करने के लिए सत्य की खोज की? तुम अपनी भ्रष्टता का समाधान करने के लिए सत्य की खोज नहीं कर रही हो। तुम अपने सामने मौजूद सबक से कुछ भी नहीं सीख रही हो। क्या तुम्हें लगता है कि कर्तव्य बदलने से ये सबक सीखने में मदद मिलेगी?” सुपरवाइजर के शब्दों ने मुझे निरुत्तर कर दिया। जो उसने कहा था वह वास्तव में सही था। मुझे सामने आए मामलों से सबक सीखने और अपनी भ्रष्टता को दूर करने के लिए सत्य की खोज करने पर ध्यान देना चाहिए।

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “परमेश्वर के वचनों में सत्य निहित हैं जो इंसान में होने आवश्यक हैं, ये चीजें ही इंसान के लिए अत्यंत लाभदायक और सहायक होती हैं, तुम लोगों के शरीर को ऐसे टॉनिक और पोषण की आवश्यकता है, इनसे इंसान को अपनी सामान्य मानवीयता को फिर से प्राप्त करने में सहायता मिलती है, और ये ऐसे सत्य हैं जो इंसान के अंदर मौजूद होने चाहिए। तुम लोग परमेश्वर के वचनों का जितना अधिक अभ्यास करोगे, उतनी ही तेज़ी से तुम लोगों का जीवन विकसित होगा, और सत्य उतना ही अधिक स्पष्ट होता जाएगा। जैसे-जैसे तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, तुम आध्यात्मिक क्षेत्र की चीज़ों को उतनी ही स्पष्टता से देखोगे, और शैतान पर विजय पाने के लिए तुम्हारे अंदर उतनी ही ज़्यादा शक्ति होगी। जब तुम लोग परमेश्वर के वचनों पर अमल करोगे, तो तुम लोग ऐसा बहुत-सा सत्य समझ जाओगे जो तुम लोग समझते नहीं हो। अधिकतर लोग अमल में अपने अनुभव को गहरा करने के बजाय महज़ परमेश्वर के वचनों के पाठ को समझकर और सिद्धांतों से लैस होकर ध्यान केंद्रित करके ही संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन क्या यह फरीसियों का तरीका नहीं है? क्या वे ऐसा करके ‘परमेश्वर का वचन जीवन है’ वाली कहावत की वास्तविकता हासिल कर सकते हैं? किसी इंसान का जीवन मात्र परमेश्वर के वचनों को पढ़कर विकसित नहीं हो सकता, बल्कि परमेश्वर के वचनों को अमल में लाने से ही होता है। अगर तुम्हारी सोच यह है कि जीवन और आध्यात्मिक कद पाने के लिए परमेश्वर के वचनों को समझना ही पर्याप्त है, तो तुम्हारी समझ दोषपूर्ण है। परमेश्वर के वचनों की सच्ची समझ तब पैदा होती है जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, और तुम्हें यह समझ लेना चाहिए कि ‘इसे हमेशा सत्य पर अमल करके ही समझा जा सकता है।’ आज, परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, तुम केवल यह कह सकते हो कि तुम परमेश्वर के वचनों को जानते हो, लेकिन यह नहीं कह सकते कि तुम इन्हें समझते हो। कुछ लोगों का कहना है कि सत्य पर अमल करने का एकमात्र तरीका यह है कि पहले इसे समझा जाए, लेकिन यह बात आंशिक रूप से ही सही है, निश्चय ही यह पूरे तौर पर सही तो नहीं है। सत्य का ज्ञान प्राप्त करने से पहले, तुमने उस सत्य का अनुभव नहीं किया है। किसी उपदेश में कोई बात सुनकर यह मान लेना कि तुम समझ गए हो, सच्ची समझ नहीं होती—इसे महज़ सत्य को शाब्दिक रूप में समझना कहते हैं, यह उसमें छिपे सच्चे अर्थ को समझने के समान नहीं है। सत्य का सतही ज्ञान होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम वास्तव में इसे समझते हो या तुम्हें इसका ज्ञान है; सत्य का सच्चा अर्थ इसका अनुभव करके आता है। इसलिए, जब तुम सत्य का अनुभव कर लेते हो, तो तुम इसे समझ सकते हो, और तभी तुम इसके छिपे हुए हिस्सों को समझ सकते हो। संकेतार्थों को और सत्य के सार को समझने के लिए तुम्हारा अपने अनुभव को गहरा करना की एकमात्र तरीका है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सत्य को समझने के बाद, तुम्हें उस पर अमल करना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि सत्य को वास्तव में समझने के लिए इसका वास्तविक जीवन में अभ्यास करना और इसमें प्रवेश करना आवश्यक है और केवल वही लोग सत्य के सार को समझ सकते हैं जो अभ्यास पर ध्यान केंद्रित करते हैं। सत्य का अभ्यास करने और इसमें प्रवेश करने पर ध्यान दिए बिना, केवल परमेश्वर के वचनों को पढ़ने या दूसरों की संगति सुनने से व्यक्ति केवल धर्म-सिद्धांतों को ही समझ सकता है, वास्तव में सत्य को नहीं समझ सकता। मैंने ऐसे दो अगुआओं के बारे में सोचा जिन्हें मैं पहले जानती थी। वे सुबह से रात तक काम करते थे, सभाएँ आयोजित करते थे और भाई-बहनों के साथ हर जगह संगति करते थे। उन्होंने परमेश्वर के वचनों को बहुत पढ़ा और उच्च स्तर के अगुआओं के साथ कई सभाओं में भाग लिया। हालाँकि उन्हें कई शब्द और धर्म-सिद्धांत समझ आते थे, लेकिन उन्होंने अपनी भ्रष्टता की जाँच करने या परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने पर ध्यान नहीं दिया। उनमें से एक अगुआ हमेशा अपनी बड़ाई करता और अपने बारे में गवाही देता था और भाई-बहनों को अपने पास बुलाता था और अंततः वह एक मसीह-विरोधी बन गया। दूसरा अगुआ रुतबे को लेकर जुनूनी था और जो भी उसके आगे समर्पण नहीं करता था या उसे सुझाव देता था, उसे वह यातना देता था और उसके कई बुरे कर्मों के कारण उसे अंततः कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया। हालाँकि, कुछ भाई-बहनों के ऐसे कर्तव्य थे, जो उन्हें सुर्खियों में नहीं लाते थे और जिनमें दूसरों के साथ सीमित संपर्क होता था, लेकिन उन्होंने आत्मचिंतन करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को जानने पर ध्यान केंद्रित किया और समय के साथ उनका जीवन बढ़ता गया। उनमें से कुछ ने तो अनुभवजन्य गवाही वाले लेख भी लिखे। मैंने अनुग्रह के युग के पतरस के बारे में भी सोचा। उसने प्रभु यीशु के कई उपदेश सुने, लेकिन वह सिर्फ उन्हें सुनकर ही संतुष्ट नहीं हुआ। वह अक्सर प्रभु के वचनों पर विचार करता और उन्हें अपने दैनिक जीवन में लागू करने पर ध्यान केंद्रित करता था। सत्य का अभ्यास करने के माध्यम से उसे परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन मिला और इस प्रकार धीरे-धीरे अनुभव प्राप्त करते हुए, सत्य ही उसका जीवन बन गया और उसने परमेश्वर के प्रति समर्पित होने, परमेश्वर का भय मानने और परमेश्वर से प्रेम करने की वास्तविकता को प्राप्त किया। इसी तरह अब तक मैंने परमेश्वर के बहुत सारे वचन और जीवन प्रवेश पर कई उपदेश और संगतियाँ भी सुनी थीं, लेकिन क्योंकि मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया या जब भी कोई घटना घटी तो मैंने आत्मचिंतन करने पर ध्यान नहीं दिया और न ही कार्य करते समय सत्य की खोज की, इसलिए मेरी उपलब्धियाँ बहुत मामूली थीं। इससे मुझे समझ आया कि चाहे आपको कितना भी समझ आता हो, लेकिन केवल खुद को धर्म-सिद्धांतों से सुसज्जित करने पर ध्यान देने का यह मतलब नहीं होता कि आपको सत्य की समझ है। मैंने इस बारे में सोचा कि इससे पहले मैंने अक्सर परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की सच्चाई के बारे में पढ़ा था और इस बात को समझा था कि हर परिस्थिति में, मुझे अपने कर्तव्य को दृढ़ता से निभाना चाहिए और परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, लेकिन जब परमेश्वर द्वारा निर्धारित परिवेश मेरी धारणाओं से मेल नहीं खाया, तब मैंने देखा कि मुझमें समर्पण करने की वास्तविकता की कमी थी। यह सोचते हुए कि यह कर्तव्य मेरी इच्छाओं के अनुरूप नहीं है, मैंने उसके लिए प्रतिरोधी महसूस किया था और मैं इसके प्रति समर्पण करने को तैयार नहीं थी। मैंने देखा कि चाहे मैंने कितनी भी संगतियाँ क्यों न सुनी हों, इसका मतलब यह नहीं था कि मैंने सत्य को समझ लिया है या सत्य को पा लिया है। जो कुछ मैंने समझा था, वे केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत थे और अगर मैं सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित न करती, तो मैं वास्तव में इसे हासिल न कर पाती और न ही मेरा जीवन स्वभाव बदल सकता था।

मैंने अपनी स्थिति के आधार पर खोज जारी रखी और परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसमें कहा गया है : “भ्रष्ट स्वभाव रातोरात परिवर्तित नहीं होता। व्यक्ति को सभी मामलों में लगातार आत्‍मचिंतन और आत्‍मपरीक्षण करना चाहिए। उसे परमेश्वर के वचनों के आलोक में अपने कार्यों और व्यवहारों की जाँच करनी चाहिए, स्वयं को समझने का प्रयास करना चाहिए और सत्य का अभ्यास करने का मार्ग खोजना चाहिए। भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने का यही तरीका है। यह जरूरी है कि दैनिक जीवन में प्रकट होने वाले भ्रष्ट स्वभावों पर चिंतन करें और उनका पता लगाएँ, सत्य की अपनी समझ के आधार पर गहन-विश्लेषण और विवेक का अभ्यास करें और धीरे-धीरे बाधाएँ पार कर आगे बढ़ें ताकि व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर सके और अपने सभी कार्यों को सत्य के अनुरूप कर सके। इस तरह के अनुसरण, अभ्यास और अपने बारे में समझ के माध्यम से भ्रष्टता के ये खुलासे कम होने लगते हैं और यह आशा बँधी रहती है कि व्यक्ति का स्वभाव अंततः परिवर्तित हो जाएगा। यही रास्ता है। व्यक्ति के स्वभाव का परिवर्तन उसके जीवन में विकास का विषय है। उसे सत्य को समझकर इसका अभ्यास करना चाहिए। केवल सत्य का अभ्यास करके ही वह भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान कर सकता है। यदि भ्रष्ट स्वभाव लगातार प्रकट होता रहता है, यहाँ तक कि हर कथनी-करनी में प्रकट होने लगे तो इसका मतलब है कि व्‍यक्ति का स्वभाव परिवर्तित नहीं हुआ है। भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित किसी भी मामले का ईमानदारी से गहन-विश्लेषण और अन्वेषण किया जाना चाहिए। भ्रष्ट स्वभाव के मूल कारणों का पता लगाने और उनका समाधान करने के लिए व्यक्ति को सत्य खोजना चाहिए। भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को पूरी तरह से हल करने का यही एकमात्र तरीका है। एक बार जब तुम्‍हें यह रास्ता मिल जाता है तो तुम्‍हारे स्वभाव में परिवर्तन की आशा बँधी रहती है। ये खोखली बातें नहीं हैं; ये वास्तविक जीवन के लिए प्रासंगिक हैं। मुख्य बात यह है कि क्या व्यक्ति पूरे दिल से और परिश्रमपूर्वक अपना ध्यान सत्य वास्तविकताओं पर केंद्रित कर सकता है और क्या वह सत्य का अभ्यास कर सकता है। जब तक वह सत्य का अभ्यास करने में सक्षम है, वह धीरे-धीरे अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागना शुरू कर सकता है। तब वह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण कर सकता है—दूसरे शब्दों में वह अपने पद के अनुसार आचरण कर सकता है। अपना स्थान पाकर, एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी भूमिका में दृढ़ रहकर और वास्तव में परमेश्वर की आराधना करने वाला और उसके प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति बनकर उसे परमेश्वर का अनुमोदन मिलेगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों ने इस बात को अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव हर दिन प्रकट होते हैं। हर मामले में और हर बोले गए शब्द में भ्रष्ट स्वभाव और गलत विचार या दृष्टिकोण सम्मिलित हो सकते हैं। इन समस्याओं को पहचानने और हल करने के लिए लोगों को सत्य की खोज करने की आवश्यकता है। अंततः, क्या कोई व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है और अपने स्वभाव में बदलाव ला सकता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य का अनुसरण और अभ्यास करता है या नहीं। ऐसा नहीं है कि आप जितने अधिक लोगों के साथ बातचीत करते हैं, आप उतनी ही अधिक भ्रष्टता प्रकट करते हैं या यह कि अगर आप बाहर नहीं जाते हैं और कम लोगों के साथ बातचीत करते हैं, तो आप कम भ्रष्टता प्रकट करते हैं। यह बस मेरी अपनी धारणा और कल्पना थी। वास्तव में, भले ही किसी का कर्तव्य ऐसा हो जिसमें उसे दूसरों से बहुत कम बातचीत करनी पड़ती हो, जब तक वह अपने जीवन प्रवेश के लिए बोझ उठाता है, हर मामले में प्रकट होने वाले अपने विचारों और दृष्टिकोणों पर ध्यान देता है, उन्हें सावधानीपूर्वक जाँचता है और किसी भी भ्रष्टता का पता चलने पर उसे हल करने के लिए समय रहते सत्य की खोज करता है, तो वह फिर भी सत्य प्राप्त कर सकता है और बदलाव का अनुभव कर सकता है। अपने बारे में सोचते हुए, मैंने देखा कि हालाँकि मेरे मौजूदा कर्तव्य में लोगों के साथ बहुत कम बातचीत करना शामिल था, लेकिन फिर भी मैंने अपने कार्य में काफी भ्रष्टता प्रकट की थी। कभी-कभी, जब कार्य बहुत ज्यादा होता था और मुझे देर रात तक काम करना पड़ता था, तो मुझे अपनी आँखों की एक मामूली समस्या के कारण अपनी आँखों के हद से ज्यादा उपयोग की चिंता रहती थी और मुझे इस बात का डर होता था कि अगर मेरी आँखें खराब हो गईं, तो मैं अपने कर्तव्य को जारी नहीं रख पाऊँगी और बचाई नहीं जाऊँगी, इसलिए मैं ढीली पड़ जाती थी और कार्य में देरी कर देती थी। कभी-कभी, मैं अपने कर्तव्य में बेपरवाह रहती थी और अपने कार्य की बारीकियों की जाँच नहीं करती थी, जिससे कार्य को फिर से करना पड़ता था और कार्य की प्रगति में देरी होती थी। मैंने देखा कि मेरी नीच प्रकृति गंभीर थी। मुझे यह भी याद आया कि पहले, जब मेरे पास ऐसा कर्तव्य था जिसमें लोगों से मिलना और हर दिन बैठकों में भाग लेना शामिल था, तब भी मैंने काफी भ्रष्टता प्रकट की थी और कर्तव्यों में व्यस्त होने का बहाना बनाकर आत्मचिंतन करने से बचने की कोशिश करती थी और शायद ही कभी अपनी भ्रष्टता को हल करने के लिए सत्य की खोज करती थी। मैं कई अनुभवों से गुजरी थी और मैंने बहुत सी भ्रष्टता प्रकट की थी, लेकिन मैंने कोई ज्यादा सत्य प्राप्त नहीं किया था। अब पाठ्य-सामग्री आधारित कर्तव्य निभाते हुए, मैं हर दिन केवल अपने कार्य को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित करती थी और शायद ही कभी परमेश्वर के सामने आकर अपनी भ्रष्टता पर विचार कर पाती थी। अपने कर्तव्य को निभाने के अलावा, मेरा मन अक्सर खालीपन की स्थिति में रहता था या मैं शारीरिक सुख, पारिवारिक स्नेह, प्रसिद्धि और रुतबे जैसी चीजों के बारे में सोचती थी—इन सभी चीजों का सत्य से कोई संबंध नहीं था। मेरे जीवन प्रवेश में कोई प्रगति नहीं हो रही थी। मैंने देखा कि सत्य प्राप्त करना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि कोई कौन सा कर्तव्य निभा रहा है। बल्कि मुख्य बात यह थी कि क्या वह आत्मचिंतन पर ध्यान केंद्रित करता है और क्या वह अपनी भ्रष्टता को दूर करने के लिए गंभीर प्रयास करता है। अगर वह सत्य की खोज नहीं करता और आत्मचिंतन नहीं करता है, तो भले ही वह सुपरवाइजर क्यों न बन जाए, वह सत्य प्राप्त नहीं कर सकता और बचाया नहीं जा सकता। इन तथ्यों का सामना करते हुए, मैंने देखा कि मेरे विचार कितने बेतुके और गलत थे! क्योंकि मैं सत्य को नहीं समझ पाई थी, इसलिए मैंने हमेशा चीजों को गलत परिप्रेक्ष्य से देखा, हमेशा इस कर्तव्य को छोड़ना चाहती थी और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करना चाहती थी। मैंने अपना कर्तव्य आधे-अधूरे मन से भी निभाया था और अगर मैं इस तरह से जारी रखती, तो इससे केवल कार्य में देरी होती और परमेश्वर मुझे ठुकरा देता। मैंने इस हकीकत को पहचाना कि सत्य का अनुसरण करने में सही विचारों और दृष्टिकोणों का होना कितना महत्वपूर्ण है। इस बात को समझने के बाद, मैं अब अपने कर्तव्य को लेकर नखरे नहीं करती थी, बल्कि अपना कर्तव्य निभाने के लिए वर्तमान अवसर का लाभ उठाने, कोई समस्या होने पर अपने विचारों और दृष्टिकोणों पर बारीकी से ध्यान देने और उसे तुरंत हल करने के लिए सत्य की खोज करने के लिए तैयार थी।

अपने आत्मचिंतन में, मैंने महसूस किया कि अपने वर्तमान कर्तव्य के प्रति समर्पण करने में मेरी असमर्थता केवल मेरे गलत दृष्टिकोणों के कारण नहीं थी, बल्कि आशीष पाने की मेरी इच्छा के कारण भी थी। मैंने लगा था कि इस कर्तव्य को करने से मुझे कम सत्य प्राप्त होंगे, जिसका मतलब यह था कि आशीष प्राप्त करने की मेरी उम्मीदें काफी कम थीं, इसलिए मैं यह कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। मैंने देखा कि परमेश्वर में विश्वास रखने और कर्तव्य निभाने को लेकर मेरा इरादा गलत था। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभवात्मक ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति को उजागर कर दिया। परमेश्वर में विश्वास रखने, चीजों का त्याग करने, खुद को खपाने और कड़ी मेहनत करने के पीछे मेरा उद्देश्य केवल आशीष प्राप्त करना था। अगर मुझे आशीष नहीं मिल पाता, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो देती और हर चीज के लिए उत्साहहीन हो जाती थी। जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, मैं हमेशा अपना कर्तव्य निभाने के लिए उत्साहित रही, मैंने अपनी नौकरी और शादी को त्याग दिया और मैं अपने कर्तव्य में कष्ट सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार थी। जब मुझे यह पाठ्य-सामग्री आधारित कर्तव्य सौंपा गया, तो मुझे लगा था कि इस कर्तव्य में बाहरी सभाएँ काफी कम होती थीं और सत्य प्राप्त करने के अवसर भी कम ही थे, जिससे मेरे उद्धार में बाधा आ सकती है। इसलिए मैं चाहती थी कि सुपरवाइजर मुझे कोई और कर्तव्य दे और मैंने शिकायत की कि जो कर्तव्य मुझे सौंपा गया है, वह उपयुक्त नहीं है। मैं अपने कर्तव्य को निभाने में बेपरवाह होने लगी, टालमटोल करने लगी और कार्य में देरी करने लगी। मैंने देखा कि अपने कर्तव्य निर्वहन में मेरे द्वारा किए गए त्याग और मेरे प्रयास केवल आशीष पाने की मेरी इच्छा से प्रेरित थे। अपनी आस्था में, मैं केवल अपने हितों के बारे में सोचती थी और अपने कर्तव्य को आशीष पाने का एक साधन मानती थी। अगर कोई कर्तव्य मुझे आशीष पाने के लिए लाभकारी लगता, तो मैं उसे करने के लिए तत्पर रहती; लेकिन अगर ऐसा नहीं होता, तो मैं नकारात्मक हो जाती और उसके लिए प्रतिरोधी महसूस करती थी। मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण करने या उसे संतुष्ट करने की कोशिश नहीं कर रही थी, न ही मैं एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के प्रति ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य निभा रही थी। इस तरह से अनुसरण करने से नतीजे में केवल परमेश्वर की घृणा ही मिलती है और अंततः वह तुम्हें हटा देता है। मुझे कलीसिया की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए, अपने कर्तव्यों को लगन और ईमानदारी से निभाना चाहिए, हर मामले में आत्म-चिंतन करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि मैं सबक सीख सकूँ और स्वभाव में परिवर्तन लाने का प्रयास करना चाहिए।

इसके बाद आने वाले दिनों में, मैंने अपने सामने आने वाली बातों से सबक सीखने पर ध्यान केंद्रित किया। मेजबान घर में रहने वाला भाई अपने कर्तव्य को लेकर उत्साही था, लेकिन वह जीवन प्रवेश पर अधिक ध्यान नहीं देता था। अतीत में, मैंने अच्छे इरादों के साथ उसकी मदद की थी और हमेशा यह कोशिश की कि वह घटित चीजों के माध्यम से खुद को जाने, जिसके कारण वह प्रतिरोध और घृणा महसूस करने लगा। मुझे इससे आहत महसूस हुआ, मैं सोचती थी कि मेरे इरादों की सराहना क्यों नहीं की गई। आत्म-चिंतन के माध्यम से, मुझे एहसास हुआ कि मेरा स्वभाव अहंकारी था और मैं दूसरों को मेरी बात मानने के लिए मजबूर कर रही थी। इसके अलावा, मेरे पास दूसरों की मदद करने के सिद्धांतों की कमी थी। बाद में, मैंने “प्रेमपूर्वक दूसरों की मदद करने के सिद्धांत” पढ़े और इस बात को समझा कि दूसरों की मदद करना कम से कम उनके लिए ठोकर का कारण नहीं बनना चाहिए, बल्कि उनके लिए लाभकारी होना चाहिए और मुझे दूसरों के आध्यात्मिक कद के अनुसार उनके साथ व्यवहार करना चाहिए और उन्हें अपने विचार स्वीकारने के लिए मजबूर किए बिना धैर्यपूर्वक और सहजता से उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। इसके अलावा, कुछ समय पहले, कई भाई-बहन सुसमाचार प्रचार के लिए शहर से बाहर गए थे। मैं कुछ कारणों से नहीं जा पाई और मैं बहुत नकारात्मक और उदास महसूस कर रही थी और यह शिकायत कर रही थी कि परमेश्वर ने मेरे साथ ऐसा क्यों होने दिया। बाद में, मैंने सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित किया और परमेश्वर के वचन पढ़ने और आत्म-चिंतन करने के माध्यम से, मैंने अपने भ्रांतिपूर्ण दृष्टिकोणों और आशीष पाने के इरादे को पहचाना। मैंने सोचा कि शहर से बाहर जाकर अपने कर्तव्य निभाने से अभ्यास करने के अधिक अवसर मिलेंगे और इस प्रकार सत्य और उद्धार प्राप्त करने की भी अधिक संभावना होगी। जब यह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ, तो मैं नकारात्मक हो गई और शिकायत करने लगी। मुझे एहसास हुआ कि एक सृजित प्राणी के रूप में, मुझे सृष्टिकर्ता के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए इस बात को समझना चाहिए कि कोई सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वह सत्य के लिए प्रयास करता है और कीमत चुकाता है, न कि इस बात पर कि वह कहाँ अपना कर्तव्य निभाता है। मुझे अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहना चाहिए, अपने वर्तमान परिवेश में सत्य का अनुसरण करते हुए सबक सीखना चाहिए और अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाना चाहिए। मुझे इसी चीज का अनुसरण करना चाहिए।

इस दौरान अपने अनुभवों पर आत्म-चिंतन करते हुए, मैंने समझा कि परमेश्वर में विश्वास में, कोई व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं, यह इस पर निर्भर नहीं करता कि वह कौन सा कर्तव्य निभाता है, बल्कि इस पर करता है वह सत्य से प्रेम और उसका अभ्यास करता है या नहीं। अगर कोई दैनिक जीवन की घटनाओं के प्रति गंभीर है, अपनी भ्रष्टता पर चिंतन करने और उसे हल करने के लिए सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित करता है और अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए प्रयास करता है तो वे हर दिन कुछ न कुछ प्राप्त करेगा। अब मैं इस पाठ्य-सामग्री आधारित कर्तव्य निभाने को लेकर और प्रतिरोध महसूस नहीं करती और समर्पण कर सकती हूँ। मैं इस कर्तव्य को सँजोने और सत्य के अनुसरण का प्रयास करने के लिए भी तैयार हूँ।

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जायोयू, चीनमेरा नाम जायोयू है और मैं 26 साल की हूँ। मैं एक कैथोलिक हुआ करती थी। जब मैं छोटी थी, तो अपनी माँ के साथ ख्रीस्तयाग में भाग लेने...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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