92. नकली अगुआ को बचाने का परिणाम

अक्टूबर 2020 के अंत में, व्यावहारिक कार्य न करने पर मैं अगुआ पद से बर्खास्त हो गई और अपनी स्थानीय कलीसिया लौट गई। सीसीपी के कारण मेरी सुरक्षा को लेकर थोड़ी समस्या थी, तो मैं कुछ समय तक सभाओं में शामिल नहीं हो सकी। मैं बहुत नकारात्मक और कमजोर थी। मेरे गाँव में रहने वाली बहन ली यान एक दूसरी कलीसिया की अगुआ थी। मैं उसकी अगुआई वाली कलीसिया की सदस्य नहीं थी, फिर भी जब हम मिलते तो वह मेरा हाल पूछती, मेरी मदद के लिए परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाती थी। उसने मुझे नकली अगुआ होने के लिए नीचा नहीं दिखाया, इसके लिए मैं उसकी आभारी थी, वह मेरी मदद भी करती थी। मैंने सोचा : "अगर उसे कभी कोई समस्या हुई, तो मैं जरूर मदद करूँगी।"

कुछ महीने बाद, मैंने कलीसिया को स्वच्छ बनाने का काम संभाला और ली यान के साथ बहुत काम किया। मैंने देखा कि निजी मामलों की वजह से वो अक्सर सभाओं में देर से आती थी, सभाओं के दौरान भी लापरवाह रहती थी और परमेश्वर के वचनों की संगति बहुत कम करती थी। जब भाई-बहन गैर-विश्वासियों, मसीह-विरोधियों या कुकर्मियों की पहचान न कर पाते, तब वो सत्य के सिद्धांतों पर उनके साथ संगति नहीं करती थी। उस समय, मैंने कलीसिया के उपयाजक से सुना कि वह छोटी-छोटी बातों को लेकर अपने पार्टनर से अक्सर झगड़ती थी, इस कारण सभाएँ सामान्य रूप से नहीं हो पाती थीं। यह सुनकर मुझे काफी गुस्सा आया। एक अगुआ होकर, ली यान ने व्यावहारिक कार्य नहीं किया, कलीसियाई जीवन भी बाधित किया। इससे दूसरों के जीवन-प्रवेश और कलीसिया के काम में देरी हुई। मैंने उससे संगति की और बताया कि वह व्यावहारिक काम नहीं कर रही थी। उसे चेताया भी कि अगर वह ऐसे ही करती रही, तो वह नकली अगुआ बन जाएगी। पर उसे तो मानो कोई परवाह ही नहीं थी, उसने कहा : "तो ठीक है, मैं नकली अगुआ हूँ। अगर मैं सत्य पर संगति नहीं कर रही, तो तुम ही कर लो।" इसके बाद, मैंने देखा कि कलीसिया के कुछ सदस्य नकारात्मकता फैलाकर कलीसियाई जीवन बाधित कर रहे थे। मैंने ली यान से उनके बारे में लोगों का आकलन जानने को कहा ताकि पता चले कि क्या वे गैर-विश्वासी थे और उन्हें हटा दिया जाना चाहिए। लेकिन वह व्यस्त होने का बहाना बनाती रही, और उसे टालती रही, जिससे वे सदस्य कलीसियाई जीवन में बाधा डालते रहे। कलीसिया के काम के प्रति उसका लापरवाह रवैया देखकर, मैंने उसे फिर से उसकी समस्या बताई, लेकिन वह बहस करती रही। मैंने देखा कि ली यान व्यावहारिक काम करने में असफल थी, फीडबैक नहीं स्वीकारती थी, और कलीसिया के काम में पहले ही देरी कर चुकी थी। सिद्धांतों के आधार पर, उसके नकली अगुआ होने की काफी संभावना थी इसलिए मैं उसकी रिपोर्ट उच्च अगुआ को देना चाहती थी। लेकिन फिर मैंने सोचा, "जब मैं नकारात्मक थी तब उसने मेरी मदद की थी, बहुत अच्छा व्यवहार किया था। अगर उसे पता चला कि मैंने उसकी रिपोर्ट उच्च अगुआ से की थी, तो क्या वह मेरे बारे में गलत सोचेगी? अगर उसे बर्खास्त कर दिया जाता है, तो क्या वह कहेगी कि मुझमें जमीर नहीं है? अगर मैं अभी उसकी रिपोर्ट न करूँ, थोड़ी और संगति करूँ, तो शायद वह बदल जाएगी।" मैंने उसके साथ कलीसिया के स्वच्छ बनाने के कार्य के महत्व पर चर्चा की और इस पर भी कि कर्तव्य के प्रति उसका रवैया कैसा होना चाहिए। लेकिन कुछ समय बाद भी, ली यान व्यावहारिक काम नहीं कर रही थी, अभी तक उसने उन सदस्यों का आकलन नहीं करवाया था। मैंने यह भी सुना कि ली यान अपने काम में गैर-जिम्मेदार थी, कलीसिया में संसाधन प्रबंधन की देख-रेख करने में विफल थी, जिसकी वजह से काफी सामान खराब हो गया और कलीसिया को गंभीर नुकसान हुआ। उसके बाद, उसने आत्मचिंतन नहीं किया, ऊपर से यह कहते हुए दोष लगाया कि दूसरों ने चीज़ों को ठीक से नहीं रखा। मैंने देखा कि उसने कोई व्यावहारिक काम नहीं किया। कलीसिया के प्रोजेक्ट के प्रति उसका रवैया लापरवाही भरा था, और वह आलोचना स्वीकार नहीं करती थी। जब कलीसिया के काम में रुकावटें आईं और इसकी संपत्ति को नुकसान पहुँचा, तब भी उसने कसूरवार महसूस नहीं किया। क्या यह नकली अगुआ की निशानी नहीं थी? लेकिन मैंने समय पर उसकी समस्या की रिपोर्ट नहीं दी। इसका एहसास हुआ, तो मैंने दोषी महसूस किया। मैंने ईश-वचनों का एक अंश देखा। "तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुममें शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। मुझे लगा जैसे परमेश्वर के वचन मुझे फटकार रहे हैं, खासकर जब मैंने उन हिस्सों को देखा जिसमें लिखा है : "क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो?" "क्या तुममें शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है?" मुझे बहुत शर्म आई, खुद को दोषी महसूस किया। परमेश्वर आशा करते हैं कि हम उनकी इच्छा पर ध्यान दें, कलीसिया के काम को बाधित करने वाले लोगों को तुरंत बेनकाब करें और रोकें ताकि कलीसिया के हितों की रक्षा हो। लेकिन मैं तो, ली यान को काफी समय से जानती थी, मैंने देखा था कि उसने व्यावहारिक काम नहीं किया, आलोचना स्वीकार नहीं की, मैं अच्छी तरह जानती थी कि उसे बर्खास्त नहीं किया गया, तो कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश, दोनों का ही नुकसान होगा। लेकिन उसने मेरी जो मदद की थी उस बारे में सोचकर, चिंतित हो गई कि उसे पता चला कि मैंने रिपोर्ट की थी तो वह मुझसे नफरत कर कहेगी कि मुझमें जमीर नहीं है। अपना रिश्ता बचाने के लिए, मैं उसकी समस्याओं की रिपोर्ट नहीं करना चाहती थी, यह देखकर भी कि वो व्यावहारिक कार्य नहीं करती, जिससे कई गैर-विश्वासियों को तुरंत कलीसिया से बाहर नहीं निकाला जा सका, कलीसियाई जीवन में बाधा जारी रही। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी! सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन करके, मैंने एक नकली अगुआ को बचाया, उसका साथ दिया, उसे कलीसियाई जीवन को बाधित करने दिया, क्या मैं इस नकली अगुआ की गुलाम नहीं बन गई थी, उसके बुरे कामों में सहभागी नहीं थी? मुझे खुद से घृणा हुई, कि मैंने समय पर ली यान की रिपोर्ट नहीं की, मैंने तुरंत अगुआ से चर्चा करने का फैसला किया।

उच्च अगुआ ने मुझे ली यान के बारे में भाई-बहनों का आकलन इकट्ठा करने को कहा ताकि उसके प्रदर्शन के आधार पर यह तय किया जा सके कि उसे बर्खास्त किया जाये या नहीं। अगर तय हुआ कि वो नकली अगुआ है, तो मुझे ली यान को बर्खास्त करना होगा। उच्च अगुआ की बात सुनकर मुझे हिचक हुई, सोचा : "मेरे बर्खास्त होने के बाद ली यान ने मेरी बहुत मदद की थी। अगर मैंने उसे उजागर किया, उसकी असलियत जानने में दूसरों की मदद की, तो वह कहेगी कि मुझमें जमीर नहीं है।" मैं बहुत परेशान थी, उसे उजागर नहीं करना चाहती थी। मैंने देखा कि मेरी हालत ठीक नहीं थी, तो मैंने अपनी शंकाओं के समाधान के लिए, परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने ईश-वचनों का ये अंश पढ़ा : "शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं, क्या ये वे नहीं, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते और परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनके प्रति साफ़ अंत:करण और प्रेम रखते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि आज कल भी लोग अच्छे और बुरे में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर की इच्छा जानने का कोई इरादा न रखते हुए या परमेश्वर की इच्छाओं को अपनी इच्छा की तरह मानने में असमर्थ रहते हुए, आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं, तो उनके अंत और भी अधिक ख़राब होंगे। यदि कोई देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, तो वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंत:करण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें धार्मिकता की समझ का अभाव नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम अवज्ञाकारी नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंत:करण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों ने सही जगह चोट की। अंश में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो लोग सत्य खोजते हैं, कलीसिया के कार्य को बनाए रखते हैं, उनसे प्रेम से व्यवहार करना चाहिए, जबकि वे जो सत्य से चिढ़ते हैं और कलीसिया के कार्य को बाधित करते हैं उनसे घृणा कर उन्हें त्याग देना चाहिए। मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि ली यान व्यावहारिक काम नहीं कर रही थी और कलीसिया के काम में बाधा डाल रही थी, फिर भी मैंने उस पर दया दिखाई और तुरंत उसकी रिपोर्ट नहीं की। फिर, जब उसे बेनकाब करने, पहचानने और सबक सीखने में दूसरों की मदद का समय आया, तब मैं चिंताओं में डूब गई, कि वह मुझसे नफरत करेगी और कहेगी कि मैं धोखेबाज हूँ। इसीलिए मैंने अपनी अंतरात्मा के विरुद्ध जाकर उसका बचाव किया, उसे पनाह दी। मुझमें सच में मानवता की कमी थी। परमेश्वर के प्रति मेरी वफादारी कहाँ थी? क्या मैं शैतान की गुलाम नहीं बन गई हूँ? परमेश्वर के पोषण का इतना आनंद लेते हुए भी, मैंने उनके साथ विश्वासघात किया। मुझे कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को बाधित करना ठीक लगा, बस मेरे निजी हितों की रक्षा हो जाए। मेरे अंदर जमीर और इंसानियत की इतनी कमी थी! अगर मैं पश्चाताप करने और सत्य के अभ्यास में असफल रही, तो परमेश्वर मुझसे तंग आकर मुझे निकाल देंगे।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े। "अगर परमेश्वर तुम्हें बचाना चाहता है, तो चाहे वह ऐसा करने के लिए किसी की भी सेवाओं का उपयोग करे, तुम्हें पहले परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और इसे परमेश्वर की देन समझकर स्वीकारना चाहिए। तुम्हें अपनी कृतज्ञता सिर्फ लोगों के प्रति निर्देशित नहीं करनी चाहिए, कृतज्ञता में किसी को अपना जीवन अर्पित करने की तो बात ही छोड़ो। यह एक गंभीर भूल है। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर का आभारी हो, और तुम इसे उसकी देन समझकर स्वीकारो" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (7))। "जरूरतमंद की सही समय और स्थान पर मदद करना एक बहुत ही सामान्य घटना है। यह मानव-जाति के प्रत्येक सदस्य की जिम्मेदारी भी है। यह बस एक तरह की जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर ने लोगों को यह अंत:प्रेरणा उन्हें सृजित करते समय दी थी। ... लोगों की मदद करने और उनके प्रति अच्छा होने में इंसानों को लगभग कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, यह मानवीय अंत:प्रेरणा का हिस्सा है, और ऐसी चीज है जिसे करने में लोग पूरी तरह से सक्षम हैं। इसे अनुग्रह जितना ऊँचा दर्जा देने की कोई आवश्यकता नहीं। हालाँकि, कई लोग इसे अनुग्रह के बराबर समझते हैं, और यह सोचकर हमेशा इसके बारे में बात करते रहते हैं और लगातार इसकी चुकौती करते रहते हैं कि अगर वे ऐसा नहीं करते, तो उनमें जमीर नहीं है। वे खुद को हिकारत से देखते और तुच्छ समझते हैं, यहाँ तक कि इस बात की चिंता भी करते हैं कि उन्हें समाज द्वारा फटकार लगाई जाएगी। क्या इन बातों की चिंता करना जरूरी है? (नहीं।) ऐसे बहुत-से लोग हैं जो असलियत नहीं देख पाते और लगातार इस मुद्दे से विवश रहते हैं। सत्य के सिद्धांत न समझना यही है" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (7))। हाँ। परमेश्वर सृष्टि के प्रभु हैं; वह सर्वोच्च शासक और सभी चीज़ों की योजना बनाते हैं। जब मैं सबसे ज़्यादा कमजोर और नकारात्मक बिंदु पर थी, तब ऐसा लगा था कि ली यान अपनी मदद और संगति से मेरे साथ अच्छा व्यवहार कर रही थी, लेकिन, असल में, यह परमेश्वर का शासन और व्यवस्था थी, ना कि मेरे प्रति उसकी परवाह। मुझे इसे परमेश्वर की ओर से ग्रहण कर उनका धन्यवाद करना चाहिए था, ली यान को श्रेय नहीं देना था। साथ ही, ली यान एक कलीसिया अगुआ थी, असल में उसका कर्तव्य था भाई-बहनों को सहारा देना और उनके जीवन प्रवेश की समस्याओं को हल करना। जब ली यान ने मेरा साथ दिया, मेरे साथ परमेश्वर के वचनों की संगति की, तो वह सिर्फ अपना कर्तव्य पूरा कर रही थी। साथ ही, भाई-बहनों के साथ प्यार से पेश आना, एक-दूसरे की मदद करना, सहारा देना यह परमेश्वर की अपने चुने लोगों से अपेक्षा है। मुझे ली यान के सहारे को परमेश्वर की ओर से मानकर उनके प्रति आभार प्रकट करना चाहिए था। इसके बजाय, मैंने गलती से इसे ली यान की देख-भाल समझ लिया, सोचा कि वह बहुत अच्छी इंसान है। मैंने अपने व्यक्तिगत स्नेह की वजह से बार-बार उसका बचाव किया। साफ पता था कि वह नकली अगुआ थी, लेकिन मैंने रिपोर्ट कर उसे बेनकाब नहीं किया। मैं बहुत ज़्यादा भ्रमित थी! मुझे परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देना चाहिए था, सिद्धांतों पर टिके रहकर कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए नकली अगुआ को उजागर करना चाहिए था। सिर्फ इससे ही अंतरात्मा और मानवता का प्रदर्शन होता। अगर ली यान सत्य को स्वीकारने वाली इंसान होती, तो निपटारा और उजागर किए जाने पर वह आत्मचिंतन करती और खुद समझ पाती, अपनी भ्रष्टता और कमियों को देखती, पश्चाताप करती और खुद में बदलाव लाती। इससे उसे भी फायदा होता। अगर वह सत्य को स्वीकार वाली इंसान नहीं है, और निपटारे के बाद उसने पश्चाताप नहीं किया, तो इससे यह उजागर होगा कि वह सत्य नहीं खोजती और उसे बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए। यह कलीसिया के काम और दूसरों के जीवन प्रवेश, दोनों के लिए मददगार होगा। मैं चीज़ों को बेतुके ढंग से समझती थी : मैं मानती थी कि लोगों का निपटारा कर उन्हें उजागर करना, उन्हें अपमानित करना और चोट पहुँचाना है। मैं एक बहुत सकारात्मक चीज़ को नकारात्मक मान रही थी। नतीजतन, मैं इस गलत धारणा से विवश होकर ली यान की समस्याओं को उजागर नहीं कर पायी। मैं सत्य समझ नहीं पायी, मैं बहुत दयनीय थी। यह सब समझने के बाद, मैंने राहत महसूस की और अपनी ज़िम्मेदारी से बचना छोड़ दिया। बाद में, ली यान के सारे काम का मूल्यांकन करने पर, पाया गया कि वह नकली अगुआ थी, उसे बर्खास्त कर दिया गया। उसने आत्मचिंतन नहीं कर खुद को बिल्कुल नहीं समझा, शिकायत की कि उसके साथ अन्याय हुआ है। तर्क दिया कि वह वर्षों से अगुआ थी, उसने दुनिया में पैसे बनाने का मौका भी छोड़ दिया, और अनगिनत कष्ट सहे, इसीलिए उसे लगा कि कलीसिया ने उसके साथ गलत किया। उसके बाद, उस पर दौलत का जुनून सवार हो गया, उसने पैसे कमाने के लिए नौकरी कर ली, सभाओं में नियमित न आती। उसकी बर्खास्तगी के बाद, कलीसिया ने नया अगुआ चुनने के लिए चुनाव कराये, गैर-विश्वासियों को हटा दिया गया, कलीसियाई जीवन में अब रुकावटें नहीं थीं, कलीसिया की परियोजनाएँ सुचारू रूप से आगे बढ़ रही थीं। यह सब देखकर मुझे और भी सुकून मिला। मैं बहुत खुश थी कि मैं इस स्थिति में सत्य की खोज कर सकी, समय रहते समस्याओं को पहचान कर अपना कर्तव्य पूरा कर सकी।

बाद में, जब मैं ली यान से मिली, उसने मुझ पर भड़कते हुए कहा: "मैं तुम्हारा चेहरा नहीं देखना चाहती! अब सब कह रहे हैं कि मैं नकली अगुआ हूँ, तुमने ही उनसे ये कहा था। मुझे तुमसे नफ़रत है!" उसकी यह बात सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा, लेकिन मैंने जो कुछ उच्च अगुआ को बताया था वह तथ्यात्मक था। वह नकली अगुआ थी जिसे उजागर कर रिपोर्ट की जानी चाहिए थी। यह पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप था। लेकिन यह सुनकर इतना दुख क्यों हुआ कि वह मुझसे नफरत करती है? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे समस्या की जड़ की थोड़ी-बहुत समझ प्रदान की। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "शायद लोग रोज परमेश्वर के वचन खाते-पीते हों और अक्सर उन्हें प्रार्थनापूर्वक पढ़कर उन पर चिंतन करते हों, फिर भी वे लोगों और चीजों को कैसे देखते हैं, कैसे आचरण करते हैं और कैसे मामले सँभालते हैं, इनमें निहित बुनियादी विचार, सिद्धांत और तरीके अभी भी परंपरागत संस्कृति के अनुसार होते हैं। इसलिए, परंपरागत संस्कृति का इंसान पर ऐसा प्रभाव होता है कि दैनिक जीवन में वह अभी भी उसे अपने जोड़-तोड़, आयोजनों और नियंत्रण के अधीन रखती है। यह उस छाया जैसा है, जिससे कोई न तो बच सकता है, न ही मुक्त हो सकता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि लोग परंपरागत संस्कृति और शैतान द्वारा मनुष्य के मन में गहराई से बैठाए गए विभिन्न विचारों और मतों का अनावरण, विश्लेषण या उन्हें उजागर नहीं कर सकते; वे इन चीजों को पहचान नहीं सकते, इनकी असलियत देख या इनसे विद्रोह नहीं कर सकते, इन्हें त्याग नहीं सकते; वे उस तरह लोगों और चीजों को नहीं देख सकते, उस तरह आचरण नहीं कर सकते, या उस तरह मामले नहीं सँभाल सकते, जिस तरह परमेश्वर लोगों से कहता है या जिस तरह से वह सिखाता और समझाता है। इस वजह से आज भी ज्यादातर लोग किस तरह की विकट परिस्थिति में जी रहे हैं? उस परिस्थिति में, जिसमें उनके दिलों की गहराई में परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने, आचरण करने और मामले सँभालने, परमेश्वर की इच्छा से मुँह न मोड़ने या सत्य के खिलाफ न जाने की इच्छा रहती है। फिर भी, प्रतिरोध न करते हुए भी और न चाहते हुए भी, वे अभी भी शैतान द्वारा सिखाए गए तरीकों के अनुसार ही लोगों से बातचीत करते हैं, आचरण करते हैं और मामले सँभालते हैं। यहाँ तक कि अगर लोगों के दिल सत्य के लिए प्यासे हों, परमेश्वर के लिए एक जबरदस्त इच्छा रखना चाहते हों, परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना, आचरण करना और मामले सँभालना चाहते हों, और सत्य के सिद्धांतों के खिलाफ न जाना चाहते हों, तो भी चीजें हमेशा उनकी इच्छा के विपरीत ही होती हैं। अपने प्रयास दोगुने करने के बाद भी अंतिम परिणाम वैसा नहीं होता, जैसा वे चाहते हैं। सकारात्मक चीजों से प्रेम करने के लिए लोग चाहे कितना भी संघर्ष करें, कितना भी प्रयास करें, कितना भी संकल्प और इच्छा करें, अंत में, जिस सत्य का वे अभ्यास और सत्य के जिन सिद्धांतों का वे वास्तविक जीवन में पालन कर पाते हैं, वे बहुत कम होते हैं। लोगों के दिलों की गहराई में यह सबसे निराशाजनक बात है। आखिर इसका क्या कारण है? एक कारण तो यही है कि परंपरागत संस्कृति द्वारा लोगों को सिखाए जाने वाले विभिन्न विचार और मत अभी भी उनके दिलों पर हावी हैं, उनके शब्दों, कार्यों, विचारों, और आचरण तथा चीजों को संभालने की पद्धतियों व तरीकों को नियंत्रित करते हैं। इस प्रकार, परंपरागत संस्कृति को पहचानने, उसका विश्लेषण कर उसे उजागर करने, उसे समझने और उसकी असलियत देखने, और अंततः उसे हमेशा के लिए त्यागने के लिए एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। यह बहुत महत्वपूर्ण है; यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लेने या छोड़ने से कोई फर्क न पड़ता हो, क्योंकि परंपरागत संस्कृति लोगों के दिलों की गहराई में पहले से हावी है, यहाँ तक कि लोगों पर पूरी तरह से काबू रखती है, जिससे वे अपने जीवन में जिस तरह आचरण करते और मामले सँभालते हैं, उसमें वे न चाहते हुए भी सत्य से मुँह मोड़े बिना नहीं रह पाते; जिससे वे न चाहते हुए भी आज तक परंपरागत संस्कृति से नियंत्रित और प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, मनुष्य को सत्य की खोज क्यों करनी चाहिए?)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों और शैतानी फलसफों के सहारे जी रही थी जैसे "दया की एक बूंद के बदले प्रेम का सागर लौटाओ" मैंने इन विचारों को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत समझ लिया। मेरा मानना था कि मुझे उनकी रक्षा करनी और प्रतिदान करना चाहिए जो मेरे प्रति दयालु थे और जिन्होंने मेरे लिए अच्छे काम किए थे फिर चाहें वे अच्छे लोग हों या बुरे, उन्होंने सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया हो या नहीं। भले ही उन्होंने बुराई की हो और कलीसिया के काम में बाधा डाली हो, मुझे उन्हें बचाना चाहिए, ऐसा नहीं करूँगी तो मुझमें अंतरात्मा और मानवता की कमी होगी। क्योंकि मैं इन शैतानी फलसफों से विवश थी इसीलिए यह साफ देखने के बावजूद भी कि ली यान व्यावहारिक काम न करने वाली नकली अगुआ थी, मैंने उसे उजागर कर रिपोर्ट करने में देरी की क्योंकि उसने पहले मेरी मदद की थी। मैं हमेशा उसे एक और मौका देना, उसके प्रति उदार, दयालु और प्रेमपूर्ण रहना चाहती थी। मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया कि इससे कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को कोई नुकसान पहुँचा था या नहीं। मैं एक नकली अगुआ के दुष्ट कार्यों में लिप्त थी शैतान के साथ खड़ी होकर, परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और विरोध कर रही थी। मैंने देखा कि, सार में, पारंपरिक मूल्य वो झूठ और भ्रांतियाँ हैं जिससे शैतान लोगों को धोखा देकर भ्रष्ट करता है। हमें उन सिद्धांत के साथ नहीं जीना चाहिए। ऐसे विचारों के साथ जीना मुझे हास्यास्पद और बेतुका ही बनायेगा। मेरे विचार ज़्यादा उलझ जाएँगे, अच्छे-बुरे की पहचान नहीं कर पाऊँगी, मैं सत्य का उल्लंघन कर परमेश्वर का विरोध करूँगी।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा : "कभी-कभी विवेक का कार्य भावनाओं से विवश और प्रभावित होता है और इस वजह से हमारे निर्णय सत्य के सिद्धांतों से टकराते हैं। इस प्रकार, हम एक तथ्य स्पष्ट रूप से देख सकते हैं : विवेक का कार्य सत्य के मानकों से कमतर है, और कभी-कभी अपने विवेक से कार्य करना सत्य का उल्लंघन हो सकता है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन सत्य के अनुसार नहीं जीते, बल्कि अपने विवेक के अनुसार कार्य करते हो, तो क्या तुम वास्तव में बुराई कर सकते हो और परमेश्वर का विरोध कर सकते हो? कुछ चीजें वास्तव में बुरे कर्म हैं। तुम बिल्कुल नहीं कह सकते कि अपने विवेक से काम करना कभी गलत नहीं होता। यह दर्शाता है कि अगर तुम परमेश्वर को संतुष्ट करना और उसकी इच्छा का पालन करना चाहते हो, तो केवल अपने विवेक से कार्य करना कभी पर्याप्त नहीं होगा। परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (2))। हाँ। हम सभी में अंतरात्मा होनी चाहिए, लेकिन यह सत्य नहीं है, न उसका स्थान ले सकती है। अगर हम सत्य का अनुसरण ना करके केवल अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य और व्यवहार करें, तो हम सत्य के खिलाफ जाकर परमेश्वर का विरोध करने लगेंगे। परमेश्वर कहते हैं कि हम उससे प्यार करें जिससे उन्हें प्यार है और उससे नफरत करें जिससे उन्हें नफरत है। इसी सिद्धांत को हमें दूसरों के साथ भी लागू करना चाहिए। अगर भाई-बहन सत्य खोजते हैं, तो फिर चाहे उन्होंने मुझ पर दया दिखाई हो या नहीं, उनके समस्याओं का सामना करने पर, मुझे प्यार से उनकी मदद करनी चाहिए। अगर वे बुरे काम करते हैं या अगर वे नकली अगुआ, कुकर्मी या मसीह-विरोधी हैं, तो फिर चाहे वे मेरे साथ अच्छे रहें, पर मुझे सिद्धांतों से पेश आना चाहिए, उन्हें उजाकर कर रिपोर्ट करनी चाहिए। इसीलिए जब ली यान ने कलीसिया के काम में बाधा डाली और सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया, उसके साथ कितनी ही संगति की पर वह पश्चाताप कर बदल न सकी, तो मुझे अपने तथाकथित "अंतरात्मा" को ध्यान में रखते हुए उसकी रक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि, सिद्धांतों के अनुसार उसे उजागर करके उसकी रिपोर्ट करनी चाहिए। ऐसा ना करके, मैं भाई-बहनों को और कलीसिया के काम को ज़्यादा नुकसान पहुँचा रही थी। यह समझना प्रबोधक था, मुझे दूसरों के साथ व्यवहार करने का अभ्यास और सिद्धांतों का मार्ग प्राप्त हुआ। बाद में, ली यान बर्खास्त होने से बहुत गुस्सा थी, वह धन-दौलत के पीछे भागने लगी, सभाओं में आना छोड़ दिया, बल्कि वह दूसरों के बीच भी नकारात्मकता फैलाने लगी, उसने बाधा डालना जारी रखा, उसने संगति और आलोचना स्वीकारने से इनकार कर दिया। उसे सिद्धांत के अनुसार हटा दिया जाना चाहिए। इस बार मैंने उसे फिर से बचाने की कोशिश नहीं की, इसके बजाय, अगुआओं की मदद की ताकि वो उसके बारे में भाई-बहनों के मूल्यांकन एकत्र कर पायें। 80% से अधिक भाई-बहनों की स्वीकृति के साथ, ली यान को कलीसिया से निकाल दिया गया।

यह सब अनुभव करने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि शैतानी फलसफों के साथ जीना सत्य के अभ्यास में बाधा डालता है यहाँ तक कि कलीसिया के काम में भी बाधा डाल सकता है। केवल वे जो परमेश्वर के वचनों के अनुसार चलते और चीजों को देखते हैं, उनमें ही सच में मानवता होती है और वे कलीसिया की रक्षा कर परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हैं। परमेश्वर के वचनों ने मेरी गलत धारणाओं को सुधारा और दूसरों से पेश आने के सिद्धांत समझने में मेरी मदद की।

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26. अपने हृदय का द्वार खोलना और प्रभु की वापसी का स्वागत करना

योंगयुआन, अमेरिका1982 के नवंबर में, हमारा पूरा परिवार संयुक्त राज्य अमेरिका जाकर बस गया। मेरे दादा की पीढ़ी से ही हम सभी को परमेश्वर पर...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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