78. सच बोलने से मुझे किस बात ने रोका?

झेंग शिन को एक पत्र

चेनशी, चीन

प्रिय झेंग शिन,

आशा है आप लोग अच्छे होंगे!

तुमने पिछले पत्र में लिखा था कि तुम जिस बहन की सहयोगी थी, वह सिद्धांतहीन, अहंकारी, आत्मतुष्ट और निरंकुश थी। तुम उसे ये बताना चाहती थी लेकिन डर गई कि वह इसे नहीं स्वीकारेगी, तुम्हारे बारे में गलत राय बना लेगी और तुम दोनों भविष्य में साथ काम नहीं कर पाओगी। तुम दुविधा में थी और इस स्थिति का समाधान नहीं जानती थी। मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकती हूँ। हम शैतानी फलसफों के अनुसार जीकर अपने रिश्ते कायम रखने और दूसरों की नजरों में भला दिखने में लगे रहते हैं। ये चीजें हमें बेबस करती हैं, सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों पर टिके रहने से डराती हैं। पहले मैं भी पहले ऐसी स्थिति में रह चुकी हूँ, लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से, मुझे अपने गलत नजरिये और भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ मिली। अब मैं थोड़ा बदल चुकी हूँ और दूसरों की गलतियाँ बताने से नहीं झिझकती। मैं अपना अनुभव बताती हूँ। शायद इससे तुम्हें कुछ मदद मिले।

मैं झोऊ फांग और लिऊ यिंग के साथ कलीसिया का काम करती थी। झोऊ फांग अक्सर कार्य की चर्चाओं में हावी रहती थी। बाद में, हमारे काम में अच्छे नतीजे नहीं मिलने के कारण अगुआ ने हमारे काम की कमान बहन झांग लिंग को सौंप दी। झांग लिंग हमारे काम में समस्याएँ खोजकर अभ्यास का मार्ग बताने में कामयाब रही। हमें उसके विचार सुनते देखकर झोऊ फांग जलने लगी। कई बार कार्य की चर्चाओं के दौरान, जब झांग लिंग के विचार स्पष्ट रूप से सही भी होते, झोऊ फांग उन्हें पलटने के तरीके ढूंढने में लगी रहती थी, जिससे कार्य की चर्चाएँ जारी रखना मुश्किल हो गया। मैं यह बात झोऊ फांग के सामने रखना चाहती थी, लेकिन फिर सोचा कि साथ मिलकर काम शुरू करते समय थोड़ा टकराव लाजिमी है, इसलिए मैंने कोई बखेड़ा खड़ा नहीं किया। झांग लिंग काम की पूरी जाँच करती और समस्याएँ देखते ही फौरन संगति करती थी, जिससे हमारी कार्यक्षमता बहुत बढ़ गई। लेकिन झोऊ फांग भड़काने लगी कि झांग लिंग अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने, तेजी से फायदा उठाने और रुतबा बनाने में लगी है। उसके आरोप, नीचा दिखाने वाले व आलोचनात्मक होते थे, झगड़े के बीज बोते थे, जिसके कारण लिऊ यिंग भी झांग लिंग का विरोध करने लगी। जब मैंने झोऊ फांग को अपना रुतबा बचाते, और झांग लिंग को नीचा दिखाकर अलग-थलग करते देखा तो सोचने लगी कि उसकी समस्या काफी गंभीर है। झोऊ फांग मसीह-विरोधी स्वभाव दिखा रही थी और मसीह-विरोधी रास्ते पर चल रही थी। मैं इसकी प्रकृति पर उसके साथ संगति करना चाहती थी, लेकिन मेरे शब्द जुबान पर अटक गए। मानो मेरे होंठ सिल गए हों। तब मेरी स्थिति वैसी ही थी, जैसी अभी तुम्हारी है। मुझे आशंकाओं ने घेर लिया। डरने लगी कि अगर मैं झोऊ फांग के मसीह-विरोधी रास्ते पर चलने की समस्या का गहन-विश्लेषण करती हूँ, तो वह मेरे बारे में बुरी राय बनाकर मुँह फुला लेगी, या झांग लिंग की तरह मुझे भी अलग-थलग कर देगी। मैं उसकी समस्याएँ नहीं बताना चाहती थी, मैंने खुद को दिलासा देने के लिए कुछ बहाने ढूंढ लिए : “ऐसा नहीं है कि वह खुद को नहीं जानती, क्योंकि नाम और रुतबे के पीछे भागने की अपनी कोशिशों से वाकिफ है। स्वभाव रातोरात नहीं बदल सकता; बेहतर यही है कि इस बारे में वह फुरसत से खुद सोचे।”

इसके बाद, हर बार जब भी मैं सोचती थी कि मैं झोऊ फांग को उसकी समस्याएँ बताकर वाकई मदद नहीं कर रही हूँ, तो मुझे बहुत ग्लानि होती थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर मार्गदर्शन माँगा कि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण बेबस न रहूँ और सच बोलूँ। कुछ दिनों में, मुझे अनुभवात्मक गवाही का एक वीडियो मिला, जिसमें मुख्य पात्र का अनुभव मेरे जैसा ही था। वह जिस बहन के साथ काम करती थी, वह हमेशा रुतबे और फायदों की होड़ में लगी रहती थी, जिससे कलीसिया के काम पर असर पड़ रहा था, इसलिए उसने समस्या की रिपोर्ट अगुआ को देनी चाही। लेकिन, अपनी सहयोगी की नाराजगी के डर से उसने रिपोर्ट बनाने में देर कर दी। जब उससे गंभीरता से काट-छाँट की गई, तब जाकर उसने आत्म-चिंतन शुरू किया। फिर उसने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे हिला दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जो लोग मध्यम मार्ग पर चलते हैं, वे सबसे कपटी लोग होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करते, मिठबोले और चालाक होते हैं, तमाम परिस्थितियों में साथ देने में अच्छे होते हैं, और कोई भी उनकी कमियाँ नहीं देख सकता। वे जीवित शैतानों की तरह होते हैं!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। इस अंश ने मुझ पर गहरा असर डाला। परमेश्वर ने कहा कि बीच का रास्ता पकड़ने वाले सबसे बुरे, धोखेबाज और चलते-फिरते शैतान होते हैं। क्या मैं भी वैसी ही नहीं थी? मुझे पता था कि झोऊ फांग की समस्या काफी गंभीर है और इससे कलीसिया का काम बिगड़ रहा था, उसे फौरन चेतावनी देना जरूरी है, लेकिन उसकी नाराजगी के डर से चुप्पी साधकर मैंने कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं की। जैसा परमेश्वर ने बताया है, मैं बीच के रास्ते पर ही चल रही थी और ऐसी इंसान थी जो परमेश्वर को नापसंद है। मेरे लिए यह स्वीकारना मुश्किल था, इसलिए मैंने अब कभी धोखेबाज चापलूस न बनने का फैसला किया। मुझे सिद्धांतों को कायम रखकर कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी थी और जानती थी कि झोऊ फांग को उसकी समस्या बताने के लिए मुझे वक्त निकालना ही होगा। लेकिन उसी दिन, झोऊ फांग ने पहले मेरी समस्याएँ बताकर मुझे सकते में डाल दिया। उसने कहा कि मैं अपने काम में नाम और रुतबे के पीछे भाग रही हूँ और लोगों को डाँटने के लिए अपने रुतबे का इस्तेमाल कर रही हूँ। मैंने देखा कि मेरी समस्याएँ ही इतनी गंभीर हैं कि अब आगे उसकी समस्याएँ बताने की हिम्मत मुझमें नहीं है, मैंने जो कुछ कहना चाहा था उसे बस भूल गई और उसके नाम और रुतबे के पीछे भागने या मसीह-विरोधी रास्ते पर चलने के बारे में चुप ही रही। फिर उसने मुझसे पूछा कि क्या मुझे भी उसमें कोई समस्या दिखती है, ताकि वह उन्हें पहचानकर सुधार सके। मैंने बेईमानी से कहा कि उनमें ऐसा कोई नहीं है। कहने के लिए तो सच में बहुत कुछ था लेकिन मैं कहने का साहस नहीं कर पाई, क्योंकि मुझे डर था कि वह सोचेगी मैं उससे बदला ले रही हूँ और अगर उसे मेरी बात बुरी लगी तो साथ में काम करना मुश्किल हो जाएगा। लिहाजा, उसकी छवि बचाने की खातिर मैंने कुछ नहीं कहा। इसके बाद मैं आत्म-ग्लानि और निंदा की भावना से भर गई। मुझे लगा, मैं कितनी बुजदिल हूँ। मैं सत्य का अभ्यास करने के बारे में चंद ईमानदार लफ्ज भी न कह पाई। कुछ दिन तक मैं ठीक से खा या सो नहीं सकी और सभाओं में भी शांत नहीं रह पाई। मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं अपनी बहन की समस्याएँ साफ-साफ देखने के बावजूद उसकी नाराजगी के डर से कुछ नहीं बोल पा रही हूँ! मैं इतनी बुजदिल और स्वार्थी हूँ! मैं ऐसी नहीं बने रहना चाहती। खुद के खिलाफ विद्रोह करने और न्याय बोध रखने वाली इंसान बनने में मेरा मार्गदर्शन करो।”

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े : “‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ यह लोगों के साथ बातचीत करने के उस तरीके को बयाँ करता है, जो शैतान ने लोगों के मन में बिठा दिया है। इसका मतलब है कि जब तुम लोगों से बातचीत करते हो, तो तुम्हें उन्हें कुछ छूट देनी चाहिए। तुम्हें दूसरों के साथ बहुत कठोर नहीं होना चाहिए, तुम उनके पिछले दोष उजागर नहीं कर सकते, तुम्हें उनकी गरिमा बनाए रखनी होगी, तुम उनके साथ अपने अच्छे संबंध नहीं बिगाड़ सकते, तुम्हें उनके प्रति क्षमाशील होना चाहिए, इत्यादि। नैतिकता के बारे में यह कहावत मुख्य रूप से जीने के लिए एक प्रकार के सांसारिक आचरण के फलसफे का वर्णन करती है जो मनुष्यों के बीच बातचीत को निर्धारित करती है। सांसारिक आचरण के फलसफों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—उन्हें लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब किसी व्यक्ति को कोई भी धमका नहीं रहा होता, तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, हिसाब लगाते और रणनीतिक होते हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। इसके सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के नैतिक आचरण से यह माँग कि ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ नेक है? क्या यह सकारात्मक माँग है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को परेशान नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी, कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो, तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी : वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। लोगों को ऐसा करना सिखाने से कौन-सी समस्याएँ हल हो सकती हैं? भले ही इस तरह से कार्य करने से, तुम शत्रु नहीं बनाते और कुछ शत्रु कम भी हो जाते हैं, तो क्या इससे लोग तुम्हारी प्रशंसा और अनुमोदन करेंगे और हमेशा तुम्हारे मित्र बने रहेंगे? क्या यह नैतिक आचरण के मानक को पूरी तरह से हासिल करता है? अपने सर्वोत्तम रूप में, यह सांसारिक आचरण के एक फलसफे से अधिक कुछ नहीं है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचन खुलासा करते हैं कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” सांसारिक व्यवहार के लिए यह एक धूर्त फलसफा है जिसे लोगों के मन में शैतान ने भरा है। ऐसे फलसफे को अपना लेने के बाद लोग एक दूसरे का इस्तेमाल करते हैं, चालें चलते हैं और आपस में डरे रहते हैं। वे न तो खुलकर बोलने, और न ही किसी को सच बताने का साहस करते हैं। वे अधिक धूर्त और धोखेबाज बन जाते हैं। मैं भी आपसी मेलजोल में “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” वाले शैतान द्वारा डाले गए सांसारिक आचरण के धूर्त फलसफे से जीने लगी थी। मैं साफ देख सकती थी कि झोऊ फांग को झांग लिंग से जलन होती है, वह अपनी बातों से उसे नीचा दिखाकर अलग-थलग कर रही है, इस समस्या की प्रकृति बहुत गंभीर होने से हमारा काम बिगड़ रहा है, और यह बात झोऊ फांग को बताना जरूरी है, लेकिन मुझे लगा कि उसकी कमियाँ उजागर करके मैं उसे शर्मिंदा कर रही होऊँगी। मुझे यह चिंता भी थी कि वह मुझे बुरी इंसान मान बैठेगी और बाद में मेरे साथ ठीक से काम नहीं करेगी। इसलिए आपसी संबंध कायम रखने के लिए मैं चुप रही और बात को टालकर खुद से समझौता कर लिया। मैंने उसकी करतूतों की प्रकृति और दुष्परिणाम बताने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा नहीं किया। जब उसने पूछा कि क्या मैंने उसमें किसी प्रकार की भ्रष्टता देखी है, तो मैं साफ जानती थी कि मैंने कभी उसके मुद्दे नहीं बताए थे, लेकिन मैं बस झूठ बोल दिया था और कहा था कि अब कोई भ्रष्टता नहीं है। मैं सफेद झूठ बोल रही थी और उसे मूर्ख बनाकर धोखा दे रही थी! मैंने देखा कि झोऊ फांग, झांग लिंग को नीचा दिखाकर अलग-थलग कर रही है, लेकिन मैं चापलूस की तरह पेश आई और चुप ही रही। मैं सत्य का अभ्यास या कलीसिया के कार्य की रक्षा जरा भी नहीं कर रही थी। मैं बहुत धूर्त और धोखेबाज थी! परमेश्वर चाहता है कि हम ईमानदार बनें और एक दूसरे के साथ निष्कपट व्यवहार करें, अगर हम देखें कि दूसरों में भ्रष्ट स्वभाव है और वे गलत रास्ते पर चल रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो हमें प्रेम से मदद और संगति की पेशकश करनी चाहिए। लेकिन मैं तो शैतानी फलसफे को जी रही थी। जब मैंने किसी को गलत रास्ते पर चलते देखा तो मैंने नहीं बताया और मदद नहीं की। मुझमें कोई प्रेम नहीं था। मैंने कभी दूसरों की समस्याएँ उजागर नहीं की और डरती रही कि खरा बोलने से मैं खुद मुसीबत में पड़ जाऊँगी। दूसरों की समस्याएँ देखकर भी मैं चुप रही ताकि अपने हितों की रक्षा कर सकूँ और किसी को दुश्मन न बनाऊँ। मैंने हमेशा दूसरों की तारीफ और चापलूसी की। हालाँकि ऐसा लगता था कि लोगों के साथ मेरा तालमेल है, लेकिन आपसी मेलजोल में मैं डरी रहती थी, और धोखा देकर बस उनका इस्तेमाल कर रही थी। ये कैसे सामान्य रिश्ते हैं? यह कैसी सच्ची दोस्ती है? मुझमें कोई नेकनीयती नहीं थी। मैं सोचा करती थी कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” के विचार का अनुसरण करना मेरे आचरण के लिए बढ़िया तरीका है, जिससे मैं सुरक्षित रहूँगी और न कोई नाराज होगा, न ही दुश्मन बनेगा। लेकिन परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसे विचार असल में सांसारिक आचरण के शैतानी तरीके हैं और ये लोगों को भ्रष्ट करते हैं। ये हमें अपनी सुरक्षा के लिए प्रेरित कर बेहद स्वार्थी और धोखेबाज बनाते हैं। जब दूसरे लोग गलत राह पर चलकर कार्य को प्रभावित करते हैं तो वे हमें मूकदर्शक बनाकर संगति और इंगित नहीं करने देते हैं। मुझमें बिल्कुल भी प्रेम और मानवता नहीं थी!

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “चाहे तुम्हारी परिस्थितियाँ कुछ भी हों, जब तक तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से बंधे हो, उससे नियंत्रित और शासित हो, तुम जो कुछ भी जीते हो, जो कुछ भी प्रकट करते हो और जो कुछ भी प्रदर्शित करते हो—या फिर तुम्हारी भावनाएँ, विचार, दृष्टिकोण, और तुम्हारे काम करने के तरीके और साधन—सभी शैतानी हैं। ये सभी चीजें सत्य का उल्लंघन करती हैं, परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य से जितने दूर होते हो, उतने ही अधिक तुम शैतान के जाल से नियंत्रित होते और उसमें फँसते हो। ... एक ओर तो लोग भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित होते हैं और शैतान के मकड़जाल में जीते हैं, अपने आसपास होने वाली समस्याओं को हल करने के लिए खुद को शैतान द्वारा दिए गए विभिन्न तरीकों, विचारों और दृष्टिकोणों को अपनाते हैं। वहीं दूसरी ओर लोग आज भी परमेश्वर से सुख-शांति पाने की आशा रखते हैं। लेकिन चूँकि वे हमेशा शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से बंधे रहते हैं और उसके मकड़जाल में फँस जाते हैं, होशपूर्वक उसके खिलाफ विद्रोह करने और उससे उभरने में असमर्थ होते हैं, और चूँकि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों से दूर हो जाते हैं, इसलिए वे कभी भी परमेश्वर से आने वाला सुख, आनंद, शांति और प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर पाते। लोग आखिर में, किस अवस्था में जीते हैं? वे चाहकर भी सत्य का अनुसरण करने के कार्य के लिए उठकर खड़े नहीं हो सकते, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते, हालाँकि वे अपने कर्तव्य ठीक से निभाना चाहते हैं। वे जहाँ हैं, वहीं अटके रह जाते हैं। यह बहुत ही पीड़ादायक स्थिति है। लोग न चाहते हुए भी शैतान के भ्रष्ट स्वभाव में जीते हैं। वे इंसानों से ज्यादा पिशाचों की तरह होते हैं, और अक्सर अंधेरे कोनों में रहते हैं, शर्मनाक और दुष्ट हथकंडे तलाशते हैं ताकि अपनी कठिनाइयों का समाधान कर सकें। सच तो यह है कि अपनी आत्मा की गहराई में, लोग अच्छा बनने के इच्छुक होते हैं और प्रकाश की आकांक्षा करते हैं। वे आदर के साथ मनुष्य के रूप में जीने की उम्मीद करते हैं। वे सत्य का अनुसरण करने और जीने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा करने, परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन और वास्तविकता बनाने की उम्मीद भी करते हैं, लेकिन सत्य को कभी अभ्यास में नहीं ला पाते, और कई सिद्धांतों को समझने के बावजूद कभी अपनी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाते। लोग इस दुविधा में आगे-पीछे डोलते रहते हैं, आगे जा नहीं पाते और पीछे जाना नहीं चाहते। वे जहाँ होते हैं, वहीं अटके रहते हैं। और ‘अटके’ रहने का एहसास एक पीड़ा होती है—जबरदस्त पीड़ा। लोग प्रकाश की आकांक्षा रखते हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सही मार्ग को छोड़ने के अनिच्छुक होते हैं। मगर वे सत्य नहीं स्वीकारते, और परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में नहीं ला सकते, और अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के बंधनों और नियंत्रण से मुक्त होने में असमर्थ बने रहते हैं। अंततः, वे बिना किसी वास्तविक प्रसन्नता के, केवल पीड़ा में ही जी पाते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि दूसरों की समस्याएँ देखकर भी मेरे चुप रहने का कारण यह था कि मैं सांसारिक आचरण के फलसफों जैसे “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” और “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” को सकारात्मक चीजों की तरह देखती थी। मुझे लगता था कि इसी को प्रेम कहते हैं और इससे मैं सुरक्षित रहकर नुकसान से बची रहूँगी। मुझे बचपन की याद आई, जब मेरी दादी ने सिखाया कि दूसरों से मिलते-जुलते हुए उनकी कमियाँ न बताऊँ, वरना मैं अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लूंगी और समाज में अपनी जगह नहीं बना पाऊँगी। मुझे लगता था कि उनकी बात में दम है, इसलिए मैं दूसरों की कमियाँ बताने से बचती थी और मैंने उनकी समस्याएँ कभी उजागर नहीं की। अपने दोस्तों से मेरी गाढ़ी छनती थी और सोचती थी कि सामाजिक मेलजोल का रहस्य यही है। मुझे लगता था कि जीवन जीने का यही सराहनीय तरीका है और इसी ने मुझे दयालु बनाया है, और अगर मैं इन मूल्यों पर टिकी न रही तो अच्छी इंसान भी नहीं रहूँगी। दूसरे सदस्यों के साथ मेलजोल के दौरान मैं इन्हीं शैतानी फलसफों पर निर्भर रहती थी। मैंने दूसरे लोगों को सिद्धांतों का उल्लंघन करते और गलत रास्ता पकड़ते देखा था, मैं बखूबी जानती थी कि मुझे इन्हें बताकर उनकी मदद करनी होगी, लेकिन मैं इन शैतानी फलसफों से बेबस होकर दूसरों को बताने का साहस नहीं जुटा पाई। यह शैतानी फलसफा ऐसा जाल था, जिसमें जकड़कर मैं जड़ बन गई और अपना दिल भी मेरे वश में नहीं रहा। हमारे काम में बहुत अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे, तो कलीसिया ने झांग लिंग को हमारे मार्गदर्शन के लिए भेजा। यह कलीसिया के कार्य के लिए हितकर था। लेकिन झांग लिंग को अपने काम का दायित्व समझते, जिम्मेदारियाँ लेते और अपने काम में मेहनती और प्रभावी देखकर झोऊ फांग ने उसका सामंजस्यपूर्ण सहयोग करना तो दूर रहा, उस पर अपने नाम, रुतबे और त्वरित लाभों के पीछे भागने का आरोप भी लगा दिया। उसे नीचा दिखाकर अलग-थलग किया और उसकी सकारात्मकता पर भी चोट की। उसने मेरे और लिऊ यिंग के सामने झांग लिंग की आलोचना की, ताकि उसे अलग-थलग करने में हम भी उसका साथ देने लगें। झोऊ फांग ने अपने रुतबे की खातिर झांग लिंग को अलग-थलग कर उस पर वार किया। यह कोई सामान्य भ्रष्टता नहीं है। यह मसीह-विरोधी स्वभाव है। सहयोगी होने के नाते मुझे अपनी जिम्मेदारी निभाकर उसकी गलती बतानी चाहिए थी, लेकिन मैं सहयोगी जैसी बिल्कुल भी पेश नहीं आई, जिससे हमारे काम पर असर पड़ा। मुझे भारी अपराध बोध हुआ, ऐसी खुदगर्ज और गैर-जिम्मेदार होने के कारण मैं खुद से नफरत करने लगी। हालाँकि मैंने झोऊ फांग की समस्याएँ नहीं बताई थी, तो उसके मन में मेरे लिए कोई दुर्भावना भी नहीं थी और हमारे रिश्ते भी कायम थे, लेकिन मैं सत्य जानती थी और इसके बाद भी मैंने इसका अभ्यास नहीं किया, जिससे परमेश्वर को नाराजगी और घृणा हुई।

मैंने खोज जारी रखी। दूसरों की समस्याएँ देखकर मैं उन्हें उजागर क्यों नहीं कर पाई? मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : “‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ कहावत में ‘आलोचना करना’ वाक्यांश अच्छा है या बुरा? क्या ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का वह स्तर है, जिसे यह परमेश्वर के वचनों में लोगों के प्रकट या उजागर होने को संदर्भित करता है? (नहीं।) मेरी समझ से ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का, जिस रूप में यह इंसानी भाषा में मौजूद है, यह अर्थ नहीं है। इसका सार उजागर करने के एक दुर्भावनापूर्ण रूप का है : इसका अर्थ है लोगों की समस्याएँ और कमियाँ, या कुछ ऐसी चीजें और व्यवहार जो दूसरों को ज्ञात नहीं हैं, या पृष्ठभूमि में चल रहे षड्यंत्रकारी विचार या दृष्टिकोण प्रकट करना। ‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ कहावत में ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का यही अर्थ है। अगर दो लोगों में अच्छी बनती है और वे विश्वासपात्र हैं, उनके बीच कोई बाधा नहीं है और उनमें से प्रत्येक को दूसरे के लिए फायदेमंद और मददगार होने की आशा है, तो उनके लिए सबसे अच्छा होगा यही कि वे एक-साथ बैठें, खुलेपन और ईमानदारी से एक-दूसरे की समस्याएँ सामने रखें। यह उचित है और यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। अगर तुम्हें किसी व्यक्ति में समस्याएँ दिखती हैं, लेकिन दिख रहा है कि वह व्यक्ति अभी तुम्हारी सलाह मानने को तैयार नहीं है, तो झगड़े या संघर्ष से बचने के लिए उससे कुछ न कहो। अगर तुम उसकी मदद करना चाहते हो, तो तुम उसकी राय माँग सकते हो और पहले उससे पूछ सकते हो, ‘मुझे लगता है कि तुम में कुछ समस्या है और मैं तुम्हें थोड़ी सलाह देना चाहता हूँ। पता नहीं, तुम इसे स्वीकार पाओगे या नहीं। अगर स्वीकार पाओ, तो मैं तुम्हें बताऊँगा। अगर न स्वीकार पाओ, तो मैं फिलहाल इसे अपने तक ही रखूंगा और कुछ नहीं बोलूंगा।’ अगर वह कहता है, ‘मुझे तुम पर भरोसा है। तुम्हें जो भी कहना हो, वह अस्वीकार्य नहीं होगा; मैं उसे स्वीकार सकता हूँ,’ तो इसका मतलब है कि तुम्हें अनुमति मिल गई है और तुम एक-एक कर उसे उसकी समस्याएँ बता सकते हो। वह न केवल तुम्हारा कहा पूरी तरह से मानेगा, बल्कि इससे उसे फायदा भी होगा तुम दोनों अभी भी एक सामान्य संबंध बनाए रख पाओगे। क्या यह एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से व्यवहार करना नहीं है? (बिल्कुल है।) यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका है; यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। इस कहावत के अनुसार ‘दूसरों की कमियों की आलोचना न करने’ का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है दूसरों की कमियों के बारे में बात न करना, उनकी सबसे निषिद्ध समस्याओं के बारे में बात न करना, उनकी समस्या का सार उजागर न करना और आलोचना करने में ज्यादा मुखर न होना। इसका अर्थ है सिर्फ सतही टिप्पणी करना, वही बातें कहना जो सभी लोगों द्वारा सामान्य रूप से कही जाती हैं, वही बातें कहना जो वह व्यक्ति पहले से ही खुद भी समझता है और उन गलतियों को प्रकट नहीं करना जो व्यक्ति पहले कर चुका है या जो संवेदनशील मुद्दे हैं। अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो, तो इससे व्यक्ति को क्या लाभ होता है? शायद तुमने उसका अपमान नहीं किया होगा या उसे अपना दुश्मन नहीं बनाया होगा, लेकिन तुमने जो किया है, उससे उसे कोई मदद या लाभ नहीं हुआ है। इसलिए, यह वाक्यांश कि ‘दूसरों की कमियों की आलोचना मत करो’ अपने आपमें टालमटोल और कपट का एक रूप है, जो लोगों के एक-दूसरे के साथ व्यवहार में ईमानदारी नहीं रहने देते। यह कहा जा सकता है कि इस तरह से कार्य करना बुरे इरादों को आश्रय देना है; यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका नहीं है। गैर-विश्वासी तो ‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को ऐसे देखते हैं, जैसे उच्च आदर्शों वाले व्यक्ति को यही करना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से दूसरों के साथ बातचीत करने का एक कपटपूर्ण तरीका है, जिसे लोग अपनी रक्षा के लिए अपनाते हैं; यह बातचीत का बिल्कुल भी उचित तरीका नहीं है। दूसरों की कमियों की आलोचना न करना अपने आप में कपट है, और दूसरों की कमियों की आलोचना करने में कोई गुप्त इरादा हो सकता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। पहले मेरी स्थिति भी तुम्हारी जैसी थी। मुझे लगता था कि दूसरों के कार्यों में समस्याएँ बताने का मतलब उनकी कमियाँ उजागर करना है और इससे वे आहत होते हैं। मुझे लगता था, ऐसा करने से दुश्मन बनेंगे और आपसी रिश्ते बिगड़ेंगे। अब समझती हूँ कि यह नजरिया गलत था और मैं चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं देखती थी। परमेश्वर चाहता है कि हम ईमानदार रहें और आपस में निष्कपट व्यवहार करें और भाई-बहनों के साथ संगति करते समय एक-दूसरे की मदद करने में सक्षम हों। जब हम दूसरों को अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण सिद्धांतों का उल्लंघन करते या गलत राह पकड़ते देखते हैं, तो हमें सत्य सिद्धांतों के अनुरूप उनकी समस्याएँ बताकर खुद को जानने में उनकी मदद करनी चाहिए। भले ही दूसरों की काट-छाँट करते समय कही गई बातें दूसरों को सुनने में अप्रिय लगें, ऐसा करना पड़ता है ताकि वे खुद को जान सकें। यही वास्तविक प्रेम और मदद है। यही कलीसिया के कार्य की रक्षा है। तथाकथित “कमियाँ बताना” वास्तव में सच्ची मदद करना नहीं है; बल्कि, इसमें निजी स्वार्थ और पूर्वाग्रह भरे होते हैं, कमियाँ और बुराइयाँ उजागर करना भ्रष्ट स्वभाव पर निर्भर करता है, यह दूसरों को आहत या शर्मिंदा करने के लिए हमला करने, आलोचना करने और नीचा दिखाने का काम करता है। यह इंसान को कोई रास्ता नहीं सुझाता। यह सिर्फ पीड़ा और नकारात्मकता देता है। मैंने देखा कि झोऊ फांग नाम और रुतबा पाने के लिए होड़ कर रही थी और मसीह-विरोधी रास्ते पर चल रही थी, जिससे कलीसिया का कार्य प्रभावित हो रहा था। अगर मैं मेरी संगति करती और इसे इंगित करती तो इससे उसे आत्म-चिंतन कर खुद को समझने में मदद मिल सकती थी। उसकी मदद करके कलीसिया का कार्य सुरक्षित रहता। यह एहसास होने से मुझे थोड़ी रोशनी और सुकून मिला, अब मैं भ्रामक नजरिये से बेबस नहीं थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जो दूसरे भाई-बहनों के साथ व्यवहार के सिद्धांतों को स्पष्ट करता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर के घर में, लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए, इसके लिए क्या सिद्धांत हैं? तुम्हें सभी के साथ सत्य-सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए और प्रत्येक भाई-बहन के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए। उनके साथ उचित व्यवहार कैसे करें? यह आधारित होना चाहिए परमेश्वर के वचनों पर, और इस पर कि परमेश्वर किन लोगों को बचाता है, किन्हें हटाता है, किन्हें पसंद करता है और किनसे घृणा करता है; ये सत्य-सिद्धांत हैं। भाई-बहनों के साथ प्रेमपूर्ण सहायता, पारस्परिक स्वीकार्यता और धैर्य के साथ व्यवहार करना चाहिए। बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों की पहचान कर उन्हें अलग कर दिया जाना चाहिए और उनसे दूर रहना चाहिए। तुम ऐसा करते हो तभी तुम लोगों के साथ सिद्धांतों के साथ व्यवहार करते हो। हर भाई-बहन में क्षमता और कमियाँ होती हैं और उनके स्वभाव में भी भ्रष्टता होती है, इसलिए जब वे साथ हों, तो उन्हें प्यार से एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, उनमें स्वीकार करने का भाव और धैर्य होना चाहिए, उन्हें न तो मीनमेख निकालनी चाहिए और न ही बहुत कठोर होना चाहिए। ... तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकाशनों से कैसे पेश आता है और दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर अलग-अलग तरह के लोगों के साथ अलग-अलग ढंग से पेश आता है, उसके पास विभिन्न लोगों की बहुत-सी परिस्थितियों को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम मामलों को अनुभव करने का तरीका जान जाओगे और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने लगोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मैं भाई-बहनों की मदद करने के सिद्धांतों को समझ गई। शैतान की भ्रष्टता के कारण हम सब में कई प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव आ जाता है। जहाँ तक अपने कर्तव्य पालन में भ्रष्ट स्वभाव उजागर होने की बात है, अगर काम पर असर नहीं पड़ा है या व्यक्ति के आध्यात्मिक कद का विकास नहीं हुआ है, तो हम उसे आहत करने के लिए मनमाने ढंग से उसकी भ्रष्टताओं या कमियों को उजागर या उनका गहन-विश्लेषण नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में सकारात्मक ढंग से उनकी संगति और मदद करने के लिए प्रेम का सहारा लेना जरूरी होता है। लेकिन जो लोग मसीह-विरोधी राह पर चलकर या गंभीर भ्रष्ट स्वभाव के कारण, कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डालते हैं, अगर सकारात्मक संगति का कोई नतीजा न मिले, तो उनकी काट-छाँट करनी चाहिए, उनके बर्ताव को उजागर करना और उसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए, ताकि वे अपनी समस्या की प्रकृति जानकर सच्चा पश्चात्ताप कर सकें। अगर उन्हें उजागर या गहन-विश्लेषण नहीं किया जाता है तो वे न तो आत्म-चिंतन कर पाएंगे, न अपनी समस्या जान सकेंगे और कलीसिया का काम में बाधा और गड़बड़ी डालते रहेंगे। लोगों की मदद उनके सार, आध्यात्मिक कद और खास पृष्ठभूमि के अनुसार की जानी चाहिए। ऐसा न हो कि हम लोगों की समस्याओं को हमेशा तुरंत उजागर कर उनका विश्लेषण करने लगें, न ही हमें हमेशा सहनशीलता और धैर्य दिखाना चाहिए। कुछ चीजें काम पर असर नहीं डालतीं और इनमें सहनशीलता और धैर्य रखने की जरूरत होती है, लेकिन कुछ चीजें काम में बाधा या गड़बड़ी डालती हैं और इन मामलों में लोगों को उनके आध्यात्मिक कद के अनुरूप उचित कदम उठाकर उजागर करना और काट-छाँट करना जरूरी है। इससे भाई-बहन अपनी भ्रष्टता को जानकर पश्चात्ताप करने, खुद को बदलने और सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने में सक्षम रहते हैं। इस तरह की संगति लोगों की मदद करती है तो कलीसिया के कार्य के लिए भी हितकर होती है। यह बोध होने से मेरे मन में रोशनी आ गई और मैंने झोऊ फांग की समस्याएँ उजागर करते हुए उसे एक पत्र लिखा। बाद में उसने मेरे पत्र के जवाब में लिखा : “मुझे उजागर करने और मेरी काट-छाँट करने के लिए शुक्रिया। मैंने ऐसी गंभीर समस्याओं की उम्मीद नहीं की थी। मुझे हमेशा यह तो लगता था कि मुझमें थोड़ी-सी भ्रष्टता है लेकिन अगर मैं आत्मचिंतन करती हूँ और परमेश्वर के कुछ वचन खोजकर पढ़ पाती हूँ, तो सब ठीक ही है। मैं मसीह-विरोधी रास्ते पर होने और अपनी मानवता में समस्याएँ होने को लेकर बिल्कुल अनजान थी। तुम्हारी संगति और विश्लेषण से लगता है कि तुम नेकनीयत से मेरी मदद करना चाहती हो। मैं इसे स्वीकारने, आत्मचिंतन करने और खुद को समझने के लिए तैयार हूँ।” यह पढ़कर मैं वाकई प्रभावित हो गई। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने से मेरे साथ दूसरों को भी फायदा हुआ, इससे मेरे दिल को सुकून और चैन मिला।

इस अनुभव से मैं देखती हूँ कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसे विचारों पर भरोसा करने के कारण शैतान मुझे नुकसान पहुँचा रहा था, मैं खुदगर्जी, नीचता और धोखेबाजी की जिंदगी जी रही थी। अब मैं साफ देखती हूँ कि केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और सिर्फ परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखकर और स्वयं को उन्हीं के अनुसार ढालकर और कार्य करके ही हम मानव के समान जी सकते हैं।

मेरा अनुभव काफी सतही था, इसलिए अगर तुम्हारे पास कोई और अंतर्दृष्टि हो तो तुम मुझे लिख सकती हो।

सादर,  

चेनशी  

10 सितंबर 2022

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