60. क्या एक अच्छा मित्र अनदेखी करता है?

क्रिस्टीना, यूएसए

बहन बारबरा और मैं एक-दूसरे को दो साल से जानते थे, हमारे बीच बहुत कुछ एक समान था और हम जब भी बातें करते, लगता कि हम हमेशा बातें करते रह सकते हैं। हम अक्सर अपने हरेक अनुभव और उससे हासिल हुई चीजों के बारे में बातें करते थे। जब भी वह बुरी स्थिति में होती, मेरे पास बात करने आ जाती। जब भी मुझे कोई समस्या होती तो मैं भी उसे उसके साथ साझा करना चाहती और वह हमेशा मेरे साथ बड़े सब्र से संगति करती थी। हमारे इस नजदीकी रिश्ते को मैं सँजोए रही। मुझे लगता कि मेरे साथ एक मददगार और साथ देने वाली बहन का होना बहुत बढ़िया था।

एक दिन मैंने अनजाने में बारबरा को कुछ बहनों से यह कहते सुना कि हाल में उसके सुसमाचार प्रचार के काम के बढ़िया नतीजे आ रहे थे, उससे उपदेश सुन रहे लोगों में से कितने ही लोग धार्मिक धारणाओं से भरे थे और कैसे प्रार्थना करके और परमेश्वर पर भरोसा रखकर उसने उनके साथ सब्र से संगति की और परमेश्वर के वचन सुनाए ताकि वे फौरन परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार कर लें। यह सुनकर बहनें उसे प्रशंसा-भरी नजरों से देख रही थीं, उसे घेरा बनाकर तरह-तरह के सवाल पूछकर अभ्यास के अच्छे मार्ग खोज रही थीं। मुझे कुछ संदेह थे और मैंने सोचा, “अच्छी बात है कि उसका सुसमाचार प्रचार बहुत बढ़िया चल रहा है, लेकिन उसने सिर्फ अपने बढ़िया नतीजों के बारे में ही बताया, उसने जो खास मार्ग अपनाया उसके बारे में तो बताया ही नहीं, न ही उसने यह गवाही दी कि इस प्रक्रिया में परमेश्वर ने उसे कैसे रास्ता दिखाया। क्या यूँ बातें करके वह बस दिखावा नहीं कर रही थी?” कुछ दिन बाद एक बहन ने मुझसे कहा, “बारबरा में वाकई अच्छी काबिलियत है; वह लंबे समय से सुसमाचार का प्रचार नहीं कर रही है और अभी ही ऐसे बढ़िया नतीजे हासिल कर चुकी है। उसने बताया कि एक अगुआ ने तो उसे एक सभा में अपने अनुभवों के बारे में संगति करने के लिए बुलाया भी है।” यह सुनकर मेरे दिल को झटका लगा : “बारबरा ऐसी बातें क्यों कह रही है? वे दूसरों के लिए शिक्षाप्रद और फायदेमंद नहीं हैं।” मैंने सोचा कि कैसे उस दौरान बारबरा हमेशा अपने कर्तव्य में हासिल अच्छे नतीजों का दिखावा करती रहती थी और मैं थोड़ी असहज हो गई, सोचने लगी, “परमेश्वर ने संगति की है कि दिखावा करना और खुद की बड़ाई करना शैतानी स्वभाव दिखाना है। दूसरे लोग अब बारबरा की इतनी प्रशंसा करते हैं; ऐसा करते रहना खतरनाक होगा। मैं ऐसा नहीं चलने दे सकती। मुझे उसे इस बारे में बताने का मौका ढूँढ़ना होगा।” लेकिन जब भी मैं इस समस्या के बारे में सीधे उसे बताने की सोचती, मैं झिझक जाती। मुझे कुछ साल पहले के कुछ अनुभव याद आ जाते थे। मैंने देखा था कि मेरी साथी जेनी अक्सर शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलती थी, ऊँचे ओहदे पर दूसरों को फटकारती थी लेकिन वह कभी भी गहन विश्लेषण कर खुद को नहीं जानती थी। मैंने उसे यह समस्या बताई, तो न सिर्फ उसने इसे नहीं माना बल्कि मेरी पुरानी नाकामियों और अपराधों के बारे में बताकर मुझे डाँट दिया। बाद में वह मुझे देखने से भी बचने लगी। इससे मेरे लिए चीजें वास्तव में अजीब और दर्दनाक हो गईं। एक और मौके पर बहन रोक्साना एक सभा के दौरान संगति में विषय से भटक गई और मैंने उसे इस बारे में बताया। बाद में उसने मुझसे खुलकर कहा कि जब मैंने उसे उसकी समस्या के बारे में बताया था तो उसने बहुत शर्मिंदा और प्रतिरोधी महसूस किया था, उसे लगा था मैं जानबूझ कर उसके लिए इतनी मुश्किल खड़ी कर रही थी, यहाँ तक कि वह आगे की सभाओं में संगति नहीं करना चाहती थी। हालाँकि वह अपनी समस्याओं के लिए सत्य खोजती और आत्म-चिंतन करती रही और अपनी समस्याओं को पहचानने का काम किया, फिर भी मैं वास्तव में बहुत परेशान महसूस करने लगी थी। यह होने के बाद मैं दूसरों की समस्याएँ बताने में बहुत चौकस रहने लगी। उन अनुभवों के बारे में सोचने पर मुझे बारबरा का सामना करने में और ज्यादा हिचकिचाहट महसूस हुई। मैंने सोचा कि हमारा रिश्ता हमेशा से कितना बढ़िया रहा है और सोचा : अगर मैंने उसे उसकी समस्या बताई तो क्या वह शर्मिंदा महसूस करेगी और उसे लगेगा कि असहज स्थिति में डाल दिया है? अगर वह न सुने और मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह विकसित कर ले, अगर उसे लगे कि मैं उसकी कमियाँ उजागर कर उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही थी और फिर वह मेरी अनदेखी करे, तो मैं क्या करूँगी? हम रोज एक दूसरे से कई बार मिला करते थे तो चीजें बहुत असहज हो जाएँगी। उसने भी हमेशा यूँ ही दिखावा नहीं किया था। शायद परमेश्वर के वचन पढ़कर वह आत्म-चिंतन कर पाएगी और खुद इस बात का एहसास कर लेगी। तो कोई बात नहीं, मुझे बस चुप रहना चाहिए।

एक दिन बारबरा ने मुझे बताया कि कुछ भाई-बहनों ने उसे कुछ सुझाव दिए थे। उन्होंने कहा कि वह अपनी संगति में दिखावा करने की पक्षधर थी और इससे दूसरे लोग आसानी से उसकी सराहना और आराधना करने लगेंगे। इस बात ने उसे बहुत असहज कर रखा था। उसकी यह बात सुनकर मेरे भीतर उथल-पुथल मच गई। सच यह था कि हाल में मैंने भी उसे दिखावा करते देखा था, लेकिन चूँकि मैं अपने रिश्ते को नुकसान पहुँचाने से डरती थी, मैंने उसकी अनदेखी की और उससे कुछ नहीं बोली। क्या यह एक बढ़िया मौका नहीं था? क्या मुझे भी खुद अपनी देखी हुई समस्याओं के बारे में नहीं बोलना चाहिए? लेकिन फिर मैंने सोचा कि वह पहले ही कितनी मुश्किल में है। अगर मैं भी बोली तो क्या वह इसे झेल नहीं पाएगी और निराश हो जाएगी? मुझे चिंता हुई कि यदि मैंने उसे वे समस्याएँ बताईं जो मैंने देखी थीं तो वह सोचेगी कि मैं बहुत कठोर हो रही हूँ और मुझसे दूरी बना लेगी, तो मैंने सावधानी से इस बारे में सोचा कि मुझे किस लहजे में बोलना चाहिए और कैसे चतुराई से बात करूँ कि वह शर्मिंदा न हो। मैंने उन मिसालों का जिक्र किया कि कैसे मैं अतीत में अपनी बड़ाई कर दिखावा करती थी और फिर कैसे आत्म-चिंतन कर उसे समझा था और आखिर में उसकी समस्या का थोड़ा-सा जिक्र कर दिया। मुझे उसे शर्मिंदा करने का डर था, इसलिए मैंने उससे दिलासा के कुछ बोल बोले, “सभी का स्वभाव भ्रष्ट होता है और उन्हें बेनकाब करना बिल्कुल सामान्य है। मैं भी करती हूँ। इतने लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं हमेशा बहुत घमंडी और दंभी रही हूँ और अक्सर दिखावा करती हूँ। इससे बेबस न होना, तुम्हें खुद के प्रति सही रवैया रखना चाहिए।” वह जवाब में कुछ नहीं बोली। मगर फिर ऐसा कुछ हुआ जिसने मुझे फिर से परेशान कर दिया।

एक सभा में बारबरा परमेश्वर के वचनों के बारे में अपनी समझ पर संगति कर रही थी और सुसमाचार फैलाने के दौरान अपने हाल के अनुभव के बारे में बोलने लगी। उसने बताया कि कैसे वह दशकों से प्रभु में विश्वास रखने वाले एक पादरी को उपदेश दे रही थी। वह धार्मिक धारणाओं से लबालब था और वह बहुत-सी अफवाहों में यकीन रखता था। बार-बार प्रचार के बावजूद वह सुसमाचार को स्वीकार नहीं कर रहा था। लेकिन फिर वह उसके साथ संगति कर उससे विचार-विमर्श करने गई और परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश ढूँढ़ कर उसने उसकी धारणाओं और भ्रांतियों का एक-एक कर खंडन किया और धीरे-धीरे उसने अपनी धारणाएँ छोड़ दीं और अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर लिया। उसकी बात पूरी हो जाने पर सबका ध्यान उसके सुसमाचार प्रचार के अनुभव की ओर खिंच गया और किसी ने भी परमेश्वर के वचनों पर विचार करने और संगति करने पर ध्यान केंद्रित नहीं दिया। उस समय मैं थोड़ी जागरूक थी : क्या यह विषय से भटकना नहीं था? हालाँकि वह अपने सुसमाचार प्रचार के अनुभव के बारे में संगति कर रही थी, मगर संगति पूरी हो जाने पर हर किसी ने उसकी प्रशंसा कर उसे आदर से देखना शुरू कर दिया। क्या यह उसका दिखावा नहीं था? मैं यह बात बताकर उसे इस विषय पर बोलने से रोकना चाहती थी, लेकिन मैं कुछ बोल ही नहीं पाई, सोचने लगी : “अगर मैंने इतने सारे लोगों के सामने उसे टोका, तो क्या वह सचमुच शर्मिंदा नहीं हो जाएगी? यह सच था कि बारबरा ने सुसमाचार प्रचार में कुछ नतीजे हासिल किए थे तो अगर मैंने उसे यह बताया तो क्या हर कोई सोचेगा कि ईर्ष्या की वजह से मैं जान-बूझकर उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हूँ? हो सकता है कि उसके इरादे नेक हों और वह दिखावा न कर रही हो?” इसलिए मैं कुछ नहीं बोली लेकिन मैं परमेश्वर के वचनों पर मनन के लिए खुद को ज्यादा शांत नहीं कर पाई और मेरी संगति प्रबोधक नहीं थी क्योंकि मैंने बस थोड़ी-सी नीरस बातें बोलीं और इस तरह सभा समाप्त हो गई।

वह रात मैंने बिस्तर पर करवटें बदलते हुए काटी, सो नहीं पाई। मैं सभा में दिखावा करने के लिए बारबरा की कही बातों और सबकी आँखों में उसके लिए दिखी सराहना के बारे में सोचे बिना नहीं रह सकी। उसने जो संगति की थी उससे दूसरों को परमेश्वर के वचनों की कोई बेहतर समझ नहीं मिल पाई थी बल्कि उसने सबका ध्यान अपने सुसमाचार प्रचार की ओर खींच लिया था और सभा में कुछ अच्छा हासिल नहीं हुआ था। उसे शर्मिंदा करने के डर से कुछ न बोलकर मैं कलीसियाई जीवन की रक्षा करने में नाकाम रही थी। क्या मैं बस खुशामदी नहीं बन रही थी? मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “यह देखने के लिए कि तुम एक सही व्यक्ति हो या नहीं, तुम्हें सावधानीपूर्वक स्वयं की जाँच करनी चाहिए। क्या तुम्हारे लक्ष्य और इरादे मुझे ध्यान में रखकर बनाए गए हैं? क्या तुम्हारे शब्द और कार्य मेरी उपस्थिति में कहे और किए गए हैं? मैं तुम्हारी सभी सोच और विचारों की जाँच करता हूँ। क्या तुम दोषी महसूस नहीं करते? ... क्या तुम्हें लगता है कि शैतान ने इस बार जो खाना और पीना छीना है, उसकी पूर्ति तुम अगली बार कर सकोगे? इस प्रकार, अब तुम इसे स्पष्ट रूप से देखते हो; क्या यह ऐसा है जिसकी तुम क्षतिपूर्ति कर सकते हो? क्या तुम खोए हुए समय की पूर्ति कर सकते हो? तुम सबको यह देखने के लिए मेहनत से जाँच करनी चाहिए कि आखिर पिछली कुछ बैठकों में कोई खाना और पीना क्यों नहीं हुआ था और यह समस्या किसके कारण पैदा हुई थी। जब तक यह स्पष्ट न हो जाए, तब तक तुम्हें एक-एक करके सहभागिता करनी चाहिए। अगर ऐसे व्यक्ति को सख्ती से रोका नहीं गया, तो भाइयों और बहनों को समझ में नहीं आएगा, और यह फिर से होगा। तुम्हारी आध्यात्मिक आंखें बंद हैं; तुम में से कई व्यक्ति अंधे हैं! इसके अलावा, जो लोग देख सकते हैं, वे इस बारे में लापरवाह हैं। वे खड़े होकर बोलते नहीं हैं और वे भी अंधे हैं। जो देखते हैं लेकिन बोलते नहीं हैं, वे मूक हैं। यहाँ कई लोग विकलांग हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति का पूरी तरह से वर्णन कर दिया। बारबरा अपनी संगति में विषय से भटक गई थी, उसने सबका वक्त बर्बाद किया था और सभा की प्रभावशीलता पर असर डाला था और फिर भी मैं चुप्पी साधे थी। मैं मन में सोचती रही, “मुझे स्पष्ट मालूम था कि बारबरा विषय से भटक रही थी, तो मैंने कलीसियाई जीवन को क्यों नहीं बचाया? मैंने चुप्पी साधकर खुशामदी बनना क्यों पसंद किया?” अव्वल तो मैं इस बात को लेकर अनिश्चित थी कि बारबरा की हरकतें खुद की बड़ाई करने और दिखावा करने वाली थीं। यह सच था कि उसे सुसमाचार प्रचार के थोड़े अनुभव थे और इन अनुभवों पर संगति करना दूसरों के लिए लाभकारी हो सकता था, तो क्या उसका ऐसी संगति करना दिखावा माना जा सकता था? दूसरे, मुझे फिक्र थी कि मैं चीजों को साफ नहीं देख पा रही थी कि मेरे बोलने से वह बेबस हो जाती और दूसरे सोचते कि मैं ये सब ईर्ष्या की वजह से कह रही थी।

अगले दिन सभा में मैंने कुछ बहनों से अपनी उलझन बताई और उनसे मदद माँगी। हमने साथ मिलकर परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अपनी बड़ाई करना और अपनी गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे अपनी बड़ाई करते हैं और अपनी गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्‍होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपनी बड़ाई करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उनकी सराहना करें, उन्हें मान दें, उनकी प्रशंसा करें, और यहाँ तक कि उनकी अराधना करें, उनका आदर करें, और उनका अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो ऊपरी तौर पर तो परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपनी गवाही देते हैं। क्या इस तरह से कार्य करना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से परे हैं और उन्हें कोई शर्म नहीं है : अर्थात्, वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, सांसारिक आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों पर इतराते तक हैं। अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीका स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे छद्मावरणों और पाखंड का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने कलीसिया के कार्य को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने का ही तरीका नहीं है?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचनों के उजागर से मैं समझ गई कि मसीह-विरोधियों की खुद की बड़ाई करने और गवाही देने की एक निशानी उनका दूसरों के सामने अपने गुणों और खूबियों, योगदानों और उपलब्धियों का प्रदर्शन करना है, ताकि लोग उन्हें प्रतिभाशाली और काबिलियत वाला समझें और उन्हें सम्मान दें और सराहें। सुसमाचार का प्रचार और परमेश्वर की गवाही देना अनिवार्य रूप से सकारात्मक चीजें हैं। बारबरा में सुसमाचार प्रचार की खूबियाँ थीं और अगर वह इस बारे में संगति कर पाती कि उसकी झेली हुई मुश्किलें क्या थीं, कैसे उसने परमेश्वर पर भरोसा कर उसके कार्य का अनुभव किया था, इससे उसने क्या हासिल किया और सीखा था और अभ्यास के अच्छे रास्ते क्या थे, तो वह संगति शिक्षाप्रद होती। लेकिन बारबरा ने सिर्फ यही बताया कि सुसमाचार का प्रचार करते समय उसे कैसे कष्ट सहना पड़ा और कैसे उसने कीमत चुकाई। उसके अनुभव सुनने वाले किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर के बारे में ज्यादा समझ हासिल नहीं हो पाई, न ही अलग-अलग मुश्किलों पर अभ्यास या विचार कैसे करें, इस पर कोई स्पष्टता मिली। इसके बजाय वे बस उसको ही ज्यादा सम्मान देने लगे और उसकी प्रशंसा करने लगे और उन्हें लगा कि सुसमाचार प्रचार करने में वह अनुभवी, प्रतिभावान और काबिलियत वाली है और दूसरों के मुकाबले ज्यादा जोशीली थी। हर किसी ने उसकी प्रशंसा की, उससे ईर्ष्या की और गहराई से खुद को कमतर महसूस किया। इसलिए दिखावा करने और परमेश्वर की बड़ाई कर उसकी गवाही देने के नतीजे एक समान नहीं थे। संगति के जरिए मेरे पुराने विचारों की पुष्टि हो गई और मैंने तय कर लिया कि बारबरा की कही हुई ज्यादातर बातें परमेश्वर की गवाही की नहीं थीं, बल्कि ये खुद को ऊँचा उठाने और दिखावा करने के लिए कही गई थीं। वह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट कर रही थी जिससे परमेश्वर को घृणा और नफरत होती। बहनों ने मुझे यह भी याद दिलाया कि बारबरा को शायद अभी अपने व्यवहार का पता नहीं है और यह देख कर मुझे उसकी मदद के लिए स्नेह से उसे इस बारे में बताना चाहिए। मुझे उसके साथ बस अपने रिश्तों को बचाने के लिए खुशामदी नहीं होना चाहिए। बहनों की बातों ने मुझे शर्मिंदा कर दिया और मैंने जल्द-से-जल्द बारबरा से संगति करने का फैसला किया।

सभा खत्म हो जाने पर मैं बस खुद को शांत नहीं रख सकी। मैंने बारबरा की समस्याएँ पहले देखी थीं, लेकिन उसे बताने की हिम्मत नहीं की थी और जब मैंने थोड़ा-बहुत बताया भी तो मैंने समस्या को बस छुआ भर था और इससे सच में कुछ हासिल नहीं हुआ, इस कारण बारबरा ने कभी सचमुच आत्म-चिंतन नहीं किया या वह अपनी समस्याओं के बारे में जागरूक नहीं हो सकी। इन ख्यालों से मैं परेशान रही, दोषी महसूस करती रही और खुद से पूछे बिना नहीं रह सकी, “मैं आम तौर पर बारबरा के इर्द-गिर्द बड़ी खुश और जीवंत रहती हूँ, उसे सब-कुछ बताती हूँ, तो उसकी समस्याएँ बताने में मुझे इतनी मुश्किल क्यों हो रही है? मैं कुछ बोल क्यों नहीं पा रही?” अपनी खोज और आत्म-चिंतन में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तुम सभी सुशिक्षित हो। तुम सभी अपनी बोली में परिष्कृत और संतुलित होने पर ध्यान देते हो, और बोलने के तरीके पर भी ध्यान देते हो : तुम व्यवहारकुशल हो, और दूसरों की गरिमा और अभिमान को ठेस न पहुँचाना सीख चुके हो। अपने शब्दों और कार्यों में, तुम लोगों को उनकी अपनी सोच से काम करने का अवसर देते हो। लोगों को सहज महसूस कराने के लिए तुम वह सब कुछ करते हो जो तुम कर सकते हो। तुम उनकी कमियों या कमज़ोरियों को उजागर नहीं करते हो, और तुम कोशिश करते हो कि तुम उन्हें तकलीफ़ न पहुँचाओ और शर्मिंदा न करो। अधिकांश लोग इसी अंतर्वैयक्तिक सिद्धांत के अनुसार काम करते हैं। और यह किस तरह का सिद्धांत है? (लोगों को खुश करने का; कपट और धूर्तता का।) यह चालाक, कपटी, विश्वासघाती और धोखेबाज़ है। लोगों के मुस्कुराते चेहरों के पीछे बहुत-सी द्वेषी, कपटी और घिनौनी बातें होती हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। “जो लोग मध्यम मार्ग पर चलते हैं, वे सबसे कपटी लोग होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करते, मिठबोले और चालाक होते हैं, तमाम परिस्थितियों में साथ देने में अच्छे होते हैं, और कोई भी उनकी कमियाँ नहीं देख सकता। वे जीवित शैतानों की तरह होते हैं!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। “सांसारिक आचरण के फलसफों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—उन्हें लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब किसी व्यक्ति को कोई भी धमका नहीं रहा होता, तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, हिसाब लगाते और रणनीतिक होते हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। इसके सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के नैतिक आचरण से यह माँग कि ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ नेक है? क्या यह सकारात्मक माँग है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को परेशान नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना अंत में तुम खुद चोट खाओगे...। क्या यह लोगों को दूसरों के साथ बातचीत करते समय बुद्धिमान होना, लोगों में अंतर कर पाना, लोगों और चीजों को सही तरीके से देखना, और लोगों के साथ बुद्धिमानी से बातचीत करना सिखाता है? क्या यह तुम्हें सिखाता है कि अगर तुम अच्छे लोगों से, मानवता वाले लोगों से मिलते हो, तो तुम्हें उनके साथ ईमानदारी से व्यवहार करना चाहिए, कर पाओ तो उनकी मदद करनी चाहिए, और अगर न कर पाओ तो सहिष्णु होकर उनके साथ ठीक से व्यवहार करना चाहिए, अपने बारे में उनकी गलतफहमियाँ और आलोचनाएँ झेलनी चाहिए, और उनकी खूबियों और सद्गुणों से सीखना चाहिए? क्या यह लोगों को यही सिखाता है? (नहीं।) तो, जो यह कहावत लोगों को सिखाती है, उससे अंत में क्या होता है? यह लोगों को ज्यादा ईमानदार बनाता है या ज्यादा कपटी? इसके परिणामस्वरूप लोग और ज्यादा कपटी हो जाते हैं; लोगों के दिल और ज्यादा दूर हो जाते हैं, लोगों के बीच की दूरी बढ़ जाती है, और लोगों के रिश्ते जटिल हो जाते हैं; यह लोगों के सामाजिक संबंधों में एक जटिलता के बराबर है। लोगों के बीच दिली संवाद खो जाता है, और आपस में सँभलकर बोलने की मानसिकता पैदा हो जाती है। क्या इस तरह लोगों के रिश्ते अभी भी सामान्य रह सकते हैं? क्या इससे सामाजिक माहौल में सुधार होगा? (नहीं।) इसलिए ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ कहावत स्पष्ट रूप से गलत है। लोगों को ऐसा करना सिखाने से वे सामान्य मानवता नहीं जी सकते; इतना ही नहीं, यह लोगों को निष्कपट, खरा या स्पष्टवादी नहीं बना सकता। यह कुछ भी सकारात्मक प्राप्त नहीं कर सकता(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के जरिए मैंने देखा कि बारबरा से अपने मेल-जोल में मैं सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों पर भरोसा कर रही थी, जैसे कि “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” और “एक और मित्र का अर्थ है एक और मार्ग; एक और शत्रु का अर्थ है एक और बाधा।” उस समय तक इन फलसफों को मैंने लोगों से मेल-जोल के सिद्धांत माना था। मुझे लगता था कि ऐसा व्यवहार करना ही आपसी रिश्ते बनाए रखने, दूसरों का दिल न दुखाने और अपने लिए मुश्किल खड़ी न करने का एकमात्र तरीका था। परमेश्वर के वचनों के उजागर होने से मैं आखिरकार समझ सकी कि ये फलसफे जीने के धोखेबाज, कपटी और विश्वासघाती तरीके थे, कि ये लोगों को एक दूसरे से प्रेम करने देना तो दूर एक-दूसरे के प्रति सतर्क करते हैं, उनके बीच दूरियाँ पैदा करते हैं और उनके बीच ईमानदारी भरा मेल-जोल रोकते हैं। हालाँकि इस तरह के मेल-जोल से लोगों का दिल नहीं दुखता या खुद के लिए मुश्किल खड़ी नहीं होतीं, मगर यह हमें सच्चे दोस्त बनाने से रोकता है और हमको और भी नकली और धोखेबाज बनने देता है। मैं यह भी समझ सकी कि दूसरों से मेल-जोल में इंसान को स्पष्ट होना चाहिए और जब आप देखें कि किसी के साथ कोई समस्या है, तो तुम्हें प्रेम के साथ उनकी भरसक मदद करनी चाहिए। भले ही उस पल वे उसे स्वीकार न कर सकें और तुम्हें गलत समझ लें, फिर भी तुम्हें उनसे संपर्क करने के दौरान उन सिद्धांतों का पालन कर सही इरादे रखने चाहिए। मैंने बारबरा से अपनी पिछली बातचीत के बारे में सोचा। कई मौकों पर मैंने साफ तौर पर देखा था कि वह दूसरों के सामने दिखावा करती थी और दूसरे उसे बहुत ऊँचा मानते थे, लेकिन मुझे डर था कि उसकी समस्या बताने से उसके अहम को ठेस पहुँचेगी और वह आगे से मेरी उपेक्षा करेगी। इसलिए उसके साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखने के लिए मैं उसके भ्रष्टता दिखाने पर उससे कुछ कहे बिना, उसकी मदद किए बिना बस देखती रही, जिसके कारण वह अपनी समस्याओं पर आत्म-चिंतन नहीं कर पाई और उन्हें जान नहीं पाई और फिर वापस अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगी। इन शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हुए मैं बस यही चाहती थी कि हमारा रिश्ता बना रहे और बारबरा कहे कि मैं एक समझदार और समानुभूति रखने वाली इंसान थी। मैंने उसके जीवन प्रवेश पर विचार ही नहीं किया। अगर मैंने उसे पहले ही उसकी समस्याएँ बता दी होतीं तो शायद उसने अपने भ्रष्ट स्वभाव को थोड़ा बहुत समझ लिया होता और सभाओं में ऐसी अनुचित बातें न बोलती। हमारे रिश्ते को बचाने के लिए मैं खुशामदी बन गई थी! यह सच में हानिकारक व्यवहार था! फिर मैंने एक और बहन के बारे में सोचा जिसके संपर्क में मैं आई थी। मैंने देखा कि वह अपने कर्तव्य में अक्सर बेपरवाह रहती थी और जब दूसरे उसकी समस्याएँ उसे बताते तो वह बहस करती और उसे स्वीकार नहीं कर पाती थी। मैं आत्म-चिंतन में उसकी मदद के लिए उसके साथ संगति करना चाहती थी, लेकिन मुझे लगा वह ज्यादा उम्र की है और अगर मैंने उसकी समस्याएँ बताईं, तो मैं उसके अहम को चोट पहुँचाऊँगी और वह मुझे ज्यादा ही कठोर समझेगी। इसलिए मैंने उसकी समस्याओं को अनदेखा कर दिया और उसके साथ बाहर से खुश, बातूनी और मैत्रीपूर्ण बनी रही। यह तो कर्तव्य में बेपरवाह होने के कारण जब उसे बरखास्त कर दिया गया, तब जाकर मुझे उसकी शीघ्र मदद न करने पर पछतावा हुआ। जब वह जाने वाली थी तब मैंने उसके साथ उसकी समस्याओं पर संगति की, जिन्हें मैंने देखा था। हालाँकि उसने अपनी समस्याओं को पहचान लिया था, उसने उन्हें शीघ्र न बताने के लिए मुझे फटकार लगाई और बोली कि अगर उसने पहले ही अपना बर्ताव सुधार लिया होता, तो शायद वह बरखास्त न हुई होती और उसे दूसरा काम सौंप दिया जाता। जब मेरे साथ यह हुआ तो मैंने आखिरकार समझ लिया कि सांसारिक आचरण के इन फलसफों के अनुसार जीते हुए खुशामदी रहना और एक नेक इंसान होना एक समान नहीं है। जो लोग ऐसा करते हैं वे दूसरों के प्रति बिल्कुल भी ईमानदारी या प्रेम नहीं दिखाते, इसके बजाय वे स्वार्थी और कपटी होते हैं। इस तरह का व्यक्ति शैतानी स्वभाव के साथ जी रहा होता है और उससे परमेश्वर घृणा करता है। बारबरा मेरे साथ हमेशा बहुत ईमानदार रही थी लेकिन उसके साथ बातचीत में मैंने बस इन फलसफों पर भरोसा किया था और सत्य का अभ्यास नहीं किया था। मैंने सिर्फ यही विचार किया था कि कैसे उसे नाराज न करूँ और उसके मन में अपनी अच्छी छवि कैसे बनाए रखूँ और जब मैंने उसे भ्रष्टता प्रकट करते देखा तो मैंने बस अनदेखा कर दिया। ऐसा करते हुए क्या मैं खुद को एक अच्छी मित्र कह सकती थी? “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” सच में शैतान की शैतानी कहावत थी। यह बहुत हानिकारक था और मैं अब इसके अनुसार नहीं जीना चाहती थी।

अपनी खोज और आत्म-चिंतन में मुझे एहसास हुआ कि बारबरा की समस्या बताने की हिम्मत न करने का एक और भी कारण था : मेरा नजरिया गलत था। मैं हमेशा सोचती थी कि दूसरों की समस्या बताना उनकी खामी को उजागर करना था यानी इससे उनके अहम को चोट पहुँचती, शायद वे नाराज होते और यह एक बेकार का काम था। इसलिए बारबरा के साथ मुझे हमेशा डर था कि अगर मैंने उसकी समस्या बता दी तो वह नाराज हो जाएगी और इससे हमारा रिश्ता टूट जाएगा, जिससे मेरे लिए सत्य का अभ्यास करना बहुत मुश्किल हो गया। इसलिए मैंने परमेश्वर को पुकारा, उससे मेरी इस समस्या को हल करने के लिए मार्गदर्शन करने की विनती की। अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सच बोलें, वही कहें जो वे सोचते हैं, दूसरों को छलें नहीं, उन्हें गुमराह न करें, उनका मजाक न उड़ाएँ, उन पर व्यंग्य न करें, उनका उपहास न करें, उनकी हँसी न उड़ाएँ, या उन्हें जकड़ें नहीं, या उनकी कमजोरियाँ उजागर न करें, या उन्हें चोट न पहुँचाएँ। क्या ये बोलने के सिद्धांत नहीं हैं? यह कहने का क्या मतलब है कि लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए? इसका मतलब है दूसरे लोगों पर कीचड़ न उछालना। उनकी आलोचना या निंदा करने के लिए उनकी पिछली गलतियाँ या कमियाँ न पकड़े रहो। तुम्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए। सक्रिय पहलू से, रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न? ... और संक्षेप में, बोलने के पीछे का सिद्धांत क्या है? वह यह है : वह बोलो जो तुम्हारे दिल में है, और अपने सच्चे अनुभव सुनाओ और बताओ कि तुम वास्तव में क्या सोचते हो। ये शब्द लोगों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं, वे लोगों को पोषण प्रदान करते हैं, वे उनकी मदद करते हैं, वे सकारात्मक हैं। वे नकली शब्द कहने से इनकार कर दो, जो लोगों को लाभ नहीं पहुँचाते या उन्हें कुछ नहीं सिखाते; यह उन्हें नुकसान पहुँचने या उन्हें गलती करने, नकारात्मकता में डूबने और नकारात्मक प्रभाव ग्रहण करने से बचाएगा। तुम्हें सकारात्मक बातें कहनी चाहिए। तुम्हें लोगों की यथासंभव मदद करने, उन्हें लाभ पहुँचाने, उन्हें पोषण प्रदान करने, उनमें परमेश्वर में सच्ची आस्था पैदा करने का प्रयास करना चाहिए; और तुम्हें लोगों को मदद लेने देनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभवों से और समस्याएँ हल करने के अपने ढंग से बहुत-कुछ हासिल करने देना चाहिए, और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने के मार्ग को समझने में सक्षम होने देना चाहिए, उन्हें जीवन-प्रवेश करने और अपना जीवन विकसित करने देना चाहिए—जो कि तुम्हारे शब्दों में सिद्धांत के होने और उनके लोगों के लिए शिक्षाप्रद होने का परिणाम है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। “अगर किसी भाई-बहन के साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं और वे अपनी गड़बड़ियाँ तुमसे पूछें तो तुम्हें ये कैसे बतानी चाहिए? इसका संबंध इस बात से है कि तुम इस मामले में क्या दृष्टिकोण अपनाते हो। ... तो फिर, सत्य सिद्धांतों के अनुसार, तुम्हें इस मामले के प्रति कैसा रवैया रखना चाहिए? सत्य के साथ कौन-सी कार्रवाई मेल खाती है? इसमें कितने प्रासंगिक सिद्धांत हैं? पहले, कम से कम, दूसरों के लिए ठोकर का कारण न बनो। तुम्हें पहले दूसरे की कमजोरियों पर, और इस बात पर विचार करना चाहिए कि उनके साथ किस तरह बात करने से वे ठोकर नहीं खाएँगे। कम-से-कम इस बात का ध्यान रखना तो जरूरी है। इसके बाद, अगर तुम जानते हो कि वे ऐसे व्यक्ति हैं जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य स्वीकार सकते हैं, तो जब तुम देखो कि उन्हें कोई समस्या है, तो तुम्हें उनकी मदद करने की पहल करनी चाहिए। अगर तुम कुछ नहीं करते और उन पर हँसते हो, तो यह उन्हें चोट और नुकसान पहुँचाना है। जो ऐसा करता है, उसमें जमीर या विवेक नहीं होता, और उसमें दूसरों के लिए प्रेम नहीं होता। जिनमें जरा-सा भी जमीर और विवेक होता है, वे अपने भाई-बहनों पर हँस नहीं सकते। उन्हें उनकी समस्या हल करने में मदद करने के लिए विभिन्न तरीकों के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें यह समझाना चाहिए कि बात क्या हुई है और उनकी गलती कहाँ है। वे पश्चात्ताप कर सकते हैं या नहीं, यह उनका अपना मामला है; हम अपनी जिम्मेदारी निभा चुके होंगे। भले ही वे अभी पश्चात्ताप न करें, देर-सवेर एक दिन आएगा जब वे होश में आएँगे, और वे तुम्हारे बारे में शिकायत नहीं करेंगे या तुम पर आरोप नहीं लगाएँगे। कम से कम, तुम अपने भाई-बहनों के साथ जैसा व्यवहार करते हो, वह जमीर और विवेक के मानकों से नीचे नहीं हो सकता। खुद को दूसरों का ऋणी मत बनाओ; जिस हद तक उनकी मदद कर सको, करो। लोगों को यही करना चाहिए। जो लोग अपने भाई-बहनों के साथ प्रेम से और सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार कर सकते हैं, वे उत्तम प्रकार के लोग होते हैं। वे परम दयालु भी होते हैं। निस्संदेह, सच्चे भाई-बहन वे लोग होते हैं, जो सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति केवल भरपेट खाने या आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करता है, लेकिन सत्य नहीं स्वीकारता, तो वह भाई या बहन नहीं है। तुम्हें सच्चे भाई-बहनों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। चाहे वे जैसे भी परमेश्वर पर विश्वास करते हों या वे जिस भी रास्ते पर हों, तुम्हें प्रेम की भावना से उनकी मदद करनी चाहिए। व्यक्ति को न्यूनतम क्या प्रभाव प्राप्त करना चाहिए? पहला, वह उनके ठोकर खाने का कारण न बने और उन्हें नकारात्मक न बनने दे; दूसरा, वह उनकी मदद करता हो और उन्हें गलत मार्ग से वापस लौटा लाए; और तीसरा, वह उन्हें सत्य समझाए और उनसे सही मार्ग चुनवाए। ये तीन प्रकार के प्रभाव केवल उन्हें प्रेम की भावना से मदद करके ही प्राप्त किए जा सकते हैं। अगर तुममें सच्चा प्रेम नहीं है, तो तुम ये तीन प्रकार के प्रभाव प्राप्त नहीं कर सकते, ज्यादा से ज्यादा एक या दो प्रकार के प्रभाव ही प्राप्त कर सकते हो। ये तीन प्रकार के प्रभाव दूसरों की मदद करने के तीन सिद्धांत भी हैं। तुम ये तीन सिद्धांत जानते हो और इन्हें अच्छी तरह समझते हो, लेकिन इन्हें वास्तव में कैसे लागू किया जाता है? क्या तुम वास्तव में दूसरे की कठिनाई को समझते हो? क्या यह एक अलग समस्या नहीं है? तुम्हें यह भी सोचना चाहिए : ‘उसकी कठिनाई का मूल क्या है? क्या मैं उसकी मदद करने में सक्षम हूँ? अगर मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और मैं समस्या हल नहीं कर सकता और लापरवाही से बोलता हूँ, तो मैं उन्हें गलत रास्ते पर ले जा सकता हूँ। इसके अतिरिक्त, इस व्यक्ति की समझने की क्षमता कैसी है, और उसकी काबिलियत क्या है? क्या वह दुराग्रही है? क्या उसे आध्यात्मिक समझ होती है? क्या वह सत्य को स्वीकार कर सकता है? क्या वह सत्य की तलाश करता है? अगर वह देखता है कि मैं उससे ज्यादा सक्षम हूँ, और मैं उसके साथ संगति करता हूँ, तो क्या उसमें ईर्ष्या या नकारात्मकता पैदा होगी?’ इन सभी प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए। इन प्रश्नों पर विचार कर इन पर स्पष्टता प्राप्त कर लेने के बाद उस व्यक्ति के साथ संगति करो, परमेश्वर के वचनों के कई अंश पढ़ो जो उसकी समस्या पर लागू होते हों, और उसे परमेश्वर के वचनों में सत्य समझने और अभ्यास का मार्ग खोजने में सक्षम बनाओ। तब समस्या का समाधान होगा और वे अपनी कठिनाई से बाहर निकल पाएँगे। क्या यह सरल मामला है? यह सरल मामला नहीं है। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम चाहे जितना भी बोलो, वह किसी काम का नहीं होगा। अगर तुम सत्य समझते हो, तो उन्हें बस कुछ ही वाक्यों से प्रबुद्ध कर लाभ पहुँचा सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ सकी कि अगर आप किसी इंसान की कमियाँ उजागर कर रहे हैं तो आप उसकी आलोचना और निंदा करने के मकसद से उसकी कमजोरियों का फायदा उठाते हैं और आपका इरादा उसकी हँसी उड़ाना, उसे चिढ़ाना और उसकी भर्त्सना करना होता है और इससे परमेश्वर घृणा करता है। लेकिन अगर आप मदद करने के इरादे से किसी की समस्याएँ और कमियाँ बताते हैं तो यह शिक्षाप्रद होता है, यह दूसरों के लिए प्रेम और उनके जीवन के प्रति जिम्मेदारी की भावना दिखाना है। अगर कोई सत्य का अनुसरण करता है तो दूसरों की मदद से वह आत्म-चिंतन करने, अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य को खोज पाएगा और वह अपने जीवन प्रवेश में तरक्की कर पाएगा। हालाँकि कुछ लोग अपनी काट-छाँट किए जाने और अपनी समस्याएँ बताए जाने को लेकर प्रतिरोधी और विरोधी होते हैं। यह दिखाता है कि वे सत्य को नहीं स्वीकारते और उनका स्वभाव सत्य से विमुख होना है। पहले मैं मानती थी कि दूसरों की समस्याएँ बताना और उनकी कमियाँ उजागर करना दोनों एक समान हैं और यह बेकार का काम था। यह नजरिया बिल्कुल भ्रामक था। मैं यह भी समझ गई कि दूसरों की समस्याएँ बताकर उनकी मदद करने के सिद्धांत होते हैं। यह सिर्फ लोगों की समस्याओं को सीधे उनके सामने नेक इरादों और उत्साह के साथ जाकर बता देना नहीं होता, चाहे वे कोई भी हों। बल्कि हमें इसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार किसी व्यक्ति की मानवता और उनकी समझ की क्षमता पर विचार करते हुए करना चाहिए, चाहे वे सही व्यक्ति हों या नहीं, चाहे वे सत्य को स्वीकार कर सकें या नहीं, उनकी समस्याओं को किस तरह से इंगित किया जाए कि जिससे परिणाम प्राप्त हों, उन्हें ठोकर न लगे या वे नकारात्मक न बनें। सबसे अहम यह है कि हमें प्रासंगिक सत्यों पर विचार करना चाहिए, दूसरों को चीजें बताकर सत्य और परमेश्वर के इरादे को समझने में उनकी मदद करनी चाहिए और उन्हें अभ्यास का मार्ग देना चाहिए। केवल ऐसा करके ही हम लोगों की सचमुच मदद करते हैं। इस बिंदु पर आखिरकार मुझे एहसास हुआ कि पहले दूसरों की समस्याएँ बताने पर मुझे अच्छे नतीजे हासिल नहीं हो रहे थे क्योंकि मैं सत्य सिद्धांत नहीं खोज रही थी। ठीक वैसे ही जैसे जब मैंने जेनी को अक्सर शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते, अपने उच्च पद से दूसरों को डांटते और खुद को जानने के बारे में कभी बात नहीं करते देखा—मैंने सीधे तौर पर उसे उसकी समस्याओं के बारे में बताया, लेकिन वास्तव में मैं अपनी बातचीत के माध्यम से समझ गई थी कि वह ऐसी व्यक्ति नहीं थी जो सत्य को स्वीकार कर सके। मैं जानती थी कि सत्य के बारे में उसकी समझ विकृत थी और वह रुतबे को बहुत अधिक महत्व देती थी। इन कारणों से उसे सीधे तौर पर उसकी समस्याओं के बारे में बताना मेरी मूर्खता थी और इससे अच्छे परिणाम नहीं मिले। बाद में पता चला कि उसने लगातार सत्य या भाई-बहनों द्वारा दिए गए अनुस्मारकों और सहायता को स्वीकार नहीं किया था। वह अक्सर अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर हमला करने और उनकी आलोचना करने के लिए उन पर दबाव बनाने की कोशिश करती थी और आखिरकार उसे एक बुरे व्यक्ति के रूप में पहचान कर बाहर निकाल दिया गया। जहाँ तक रोक्साना की बात है तो वह अपने अभिमान को बहुत महत्व देती थी, सत्य को समझने और उसमें प्रवेश करने में धीमी थी और उसे काँट-छाँट का कोई अनुभव नहीं था। लेकिन मैंने उसके आध्यात्मिक कद को ध्यान में नहीं रखा और सबके सामने परमेश्वर के वचनों पर उसकी संगति में उसके विषय से भटकने के बारे में बात की। परिणामस्वरूप, उसके लिए यह कुछ समय के लिए बरदाश्त से बाहर हो गया और वह नकारात्मक हो गई। बाद में अन्य भाई-बहनों की सहायता और समर्थन से वह इस स्थिति को सुधारने में सक्षम हुई। सिद्धांतों के इस पहलू को समझने के बाद मुझे अब बारबरा को उसकी समस्या बताने को लेकर डर नहीं लगा। बारबरा सत्य को स्वीकार कर सकती थी और वह एक सही व्यक्ति थी। मुझे उसे गलत रास्ते पर जाने से रोकने के लिए प्यार और सिद्धांतों के अनुसार उसकी मदद करनी चाहिए। अपने दिल में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं बारबरा के साथ प्रभावी ढंग से कैसे संगति कर सकती हूँ, ताकि वह बेबस न हो और जिससे उसे सत्य को समझने और वास्तव में खुद को जानने में मदद मिल सके।

उसके बाद कुछ समय के लिए जब भी मेरे पास वक्त होता, मैं परमेश्वर के उन वचनों को खोजकर उन पर मनन करती, जो दिखावा करने वालों और खुद की बड़ाई करने वालों को उजागर करते हैं। मैंने बारबरा के साथ संगति कर उससे खुलने और उससे इस दौरान देखी गई उसकी समस्याओं के बारे में बात करने के लिए समय का इंतजार किया, साथ ही दिखावा करने की प्रकृति और उसके नतीजों और इस किस्म के बर्ताव को लेकर परमेश्वर के रवैये पर संगति करने का मौका तलाशा। मेरी संगति के बाद बारबरा को आखिरकार अपनी समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ, उसने समझ लिया कि उस पर रुतबे का जूनून हावी था, उसे लोगों के दिलों में जगह पाना और लोगों से सराहा जाना पसंद था और इस प्रकार के अनुसरण से परमेश्वर को घृणा होती है। बाद में उसने एक सभा में अपने इस दिखावे के व्यवहार और खुद की बड़ाई करने के बारे में संगति की और गहन विश्लेषण किया, जिससे सभी इसका भेद पहचान सके। यह देखकर कि बारबरा आत्म-चिंतन कर अपनी समस्या पहचान सकी और खुद से घृणा कर पश्चात्ताप कर पाई, मुझे खुशी हुई। लेकिन साथ ही मैंने खुद को दोषी महसूस किया। मुझे पछतावा हुआ कि संगति कर उसे यह बताने में इतना समय लग गया था। उसकी समस्या बताने और उजागर करने को लेकर उसने मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह विकसित नहीं किया, न ही हमारा रिश्ता टूटा, इसके बजाय हम पहले से ज्यादा एक-दूसरे के करीब हो गए। मैं समझ गई कि सिर्फ परमेश्वर के वचन के अनुसार जीकर और लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार संवाद करके ही कोई शांति की भावना महसूस कर सकता है।

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