61. अपने मोह के कारण सही-गलत न समझ पाया

अपनी पत्नी को पत्र

झोऊ मिंग, चीन

प्रिय हुइयुआन,

मुझे तुम्हारा पत्र मिला। तुमने लिखा कि हमारे बच्चों को कलीसिया से निकाल दिया गया है। पहले तो मैं यकीन ही नहीं कर पाया। मुझे याद है, कुछ साल पहले जब मैं घर आया था, शाओताओ और शाओमिन सभाएं कर अपना कर्तव्य निभा रहे थे, तो फिर उन्हें कैसे निकाल दिया गया? वे दोनों सत्य का अनुसरण भले ही नहीं करते थे, पर उनकी आस्था सच्ची थी। क्या अगुआ उनसे बहुत अधिक अपेक्षा कर रहा था? क्या उन्हें निकालना गलती है? मुझे तो तुमसे भी शिकायतें हैं। हमारे बच्चे दुनियावी प्रवृत्तियों का अनुसरण करते थे, बस पैसों के पीछे भागते थे, वे कर्तव्य निभाना या परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना नहीं चाहते थे। पता नहीं तुमने उनके साथ संगति करने की कोशिश क्यों नहीं की। अगर मैं घर पर होता, तो उन्हें ज्यादा मदद और सहारा दे पाता, उन्हें निकाले जाने के कगार पर तो नहीं पहुँचने देता। उन दिनों, इसी तरह के विचार मेरे मन में आ रहे थे, और मैं रात को बिस्तर पर करवटें बदलता रहा, सो भी नहीं पाया, हम सभी के साथ होने, परमेश्वर का गुणगान करने और उसके वचन खाने-पीने की खुशनुमा यादें मेरा पीछा कर रही थीं। मुझे याद है, मैंने तुमसे कहा था कि हमारा पूरा परिवार मेहनत के साथ सत्य का अनुसरण करे, परमेश्वर द्वारा बचाया जाये, उसके राज्य में जीता रहे, और यह सब कितना शानदार होगा। मैंने कब सोचा था कि अब जबकि परमेश्वर का कार्य पूरा होने को है, तो हमारे बच्चों को छद्म-विश्वासी के रूप में प्रकट कर कलीसिया से निकाल दिया जाएगा। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने उद्धार का मौका गँवा दिया? मैंने इस बारे में जितना सोचा उतना ही परेशान हो गया। जब मैंने आपदाओं को बढ़ते और महामारी को बदतर होते देखा, तो मुझे खास तौर पर हमारे बच्चों के भविष्य की चिंता हुई। मैं तो कलीसिया अगुआ को भी पत्र लिखकर पूछना चाहता था कि क्या हमारे बच्चे कलीसिया में श्रम करने के लिए रह सकते हैं, ताकि उनके उद्धार की थोड़ी-सी भी उम्मीद बची रहे। सीसीपी के पीछा करने के कारण अपने काम से इतने साल बाहर बिताकर मुझे लगा कि मैंने न उनकी फिक्र की, न पिता की जिम्मेदारी निभाई। मुझे लगता है मैं उनका कर्जदार हूँ। हुइयुआन, तुम्हें बताना चाहूँगा कि उस हालत में जीते हुए मेरा दिल अंधकार और निराशा से भरा रहता था, मैं अपने काम पर ध्यान नहीं दे पाता था? अपनी दशा ठीक न देखकर मैंने प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे दुख है कि मेरे बच्चों को कलीसिया से निकाल दिया गया है। हालांकि मैं जानता हूँ यह तुम्हारी अनुमति से हुआ है और मुझे समर्पण करना चाहिए, मगर मैं अपने बच्चों को ऐसे नहीं छोड़ सकता, मुझे लगता है मैं उनका कर्जदार हूँ। परमेश्वर! मुझे प्रबुद्ध करो, ताकि मैं इस मामले में सत्य समझ सकूँ और अपने मोह के आगे बेबस न रहूँ।”

प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “क्या अय्यूब के अभ्यास के बारे में कोई विशेष जानकारी थी? सबसे पहले, आओ देखते हैं कि उसने अपने बच्चों के साथ कैसा बर्ताव किया। उसका उद्देश्य हर मामले में परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करना था; उसने उन चीजों को जबरदस्ती करने की कोशिश नहीं की जो परमेश्वर ने नहीं कीं, उसने जोड़ा-घटाया नहीं, न ही योजनाएँ बनाईं। उसने बात ध्यान से सुनी और हर मामले में परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों का इंतजार किया। यह एक सामान्य सिद्धांत था। ... अय्यूब ने अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार किया? एक पिता के नाते उसने अपना दायित्व पूरा किया, उनके साथ सुसमाचार साझा किया और सत्य पर संगति की। उन्होंने चाहे अय्यूब की बात सुनी या नहीं, उसकी आज्ञा मानी या नहीं, लेकिन उसने उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए कभी मजबूर नहीं किया—उसने उनके साथ कभी मारपीट, चीख-पुकार नहीं की या उनके जीवन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। उनके विचार और राय अय्यूब के विचारों से भिन्न थे, तो वे जो कुछ भी करते उसमें उसने कभी हस्तक्षेप नहीं किया, वे किस मार्ग पर जा रहे हैं, इस मामले में उसने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। क्या अय्यूब अपने बच्चों से परमेश्वर में विश्वास रखने को लेकर थोड़ी बात करता था? निश्चय ही, वह इस विषय में उनसे काफी बातें करता था, लेकिन वे उसकी बात न सुनते थे और न ही स्वीकारते थे। इस चीज के प्रति अय्यूब का क्या रवैया था? उसका कहना था, ‘मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी; जहां तक बात है कि वे कौन-सा मार्ग अपनाते हैं, यह उन्हीं पर निर्भर करता है, यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। यदि परमेश्वर उन पर कार्य नहीं करता है या उन्हें प्रेरित नहीं करता है, तो मैं उन्हें बाध्य करने का प्रयास नहीं करूँगा।’ इसलिए अय्यूब ने परमेश्वर से उनके लिए प्रार्थना नहीं की, उनके लिए पीड़ा के आंसू नहीं बहाए, उनके लिए उपवास नहीं रखा या किसी भी तरह कष्ट नहीं उठाए। उसने ये सब नहीं किया। अय्यूब ने यह सब क्यों नहीं किया? क्योंकि इनमें से कुछ भी करना परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना नहीं था; वे सब बातें मानवीय विचारों से उपजी थीं, यह अपने तरीके को जबरदस्ती किसी पर थोपने के तरीके थे। ... उसका अभ्यास का तरीका सही था; अपने अभ्यास के हर तरीके में, और जिस दृष्टिकोण, रवैये और दशा से उसने भी चीजों को संभाला उसमें वह हमेशा समर्पण, प्रतीक्षा, खोज और फिर ज्ञान प्राप्त करने की स्थिति में था। यह रवैया बहुत महत्वपूर्ण है। यदि लोग अपने किसी भी काम में इस तरह का रवैया न अपनाएँ और उनके व्यक्तिगत विचार विशेष रूप से प्रबल हों और व्यक्तिगत इरादों और लाभ को बाकी हर चीज से पहले रखें, तो क्या वे वास्तव में समर्पण कर रहे हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में वास्तविक समर्पण नहीं देखा जा सकता; वे वास्तविक समर्पण प्राप्त करने में असमर्थ हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के अभ्यास के सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन का यह पद पढ़कर मुझे अपमान और शर्मिंदगी महसूस अय्यूब अपने बच्चों के मामले में मोह पर निर्भर नहीं रहा, उसने समझदारी से काम लिया। भले ही उसे उम्मीद थी कि उसके बच्चे परमेश्वर में विश्वास कर खुद को बुराई से दूर रखेंगे, ताकि वे बहुत ज्यादा पाप कर तबाही के रास्ते पर न चल पड़ें, जब उसने देखा, वे परमेश्वर की आराधना न कर हर दिन जश्न मनाते थे, तो उसने उन्हें अपने रास्ते बदलने या किसी विशेष रास्ते पर चलने के लिए मजबूर नहीं किया। वह बस परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर परमेश्वर के विरुद्ध पाप करने से बचता रहा। बाद में, जब उसके बच्चों की मौत हो गई, तो अय्यूब ने परमेश्वर को दोष नहीं दिया। मैंने देखा, अपने बच्चों के मामले में अय्यूब ने परमेश्वर का भय मानकर उसके प्रति समर्पण किया। फिर भी, जब मैंने देखा मेरे बेटे ने सांसारिक सुख के पीछे भाग कर कलीसिया छोड़ दिया और मेरी बेटी को निकाल दिया गया, तो मैंने परिवार के प्रति अपने दैहिक स्नेह पर ध्यान दिया। मैंने सोचा कि कैसे उनके आशीष पाने की थोड़ी-सी भी उम्मीद बची रहे। उनकी आस्था सच्ची थी या नहीं, वे सत्य का अनुसरण करते थे या नहीं, इसकी परवाह किये बिना मैं बस यही चाहता था कि वे कलीसिया में बने रहें। मैं चाहता था कि अगुआ उन्हें एक और मौका दे, किसी भी तरीके से उन्हें कलीसिया में श्रम करने के लिए रहने दे। जब मेरे बच्चों की बात आई तो मैंने चीजों को बचाने के लिए मानवीय तरीके आजमाने चाहे। मैं परमेश्वर की संप्रभुता या व्यवस्था के प्रति समर्पित नहीं था। खास तौर पर जब पता चला कि मेरे बच्चों को छद्म-विश्वासी के रूप में परिभाषित किया गया है, मैंने उनके सार को पहचानने के लिए सत्य की खोज नहीं की, बल्कि गलतफहमी में जीकर यह संदेह किया कि अगुआ ने चीजों को निष्पक्ष तरीके से संभाला या नहीं, और मेरा काम करने का उत्साह भी खत्म हो गया। मेरे दिल में सिर्फ मेरे बच्चों के लिए जगह थी; परमेश्वर की कोई जगह नहीं थी। मैंने परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों में से एक स्पष्ट अपेक्षा को याद किया, जो इस प्रकार है : “सगे-संबंधी जो विश्वास नहीं रखते (तुम्हारे बच्चे, तुम्हारे पति या पत्नी, तुम्हारी बहनें या तुम्हारे माता-पिता इत्यादि) उन्हें कलीसिया में आने को बाध्य नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के घर में सदस्यों की कमी नहीं है और ऐसे लोगों से इसकी संख्या बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, जिनका कोई उपयोग नहीं है। वे सभी जो ख़ुशी-ख़ुशी विश्वास नहीं करते, उन्हें कलीसिया में बिल्कुल नहीं ले जाना चाहिए। यह आदेश सब लोगों पर निर्देशित है। इस मामले में तुम लोगों को एक दूसरे की जाँच, निगरानी करनी चाहिए और याद दिलाना चाहिए; कोई भी इसका उल्लंघन नहीं कर सकता(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। मुझे याद है तुमने अपने पत्र में कहा था कि भाई-बहनों ने उनकी काफी मदद की थी, मगर उन्होंने ही पश्चात्ताप न करने, और कभी परमेश्वर के वचन न पढ़ने का रास्ता चुना और लंबे समय तक सभा नहीं की। इससे साफ पता चलता है कि वे छद्म-विश्वासी थे, फिर भी मैं परमेश्वर के वचनों को अनदेखा कर अपने मोह पर निर्भर रहकर उन्हें कलीसिया में रखना चाहता था। मैं बहुत विद्रोही था! मैं अपनी भावनाओं पर निर्भर नहीं रह सकता था। बच्चों को संभालने में, मुझे अय्यूब जैसा बनकर सत्य की खोज करनी होगी, परमेश्वर के आयोजन औरव्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना पड़ेगा। मुझमें यही विवेक होना चाहिए।

इसके बाद, मैंने उन सभी लोगों के बारे में सोचा जिन्हें हाल के वर्षों में प्रकट कर हटाया गया था। मेरे मन में इसे लेकर कोई धारणा नहीं थी क्योंकि मैं जानता था परमेश्वर धार्मिक है, उसके घर में सत्य का शासन है, और वहाँ किसी के साथ अन्याय नहीं होता। मगर अपने बच्चों को निकाले जाते देखकर, मैंने परमेश्वर के प्रति समर्पण या उसकी धार्मिकता का गुणगान क्यों नहीं किया, इसके बजाय अपने मोह पर निर्भर रहकर संदेह किया कि कलीसिया ने चीजों को निष्पक्ष तरीके से संभाला या नहीं?

फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “किन लक्षणों से अनुभूतियों का पता चलता है? निश्चित रूप से वह कोई सकारात्मक चीज नहीं है। यह भौतिक संबंधों और देह की पसंद की संतुष्टि पर ध्यान केंद्रित करना है। पक्षपात करना, दूसरों की कमियों को ढंकना, अत्यधिक स्नेह करना, लाड़-दुलार करना और मनमानी करने देना आदि सब अनुभूतियों में शामिल हैं। कुछ लोग अनुभूतियों के बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं, वे अपने साथ होने वाली हर चीज के बारे में अपनी अनुभूतियों के आधार पर ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं; अपने दिलों में वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह गलत है, फिर भी वे वस्तुनिष्ठ होने में असमर्थ रहते हैं, सिद्धांत के अनुसार कार्य करना तो दूर की बात है। जब लोग हमेशा अनुभूतियों के वश में रहते हैं, तो क्या वे सत्य का अभ्यास कर पाते हैं? यह अत्यंत कठिन है। सत्य का अभ्यास करने में बहुत-से लोगों की असमर्थता अनुभूतियों के कारण होती है; वे अनुभूतियों को विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं, वे उन्हें सबसे आगे रखते हैं। क्या वे सत्य से प्रेम करने वाले लोग हैं? हरगिज नहीं। सार में, अनुभूतियां क्या होती हैं? वे एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव हैं। अनुभूतियों की अभिव्यक्तियों को कई शब्दों का उपयोग करते हुए बताया जा सकता है : भेदभाव, सिद्धांतहीन तरीके से दूसरों की रक्षा करने की प्रवृत्ति, भौतिक संबंध बनाए रखना, और पक्षपात; ये ही अनुभूतियां हैं। लोगों में अनुभूतियां होने और उन्ही अनुभूतियों के अनुसार जीवन जीने के क्या संभावित परिणाम हो सकते हैं? परमेश्वर लोगों की अनुभूतियों से सर्वाधिक घृणा क्यों करता है? कुछ लोग हमेशा अपनी अनुभूतियों से विवश रहते हैं और सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, और यद्यपि वे परमेश्वर को समर्पण करना चाहते हैं किंतु ऐसा नहीं कर पाते, इसलिए वे अनुभूतिक स्तर पर पीड़ा का अनुभव करते हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जो सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अभ्यास में नहीं ला सकते; ऐसा भी इसलिए है कि वे अनुभूतियों से विवश हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए घर छोड़ देते हैं, लेकिन वे दिन-रात, हर समय, अपने परिवार के बारे में सोचते रहते हैं और अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से निर्वाह नहीं कर पाते। क्या यह कोई समस्या नहीं है? कुछ लोगों के गुप्त आकर्षण होते हैं, और उनके दिल में केवल उस प्रेमपात्र व्यक्ति के लिए जगह होती है, इससे उनका कर्तव्य निष्पादन प्रभावित होता है। क्या यह कोई समस्या नहीं है? कुछ लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं और उन्हें अपना आदर्श मानते हैं; वे उस व्यक्ति के अलावा किसी की भी बात इस हद तक नहीं सुनते कि वे परमेश्वर की कही बातें भी नहीं सुनते हैं। कोई उनके साथ सत्य पर सहभागिता करे, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करते; वे केवल उस व्यक्ति की बातें सुनते हैं जो उनका आदर्श होता है। कुछ लोगों के हृदय में एक आदर्श छवि होती है, और वे दूसरों को को अपने आदर्श के बारे में बोलने या उस तक पहुंचने की अनुमति नहीं देते। यदि कोई उनके आदर्श से जुड़ी समस्याओं के बारे में बात करता है, तो वे क्रोधित हो जाते हैं और अपने आदर्श का बचाव करते हुए उस व्यक्ति की बातों को उलटने लग जाते हैं। वे अपने आदर्श की सभी अन्यायों से सुरक्षा करते हैं और अपनी शक्ति भर अपने आदर्श की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सब कुछ करते हैं; अपने शब्दों के माध्यम से वे अपने आदर्श की गलतियोँ को सही ठहराते हैं, और वे लोगों को अपने आदर्श के बारे में सच्ची बात बोलने नहीं देते, उन्हें उजागर नहीं करने देते। यह न्याय नहीं है; इन्हें अनुभूतियां कहा जाता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचन से मैंने समझा कि मोह का संबंध शैतानी भ्रष्ट स्वभाव से है, मोह पर निर्भर रहकर न सिर्फ हम लोगों या चीजों को निष्पक्ष तरीके से नहीं देख सकते, बल्कि मन में पूर्वाग्रह और पक्षपात भी पैदा हो सकता है, और हम अपने दैहिक संबंधों की रक्षा के लिए सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकते हैं। जैसे कि जब मुझे शाओताओ और शाओमिन को निकाले जाने का पता चला, तो मैंने परमेश्वर का इरादा नहीं खोजा या जो सबक सीखना चाहिए या जिस सत्य में प्रवेश करना चाहिए उस पर विचार नहीं किया। इसके बजाय, मैंने सोच लिया कि अगुआ ने सिद्धांतों के बिना काम किया था। मैं अगुआ को पत्र लिखकर इस बारे में कहना चाहता था कि मामले को रफा-दफा कर मेरे बच्चों को कलीसिया में कर्तव्य निभाते रहने की अनुमति दी जाये। मैंने देखा कि अपने बच्चों के संबंध में भावनाओं में बहकर काम लेना एक तरह का पूर्वाग्रह और पक्षपात था, यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। आस्था के इतने बरसों में, मुझे पता था कि कलीसिया में लोगों को निकाले जाने के सिद्धांत होते हैं, ऐसा किसी की क्षणिक अभिव्यक्ति के बजाय उसके समग्र व्यवहार के आधार पर किया जाता है। जब कोई व्यक्ति अत्यधिक मदद और संगति के बाद भी पश्चात्ताप नहीं करता, और आखिरकार उसे बुरे व्यक्ति या छद्म-विश्वासी के रूप में परिभाषित किया जाता है, तभी उसके साथ सिद्धांतों के अनुसार निपटा जाता है, और कलीसिया के कम से कम 80% लोगों से मंजूरी मिलने पर ही किसी को निकाला जा सकता है। यह उचित और सत्य के अनुरूप है। मैंने अपने बेटे के बारे में सोचा कि कैसे जब मैंने उससे पूछा था कि वह कर्तव्य निभाने क्यों आया है, तो उसने कहा था, “मैं कर्तव्य निभाने आया क्योंकि मुझे आपकी याद आती थी।” मैंने देखा उसके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी, वह सत्य से प्रेम नहीं करता था, वह सत्य का अनुसरण करने के लिए कर्तव्य नहीं निभाता था। जब उसने देखा कि परमेश्वर का घर निरंतर सत्य पर संगति करता था और इससे उसकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती थी, तो वह अपना कर्तव्य छोड़ देना चाहता था। अगुआओं ने उससे काफी संगति की थी, पर उसने कभी ध्यान नहीं दिया। घर लौटने के बाद, जब उसके पास समय होता, तो परमेश्वर के वचन पढ़ने के बजाय वह गेम खेलना पसंद करता था। वह एक छद्म-विश्वासी था! इसी तरह, हमारी बेटी करीब एक दशक से विश्वासी थी, पर परमेश्वर के वचन विरले ही खाती-पीती थी, उसकी सोच अविश्वासियों जैसी थी। भले ही वह समय-समय पर अपना कर्तव्य निभाती थी, पर जब वह उसकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता या उसके हितों पर असर पड़ता, तो वह ऐसा नहीं करती। उसे परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं थी और उसका सार भी छद्म-विश्वासियों वाला था।

मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “जब किसी को वाकई परमेश्वर की नजर में पीछे हटने वाला व्यक्ति माना जाता है, तो यह असल में केवल उसके परमेश्वर का घर छोड़ने, उसके अब दिखाई न देने या उसे कलीसिया की सूची से निकाले जाने का मामला नहीं होता। तथ्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ता, तो उसकी आस्था चाहे कितनी भी अधिक क्यों न हो, चाहे वह स्वयं को परमेश्वर का विश्वासी मानता हो या न मानता हो, यह साबित करता है कि वह अपने हृदय में यह स्वीकार नहीं करता कि परमेश्वर का अस्तित्व है और न ही यह स्वीकार करता है कि उसके वचन सत्य हैं। परमेश्वर की दृष्टि में वह व्यक्ति पहले ही पीछे हट चुका है और अब वह उसके घर का सदस्य नहीं माना जाता है। जो लोग परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते वे ऐसे किस्म के ही लोग हैं जो पीछे हट गए हैं। ... एक और किस्म है : वे जो अपने कर्तव्य निभाने से इनकार करते हैं। परमेश्वर का घर उनसे चाहे जो अनुरोध करे, उनसे जिस भी तरह का काम करने को कहे, कोई भी कर्तव्य निभाने को कहे, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, यहाँ तक कि कभी-कभार कोई संदेश पहुँचाने वाला सरल-सा काम ही क्यों न हो—वे उस काम को नहीं करना चाहते। वे, परमेश्वर के स्व-घोषित विश्वासी, ऐसे कार्य भी नहीं कर सकते जिनमें एक अविश्वासी तक की मदद ली जा सकती है; यह सत्य स्वीकारने और कर्तव्य निभाने से इनकार करना है। भाई-बहन उन्हें चाहे कैसे भी प्रोत्साहित करें, वे इससे इनकार कर इसे स्वीकार नहीं करते; जब कलीसिया उनके लिए कोई कर्तव्य निभाने की व्यवस्था करती है, तो वे उसे अनदेखा कर देते हैं और उससे इनकार करने के लिए ढेरों बहाने बनाते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो कर्तव्य निभाने से इनकार करते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे लोग पहले ही पीछे हट चुके होते हैं। उनके पीछे हटने का संबंध इस बात से नहीं है कि परमेश्वर के घर ने उन्हें बाहर निकाल दिया है या उन्हें अपनी सूची से हटा दिया है; बल्कि इसका संबंध इस बात से है कि अब खुद उन्हीं में सच्ची आस्था नहीं रह गई है—वे खुद को परमेश्वर का विश्वासी नहीं मानते(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। “परमेश्वर पर विश्वास न रखने वाले प्रतिरोधियों के सिवाय भला शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनसे अंतःकरण और प्रेम से पेश आते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि लोग इस बिंदु तक आ गए हैं और अच्छाई-बुराई में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर के इरादों को खोजने की कोई इच्छा किए बिना या परमेश्वर के इरादों को अपने इरादे मानने में असमर्थ रहते हुए आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं तो उनका अंत और भी अधिक खराब होगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)

हुइयुआन, परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना बड़ा बेवकूफ था। मैंने अपने बच्चों को कलीसिया में बनाये रखने के लिए मानवीय साधन इस्तेमाल करना चाहता था, सोचता था अगर वे कलीसिया में थोड़ा श्रम करते रहे तो आखिर में बचे रह सकते हैं। मगर परमेश्वर के वचन की रोशनी में देखा कि मेरी सोच कितनी बेतुकी थी। असल में, जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं पर उसके वचन नहीं पढ़ते या कर्तव्य नहीं निभाते, वे कलीसिया से भले ही न निकाले गए हों, परमेश्वर उन्हें विश्वासियों के रूप में बिल्कुल नहीं पहचानता, क्योंकि वे परमेश्वर की नज़रों में पहले ही गिर चुके हैं। मैंने इसकी तुलना अपने बच्चों के व्यवहार से की। अपनी आस्था के इतने बरसों में, शाओताओ परमेश्वर के वचनों को पढ़ने या कर्तव्य निभाने के बजाय अभी भी सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागता था। मैंने देखा उसे सत्य से ज़रा भी प्रेम नहीं था, दरअसल वह सत्य से विमुख था और एक छद्म-विश्वासी था। शाओमिन ने बरसों से आस्था रखी पर कभी परमेश्वर के वचनों को पढ़ने पर ध्यान नहीं दिया, और इस बात पर ही उसे छद्म-विश्वासी बताकर कलीसिया से निकाला जा सकता था। परमेश्वर के घर को बस गिनती बढ़ाने के लिए ऐसे लोगों की जरूरत नहीं है, ऐसे छद्म-विश्वासियों के श्रम की जरूरत तो और भी नहीं है। अगर कलीसिया ने उन्हें निकाला न होता, तब भी परमेश्वर उन्हें विश्वासी नहीं मानता। इन अहसासों के साथ, मैं पूरी तरह से समझ गया कि शाओताओ और शाओमिन को हटाया जाना पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप था। मुझे उनकी पहचान होनी चाहिए थी, सत्य सिद्धांतों की रोशनी में चीजों को देखकर परमेश्वर का साथ देना था, उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था। मगर मैं अपने बच्चों के मामले में मोह पर निर्भर रहा, तथ्यों को जाने बिना यह संदेह किया कि अगुआ ने उन्हें गलत तरीके से निकाला होगा, और मैं इन छद्म-विश्वासियों को बस गिनती बढ़ाने के लिए कलीसिया में रखना चाहता था। मैं हमेशा अपने दैहिक संबंधों की रक्षा करता रहा। क्या मैं शैतान के प्रति नेक इरादे और प्रेम भाव रखकर शैतान से सांठ-गांठ नहीं कर रहा था, जैसा कि परमेश्वर ने उजागर किया था? मैं सही-गलत में भेद किये बिना, शैतान के साथ जुड़कर असल में परमेश्वर का विरोध कर रहा था।

मैंने यह भी सोचा कि जब मुझे पता चला कि हमारे बच्चों को निकाला जा रहा है तो मुझे इस कदर अपराध बोध और खेद क्यों हुआ, मुझे ऐसा क्यों लगा कि मैंने पिता होने की जिम्मेदारी नहीं निभाई, यह संदेह किया कि अगर मुझे घर लौटने का समय मिलता, उनके साथ संगति और मदद की होती, तो वे इस अंजाम तक नहीं पहुँचते। हुइयुआन, क्या तुम्हारी दशा भी मेरे जैसी है? बाद में, मैंने पारंपरिक सोच को उजागर कर उनका विश्लेषण करने वाले वचन पढ़े, और जाना कि मैं “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है” की पारंपरिक धारणा से प्रभावित था। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,’ यह किस प्रकार की अभिव्यक्ति है? यह किस तरह से गलत है? इस अभिव्यक्ति का मतलब यह है कि अगर बच्चे अवज्ञाकारी या अपरिपक्व हैं, तो यह पिता की जिम्मेदारी है, यानी माता-पिता ने उन्हें अच्छी शिक्षा नहीं दी। मगर क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं।) कुछ माता-पिता सही ढंग से आचरण करते हैं, और फिर भी उनके बेटे गुंडे-बदमाश और उनकी बेटियाँ वेश्याएँ हैं। पिता की भूमिका निभाने वाला व्यक्ति बहुत गुस्से में कहता है : ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है। मैंने उन्हें बिगाड़ दिया है!’ यह कहना सही है या नहीं? (नहीं, यह गलत है।) यह किस तरह से गलत है? अगर तुम समझ सकते हो कि इस अभिव्यक्ति में क्या गलत है, तो यह साबित होता है कि तुम सत्य को समझते हो और तुम यह भी समझते हो कि इस अभिव्यक्ति में निहित समस्या के बारे में क्या गलत है। अगर तुम इस मामले में सत्य नहीं समझते हो, तो तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। “पहली बात जो स्पष्ट करनी है वह यह है कि ‘बच्चों का सही मार्ग पर नहीं चलना उनके माता-पिता के कारण है,’ यह कहना गलत है। चाहे कोई भी हो, अगर वह किसी खास तरह का व्यक्ति है, तो वह एक खास मार्ग पर चलेगा। क्या यह सही नहीं है? (सही है।) व्यक्ति जो मार्ग अपनाता है, उससे निर्धारित होता है कि वह क्या है। वह जो मार्ग अपनाता है और जिस तरह का व्यक्ति बनता है, यह स्वयं पर निर्भर करता है। ये ऐसी चीजें हैं जो पूर्व-निर्धारित, जन्मजात हैं, और इनका संबंध व्यक्ति की प्रकृति से है। तो माता-पिता की शिक्षा का क्या महत्व है? क्या यह किसी व्यक्ति की प्रकृति को नियंत्रित कर सकती है? (नहीं।) माता-पिता की शिक्षा मानव प्रकृति को नियंत्रित नहीं कर सकती और न ही इस समस्या को हल कर सकती है कि व्यक्ति किस मार्ग पर जाएगा। वह एकमात्र शिक्षा क्या है जो माता-पिता दे सकते हैं? अपने बच्चों के दैनिक जीवन में कुछ सरल व्यवहार, कुछ एकदम सतही विचार और आचरण के नियम—ये ऐसी चीजें हैं जिनका माता-पिता से कुछ लेना-देना है। बच्चों के बालिग होने से पहले, माता-पिता को अपनी उचित जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, यानी अपने बच्चों को सही मार्ग पर चलना, कड़ी मेहनत से पढ़ाई करना और बड़े होने पर बाकी लोगों से ऊपर उठने में सक्षम होने का प्रयास करना, बुरे काम नहीं करना या बुरे इंसान नहीं बनना सिखाना चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों के व्यवहार को भी नियंत्रित करना चाहिए, उन्हें विनम्र होना सिखाना चाहिए और अपने से बड़ों से मिलने पर उनका अभिवादन करना सिखाना चाहिए, और उन्हें व्यवहार से संबंधित अन्य बातें सिखानी चाहिए—यही वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को पूरी करनी चाहिए। अपने बच्चे के जीवन का ख्याल रखना और उसे आचरण के कुछ बुनियादी नियमों की शिक्षा देना—माता-पिता का प्रभाव इतना ही है। जहाँ तक उनके बच्चे के व्यक्तित्व का सवाल है, माता-पिता यह नहीं सिखा सकते। कुछ माता-पिता शांत स्वभाव के होते हैं और हर काम आराम से करते हैं, जबकि उनके बच्चे बहुत अधीर होते हैं और थोड़ी देर के लिए भी शांत नहीं रह पाते। वे 14-15 साल की उम्र में अपने से ही जीविकोपार्जन करने के लिए निकल पड़ते हैं, वे हर चीज में अपने फैसले खुद लेते हैं, उन्हें अपने माता-पिता की जरूरत नहीं होती और वे बहुत स्वतंत्र होते हैं। क्या यह उन्हें उनके माता-पिता सिखाते हैं? नहीं। इसलिए, किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व, स्वभाव और यहाँ तक कि उसके सार, और साथ ही भविष्य में वह जो मार्ग चुनता है, इन सबका उसके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। ... कुछ माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपने बच्चों को भी परमेश्वर में विश्वास करना सिखाते हैं, मगर चाहे वे जो भी कहें, उनके बच्चे विश्वास नहीं करते, और माता-पिता इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। कुछ माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, जबकि उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। एक बार जब उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास करना शुरू कर देते हैं, तो वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उसके लिए खुद को खपाते हैं, सत्य को स्वीकारने में सक्षम होते हैं, और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं, और इस प्रकार उनका भाग्य बदल जाता है। क्या यह माता-पिता की शिक्षा का परिणाम है? बिल्कुल नहीं, यह परमेश्वर की पूर्व-नियति और चयन से संबंधित है। ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है’ इस अभिव्यक्ति में एक समस्या है। हालाँकि अपने बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी माता-पिता की होती है, मगर एक बच्चे का भाग्य उसके माता-पिता द्वारा नहीं, बल्कि बच्चे की प्रकृति से निर्धारित होता है। क्या शिक्षा बच्चे की प्रकृति की समस्या हल कर सकती है? यह इसे बिल्कुल भी हल नहीं कर सकती। कोई व्यक्ति जीवन में जो मार्ग अपनाता है, वह उसके माता-पिता द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित होता है। ऐसा कहा जाता है कि ‘मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है,’ और यह कहावत मानवीय अनुभव से निकली है। व्यक्ति के बालिग होने से पहले, तुम यह नहीं बता सकते कि वह कौन-सा मार्ग अपनाएगा। जब वह बालिग हो जाएगा, और उसके पास विचार होंगे और वह समस्याओं पर चिंतन कर सकेगा, तब वह चुनेगा कि इस विस्तृत समुदाय में उसे क्या करना है। कुछ लोग कहते हैं कि वे वरिष्ठ अधिकारी बनना चाहते हैं, दूसरे कहते हैं कि वे वकील बनना चाहते हैं, और फिर कुछ और कहते हैं कि वे लेखक बनना चाहते हैं। हर किसी की अपनी पसंद और अपने विचार होते हैं। कोई भी यह नहीं कहता, ‘मैं बस अपने माता-पिता द्वारा मेरी शिक्षा पूरी किए जाने का इंतजार करूँगा। मैं वही बनूँगा जो मेरे माता-पिता मुझे बनने के लिए शिक्षित करेंगे।’ कोई भी व्यक्ति इतना बेवकूफ नहीं है। बालिग होने के बाद, लोगों के विचारों में हलचल होने लगती है और वे धीरे-धीरे परिपक्व होने लगते हैं और इस तरह उनके आगे का मार्ग और लक्ष्य अधिक स्पष्ट होने लगते हैं। इस समय तक, धीरे-धीरे यह जाहिर और स्पष्ट हो जाता है कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है, और किस समूह का हिस्सा है। यहाँ से, हरेक इंसान का व्यक्तित्व, साथ ही उसका स्वभाव और वह किस मार्ग का अनुसरण कर रहा है, जीवन में उसकी दिशा और वह किस समूह से संबंधित है, सब धीरे-धीरे स्पष्ट दिखने लगता है। यह सब किस पर आधारित है? आखिरकार, यह वही है जो परमेश्वर ने पहले से निर्धारित किया है—इसका व्यक्ति के माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। क्या अब तुम इसे स्पष्ट रूप से देख रहे हो?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। परमेश्वर के वचन “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है” की पारंपरिक धारणा का साफ तौर पर विश्लेषण करते हैं। हमारे बच्चों का भविष्य और जीवनपथ पूरी तरह उनकी प्रकृति से तय होता है। इनका हमारी परवरिश से कोई लेना-देना नहीं है। परवरिश का असर सिर्फ बच्चे के रोजमर्रा के जीवन पर या उनके बाहरी व्यवहार पर पड़ सकता है, उनकी प्रकृति पर बिल्कुल नहीं। जब बच्चों की सोच परिपक्व हो जाती है, वे अपनी सहज प्रकृति के अनुसार अलग-अलग रास्ते चुन लेते हैं, अपनी श्रेणी के हिसाब से अपना मार्ग ढूंढ लेते हैं। यह परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है, इसे कोई इंसान नहीं बदल सकता। मगर जब बच्चों के लिए आस्था का मार्ग चुनने की बात आयी, मैं उनका प्रकृति सार नहीं पहचान पाया। मैं तो अपने ही तरीके से उनकी मदद करना चाहता था, ताकि वे आस्था रखकर कलीसिया में बने रह सकें। मैंने व्यर्थ ही उनकी किस्मत बनाने के लिए अपने तरीकों पर भरोसा किया। मैं अड़ियल बनकर परमेश्वर का विरोध कर रहा था। मैं तो बस एक तुच्छ सृजित प्राणी हूँ, मेरा अपनी ही किस्मत पर कोई नियंत्रण नहीं है, तो हमारे बच्चों का भविष्य तय करने या उनकी किस्मत बदलने की उम्मीद कैसे कर सकता था? मैं बहुत अहंकारी और अज्ञानी था, मैंने अपनी क्षमताओं को ज्यादा ही आंक लिया था। फिर मैंने विचार किया, “मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ?” मैंने याद किया, जब वे छोटे थे तो कैसे हम सब मिलकर प्रभु में विश्वास रखते थे, और हमने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारा था, हम उन्हें कलीसिया लेकर गये और कर्तव्य निभाने के लिए प्रोत्साहित किया। मैं सोचता था कि उनके परमेश्वर में आस्था रखने का सीधा संबंध हमारी परवरिश से था। इसलिए, जब मुझे पता चला कि उन्हें निकाल दिया गया है, तो लगा कि मैंने पिता होने की जिम्मेदारियां नहीं निभाई, और अगर मैं उनके साथ रहकर उनकी ज्यादा मदद और संगति कर पाता, तो शायद वे अपनी आस्था छोड़कर दुनिया के पीछे नहीं भागते। अब परमेश्वर के वचन से मैंने जाना है कि मेरी सोच कितनी बेतुकी थी और कैसे वे बिल्कुल भी सत्य के अनुरूप नहीं थे। उन्होंने करीब एक दशक से परमेश्वर में विश्वास किया, उसके वचन पढ़े, उपदेश सुने, और यह जानते थे कि सत्य का अनुसरण कर और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाकर ही हम सच्चा जीवन जी सकते हैं। मगर सत्य में उनकी कोई रुचि नहीं थी, और जब उन्होंने देखा कि इतने बरसों की आस्था के बाद भी उन्हें आशीष नहीं मिली, तो वे सांसारिक चीजों और दैहिक सुख के पीछे भागने लगे। सच्चे मार्ग को जानकर भी, उन्होंने परमेश्वर को धोखा दिया और सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागे, और दूसरे लोग भी जब संगति कर उनकी मदद करना चाहते, तो वे अड़ियल बनकर पश्चात्ताप नहीं करते थे। इससे पता चलता है कि वे प्रकृति से वाकई सत्य से विमुख हैं और बुराई का साथ देते हैं। वे ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाता है, बल्कि वे इस संसार और शैतान के हैं। आने वाली आपदाओं में जब उन्हें नष्ट किया जाएगा, तो इसकी वजह होगी कि उन्होंने परमेश्वर को धोखा दिया, और यह सिर्फ उनकी गलती होगी। मैंने यह भी सोचा कि कलीसिया में कितने लोगों का मत-परिवर्तन उनके माता-पिता ने नहीं किया था, बल्कि ऐसा संयोग से हुआ था, जब सहकर्मियों, दोस्तों या अजनबियों ने उनके साथ सुसमाचार साझा किया, और उनके माता-पिता की बंदिशें उन्हें विश्वास रखने या कर्तव्य रखने से नहीं रोक सकीं। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को उपदेश देने में अपने मोह पर निर्भर रहते हैं, मगर बच्चे उन पर विश्वास नहीं करते, यहाँ तक कि उनका विरोध और विद्रोह भी करते हैं। कुछ माता-पिता पश्चात्ताप किये बिना रुतबे के पीछे भागने और अनेक बुराइयाँ करने के कारण निकाल दिए जाते हैं, फिर भी उनके बच्चों पर कोई असर नहीं पड़ता, वे परमेश्वर के वचन की रोशनी में उनके सार को पहचान कर उन्हें ठुकरा भी देते हैं। इसी तरह, अनेक बच्चों को निकाल बाहर किया जाता है, और उनके माता-पिता परमेश्वर के वचन की रोशनी में उनके सार को पहचान पाते हैं। इससे हम देख सकते हैं कि कोई व्यक्ति सही मार्ग चुनता है या गलत, वह नेक इंसान है या बुरा, वह सत्य से प्रेम करता है या नफरत, और चाहे उसका अंतिम परिणाम जो भी हो, यह पूरी तरह उसके प्रकृति सार से तय होता है, यह उसकी परवरिश का नतीजा नहीं है। माता-पिता की जिम्मेदारी बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करने और उन्हें परमेश्वर के समक्ष लाने की है। मगर उनकी किस्मत और जिस रास्ते पर वे चलते हैं, वह माता-पिता के नियंत्रण में बिल्कुल नहीं है। हमारे बच्चों ने खुद ही गलत मार्ग पर चलने का रास्ता चुना, और मेरे पिता होने की जिम्मेदारी निभा लेने तक से उन्हें वापस नहीं लाया जा सकता। इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि मैंने ये जिम्मेदारियां निभाई या नहीं। उनकी प्रकृति सत्य से विमुख होने की है। अगर मैं उनके साथ रहकर दिन भर संगति करता रहता, तब भी इसका कोई फायदा नहीं होता। जब मैंने अपने बच्चों के बारे में परमेश्वर के वचन के अनुसार सोचा, तो मैंने बहुत आजाद महसूस किया, अब मुझे अपना कर्तव्य निभाने में कोई दिक्कत नहीं है।

हुइयुआन, इन दिनों के हालात से मुझे यही समझ हासिल हुई है। मैं जानता हूँ हमारे बच्चों के प्रति तुम्हारा मोह गहरा है, और यह सब सह पाना तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल रहा होगा। मुझे नहीं पता तुम इन हालात से कैसे उबर पाई। हमारे बच्चों का निकाला जाना भले ही हमारी धारणाओं के अनुरूप न हो, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हालात में हमारे सीखने के लिये सबक होते हैं। मुझे उम्मीद है तुम इसमें सत्य की खोज कर, इस मामले से ठीक से पेश आ पाओगी। इन हालात से तुम्हें कुछ हासिल हुआ हो, तो तुम भी मुझे लिख सकती हो। मुझे तुम्हारे जवाब का इंतजार रहेगा।

तुम्हारा,  

झोऊ मिंग  

20 अगस्त 2022

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