62. आँखें बंद कर लोगों की आराधना करने के बाद आत्मचिंतन
2019 में जब मैं एक कलीसिया में अगुआ थी, तो मैं दो उच्च अगुआओं से मिली। वे जब सत्य पर संगति कर मसलों का समाधान करती थीं, तो मामले की तह तक जाती थीं, सिलसिलेवार ढंग से, वे सतह से शुरू कर गहराई तक चीजों का विश्लेषण करती थीं। मुझे लगता कि इसे सुनकर मुझे लाभ होता था। मैं सोचती थी कि उन्हें चीजों की गहरी समझ है, उनके पास सत्य वास्तविकता है। जीवन के अपने सीमित अनुभव से मैंने अनुमान लगाया कि ऐसी मार्गदर्शकों के होने से, मेरी प्रगति यकीनन तेज होगी, मैं ज्यादा सत्य जान पाऊँगी, और मेरा उद्धार पक्का हो जाएगा। इसके बाद, काम में कैसे भी मसलों या मुश्किलों से मेरा सामना होता, तो मैं सबसे पहले मदद के लिए उन्हें पत्र लिखती थी। वे विस्तार से जवाब लिखकर मुझे पूरा मार्गदर्शन देती थीं, समस्याओं के हल बताती थीं। मैं उनका और भी ज्यादा आदर कर उन पर भरोसा करने लगी थी। समय के साथ, मैं हर छोटा-बड़ा मसला, यहाँ तक कि सामान्य मामला सुलझाने के लिए भी उनसे मदद माँगने लगी। जब भी निराश होती, तो परमेश्वर के वचन पढ़ने, सत्य खोजने पर ध्यान देने, या अपनी सहयोगी बहन से संगति के बजाय, मैं समाधान के लिए उन अगुआओं के साथ सभा का इंतजार करती थी। जब वे सभाओं में संगति साझा करतीं, तो मैं बड़े ध्यान से सुनकर जरूरी बातें लिख लेती थी, इस डर से कि कहीं कुछ छूट न जाए। सभाओं में, वे अक्सर हमारी समस्याएँ बताकर उनका विश्लेषण करती थीं, और काट-छाँट होने पर अगर हम बहस कर खुद को सही बताते, तो वे उसी वक्त हमारी पोल खोल देती थीं। कभी-कभी जब मैं अनजाने ही थोड़ी भ्रष्टता दिखाती, तो वे उसके पीछे के मंसूबे दिखाकर, मेरे कर्मों की प्रकृति का विश्लेषण कर देती थीं। इससे मुझे और ज्यादा लगने लगा था कि वे सत्य को समझती थीं, और उसकी वास्तविकता जानती थीं, इससे मैं उनका और भी ज्यादा सम्मान और सराहना करने लगी। लेकिन कुछ समय तक उन्हें जानने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि समस्याएँ सुलझाते समय, वे सिर्फ हमारे भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करती थीं, और शायद ही कभी अपनी भ्रष्टता या अपनी असली अनुभवात्मक समझ पर संगति करती थीं। ज्यादातर वे अपने सकारात्मक प्रवेश की ही चर्चा करती थीं, मानो उनमें कोई भ्रष्टता थी ही नहीं और वे सच में सत्य पर अमल कर सकती थीं। मुझे कुछ-कुछ ऐसा लगा जैसे वे पूरी तरह काम में ही लगी रहती थीं और उनमें जीवन-प्रवेश की कमी थी, मगर फिर मैंने सोचा कि वे दूसरों के मसले समझकर हमारे काम में रास्ता दिखा पाती थीं, तो क्या यह कुछ जीवन-प्रवेश और वास्तविकता रखना नहीं था? इसलिए, मैं उनकी सराहना और चापलूसी करती रही, यहाँ तक कि उनकी कार्यशैली की भी नकल करने लगी। जब मुझे भाई-बहनों के कर्तव्य में कुछ मसले, या उनका कोई भष्ट स्वभाव दिखाई देता, तो उन अगुआओं की ही तरह मैं भी कठोरता से उन्हें उजागर कर काट-छाँट कर देती थी। नतीजतन, उनमें से कुछ लोग निराशा में डूब गए, मुझसे डरने लगे और बेबस हो गए। मैं अगुआओं की बहुत सराहना करती थी, तो मसलों का सामना होने पर, परमेश्वर का सहारा लेकर सत्य खोजने के बजाय, मैं चीजें दुरुस्त करने के लिए उन्हें खोजती थी। धीरे-धीरे, मुझे लगा कि मेरी सोच कुछ ज्यादा ही धुंधली हो रही थी और चीजें अस्पष्ट हो रही थीं। भाई-बहनों की हालत और काम के मसलों के साथ, मुझे किसी भी बात का ओर-छोर समझ नहीं आता था। पहले जो समस्याएँ हल कर लेती थी, उनका क्या करना है, यह भी मुझे समझ नहीं आता था। मगर तब भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया।
अप्रैल में एक दिन, मुझे एकाएक खबर मिली कि उन दोनों अगुआओं ने अपनी गलती मानकर इस्तीफा दे दिया था, उन्हें सत्य न खोजने वाली झूठी अगुआओं के रूप में बेनकाब किया गया था। मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि यह सच था। कुछ दिन तक मैं सोचती रही कि उन्होंने कैसे गलती मानकर इस्तीफा दिया होगा। वे कई सत्य सिद्धांत जानती थीं और काम में सक्षम थीं। वे ऐसे लोगों के रूप में उजागर की गईं जो सत्य नहीं खोजती थीं, और मैं उनके बराबर की नहीं थी, तो क्या मैं इस तरह आस्था का अभ्यास करते हुए, सही ढंग से कर्तव्य निभाकर परमेश्वर द्वारा बचाई जा सकती थी? तब मुझे सच में बेचैनी हुई। मैंने गलती मान लेने और इस्तीफा देने के बारे में भी सोचा। लेकिन मैं बहुत साफ-साफ देख पा रही थी कि मैं सही हालत में नहीं थी। मैंने खुद से पूछा कि क्या मेरी आस्था परमेश्वर में थी, या लोगों में। दो-चार उच्च अगुआओं का इस्तीफा मुझे इतना कैसे हिला सकता था, इस हद तक कि मुझे लगने लगा, परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की उम्मीद ही न रही? मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी लोगों की आराधना करती हूँ और मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी, कि मैं एक खतरनाक स्थिति में हूँ। भयभीत होकर मैंने जल्दी से प्रार्थना की, परमेश्वर से अपनी भ्रष्टता को जानने का रास्ता दिखाने की विनती की।
अगले दिन, परमेश्वर के वचनों में मैंने यह अंश पढ़ा : “उन लोगों के लिए, जो परमेश्वर का अनुसरण करने का दावा करते हैं, अपनी आँखें खोलना और इस बात को ध्यान से देखना सर्वोत्तम रहेगा कि दरअसल वे किसमें विश्वास करते हैं : क्या यह वास्तव में परमेश्वर है जिस पर तू विश्वास करता है, या शैतान है? यदि तू जानता कि जिस पर तू विश्वास करता है वह परमेश्वर नहीं है, बल्कि तेरी स्वयं की प्रतिमाएँ हैं, तो फिर यही सबसे अच्छा होता यदि तू विश्वासी होने का दावा नहीं करता। यदि तुझे वास्तव में नहीं पता कि तू किसमें विश्वास करता है, तो, फिर से, यही सबसे अच्छा होता यदि तू विश्वासी होने का दावा नहीं करता। वैसा कहना कि तू विश्वासी था ईश-निंदा होगी! तुझसे कोई ज़बर्दस्ती नहीं कर रहा कि तू परमेश्वर में विश्वास कर। मत कहो कि तुम लोग मुझमें विश्वास करते हो, मैं ऐसी बहुत सी बातें बहुत पहले खूब सुन चुका हूँ और उन्हें दुबारा सुनने की इच्छा नहीं है, क्योंकि तुम जिनमें विश्वास करते हो वे तुम लोगों के मन की प्रतिमाएँ और तुम लोगों के बीच के स्थानीय गुण्डे हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरे दिल में हलचल मच गई, खास तौर से यह अंश, “उन लोगों के लिए, जो परमेश्वर का अनुसरण करने का दावा करते हैं, अपनी आँखें खोलना और इस बात को ध्यान से देखना सर्वोत्तम रहेगा कि दरअसल वे किसमें विश्वास करते हैं।” इस वचन ने मेरे दिल को चीर दिया—लगा परमेश्वर मेरी पोल खोल रहा था। उन अगुआओं से अपनी तमाम मुलाकातों के बारे में सोचकर, और यह देखकर कि वे मसले सुलझाने और भाषण शैली में कितनी स्पष्ट और व्यवस्थित थीं, मुझे लगता कि वे सत्य जानती थीं और उनमें सत्य वास्तविकता थी, और अगर मैं उनसे ज्यादा संगति कर पाऊँ, तो जीवन में ज्यादा तेजी से आगे बढ़ पाऊँगी और मेरा उद्धार पक्का हो जाएगा। इसलिए कैसे भी मसलों या मुश्किलों से मेरा सामना होता, समाधान के लिए परमेश्वर का सहारा लेने और सत्य खोजने के बजाय, मैं हमेशा उन लोगों को खोजती, उनका सहारा लेती, और उनका ही कहा मानती। मेरे दिल में, वे मेरे आदर्श, मेरे लिए आधार स्तंभ बन चुकी थीं। अब जबकि उन्होंने अपनी गलती मानकर इस्तीफा दे दिया था, अपने कर्तव्य में बिना किसी मार्ग के, मैं दिशाहीन महसूस करने लगी थी। आखिरकार मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा से लोगों का सहारा ले रही थी, उनका सम्मान कर रही थी, न कि परमेश्वर का। ऊपर से मुझे परमेश्वर में आस्था थी, मैं कर्तव्य निभाती थी, और हर दिन परमेश्वर से प्रार्थना करती थी, लेकिन मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। मसलों से सामना होने पर, मैं हमेशा लोगों को खोजती, और उन्हीं की सुनती थी। साफ तौर पर मेरी आस्था लोगों में थी, मगर फिर भी कहती थी कि परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ। मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी, उसका तिरस्कार कर रही थी! मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। किसी व्यक्ति को ऊँचा न ठहराओ, न किसी पर श्रद्धा रखो; परमेश्वर को पहले, जिनका आदर करते हो उन्हें दूसरे और ख़ुद को तीसरे स्थान पर मत रखो। किसी भी व्यक्ति का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं होना चाहिए और तुम्हें लोगों को—विशेषकर उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य या उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। मैंने सचमच महसूस किया कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को अपमानित नहीं किया जा सकता। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और मनुष्य को परमेश्वर में विश्वास करने वाले के बतौर परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए और उसे महान मानकर उसका सम्मान करना चाहिए। हमें लोगों की आराधना और उनका आदर नहीं करना चाहिए। लेकिन अपनी आस्था में मैंने लोगों की आराधना की, जिससे परमेश्वर वास्तव में घृणा करता है। अगर मैं इसी तरह से करती रहती तो परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करती!
कुछ समय तक मैंने परमेश्वर से बहुत प्रार्थना की, और चिंतन किया कि मैं इन दोनों अगुआओं की इतनी चापलूसी क्यों करती थी। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिनसे मुझे यह मसला कुछ हद तक समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम मसीह की विनम्रता की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि ऊँचे रुतबे वाले झूठे चरवाहों की प्रशंसा करते हो। तुम मसीह की मनोहरता या बुद्धि से प्रेम नहीं करते, बल्कि उन व्यभिचारियों से प्रेम करते हो, जो संसार के कीचड़ में लोटते हैं। तुम मसीह की पीड़ा पर हँसते हो, जिसके पास अपना सिर टिकाने तक की जगह नहीं है, लेकिन उन मुरदों की तारीफ करते हो, जो चढ़ावे हड़प लेते हैं और ऐयाशी में जीते हैं। तुम मसीह के साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं हो, बल्कि खुद को खुशी-खुशी उन मनमाने मसीह-विरोधियों की बाँहों में सौंप देते हो, जबकि वे तुम्हें सिर्फ देह, शब्द और नियंत्रण ही प्रदान करते हैं। अब भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा, उनके रुतबे, उनके प्रभाव की ओर ही मुड़ता है। अभी भी तुम्हारा यही रवैया है कि मसीह का कार्य स्वीकारना कठिन है और तुम इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं रहते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुममें मसीह को स्वीकार करने की आस्था की कमी है। तुमने आज तक उसका अनुसरण सिर्फ इसलिए किया है, क्योंकि तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं था। बुलंद छवियों की एक शृंखला हमेशा तुम्हारे हृदय में बसी रहती है; तुम उनके किसी शब्द और कर्म को नहीं भूल सकते, न ही उनके प्रभावशाली शब्दों और हाथों को भूल सकते हो। वे तुम लोगों के हृदय में हमेशा सर्वोच्च और हमेशा नायक रहते हैं। लेकिन आज के मसीह के लिए ऐसा नहीं है। तुम्हारे हृदय में वह हमेशा महत्वहीन और हमेशा भय के अयोग्य है। क्योंकि वह बहुत ही साधारण है, उसका बहुत ही कम प्रभाव है और वह ऊँचा तो बिल्कुल भी नहीं है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। “किसी अगुआ या कार्यकर्ता का कोई भी स्तर हो, अगर तुम लोग सत्य की समझ और कुछ गुणों के लिए उनकी आराधना करते हो और मानते हो कि उनके पास सत्य वास्तविकता है और वे तुम्हारी मदद कर सकते हैं, और अगर तुम सभी चीजों में उनकी ओर देखते हो और उन पर निर्भर रहते हो, और इसके माध्यम से उद्धार प्राप्त करने का प्रयास करते हो, तो तुम मूर्ख और अज्ञानी हो। अंत में इन सबका कोई फल नहीं निकलेगा, क्योंकि तुम्हारा प्रस्थान-बिंदु ही अंतर्निहित रूप से गलत है। कोई कितने भी सत्य समझता हो, वह मसीह का स्थान नहीं ले सकता, और चाहे कोई कितना भी प्रतिभाशाली हो, इसका मतलब यह नहीं है कि उसके पास सत्य है—तो जो भी उनकी आराधना करता है, उनकी ओर देखता है और उनका अनुसरण करता है, वह अंततः हटा दिया जाएगा, और उसकी निंदा की जाएगी। परमेश्वर में विश्वास करने वाले केवल परमेश्वर की ओर ही देख सकते हैं और उसका ही अनुसरण कर सकते हैं। अगुआ और कार्यकर्ता, चाहे वे किसी भी श्रेणी के हों, फिर भी आम लोग ही होते हैं। अगर तुम उन्हें अपना निकटतम वरिष्ठ समझते हो, अगर तुम्हें लगता है कि वे तुमसे श्रेष्ठ हैं, तुमसे ज़्यादा सक्षम हैं, उन्हें तुम्हारी अगुआई करनी चाहिए, वे हर तरह से बाकी सबसे बेहतर हैं, तो तुम गलत हो—यह एक भ्रम है। और इस भ्रम के तुम पर क्या परिणाम होंगे? यह तुम्हें अनजाने ही अपने अगुआओं को उन अपेक्षाओं के बरक्स मापने के लिए प्रेरित करेगा जो वास्तविकता के अनुरूप नहीं हैं; और तुम्हें उनकी समस्याओं और कमियों से सही तरह से पेश आने में असमर्थ बना देगा, साथ ही, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम उनके हुनर, खूबियों और क्षमताओं की ओर गहराई से आकर्षित भी होने लगोगे, इस हद तक कि तुम्हें पता भी न चलेगा और तुम उनकी आराधना कर रहे होगे, और वे तुम्हारे परमेश्वर बन जाएँगे। वह मार्ग, जबसे वे तुम्हारे आदर्श और तुम्हारी आराधना के पात्र बनना शुरू होते हैं, तबसे उस समय तक जब तुम उनके अनुयायियों में से एक बन जाते हो, तुम्हें अनजाने ही परमेश्वर से दूर ले जाने वाला मार्ग होगा। धीरे-धीरे परमेश्वर से दूर जाते हुए भी, तुम यह विश्वास करोगे कि तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो, तुम परमेश्वर के घर में हो, तुम परमेश्वर की उपस्थिति में हो, जबकि वास्तव में, तुम्हें शैतान के नौकरों, मसीह-विरोधियों ने उससे दूर कर दिया होगा। तुम्हें इसका पता भी नहीं चलेगा। यह एक बहुत खतरनाक स्थिति है। यह समस्या हल करने के लिए आंशिक रूप से मसीह-विरोधियों की प्रकृति सार समझने की क्षमता चाहिए, और मसीह-विरोधियों के सत्य से घृणा करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले कुरूप चेहरे की असलियत देखने में क्षमता होना आवश्यक है; और साथ ही मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को गुमराह करने और फँसाने के लिए आम तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकों को जानना, और साथ ही उनके काम करने के तरीके से परिचित होना आवश्यक है। दूसरा भाग यह है कि तुम लोगों को परमेश्वर के स्वभाव और सार के ज्ञान का अनुसरण करना चाहिए। तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि केवल मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है, कि किसी व्यक्ति की आराधना करने से तुम पर विपत्ति और दुर्भाग्य ही आएगा। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि केवल मसीह ही लोगों को बचा सकता है, और तुम्हें पूरी आस्था के साथ मसीह का अनुसरण और उसके आगे समर्पण करना चाहिए। केवल यही मानव जीवन का सही मार्ग है। कोई कह सकता है : ‘हाँ, मेरे अपने दिल में अगुआओं की आराधना करने के अपने कारण हैं, मैं हर प्रतिभावान व्यक्ति की स्वाभाविक रूप से आराधना करता हूँ। मैं हर उस अगुआ की आराधना करता हूँ जो मेरी धारणाओं के अनुरूप है।’ तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हुए भी मनुष्य की आराधना करने पर क्यों तुले हुए हो? ये सब कुछ हो जाने के बाद, तुम्हें कौन बचाएगा? कौन है जो सचमुच तुम से प्रेम करता है और तुम्हारी रक्षा करता है—क्या तुम सचमुच नहीं देख पाते? अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास और उसका अनुसरण करते हो, तो तुम्हें उसके वचन पर ध्यान देना चाहिए, और अगर कोई सही तरीके से बोलता है और कार्य करता है, और यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, तो बस सत्य के प्रति समर्पित हो जाओ—क्या यह इतना सरल नहीं है? तुम इतने नीच क्यों हो? अनुसरण के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करने की जिद पर क्यों अड़े रहते हो जिसकी तुम आराधना करते हो? तुम शैतान के गुलाम क्यों बनना चाहते हो? इसके बजाय, तुम सत्य के सेवक क्यों नहीं बनते? इसमें यह देखा जाता है कि किसी व्यक्ति में समझ-बूझ और गरिमा है या नहीं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह)। ये अंश पढ़कर मुझे लगा कि मैं शैतान की गुलाम थी, जैसा कि परमेश्वर ने बताया है। लोगों की आराधना और अनुसरण मुझे पसंद था। मैं रुतबे वालों, गुणवानों और जाने माने लोगों से प्रेम करती थी। सत्य पर संगति करते और मसले सुलझाते समय उन उच्च अगुआओं को मामलों की तह तक जाते देख, और उनकी संगति को स्पष्ट और सुनियोजित देख, मैं उनकी खूबियों और कार्यक्षमताओं की ओर खिंच गई थी। मुझे लगा कि वे सत्य समझती थीं, उनमें सत्य वास्तविकता थी, तो मैंने आँखें बंदकर उनकी आराधना की, उनका सहारा लिया। मैंने सोचा कि उनकी अगुआई में मैं सत्य जान सकती थी, अपना काम ठीक से कर सकती थी, तेजी से जीवन में आगे बढ़ सकती थी, और मुझे बचाए जाने की उम्मीद होगी, उनकी मदद और मार्गदर्शन के बिना, उद्धार की मेरी उम्मीद नहीं के बराबर होगी। मैं बहुत पसोपेश में थी, बड़ी अंधी थी! परमेश्वर ही सत्य का स्रोत है। सिर्फ परमेश्वर ही लोगों को सत्य मुहैया कर सकता है, हमारी तमाम समस्याएँ मुश्किलें हल कर सकता है, और हमें शैतान की ताकतों से बचा सकता है। किसी का रुतबा कितना भी ऊँचा क्यों न हो, उनमें कितने भी गुण या क्षमताएँ हों, फिर भी वे शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए लोग ही हैं, हम न उनका सहारा ले सकते हैं, न उनकी आराधना कर सकते हैं। एक विश्वासी के रूप में भी मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। समस्याएँ सामने होने पर भी, मैंने कभी परमेश्वर का सहारा नहीं लिया, न सत्य को खोजा, बल्कि समाधान के लिए उन लोगों की प्रतीक्षा की। क्या यह बेवकूफी नहीं थी? उन अगुआओं को कुछ समस्याओं की गहरी समझ थी, और वे अपनी समझ बयान कर सकती थीं, लेकिन परमेश्वर के वचनों से बस वे इतना ही सीख पाई थीं। साथ ही, वे कितनी भी गुणी या स्पष्ट वक्ता रही हों, वे बस भ्रष्ट इंसान थीं, जिनके पास सत्य नहीं था। उन्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को भी स्वीकारना था, उन्हें परमेश्वर के उद्धार की जरूरत थी। लेकिन मैंने उनकी आराधना की, उन्हें आदर से देखा। उद्धार की ओर आस्था के अपने मार्ग में मैं उनका सहारा भी लेना चाहती थी। मैं सच में बेवकूफ थी। यह देखकर मैं डर गई। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं सत्य खोजना बंद कर दूँगी, आँखें बंद कर लोगों की आराधना करूँगी, और अपने दिल में परमेश्वर से ऊँचे स्थान पर किसी इंसान को रखूँगी। मैं पहले ही खुद को परमेश्वर से दूर कर, उसे धोखा दे चुकी थी—मैं परमेश्वर विरोध के मार्ग पर थी! इस विचार ने मुझे अपराध-बोध और पछतावे से भर दिया, और मैंने परमेश्वर से प्रायश्चित्त करना चाहा।
बाद में, मुझे उन उच्च अगुआओं के इस्तीफे के कारणों का पता चला। उनमें से एक शोहरत और रुतबे के पीछे भागती थी, हमेशा दिखावा कर काम में सराहना पाना चाहती थी। जब उसके काम के कुछ नतीजे नहीं मिले, तो वह उदास होकर निराश हो गई। भाई-बहनों ने कई बार उससे संगति कर उसकी मदद करने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं बदली। आखिरकार, वह कोई असली काम नहीं करवा पाई, तो उसने छोड़ दिया। दूसरी अपने परिवार की अड़चनों का सामना करते हुए, परमेश्वर में आस्था रखने की मुश्किलों के बारे में शिकायत करती रहती थी, इसलिए वह अपना काम छोड़, अपने परिवार के साथ रहने घर लौट गई। यह सुनकर मैं चौंक गई। वे आम तौर पर सभाओं में बड़ी-बड़ी बातें करती थीं, दूसरों की समस्याएँ सुलझाने में माहिर थीं, तो वैसे ही मसलों से खुद का सामना होने पर वे कैसे लड़खड़ा गईं? वे सत्य पर अमल क्यों नहीं कर पाईं? पहले मैं सोचती थी कि वे सत्य पर अमल कर सकती थीं, उनमें सत्य वास्तविकता थी, लेकिन फिर मैंने देखा कि उनमें सत्य वास्तविकता है ही नहीं। अपने हितों से कोई समझौता होते ही, उन्होंने भुनभुनाकर अपना कर्तव्य छोड़ दिया। उन्होंने सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं किया। मेरे दिल में उनकी जो ऊँची छवि थी, वह पल भर में ढह गई।
बाद में, मैंने इस मसले पर परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर के वचनों को मानते हुए स्थिरता के साथ उनकी व्याख्या करने के योग्य होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हारे पास वास्तविकता है; बातें इतनी भी सरल नहीं हैं जितनी तुम सोचते हो। तुम्हारे पास वास्तविकता है या नहीं, यह इस बात पर आधारित नहीं है कि तुम क्या कहते हो; अपितु यह इस पर आधारित है कि तुम किसे जीते हो। जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन और तुम्हारी स्वाभाविक अभिव्यक्ति बन जाते हैं, तभी कहा जा सकता है कि तुममें वास्तविकता है और तभी कहा जा सकता है कि तुमने वास्तविक समझ और असल आध्यात्मिक कद हासिल कर लिया है। तुम्हारे अंदर लम्बे समय तक परीक्षा को सहने की क्षमता होनी चाहिए, और तुम्हें उस समानता को जीने के योग्य होना अनिवार्य है, जिसकी अपेक्षा परमेश्वर तुम से करता है; यह मात्र दिखावा नहीं होना चाहिए; बल्कि यह तुम में स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होना चाहिए। तभी तुम में वस्तुतः वास्तविकता होगी और तुम जीवन प्राप्त करोगे। ... इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हवा और लहरें कितनी भयंकर हैं, यदि तुम अपने मन में थोड़-सा भी सन्देह किए बिना खड़े रह सकते हो और तुम स्थिर रह सकते हो और उस समय भी इन्कार करने की स्थिति में नहीं रहते हो जब तुम ही अकेले बचते हो, तब यह माना जाएगा कि तुम्हारे पास सच्ची समझ है और वस्तुतः तुम्हारे पास वास्तविकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल सत्य का अभ्यास करना ही इंसान में वास्तविकता का होना है)। “राज्य के अच्छे सैनिक उन लोगों के समूह के रूप में प्रशिक्षित नहीं होते जो मात्र वास्तविकता की बातें करते हैं या डींगें मारते हैं; बल्कि वे हर समय परमेश्वर के वचनों को जीने के लिए प्रशिक्षित होते हैं, ताकि किसी भी असफलता को सामने पाकर वे झुके बिना लगातार परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकें और वे फिर से संसार में न जाएँ। इसी वास्तविकता के विषय में परमेश्वर बात करता है; और मनुष्य से परमेश्वर की यही अपेक्षा है। इसलिए परमेश्वर द्वारा कही गई वास्तविकता को इतना सरल न समझो। मात्र पवित्र आत्मा के द्वारा प्रबुद्ध होना वास्तविकता रखने के समान नहीं है। मनुष्य का आध्यात्मिक कद ऐसा नहीं है, अपितु यह परमेश्वर का अनुग्रह है और इसमें मनुष्य का कोई योगदान नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को पतरस की पीड़ाएँ सहनी होंगी और इसके अलावा उसमें पतरस का गौरव होना चाहिए जिसे वे परमेश्वर के कार्य प्राप्त कर लेने के बाद जीते हैं। मात्र इसे ही वास्तविकता कहा जा सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल सत्य का अभ्यास करना ही इंसान में वास्तविकता का होना है)। “वह ज्ञान जिसकी तुम चर्चा करते हो वह सत्य के अनुरूप है या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि तुम्हारे पास उसका व्यावहारिक अनुभव है या नहीं। जहाँ तुम्हारे अनुभवों में सच्चाई होगी, वहाँ तुम्हारा ज्ञान व्यावहारिक और मूल्यवान होगा। तुम अपने अनुभव के माध्यम से, विवेक और अंतर्दृष्टि भी प्राप्त कर सकते हो, अपने ज्ञान को गहरा कर सकते हो, तुम्हें कैसा आचरण करना चाहिए, इस बारे में अपनी बुद्धि और सामान्य बोध बढ़ा सकते हो। जिन लोगों में सत्य नहीं होता, उनके द्वारा व्यक्त ज्ञान मात्र सिद्धांत होता है, फिर भले ही वह ज्ञान कितना ही ऊँचा क्यों न हो। जब देह के मामलों की बात आती है तो हो सकता है कि इस प्रकार का व्यक्ति बहुत बुद्धिमान हो, परन्तु जब आध्यात्मिक मामलों की बात आती है तो वह अंतर नहीं कर पाता। क्योंकि आध्यात्मिक मामलों में ऐसे लोगों को कोई अनुभव नहीं होता। ऐसे लोग आध्यात्मिक मामलों में प्रबुद्ध नहीं होते और उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। चाहे तुम किसी भी तरह का ज्ञान व्यक्त करो, अगर यह तुम्हारा अस्तित्व है, तो यह तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव है, तुम्हारा वास्तविक ज्ञान है। जो लोग केवल सिद्धांत की ही बात करते हैं—जिनमें सत्य या वास्तविकता नहीं होती—वे जिस बारे में बात करते हैं, उसे उनका अस्तित्व भी कहा जा सकता है, क्योंकि उनका सिद्धांत गहरे चिंतन से ही आया है और यह उनके गहरे मनन का परिणाम है। परन्तु यह केवल सिद्धांत ही है, यह कल्पना से अधिक कुछ नहीं है!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य)। परमेश्वर के वचन पढ़ना मेरे लिए एक जागृति थी। मैं उन दोनों अगुआओं का इतना आदर करती थी, क्योंकि मुझे समझ नहीं थी कि सिद्धांत क्या है और वास्तविकता क्या है। सभाओं में उन्हें शानदार संगति करते और दूसरों की भ्रष्टता उजागर कर विश्लेषण करते देख, मैंने सोचा था कि उनमें सत्य वास्तविकता थी। लेकिन फिर इन अंशों से मैंने जाना कि परमेश्वर के वचनों की समझ पर संगति करना और कुछ मसलों का विश्लेषण करना, सत्य वास्तविकता को समझना नहीं है। वास्तविकता को समझना यह होता है कि लोग परमेश्वर के वचन पढ़कर उन्हें स्वीकारें और उन पर अमल करें, कैसे भी परीक्षणों से सामना हो, परमेश्वर को समर्पित हो सकें, और सत्य पर अमल कर गवाही दे सकें। जिन्हें वास्तविकता की समझ है, वे अपनी भ्रष्ट प्रकृति को सही मायनों में समझते हैं, और परमेश्वर के वचनों का निजी अनुभव रखते हैं। वे परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने में भाई-बहनों की मदद करने में अपने वास्तविक अनुभवों का इस्तेमाल कर सकते हैं। जिन लोगों में सत्य वस्तविकता होती है, वे सिद्धांतों के अनुसार काम करते हैं और वफादारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं। कैसी भी स्थितियों से उनका सामना हो, वे कलीसिया के कार्य का मान रखकर अपना कर्तव्य पूरा कर सकते हैं। ये दोनों अगुआ आम तौर पर अपनी संगति में सचमुच माहिर थीं, और दूसरे लोगों की समस्याएँ सुलझा सकने वाली लगती थीं। लेकिन असली मसलों से सामना होने पर, अपने हितों को बचाने के लिए उन्होंने अपना कर्तव्य छोड़ दिया। मैं समझ गई कि वे सिर्फ सिद्धांत साझा करती थीं, और यह व्यावहारिक नहीं था, और वास्तविकता की पहली ही खुराक मिलते ही वे टूट गईं। इससे यह साबित हो गया कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करती थीं, और उनमें जरा-सी भी सत्य वास्तविकता नहीं थी। साथ ही, दूसरे लोगों की समस्याएँ सुलझाते वक्त, वे इन मसलों को परमेश्वर के वचनों के साथ रख उन्हें समझाने में मदद करती थीं, मगर शायद ही कभी खुद की भ्रष्टता और कमियों के बारे में बताती थीं, या अपने गलत मंसूबों का विश्लेषण करती थीं। मैंने उन्हें विरले ही सत्य खोजने और उसका अभ्यास करने की अपनी अनुभवजन्य समझ के बारे में कुछ बोलते सुना। ज्यादातर समय वे घमंड दिखाते हुए दूसरों का विश्लेषण और निंदा करती थीं, मानो वे भ्रष्ट नहीं थीं, उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं था। उनकी आलोचना सुन कुछ भाई-बहन आँसू बहाने लगते, निराशा और कमजोरी में जीने लगते, उनसे मिलने से डरते, और उनके सामने बेबस महसूस करते। फिर मैंने साफ तौर पर देखा कि ये दोनों अगुआ सत्य से जुड़ी समस्याओं को सुलझा ही नहीं सकती थीं। वे बस खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत का इस्तेमाल कर अपने दिमाग और कार्य-अनुभव का सहारा लेती थीं। वे जीवन-प्रवेश में हमारे मसले सुलझा ही नहीं सकती थीं। पहले मुझे उनकी समझ नहीं थी, मैं बस उनकी आराधना और आदर करती थी, और उनकी कार्यशैली की भी नक़ल करती थी। मैं बहुत अंधी थी!
इसके बाद अपने काम में मुश्किलें आने पर, मैं परमेश्वर का सहारा लेना, उसकी ओर देखना और सत्य सिद्धांत खोजना नहीं भूली। कुछ समय तक, ऐसे कुछ काम थे जिन्हें करने का तरीका मुझे नहीं आता था, कुछ ऐसे मसले थे जिनका समाधान करना मुझे नहीं आता था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर उसका बहुत सहारा लिया और सत्य सिद्धांतों को खोजा। साथ ही मैंने भाई-बहनों के साथ खोजा और संगति की। कुछ मसले इस तरह सुलझ गए। मैंने कुछ सत्य सिद्धांतों की समझ भी हासिल की, और अपने काम में थोड़ी तरक्की की। समय के साथ मेरी अपने काम में आस्था बढ़ी और मैं अपने जीवन-प्रवेश में आगे बढ़ पाई। मैंने सचमुच तृप्त महसूस किया। इस मुकाम पर, मैंने भीतर से महसूस किया कि अपने कर्तव्य में परमेश्वर का सहारा लेना ही आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका है। अगर मैं अच्छे ढंग से अपना काम कर सत्य हासिल करना चाहती हूँ, तो परमेश्वर के मार्गदर्शन से दूर नहीं रह सकती।