59. जब मैंने अपनी पढ़ाई पीछे छोड़ी

बचपन से ही मेरे माता-पिता मुझसे कहते थे कि उनका कोई बेटा नहीं है, सिर्फ दो बेटियाँ हैं, बड़ी मुश्किल से परिवार का गुजारा कर पाए हैं, इसलिए मुझे ही मेहनत से पढ़-लिखकर उनका गौरव बढ़ाना है और परिवार को दिखा देना है कि लड़कियाँ भी लड़कों से कम नहीं हैं। माँ की इस बात से मुझ पर गहरा असर पड़ा, मैंने कड़ी मेहनत से पढ़-लिख कर उन्हें नाज करने और मान-सम्मान दिलाने का प्रण लिया। मैं हमेशा कड़ी मेहनत करके अच्छे अंक लाती थी। जब बुजुर्ग पूछते कि मेरी पढ़ाई कैसी चल रही है तो माँ को खुशी से जवाब देते देख मैं फूली नहीं समाती थी, और लगता था कि मैं उन्हें मान-सम्मान दिलाकर गर्व महसूस करा रही हूँ।

ग्रेजुएट स्कूल में माता-पिता ने मुझसे कहा : “यहाँ अच्छे से पढ़ने के बाद पीएचडी करो। उसके बाद यूनिवर्सिटी प्रोफेसर जैसी कोई मौज की नौकरी पाओ और खूब पैसा कमाओ ताकि हम तुम पर नाज करें।” माता-पिता के मुँह से ये बातें सुनकर मैं दबाव में आ गई। इतने साल पढ़कर और इम्तेहान दे-देकर मैं तंग आ चुकी थी। मैंने उन सबके बारे में सोचा जो पीएचडी का तनाव न झेल पाने के कारण कूदकर मर गए, डरती थी कि कहीं मैं भी ऐसा न कर बैठूँ। मैं आगे नहीं पढ़ना चाहती थी। लेकिन माता-पिता की उम्मीद भरी आँखों में झाँककर मैं उन्हें ना नहीं कह पाई।

उस समय मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया था, लेकिन इतनी व्यस्त रहने के कारण मैं सभाओं में नहीं जा पाती थी। ग्रेजुएट स्कूल के बाद जब मैं देहात में पढ़ाने लगी, तब जाकर मैं एक स्थानीय कलीसिया की सभाओं में शिरकत कर सकी। एक सभा में बहन झाँग लू ने मुझे बताया कि ज्यादा से ज्यादा लोग अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार रहे हैं और सिंचन कार्यकर्ताओं की सख्त जरूरत है। उसने पूछा कि क्या मैं नए सदस्यों का सिंचन करना चाहूँगी। मुझे बचपन की याद आ गई जब साइकिल चलाते हुए मुझे एक ट्रक ने लगभग कुचल ही दिया था। तब परमेश्वर ने ही मेरी रक्षा की थी। कॉलेज में भी गंभीर कार हादसा हुआ लेकिन मेरे माथे पर बस एक छोटा-सा जख्म आया। तब भी परमेश्वर मेरी रखवाली कर रहा था। परमेश्वर खामोशी से मेरी रक्षा कर रहा था ताकि मैं ठीक तरह से पल-बढ़ सकूँ। मैं जानती थी कि सृजित प्राणी होने के नाते मैंने परमेश्वर का खूब अनुग्रह और सत्य का पोषण पाया है और अब मुझे अपना कर्तव्य निभाकर उसके प्रेम का कर्ज चुकाना है, इसलिए मैं खुशी-खुशी राजी हो गई। नए सदस्यों का सिंचन करते हुए परमेश्वर के वचनों की संगति और उनकी समस्याएँ हल करने के दौरान मैं और मेरी सहयोगी बहन परमेश्वर से प्रार्थना कर उसी का आसरा लेती थीं। उनकी समस्याएँ हल होते और उन्हें सच्चे रास्ते पर कदम जमाते देखकर हम बहुत खुश होती थीं और लगा कि हमारे कर्तव्य वाकई सार्थक हैं।

बाद में जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा नए सदस्यों के सिंचन की जरूरत आन पड़ी, मैंने स्कूल छोड़कर पूरे समय अपना कर्तव्य निभाना चाहा, लेकिन सोचती कि माता-पिता ने कैसे मुझसे सारी उम्मीदें लगा रखी हैं। अगर मैंने स्कूल छोड़ा तो गाँव वाले मेरे माता-पिता को नीची नजरों से देखते रहेंगे। उन्होंने मुझ पर इतना खर्च किया था, तो मैं उनका सिर कैसे झुका सकती थी? मैं सकुचा गई और नहीं जानती थी कि क्या करूँ। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम सृजित प्राणी हो—तुम्हें निस्संदेह परमेश्वर की आराधना और सार्थक जीवन का अनुसरण करना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर की आराधना नहीं करते हो बल्कि अपनी अशुद्ध देह के भीतर रहते हो, तो क्या तुम बस मानव भेष में जानवर नहीं हो? चूँकि तुम मानव प्राणी हो, इसलिए तुम्हें स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना और सारे कष्ट सहने चाहिए! आज तुम्हें जो थोड़ा-सा कष्ट दिया जाता है, वह तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक और दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना चाहिए और अय्यूब तथा पतरस के समान सार्थक जीवन जीना चाहिए। इस संसार में, मनुष्य शैतान का भेष धारण करता है, शैतान का दिया भोजन खाता है, और शैतान के अँगूठे के नीचे कार्य और सेवा करता है, उसकी गंदगी में पूरी तरह रौंदा जाता है। यदि तुम जीवन का अर्थ नहीं समझते हो या सच्चा मार्ग प्राप्त नहीं करते हो, तो इस तरह जीने का क्या महत्व है? तुम सब वे लोग हो, जो सही मार्ग का अनुसरण करते हो, जो सुधार की खोज करते हो। तुम सब वे लोग हो, जो बड़े लाल अजगर के देश में ऊपर उठते हो, जिन्हें परमेश्वर धार्मिक कहता है। क्या यह सबसे सार्थक जीवन नहीं है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (2))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, यह जिंदगी परमेश्वर ने बख्शी है और मुझे उसके लिए ही जीना चाहिए। अपने कर्तव्य में सत्य की खोज करूँ, भ्रष्ट स्वभाव छोड़ दूँ और परमेश्वर का उद्धार पाऊं—यही उचित और सार्थक जीवन है। इसलिए कई वर्षों तक मेरा जीवन सिर्फ पढ़ने-पढ़ाने तक सीमित रहा ताकि अपने माता-पिता को खुश कर सकूँ। मैं हमेशा व्यस्त रहती, लेकिन भीतर से खालीपन महसूस करती थी। यह भी नहीं जानती थी कि यह सब किस लिए है। खाली वक्त में भी ऐसा क्या कर सकती हूँ जो सार्थक हो। नहीं जानती थी कि खालीपन से छुटकारा कैसे मिलेगा। मैंने कई चीजें आजमाईं, जैसे वाद्य यंत्र बजाना, पेंटिंग करना, पढ़ना, संगीत सुनना, दौड़ना, लेकिन इनमें कोई चीज काम नहीं आई। मैं अब भी अंदर से बहुत खोखली थी। जिंदगी दिशाहीन और निरर्थक नजर आती। मैंने बरसों की कड़ी मेहनत वाले अपने अकादमिक कार्य के बारे में और सोचा। मैं स्नातकोत्तर डिग्री पाकर शिक्षिका बन चुकी थी, अपने आसपास के लोगों से प्रशंसा और स्वीकृति पाकर मेरे अहं को तुष्टि मिलती थी, लेकिन इनसे आध्यात्मिक संतुष्टि या सुख नहीं मिला। भयंकर आपदाओं में आपको महान से महान ज्ञान भी नहीं बचा सकता। सिर्फ सत्य का अनुसरण करके, अपना कर्तव्य निभाकर और भ्रष्ट स्वभाव से बचकर परमेश्वर आपको बचा पाएगा और तभी आपका वजूद रहेगा। यह समझने के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपने शिक्षक के पद से इस्तीफा देने और ग्रेजुएट स्कूल छोड़ने का फैसला किया।

एक दिन नए विश्वासियों के सिंचन से लौटने के बाद मैंने देखा कि मेरा परिवार मुझे संदेश पर संदेश भेजकर मुझसे बात करने की कोशिश कर रहा था। मेरे दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। अगर वे मेरे कर्तव्य निभाने का निपट विरोध करने लगे तो करूँगी क्या? मैंने अपनी माँ से बात की तो वह फोन पर ही चीखने लगी : “हमसे पूछे बिना तुमने स्कूल छोड़ने की जुर्रत कैसे कर दी?” उसके बाद मेरा परिवार अपने गृह नगर से दौड़ा चला आया, मुझे अपनी शिक्षिका की नौकरी पर लौटने और स्कूल की पढ़ाई पूरी करने को कहा, वरना मुझे सीधे अपने गृह नगर ले जाने की धमकी दी। मैं डर गई कि वे वाकई ऐसा कर देंगे और फिर कभी न तो सभाओं में जा सकूँगी, न अपना कर्तव्य ही निभा पाऊँगी। लिहाजा, मैं चुपचाप अपनी शिक्षिका की नौकरी पर लौट गई। लेकिन मुझे बहुत घबराहट और ग्लानि हुई। मैंने अंत के दिनों में परमेश्वर का सुसमाचार तेजी से फैलने और नए सदस्यों के सिंचन की जरूरत के बारे में सोचा, और यह भी कि मुझे अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए। लेकिन जब मैं माता-पिता की उम्मीदों के बारे में सोचती तो दुविधा में पड़ जाती। लगता था कि मैं उनकी कर्जदार हूँ और उनकी भावनाएँ आहत करने के डरती थी। एक सभा में दूसरों ने मेरी दशा देखकर मुझे परमेश्वर के वचनों का अंश सुनाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “क्या तुम लोगों में बहुतेरे ऐसे नहीं हैं, जो सही और ग़लत के बीच में झूलते रहे हैं? सकारात्मक और नकारात्मक, काले और सफेद के बीच प्रतियोगिता में, तुम लोग निश्चित तौर पर अपने उन चुनावों से परिचित हो, जो तुमने परिवार और परमेश्वर, संतान और परमेश्वर, शांति और विघटन, अमीरी और ग़रीबी, हैसियत और मामूलीपन, समर्थन दिए जाने और दरकिनार किए जाने इत्यादि के बीच किए हैं। शांतिपूर्ण परिवार और टूटे हुए परिवार के बीच, तुमने पहले को चुना, और ऐसा तुमने बिना किसी संकोच के किया; धन-संपत्ति और कर्तव्य के बीच, तुमने फिर से पहले को चुना, यहाँ तक कि तुममें किनारे पर वापस लौटने की इच्छा भी नहीं रही; विलासिता और निर्धनता के बीच, तुमने पहले को चुना; अपने बेटों, बेटियों, पत्नियों और पतियों तथा मेरे बीच, तुमने पहले को चुना; और धारणा और सत्य के बीच, तुमने एक बार फिर पहले को चुना। तुम लोगों के दुष्कर्मों को देखते हुए मेरा विश्वास ही तुम पर से उठ गया है। मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि तुम्हारा हृदय कोमल बनने का इतना प्रतिरोध करता है। सालों की लगन और प्रयास से मुझे स्पष्टतः केवल तुम्हारे परित्याग और निराशा से अधिक कुछ नहीं मिला, लेकिन तुम लोगों के प्रति मेरी आशाएँ हर गुजरते दिन के साथ बढ़ती ही जाती हैं, क्योंकि मेरा दिन सबके सामने पूरी तरह से खुला पड़ा रहा है। फिर भी तुम लोग लगातार अँधेरी और बुरी चीजों की तलाश में रहते हो, और उन पर अपनी पकड़ ढीली करने से इनकार करते हो। तो फिर तुम्हारा परिणाम क्या होगा? क्या तुम लोगों ने कभी इस पर सावधानी से विचार किया है? अगर तुम लोगों को फिर से चुनाव करने को कहा जाए, तो तुम्हारा क्या रुख रहेगा? क्या अब भी तुम लोग पहले को ही चुनोगे? क्या अब भी तुम मुझे निराशा और भयंकर कष्ट ही पहुँचाओगे?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम किसके प्रति वफादार हो?)। ये वचन सुनकर मैं भाव-विभोर हो गई। परमेश्वर ने अपना काम कर हमें बचाने के लिए देहधारण किया है, उसने अपना दिलो-जान हम पर छिड़क दिया है, ताकि अंत में हम बचाए जा सकें और कायम रहें। किसी भी समझदार और अंतरात्मा वाले इंसान को परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए ठीक से कर्तव्य निभाना चाहिए। लेकिन मैंने जब भी कर्तव्य निभाने का रास्ता चुना, तो लगा कि मैं अपने माता-पिता का सिर झुका रही हूँ, कि उन्होंने मुझ पर इतना सारा खर्च किया है और मैं उनका कर्ज नहीं चुका रही हूँ, उनके सारे स्नेह और समर्पण को मिट्टी में मिला रही हूँ। मुझे यह भी डर था कि स्कूल छोड़कर मैं अपने माता-पिता को सम्मान नहीं दिला सकूँगी और परिवार उन्हें नीची नज़र से देखेगा। मैं बस यही सोच पा रही थी कि अपने माता-पिता को कैसे संतुष्ट करूँ और उनका दिल न दुखाने के लिए अपना कर्तव्य भी त्याग दिया। सृजित प्राणी के रूप में मुझे परमेश्वर के वचनों का पोषण मिला है, लेकिन उसके प्रेम का कर्ज चुकाने के लिए मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा नहीं कर रही थी। मैं बहुत नासमझ थी। परमेश्वर को नीचा दिखा रही थी। मैं ऐसा विद्रोह कर रही थी, फिर भी परमेश्वर ने मुझे छोड़ा नहीं। वह मुझे राह दिखाता रहा और भाई-बहनों के जरिए मेरा सहारा बनता रहा। लेकिन बदले में मैंने परमेश्वर को सिर्फ पीड़ा और निराशा दी। परमेश्वर ने मुझ पर अथक प्रयास किए थे, पर मैं उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही थी। मुझे बहुत अफसोस और ग्लानि हुई, इसलिए मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं तुम्हारी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही हूँ। मैं तुम्हारी बड़ी कर्जदार हूँ। मुझे आस्था और शक्ति दो और सही फैसले करने की राह दिखाओ।” प्रार्थना के बाद मैंने अपने परिवार को पत्र भेजा कि मैं स्कूल छोड़ने और कर्तव्य निभाने का फैसला कर चुकी हूँ।

बाद में मेरे माता-पिता ने फोन कर मुझसे कहा : “अगर तुमने स्कूल छोड़ने की जुर्रत की तो हम दवा की ओवरडोज खाकर कल ही मर जाएँगे।” अपने माँ-बाप से यह सुनना बेहद पीड़ादायक था, मैं प्रार्थना करती रही : “हे परमेश्वर, वे चाहे जो कहें, मैं तुम्हें धोखा नहीं दूँगी। बस ये चाहती हूँ कि तुम मुझे सही बात कहना सिखाओ। मेरा आध्यात्मिक कद इतना छोटा है, डरती हूँ कि अज्ञानता और मूर्खता वश अनजाने में कुछ ऐसा न कह दूँ जिसे शैतान मेरे खिलाफ ही इस्तेमाल कर दे। अपनी गवाही में टिके रहने के लिए मुझे राह दिखाओ।” प्रार्थना के बाद मैंने थोड़ा-सा सहज होकर माता-पिता से कहा : “आपको पता है कि मैंने सही रास्ता चुना है, तो फिर मुझे इस तरह क्यों धमका रहे हैं? मैं सिर्फ परमेश्वर पर विश्वास करना और सत्य का अनुसरण कर अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। क्या आप मुझे अपना रास्ता तक नहीं चुनने देंगे?” मेरा माँ ने भड़कते हुए कहा : “मैं जानती हूँ कि परमेश्वर पर विश्वास करना सही रास्ता है, लेकिन कर्तव्य निभाने के चक्कर में तुमने पढ़ाई तक छोड़ दी। क्या तुम्हें लगता है कि इतने साल तुम्हारी पढ़ाई का खर्च उठाना हमारे लिए आसान था? इतनी खुदगर्ज तो मत बनो!” माँ की बात सुनकर मैंने सोचा : “इंसान को परमेश्वर ने बनाया है। हम जो भी सुख भोग रहे हैं, वह परमेश्वर की देन है। कर्तव्य निभाकर परमेश्वर के लिए खुद को खपाना हमारी जिम्मेदारी भी है और दायित्व भी। माता-पिता को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ना भी स्वार्थ ही है।” लिहाजा मैंने उनसे कहा : “मैं मन बना चुकी हूँ। आप मुझे चाहे जैसे भी रोकें, मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगी।” मेरी माँ ने तिलमिलाकर कहा : “हमने तुम पर इतना खर्च किया ताकि तुम जिंदगी में खूब आगे बढ़ो और बाकी परिवार के सामने हमारा सिर ऊँचा करो और हम आराम की जिंदगी जी सकें। तुम हमारे बारे में बिल्कुल भी नहीं सोच रही हो? तुम इतनी बेरहम हो।” मेरी बहन ने भी फोन करके मुझे जली-कटी सुनाई : “क्या तुम्हें एहसास है कि तुम्हारे स्कूल छोड़ने से गाँव में हर कोई हमें नीचा दिखाएगा और हमारे माता-पिता को अपमानित होना पड़ेगा? अगर तुमने स्कूल के साथ अपनी नौकरी छोड़ी तो मैं पुलिस बुलाकर तुम सब विश्वासियों को गिरफ्तार करवा दूँगी!” अपने परिवार से यह सब सुनना बहुत निराशाजनक था। ऐसा लगा कि उन्होंने मेरे लिए जो कुछ किया वह महज एक निवेश था। जब मैं ग्रेजुएट स्कूल में पढ़ते हुए उनके दोस्तों और परिवार के सामने उनका सिर ऊँचा उठाए रखती थी तो वे मुझसे प्यार से बात करते, कहते कि मैं उनकी सबसे प्यारी बेटी हूँ, लेकिन जब मैं उन्हें सम्मान दिलाने के बजाय सत्य का अनुसरण कर कर्तव्य निभाने लगी तो उन्होंने मुझे बुरा-भला कहा। वे मुझसे प्यार नहीं करते थे, बल्कि मेरा इस्तेमाल कर रहे थे। मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : “‘प्रेम’, जैसा कि कहा जाता है, एक ऐसा भाव है जो शुद्ध और निष्कलंक है, जहाँ तुम प्रेम करने, महसूस करने और विचारशील होने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हो। प्रेम में कोई शर्त, कोई बाधा और कोई दूरी नहीं होती। प्रेम में कोई संदेह, कोई कपट और कोई चालाकी नहीं होती। प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता और उसमें कुछ भी अशुद्ध नहीं होता(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बुलाए बहुत जाते हैं, पर चुने कुछ ही जाते हैं)। यह परमेश्वर की ओर से प्रेम की सबसे अच्छी व्याख्या है। मानवजाति के लिए परमेश्वर का प्रेम एकदम सच्चा और बेदाग है। मानवजाति को शैतान की भ्रष्टता और नुकसान से बचाने के लिए परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया और सत्य के लाखों वचन बोले हैं और खामोशी से हमारे लिए कीमत चुकाई है। परमेश्वर ने हमसे कभी कुछ नहीं माँगा। वह सिर्फ यही चाहता है कि हम सत्य का अनुसरण कर उद्धार पा सकें। हमारे लिए परमेश्वर का प्रेम निःस्वार्थ है। मेरे लिए मेरे परिवार का “प्यार” दूसरों से इज्जत पाने का जरिया था। यह प्यार नहीं, बल्कि सौदा था, खुलेआम लाभ-कमाऊ रिश्ता। मैंने परमेश्वर के वचन याद किए : “जो लोग देह में रहते हैं, वे देह के विभिन्न संबंधों और पारिवारिक बंधनों को सुख के रूप में लेते हैं। उनका मानना है कि लोग अपने प्रियजनों के बिना नहीं रह सकते। ऐसा क्यों है कि तुम यह नहीं सोचते कि तुम मनुष्य की दुनिया में कैसे आए? तुम अकेले आए थे, मूल रूप से तुम्हारा दूसरों से कोई संबंध नहीं था। परमेश्वर एक-एक करके लोगों को यहाँ लाता है; जब तुम आए थे, तो वास्तव में तुम अकेले थे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परिवार के सदस्यों में खून का करीबी रिश्ता हो सकता है लेकिन उनमें कोई आध्यात्मिक जुड़ाव नहीं होता है। हर इंसान का इस संसार में आना परमेश्वर पहले से ही तय कर चुका होता है। हर किसी को अपनी भूमिका निभानी होती है और अपने मकसद पूरे करने होते हैं। भले ही खून के रिश्ते से वे मेरे माता-पिता, और बहन हैं, लेकिन हममें कोई आध्यात्मिक जुड़ाव नहीं है। उन्होंने सिर्फ मुझे पाला-पोसा, अपनी जिम्मेदारी पूरी की, मेरी भौतिक जिंदगी को बेहतर बनाया, लेकिन वे मेरा भविष्य या मेरी नियति तय नहीं कर सकते, मुझे शैतान की भ्रष्टता और नुकसान से बचाना तो बहुत दूर की बात रही। सिर्फ परमेश्वर मुझे सत्य और जीवन दे सकता है, शुद्ध करके बचा सकता है। मेरे माता-पिता का मुझे कर्तव्य न निभाने देना, परमेश्वर के निकट न जाने देना या उसका उद्धार न पाने देना मुझे नुकसान पहुँचाकर मेरी जिंदगी बर्बाद कर रहा था। मैं उनके सामने बेबस नहीं बन सकती थी। इस एहसास के बाद मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मुझे अपने परिवार को पहचानने की समझ देने के लिए धन्यवाद। मेरे दिल की रखवाली करो ताकि मैं अडिग रह सकूँ!” अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए अगले दिन दोपहर बाद मैंने स्कूल छोड़ दिया।

बाद में मैंने मन ही मन सोचा : “जानती हूँ कि मैंने सही रास्ता चुना है, तो फिर जब भी मेरा परिवार मुझे रोकता है और मेरा कर्तव्य छुड़वाने की कोशिश करता है तो मैं क्यों हमेशा उनके प्यार से बेबस हो जाती हूँ, जैसे मैं उनकी बड़ी भारी कर्जदार हूँ? इसका सटीक कारण क्या है?” भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। “अतीत में, लोग हमेशा अपने जमीर के अनुसार कार्य करते थे और दूसरों को मापने के लिए उसका उपयोग करते थे। लोगों को हमेशा जमीर का इम्तहान पास करना पड़ता था, वे हमेशा गपशप से डरते थे, खुद पर हँसे जाने, बदनाम होने या ‘बिना जमीर का, बुरा व्यक्ति’ कहे जाने से डरते थे। इसलिए, समाज में जगह बनाने के लिए उन्हें अनिच्छा से कुछ चीजों से सहमत होना पड़ता था। अब लोगों को कैसे मापा जाता है? (सत्य के सिद्धांतों से।) उस समय चीजें कैसी थीं, जब लोगों का जीवन अविश्वासियों की धारणाओं और भ्रांतियों से बँधा हुआ था? उदाहरण के तौर पर, जब से तुम छोटे थे, तुम्हारे माता-पिता तुम्हें इस तरह के शब्दों से समझाते रहते थे : ‘बड़े होकर तुम्हें हमें गौरवान्वित करना चाहिए; तुम्हें हमारे परिवार का नाम रोशन करना चाहिए!’ ये शब्द तुम्हारे लिए क्या रहे हैं? प्रोत्साहन या अवरोध? सकारात्मक प्रभाव या एक प्रकार का नकारात्मक नियंत्रण? तथ्य यह है कि ये एक प्रकार का नियंत्रण हैं। तुम्हारे माता-पिता ऐसे किसी कथन या सिद्धांत के आधार पर, जिसे लोग सही और अच्छा मानते हैं, तुम्हारे लिए एक लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं, जिससे तुम उस लक्ष्य की पूर्ति में अपना जीवन व्यतीत करते हो और अंतत: अपनी स्वतंत्रता खो देते हो। आखिर तुम अपनी स्वतंत्रता खोकर उसके नियंत्रण में क्यों आ जाते हो? क्योंकि लोग सोचते हैं कि अपने परिवार का नाम रोशन करना एक अच्छी चीज है, जिसे किया जाना चाहिए। अगर तुम्हारे विचार वैसे नहीं हैं या तुम वे चीजें करने की इच्छा नहीं रखते जो तुम्हारे परिवार का नाम रोशन करती हैं, तो तुम्हें धरती का बोझ, निकम्मा, नाकारा समझा जाता है, और लोग तुम्हें हेय दृष्टि से देखेंगे। सफल होने के लिए तुम्हें कड़ी मेहनत से अध्ययन करना चाहिए, और अधिक कौशल प्राप्त करने चाहिए और अपने परिवार का नाम रोशन करना चाहिए। इस तरह, लोग भविष्य में तुम्हें धौंस नहीं देंगे। क्या इस लक्ष्य के लिए तुम जो कुछ भी करते हो, वे वास्तव में बेड़ियाँ नहीं हैं जो तुम्हें बाँधती हैं? (हैं।) चूँकि सफलता के पीछे दौड़ना और परिवार का नाम रोशन करना तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षा है, और चूँकि वे तुम्हारा भला चाहते हैं ताकि तुम एक अच्छा जीवन जी सको और अपने परिवार को गौरवान्वित कर सको, इसलिए तुम्हारा ऐसी जीवन-शैली की आकांक्षा करना एकदम स्वाभाविक है। लेकिन वास्तव में, ये चीजें एक तरह की परेशानियाँ और बेड़ियाँ हैं। जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे सोचते हैं कि ये चीजें सकारात्मक हैं, सत्य हैं, सही मार्ग हैं, और इसलिए वे उन्हें सच समझ लेते हैं और उनका पालन या अनुसरण करते हैं। और जब ये शब्द और अपेक्षाएँ तुम्हारे माता-पिता से आती हैं, तो तुम उनका पूरी तरह से पालन करते हो। अगर तुम इन शब्दों के अनुसार जीते हो, कड़ी मेहनत करते हो और अपनी युवावस्था और अपना पूरा जीवन उन्हें समर्पित कर देते हो, और अंत में शीर्ष पर पहुँच जाते हो, एक अच्छा जीवन जीते हो, और अपने परिवार को गौरवान्वित करते हो, तो तुम अन्य लोगों के लिए प्रतिभाशाली हो सकते हो, लेकिन अंदर से तुम अत्यधिक खोखले हो। तुम नहीं जानते कि जीवन का क्या अर्थ है, या भविष्य क्या मंजिल सँजोए है, या लोगों को जीवन में किस तरह का मार्ग अपनाना चाहिए। तुमने जीवन के उन रहस्यों के बारे में कुछ भी समझा या प्राप्त नहीं किया होता जिनके उत्तर तुम पाना, जानना और समझना चाहते हो। क्या तुम अपने माता-पिता के अच्छे इरादों से प्रभावी रूप से बरबाद नहीं हो गए हो? क्या तुम्हारी जवानी और तुम्हारा पूरा जीवन तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं से बरबाद नहीं हो गए हैं, जो उनके शब्दों में ‘तुम्हारे भले के लिए’ है? (हो गए हैं।) तो, क्या तुम्हारे माता-पिता का ‘तुम्हारे भले के लिए’ अपेक्षाएँ करना सही है या गलत? हो सकता है, तुम्हारे माता-पिता वास्तव में सोचते हों कि वे तुम्हारे भले के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य समझते हैं? क्या उनके पास सत्य है? (नहीं है।) बहुत-से लोग अपना पूरा जीवन अपने माता-पिता के इन शब्दों से चिपके हुए बिता देते हैं, ‘तुम्हें हमें गौरवान्वित करना चाहिए, तुम्हें परिवार का नाम रोशन करना चाहिए’—शब्द जो उन्हें प्रेरित और जीवन भर प्रभावित करते हैं। जब माता-पिता कहते हैं, ‘यह तुम्हारे भले के लिए है,’ तो यह व्यक्ति के जीवन के पीछे का आवेग बन जाता है, जो काम करने के लिए एक दिशा और लक्ष्य प्रदान करता है। नतीजतन, उस व्यक्ति का जीवन कितना भी मोहक क्यों न हो, कितना भी गरिमापूर्ण और सफल क्यों न हो, वह वास्तव में बरबाद हो जाता है। क्या ऐसा नहीं है? (है।) क्या इसका मतलब यह है कि अगर व्यक्ति अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के अनुसार नहीं जीता, तो वह बरबाद नहीं होता? नहीं; उसका भी अपना एक लक्ष्य होता है। वह कौन-सा लक्ष्य होता है? वह अभी भी वही होता है, अर्थात् ‘एक अच्छा जीवन जीना और अपने माता-पिता को गौरवान्वित करना,’ हालाँकि इसलिए नहीं कि उसके माता-पिता ने उसे ऐसा करने के लिए कहा है, बल्कि इसलिए कि उसने यह लक्ष्य कहीं और से स्वीकार लिया है। वह अभी भी इन शब्दों के अनुसार जीना चाहता है और अपने परिवार को गौरवान्वित करना चाहता है, और शीर्ष पर पहुँचना चाहता है, और एक सम्मानित, प्रतिष्ठित व्यक्ति बनना चाहता है। उसका लक्ष्य नहीं बदला है; वह अभी भी ये चीजें हासिल करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देता है। इसलिए, जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे कई तथाकथित सही सिद्धांत, सही कथन और समाज में प्रचलित सही विचार स्वीकार लेते हैं। फिर वे इन सही चीजों को अपने जीवन के प्रयासों की दिशा, नींव और प्रेरणा में बदल देते हैं। अंत में, लोग इन लक्ष्यों की खातिर हठपूर्वक और खुलकर जीते हैं, जीवन भर तब तक संघर्ष करते हैं जब तक कि मर नहीं जाते, कुछ लोग तो उस समय भी सत्य देखने के लिए तैयार नहीं होते। कितना दयनीय जीवन जीते हैं लोग! लेकिन जब तुम सत्य समझ जाते हो, तो क्या तुम धीरे-धीरे ये तथाकथित सही चीजें, सही शिक्षाएँ और सही कथन, और साथ ही खुद से अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ भी पीछे नहीं छोड़ देते? जब तुम धीरे-धीरे ये तथाकथित सही चीजें पीछे छोड़ देते हो, और वह मानक जिससे तुम चीजें मापते हो, अब परंपरागत संस्कृति के कथनों पर आधारित नहीं रहता, तो क्या तुम अब उन कथनों से मुक्त नहीं हो जाते? और अगर तुम उन चीजों से बँधे नहीं रहते, तो क्या तुम मुक्त होकर जीते हो? हो सकता है, तब तुम पूरी तरह से मुक्त न हुए हो, लेकिन कम से कम बेड़ियाँ ढीली तो हो ही गई होती हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य की वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं भावुक हो गई। बचपन से ही मेरी माँ ने मुझे यही कहा कि मैं हमेशा मेहनत से पढ़ूँ, आगे बढ़ूँ, उन्हें गर्व करने का मौका दूँ और परिवार की इज्जत बढ़ाऊँ। अपने परिवार को मान-सम्मान और दूसरों से प्रशंसा दिलाने के लिए मैंने “दुनिया को भूलकर किताबों में सिर खपाने” को अपना मंत्र मान लिया और पढ़ाई ही मेरा अकेला बड़ा लक्ष्य बन गया। इतने बरसों तक मैं जैसे चौबीसों घंटे पढ़ती रहने वाली मशीन बन गई। मुझे अपनी पसंद चुनने और विरोध का कोई हक नहीं था। भले ही माता-पिता और करीबी लोग मेरी तारीफ करते, लेकिन मैं अंदर से हमेशा खालीपन महसूस करती रही। मैं अक्सर खुद से पूछती : मैं ऐसे क्यों जी रही हूँ? क्या यह भी कोई सार्थक जिंदगी है? लेकिन कोई जवाब न मिलने से मैं अक्सर अवसाद और दर्द में जीती रही। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि यह सारा नुकसान शैतान का किया-धरा था। मानवजाति को बांधकर काबू में करने के लिए शैतान उसमें ऐसे जहर भरता है, जैसे “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो।” यह मानो बैलों का जूआ था जो शैतान ने मेरे कंधे पर रख दिया था। अगर मैं इन चीजों को न मानूँ तो मेरा परिवार और समाज मुझे लानतें देगा, महत्वाकांक्षा हीन और बेकार होने के लांछन लगाएगा। इस माहौल के असर में आकर मैं धन और शोहरत कमाने के रास्ते पर बेमन से चल पड़ी। अच्छे अंकों और डिग्री के पीछे भागकर कई छात्र पढ़ाई के दबाव में अवसाद से घिर गए। कुछ ने खुदकुशी कर अपनी जिंदगी तबाह कर दी। लेकिन जब भी मैंने कर्तव्य निभाने के लिए स्कूल छोड़ना चाहा, मैं खुद को ऐसे जहर से बंधी और बेबस पाती। सोचती कि मेरे माता-पिता मुझ पर इतना खर्च कर चुके हैं और मैं स्कूल छोड़ती हूँ तो उन्हें नीचा देखना पड़ेगा, मान-सम्मान नहीं मिलेगा। आखिरकार मैं समझ गई कि हमें गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए ये शैतान के जहरीले तरीके हैं। वे हमारी जिंदगी की दिशा और लक्ष्यों को बिगाड़ देते हैं, हमें अपनी आस्था छोड़ने, सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से रोकने और धीरे-धीरे परमेश्वर से दूर कर उसे धोखा देने को मजबूर करते हैं। अगर मेरी जिंदगी में परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन न होता तो मुझे कभी भी शैतानी जहर का नुकसान पता नहीं चलता। मैं इस अंधी सड़क पर चलती चली जाती और अंत में परमेश्वर के उद्धार को गँवाकर शैतान के साथ ही बर्बाद हो जाती। इस एहसास ने मुझे परमेश्वर के प्रति आभार से भर दिया। इस तरह परमेश्वर ने रक्षा करके मुझे बचाया।

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े। “चूँकि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सत्य नहीं, बल्कि केवल एक मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व है, तो तुम्हें तब क्या करना चाहिए जब तुम्हारा दायित्व तुम्हारे कर्तव्य से टकराता हो? (अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए; कर्तव्य को पहले रखना चाहिए।) दायित्व अनिवार्य रूप से व्यक्ति का कर्तव्य नहीं है। अपना कर्तव्य निभाने का चुनाव करना सत्य का अभ्यास करना है, जबकि दायित्व पूरा करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है। अगर परिस्थितियाँ सही हों, तो तुम यह जिम्मेदारी या दायित्व पूरा कर सकते हो, लेकिन अगर वर्तमान परिवेश इसकी अनुमति न दे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, ‘मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए—यही सत्य का अभ्यास करना है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना अपने जमीर से जीना है, सत्य के अभ्यास के लिए ये पर्याप्त नहीं है।’ इसलिए, तुम्हें अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और उस पर कायम रहना चाहिए। अगर अभी तुम्हारे पास कोई कर्तव्य नहीं है और तुम घर से दूर रहकर काम नहीं करते, और अपने माता-पिता के पास रहते हो, तो उनकी देखभाल करने के तरीके खोजो। उन्हें थोड़ा बेहतर जीने और उनके कष्ट कम करने में मदद करने की पूरी कोशिश करो। लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि तुम्हारे माता-पिता किस तरह के लोग हैं। अगर तुम्हारे माता-पिता खराब मानवता के हैं और तुम्हें लगातार परमेश्वर में विश्वास करने से रोकते हैं, अगर वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से दूर खींचते रहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें किस सत्य का अभ्यास करना चाहिए? (त्याग का।) उस समय तुम्हें उनका त्याग कर देना चाहिए। तुमने अपना दायित्व पूरा किया है। तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, इसलिए उनका भरण-पोषण करने का तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परिवार हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो तुम लोग अलग-अलग मार्ग पर चल रहे हो : वे शैतान में विश्वास करते हैं और शैतान की पूजा करते हैं, और वे शैतान के मार्ग पर चलते हैं, जो उन लोगों के मार्ग से भिन्न है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। अब तुम एक परिवार नहीं हो। वे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अपना विरोधी और शत्रु मानते हैं, इसलिए उनकी देखभाल करने का तुम्हारा दायित्व नहीं रह गया है और तुम्हें उनसे पूरी तरह से संबंध तोड़ लेना चाहिए। सत्य क्या है : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना या अपना कर्तव्य निभाना? बेशक, अपना कर्तव्य निभाना सत्य है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना केवल अपना दायित्व पूरा करना और वह करना नहीं है जो व्यक्ति को करना चाहिए। यह सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। यहाँ परमेश्वर का आदेश है; यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है। यह सच्ची जिम्मेदारी है, जो सृष्टिकर्ता के समक्ष अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना है। यह सृष्टिकर्ता की लोगों से अपेक्षा है और यह जीवन का बड़ा मामला है। लेकिन अपने माता-पिता का सम्मान करना एक बेटे या बेटी की जिम्मेदारी और दायित्व मात्र है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा आदेशित नहीं है और यह परमेश्वर की अपेक्षा तो बिल्कुल भी पूरी नहीं करता। इसलिए, इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने माता-पिता का सम्मान करने और केवल अपना कर्तव्य निभाने में से अपना कर्तव्य निभाना ही सत्य का अभ्यास करना है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य और एक अनिवार्य कर्तव्य है। अपने माता-पिता का सम्मान करना लोगों के प्रति संतानोचित होना है। इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है, न ही इसका मतलब यह है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य की वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचन माता-पिता के साथ पेश आने के सिद्धांत समझाते हैं : अगर माता-पिता तुम्हारी आस्था और कर्तव्य में सहारा दें, तो अपने कर्तव्य में देरी किये बिना उनका अधिक से अधिक सम्मान करो। लेकिन वे परमेश्वर का विरोध करें और तुम्हारी आस्था और कर्तव्य की राह में रोड़ा बनें, तो उनके सामने बेबस न बनकर अपने कर्तव्य और परमेश्वर को संतुष्ट करने को सबसे आगे रखो। मेरे माता-पिता शैतानी रास्ते पर चलकर पैसे और प्रतिष्ठा के पीछे भागते रहे। अपने सार रूप में वे दुष्ट थे और शैतान के पाले में थे। अपनी आस्था में मैं सत्य का अनुसरण कर कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। हमारे रास्ते बिल्कुल अलग हैं। अगर मैं अपने माता-पिता की बात मानकर कर्तव्य न निभाऊँ तो शैतानी रास्ते पर चलकर परमेश्वर का विरोध कर रही होऊँगी। यह बोध होने पर मैंने बंधन-मुक्त महसूस किया और मैं जान गई कि अपने माता-पिता से सिद्धांतों के अनुसार कैसे पेश आना है।

इसके बाद मैंने कलीसिया में काम करना जारी रखा और तब चौंक गई जब मेरे परिवार ने खुद स्कूल जाकर मेरी ओर से स्कूल छोड़ने की औपचारिकता पूरी की। मैं देख रही हूँ कि ज्यादा से ज्यादा लोग परमेश्वर का मौजूदा कार्य स्वीकार रहे हैं। बड़ी खुशकिस्मती है जो मैं सुसमाचार का प्रचार करने वालों में शामिल होकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने में अपनी शक्ति लगा पा रही हूँ। इससे मैं बहुत खुश हूँ। अब मैं भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य निभाती हूँ, हम संगति और सत्य का अभ्यास करते हैं। हालांकि मैं सत्य के बारे में बहुत कम जानती हूँ, पर लगता है मेरा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे बदल रहा है, मैं कुछ हद तक इंसान की तरह जी रही हूँ, सत्य पर संगति कर सकती हूँ और परमेश्वर के कार्य की गवाही दे सकती हूँ। ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें मैं स्कूल में बरसों-बरस की पढ़ाई-लिखाई के बावजूद सीख नहीं पाती। अब वाकई लगता है कि अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के लिए खपना मेरा सबसे सही फैसला है।

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