58. आत्म-संरक्षण के परिणाम
2019 में बहन ग्वान शिन तबादले के बाद हमारी कलीसिया के कार्य की देखरेख के लिए आई थी। मैं दो साल पहले उससे मिली थी, इस बार उससे बातचीत में मैंने पाया कि वह ठीक वैसी ही थी। सभाओं में, परमेश्वर के वचन के अनुभव या समझ के बजाय, वह हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांत बोला करती थी। जब वह दूसरों को काम में संघर्ष करते देखती, तो मुश्किलें हल करने के लिए सत्य पर संगति न करके उन्हें डांटती-फटकारती थी। इससे भाई-बहनों को अभ्यास का मार्ग मिलना तो दूर, उनका दम घुटने लगा। जब कुछ लोग अपनी निराश स्थितियों को तुरंत नहीं बदल पाते थे, तो ग्वान शिन उन्हें सीमा में बांधती और डांटती थी, जिससे कुछ भाई-बहन बेबस होकर कर्तव्य निभाने का आत्म-विश्वास खो देते थे। वह अक्सर दिखाती थी कि कैसे उसने अपनी नौकरी और परिवार छोड़कर कष्ट सहे थे और कीमत चुकाई थी, और कलीसिया के बहुत-से नासमझ नए सदस्य उसे आदर से देखते थे। उस दौरान, कलीसिया-कार्य ठीक नहीं चल रहा था, भाई-बहनों की दशा भी ठीक नहीं थी। बाद में, मैंने देखा कि सुसमाचार उपयाजिका ली शाओ न अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी उठा रही थी, न वास्तविक कार्य कर रही थी। कई बार संगति और काट-छाँट के बाद भी वह बदली नहीं, नकरात्मक और प्रतिरोधी हो गई। इससे सुसमाचार कार्य रुक गया, उसकी जगह किसी और को रखना जरूरी था। मैंने इन मसलों के बारे में ग्वान शिन से चर्चा की। लेकिन उसे लगा उस पद के लिए कोई अच्छा उम्मीदवार मिलना मुश्किल था, तो उसने जोर दिया कि उसे न बदला जाए। वह मुझसे ऊँची आवाज में भी बोली, “ली शाओ की समस्या जानकर तुमने कितनी बार प्रेम से उसकी मदद करने की कोशिश की? क्या तुमने जिम्मेदारी निभाई? इतनी घमंडी न बनो और दूसरों के बारे में इतनी सहजता से निष्कर्ष न निकालो!” मैंने सोचा, “प्रेमपूर्ण मदद सत्य स्वीकारने वालों के लिए है। जो इंसान संगति और बदलाव स्वीकार नहीं कर सकता, उसे फौरन बदल देना चाहिए। यह सिद्धांतों के अनुरूप है।” शुरू-शुरू में, मैं अपने नजरिए पर अड़ी रही, मगर ग्वान शिन के राजी न होने पर मैं बेचैन हो गई, और हम दोनों में बहस छिड़ गई। दूसरे कुछ भाई-बहनों ने मुझे हावी होने की कोशिश न करने की सलाह दी, जिससे मैं थोड़ी लाचार हो गई। उसकी बात कोई भी नहीं समझ रहा था, तो अगर मैं ली शाओ की बर्खास्तगी पर अड़ी रही, तो शायद वे कहें कि मैं घमंडी और आत्म-तुष्ट थी, कि मैं कलीसिया के कार्य में गड़बड़ कर रही थी। यह सोचकर मैं कुछ नहीं बोली।
इसके बाद हमें एक उच्च अगुआ का चुनाव करना था, तो हमसे उपयुक्त उम्मीदवार सुझाने को कहा गया। कुछ भाई-बहन ग्वान शिन की सिफारिश करना चाहते थे। मैं सोचने लगी, वह सिद्धांत खोजे बिना, अपने ही ढंग से काम करती है और वह बस शब्द और धर्म-सिद्धांत ही बोलती है, और दूसरों की असली समस्याएँ हल नहीं करती। वह अच्छी उम्मीदवार नहीं है। मुझे संगति करनी चाहिए ताकि दूसरे भेद पहचान सकें। लेकिन ग्वान शिन और मुझमें सुसमाचार उपयाजिका की बरखास्तगी को लेकर मतभेद था, दूसरों को लगता था कि मैं हावी होना चाहती थी। अब अगर मैं कहती कि ग्वान शिन अच्छी उम्मीदवार नहीं थी, तो क्या वे कहेंगे कि मैं उससे बदला लेने और उसे पीछे खींचने के लिए ऐसा कर रही थी? मैंने सोचा, “ठीक ही है, परेशानी जितनी कम हो उतना अच्छा है। वे चाहें तो ग्वान शिन को चुन लें—मेरा वोट न देना ही काफी है।” लेकिन जब आकलन लिखने का समय आया, तो मुझे फिक्र हुई। बाकी सबके पास ग्वान शिन के बारे में कहने को काफी अच्छी बातें थीं। तो अगर मैं अपनी सच्ची राय लिखूँ, तो अगुआ जान जाएँगी कि उसके अच्छे उम्मीदवार न होने के बारे में मैं जानती थी, लेकिन सत्य पर संगति नहीं कर रही थी और सिद्धांतों के अनुरूप उम्मीदवारों के नाम नहीं सुझा रही थी। क्या अगुआ कहेंगी कि मैं कलीसिया के कार्य को बनाए नहीं रख रही थी? क्या वह मुझे विकसित करना रोक देंगी? इधर कुआँ उधर खाई। लगा मैं बिल्कुल फँस गई थी। मैंने सबके साथ होने का फैसला किया। इसलिए अपने आकलन में, मैंने सिर्फ ग्वान शिन के सकारात्मक पहलुओं के बारे में ही लिखा, झूठ लिखा कि वह सत्य का अनुसरण करती थी, उसमें अच्छी मानवता थी, वह स्नेहिल थी। और जब वह हममें भ्रष्टता देखती, तो परमेश्वर के वचन ढूँढकर हमारी मदद करती थी। यह आकलन लिखने के बाद, मुझे लगा कि मेरी आत्मा डूब रही है, मेरे जमीर ने दोषी महसूस किया। इसके बाद परमेश्वर के वचन पढ़ती तो कोई प्रबुद्धता न मिलती, मेरा कर्तव्य भी ठीक से नहीं हो रहा था, फिर भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। साथ ही, मैं भाग्य के विचार से चिपकी हुई थी। इतने उम्मीदवार थे, शायद उसे चुना ही न जाए। अगर वह नहीं चुनी गई, तो मेरे झूठे आकलन का खुलासा नहीं होगा। बाद में पता चला ग्वान शिन को सच में उच्च अगुआ चुन लिया गया था। मुझे झटका लगा, बहुत बेचैनी महसूस हुई। क्या लोग हमारी सभी सकारात्मक समीक्षाओं से गुमराह हो गए थे? मुझमें अब भी अगुआ को सच बताने की हिम्मत नहीं थी, खुद को सांत्वना देती रही कि अगर ग्वान शिन सच में अगुआई के लायक नहीं थी, तो परमेश्वर उसे बेनकाब कर देता। मेरे मन में यह ख्याल तो था, मगर मेरी बेचैनी दूर नहीं हुई।
करीब महीने भर बाद, एक अगुआ ने हमसे ग्वान शिन का आकलन फिर से लिखने को कहा। मुझे एहसास हुआ कि उच्च अगुआ के रूप में उसके कर्तव्य में कुछ समस्याएँ जरूर आई होंगी। मैं डरी हुई थी, अगुआ ने अपने पत्र में परमेश्वर के कुछ वचन भी उद्धृत किए थे। परमेश्वर कहता है : “जब मैं कहता हूँ ‘परमेश्वर के मार्ग पर चलना,’ तो ‘परमेश्वर के मार्ग’ का क्या अर्थ है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है? उदाहरण के लिए जब तुम किसी का मूल्यांकन करते हो—यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से संबंधित है। तुम उसका मूल्यांकन कैसे करते हो? (हमें ईमानदार, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए और हमारे शब्द हमारी भावनाओं पर आधारित नहीं होने चाहिए।) जब तुम ठीक वही कहते हो जो तुम सोचते हो और जो तुमने देखा है, तो तुम ईमानदार होते हो। सबसे पहले, ईमानदार होने का अभ्यास और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण एक सीध में होते हैं। परमेश्वर लोगों को यही सिखाता है; यह परमेश्वर का मार्ग है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। क्या ईमानदार होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का अंग नहीं है? और क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुमने जो देखा है और जो तुम सोचते हो, वह वो नहीं होता जो तुम्हारे मुँह से निकलता है। कोई तुमसे पूछता है, ‘उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारी क्या राय है? क्या वह कलीसिया के कार्य में जिम्मेदार है?’ और तुम उत्तर देते हो, ‘वह बहुत अच्छा है, वह मुझसे भी अधिक जिम्मेदार है, मुझसे भी ज्यादा काबिल है, उसकी मानवता भी अच्छी है। वह परिपक्व और स्थिर है।’ लेकिन तुम अपने दिल में क्या यही सोच रहे होते हो? तुम वास्तव में यह देखते हो कि भले ही वह व्यक्ति काबिल है, लेकिन वह भरोसेमंद नहीं, बल्कि कपटी और बहुत मतलबी है। अपने मन में तुम वास्तव में यही सोच रहे होते हो, लेकिन बोलने की बारी आने पर तुम्हारे मन में आता है कि ‘मैं सच नहीं बोल सकता, मुझे किसी को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए,’ इसलिए तुम जल्दी से कुछ और कह देते हो, तुम उसके बारे में कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हो, और तुम जो कुछ भी कहते हो, वह वास्तव में वह नहीं होता जो तुम सोचते हो, वह सब झूठ और फर्जीवाड़ा होता है। क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? नहीं। तुमने शैतान का मार्ग अपनाया है, राक्षसों का मार्ग अपनाया है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? यह सत्य का मार्ग है, वह आधार है जिसके अनुसार लोगों को आचरण करना चाहिए, और यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। भले ही तुम किसी अन्य व्यक्ति से बात कर रहे हो, लेकिन परमेश्वर भी सुनता है, तुम्हारा दिल देख रहा है, और तुम्हारे दिल की जाँच-पड़ताल करता है। लोग वह सुनते हैं जो तुम कहते हो, पर परमेश्वर तुम्हारा दिल जाँचता है। क्या लोग इंसान के दिल की जाँच-पड़ताल करने में सक्षम हैं? ज्यादा से ज्यादा, लोग यह देख सकते हैं कि तुम सच नहीं बोल रहे; वे वही देख सकते हैं, जो सतह पर होता है; लेकिन परमेश्वर ही तुम्हारे दिल की गहराई में देख सकता है। केवल परमेश्वर ही देख सकता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, तुम्हारे दिल में कौन-सी छोटी योजनाएँ, कौन-से कपटी तरीके, कौन-से सक्रिय विचार हैं। यह देखकर कि तुम सच नहीं बोल रहे, परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या राय बनाता है, वह तुम्हारा क्या मूल्यांकन करता है? यही कि इस मामले में तुमने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि तुमने सच नहीं बोला। यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास कर रहे थे, तो तुम्हें सत्य बोलना चाहिए था : ‘वह काबिल तो है, लेकिन भरोसेमंद नहीं है।’ तुम्हारा मूल्यांकन चाहे सटीक होता या नहीं, यह ईमानदार और दिल से आया होता और तुम्हें अपना यही दृष्टिकोण और स्थिति जाहिर करनी चाहिए थी। लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया—तो क्या तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर रहे थे? (नहीं।) यदि तुमने सच नहीं बोलते, तो क्या तुम्हारे इस बात पर जोर देने का कोई मतलब है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर उसे संतुष्ट कर रहे हो? क्या तुम्हारे नारों पर परमेश्वर ध्यान देगा? क्या परमेश्वर इस बात पर ध्यान देगा कि तुम कैसे चिल्लाते हो, कितना जोर से चिल्लाते हो या तुम्हारी इच्छा कितनी प्रबल है? क्या वह इस बात पर ध्यान देगा कि तुम कितनी बार चिल्लाते हो? वह इन चीजों को नहीं देखता। परमेश्वर यह देखता है कि कुछ होने पर तुम सत्य का अभ्यास करते हो या नहीं, जब तुम्हारे साथ कोई घटना हो जाती है तो तुम क्या विकल्प चुनते हो और कैसे सत्य का अभ्यास करते हो। यदि तुम संबंध बनाए रखना पसंद करते हो, अपना हित और अपनी छवि बनाए रखना पसंद करते हो और सब कुछ अपने संरक्षण के लिए करते हो, और परमेश्वर देख लेता है कि कोई बात होने पर यही तुम्हारा दृष्टिकोण और रवैया होता है, तो वह तुम्हारा मूल्यांकन करेगा : वह कहेगा कि तुम उसके मार्ग का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने से मेरे मन में भावनाएँ जगीं। आकलन-लेखन को मैंने कभी बहुत अहम नहीं माना था, न ही खोजा था कि इस मामले में मुझे कौन-से सत्य पर अमल करना चाहिए। मैंने सच में यह चिंतन नहीं किया कि आकलन लिखते वक्त क्या मेरे मंसूबे गलत या भ्रष्टता के खुलासे थे, क्या मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल था, क्या मैं निष्पक्ष रूप से आकलन कर रही थी। उस मुकाम पर मुझे एहसास हुआ कि आकलन लिखने का संबंध इससे है कि क्या व्यक्ति में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, क्या वह कलीसिया के कार्य का मान रखता है। हम एक उच्च अगुआ का चुनाव कर रहे थे, जिससे अनेक कलीसियाओं का कार्य और भाई-बहनों का जीवन-प्रवेश जुड़ा हुआ था। असत्य बातों वाला पक्षपाती आकलन लिखने से लोग गुमराह हो सकते हैं, अनुपयुक्त इंसान के चुनाव से कलीसिया का कार्य बाधित हो सकता है, भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को हानि हो सकती है। मुझे पता था कि ग्वान शिन उच्च अगुआ पद के लिए सही नहीं थी, लेकिन अपना नाम और रुतबा बनाए रखने के लिए, और दूसरों के यह कहने के डर से कि मैं उससे बदला ले रही थी, उसे दबा रही थी, मैंने कुछ नहीं कहा। मैं सच्चा आकलन लिख सकती थी, ग्वान शिन के असली हालात की रिपोर्ट कर सकती थी, लेकिन मुझे अगुआ के यह कहने का डर था कि सब समझकर भी मैंने दूसरों से साझा नहीं किया, कलीसिया के कार्य को बनाए नहीं रखा, जिससे उसके मन में मेरी छवि बिगड़ जाए। इसलिए मैंने पैंतरेबाजी की, मैंने तथ्यों के विपरीत आकलन लिखा। मैंने लिखा कि ग्वान शिन ने सत्य का अनुसरण किया और वास्तविक काम किया। मैंने जो लिखा वह जरा भी सच नहीं था। मैं बहुत कपटी और धोखेबाज थी। परमेश्वर हमसे ईमानदार होने, तथ्यों के अनुरूप और उचित ढंग से बोलने की अपेक्षा रखता है। लेकिन मैंने अगुआ के चुनाव जैसे अहम मसले में झूठ बोला। मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था। मैं एक शैतानी और दानवी प्रकृति के साथ जी रही थी। शैतान ने झूठ बोलकर इसी तरह शुरुआत की थी, मैं तथ्यों के विरुद्ध जा रही थी, वास्तव में यह दानवी प्रकृति थी! मैंने कलीसिया के कार्य का ध्यान न रखकर तथ्यों के विपरीत आकलन लिखा, भाई-बहनों को बहकाया, इसलिए उन्होंने एक गलत इंसान को चुन लिया। यह कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करना और बाधा डालना था। इसका एहसास डरावना था।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन बुरे लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। तुम यह भी सोचोगे कि कलीसिया के कार्य में कोई भी बाधाएँ डाले तो इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति बनाता है जिसमें जमीर और विवेक नहीं है, एक छद्म-विश्वासी बनाता है, मजदूर बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, इंसान से ज्यादा राक्षस जैसे हो, और स्पष्ट रूप से छद्म-विश्वासियों में से एक हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन दिल में चुभने वाले थे। मैंने जिस थाली में खाया उसी में छेद किया, मैं ऐसी गद्दार थी, जिसका परमेश्वर ने जिक्र किया था। मैं परमेश्वर के वचनों का खान-पान कर रही थी, उसके संपूर्ण पोषण का आनंद ले रही थी, मगर कलीसिया के कार्य को बनाए नहीं रखा। इसके बजाय, मैं पूरी तरह से अपने ही हितों के लिए काम कर रही थी, उस सत्य का अभ्यास नहीं कर रही थी, जिसे अच्छे से जानती थी, जिससे आखिर दूसरों ने बहक कर एक झूठे अगुआ का चुनाव किया। क्या यह कलीसिया के कार्य और दूसरों को नुकसान पहुँचाना नहीं था? मैंने जितना सोचा उतनी ही घृणा हुई, मैं बेहद धोखेबाज और नीच थी। मैं खुद को बचाना चाहती थी, कलीसिया के कार्य को नहीं। मैं किसी भी किस्म की सच्ची विश्वासी नहीं थी। मैंने अपने दिल में अंधेरा और उदासी महसूस की। मुझे परमेश्वर के वचनों की प्रबुद्धता नहीं मिल रही थी, न कर्तव्य में कुछ हासिल हो रहा था। परमेश्वर ने मुझसे मुँह मोड़ लिया था। अगर मैं पश्चात्ताप न करने वाली गद्दार बनी रही, तो परमेश्वर मुझे जरूर ठुकरा कर हटा देगा। मैंने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का अनुभव किया जो इंसान द्वारा अपमान नहीं सहता, मैंने सत्य पर अमल न करने और अपराधों को न छोड़ने के लिए खुद से घृणा की। इसलिए प्रायश्चित्त कर सत्य पर अमल करने, अपने अपराधों की भरपाई करने को तैयार होकर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्यों को दूर रखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्ट व्यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्ट करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिला। हमें हमेशा कलीसिया के कार्य को सबसे आगे रखना होगा, और जब हमारे निजी हित कलीसिया के कार्य से टकराएँ, तो हमें अपने खिलाफ विद्रोह करना होगा, अपने निजी हित छोड़ने होंगे, अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों की प्राथमिकता तय करनी होगी। मुझे आकलन दोबारा लिखने को कहा गया था, इस बार मैं परमेश्वर से प्रायश्चित्त करने की इच्छुक रहूँगी। मैं यह सोचती नहीं रह सकती कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे, मैं खुद को बचाती नहीं रह सकती। मुझे सत्य लिखना था, ईमानदार रहना था। इसके बाद मैंने भाई-बहनों से खुलकर बात की। मैंने उन्हें अपनी भ्रष्टता दिखाने, आत्म-चिंतन और जो सीखा उसके बारे में बताया। मैंने अगुआओं के चयन के सिद्धांतों के बारे में भी संगति की, कि हमें सत्य का अनुसरण करने वालों को चुनना चाहिए, जिनमें अच्छी मानवता हो, जो वास्तविक कार्य कर सकते हों। ग्वान शिन के व्यवहार के साथ इसकी तुलना करके सभी ने समझ हासिल की और नए आकलन लिखने को इच्छुक थे। मैंने भी ग्वान शिन के निरंतर व्यवहार के आधार पर एक सच्चा आकलन लिखा। इस पर अमल करने से मुझे सुकून मिला।
बाद में मुझे अगुआ ने मुझे एक पत्र भेजा कि ग्वान शिन को बर्खास्त कर दिया गया था। उन्होंने यह भी कहा कि ग्वान शिन जब उस पद पर थी, तो वह घमंडी, तानाशाह और असहयोगी थी, जिससे कलीसिया की कई परियोजनाओं में रुकावट पैदा हुई थी। उसने अपने पद का दूसरों को बेबस और उनका दमन करने के लिए भी इस्तेमाल किया था, जिससे वे नकरात्मक हो गए थे...। पत्र में लिखी बातें मेरे गाल पर एक के बाद एक तमाचे जैसी थीं। मेरा चेहरा तमतमा गया था, मेरा दिमाग सुन्न पड़ गया था। मैंने अभी-अभी जाना कि मुझसे परमेश्वर का बड़ा अपमान हुआ था, बुरे कामों में मैंने एक झूठी अगुआ का साथ दिया था। उसने पहले भी ऐसा बर्ताव किया था, और मुझे इसकी समझ थी, मगर न सिर्फ मैंने उसे उजागर कर उसकी शिकायत नहीं की, बल्कि दूसरे भाई-बहनों को उच्च अगुआ के रूप में उसकी सिफारिश भी करने दी। मैंने कलीसिया के कार्य के लिए कोई जिम्मेदारी महसूस नहीं की थी। मैं बुरे काम कर चीजें बिगाड़ने में, चोरी-छिपे एक झूठी अगुआ की मदद कर रही थी। सत्य पर अमल न करने के बहाने भी ढूँढ रही थी। मुझे समझ आ गया कि मैं जो जानती थी वो न भी बताऊँ, तो भी परमेश्वर खुलासा कर देगा। परमेश्वर हर चीज से पर्दा उठा देता है, मगर मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए, झूठे अगुआओं को उजागर कर कलीसिया के कार्य को बनाए रखना चाहिए। लेकिन मैं निष्क्रियता से बैठी रही, मैंने अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी पूरी नहीं की। इससे कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को गंभीर नुकसान हुआ। इस बारे में मैंने जितना सोचा, उतना ही बुरा महसूस किया। मैं जानती थी कि मेरे अपराध ठीक नहीं किए जा सकते। अपनी पीड़ा में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर प्रायश्चित्त किया। मैं यह भी जानना चाहती थी कि किसी समस्या से सामना होते ही मैं अपने हितों की रक्षा क्यों करने लगती थी। इस समस्या की जड़ क्या थी? अपने धार्मिक कार्यों में मैंने यह अंश पढ़ा : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों नें मुझे दिखाया कि विश्वासी होने के बावजूद मैं परमेश्वर के वचनों के सत्य को अपने आचरण और कार्य-कलापों के मानक के रूप में नहीं ले रही थी। मैं अब भी शैतान की परिकल्पनाओं के अनुसार जी रही थी, जैसे कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “सबसे पहले आए लाभ,” “समझदार लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं, वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं।” मैं शैतान के इसी जहर के सहारे जी रही थी। मुझे लगा कि लोगों को जीवन में खुद का ध्यान रखकर अपने हितों की रक्षा करना सीखना होगा ताकि उन्हें हानि न पहुँचे। चतुर होने का यही एक रास्ता है ताकि हमें नुकसान न हो। लेकिन इस सबक से मैंने देखा कि इस शैतानी जहर के सहारे जीने से थोड़े समय के लिए मेरे हितों की रक्षा तो हुई, लेकिन इससे मैंने इंसानियत की सीमा लाँघ दी। मैं स्वार्थी, धोखेबाज और नीच हो गई, मैं अपने जमीर के खिलाफ हो गई, बेईमान हो गई। मैं चरित्रहीन और प्रतिष्ठाविहीन हो गई, भरोसे लायक नहीं थी, आखिर में भाई-बहनों के जीवन को नुकसान भी पहुँचाया, और कलीसिया के कार्य को गंभीर रूप से बाधित किया, एक ऐसा अपराध किया जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती थी। मुझे घृणा हुई कि शैतान ने मुझे इतनी गहराई से भ्रष्ट किया था, कि मुझमें जमीर नहीं रहा, मैं परमेश्वर के सामने जीवन जीने योग्य नहीं रही। इस अनुभाव ने दिखाया कि मुझे परमेश्वर की जरा भी समझ नहीं थी, मुझे यकीन नहीं था कि वह सभी चीजों की जाँच करता है। मुझे फिक्र थी कि अगर मैंने ग्वान शिन की अपनी समझ के बारे में दूसरों से संगति की, तो उन्हें लगेगा कि मैं बदला लेने की कोशिश में थी, जानबूझकर उसे दबा रही थी। लेकिन, परमेश्वर के घर में, सत्य का बोलबाला होता है और परमेश्वर सब चीजों की पड़ताल करता है। अगर मेरा दिल सही जगह हो, मैं सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कर्म करती रहूँ, तो दूसरे सत्य समझ लेने पर मेरा साथ देंगे। कुछ लोग शुरुआत में मुझे गलत समझ भी लें, परमेश्वर मेरे दिल की पड़ताल करेगा और मेरा जमीर साफ होगा। यह बात समझ लेने पर मुझे बड़ा सुकून मिला, मैंने ठान लिया कि भविष्य में सिद्धांतों का मान जरूर रखूँगी।
इसके बाद, मैंने सुसमाचार उपयाजिका ली शाओ के बारे में सोचा, जिसने कभी सत्य नहीं स्वीकारा था, और अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी नहीं उठाती थी। सिद्धांतों के आधार पर उसे बर्खास्त कर देना चाहिए था। मैंने कुछ दूसरे उपयाजकों से अपने विचार साझा किए। उपयाजकों ने कहा, “अगर हम उसे अभी बर्खास्त करेंगे, तो उसकी जगह कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिलेगा। फिलहाल उसकी मदद कर उसका साथ देना चाहिए।” मैं सोचने लगी कि मैंने पहले ही कई बार उसकी मदद कर उसका साथ दिया था, मगर वह कुछ सुनती नहीं थी। अगर वह सुसमाचार उपयाजिका बनी रही, तो काम में और ज्यादा रुकावट डालती रहेगी। मगर यह भी सच था कि सुसमाचार उपयाजक के लिए कलीसिया में कोई अच्छे उम्मीदवार नहीं थे। अगर कोई राजी न हुआ, सिर्फ मैं ही अड़ी रही, तो क्या वे नहीं कहेंगे कि मैं बहुत घमंडी और आत्म-तुष्ट थी। थोड़ी देर मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूँ, तो मैंने खोजने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की। प्रार्थना के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने हितों की रक्षा करने लगी थी। मुझे अपने कर्तव्य में सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए—सही गलत को मिलाना नहीं चाहिए। सिद्धांतों के आधार पर सोचें तो ली शाओ एक झूठी कर्मी थी। अगर हमने उसे उसी पद पर बनाए रखा, तो सुसमाचार कार्य पर असर पड़ेगा। दूसरे मुझे घमंडी कहेंगे, इस डर से मैं हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती थी—मुझे सिद्धांतों का पालन करना होगा। इसलिए मैंने संगत सत्यों पर अपने सहयोगियों के साथ संगति की, और वे सुसमाचार उपयाजिका को बर्खास्त करने को राजी हो गए। इसके बाद, उच्च अगुआ ने हमारा सुसमाचार कार्य सँभालने के लिए एक दूसरी कलीसिया से एक बहन की व्यवस्था की। उसे अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी का भान था और उसने कुछ सिद्धांत समझ लिए थे। हमारा सुसमाचार कार्य धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। मुझे यह भी महसूस हुआ कि आखिरकार मैं कुछ सत्य को व्यवहार में ला पाई और मुझे शांति और सहजता महसूस हुई।