57. मैं सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर सकी?
जब मैं एक अगुआ थी, तो कुछ भाई-बहनों ने रिपोर्ट किया कि जिस कलीसिया की जिम्मेदारी मेरे पास थी, उसकी अगुआ यांग ली कोई वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी। वास्तविक जांच के माध्यम से, मुझे पता चला कि यांग ली सारा दिन सामान्य कार्य करने में बिताती थी, ताकि उसके पास एक कलीसिया के अगुआ वाला कोई भी कार्य करने का समय न हो। जब भी वह किसी समूह की सभा में जाती थी तो हमेशा यही कहती थी कि वह व्यस्त है, और फिर सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ करने के बाद वह हमेशा जल्दी में वहाँ से निकल जाती थी। उसने शायद कभी भी अपने भाई-बहनों के साथ सभाओं में संगति नहीं की, न ही वह वास्तव में उन समस्याओं और कठिनाइयों को समझती या हल करती थी जिनका सामना उन्हें अपने कर्तव्य निभाने के दौरान करना पड़ता था। कई उपयाजकों ने भी रिपोर्ट किया कि यांग ली उनसे कुछ महीनों में एक बार ही मिलती थी। उसके भाई-बहनों की समस्याओं और कठिनाइयों का समाधान समय पर नहीं हो रहा था, वे अपने कर्तव्यों के प्रति नकारात्मक और निष्क्रिय हो गए थे, और उनके जीवन प्रवेश में बाधा आ रही थी। इसके अलावा, कुछ भाई-बहनों में बोझ उठाने की भावना नहीं थी और वे हमेशा अपने कर्तव्यों में लापरवाह बने रहते थे। लेकिन यांग ली समय पर उनके साथ संगति नहीं करती थी, उनकी मदद या उन्हें बर्खास्त नहीं करती थी। एक बुरा व्यक्ति कलीसिया के जीवन में गड़बड़ी और बाधा डाल रहा था लेकिन यांग ली ने उसे उचित समयसीमा के भीतर कलीसिया से दूर नहीं किया। चूँकि यांग ली वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी, कलीसिया का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था और विभिन्न कार्यों के नतीजे नहीं निकल रहे थे, इसलिए पंगु स्थिति बन गई थी। जब मैंने यांग ली के साथ संगति की और उसकी समस्याओं को उजागर किया, तो उसने न केवल मेरी बात स्वीकारने से इनकार कर दिया—बल्कि उलटे बहस कर खुद को सही ठहराने की कोशिश की और कलीसिया के कार्यों में नतीजे न मिलने का दोष अपनी साझेदार बहन पर डालने का प्रयास किया। यांग ली के व्यवहार के आधार पर और यह देखते हुए कि उसने सत्य को स्वीकारने या पश्चात्ताप करने से बिल्कुल इनकार कर दिया है, मैंने सोचा कि वह एक झूठी अगुआ है जो कोई वास्तविक कार्य नहीं करती है, एक ऐसी अगुआ जिसे तुरंत बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए। लेकिन मैं झिझक रही थी। कुछ भाई-बहन यांग ली का भेद नहीं पहचानते थे और मानते थे कि उसमें कुछ काबिलियत और गुण हैं। वे कहते थे कि उसका दिमाग बहुत तेज है और वह सभाओं में संगति करने में अच्छी है। वे कहते थे कि वह अपना कर्तव्य निभाने के लिए रोज घंटों काम करती है और उसमें बोझ उठाने की सच्ची भावना है। वे उसकी आराधना करते थे और उसका बचाव करते थे। चूँकि हर कोई उसके बारे में इतने उच्च विचार रखता था, इसलिए मैंने सोचा कि अगर मैं आते ही उसे बर्खास्त कर दूँ, तो क्या वे मुझे घमंडी नहीं समझेंगे? क्या वे यह सोचेंगे कि मैंने उसे पश्चात्ताप करने का मौका नहीं दिया? या शायद वे सोचेंगे कि मैं बस हर किसी पर खुद को मिला नया अधिकार जताने और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए कुछ साहसिक बदलाव करने को उत्सुक हूँ? मैंने मन ही मन में सोचा, “शायद भाई-बहनों को पहले यांग ली के बारे में अपना-अपना मूल्यांकन लिखना चाहिए। और फिर मैं यह तय कर सकती हूँ कि उसे बर्खास्त करना है या नहीं।” लेकिन भाई-बहन उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते थे, और संदर्भ के रूप में उनके मूल्यांकनों की अहमियत बहुत कम थी। उस समय सीसीपी का जुल्म इतना भयंकर था कि भाई-बहनों के साथ मिलकर संगति करना और उसके भेद पहचानना असंभव था। अगर मैं उसे बर्खास्त करने से पहले उनके साथ संगति करने तक इंतजार करती, तो कलीसिया का कार्य पता नहीं कितने लंबे समय के लिए विलंबित हो जाता। मैंने सोचा, “बेहतर होगा कि पहले उसे बर्खास्त कर दिया जाए, और फिर बाद में भाई-बहनों के साथ संगति की जाए और उसके व्यवहार के भेदों को पहचाना जाए।” लेकिन मैं अभी भी चिंतित थी और सोच रही थी, “अगर उसकी बर्खास्तगी से पहले भाई-बहनों को मूल्यांकन लिखने का मौका न दिया गया, तो क्या उन्हें अपनी ओर करना संभव होगा? एक और विकल्प है : मैं यांग ली की स्थिति बताने के लिए अगुआ को पत्र लिख सकती हूँ। अगर अगुआ सहमत हो जाए तो मैं उसे बर्खास्त कर दूँगी। इस तरह, भले ही यह निर्णय भाई-बहनों को स्वीकार न हो, तो भी इसकी पूरी जिम्मेदारी मेरे सिर पर नहीं आएगी। हर कोई जान लेगा कि यह कार्रवाई करने का निर्णय अकेला मेरा नहीं था और इसलिए वे मेरे बारे में ऐसी नकारात्मक बातें नहीं कहेंगे।” ये विचार मेरे दिमाग में आते रहे और आखिरकार मैंने अगले दिन अगुआ को पत्र लिखने का निर्णय लिया।
अगली सुबह, मैंने अपनी साथी बहन को यांग ली की स्थिति के बारे में बताया। उसका भी यह मानना था कि यांग ली एक झूठी अगुआ है जिसे जल्द से जल्द बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए। उसने सुझाव दिया कि अगुआ को सूचित करने के लिए पत्र लिखते समय यांग ली को बर्खास्त कर देना चाहिए। मुझे लगा कि यह भी एक उचित कार्रवाई थी—लेकिन, जब मैंने इसे लागू करने का निर्णय लिया, तो मैं फिर से झिझकी, और मैंने सोचा, “यह सब कुछ यांग ली के उस व्यवहार पर आधारित है जो मैंने देखा है। भाई-बहनों से मूल्यांकन कराए बिना क्या उसे बर्खास्त करने के लिए वास्तव में हर कोई सहमत होगा? जब समय आएगा, तो क्या वे यांग ली की ओर से इसका विरोध करेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं घमंडी हूँ, या यह कि मैं लोगों के साथ उचित व्यवहार नहीं कर सकती? अगर भाई-बहन मेरे फैसले से सहमत नहीं होंगे और इसकी वजह से मेरी रिपोर्ट नहीं करते हैं, तो मैं वाकई बदनाम हो जाऊँगी।” जितना अधिक मैं इसके बारे में सोचती, उतना ही अधिक मैं उलझन में पड़ जाती। मेरी बहन ने मेरे चेहरे पर यह बेचैनी देखी और उसने मुझसे पूछा, “क्या तुम सच में दूसरे भाई-बहनों को लेकर चिंतित हो? कि अगर तुम उनसे मूल्यांकन कराए बिना यांग ली को बर्खास्त कर दोगी तो, वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे? हम झूठे अगुओं को सिद्धांतों के अनुसार बर्खास्त करते हैं ताकि कलीसिया के कार्य की रक्षा कर सकें। तुम इस बारे में इतनी चिंतित क्यों हो?” उसकी बात सुनकर मैं सोचने लगी : “यह सच है। परमेश्वर का घर हमसे स्पष्ट रूप से अपेक्षा करता है कि हम उन अगुओं और कार्यकर्ताओं को बर्खास्त कर दें जो बेलगाम हो जाते हैं और जो कोई भी वास्तविक कार्य करने में विफल रहते हैं, ताकि कलीसिया के कार्य में कोई देरी न हो। मैं पहले ही देख चुकी हूँ कि यांग ली एक झूठी अगुआ है, फिर भी उसे बर्खास्त करने से पहले मैं भाई-बहनों की सहमति लेना चाह रही हूँ। ऐसा क्यों है?” मुझे एहसास हुआ कि यह दशा सही नहीं है। इसलिए, मैंने अपनी बहन के साथ मिलकर इस समस्या को हल करने की कोशिश की। और हमने परमेश्वर के वचनों के दो अंश देखे जिनमें कहा गया है : “अगर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में, तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते समय सामने आने वाली समस्याओं को नजरअंदाज करते हो और यहाँ तक कि तुम जिम्मेदारी से बचने के लिए विभिन्न कारण और बहाने भी खोज लेते हो, और तुम ऐसी कुछ समस्याएँ हल नहीं करते हो जिन्हें तुम हल करने में सक्षम हो, और तुम जो समस्याएँ हल करने में अक्षम हो, उनकी सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हो, मानो उनका तुमसे कोई लेना-देना ना हो, तो क्या यह जिम्मेदारी के प्रति लापरवाही नहीं है? क्या कलीसिया के कार्य के साथ ऐसे पेश आना होशियारी भरा काम है, या बेवकूफी भरा? (यह बेवकूफी भरा काम है।) क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अविश्वसनीय नहीं होते? क्या वे जिम्मेदारी की भावना से रहित नहीं होते? जब वे समस्याओं का सामना करते हैं, तो उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं—क्या वे विचारहीन लोग नहीं हैं? क्या वे शातिर लोग नहीं हैं? शातिर लोग सबसे मूर्ख लोग होते हैं। तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, समस्याओं से सामना होने पर तुममें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और उन्हें हल करने के लिए तुम्हें हर संभव तरीका आजमाना चाहिए और सत्य की तलाश करनी चाहिए। तुम्हें शातिर व्यक्ति बिल्कुल नहीं होना चाहिए। अगर तुम जिम्मेदारी से बचने और समस्याएँ आने पर उनसे पल्ला झाड़ने में लगे रहते हो, तो गैरविश्वासी तक तुम्हारे इस व्यवहार की निंदा करेंगे, परमेश्वर के घर में होगी ही! परमेश्वर द्वारा इस व्यवहार की निंदा किया जाना और उसे शापित किया जाना निश्चित है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा इससे नफरत की जाती है और इसे अस्वीकार किया जाता है। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, और वह धोखेबाज और ढुलमुल लोगों से नफरत करता है। अगर तुम एक शातिर व्यक्ति हो और ढुलमुल तरीके से कार्य करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे नफरत नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें सजा दिए बिना ही छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और शातिर लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होना और मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। अस्थायी अज्ञान को माफ किया जा सकता है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता हैं, तो फिर इसका अर्थ है कि वह अत्यंत जिद्दी है। ईमानदार लोग जिम्मेदारी ले सकते हैं। वे अपनी फायदों और नुकसानों पर विचार नहीं करते, वे बस परमेश्वर के घर के काम और हितों की रक्षा करते हैं। उनके दिल दयालु और ईमानदार होते हैं, साफ पानी के उस कटोरे की तरह, जिसका तल एक नजर में देखा जा सकता है। उनके क्रियाकलापों में पारदर्शिता भी होती है। धोखेबाज व्यक्ति हमेशा ढुलमुल तरीके से कार्य करता है, हमेशा ढोंग करता है, चीजें ढकता है और छुपाता है और खुद को बहुत ही कसकर समेटकर रखता है। इस तरह के व्यक्ति की असलियत कोई पहचान नहीं पाता है। लोग तुम्हारे आंतरिक विचारों की असलियत समझ नहीं पाते हैं, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे अंतरतम हृदय में मौजूद चीजों की जाँच-पड़ताल कर सकता है। जब परमेश्वर देखता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, कि तुम एक धूर्त हो, कि तुम कभी भी सत्य स्वीकार नहीं करते, हमेशा उसके खिलाफ धूर्तता करते हो, और कभी भी अपना दिल उसे नहीं सौंपते, तो वह तुम्हें पसंद नहीं करता है, और वह तुमसे नफरत करता है और तुम्हारा त्याग कर देता है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। “तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुममें शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरे इरादों को स्वयं में संतुष्ट होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे घृणित इरादों को ऐसे उजागर कर दिया जैसे कोई हथौड़ा कील पर प्रहार करता है। तब मैंने देखा कि मैं एक धोखेबाज इंसान हूँ। मैंने स्पष्ट रूप से पुष्टि कर ली थी कि यांग ली एक झूठी अगुआ है जो कोई वास्तविक कार्य नहीं करती है, कि भाई-बहन उसका भेद नहीं जानते हैं और वे उसका आदर और उसका बचाव तक करते हैं। लेकिन उसे सिद्धांतों के अनुसार, जल्द से जल्द बर्खास्त करने के बजाय मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने के लिए चालाक बन रही थी। मुझे अच्छी तरह पता था कि भाई-बहन उसका भेद नहीं पहचानते हैं और उनसे मूल्यांकन लिखवाने का कोई वास्तविक उद्देश्य नहीं है, फिर भी मैं इस डर से इस प्रक्रिया में समय बर्बाद करने को तैयार थी कि यांग ली को बर्खास्त करने पर मैं घमंडी कहलाऊँगी और इससे मेरे रुतबे और छवि पर असर पड़ेगा। मैंने भाई-बहनों की सहमति लेने के बहाने अपने घृणित इरादों को छुपाया और यहाँ तक कि उसे बर्खास्त करने से पहले मैंने अगुआ की राय भी माँगनी चाही—इस तरह अगर भाई-बहन उसकी बर्खास्तगी पर आपत्ति जताते भी तो मैं सीधे कह सकती थी कि अगुआ इससे सहमत है, इसलिए यह जिम्मेदारी अकेले मेरे सिर पर नहीं आती। मैंने खुद को सुरक्षित रखने के लिए हर संभव तरीका अपनाया, चालें चलीं और अपनी इच्छा पूरी करने के लिए हर तरह के उपाय किए। मैं इतनी धूर्त थी! यह मेरी जिम्मेदारी भी थी और परमेश्वर के घर की मांग भी थी, कि मैं अनुचित झूठे अगुआओं को तुरंत बर्खास्त करूँ। लेकिन मैंने कोई निर्णय न लेकर अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की—मैंने केवल अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के बारे में सोचा। मैंने यह नहीं सोचा कि अगर मैंने इस झूठे अगुआ को समय रहते बर्खास्त नहीं किया, तो यह कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए कितनी बड़ी अड़चन और क्षति होगी। झूठी अगुआ कलीसिया को नुकसान पहुँचाती रही और मैं यह सब देखती रही, और उसे उजागर करने, उसे बर्खास्त करने और कलीसिया के हितों की रक्षा करने के लिए खड़े होने के बजाय मैं अपने हितों को प्राथमिकता देती रही। मैंने खुद को इस स्थिति से बाहर निकालने का एक बहाना भी खोज लिया। मैं इतनी ज्यादा स्वार्थी और घृणित थी! मैंने इसके बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतना ही अधिक लगा कि मैं इस कर्तव्य के लायक नहीं हूँ, अपने भाई-बहनों का सामना करना तो दूर की बात है।
मैंने इन सब बातों पर विचार किया। मैं परमेश्वर में विश्वास रखती थी, रोज परमेश्वर के वचन खाती और पीती थी और अपना कर्तव्य निभाती थी। तो एक समस्या का सामना करने पर मैंने क्यों सत्य का अभ्यास करना बंद कर दिया? मैं कलीसिया के हितों की रक्षा क्यों नहीं कर पाई? इसके पीछे असल में क्या कारण थे? बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मुझे इस समस्या के बारे में थोड़ा और समझ में आया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “क्या तुम लोगों में कोई ऐसा है जो अपने दिल में स्वर्ग के एक अस्पष्ट-से परमेश्वर में विश्वास रखता है, पर देहधारी परमेश्वर को लेकर हमेशा धारणाओं में घिरा रहता है? अगर सचमुच ऐसे लोग हैं तो वे धर्म में विश्वास रखने वाले लोग हैं। धर्म में विश्वास रखने वाले अपने दिलों में देहधारी परमेश्वर को स्वीकार नहीं करते, और अगर करते भी हैं तो वे परमेश्वर को लेकर हमेशा धारणाओं में घिरे रहते हैं, और उसके सम्मुख कभी भी समर्पण नहीं कर पाते। क्या ऐसा ही नहीं है? दो टूक कहा जाए, तो ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते। भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हों, पर हकीकत में वे धर्म में विश्वास करने वालों से ज्यादा अलग नहीं होते। अपने दिलों में, वे सिर्फ एक अस्पष्ट-से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं; वे धार्मिक धारणाओं और विनियमों के अनुसार चलने वाले लोग होते हैं। इसलिए, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, जो केवल अच्छे व्यवहार और विनियमों के अनुपालन पर ही ध्यान देते हैं, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, और जिनके स्वभाव में ज़रा-सा भी परिवर्तन नहीं आता है, वे सब धर्म में विश्वास करते हैं। धर्म में विश्वास करने वालों में क्या विशिष्टता होती है? (वे केवल बाहरी आचरण और अच्छा व्यवहार करते हुए दिखने की परवाह करते हैं।) उनके कृत्यों के सिद्धांत और आधार क्या होते हैं? (सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों के अनुसार जीना।) सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे और शैतानी भ्रष्ट स्वभाव क्या होते हैं? चालबाजी और धूर्तता; खुद को ही कानून मानना; अहंकार और दंभ; हर मामले में हमेशा अपनी चलाना, कभी सत्य की खोज न करना और न ही कभी भाई-बहनों के साथ सहभागिता करना; कोई भी कदम उठाते समय, हमेशा अपने स्वार्थ, स्वाभिमान, और प्रतिष्ठा के बारे में सोचना—यह सब शैतानी स्वभाव के अनुसार चलना है। यह शैतान का अनुसरण करना है। यदि कोई परमेश्वर में विश्वास तो करता है लेकिन उसके वचनों पर ध्यान नहीं देता है, सत्य को स्वीकार नहीं करता, या उसकी व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण नहीं करता; यदि वह केवल कुछ अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करता है, लेकिन देह की इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने में असमर्थ है, और अपने अभिमान या स्वार्थ को बिल्कुल भी नहीं त्यागता है; यदि, दिखावे भर के लिए वह अपना कर्तव्य तो निभाता है, पर फिर भी अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जीता है, और उसने शैतान के फलसफे और जीने के तौर-तरीकों को जरा-भी नहीं छोड़ा है, तो वह परमेश्वर में कैसे विश्वास कर सकता है? यह धर्म में विश्वास रखना है। इस तरह के लोग सतही रूप से चीजों को त्यागते हैं और अपने आपको खपाते हैं, लेकिन जिस मार्ग पर वे चलते हैं और जो कुछ वे करते हैं उसका उद्भव और प्रारंभिक बिंदु परमेश्वर के वचनों या सत्य पर आधारित नहीं होता; इसके बजाय, वे निरंतर अपनी ही धारणाओं, कल्पनाओं, और व्यक्तिपरक मान्यताओं के अनुसार, और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते रहते हैं। शैतान के फलसफे और स्वभाव अभी भी उनके अस्तित्व और कृत्यों के आधार बने रहते हैं। उन मामलों में जिनकी सच्चाई वे नहीं समझते, वे उसकी तलाश भी नहीं करते; उन मामलों में जिनकी सच्चाई वे समझते हैं, वे उसका अभ्यास नहीं करते, न तो वे परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करते हैं, न ही सत्य को संजोते हैं। भले ही वे नाम के लिए और कहने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसे स्वीकारते हैं, और भले ही वे अपना कर्तव्य निभाते हुए और परमेश्वर का अनुसरण करते हुए भी दिख सकते हैं, पर वे अपनी कथनी और करनी में अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जीते हैं। वे जो कहते और करते हैं उसमें भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे ही होते हैं। तुम उन्हें परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या अनुभव करते नहीं देखते, सभी चीजों में सत्य की खोज करना और उसके प्रति समर्पित होना तो दूर की बात है। अपने कृत्यों में, वे पहले अपना हित देखते हैं, और पहले अपनी इच्छाएं और इरादे पूरे करते हैं। क्या ये लोग परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग हैं? (नहीं।) ... वे कभी भी परमेश्वर के इरादे या अपेक्षाएं जानने पर या परमेश्वर को संतुष्ट करने वाला अभ्यास का तरीका जानने पर ध्यान नहीं देते। भले ही वे कभी-कभी परमेश्वर के सम्मुख प्रार्थना करें और उसके साथ संगति करें, पर वे मात्र खुद से बात कर रहे होते हैं, न कि ईमानदारी से सत्य की खोज करते हैं। जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसके वचन पढ़ते हैं, तो वे इन्हें अपने वास्तविक जीवन के मामलों से जोड़कर नहीं देखते। तो, परमेश्वर द्वारा आयोजित परिवेश में वे उसकी संपभुता, व्यवस्थाओं और आयोजनों को किस तरह लेते हैं? जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं जो उनकी अपनी इच्छाओं को संतुष्ट नहीं करतीं, तो वे उनसे कन्नी काटते हैं और दिल-ही दिल में उनका प्रतिरोध करते हैं। जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं जो उनके हितों को नुकसान पहुंचाती हैं, या उनके हितों को संतुष्ट नहीं करतीं, तो वे बचकर निकलने का हर साधन अपनाते हैं, और खुद को ज्यादा-से ज्यादा फायदा पहुंचाने और किसी भी तरह का नुकसान न झेलने के लिए पूरा जोर लगा देते हैं। वे परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के बजाय अपनी ही इच्छाओं की तृप्ति में लगे रहते हैं। क्या यह परमेश्वर में आस्था रखना हुआ? क्या ऐसे लोगों का परमेश्वर के साथ कोई नाता होता है? नहीं, नहीं होता। वे एक पतित, कुत्सित, अड़ियल और कुरूप तरीके से जीते हैं। न सिर्फ उनका परमेश्वर के साथ कोई नाता नहीं होता, बल्कि वे हर मौके पर परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के खिलाफ जाते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मेरा दिल समुद्र में तूफान की तरह उथल-पुथल मचाने लगा। अपने व्यवहार पर नजर डालने पर मैंने पाया कि मैं उन लोगों में से एक थी जिन्हें परमेश्वर ने उजागर किया है : धर्म में विश्वास रखने वाली इंसान। हालाँकि मैं त्याग करने और खुद को खपाने में सक्षम दिखती थी, लेकिन जब मेरे सामने समस्याएँ आईं तो मैंने सत्य सिद्धांत नहीं खोजे। मैंने हमेशा अपने हितों के बारे में ही सोचा और मैं जीवित रहने के शैतानी नियमों के अनुसार जीती रही जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “समझदार लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं, वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं।” ये नियम मेरे दिल में गहराई से अपनी जड़ें जमा चुके थे—मुझे लगा कि लोगों को अपने लिए जीना चाहिए और जो लोग अपने बारे में नहीं सोचते वे मूर्ख होते हैं। मैंने इन नियमों को अपने निजी आचरण के लिए दिशा-निर्देश के रूप में स्वीकार किया था, और इस तरह मैं पहले से अधिक स्वार्थी, चालाक, धोखेबाज और घृणित बन गई थी। भले ही मैंने परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद उसके बहुत से वचन पढ़े थे, फिर भी मैंने अभी तक सत्य को स्वीकार नहीं किया था। मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं, बल्कि शैतान के फलसफे के अनुसार जी रही थी। यांग ली को बर्खास्त करने के मामले में मैं जानती थी कि मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए और यह कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन के लिए फायदेमंद होगा। लेकिन अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाने के लिए और भाई-बहनों द्वारा अहंकारी कहलाए जाने से बचने के लिए मैंने अपनी कार्यवाइयाँ रोकने का निर्णय लिया और मैं एक झूठी अगुआ को कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाते और इसमें देरी करते सिर्फ देखती रही। क्या मैं इस झूठी अगुआ की रक्षा नहीं कर रही थी, उसके बुरे कर्मों को अपनी मौन सहमति नहीं दे रही थी? अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखता है और जिसमें न्याय की भावना है वह कलीसिया के कार्य में कोई बाधा पहुँचते देखता है, तो वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करेगा और कलीसिया के हितों की रक्षा करने के लिए खड़ा होगा। लेकिन जब मुझे ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा, तो मैंने सत्य का अभ्यास नहीं किया। इसके बजाय, मैं शैतान के सांसारिक फलसफे के अनुसार जीती रही। तो फिर मैं कैसे परमेश्वर में विश्वास रखने वाली हो सकती हूँ? मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ, कि मैं त्याग कर सकती हूँ और खुद को खपा सकती हूँ और अपने विश्वास के लिए कष्ट सह सकती हूँ और कीमत चुका सकती हूँ। मुझे लगा कि मैं कलीसिया द्वारा मुझे सौंपे गए किसी भी कर्तव्य को पूरा कर सकती हूँ। लेकिन अब, मुझे एहसास हुआ है कि यह सब सिर्फ दिखावटी अच्छा आचरण था। इस समस्या से सामना होने पर मैं बेनकाब हो गई। मेरे पास सत्य का अभ्यास करने की वास्तविकता नहीं थी, और मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी फलसफे से बंधी हुई थी। मैं परमेश्वर में नहीं, बल्कि धर्म में विश्वास रखती थी। मेरे विश्वास को परमेश्वर ने स्वीकार नहीं किया, बल्कि वह इससे घृणा और तिरस्कार करता था। अगर मैंने पश्चात्ताप न किया तो इसका मेरा परिणाम यह होगा कि मुझे दंड मिलेगा और हटा दिया जाएगा।
मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े : “परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी कर्तव्य करो, तुम्हें सिद्धांत समझने चाहिए और सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। फिर तुम सिद्धांतनिष्ठ बन जाओगे। अगर तुम किसी चीज को पहचान नहीं पा रहे हो, अगर तुम सुनिश्चित नहीं हो कि क्या करना उचित है, तो सर्वसम्मति पाने के लिए संगति करो। जब तुम निश्चित हो जाओ कि कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के लिए सर्वाधिक लाभकारी क्या है, तो उसे करो। नियमनों से बँधे मत रहो, देर मत करो, प्रतीक्षा मत करो, मूकदर्शक मत बनो। यदि तुम हमेशा मूकदर्शक बने रहोगे और कभी भी अपनी राय नहीं रखोगे, यदि कुछ भी करने से पहले तुम इस बात की प्रतीक्षा करोगे कि कोई और निर्णय ले ले, और जब कोई निर्णय नहीं लेता है, तो तुम धीरे-धीरे काम करोगे और प्रतीक्षा करते रहोगे, तो इसका क्या परिणाम होगा? हर कार्य बिगड़ जाएगा और कुछ भी पूरा नहीं हो पाएगा। तुम्हें सत्य खोजना सीखना चाहिए या कम-से-कम अपने जमीर और विवेक से काम लेने में सक्षम होना चाहिए। जब तक तुम्हें कोई कार्य करने का उचित तरीका समझ में आता है और ज्यादातर लोग इस तरीके को कारगर मानते हैं, तब तक तुम्हें इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। उस कार्य की जिम्मेदारी लेने या दूसरों की नाराजगी मोल लेने या परिणाम भुगतने से मत डरो। अगर कोई कुछ वास्तविक कार्य नहीं करता है, हमेशा तोलमोल करते हुए जिम्मेदारी लेने से डरता है, और जो कार्य करता है उनमें सिद्धांतों का पालन करने का साहस नहीं कर पाता है, तो यह दिखाता है कि वह व्यक्ति निहायत ही चालाक और धूर्त है और उसके मन में बहुत सी दुष्ट योजनाएँ हैं। परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने की इच्छा रखना लेकिन कुछ भी वास्तविक न करना कितना अधर्म है। परमेश्वर ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है। तुम चाहे जो भी सोच रहे हो, अगर तुम सत्य के अनुसार अभ्यास नहीं कर रहे हो, तुममें वफादारी नहीं है, और हमेशा व्यक्तिगत मिलावटों से दूषित रहते हो, हमेशा तुम्हारे अपने विचार और मत होते हैं, तो परमेश्वर इन सभी चीजों को देखता है, और उनके बारे में जानता है। क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर नहीं जानता है? यदि ऐसा है, तो तुम बेहद बेवकूफ हो! और यदि तुम तुरंत पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो तुम परमेश्वर का कार्य खो दोगे। तुम उसे क्यों खो दोगे? क्योंकि परमेश्वर लोगों के दिलों का निरीक्षण करता है। वह पूरी स्पष्टता से उनकी सभी छोटी-छोटी चालाक योजनाएँ देखता है, और वह देखता है कि उनके दिल उससे दूर हो गए हैं, वे उसके साथ एकचित्त नहीं हैं। वे कौन-सी मुख्य बातें हैं जो उनके दिलों को परमेश्वर से दूर रखती हैं? उनके विचार, उनके हित और अभिमान, और उनकी तुच्छ साजिशें। जब लोगों के दिलों में ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें परमेश्वर से अलग करती हैं, और वे लगातार उन चीजों में मग्न रहते हैं, हमेशा साजिशें करते रहते हैं, तो यह समस्या है। अगर तुम्हारी क्षमता थोड़ी खराब है और तुम्हारे पास कम अनुभव है, लेकिन तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हो, और हमेशा परमेश्वर के साथ एकचित्त रहते हो, अगर तुम क्षुद्र चालों में पड़े बिना, परमेश्वर द्वारा सौंपे जाने वाले कार्य में अपना सबकुछ झोंक सकते हो, तो परमेश्वर इसे देखेगा। अगर तुम्हारे दिल और परमेश्वर के बीच हमेशा दीवार खड़ी रहती है, अगर तुम हमेशा क्षुद्र षड्यंत्र पालते हो, हमेशा अपने हितों और गर्व के लिए जीते हो, अपने दिल में हमेशा इन चीजों की गणना करते रहते हो, उनके काबू में हो, तो परमेश्वर तुमसे प्रसन्न नहीं होगा, और वह तुम्हें प्रबुद्ध, रोशन या स्वीकार नहीं करेगा, और तुम्हारा हृदय निरंतर अंधकारमय होता जाएगा, अर्थात जब तुम अपना कर्तव्य निभाओगे या कुछ भी करोगे, तो तुम उसे गड़बड़ कर दोगे, और वह लगभग बेकार हो जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम बहुत स्वार्थी और नीच हो, और हमेशा अपने लिए षड्यंत्र रचते रहते हो, और परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं हो, ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम चालाक होने का साहस और परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास करते हो, और न केवल सत्य नहीं स्वीकारते, बल्कि अपना कर्तव्य निभाने में अस्थिर भी हो—जो वास्तव में परमेश्वर के लिए खपना नहीं है। जब तुम अपना कर्तव्य निभाने में अपना दिल नहीं लगाते हो, और उसका और अधिक लाभ प्राप्त करने, अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा बनाने के अवसर के रूप में उपयोग करते हुए केवल दिखावे के कुछ प्रयास करते हो, और अपनी काट-छाँट किए जाने पर उसे स्वीकार और आज्ञापालन नहीं करते हो, तो इस बात की अत्यधिक संभावना है कि तुम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचा दोगे। परमेश्वर मनुष्य के दिलों की गहराइयों की जाँच-पड़ताल करता है। अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो तुम खतरे में पड़ जाओगे, और संभवतः परमेश्वर द्वारा निकाल दिए जाओगे, उस स्थिति में तुम्हें फिर कभी परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलेगा” (परमेश्वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। जब तुम ऐसी समस्याओं का सामना करते हो जिन्हें तुम स्पष्ट रूप से समझ नहीं पा रहे तो तुम ऐसे भाई-बहनों से संगति का प्रयास कर सकते हो जो सत्य को समझते हैं और इन्हें हल करने से पहले एक आम सहमति पर पहुँच सकते हो। अगर तुम स्पष्ट रूप से देखते हो कि कार्रवाई सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है और यह कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद रहेगी, तो फिर तुम्हें समय पर इसका अनुकरण करना चाहिए। लेकिन अगर तुम अनिर्णय की स्थिति में रहते हो, अगर तुम निर्णय लेने से पहले किसी अगुआ की स्वीकृति का इंतजार करते हो तो इससे कलीसिया का कार्य रुकने की संभावना रहेगी। दरअसल, अनुचित अगुआओं या कार्यकर्ताओं को बर्खास्त करते समय भाई-बहनों के मूल्यांकन को समझना, सारी चीजों का व्यापक मूल्यांकन करना और फिर निर्णय लेना भी सिद्धांतों के अनुरूप होगा। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को दूसरा काम सौंपते समय गलतियाँ करने से बचने का यह एक अच्छा तरीका हो सकता है। लेकिन सिद्धांत नियम नहीं हैं। इनका इस्तेमाल परिस्थितियों के आधार पर लचीले ढंग से होना चाहिए। यांग ली की बर्खास्तगी के मामले में मैंने और मेरी सहयोगी बहन ने पहले ही सिद्धांतों के अनुसार इस बात की पुष्टि कर ली थी कि यांग ली एक झूठी अगुआ है और अगर मैंने उसे तुरंत बर्खास्त न किया तो इससे कलीसिया के कार्य ही रुकेंगे। उसे बर्खास्त करने के लिए मुझे भाई-बहनों से मूल्यांकन जुटाने का इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं थी। इसके अलावा भाई-बहन यांग ली का भेद नहीं पहचानते थे—वे उससे भ्रमित हो चुके थे। अगर मैं उनसे उसका मूल्यांकन लिखने के लिए कहती भी तो यह निरर्थक होता, महज एक औपचारिकता और समय की बर्बादी होती। मुझे उसे सीधे बर्खास्त कर देना चाहिए था और यह उजागर कर देना चाहिए था कि कैसे उसने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया, जिससे भाई-बहन उसका थोड़ा-सा भेद जान लेते और उसके भ्रमजाल से मुक्त हो जाते। एक अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभाने का यही एकमात्र तरीका होता। लेकिन इस मामले में मैंने शैतान के फलसफे का पालन किया और खुद को बचाने के लिए कपट का सहारा लिया। मैंने सत्य का अभ्यास नहीं किया था और मैंने जरा सी भी जिम्मेदारी नहीं ली थी। अगर मैं इसी तरह अपना कर्तव्य निभाती रही, तो परमेश्वर मुझे ठुकरा देगा। मुझे पता था कि यांग ली एक झूठी अगुआ है, लेकिन मैंने उसे सीधे बर्खास्त करने की हिम्मत नहीं की क्योंकि मुझे डर था कि लोग मुझे घमंडी कहेंगे। इससे पता चलता है कि मुझे इस बात की समझ नहीं थी कि घमंड क्या होता है, न ही मुझे न्याय की भावना होने और सिद्धांतों का पालन करने जैसी बातों की समझ थी। खोज और चिंतन से मुझे यह समझ में आया कि व्यक्ति का अहंकार उसके शैतानी स्वभाव को दर्शाता है। जब लोग सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं करते हैं, बल्कि हमेशा अपनी राय पर अड़े रहते हैं, अपने विचारों और दृष्टिकोणों पर जोर देते हैं और हर किसी को उनका पालन करने के लिए मजबूर करते हैं, तो यह दंभ, घमंड और आत्मतुष्टता होती है। न्याय की भावना होने का मतलब है सत्य को कायम रखना और परमेश्वर के कार्य की रक्षा करना। खोज और प्रार्थना से व्यक्ति यह पुष्टि कर सकता है कि कौन-सी कार्रवाई सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप है और वह सत्य को कायम रख सकता है और कलीसिया के कार्य की रक्षा कर सकता है और अंत तक इस पर कायम रह सकता है, फिर चाहे दूसरे लोग कुछ भी सोचें या कहें। यह न्याय की भावना होने की एक अभिव्यक्ति है। वास्तव में, हमारा यह निर्णय सिद्धांतों पर आधारित था कि यांग ली एक झूठी अगुआ है। उसे बर्खास्त करना कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद होता। ऐसा करना सिद्धांतों के अनुसार होता और न्याय की भावना को दर्शाता। लेकिन मुझे इस बात का डर था कि भाई-बहनों की सहमति के बिना यांग ली को बर्खास्त करने के नतीजे में लोग कहते कि मैं घमंडी हूँ। मैं घमंडी होने और न्याय की भावना होने में अंतर नहीं कर पाई—मैंने एक सकारात्मक चीज को नकारात्मक चीज के रूप में देखा। इस वजह से मैं खुद को आजाद नहीं कर पा रही थी और मैं सही कार्य करने से कतरा रही थी। मैंने देखा कि मेरी समझ पूरी तरह से विकृत है। अगर भाई-बहन एक झूठी अगुआ को नहीं पहचान पाए तो मैं उनके साथ संगति कर सकती थी। मैं दूसरों से आलोचना पाने के डर से खुद को सिद्धांतों पर कायम रहने से नहीं रोक सकती थी। मुझे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करना था और कलीसिया के हितों की रक्षा करनी थी, चाहे वे कुछ भी सोचें। इसलिए अगले ही दिन हमने यांग ली को बर्खास्त कर दिया।
फिर मैंने और मेरी सहयोगी बहन ने परमेश्वर के वचनों के आधार पर भाई-बहनों के साथ संगति की और यांग ली के प्रदर्शन का गहन विश्लेषण किया—वह कैसे लगातार वास्तविक कार्य करने में विफल रही, और वह कैसे सत्य को स्वीकार नहीं करती। संगति के बाद भाई-बहनों ने माना कि वे यांग ली के दिखावटी उत्साह के कारण धोखा खा बैठे उन्हें यह समझ में आ गया था कि किसी अगुआ के योग्य होने या न होने का पता कैसे लगाया जाए। उन्हें यह समझ में आ गया कि ऐसा करने के लिए आपको उनके गुण या उनके शब्दों या उनके व्यस्त रूप को नहीं देखना चाहिए। बल्कि, आपको यह देखना चाहिए था कि क्या उन्होंने सत्य का अनुसरण किया या नहीं, वास्तविक कार्य किया या नहीं, वास्तविक मुद्दों को हल किया या नहीं, और अपने कार्य में वास्तविक परिणाम प्राप्त किए या नहीं। भाई-बहनों को ऐसा ज्ञान प्राप्त करते देखकर मुझे बहुत खुशी हुई, और मैंने सीखा कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाकर आप परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं। पहले, मुझे इस बात की चिंता थी कि अगर मैंने यांग ली को सीधे बर्खास्त कर दिया तो भाई-बहन इसे स्वीकार नहीं कर पाएँगे—कि वे कहेंगे कि मैं घमंडी हूँ। लेकिन अब, मैंने जान लिया है कि यह सब मेरी कल्पना में ही था, और जब मैंने सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया, तो भाई-बहनों ने मेरी आलोचना नहीं की। बल्कि इस स्थिति से उन्होंने चीजों का भेद पहचानना सीखा। जल्द ही कलीसिया ने एक उपयुक्त अगुआ चुन लिया, भाई-बहन सामान्य कलीसियाई जीवन जीने लगे और सारा कार्य फिर से सामान्य रूप से चलने लगा। यह सब देखकर मुझे बहुत खुशी हुई, और मैंने सीखा कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना और अपना कर्तव्य निभाना ही परमेश्वर की स्वीकृति पाने का एकमात्र तरीका है। इसके बाद मैंने सचेत होकर अपने व्यक्तिगत हित त्याग दिए और मैं सत्य सिद्धांतों के आधार पर कार्य करने लगा, यह एक ऐसा अभ्यास था जिससे मेरे दिल को सुकून मिला और मैं मुक्त हो गई।
इस अनुभव के माध्यम से, मैंने देखा कि मैं स्वार्थी और धोखेबाज थी। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए मैंने कलीसिया के हितों को दरकिनार कर दिया था और अगर परमेश्वर के वचनों ने मेरा प्रकाशन न किया होता तो मैं खुद को समझ नहीं पाती और न ही बदल पाती। साथ ही अब मैं समझ गई हूँ कि मैं जो कुछ भी करती हूँ उसमें सत्य सिद्धांत खोजना कितना महत्वपूर्ण है और केवल सत्य की खोज करके और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करके ही मैं अपना कर्तव्य मानक तरीके से कर सकती हूँ।