56. परमेश्वर का वचन सभी झूठों पर भारी पड़ता है

इस साल जून में, मैं सिंचन कार्य की उपयाजक चुनी गई। एक दिन बहन चेंग लिन के साथ मैं नए सदस्यों की सभा आयोजित करने गई। नए विश्वासियों में बहुत-सी धारणाएं थीं। डर था कि कहीं मेरी संगति अबूझ होने से उनकी समस्याएं हल न हो पाएं, तो मैंने पहले ही अगुआ से कह दिया कि उनकी धारणाओं से जुड़े परमेश्वर के वचनों के अंश ढूँढने में मेरी मदद करे। सभा के दिन, मैंने नए सदस्यों की धारणाओं से जुड़े परमेश्वर के उन वचनों पर संगति की जो मैंने पहले से तैयार किये थे, मुझे पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन महसूस हुआ और उनकी धारणाएं हल हो गईं। हम समेटने जा ही रहे थे, तभी चेंग लिन ने पूछा, “नए सदस्यों के सवालों पर तुम्हारे जवाब आज काफी ब्योरेदार थे। क्या तुमने पहले अगुआ के साथ संगति की थी?” यह सुनकर मेरा दिल जोर से धड़कने लगा। मैं उस काम में नई थी, तो क्या उसे लगा कि मेरा आज का काम मेरी असली काबिलियत नहीं दिखाता? मगर डर लगा कि सच बोलने से चेंग लिन मेरा असली आध्यात्मिक कद जान जाएगी और सोचेगी कि मैं काबिल कार्यकर्ता नहीं हूँ। अगर उसे पता चला कि ज्यादातर संगति अगुआ की मदद से हुई, क्या वह तब भी मेरा आदर करेगी? मैंने सोचा कि मैं उसे सच नहीं बता सकती। इसलिए, मैंने कहा, “नहीं।” यह कहते ही लगा कि मैंने अपनी अंतरात्मा को धोखा दिया है। बेशक अगुआ और मैंने इस बारे में पहले संगति की थी, पर मैंने उसकी आँखों में देखकर ना कह दिया। क्या मैंने जानबूझकर झूठ नहीं बोला? अगर किसी दिन चेंग लिन ने अगुआ से इस बारे में पूछ लिया, तो मेरा झूठ उजागर हो जाएगा—यह कितना अपमानजनक होगा! वे सब यही कहेंगे कि मैं बड़ी धूर्त हूँ। मैंने जितना सोचा उतनी ही बेचैन हो गई। उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई। अगले दिन मैं उसे सब खुलकर बताने को तैयार हुई, पर शब्द मेरी जुबान पर अटक गए, मैं कुछ भी नहीं बोल पाई। मुझे डर लगा कि सच बताने से कहीं चेंग लिन मुझे नीची नजर से न देखे, यह न सोचे कि मैं काबिल नहीं हूँ, मेरा ध्यान बस नाम और रुतबे पर लगा रहता है। वो कह सकती है मैं बहुत कपटी हूँ, छोटी सी बात के लिए झूठ बोलती हूँ। यह सब सोचकर मैं चुप ही रही। घर लौटते वक्त मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : “तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। मैंने खुद को और अधिक दोषी माना। मैं एक सच्ची बात तक न कह पाई। मैं ऐसी ईमानदार इंसान कैसे बन सकती हूँ जो परमेश्वर को पसंद है? लगा जैसे मेरा दिल एक भारी बोझ तले दब गया हो—मैं डर गई। मैंने खुद से पूछा : मैं अच्छी तरह जानती हूँ, परमेश्वर को झूठे-मक्कार लोगों से नफरत है, तो फिर सच बोलना इतना मुश्किल क्यों है?

सोच-विचार करने पर समझ आया कि मैंने सिर्फ एक बात झूठ नहीं बोली थी। दूसरे मामलों में भी अक्सर मेरा रवैया यही रहता था। एक बार, अगुआ ने पूछा कि हम हर महीने कितने नए सदस्यों का सिंचन कर सकते हैं। मैं इस काम में नई थी, इसके सिद्धांतों को अच्छी तरह नहीं समझती थी, इसलिए मैं ज्यादा लोगों की जिम्मेदारी नहीं ले सकती थी। लेकिन अगर मैंने सच बोला, तो कहीं अगुआ यह न कहे कि मुझमें कमी है, और मैं इस काम के लायक नहीं हूँ। इसलिए मैंने कुछ बढ़ा-चढ़ाकर संख्या बता दी। लेकिन, बढ़ा-चढ़ाकर संख्या बताकर भी मैं सहज नहीं थी। डर लगा, कहीं बाद में ऐसा न लगे कि मैं अपनी क्षमता भी नहीं जानती, या कहीं इससे नए विश्वासियों के जीवन प्रवेश में देरी न हो जाए। मगर मैंने संख्या बता दी थी, और अगर खुलकर सच बताती तो शर्मिंदगी उठानी पड़ती। मुझे कड़वा घूँट पीकर आगे बढ़ना ही था। कुछ दिन पहले ही, अगुआ ने पूछा था कि एक नए सदस्य की समस्या हल करने में मुझे कितना समय लगा। पहले तो मैं उस नए सदस्य की धारणा को अच्छे से समझ नहीं पाई, इसलिए मैंने कई बार संगति की। जब अगुआ ने इस बारे में पूछा, तो डर लगा कि सच बोलने से कहीं अगुआ यह न कहे कि मुझमें काबिलियत नहीं है। ऐसी छोटी सी बात पर कई बार संगति करने से तो यही लगेगा कि मैं अकुशल और अयोग्य हूँ। अपनी छवि बचाने के लिए, मैंने झूठ बोला, कहा कि एक संगति में ही समस्या हल हो गई थी। फिर मुझे बेचैनी महसूस हुई, डर लगा किसी दिन उजागर न हो जाऊं। अपने व्यवहार के बारे में सोचा तो पाया कि अपनी छवि बचाने और लोगों पर अच्छी छाप छोड़ने की कोशिश में, मैं बहुत झूठ बोलती थी। मैं अंधकार और पीड़ा में जी रही थी, एक ईमानदार इंसान बनने के लिए परमेश्वर के मानकों से काफी दूर थी। मैंने उन भाई-बहनों के बारे में सोचा जो ईमानदार इंसान बनने और कपटी प्रकृति का हल करने में जुटे हैं। कुछ लोगों ने तो निजी गवाहियाँ भी लिखी थीं। मगर इतने बरसों की आस्था के बावजूद मैं काफी झूठ बोल रही थी, मुझमें ईमानदारी नाम की चीज नहीं थी। अगर अपनी आस्था में इसी राह पर चलती रही, तो परमेश्वर मुझे त्याग ही देगा। मैंने तुरंत प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैंने बरसों से तुम पर विश्वास किया है। फिर भी जहाँ अपने हित देखती हूँ, मैं झूठ बोलकर धोखा देती हूँ, जिससे तुझे नफरत है। मैं इस राह पर नहीं चलना चाहती। मेरी झूठ बोलने की समस्या हल करने के लिए मुझे रास्ता दिखाओ।”

अपनी भक्ति में मैंने यह अंश पढ़ा। “लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत-कुछ ऐसा कहते हैं, जो व्यर्थ, असत्य, अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण, और चीजों को उचित सिद्ध करने वाला होता है। मूलत:, वे ऐसी बातें अपने गौरव के लिए, अपने दंभ को संतुष्ट करने के लिए कहते हैं। उनका ऐसी झूठी बातें कहना उनके भ्रष्ट स्वभावों का बाहर आना है। इस भ्रष्टता का समाधान करने से तुम्हारा हृदय स्वच्छ हो जाएगा, और इस प्रकार तुम पहले से अधिक शुद्ध, अधिक ईमानदार हो जाओगे। वास्तव में, सभी लोग जानते हैं कि वे झूठ क्यों बोलते हैं : यह उनके हितों, इज्जत, घमंड और हैसियत के लिए होता है। और दूसरों के साथ अपनी तुलना करते हुए वे अपनी औकात से आगे बढ़ जाते हैं। नतीजतन, दूसरे उनके झूठ उजागर कर देते हैं और उनकी असलियत देख लेते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनकी इज्जत मिट्टी में मिल जाती है, चरित्र से वंचित होना पड़ता है और गरिमा खो जाती है। यह बहुत अधिक झूठ बोलने का परिणाम है। जब तुम बहुत अधिक झूठ बोलते हो, तो तुम्हारे द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द दूषित होता है। वह सब झूठ होता है, और उसमें से कुछ भी सत्य या तथ्यात्मक नहीं हो सकता। भले ही झूठ बोलते हुए तुम्हारी इज्जत न जाए, लेकिन तुम अंदर से पहले ही अपमानित महसूस करने लगते हो। तुम्हें लगेगा तुम्हारा अंत:करण तुम्हें दोष दे रहा है, और तुम खुद को तुच्छ समझोगे और अपना तिरस्कार करोगे। ‘मैं इतना दयनीय ढंग से क्यों रहता हूँ? क्या एक सच्ची बात कहना वाकई इतना मुश्किल है? क्या मुझे सिर्फ इज्जत बचाने के लिए ये झूठ बोलने की जरूरत है? इस तरह से जीना इतना थका देने वाला क्यों है?’ तुम ऐसे तरीके से जी सकते हो, जो थकाने वाला नहीं होता। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करते हो, तो तुम आसानी से और आजादी से जी सकते हो, लेकिन जब तुम अपनी इज्जत और घमंड की रक्षा के लिए झूठ बोलना चुनते हो, तो तुम्हारा जीवन बहुत थका देने वाला और कष्टदायक हो जाता है, जिसका अर्थ है कि यह स्व-प्रदत्त कष्ट है। झूठ बोलने से तुम्हें कौन-सी इज्जत मिलती है? यह इज्जत खोखली है, बिलकुल बेकार है। जब तुम झूठ बोलते हो, तो अपने चरित्र और गरिमा के साथ विश्वासघात कर रहे होते हो। इन झूठों की कीमत लोगों को अपनी गरिमा से चुकानी पड़ती है, अपने चरित्र से चुकानी पड़ती है, और परमेश्वर को वे अप्रिय और घृणित जान पड़ते हैं। क्या वे इसके लायक हैं? बिलकुल भी नहीं। क्या यह सही मार्ग है? नहीं। जो लोग अक्सर झूठ बोलते हैं, वे अपने शैतानी स्वभाव और शैतान के प्रभुत्व में फँसे रहकर जीते हैं, न कि प्रकाश में या परमेश्वर के सामने। तुम्हें अक्सर यह सोचने की जरूरत होती है कि झूठ कैसे बोला जाए, और झूठ बोलने के बाद तुम्हें यह सोचना पड़ता है कि उसे कैसे छिपाया जाए, और अगर तुमने उसे अच्छी तरह से नहीं छिपाया तो झूठ बाहर आ जाएगा, इसलिए तुम्हें उसे छिपाने के लिए अपना दिमाग चलाते रहने की जरूरत होती है। क्या यह जीने का थकाऊ तरीका नहीं है? यह बहुत थकाऊ है। क्या यह इस लायक है? बिलकुल नहीं। सिर्फ घमंड और हैसियत की खातिर झूठ बोलने और उसे छिपाने के लिए अपना दिमाग चलाने का क्या मतलब है? अंत में, तुम इसके बारे में सोचोगे और मन ही मन कहोगे, ‘मैं ये सब क्यों झेलूँ? झूठ बोलना और छिपाना बहुत थकाऊ है। इस तरह काम करने से नहीं चलेगा। ईमानदार व्यक्ति बनना अधिक आसान है।’ तुम ईमानदार व्यक्ति बनना चाहते हो, लेकिन अपनी इज्जत, घमंड और हित नहीं छोड़ सकते। तुम सिर्फ झूठ बोल सकते हो और इन चीजों का बचाव करने के लिए झूठ का इस्तेमाल कर सकते हो। ... तुम्हें लग सकता है कि झूठ बोलने से तुम्हारी वांछित प्रतिष्ठा, हैसियत और अभिमान की रक्षा हो सकती है, लेकिन यह एक बड़ी गलती है। झूठ से न केवल तुम्हारे अभिमान और व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा नहीं होती, बल्कि इससे भी गंभीर बात यह है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के अवसरों से भी वंचित हो जाते हो। यहाँ तक कि अगर तुम उस समय अपनी प्रतिष्ठा और घमंड की रक्षा कर भी लेते हो, तो भी तुम सत्य खो देते हो और परमेश्वर से विश्वासघात कर बैठते हो, जिसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने और पूर्ण बनाए जाने का अवसर पूरी तरह से खो देते हो। यह सबसे बड़ी क्षति और शाश्वत खेद है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, ईमानदार होकर ही व्यक्ति सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के सभी वचन मेरी असलियत बयान कर रहे थे। मैं अपने अहंकार और दंभ को बचाने के लिए हमेशा झूठ बोलकर धोखा देती थी। मैं दिखावा कर रही थी, जो जीने का एक थकाऊ तरीका है जिसने मुझे दुखी कर दिया। जब मैंने पहली बार नए विश्वासियों का सिंचन शुरू किया था, चेंग लिन ने देखा कि मेरी संगति ठीक-ठाक थी, तो उसने पूछा कहीं मैंने अगुआ से संगति तो नहीं की। यह बिल्कुल सामान्य सवाल था। मैं बस “हाँ” भी कह सकती थी। मगर मुझे डर लगा कि सच बोलने से वह मुझे नीची नजर से देखेगी। अपनी प्रतिष्ठा की बात सोचकर मैंने सरासर झूठ बोल दिया। फिर जब अगुआ ने पूछा कि हम हर महीने कितने नए सदस्यों का सिंचन कर सकते हैं, तो मैंने अपनी असली क्षमता नहीं बताई। मुझे लगा कि कम संख्या बताने से कहीं अगुआ मुझे अक्षम न मान ले, इसलिए मैंने जानबूझकर बढ़ा-चढ़ा आँकड़ा बताया। उसके बाद डरने लगी कि मैं इसे संभाल नहीं पाऊँगी—अपने काम का तनाव थकाऊ था। इस तरह मैं नए विश्वासियों का सिंचन भी कर रही थी। सत्य की अपनी उथली समझ के कारण, नए सदस्यों की समस्या हल करने के लिए मुझे कई बार संगति करनी पड़ती थी। मगर मैं यही सोचती थी कि अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे, इसलिए मैंने कह दिया कि एक ही संगति में समस्या हल हो गई। मैंने अपने अहंकार और दंभ को बचाने के लिए बार-बार झूठ बोलकर धोखा दिया, ताकि लोग मुझे स्वीकारें। मैं बहुत धूर्त और नकली थी! मैंने सोचा कि अगर सच नहीं बताया, तो अगुआ और दूसरे लोग मेरी असली क्षमता नहीं जान पाएंगे, और मेरी छवि बची रहेगी। मगर परमेश्वर तो सब देखता है। मैं लोगों को मूर्ख बना सकती हूँ, पर परमेश्वर को कभी नहीं। कुछ समय बाद सबके सामने मेरी कलई खुल जाएगी। तब उन्हें दिखेगा कि मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं है और मैं आदतन झूठ बोलती हूँ। झूठ बोलकर मैं सच में दहल जाती थी। डरती थी, जाने किस दिन मेरा झूठ पकड़ लिया जाएगा और मेरी कलई खुल जाएगी। तब मुझे बेइज्जत तो होना ही पड़ेगा, लोगों का भरोसा भी खो बैठूँगी। समय के साथ, इस चिंता और बेचैनी ने मुझे बहुत सताया। मैं टूट गई। मैं अंधकार और पीड़ा में थी। लगातार झूठ बोलकर धोखा देने, सत्य का अभ्यास न करने या ईमानदार न रहने से, मैंने कष्ट तो झेले ही, मेरी जिंदगी भी गरिमाहीन हो गई, जिससे परमेश्वर घृणा करता है। मैंने प्रभु यीशु की बातों को याद किया : “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है(मत्ती 5:37)। “तुम अपने पिता शैतान से हो और अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और सत्य पर स्थिर न रहा, क्योंकि सत्य उसमें है ही नहीं। जब वह झूठ बोलता, तो अपने स्वभाव ही से बोलता है; क्योंकि वह झूठा है वरन् झूठ का पिता है(यूहन्ना 8:44)। परमेश्वर ईमानदार लोगों को चाहता है तो कपटी लोगों से घृणा करता है। मेरी कथनी-करनी परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होनी चाहिए, मुझे बिना लाग-लपेट के बोलना चाहिए। खरी-खरी बात कहनी चाहिए। मगर अपनी छवि बचाने के लिए मैंने बार-बार झूठ बोला। यह दुष्ट, शैतान से अलग कहाँ है? शैतान हमेशा झूठ बोलता है—कभी कोई सच्ची बात नहीं करता। मैंने भी काफी झूठ बोले थे। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो परमेश्वर मुझे त्याग ही देगा। मैं अपनी छवि बचाने और त्वरित फायदे पाने के लिए झूठ बोलने और मुखौटा लगाने में लगी रहती थी। नतीजतन, मुझसे परमेश्वर ने घृणा की, लोग दूर हुए, और मैंने तकलीफ झेली। यह सरासर बेवकूफी थी।

मैंने आत्मचिंतन करते हुए परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। “जब लोग छल-कपट में संलग्न होते हैं, तब इससे किस तरह के प्रयोजन सामने आते हैं? और उद्देश्य क्या है? बिना किसी अपवाद के, यह रुतबा और प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए है; संक्षेप में, यह उनके अपने हितों के लिए है। और हितों के पीछे भागने के मूल में क्या है? जड़ यह है कि लोग अपने हितों को बाक़ी सब चीज़ों से ज्‍़यादा महत्‍वपूर्ण मानते हैं। वे अपना स्‍वार्थ साधने के लिए छल-कपट में संलग्न होते हैं, और इससे उनके कपटपूर्ण स्‍वभाव प्रकट हो जाते हैं। इस समस्‍या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? पहले तुम्हें यह पहचानना और जानना चाहिए कि हित क्या हैं, वे लोगों के लिए क्या लाते हैं, और उनके पीछे भागने के क्या परिणाम होते हैं। अगर तुम इसका पता नहीं लगा सकते, तो उनका त्याग कहना आसान होगा, करना मुश्किल। अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो अपने हित छोड़ने से कठिन कुछ नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके जीवन-दर्शन हैं ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’ और ‘अमीर बनो या कोशिश करते हुए मर जाओ’। जाहिर है, वे केवल अपने हितों के लिए जीते हैं। लोग सोचते हैं कि अपने हितों के बिना—अगर वे अपने हित खो देते हैं तो—वे जीवित नहीं रह पाएँगे, मानो उनका अस्तित्व उनके हितों से अविभाज्य हो, और इसलिए ज्यादातर लोग अपने हितों के अतिरिक्त सभी चीजों के प्रति अंधे होते हैं। वे उन्हें किसी भी चीज से ऊपर समझते हैं, वे केवल अपने हितों के लिए जीते हैं, और उनसे उनके हित छुड़वाना उनसे अपना जीवन छोड़ने के लिए कहने जैसा है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्‍वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। “धोखेबाज व्यक्ति इस बात से अवगत हो सकते हैं कि वे चालाक हैं, कि वे झूठ बोलने के शौकीन हैं और सच बोलना पसंद नहीं करते, और यह कि वे हमेशा दूसरों से यह छिपाने की कोशिश करते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, लेकिन फिर भी वे यह सोचते हुए मन-ही-मन खुश होते हैं कि, ‘इस तरह जीना बहुत अच्छा है। मैं लगातार दूसरों की आँखों में धूल झोंक रहा हूँ, लेकिन वे मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकते। जहाँ तक मेरे अपने हितों, गर्व, हैसियत और अभिमान की बात है, तो मैं लगभग हमेशा संतुष्ट रहता हूँ। चीजें मेरी योजनाओं के अनुसार, त्रुटिहीन ढंग से, निर्बाध रूप से चलती हैं, और कोई उनकी असलियत नहीं देख सकता।’ क्या इस तरह का व्यक्ति ईमानदार होने को तैयार है? नहीं। यह व्यक्ति धोखेबाजी और कुटिलता को बुद्धिमत्ता और ज्ञान समझता है, सकारात्मक चीजें मानता है। वह इन चीजों को सँजोता है और इनके बिना उसका काम नहीं चलता। वह सोचता है, ‘यह व्यवहार करने का सही तरीका और जीने का एक आरामदायक ढंग है। केवल इसी तरीके से जीने में जीवन का मूल्य है और केवल इसी तरीके से दूसरे मुझसे ईर्ष्या और मेरा आदर करेंगे। शैतानी फलसफों के अनुसार न जीना मेरे लिए मूर्खता और बेवकूफी होगी। मैं हमेशा नुकसान उठाऊँगा—मुझे धौंस दी जाएगी, मेरे साथ भेदभाव और एक नौकर की तरह व्यवहार किया जाएगा। इस तरह जीने का कोई मूल्य नहीं है। मैं कभी ईमानदार व्यक्ति नहीं बनूँगा!’ क्या इस तरह का व्यक्ति अपना कपटपूर्ण स्वभाव त्याग देगा और ईमानदार होने का अभ्यास करेगा? बिल्कुल नहीं। ... उन्हें सकारात्मक चीजों से कोई प्रेम नहीं है, वे प्रकाश की लालसा नहीं करते, और वे परमेश्वर के मार्ग से या सत्य से प्रेम नहीं करते। वे सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण पसंद करते हैं, वे हैसियत और प्रतिष्ठा के प्रति आसक्त होते हैं, उन्हें दूसरों के बीच श्रेष्ठ होना पसंद है, वे हैसियत और प्रतिष्ठा के प्रेमी होते हैं, वे महान और प्रसिद्ध लोगों की पूजा करते हैं, लेकिन असल में वे राक्षसों और शैतान की पूजा करते हैं। अपने दिलों में वे सत्य या सकारात्मक चीजों का अनुसरण नहीं करते, बल्कि ज्ञानार्जन की वकालत करते हैं। वे अपने दिलों में उन लोगों को स्वीकार नहीं करते, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर की गवाही देते हैं; इसके बजाय, वे ऐसे लोगों को स्वीकार करते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं, जिनमें विशेष प्रतिभाएँ और गुण होते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चलते, बल्कि हैसियत, प्रतिष्ठा और शक्ति का अनुसरण करते हैं, वे रहस्यमय और धूर्त बनने का प्रयास करते हैं, वे एक सुप्रसिद्ध हस्ती बनने के लिए खुद को समाज के ऊपरी तबकों से जोड़ने का प्रयास करते हैं। वे चाहते हैं कि वे जहाँ भी जाएँ, उनका सम्मान के साथ स्वागत-सत्कार किया जाए; वे लोगों के आराध्य बनना चाहते हैं। वे इसी तरह का व्यक्ति बनना चाहते हैं। यह किस तरह का मार्ग है? यह राक्षसों का मार्ग है, बुराई का मार्ग है। यह किसी विश्वासी द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग नहीं है। लोगों को उनके व्यक्तिगत भरोसे के कारण ठगने के लिए, उनसे अपनी आराधना और अनुसरण करवाने के लिए वे शैतान के दर्शनों, उसके तर्क का इस्तेमाल करते हैं, वे हर परिवेश में उसकी हर चाल, हर फरेब का इस्तेमाल करते हैं। यह वह मार्ग नहीं है, जिस पर परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को चलना चाहिए; न केवल ऐसे लोग बचाए नहीं जाएँगे, बल्कि उन्हें परमेश्वर का दंड भी मिलेगा—इसमें जरा भी संदेह नहीं हो सकता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने के द्वारा किसी को नहीं बचाया जा सकता)। परमेश्वर के वचनों ने दिखाया कि क्यों मैं बार-बार झूठ बोलकर धोखा देती थी, क्यों कभी सच बोलने और ईमानदार बनने की हिम्मत नहीं दिखाई। क्योंकि मुझमें धूर्त प्रकृति थी। मैं सत्य से ऊब गई थी, मुझे सकारात्मक चीजें पसंद नहीं थीं। मैंने सत्य हासिल करने या परमेश्वर को खुशी देने वाली इंसान बनने को प्राथमिकता नहीं दी। इसके बजाय, मैंने “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये,” “जैसे एक पेड़ अपनी छाल के लिए जीता है, उसी तरह एक मनुष्य अपनी इज्जत के लिए जीता है,” और “बिना झूठ बोले कोई बड़ा काम नहीं किया जा सकता” जैसे शैतानी फलसफों को अहमियत दी, सिर्फ अपनी छवि और हितों की परवाह की। जब मैं छोटी थी, महज मिडल स्कूल तक पढ़े मेरे एक रिश्तेदार खुद को कॉलेज ग्रेजुएट बताते थे। कोई खास हुनरमंद न होकर भी खुद को ऊँचा दिखाते, कहते कि उन्होंने इसकी पढ़ाई की है। जब वे इस तरह झूठ बोलते और दिखावा करते, तो लोग उन्हें नीची नजर से नहीं देखते, बल्कि उनका सम्मान और सराहना करते। मैं इससे प्रभावित थी। अनजाने में ही उन शैतानी नजरियों ने मेरे दिल में जगह बना ली। मुझे लगा कि कभी-कभी झूठ बोलने से भी बात बन सकती है। इससे तारीफ तो होती ही है, मन की मुराद भी पूरी हो सकती है। परमेश्वर के घर में आने के बाद भी मैं इसी सोच को पाले रही। अगर कहीं मेरी छवि या मेरे हितों की बात होती, तो मैं झूठ बोलकर धोखा देती और दिखावा करती। झूठ बोलकर ग्लानि होने पर भी, मुझे किसी से सच बोलने की हिम्मत नहीं होती, इस डर से कि अगर मैंने सच बोला तो मेरी असलियत पता चल जाएगी, और वे मेरे बारे में अच्छा नहीं सोचेंगे। इस तरह शर्मिंदा होने से तो मारा जाना ही अच्छा है! सच बोलने के बजाय मैंने अँधेरे में रहकर मुसीबतें उठाना पसंद किया और नकली और धूर्त बनती गई। कम्युनिस्ट पार्टी भी बिल्कुल ऐसी ही है। वह चाहे कितनी ही निंदनीय और बुरी चीजें करती है, पर उन्हें कभी सामने नहीं आने देती, बल्कि अपने झूठों से दुनिया को भरमाती है। वह लोगों को धोखा देने और बेवकूफ बनाने के लिए अपनी महान, शानदार होने की छवि गढ़ती है। वह बेहद नीच और घटिया है। क्या मेरा झूठ बोलना और धोखा देना भी कम्युनिस्ट पार्टी जैसा ही नहीं था? इससे मुझे परमेश्वर के वचन याद आये : “यह किस तरह का मार्ग है? यह राक्षसों का मार्ग है, बुराई का मार्ग है। यह किसी विश्वासी द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग नहीं है। लोगों को उनके व्यक्तिगत भरोसे के कारण ठगने के लिए, उनसे अपनी आराधना और अनुसरण करवाने के लिए वे शैतान के दर्शनों, उसके तर्क का इस्तेमाल करते हैं, वे हर परिवेश में उसकी हर चाल, हर फरेब का इस्तेमाल करते हैं। यह वह मार्ग नहीं है, जिस पर परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को चलना चाहिए; न केवल ऐसे लोग बचाए नहीं जाएँगे, बल्कि उन्हें परमेश्वर का दंड भी मिलेगा—इसमें जरा भी संदेह नहीं हो सकता।” परमेश्वर विश्वसनीय है। परमेश्वर चाहता है कि हम ईमानदार बनकर अंत में उसका उद्धार पाएं। मगर लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए शैतान सभी तरह के फलसफे और भ्रांतियां आजमाता है, ताकि हम अपनी इज्ज़त और रुतबे की खातिर लगातार झूठ बोलें और धोखा दें और नकली और धूर्त बनते जाएं। आखिर में, हम नर्क में गिर जाएंगे और उसके साथ ही दंडित होंगे। तब जाकर मैंने शैतान की कपटी और दुष्ट मंशा को साफ तौर समझा। मैंने उससे अथाह नफरत की और ईमानदार इंसान बनना चाहा।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े। “परमेश्वर का लोगों से ईमानदार बनने के लिए कहना यह साबित करता है कि वह वास्तव में धोखेबाज लोगों से घृणा करता है और उन्हें नापसंद करता है। धोखेबाज लोगों के प्रति परमेश्वर की नापसंदगी उनके काम करने के तरीके, उनके स्वभावों, उनके इरादों और उनकी चालबाजी के तरीकों के प्रति नापसंदगी है; परमेश्वर को ये सब बातें नापसंद हैं। यदि धोखेबाज लोग सत्य स्वीकार कर लें, अपना धोखेबाज स्वभाव पहचान लें और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने को तैयार हो जाएँ, तो उनके बचने की उम्मीद भी बँध जाती है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करता है, जैसा कि सत्य करता है। और इसलिए, यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले बनना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार के सिद्धांतों को बदलना होगा : अब हम शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी सकते, हम झूठ और चालबाजी के सहारे नहीं चल सकते, हमें अपने सारे झूठ त्यागकर ईमानदार व्यक्ति बनना होगा, तब हमारे प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण बदलेगा। पहले लोग दूसरों के बीच रहते हुए हमेशा झूठ, ढोंग और चालबाजी पर निर्भर रहते थे, और शैतानी फलसफों को अपने अस्तित्व, जीवन और मानव-व्यवहार की नींव की तरह इस्तेमाल करते थे। इससे परमेश्वर को घृणा थी। अविश्वासियों के बीच यदि तुम खुलकर बोलते हो, सच बोलते हो और ईमानदार रहते हो, तो तुम्हारी बदनामी की जाएगी, आलोचना की जाएगी और तुम्हें त्याग दिया जाएगा। इसलिए तुम सांसारिक चलन का पालन करते हो, शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो, झूठ बोलने में माहिर होते जाते हो और अधिक से अधिक धोखेबाज होते जाते हो। तुम अपना मकसद पूरा करने और खुद को बचाने के लिए कपटपूर्ण साधनों का उपयोग करना भी सीख जाते हो। तुम शैतान की दुनिया में समृद्ध होते चले जाते हो और परिणामस्वरूप, तुम पाप में इतने गहरे डूबते जाते हो कि फिर उससे निकल नहीं पाते। जबकि परमेश्वर के घर में ठीक इसके उलट होता है। तुम जितना अधिक झूठ बोलते और कपटपूर्ण खेल खेलते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे उतना ही अधिक ऊब जाते हैं और तुम्हें त्याग देते हैं। यदि तब भी तुम पश्चाताप नहीं करते, अब भी शैतानी फलसफों और तर्क से चिपके रहते हो, अपने आपको ढकने-छिपाने के लिए चालें चलते और बड़ी-बड़ी साजिशें रचते हो, तो बहुत संभव है कि तुम्हें उजागर कर निकाल दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से नफरत करता है। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के घर में समृद्ध हो सकते हैं, धोखेबाज लोगों को अंततः त्यागकर बाहर निकाल दिया जाता है। यह सब परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। “सत्य को स्वीकारना और स्वयं को जानना तुम्हारे जीवन के विकास और उद्धार का मार्ग है, यह तुम्हारे लिए अवसर है कि तुम परमेश्वर के सामने आकर उसकी जाँच को स्वीकार करो, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करो और जीवन और सत्य को प्राप्त करो। यदि तुम रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए, अपने हितों के लिए सत्य का अनुसरण करना छोड़ देते हो, तो यह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को प्राप्त करने और उद्धार पाने का अवसर छोड़ने के समान है। तुम रुतबा, प्रतिष्ठा और अपने हित चुनते हो, लेकिन तुम सत्य का त्याग कर देते हो, जीवन खो देते हो और बचाए जाने का मौका गँवा देते हो। किसमें अधिक सार्थकता है? यदि तुम अपने हित चुनकर सत्य छोड़ देते हो, तो क्या तुम मूर्ख नहीं हो? सीधे शब्दों में कहें तो यह एक छोटे से फायदे के लिए बहुत बड़ा नुकसान है। प्रतिष्ठा, रुतबा, धन और हित सब अस्थायी हैं, ये सब अल्पकालिक हैं, जबकि सत्य और जीवन शाश्वत और अपरिवर्तनीय हैं। यदि लोग रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ाने वाला अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर कर लें, तो वे उद्धार पाने की आशा कर सकते हैं। इसके अलावा, लोगों द्वारा प्राप्त सत्य शाश्वत होता है; शैतान उनसे यह छीन नहीं सकता, न ही कोई और उनसे यह छीन सकता है। तुमने अपने हितों का त्याग कर दिया, लेकिन तुमने सत्य और उद्धार प्राप्त कर लिया; ये तुम्हारे अपने परिणाम हैं। इन्हें तुमने अपने लिए प्राप्त किया है। अगर लोग सत्‍य पर अमल करने का चुनाव करते हैं, तो वे अपने हितों को गँवा देने के बावजूद परमेश्‍वर का उद्धार और शाश्‍वत जीवन हासिल कर रहे होते हैं। वे सबसे ज्‍़यादा बुद्धिमान लोग हैं। अगर लोग सत्‍य की क़ीमत पर लाभान्‍वित होते हैं, तो वे जीवन और परमेश्‍वर के उद्धार को गँवा देते हैं; वे सबसे ज्‍़यादा बेवकूफ़ लोग हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्‍वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। परमेश्वर के वचनों ने याद दिलाया कि सिर्फ ईमानदार इंसान ही बचाया जा सकता है और वही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेगा। कपटी लोगों को परमेश्वर उजागर कर त्याग देगा। कोई इंसान कैसा है और वह कौन सा रास्ता चुनता है, इसका सीधा असर उसकी आखिरी मंजिल पर पड़ता है। मगर मैं कितनी अंधी थी। सत्य से प्रेम करने के बजाय, मैंने बस अपनी छवि बनाये रखने पर ध्यान दिया, यहाँ तक कि बार-बार झूठ बोलकर दिखावा किया। सच जानने के बाद मैंने खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं की, सबसे बुनियादी झूठों को भी ठीक नहीं कर पाई। अपना स्वभाव जरा भी नहीं बदल पाई। इस तरह आस्था रखने पर भला परमेश्वर मुझे क्यों बचाएगा? मैंने देखा कि अपनी इज्जत की परवाह करने और निजी फायदे के पीछे भागने की कोई अहमियत नहीं है। इस रास्ते दूसरों की सराहना और मदद भले ही मिल सकती है, पर लगातार झूठ बोलकर परमेश्वर की घृणा की पात्र बनना और बचाये जाने का मौका गँवाना व्यर्थ ही है।

ईमानदार बनने का रास्ता खोजते हुए मेरी नजर परमेश्वर के इन वचनों पर पड़ी : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। जीवन में प्रवेश करने के लिए खुलकर बोलना सीखना सबसे पहला कदम है, और यह पहली बाधा है, जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक: दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना, परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग भी यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना किसी बंधन या पीड़ा के जिओगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि अपनी गरिमा और हितों की बात होने पर ईमानदार बनने और सच बोलने के लिए, सबसे पहले प्रार्थना कर परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकारना चाहिए। चाहे मुझमें कैसी भी खामियाँ या कमियाँ हों, कैसी भी भ्रष्टता दिखाऊँ, मैं लीपापोती कर इन्हें छिपा नहीं सकती। अपनी असलियत जाहिर करने और सत्य खोजने से ही झूठ बोलने की यह समस्या धीरे-धीरे खत्म होगी। चाहे मैं कैसी भी भ्रष्टता दिखाऊँ और मुझमें कैसी भी खामियाँ या कमियाँ हों, परमेश्वर सब साफ-साफ देख सकता है, मैं झूठ बोलकर और बहाने बनाकर लीपापोती नहीं कर सकती। भले ही लोग पहले-पहल मुझे पहचान न पाएँ, पर समय बीतने के साथ सब मुझे अच्छे से समझने लगेंगे। भले ही मुझ पर सिंचन कार्य की जिम्मेदारी थी, मैं उस काम में नई थी और मुझमें अभी भी बहुत-सी कमियाँ थीं। जब मुझे किसी नए सदस्य की धारणाओं या समस्याओं की समझ नहीं थी, या अनजाने सत्य पर स्पष्ट संगति नहीं कर पाती थी, तो किसी अगुआ की मदद लेना एक सामान्य तरीका था, इसमें कोई शर्मिंदगी कैसी। मुझे अपनी खामियों का खुलकर सामना करने, सच बोलने की हिम्मत दिखाने और सत्य पर अमल कर ईमानदार इंसान बनने की जरूरत थी। यही आगे बढ़ने का सही रास्ता है। इस बारे में सोचकर मेरा दिल रोशन हो गया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर पश्चात्ताप किया। मैं अपनी इज्ज़त और हितों के लिए बोलना और काम करना बंद कर दूँगी, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करूँगी। बाद में बहन चेंग लिन से मिलकर मैंने अपनी झूठ बोलने की समस्याओं के बारे में उसे सब कुछ बता दिया। मुझे काफी राहत महसूस हुई और सुकून मिला। मैं जानती थी मुझे अपनी छवि की काफी परवाह थी, हमेशा सोचती थी कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मसले सामने आने पर मैं अपनी इज्जत और हितों को बचाने में लग जाती थी, और झूठ बोलती थी। मैं परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे मेरे दिल पर नजर रखने को कहती रही, ताकि झूठ बोलने की इच्छा होते ही मुझे पता चल जाये, और मैं तुरंत अपना रास्ता बदलकर सच्ची और ईमानदार इंसान बन सकूँ।

एक बार, एक सभा में अगुआ ने एक नए विश्वासी की समस्या पर सबसे अपनी राय पूछी। मैं बहुत घबरा गई। वहां एक अगुआ मौजूद था। उसे मेरे मुकाबले सत्य और सिद्धांतों की अधिक समझ थी। पल भर में यह साफ हो जाता कि मैं समस्या को पहचान पाती हूँ या नहीं, मैं सही हूँ या गलत, और मुझमें कोई भटकाव तो नहीं है। अगर मैं समस्या की जड़ नहीं पकड़ पाई या उसे हल नहीं कर पाई तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगा? इस बारे में जितना सोचा उतनी ही परेशान होती गई, न खुद को शांत कर पाई, न ही सोच-विचार कर पाई। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : “तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना किसी बंधन या पीड़ा के जिओगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैंने सोचा : “सही बात है। मुझे ईमानदारी से सच बोलना चाहिए। चाहे मैं समस्या को समझ पाऊँ या नहीं, चाहे मेरी सोच गलत हो, फिर भी मुझे लीपापोती करने, छिपाने या बहाने बनाने या अपने बारे में अगुआ की राय की परवाह करने के बजाय बेबाकी से बोलना चाहिए। सबसे अहम है सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के समक्ष एक ईमानदार इंसान बनना।” इन विचारों ने मुझे शांत कर दिया। फिर मैंने अपनी राय बताई। इसे सुनने के बाद, अगुआ ने उन बातों पर संगति की जो हमसे छूट गई थीं। ऐसे बदलाव से मुझे बहुत कुछ हासिल हुआ। उसके बाद सिंचन कार्य के दौरान, जब भी कोई ऐसी समस्या आई जिसे मैं समझ नहीं पाई, तो मैंने अगुआ से मदद मांगी, अगुआ ने मेरी कमियाँ देखकर मदद की। इससे मैंने बहुत कुछ सीखा।

इस अनुभव से मुझे लगा कि परमेश्वर की अपेक्षा अनुसार सच बोलना कितना अद्भुत है। यह काफी राहत और सुकून देता है। अब मैं झूठ बोलने की बेचैनी और पीड़ा में नहीं जी रही हूँ। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ! अगर इन हालात में मुझे उजागर न किया गया होता या परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन न होता, तो मुझमें न कभी ऐसी समझ आती, न ही मैं बदल पाती।

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