61. सत्य ने मुझे मार्ग दिखाया

शिज़ाई, जापान

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर की सेवा करना कोई सरल कार्य नहीं है। जिनका भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तित रहता है, वे परमेश्वर की सेवा कभी नहीं कर सकते हैं। यदि परमेश्वर के वचनों के द्वारा तुम्हारे स्वभाव का न्याय नहीं हुआ है और उसे ताड़ित नहीं किया गया है, तो तुम्हारा स्वभाव अभी भी शैतान का प्रतिनिधित्व करता है जो प्रमाणित करता है कि तुम परमेश्वर की सेवा अपनी भलाई के लिए करते हो, तुम्हारी सेवा तुम्हारी शैतानी प्रकृति पर आधारित है। तुम परमेश्वर की सेवा अपने स्वाभाविक चरित्र से और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो। इसके अलावा, तुम हमेशा सोचते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वो परमेश्वर को पसंद है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आएगा; बल्कि तुम्हारी सेवा तुम्हें और भी अधिक ज़िद्दी बना देगी और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक जड़ें जमा लेगा। इस तरह, तुम्हारे मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे नियम बन जाएँगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर और तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुसार तुम्हारी सेवा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित होंगे। ये मनुष्य के अनुभव और सबक हैं। यह दुनिया में जीने का मनुष्य का जीवन-दर्शन है। इस तरह के लोगों को फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि वे कभी भी जागते और पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे निश्चित रूप से झूठे मसीह और मसीह विरोधी बन जाएँगे जो अंत के दिनों में लोगों को धोखा देते हैं। झूठे मसीह और मसीह विरोधी, जिनके बारे में कहा गया था, इसी प्रकार के लोगों में से उठ खड़े होंगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मुझे पाँच साल पहले का अपना एक अनुभव याद आता है। मैं कलीसिया की नयी-नयी अगुआ चुनी गयी थी। मैं वाकई उत्साहित थी, मैंने अपने कर्तव्य को गंभीरता से लेती थी। मैंने कलीसिया के कार्य को ठीक से निभाने को दृढ़ संकल्पित थी। जब मैंने सभी टीमों के काम के हालात का जायजा लेना शुरू किया, तो मैंने पाया कि टीम के कुछ सदस्य अपने काम के लिए सही नहीं थे, और टीम के अगुआ इसे सुधार नहीं रहे थे। कुछ को सिद्धांतों की समझ नहीं थी और उनके अगुआ संगति कर उनकी जल्द मदद नहीं कर रहे थे, जिसकी वजह से कलीसिया का कार्य प्रभावित हो रहा था। इससे मुझे सचमुच चिंता हुई, और मैंने सोचा, "ऐसी साफ नज़र आ रही समस्याओं को सुलझाये बिना छोड़ा जा रहा है। ज़ाहिर है ये लोग अपने काम को ले कर ज़िम्मेदार नहीं हैं। अगली सभा में मुझे उनसे खुल कर बात करनी होगी और यह पक्का करना होगा कि उन्हें यह एहसास हो कि वे कहाँ ग़लती कर रहे हैं।" अगली सभा में, मैंने उन टीम अगुआओं से उनके काम के बारे में बार-बार पूछा और जो कमियाँ और मसले मैंने देखे थे, उनके बारे में बताया। हालांकि उन्हें मालूम था कि वे व्यावहारिक कार्य नहीं कर रहे हैं और वे बदलने को तैयार भी थे, फिर भी मैं संतुष्ट नहीं हुई। मुझे लगा कि अगर मैं सख्त नहीं हुई, मसले का विश्लेषण कर उनसे नहीं निपटी, तो कोई फ़ायदा नहीं। फटकारने के लहजे में, मैंने कहा कि वे अपने कर्तव्यों में बेपरवाह हैं और व्यावहारिक समस्याओं को नहीं सुलझा रहे हैं, और इससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा हो रही है, वगैरह-वगैरह। अपनी बात पूरी कर लेने के बाद, मैंने उनसे यह नहीं पूछा कि वो कैसा महसूस कर रहे हैं, बल्कि बस मैं खुद की पीठ थपथपाती रही, सोचती रही कि मैंने समस्याओं का पता लगा कर उन्हें सुलझा दिया है। लेकिन कुछ दिन बाद, एक सहकर्मी ने मुझसे कहा, "एक टीम के अगुआ ने कहा कि वह तुम्हारे सामने आने में डरता है, वह सोचता है कि अगर तुम्हें उसके काम में कोई कमियाँ दिखाई दीं, तो तुम उससे निपटोगी।" यह सुन कर मैं थोड़ी परेशान हुई, लेकिन फिर मैंने तुरंत सोचा कि मैंने तो बस वही किया जिसकी ज़रूरत थी, यानी समस्याओं को खोजना और फिर उन्हें सुलझाना, और उन लोगों से निपटना ताकि वे सबक सीखें। इसमें मुझे कोई ख़राबी नज़र नहीं आयी। टीम के अगुआओं के साथ अगली बैठक में, मैं उनके काम के बारे में सख्ती से पूछती रही, और कोई कमी नज़र आने पर उन लोगों से निपटती और चीज़ों की चीरफाड़ करती। मैंने विश्वासपूर्वक यह भी कहा, "कुछ भाई-बहन अपने काम के बारे में सवाल पूछे जाने से डरते हैं। अगर तुम व्यावहारिक कार्य कर रहे हो तो फिर डरने की क्या बात है? तुम्हारे काम के बारे में जान कर ही समस्याओं का पता लगाया और उन्हें समय रहते सुधारा जा सकता है।" सभा के बाद, मैंने एक टीम के अगुआ को यह कहते हुए सुना, "मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभाने का तरीका सीख रही हूँ, और मुझे बहुत-सी दिक्कतें पेश आ रही हैं। मैं हमारी सभा में संगति द्वारा उनको सुलझाना चाहती थी, लेकिन बजाय इसके, मैं पहले से ज़्यादा तनाव में हूँ।" यह सुन कर मुझे थोड़ी परेशानी हुई, मुझे लगा कि सभा का बेनतीजा होना आंशिक रूप से मेरी ग़लती थी। पर तब मैंने सोचा कि शायद इसलिए ऐसा था क्योंकि मेरा आध्यात्मिक कद छोटा था और मेरी संगति स्पष्ट नहीं थी। एक नयी टीम अगुआ का बहुत तनाव महसूस करना सामान्य बात थी। मैंने पलट कर जवाब दिया, "तनाव से प्रेरणा मिलती है। अगर तुम्हें ऐसा नहीं लगा तो वो सही नहीं होता।" एक सहकर्मी को बाद में पता चला कि टीम के अगुआ मुझसे मिलने और मेरे द्वारा किए जाने वाले निपटारे से डरते हैं, तब उसने मुझे आगाह किया, "लोगों से इस तरह निपटना तुनकमिज़ाजी का नतीजा है। यह भाई-बहनों के लिए शिक्षाप्रद नहीं है। हमें उनके मसलों और दिक्कतों को सुलझाने के लिए सत्य की अधिक संगति करनी चाहिए।" मैंने यह मान कर इस बात को ज़्यादा तूल नहीं दी, कि मेरी मंशा सही है और भले ही मैं थोड़ी सख्त हूँ, मैं बस अपने काम की ज़िम्मेदारी ले रही हूँ। इसलिए अपने सहकर्मियों द्वारा बार-बार आगाह किये जाने के बावजूद, मैं आत्मचिंतन करने के लिए कभी भी परमेश्वर के सामने नहीं आयी। धीरे-धीरे मुझे अपनी आत्मा में अंधेरा फैलता हुआ महसूस होने लगा, और मुझे पवित्र आत्मा के कार्य का बोध भी नहीं हो पा रहा था। मैं दुखी और पीड़ित थी। तब जा कर मैंने परमेश्वर के सामने आत्मचिंतन किया : "मैं अपने कर्तव्य में कुछ भी क्यों नहीं हासिल कर पायी, मेरे सामने हमेशा अड़चनें क्यों आ जाती हैं? भाई-बहन हमेशा क्यों कहते हैं कि वे मेरे कारण बेबस हैं? क्या सच में ऐसा ही है जैसा मेरे सहकर्मी कहते हैं, कि मैं तुनकमिज़ाजी से लोगों से निपटती हूँ? लेकिन, मैं तो सिर्फ़ इसलिए सख्ती करती हूँ ताकि कलीसिया का कार्य सही ढंग से हो। अगर मैं ऐसा न करूं, तो क्या भाई-बहन महसूस करेंगे कि ये मसले कितने गंभीर हैं?" इस यंत्रणा में भी मैं खुद को सही ठहराने की कोशिश कर रही थी। मैं सचमुच दुखी थी।

प्रार्थना करने के बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता होने के नाते, अगर तुम लोग परमेश्वर के चुने लोगों का नेतृत्व वास्तविकता में करना चाहते हो और परमेश्वर के गवाहों के रूप में सेवा करना चाहते हैं, तो सबसे ज़रूरी है कि लोगों को बचाने में परमेश्वर के उद्देश्य और उसके कार्य के उद्देश्य की समझ तुम में होनी चाहिए। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और लोगों से उनकी विभिन्न अपेक्षाओं को समझना चाहिए। तुम्हें अपने प्रयासों में व्यावहारिक होना चाहिए; केवल उतना ही अभ्यास करना चाहिए जितना तुम समझते हो और केवल उस पर ही बात करनी चाहिए जो तुम जानते हो। डींगें न मारें, बढ़ा चढ़ा कर नहीं बोलें, और गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणियाँ न करें। अगर तुम बढ़ा चढ़ा कर बोलोगे, तो लोग तुमसे घृणा करेंगे और तुम बाद में अपमानित महसूस करोगे; यह बहुत अधिक अनुचित होगा। जब तुम दूसरों को सत्य प्रदान करते हो, तो उनके सत्य प्राप्त कर लेने के लिए यह जरूरी नहीं कि तुम उनसे निपटो या उन्हें फटकारो। अगर खुद तुम्हारे पास सत्य नहीं है, और तुम बस दूसरों से निपटते और फटकारते हो, तो वे तुमसे डरेंगे। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे सत्य को समझ जाते हैं। कुछ प्रशासनिक कार्यों में, दूसरों से निपटना और उन्हें काँटना-छाँटना और उन्हें एक हद तक अनुशासित करना तुम्हारे लिए सही है। लेकिन अगर तुम सत्य प्रदान नहीं कर सकते हो और केवल यह जानते हो कि रोबदार कैसे बनें और दूसरों का तिरस्कार कैसे करें, तो तुम्हारा भ्रष्टाचार और भद्दापन प्रकट हो जाएगा। समय बीतने के साथ, जैसे-जैसे लोग तुमसे जीवन या व्यावहारिक चीजों का पोषण प्राप्त करने में असमर्थ हो जाएंगे, वे तुमसे नफ़रत करने लगेंगे, तुमसे घृणा महसूस करने लगेंगे। जिन लोगों में विवेक की कमी होती है वे तुम से नकारात्मक चीजें सीखेंगे; वे दूसरों से निपटना, उन्हें काँटना-छाँटना, गुस्सा होना और अपना आपा खोना सीखेंगे। क्या यह दूसरों को पौलुस के मार्ग, विनाश की तरफ जाने वाले मार्ग पर ले जाने के समान नहीं है? क्या यह शैतान वाला काम नहीं है? तुम्हारा कार्य सत्य के प्रसार और दूसरों को जीवन प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अगर तुम आँख बंद करके दूसरों से निपटते हो और उन्हें उपदेश देते हो, तो वे कभी भी सत्य को कैसे समझ पाएंगे? जैसे-जैसे समय बीतेगा, लोग देखेंगे कि तुम वास्तव में क्या हो, और वे तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। तुम इस तरह से दूसरों को परमेश्वर के समक्ष लाने की आशा कैसे कर सकते हो? यह कार्य करना कैसे हुआ? अगर तुम इसी तरह से कार्य करते हो तो तुम सभी लोगों को खो दोगे। तुम आखिर किस काम को पूरा करने की आशा करते हो? कुछ अगुवे समस्याओं के समाधान के लिए सत्य का संचार करने में बिलकुल असमर्थ होते हैं। इसके बजाय, वे बस आँख मूंदकर दूसरों को निपटारा करते हैं और अपनी शक्ति का दिखावा करते है जिससे दूसरे उनसे डरने लगें और उनका कहा मानें—ऐसे लोग झूठे अगुवाओं और मसीह-विरोधियों के होते हैं। जिन लोगों के स्वभाव नहीं बदले हैं, वे कलीसिया का काम करने में असमर्थ हैं, और परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकते हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल वे ही अगुआई कर सकते हैं जिनके पास सत्य की वास्तविकता है')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी दशा को पूरी तरह से उजागर कर दिया था। मैं अपना कर्तव्य ठीक इसी तरह से निभा रही थी। समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य के बारे में संगति करने पर ध्यान देने के बजाय, मैं गुस्से से दूसरों से निपटने और उन्हें डांटने-फटकारने में लगी हुई थी। नतीजा यह हुआ कि वे बेबस और भयभीत हो कर मुझसे दूर रहने लगे थे। मेरे भ्रष्ट स्वभाव में जीने के कारण परमेश्वर भी मुझसे घृणा करने लगा था। मैं पवित्र आत्मा के कार्य को खो चुकी थी और अंधकार में डूब गयी थी। मैं उस वक्त को याद करने लगी, जब मुझे भाई-बहनों के काम में समस्याएँ नज़र आती थीं, तो मैं विरले ही सत्य को खोजती या विशेष संगति के लिए परमेश्वर के वचन ढूँढ़ती, और मैं सच में उन्हें अभ्यास का रास्ता नहीं दिखा रही थी। मैं अपने अहंकारी स्वभाव से बस उन्हें डांटती-फटकारती रहती। जब मैंने देखा कि वे मेरे कारण घुटन महसूस कर रहे हैं, तब भी मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। मुझे लग रहा था कि मैं अपने कर्तव्य की ज़िम्मेदारी ले रही हूँ, मैं परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील हूँ और व्यावहारिक समस्याओं को सुलझा रही हूँ। परमेश्वर ने मुझे सहकर्मियों के मार्फ़त सावधान किया कि मैं मनमाने ढंग से तुनकमिज़ाज होकर लोगों से न निपटूं, लेकिन मैंने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि कुछ भाई-बहन नकारात्मक हो गये थे। वे मुझसे डरते थे और दूर रहते थे। कलीसिया का कार्य भी ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा था। परमेश्वर की स्पष्ट अपेक्षा है कि अगुआ और कार्यकर्ता मुख्य रूप से सत्य के बारे में संगति के द्वारा अपना काम करें। अपने भ्रष्ट स्वभाव और अपनी भ्रष्टता की सच्चाई को पहचानने से पहले भाई-बहनों को सत्य को समझना होगा, तभी वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और ठीक ढंग से अपना कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरित होते हैं। लेकिन मुझे लगता था कि मुझे अपने काम में सख्त होना चाहिए, और जब मुझे कोई कमियाँ दिखाई पड़ें तो उन्हें बेरोकटोक डांटना और फटकारना होगा, इसी तरीके से वे अपनी समस्याओं को समझ कर उन्हें सुधार पायेंगे। मुझे लगता था कि नतीजे हासिल करने का यही एक तरीका है। तब मैं समझ सकी कि यह रवैया सचमुच में कितना बेतुका है! इस तरह काम करके मैं अपने पद का फ़ायदा उठा रही थी और घमंड से लोगों को फटकार कर बेबस कर रही थी। मैं दूसरों की समस्याओं को सत्य के बारे में संगति करके नहीं सुलझा रही थी। परमेश्वर की अपेक्षा है कि अगुआ भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य के बारे में संगति का इस्तेमाल करें, अगुआ सभी लोगों के बराबर ही हैं, वे लोगों की वास्तविक मुश्किलों के आधार पर परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करें, दूसरों को राह दिखाने और उनकी मदद करने के लिए अपने अनुभव और समझ के बारे में संगति करें। अगर वे किसी से निपटते हैं या उसे उजागर करते हैं, तो यह सत्य की संगति की बुनियाद पर ही होना चाहिए, और उन्हें समस्या के सार और मुख्य विशेषताओं पर रोशनी डालनी चाहिए ताकि लोग परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझ सकें, अपनी खुद की समस्याओं और उनकी प्रकृति को, अपनी समस्याओं के खतरनाक नतीजों को साफ़-साफ़ समझ सकें, यह जान सकें कि सत्य के अनुरूप रहने के लिए क्या करना है और परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य कैसे निभाना है। लेकिन मैंने परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभाया था। अपने कर्तव्य में अपने शैतानी स्वभाव के आधार पर लोगों को फटकारने की प्रकृति और नतीजों पर आत्मचिंतन करना तो दूर, मैंने अपने सहकर्मियों की चेतावनियों को सुना भी नहीं था, यह कह कर मैंने खुद को सही ठहराया कि यह सब मैंने उनके भले के लिए और कलीसिया के कार्य के लिए ही तो किया है। मैं अपने कर्तव्य में सही राह पर नहीं थी, दूसरों को लाभ तो मैं बिल्कुल नहीं पहुंचा रही थी, बल्कि वास्तव में उन्हें बेबस कर रही थी। वे सभी दुखी और दबाए गए थे। क्या मैं उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा रही थी? मैं दुष्टता कर रही थी! मैंने कभी नहीं सोचा था कि शैतानी स्वभाव के आधार पर अपना कर्तव्य निभाने के ऐसे गंभीर परिणाम हो सकते हैं। मुझे उनके साथ इस तरह निपटने और उन्हें फटकारने का सच में पछतावा हो रहा था। मैं प्रार्थना करने और खोजने के लिए तुरंत परमेश्वर के सामने आयी : जाने बिना ही मैं ऐसी दुष्टता कैसे कर बैठी?

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : "अगर तुम्हारे भीतर वाकई सत्य है, तो जिस मार्ग पर तुम चलते हो वह स्वाभाविक रूप से सही मार्ग होगा। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे भीतर अहंकार और दंभ मौजूद हुआ, तो तुम परमेश्वर की अवहेलना करने से खुद को रोकना असंभव पाओगे; तुम्हें महसूस होगा कि तुम उसकी अवहेलना करने के लिए मज़बूर किये गये हो। तुम ऐसा जानबूझ कर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे और अंततः परमेश्वर के स्थान पर बैठाएंगे और स्वयं के लिए गवाही दिलवाएंगे। अंत में तुम आराधना किए जाने हेतु सत्य में अपने स्वयं के विचार, अपनी सोच, और अपनी स्वयं की धारणाएँ बदल लोगे। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दुष्कर्म के मूल को प्रकाशित किया : मैं अपने अहंकारी और दंभी प्रकृति के काबू में थी। अपने अहंकारी और दंभी प्रकृति के कारण, मुझे हमेशा लगता था कि मैं दूसरों से ज़्यादा ज़िम्मेदार हूँ, इसलिए मैं उन पर हुक्म चलाती थी। जब भाई-बहनों के काम में कुछ ग़लतियाँ या चूक नज़र आती, तो मैं उन्हें नीची नज़र से देखती, अपने पद के इस्तेमाल कर उन्हें फटकारती, उनसे निपटती। मैं उदार या सहानुभूतिपूर्ण नहीं थी। इस अहंकारी प्रकृति के काबू में होने के कारण मुझे खुद पर कुछ ज़्यादा ही विश्वास था, मुझे लगता था कि समस्याओं को सुलझाने का सिर्फ एक ही तरीका है कि लोगों से सख्ती से निपटा जाए। मैंने अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को सत्य के रूप में पेश किया। यह देखने के बाद भी कि मेरा काम करने का तरीका दूसरों के लिए दमघोंटू है, मैं अपने ही तरीकों पर कायम थी, भाई-बहनों की बात सुनने को बिल्कुल तैयार नहीं थी। अपने सहकर्मियों के आगाह करने के बाद भी मैं आत्मचिंतन नहीं करना चाहती थी। मुझे लगता मैंने बस थोड़े-से सख्त लहजे का ही तो इस्तेमाल किया है, और वे निपटारे को झेल नहीं पाये। मैं अपना कर्तव्य अपने अहंकारी, शैतानी स्वभाव के आधार पर निभा रही थी, भाई-बहनों को नुकसान पहुंचा रही थी और कलीसिया के काम में रुकावट पैदा कर रही थी। मैंने दरअसल परमेश्वर का विरोध करने की दुष्टता की थी!

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "तुम परमेश्वर की सेवा अपने स्वाभाविक चरित्र से और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो। इसके अलावा, तुम हमेशा सोचते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वो परमेश्वर को पसंद है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आएगा; बल्कि तुम्हारी सेवा तुम्हें और भी अधिक ज़िद्दी बना देगी और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक जड़ें जमा लेगा। इस तरह, तुम्हारे मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे नियम बन जाएँगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर और तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुसार तुम्हारी सेवा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित होंगे। ये मनुष्य के अनुभव और सबक हैं। यह दुनिया में जीने का मनुष्य का जीवन-दर्शन है। इस तरह के लोगों को फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि वे कभी भी जागते और पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे निश्चित रूप से झूठे मसीह और मसीह विरोधी बन जाएँगे जो अंत के दिनों में लोगों को धोखा देते हैं। झूठे मसीह और मसीह विरोधी, जिनके बारे में कहा गया था, इसी प्रकार के लोगों में से उठ खड़े होंगे। जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, यदि वे अपने चरित्र का अनुसरण करते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, तब वे किसी भी समय बहिष्कृत कर दिए जाने के ख़तरे में होते हैं। जो दूसरों के दिलों को जीतने, उन्हें व्याख्यान देने और नियंत्रित करने तथा ऊंचाई पर खड़े होने के लिए परमेश्वर की सेवा के कई वर्षों के अपने अनुभव का प्रयोग करते हैं—और जो कभी पछतावा नहीं करते हैं, कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करते हैं, पद के लाभों को कभी नहीं त्यागते हैं—उनका परमेश्वर के सामने पतन हो जाएगा। ये अपनी वरिष्ठता का घमंड दिखाते और अपनी योग्यताओं पर इतराते पौलुस की ही तरह के लोग हैं। परमेश्वर इस तरह के लोगों को पूर्णता प्रदान नहीं करेगा। इस प्रकार की सेवा परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालती है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए)। इन वचनों ने मुझे भीतर तक चीर दिया, और मैंने महसूस किया कि परमेश्वर का स्वभाव कोई अपमान सहन नहीं करता। मैंने देखा कि वर्षों की अपनी आस्था में, मैंने सत्य के सिद्धांतों को खोजने पर ध्यान नहीं दिया था, बल्कि मैं अपने ही ढंग से अपना कर्तव्य निभा रही थी। मेरा अहंकारी स्वभाव बेलगाम था, मैं अपने बड़े पद से लोगों को फटकारती और लाचार करती थी, मैंने अपने भाई-बहनों को बेबस कर दिया था। उनका दम घुट रहा था और वे पीड़ित थे। मुझमें इंसानियत की बेहद कमी थी। मैं न सिर्फ भाई-बहनों की व्यवाहारिक समस्याओं को सुलझाने में नाकामयाब रही थी, बल्कि मैंने उनके जीवन प्रवेश में बाधा पहुंचाई थी और कलीसिया के कार्य को भी रोक दिया था। इसे मेरा कर्तव्य निभाना कैसे कहा जा सकता है? क्या मैं शैतान के गुलाम जैसा बर्ताव नहीं कर रही थी? मैं हमेशा सोचा करती थी कि मेरी मंशा सही है, मुझे कलीसिया के काम की परवाह है, लेकिन फिर मैंने देखा कि थोड़ा उत्साह होना और सिद्धांत को थोड़ा जान लेना अपने कर्तव्य से परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए काफी नहीं है। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार किये बिना मेरा शैतानी स्वभाव नहीं बदलने वाला, और तब मेरा कर्तव्य परमेश्वर की इच्छा से मेल नहीं खाने वाला। मैं न चाहकर भी दुष्टता करूंगी और परमेश्वर का विरोध करूंगी। मैंने उन नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा जिन्हें हटा दिया गया था, उन लोगों ने परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं किया था या सत्य का अभ्यास नहीं किया था, बल्कि उन्होंने शैतानी स्वभावों के साथ अपना कर्तव्य निभाया था, वे बेहद अहंकारी, दंभी और ढीठ थे, लोगों से मनमाने ढंग से निपटते और उन्हें फटकारते, खुद को ऊंचा मान कर अत्याचारी बन गए थे। दूसरों पर उनका प्रभाव नुकसानदेह होने के सिवाय कुछ नहीं था, और उन लोगों ने कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा कर उसे चौपट कर दिया था। उनका काम और कुछ नहीं सिर्फ दुष्टता करना और परमेश्वर का विरोध करना था! वैसे ही जैसे कि प्रभु यीशु ने कहा : "उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ'" (मत्ती 7:22-23)। इन सब बातों से मैं थोड़ी डर-सी गयी। अगर मैं अपने शैतानी स्वभाव के भरोसे अपना काम करती रही, तो मैं कलीसिया के कार्य को चौपट ही करूंगी और परमेश्वर द्वारा निकम्मा मान कर हटा दी जाऊंगी, ठीक उन दुष्कर्मियों की तरह जो परमेश्वर का विरोध करते थे। फिर मैंने महसूस किया कि कलीसियाई जीवन और मेरे कर्तव्य का फलहीन होना परमेश्वर द्वारा मुझे उजागर करना था, मुझे परमेश्वर के सामने आ कर आत्मचिंतन करना चाहिए और उसके आगे प्रायश्चित करना चाहिए। मैं बहुत अहंकारी थी, और परमेश्वर के वचनों से न्याय पाये और उजागर हुए बिना और सच्चाई से जो कुछ प्रकाशित हुआ था, उसके बिना मैं कभी समर्पण नहीं कर पाती। अपने शैतानी स्वभाव से अपना कर्तव्य निभाने के खतरनाक नतीजों को मैं कभी भी देख न पाती। उसी वक्त मुझे वाकई प्रेरणा मिली, और मुझे लगा कि मैं ऐसा नहीं चलने दे सकती। मुझे अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सत्य को खोजना ही होगा।

तब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "जब कोई समस्या आ पड़ती है, तो तुम्हारा दिमाग ठंडा और रवैया सही होना चाहिए, और तुम्हें कोई विकल्प चुनना चाहिए। समस्या को हल करने के लिए तुम्हें सत्य का उपयोग करना सीखना चाहिए। सामान्य स्थिति में, कुछ सत्यों को समझने का क्या उपयोग है? यह तुम्हारा पेट भरने के लिए नहीं होता, और यह तुम्हें केवल कहने को कुछ देने के लिए नहीं है, और न ही यह दूसरों की समस्याओं को हल करने के लिए है। ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसका उपयोग तुम्हारी अपनी समस्याओं, अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए है—खुद की कठिनाइयों को सुलझाने के बाद ही तुम दूसरों की कठिनाइयों को हल कर सकते हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'भ्रमित लोगों को बचाया नहीं जा सकता')। "तुम्हें उन लोगों की समझ होनी चाहिए जिनके साथ तुम सहभागिता करते हो और तुम्हें जीवन में आध्यात्मिक मामलों पर सहभागिता करनी चाहिए; तभी तुम दूसरों के जीवन की आपूर्ति कर सकते हो और उनकी कमियों को दूर कर सकते हो। तुम्हें उनसे भाषण देने वाले अंदाज़ में बात नहीं करनी चाहिए; ऐसा दृष्टिकोण रखना मूलत: गलत है। सहभागिता में तुम्हें आध्यात्मिक मामलों की समझ होनी चाहिए, तुम्हारे अंदर बुद्धि होनी चाहिए और तुम्हें यह समझना चाहिए कि लोगों के दिल में क्या है। यदि तुम्हें दूसरों की सेवा करनी है, तो तुम्हें सही व्यक्ति होना चाहिए और तुम्हारे पास जो कुछ भी है उसके साथ तुम्हें सहभागिता करनी चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचनों के ज़रिये मैंने समझा कि दूसरे लोगों की समस्याएँ सुलझाने के लिए पहले हमें परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर उनमें प्रवेश करना होगा। हमें सत्य को खोजना होगा और पहले अपनी भ्रष्टता को दूर करना होगा। यही चीज़ सबसे अहम है। यह ज़रूरी है कि हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को सही ढंग से समझें, ताकि जब कभी कोई दूसरा इस प्रकार की भ्रष्टता प्रदर्शित करे, तो हम जानेंगे कि उसकी मदद कैसे करें, अपने अनुभव और समझ के बारे में कैसे संगति करें ताकि हम उन्हें अभ्यास का मार्ग दिखा पायें। हम दूसरों से भी सही ढंग से पेश आ सकेंगे और जान सकेंगे कि हम जो भ्रष्टता दूसरों में देखते हैं वही हममें है, हूबहू वही है। तब हम यह नहीं सोचेंगे कि हम दूसरों से बेहतर हैं, बल्कि हम बराबर के स्तर पर संगति कर सकेंगे। संगति करने का यही एक तरीका है जो दूसरों को लाभ पहुंचायेगा। लेकिन इसके बजाय मैं क्या कर रही थी? मैं अपने प्रवेश पर ध्यान नहीं दे रही थी, न ही अपने कर्तव्य की समस्याओं पर गौर कर रही थी। इसके बजाय, मैं सिर्फ नाम के लिए काम कर रही थी, मानो मैं भ्रष्टता से आज़ाद हूँ। मैं दूसरों की समस्याएँ सुलझाने में व्यस्त थी, और जब मेरी संगति से फ़ायदा नहीं हुआ, तो मैंने उन्हें नीचा दिखाते हुए फटकारा। मैं इंसानियत के साथ नहीं जी रही थी। मैं हैवान की तरह थी। मैं परमेश्वर के प्रति चिढ़ और नफ़रत से भरी हुई थी और दूसरे लोगों के विरुद्ध थी। वास्तविकता यह थी कि ये भाई-बहन अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभाना चाहते थे, लेकिन वे उसका तरीका नहीं जानते थे क्योंकि वे सिद्धांतों को पूरी तरह नहीं समझते थे। जब काम में गलतियाँ और चूक होती हैं, तो हमें समझदारी और क्षमाशीलता दिखानी चाहिए, मार्गदर्शन कर सकारात्मक ढंग से मदद करनी चाहिए, ताकि हम सत्य को खोज कर मसलों को साथ-साथ सुलझा सकें। हमें सिर्फ उन लोगों को फटकारना और चेताना चाहिए, जो जानबूझ कर अपने कर्तव्यों में लापरवाह हों। हमें सभी के साथ इसी तरह पेश नहीं आना चाहिए। इसे समझ लेने के बाद मेरा दिल उज्ज्वल हो गया और मैं जान गयी कि अब आगे मुझे अपना कर्तव्य किस तरह निभाना है।

ज़्यादा वक्त नहीं बीता था कि मैंने टीम की अच्छी काबिलियत वाली एक अगुआ के बारे में सुना जिसे सत्य की शुद्ध समझ थी, जो सत्य के बारे में संगति करके कुछ व्यावहारिक समस्याओं को सुलझा पाती थी, लेकिन वो कुछ समस्याओं और दिक्कतों के कारण थोड़ा कमज़ोर महसूस कर पीछे चली गयी थी। इस बारे में सुनते ही मैं फिर एक बार बेचैन होने लगी, यह सोच कर कि वह अपने कर्तव्य को गंभीरता से नहीं ले रही है और मुझे उससे सख्ती से निपटना होगा। मैंने एकाएक महसूस किया कि मैं फिर एक बार बिना सोचे-समझे अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार काम कर रही हूँ। मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की और इस बार उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करने का संकल्प किया। तब मैंने टीम की उस अगुआ को खोजा और उससे दिल की बात की ताकि मैं उसकी हालत और दिक्कतों को समझ सकूं। मैंने अपनी संगति में परमेश्वर के वचनों में से उचित वचनों और अपने निजी अनुभवों का प्रयोग किया। उसने समझ लिया कि वह परमेश्वर के आदेश के प्रति निष्ठावान नहीं थी, और वह बदलना चाहती थी। मैं यह देख कर प्रेरित हुई कि मेरी बहन आत्मचिंतन करने में समर्थ है और बदलने को तैयार है। मैं यह वाकई समझ सकी की कलीसिया के अगुआ को दूसरों को सचमुच शिक्षित करने के लिए सत्य के बारे में संगति करने पर ध्यान देना चाहिए। लोगों के जीवन को फ़ायदा पहुँचाने का सिर्फ यही एक तरीका है।

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