48. इंसानियत के साथ जीने के लिए सत्य का अभ्यास करें

मिआओ शियाओ, चीन

मैं सोचती थी कि अपना कर्तव्य निभा कर, भाई-बहनों के साथ मिल-जुल कर और प्रत्यक्ष रूप से पाप न करके मैं इंसानियत के साथ जी रही हूँ। लेकिन परमेश्वर के वचनों ने बार-बार मेरा न्याय कर मुझे उजागर किया, आखिरकार मैं समझ सकी कि इंसानियत सिर्फ बाहरी व्यवहार के बारे में नहीं होती। इसकी कुंजी है परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना, अपने निजी हितों को छोड़ देना और कोई घटना हो जाने पर भी सिद्धांतों पर कायम रहना, परमेश्वर के कार्य का मान रखना और उसकी इच्छा की परवाह करना।

जुलाई 2018 में, सुसमाचार फैलाते समय हमारी कलीसिया की एक बहन गिरफ़्तार कर ली गयी। वह मेरे घर आयी थी, यानी अगर पुलिस उसका पीछा कर रही थी, तो उन्हें मेरे घर का पता भी मालूम होगा। हम लोग जल्दी से किसी दूसरी जगह जाने की कोशिश में लग गये। हमारे वहां बसते ही, एक सुपरवाइज़र ने आकर कहा, "तीन भाई-बहनों का पीछा कर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया है। वे सभाओं के लिए जहां-जहां गये, वहां के सभी लोगों को किसी दूसरी जगह भेज दिया गया है। आपको सावधान रहना चाहिए।" मुझे लगा, "चूँकि पुलिस कुछ भाई-बहनों को पहले ही गिरफ़्तार कर चुकी है, वे ज़रूर लंबे समय से उनकी टोह लेते रहे होंगे। कम्युनिस्ट पार्टी परमेश्वर और सत्य से घृणा करती है। वे सुराग ढूँढ़ने और बड़ी मछलियों को पकड़ने के मौके तलाशते रहते हैं, ताकि परमेश्वर की कलीसिया को मिटा दें और विश्वासियों को धर-दबोचें। हमारी सभाओं की तमाम जगहें उनकी निगरानी में होंगी, उन जगहों पर रहने वाले सभी लोगों को जल्द से जल्द वहां से कहीं और चले जाना चाहिए।" लेकिन सुपरवाइज़र ने सिर्फ़ उन जगहों की सूचना दी, जहां गिरफ़्तार किये गये लोग जाते थे, दूसरी जगहों की नहीं। मैं सोच में पड़ गयी कि उनसे कुछ कहूं या न कहूं। अगर मैंने नहीं कहा और कुछ अनहोनी घट गयी, तो कौन जाने कितने लोगों को गिरफ़्तार कर यातना दी जाएगी? इससे कलीसिया के कार्य का भी नुकसान होगा। लेकिन मेरे कुछ बोलने पर भी वे न सुनें, और कहें कि मैं बड़ी डरपोक हूँ, तो क्या उनके मन में मेरी सकारात्मक छवि नष्ट नहीं हो जाएगी? इस बारे में फ़िक्र करते हुए मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : "वह सब कुछ करो जो परमेश्वर के कार्य के लिए लाभदायक है और ऐसा कुछ भी न करो जो परमेश्वर के कार्य के हितों के लिए हानिकर हो। परमेश्वर के नाम, परमेश्वर की गवाही और परमेश्वर के कार्य की रक्षा करो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। इन वचनों ने मुझे याद दिलाया कि एक विश्वासी के रूप में मुझे परमेश्वर के कार्य और कलीसिया के हितों का मान रखना चाहिए। इसलिए, मैंने उन्हें अपनी सोच और अपना नज़रिया बताया। मेरी बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने अपने चेहरे पर नापसंदगी का भाव दिखा कर कहा, "चले जाएं? छोटी-सी बात पर भाग खड़े होना, क्या परमेश्वर के शासन में श्रद्धा रखना है? मेरा ख़याल था कि आपका एक आध्यात्मिक कद है और आप टीम की अगुआई कर सकती हैं, लेकिन साफ़ दिख रहा है कि कुछ घटते ही आप दुम दबा लेती हैं।" यह सुनकर मैं बहुत परेशान हो गयी। मेरे साथ उनके इस निपटान के बाद दूसरे लोग क्या सोचेंगे? इसके बाद मैं इन्हें क्या मुंह दिखाऊंगी? मगर फिर मैंने कलीसिया के कार्य का मान रखने और भाई-बहनों की सुरक्षा का धयान रखने के बारे में सोचा, इसलिए मैंने बात दोबारा छेड़नी चाही। लेकिन उनकी दृढ़ता देख कर मुझे चिंता हुई। निपटान के तुरंत बाद अगर मैंने वही बात दोबारा छेड़ी, तो वे कहेंगी कि मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं है, और कहेंगी कि मैं अहंकारी और ज़िद्दी हूँ। तब भी क्या वे मुझे सत्य की खोजी मानेंगी? उन्होंने हमेशा मेरी कद्र की है, मुझे अहम कर्तव्यों में शामिल किया है और कई मामलों में मुझसे सलाह-मशवरा किया है। अगर मैं अपनी राय पर अड़ी रही, तो वे मुझे प्रशिक्षित करना छोड़ सकती हैं, फिर दूसरे मुझे नीची नज़र से देखेंगे। मैंने बात वहीं छोड़ देने का फैसला किया। मैं सिर झुकाये रही, कुछ नहीं बोली।

उनके जाने के बाद, मैंने बड़ी बेचैनी महसूस की, इसलिए मैंने एक मौन प्रार्थना की। फिर परमेश्वर के ये वचन मेरे मन में कौंधे : "किसी व्यक्ति की मानवता के सबसे बुनियादी और महत्वपूर्ण घटक उसके विवेक और सूझ-बूझ हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें विवेक नहीं है और सामान्य मानवता की सूझ-बूझ नहीं है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता का अभाव है, वह एक बुरी मानवता वाला व्यक्ति है। आओ, इसका बारीकी से विश्लेषण करें। यह व्यक्ति भ्रष्ट इंसानियत को किस तरह से व्यक्त करता है कि लोग कहते हैं कि इसमें इंसानियत है ही नहीं। ऐसे लोगों में कैसे लक्षण होते हैं? वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं? ऐसे लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं, और अपने को उन चीज़ों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे परमेश्वर की गवाही देने या अपने कर्तव्य को करने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... यहाँ तक कि कुछ अन्य लोग भी हैं जो अपने कर्तव्य निर्वहन में किसी समस्या को देख कर चुप रहते हैं। वे देखते हैं कि दूसरे बाधा और परेशानी उत्पन्न कर रहे हैं, फिर भी वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर जरा सा भी विचार नहीं करते हैं, और न ही वे अपने कर्तव्य या उत्तरदायित्व का ज़रा-सा भी विचार करते हैं। वे केवल अपने दंभ, प्रतिष्ठा, पद, हितों और मान-सम्मान के लिए ही बोलते हैं, कार्य करते हैं, अलग से दिखाई देते हैं, प्रयास करते हैं और ऊर्जा व्यय करते हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने ठीक मेरे मन के हाल का ही खुलासा किया। मुझे पता था कि उन जगहों पर खतरा हो सकता है, अगर वहां के लोगों को हटाया नहीं गया, तो वे गिरफ़्तार किये जा सकते हैं। लेकिन मुझे डर था कि सुपरवाइज़र कहेंगी कि मैं डरपोक हूँ, श्रद्धा नहीं रखती, मेरे बारे में उनकी राय भी अच्छी नहीं रह जाएगी। मैंने सिद्धांतों पर कायम रहने और कलीसिया के कार्य का मान रखने की हिम्मत नहीं की। मैंने सत्य जानकर भी उसका अभ्यास नहीं किया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! हकीकत ने दिखा दिया है कि मैं अपनी आस्था में सत्य का अभ्यास नहीं करती। मैं परमेश्वर के कार्य का मान नहीं रखती। सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा, रुतबे और हितों के बारे में सोचती हूँ। बहुत स्वार्थी और घिनौनी हूँ! हे परमेश्वर, मुझे रास्ता दिखाओ। मैं सचमुच प्रायश्चित करना चाहती हूँ।" फिर मुझे याद आया कि कार्य व्यवस्था में कहा गया है कि हमें अपने कर्तव्य में सुरक्षा का हमेशा ध्यान रखना चाहिए। सुरक्षित माहौल में, भाई-बहन शांति से अपना कर्तव्य निभा सकते हैं, और परमेश्वर के घर का कार्य आसानी से बाधित नहीं होगा। इसके बाद, मैंने टीम के दूसरे लोगों के साथ अपनी सोच साझा की, वे मेरे साथ सहमत थे कि दूसरी जगहों पर भी खतरा है और वहाँ से लोगों को हटा देना चाहिए। मैंने फैसला किया कि सुपरवाइज़र से दोबारा मिलने पर मैं यह बात छेड़ूँगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना भी की और सत्य का अभ्यास करने की हिम्मत देने की विनती की।

कुछ दिन बाद, एक अन्य सुपरवाइज़र, बहन झांग हमारी टीम से मिलने आयीं। उन्होंने हमसे पूछा कि क्या हमने गिरफ़्तारियों के बारे में सुना है और इस बारे में हमारे क्या विचार हैं। मैंने तुरंत कहा, "मेरे ख्याल से सभाओं की दूसरी जगहें भी सुरक्षित नहीं हैं। हमें उनसे तुरंत वहां से कहीं और चले जाने को कह देना चाहिए अगर—" मेरी बात पूरी होने से पहले ही, बहन झांग ने सख्ती से कहा, "सुरक्षित? चीन में परमेश्वर में आस्था रखना कहाँ सुरक्षित है? हम खतरे से कहाँ मुक्त हैं? यह सुसमाचार फैलाने का अहम वक्त है। हर मोड़ पर डर जाएं, तो हम अपना कर्तव्य कैसे निभा पाएंगे? क्या आप परमेश्वर का कार्य पूरा होने और कम्युनिस्ट पार्टी के गिरने तक इंतज़ार करना चाहती हैं?" उन्होंने जो कहा वो सुनकर, मैंने सोचा, "मेरे कहने का यह मतलब नहीं था। परमेश्वर ने हमें अनुग्रह के युग में बताया, 'देखो, मैं तुम्हें भेड़ों के समान भेड़ियों के बीच में भेजता हूँ, इसलिये साँपों के समान बुद्धिमान और कबूतरों के समान भोले बनो' (मत्ती 10:16)। 'जब वे तुम्हें एक नगर में सताएँ, तो दूसरे को भाग जाना' (मत्ती 10:23)। चीन में अपना कर्तव्य निभाने के लिए बुद्धि चाहिए।" लेकिन बहन झांग के जवाब से मुझे समझ आ गया कि वे इन जगहों को नहीं बदलना चाहतीं, और अगर मैं ज़ोर दूं, तो वे कह सकती हैं कि मैं सत्य को स्वीकार नहीं करती और मेरे साथ कुछ गड़बड़ है। फिर उन्होंने आगे कहा, "डरपोक अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते। गिरफ़्तार होने पर वे यहूदा बन जाते हैं।" इस बात ने मेरे मन में सच में द्वंद्व पैदा कर दिया। अगर मैं सबके दूसरी जगह जाने की बात सुझाती रहती, तो सुपरवाइज़र शायद मुझे एक डरपोक समझें। शायद वे मुझे बर्खास्त भी कर दें। फिर दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मेरा जोश देख कर वे बारे में अच्छा सोचते हैं, वे अपनी समस्याओं के बारे में मुझसे संगति करने को कहते हैं। अगर वे सोचने लगें कि मैं डरपोक हूँ और सत्य को स्वीकार नहीं करती, तो वे मुझी उसी नज़र से देखेंगे जैसे अब देखते हैं, फिर मुझे उनका सामना करने में शर्मिंदगी महसूस होगी। मैंने इस बारे में बहुत सोचा, लेकिन जो सही है वो करने की मेरी इच्छा गायब हो चुकी थी। मैं सुपरवाइज़र के साथ अड़ियल रुख अपनाना नहीं चाहती थी। मैंने कहा, "मैं सिर्फ अपने विचार बता रही थी। क्या करना है, यह तो आप लोगों पर ही है।"

कुछ दिन बाद एक सुबह, एक बहन ने घबरा कर कहा कि उन गिरफ्तारियों के बाद कुछ सभा-स्थलों को जल्दी से बदला नहीं गया। पुलिस उनकी टोह ले रही थी, इसलिए तीन सुपरवाइज़रों और सभा-स्थलों के कुछ लोगों को हिरासत में ले लिया गया है। यह सुनकर मैं बहुत परेशान हो गयी। अगर मैं सिद्धांतों पर कायम रहती और उसी वक्त इसकी अहमियत समझायी होती, या मैंने कलीसिया के अगुआ से सीधे संपर्क किया होता, तो शायद आज हम इस हाल में नहीं होते। इतने सारे लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया, कलीसिया के कार्य को गंभीर नुकसान हुआ। इसका सीधा संबंध मेरे ज़िम्मेदार न होने और सिद्धांतों पर कायम न रहने से है। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। अब एक ही काम करना है, उन सभी लोगों को तुरंत सूचना देनी होगी जो संभावित खतरे में हैं, ताकि वे सीसीपी के दुष्ट हाथों में न पड़ जाएँ। मैंने भाई-बहनों को तुरंत इस काम में लगा दिया।

बाद में मैंने इस बारे में सोचा, मुझे पता था कि मुझे परमेश्वर के घर और कलीसिया के कार्य के हितों की रक्षा करनी चाहिए, तो फिर मैंने वास्तव में ऐसा क्यों नहीं किया? मैं इतनी स्वार्थी क्यों थी, मैंने सिर्फ अपने हितों की रक्षा क्यों की? फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में ये पढ़ा : "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज़ को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीज़ें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीज़ें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे शैतान के जहर से युक्त हैं। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि शैतान का जहर क्या है, इसे वचनों के माध्यम से पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम कुछ कुकर्मियों से पूछते हो उन्होंने बुरे कर्म क्यों किए, तो वे जवाब देंगे: 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का तर्क लोगों का जीवन बन गया है। भले वे चीज़ों को इस या उस उद्देश्य से करें, वे इसे केवल अपने लिए ही कर रहे होते हैं। सब लोग सोचते हैं चूँकि जीवन का नियम, हर कोई बस अपना सोचे, और बाकियों को शैतान ले जाए, यही है, इसलिए उन्हें बस अपने लिए ही जीना चाहिए, एक अच्छा पद और ज़रूरत के खाने-कपड़े हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह कथन वास्तव में शैतान का जहर है और जब इसे मनुष्य के द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है तो यह उनकी प्रकृति बन जाता है। इन वचनों के माध्यम से शैतान की प्रकृति उजागर होती है; ये पूरी तरह से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और यही ज़हर मनुष्य के अस्तित्व की नींव बन जाता है और उसका जीवन भी, यह भ्रष्ट मानवजाति पर लगातार हजारों सालों से इस ज़हर के द्वारा हावी रहा है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। परमेश्वर के वचन हमारी खुदगर्ज़ी की जड़ का खुलासा करते हैं। हम शैतानी दर्शनों के साथ जीते हैं, जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," और "ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं।" ये बातें हमारी सहज प्रकृति बन गयी हैं। सभी लोग सिर्फ अपने लिए लड़ते और जीते हैं, अपने हितों के लिए दूसरों के हितों की बलि चढ़ाते हैं। तमाम भ्रष्ट लोग इसी तरह जीते हैं, ज़्यादा स्वार्थी और कपटी हो जाते हैं, दुनिया और ज़्यादा अंधेरी और दुष्ट हो जाती है। आस्थावान होने पर भी परमेश्वर के वचन मेरा जीवन नहीं बन पाये। मेरी सोच में अभी भी इसी शैतानी ज़हर की जंग लगी हुई थी, इसी कारण मैं सत्य को जानते हुए भी उसका अभ्यास नहीं करती। मैं सुपरवाइज़रों का अपमान करने और अपनी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाने से डरती थी। सबसे अहम चीज़, सत्य और कलीसिया का कार्य नहीं, बल्कि मेरा अपना नाम और रुतबा था। मैं बहुत स्वार्थी थी! परमेश्वर पहले ही तय कर देता है कि मुझे कौन-सा काम कब करना है। लेकिन मैंने बेवकूफ़ी में यह सोचा कि मेरा भाग्य सुपरवाइज़रों के हाथ में है, इसलिए उनका अपमान करने से मेरे कर्तव्य का अंत हो जाएगा। क्या मैं यह नकार नहीं रही थी कि परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का शासन है? मैंने चीज़ों को वैसे ही समझा जैसे एक अविश्वासी समझता। मैं विश्वासी नहीं थी। फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : "चाहे परमेश्वर के कार्य और उनके घर के हितों को कितना भी बड़ा नुकसान हो जाए, तुम अपने विवेक से कोई धिक्कार महसूस नहीं करोगे, जिसका अर्थ है कि तुम कोई ऐसे व्यक्ति बनोगे जो अपने शैतानी स्वभाव से जीता हो। शैतान तुम्हें नियंत्रित करता है और तुम्हें कुछ इस तरह से जीने के लिए प्रेरित करता है जो न तो पर्याप्त रूप से मानवीय होता है, और न ही पूरी तरह से दानवीय। तुम परमेश्वर का दिया हुआ खाते हो, पीते हो, और जो कुछ भी उससे मिलता है, उसका आनंद लेते हो, फिर भी जब परमेश्वर के घर के कार्य का कोई नुकसान होता है, तो तुम सोचोगे कि तुम्हारा इससे कोई लेना-देना नहीं है, और जब तुम इसे होते हुए देखते हो, तो तुम 'अपनी कोहनी को बाहर की ओर मोड़ लेते हो',[क] और तुम परमेश्वर का पक्ष नहीं लेते, न ही परमेश्वर के कार्य को या परमेश्वर के घर के हितों को थामते हो। इसका मतलब है कि तुम पर शैतान का प्रभाव है, क्या ऐसा नहीं है? क्या ऐसे लोग मानव की तरह जीते हैं? जाहिर है, वो दुष्टात्मा हैं, मानव नहीं!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन मेरे दिल में खंजर की तरह चुभने लगे। मैं परमेश्वर की बनायी हवा में सांस ले रही थी और उसका दिया खा रही थी, उसी से मिले जीवन और सत्य का आनंद ले रही थी, यह सोचे बिना कि मुझे उसका प्रेम चुकाना है। मैंने परमेश्वर के घर के कार्य का भारी नुकसान होते देखा, भाई-बहनों को खतरे में देखा, लेकिन मैं अपने निजी हितों का ख्याल करके सिद्धांतों पर कायम नहीं रही। नतीजा यह हुआ कि 20 से भी ज़्यादा लोग गिरफ़्तार हो गये, जेल में डाल दिये गये, उन्हें यातना दी गयी, हमारे सुसमाचार के कार्य में गंभीर रुकावट पैदा हो गयी। भ्रष्टता में रहने के बयाँ न किये जा सकने वाले परिणाम हुए। मैं सिर्फ दुष्टता कर रही थी। मैं कभी नहीं समझ पायी थी कि परमेश्वर स्वार्थी लोगों से घृणा क्यों करता है, क्यों कहता है कि उनमें इंसानियत नहीं होती, वे शैतान के सगे होते हैं। अब मैं समझ सकी थी कि स्वार्थी लोग सिर्फ़ अपनी सोचते हैं, दूसरों की नहीं, कलीसिया के कार्य का भले ही नुकसान हो जाए, वे अपने ही हितों की रक्षा करते हैं। इसे इंसानियत कैसे कहा जा सकता है? जानवर भी हमसे बेहतर हैं। कुत्ते भी जानते हैं कि अपने मालिक के घर की रक्षा कैसे करें और वफादार रहें, मगर भले ही परमेश्वर ने मुझे इतना सब दिया, फिर भी मैंने उसी की थाली में छेद किया जिसने मुझे खाना दिया। मैं बिल्कुल भी वफादार नहीं हूँ, मैं इंसान कहलाने लायक नहीं हूँ। फिर मैं समझ पायी कि परमेश्वर का स्वार्थी लोगों को ज़िंदा शैतान कहना बढ़ा-चढ़ा कर कही गयी बात बिल्कुल नहीं है। अगर मैं प्रायश्चित करके नहीं बदली और मैंने सत्य का अभ्यास नहीं किया, तो मैं दुष्टता करूंगी, परमेश्वर का प्रतिरोध करूंगी और उसके द्वारा दंडित हो जाऊंगी। इस नाकामयाबी ने मुझे दिखा दिया कि सत्य का अनुसरण किये बिना और शैतानी स्वभाव को सुधारे बिना, हम सत्य का अभ्यास और परमेश्वर का आज्ञापालन नहीं कर सकते। फिर हम चाहे जितने वर्ष भी विश्वास रख लें, कितनी भी चीज़ें त्याग दें, कितना भी सहें, हम अपना स्वभाव नहीं बदल पायेंगे, या बचाये नहीं जा सकेंगे। फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर! कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों का इतना नुकसान इसलिए हुआ, क्योंकि मैंने सत्य का अभ्यास नहीं किया और सिद्धांतों पर नहीं चली। हे परमेश्वर, मैंने दुष्टता की है। मैं प्रायश्चित करने और तुम्हारी जांच के लिए तैयार हूँ। अगर मैं फिर भी न बदलूँ, स्वार्थी बनी रहूँ, परमेश्वर के घर के कार्य में साथ न दूं, तो तुम मेरा न्याय कर मुझे ताड़ना देना।"

अपनी प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "जब तुम ख़ुद को स्वार्थी और अधम होने के रूप में प्रकट करते हो, और इस बारे में जान जाते हो, तो तुम्हें सत्य की तलाश करनी चाहिए : परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए? मुझे कैसे बर्ताव करना चाहिए ताकि सबको लाभ पहुंचे? अर्थात, तुम्हें अपने हितों को भूलने से शुरुआत करनी चाहिए, अपने कद के अनुसार धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा करके उनका त्याग करना चाहिए। कुछ बार इसका अनुभव करने के बाद, तुम पूरी तरह अपने हितों को भूल चुके होगे, और ऐसा करते-करते तुम्हारी स्थिरता बढ़ती जाएगी। तुम जितना ज़्यादा अपने हितों को भुलाते जाओगे, उतना ही तुम्हें लगेगा कि इंसान के रूप में तुम में विवेक और तर्क होना चाहिए। तुम्हें महसूस होगा कि स्वार्थी उद्देश्यों के बिना, तुम स्पष्ट, ईमानदार व्यक्ति बन रहे हो, और तुम पूरी तरह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए काम कर रहे हो। तुम्हें महसूस होगा कि इस तरह का व्यवहार तुम्हें 'मानव' कहलाने के योग्य बनाता है, और इस तरह से पृथ्वी पर जीने के द्वारा, तुम एक स्पष्ट और ईमानदार व्यक्ति बनकर जी रहे हो, तुम एक सच्चे व्यक्ति की तरह बर्ताव कर रहे हो, तुम्हारी अंतरात्मा साफ़ है, और तुम उन सभी चीज़ों के योग्य हो जो परमेश्वर ने तुम पर न्यौछावर की हैं। तुम जितना इस तरह जीवन व्यतीत करोगे, उतना ही स्थिर और उजला महसूस करोगे। इस तरह, क्या तुमने सही रास्ते पर चलना नहीं शुरू कर दिया होगा?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में मननशील होना चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। फिर मैं समझ पायी कि एक ईसाई के रूप में, सच्चाई, प्रतिष्ठा और इंसानियत के साथ जीने का एकमात्र मार्ग, परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार जीना है, उसकी इच्छा का ध्यान रखना है, अपने हितों को छोड़ कर, हर बात में, परमेश्वर के कार्य की रक्षा करना है। तभी हमें सुकून मिल सकेगा। मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करके एक ईमानदार इंसान बनने की कोशिश करनी है।

नवंबर में एक शाम, 10 बजे के बाद, बहन ली नामक एक नयी सुपरवाइज़र हमारी टीम में आयीं। उन्होंने बताया कि उनकी कार्यकारी साथी, बहन लियू दो-चार दिन पहले दूसरे शहर से आयी एक बहन से मिलने गयीं, मगर वे वापस नहीं आयीं। उन्हें डर था कि वे गिरफ़्तार हो गयी हैं। अगर ऐसा है तो दूसरों को तुरंत किसी और जगह जाने को कहना होगा। उनका एक ख्याल यह भी था कि शायद बहन लियू किसी कारण से घर चली गयी हों, ऐसे में सभी को कहीं और भेज देने से उनके कर्तव्य का नुकसान होगा। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करना है। यह सुनकर मैंने सोचा, "बहन लियू ने अनेक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, बड़ी निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाया है। अगर वे घर चली गयी होतीं, तो हमें ज़रूर बतातीं। शायद वे गिरफ़्तार हो गयी होंगी। मुझे अगुआओं को तुरंत खबर कर देनी चाहिए।" लेकिन फिर मैंने सोचा, "बहन ली एक सुपरवाइज़र हैं। अगर उन्हें पक्का यकीन नहीं है और उन्हें कलीसिया के कार्य में रुकावट पैदा होने का डर है, तो मैं सुनिश्चित कैसे हो सकती हूँ? अगर हम इतना कष्ट उठा कर सबको दूसरी जगह भेजें, मगर बहन लियू को गिरफ़्तार न किया गया हो, तो अगुआ हमारा निपटान करेंगी, कहेंगी कि हम कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे हैं। मैं बोलूँ या नहीं?"

अपने इस संघर्ष में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : "वह सब कुछ करो जो परमेश्वर के कार्य के लिए लाभदायक है और ऐसा कुछ भी न करो जो परमेश्वर के कार्य के हितों के लिए हानिकर हो। परमेश्वर के नाम, परमेश्वर की गवाही और परमेश्वर के कार्य की रक्षा करो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। "कोई पल जितना अधिक संकटकालीन हो, यदि उसी के अनुसार लोग समर्पण करने में सक्षम हों और अपने स्वार्थ, मिथ्याभिमान और दंभ को त्याग सकें, तथा अपने कर्तव्यों को उचित रूप से पूरा कर सकें, केवल तभी वे परमेश्वर द्वारा याद किए जाएँगे। वे सभी अच्छे कर्म हैं! चाहे लोग जो भी करें, अधिक महत्वपूर्ण क्या है—उनका मिथ्याभिमान और दंभ, या परमेश्वर की महिमा? (परमेश्वर की महिमा)। क्या अधिक महत्वपूर्ण हैं—तुम्हारे दायित्व, या तुम्हारे स्वार्थ? तुम्हारे दायित्वों को पूरा करना अधिक महत्वपूर्ण है, और तुम उनके प्रति कर्तव्यबद्ध हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्‍वर और सत्‍य को प्राप्‍त करना सबसे बड़ा सुख है')। परमेश्वर साफ़ तौर पर हमें बताता है कि उसके कार्य का मान रखें और अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभायें। अब मेरे और कलीसिया के हितों के बीच के इस द्वंद्व को, परमेश्वर देख रहा है। अगर मैं पहले की तरह स्वार्थी बनी रही, तो इसका मतलब होगा कि मुझमें इंसानियत नहीं है। पिछली बार एक दुखदाई सबक मिला, भयानक कीमत चुकानी पड़ी। मैं वह गलती नहीं दोहरा सकती। मैंने बहन ली से कहा, "हो सकता है बहन लियू वापस घर चली गयी हों, मगर हम यकीन के साथ नहीं कह सकते। हमें बुरे से बुरे हालात के लिए तैयार रहना चाहिए, उन भाई-बहनों को किसी दूसरी जगह भेज देना चाहिए। हम ग़लत हुए भी तो यह कलीसिया के कार्य के लिए, सबकी सुरक्षा के लिए होगा। हम दूर की सोच रहे हैं। अगर हमें खतरा दिखाई दे, फिर भी हम समय रहते कार्यवाही न करें, और लोगों को गिरफ़्तार कर लिया जाए, तो हम सभी यहूदा बन जाएंगे, फिर किसी भी पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। दिन-ब-दिन खतरा बढ़ता जा रहा है। हमें तुरंत इस पर ध्यान देना होगा।" मैंने उन्हें बताया कि कैसे कुछ समय पहले कलीसिया के कुछ सदस्य गिरफ़्तार हो गए थे, फिर उन्होंने मेरी बात मान ली। अगले दिन सुबह-सवेरे उन्होंने कार्यवाही शुरू कर दी, एक रात बाद हम भी अपनी जगह से चले गये।

इस काम के दौरान सुपरवाइज़र ने कहा, "बहन लियू और वो दूसरी बहन गिरफ़्तार कर ली गयी हैं, पुलिस ने एक सभा स्थल से चार दूसरे लोगों को भी पकड़ लिया है। हम बिल्कुल ठीक समय पर चले गये। अगर हम इंतज़ार करते, तो और भी ज़्यादा लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया होता।" यह सुनकर मैं खौलने लगी। कम्युनिस्ट पार्टी बहुत दुष्ट है! चीन जैसे विशाल देश में ईसाइयों के छुपने की कोई जगह ही नहीं है! मुझे यह भी लगा कि कलीसिया के हितों की रक्षा करना कितना महत्वपूर्ण है। मैं बेहतर महसूस कर रही थी, क्योंकि इस बार मैं सत्य का अभ्यास कर पायी, ज़िम्मेदार रह पायी, इसलिए नुकसान थोड़ा कम हुआ। मुझे लगा कि परमेश्वर के वचनों के अनुरूप जीना ही इंसानियत के साथ जीने का एकमात्र मार्ग है। मैंने व्यक्तिगत रूप से यह भी महसूस किया कि परमेश्वर के वचनों के न्याय के बिना, मैं अभी भी शैतानी फलसफों और स्वभावों से बंधी रहती, दुष्टता और परमेश्वर का प्रतिरोध करती। मैं अपने हितों को छोड़ नहीं पाती, सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाती, मुझमें कभी भी इंसानियत नहीं होती। जैसे कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में कहा गया है : "यदि तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा सको, अपने दायित्वों और कर्तव्यों को पूरा कर सको, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत अभिलाषाओं और इरादों को त्याग सको, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रख सको, और परमेश्वर तथा उसके घर के हितों को सर्वोपरि रख सको, तो इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह जीने का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक संकुचित मन वाले या ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')

फुटनोट :

क. "अपनी कोहनी को बाहर की ओर मोड़ लेना" एक चीनी मुहावरा है, जिसका अर्थ है कि कोई किसी दूसरे व्यक्ति की मदद, उसी व्यक्ति के करीब के लोगों की, उदाहरण के लिए उसके माता-पिता, बच्चे, रिश्तेदार या भाई-बहन की, कीमत पर कर रहा है।

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