49. जीने का शानदार तरीका
बचपन में मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया था कि दूसरों के सामने ज्यादा खुलकर मत बोलो और कभी किसी को नाराज या परेशान मत करो, यही जीवन का फलसफा है। इसलिए मैं सहपाठियों, दोस्तों, पड़ोसियों—सभी के साथ हमेशा जीवन के इस तरह के शैतानी फलसफों के अनुसार चलती रही, "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है" और "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए"। जब भी मैंने किसी को गलती करते देखा, उसे नीचा नहीं दिखाना चाहा और उसकी कमियाँ उजागर करने की कोशिश नहीं की। लोग हमेशा मेरी तारीफ करते थे कि मैं दूसरों को समझती हूँ और उनका ध्यान रखती हूँ, और मुझे भी लगा कि यही जीने का सही तरीका है, कि यही दूसरों के साथ चलने का सबसे मूल सिद्धांत है। परमेश्वर में आस्था रखने और उसके वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि असल में यह अच्छा इंसान होना नहीं है, बल्कि यह तो जीवन के शैतानी फलसफों के अनुसार चलना है। इससे किसी को फायदा नहीं होता, बल्कि यह दूसरों को ठेस पहुँचा सकता है। चीजों को देखने का मेरा नजरिया बदल गया और परमेश्वर के वचनों ने मुझे आचरण के सही सिद्धांत दिए।
अगस्त 2019 में जब मुझे कलीसिया की अगुआ चुना गया, तो यह अवसर प्रदान करने के लिए मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हुई। मैंने मन ही मन उस कर्तव्य की जिम्मेदारी निभाने का संकल्प लिया। कुछ समय बाद मुझे भाई-बहनों के काम में कुछ गलतियाँ नजर आईं। उदाहरण के लिए, उनमें से कुछ अपने काम को लेकर लापरवाह थे, जिससे उन वीडियो में कुछ स्पष्ट समस्याएँ उत्पन्न हो रही थीं, जिन पर वे काम रहे थे। कुछ दूसरों के साथ अच्छी तरह से काम नहीं कर रहे थे, जिससे सभी का काम बेमेल हो रहा था और सबकी कार्यक्षमता प्रभावित हो रही थी। यह देखकर मैंने सोचा, "ये अपने कर्तव्य में भ्रष्टता दिखा रहे हैं। अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो परमेश्वर के घर के कार्य पर गंभीर असर पड़ना तय है। मेरा इनके साथ सहभागिता करना और इसका विश्लेषण करना जरूरी है, ताकि ये इसे समझ जाएँ और खुद को बदल लें।" लेकिन फिर मैंने सोचा, "अगर मैंने यह जिम्मेदारी मिलते ही सबकी समस्याएँ उजागर कीं, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे यह नहीं कहेंगे कि मैं बहुत सख्त हो रही हूँ, कि मैं बहुत कठोर हूँ और दूसरों के साथ नहीं चल सकती? अगर मैंने उन पर ऐसा प्रभाव छोड़ा, तो क्या वे मुझसे दूर नहीं हो जाएँगे? जाने दो। अभी इसका जिक्र नहीं करती। पहले मुझे हर एक के साथ एक अच्छा रिश्ता बनाना होगा।" इसलिए मैंने उन सब भाई-बहनों की गलतियों को अनदेखा कर दिया, क्योंकि मैं हमेशा लोगों को नीचा दिखाने या उन्हें संकट में डालने से डरती थी, जिससे हमारा संबंध खराब हो सकता था।
एक बार एक बहन ने मुझसे कहा कि भाई वांग अपने काम में बहुत अड़ियल है और किसी का भी सुझाव नहीं मानता, इससे प्रगति बाधित हो रही है। मैंने दूसरों से भी उनकी राय पूछी, और उन सभी का कहना था कि भाई वांग घमंडी और दंभी है, और दूसरों को नीचा दिखाता है, और उसके साथ काम करने वाले ज्यादातर लोग खुद को बेबस महसूस करते हैं। यह फीडबैक सुनकर मुझे पता चला कि भाई वांग के साथ काफी गंभीर समस्या है और अगर अभी इससे नहीं निपटा गया, तो यह उसके जीवन-प्रवेश और परमेश्वर के घर के कार्य, दोनों के लिए अच्छा नहीं रहेगा। मामले की गंभीरता समझने में उसकी मदद करने के लिए मुझे उसके साथ सहभागिता करने की कोशिश करनी होगी। मगर भाई वांग से बात करने पर मेरा वहाँ से लौट जाने का मन किया। मैंने सोचा, "दूसरों ने जिन समस्याओं का जिक्र किया है, वे भाई वांग की सबसे बड़ी खामियाँ हैं। अगर मैंने हर समस्या का जिक्र किया, तो क्या उसे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं उसे नीचा दिखा रही हूँ, मानो वह बिलकुल नालायक हो? क्या यह अपमानजनक नहीं होगा? फिर यदि उसे लगा कि मैं उसे व्यक्तिगत रूप से निशाना बना रही हूँ, तो क्या वह इसे लेकर मुझसे नाराज नहीं हो जाएगा? हम अपना काम करते हुए सभाओं में लगातार मिलते हैं। अगर हमारे बीच कुछ सही नहीं रहा, तो फिर हम साथ कैसे चल पाएँगे?" फिर मुझे खयाल आया कि कैसे वह सभाओं में अकसर अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में बोलता है, इसलिए अगर मैं इस मामले की गहराई में जाए बिना और उसकी कमजोर नस दबाए बिना इस तरफ कुछ इशारा भर कर दूँ, तो यह उसके लिए ज्यादा शर्मनाक नहीं होगा और हमारे बीच चीजें उतनी खराब नहीं होंगी। इसलिए अपनी सहभागिता में मैंने इसे हलका-सा छूते हुए बस इतना ही कहा कि वह अभिमानी है और दूसरों को नीचा दिखाता है। उसने मेरी बात सुनी और माना भी कि उसमें ये कमियाँ हैं, जिनका उसे पहले से पता है। मैं जान रही थी कि वह इस मामले की गंभीरता को नहीं समझ रहा, लेकिन मैंने आगे कुछ नहीं कहा। चूँकि उसने अपने बारे में कोई वास्तविक समझ हासिल नहीं की थी, इसलिए वह अपने काम में पहले की तरह अड़ियल बना रहा; वह दूसरों के साथ काम नहीं कर पा रहा था और उसकी वजह से कलीसिया के काम में देरी होने लगी। बाद में उसका तबादला कर दिया गया। उसने दूसरा काम ले लिया, लेकिन वह वहाँ पर भी ठीक से काम नहीं कर सका, क्योंकि उसका भ्रष्ट स्वभाव उस पर हावी रहा। एक दिन उसकी सुपरवाइजर ने गुस्सा होकर मुझसे कहा, "क्या तुम भाई वांग की समस्याओं के बारे में जानती थीं? अगर हाँ, तो तुमने उसके साथ सहभागिता क्यों नहीं की? उसके कारण हमारे काम की प्रगति पर काफी बुरा असर पड़ा है।" उसके कठोर शब्द सुनकर मुझे ऐसा लगा, जैसे सत्य का अभ्यास न करने के कारण उसके माध्यम से परमेश्वर मुझे फटकार रहा है। मुझे वाकई बुरा लगा, और मैंने खुद को अपराधी महसूस किया। अगर मैंने समय रहते उसकी समस्याएँ इंगित कर दी होतीं और उसने वाकई उन पर विचार किया होता, तो शायद वह अपना काम अच्छे से कर पा रहा होता। लेकिन उसे अपनी शैतानी प्रकृति की कोई वास्तविक समझ नहीं थी, इसलिए वह न सिर्फ अपने पिछले काम में असफल रहा, बल्कि तबादले के बाद भी नहीं बदला। वह अभी भी कलीसिया के काम में रुकावट डाल रहा था। क्या मैं दूसरों को दुःख नहीं पहुँचा रही थी और परमेश्वर के घर के काम में देरी नहीं कर रही थी? मुझे लगता था कि मुझमें अच्छी इंसानियत है, लेकिन अब मैंने देखा कि मैं सिर्फ दूसरों के साथ अपने रिश्ते कायम रख रही थी, ताकि मैं उन्हें शर्मिंदा न करूँ और वे मेरे बारे में बुरा न सोचें। लेकिन यह दूसरों के जीवन-प्रवेश या परमेश्वर के घर के कार्य के लिए बिलकुल भी सही नहीं था। क्या यह अच्छी इंसानियत रखना था?
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को नाराज़ नहीं करने का प्रयत्न करना, जहाँ भी तुम जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी तुम मिलो सभी से चिकनी-चुपड़ी बातें करना, और सभी को अच्छा महसूस कराना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? इसमें शामिल है परमेश्वर, अन्य लोगों, और घटनाओं के साथ सच्चे हृदय से बर्ताव करना, उत्तरदायित्व स्वीकार कर पाना, और यह सब इतने स्पष्ट ढंग से करना कि हर कोई देख और महसूस कर सके। इतना ही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदय को टटोलता है और उनमें से हर एक को जानता है। कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी कुछ बुरा नहीं किया, दूसरों का माल-असबाब नहीं चुराया, या अन्य लोगों की चीजों की लालसा नहीं की। यहाँ तक कि जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे नुक़सान उठाना चुनकर, अपनी क़ीमत पर दूसरों को लाभ उठाने देते हैं, और वे कभी किसी के बारे में बुरा नहीं बोलते ताकि अन्य हर कोई यही सोचे कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और चालाक होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड़यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ़ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे कुकर्मियों को बुरा करते देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह अच्छी मानवता का उदाहरण नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचन आचरण के सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। एक वास्तव में अच्छा इंसान संतुलन साधने का रास्ता नहीं चुनता, न ही दूसरों की समस्याओं के बारे में चुप रहता है। वह न तो पूर्ण सामंजस्य चाहता है, न ही दूसरों के साथ सही तालमेल बनाए रखने की कोशिश करता है। एक वास्तव में अच्छे इंसान के मानक उसके सिद्धांतवादी होने और न्याय की भावना रखने में निहित हैं। यह उस समय परमेश्वर के घर की रक्षा के लिए, जबकि उसके हित संकट में होते हैं, दूसरों की नाराजगी से डरे बिना सिद्धांतों पर कायम रहना है। भाई-बहनों से अपनी अंत:क्रिया में मेरा ध्यान सिर्फ किसी को अपमानित या शर्मिंदा न करने पर रहता था और मैं यह सोचती थी कि अगर मैंने सबसे अपने रिश्ते बनाए रखे, तो वे सभी मेरे बारे में अच्छा सोचेंगे। लेकिन यह सत्य के सिद्धांतों के बिलकुल भी अनुरूप नहीं था। मैंने दूसरों को भ्रष्टता से काम करते और परमेश्वर के घर के काम को बाधित करते देखा, लेकिन अपनी अच्छी छवि बनाए रखने के फेर में मैंने अपनी आँखें मूँद लीं और कलीसिया के हितों की रक्षा नहीं की। मैंने उन समस्याओं को नजरंदाज कर दिया, जो मुझे स्पष्ट दिख रही थीं। खासकर भाई वांग के मामले में मैं जानती थी कि उसकी समस्याएँ पहले ही परमेश्वर के घर के काम को बुरी तरह से प्रभावित कर चुकी हैं। लेकिन मुझे डर था कि कहीं वह यह न समझ बैठे कि मैं उसे व्यक्तिगत रूप से निशाना बना रही हूँ, कि कहीं वह मेरी बातों को स्वीकार न करे और मेरे प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त न हो जाए। इसलिए जब मैंने उसके साथ सहभागिता की, तो मैंने असली समस्या पर बल न देकर बस चीजों को नजरअंदाज किया। नतीजा यह हुआ कि उसने अपनी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिया। सतह पर मैंने नुकसान न पहुँचाने वाले व्यक्ति की अपनी अच्छी छवि बनाए रखी, लेकिन हकीकत में मैं कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को नुकसान पहुँचा रही थी। मैंने देखा कि मैं बस एक "भली इंसान" हूँ, दूसरों को खुश रखने की कोशिश करने वाली, पूरी तरह से धोखेबाज।
इसके बाद मैंने अपनी आराधना में परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "कलीसिया के कुछ अगुआ उन भाइयों और बहनों को डाँट-फटकार नहीं लगाते जिन्हें वे उनके कर्तव्य लापरवाही और मशीनी ढंग से पूरा करते देखते हैं, हालाँकि उन्हें ऐसा करना चाहिए। जब वे कुछ ऐसा देखते हैं जो परमेश्वर के घर के हितों के लिए स्पष्ट रूप से हानिकारक है, तो वे आँख मूँद लेते हैं, और कोई पूछताछ नहीं करते, ताकि दूसरों के थोड़े भी अपमान का कारण न बनें। उनका असली उद्देश्य और लक्ष्य दूसरों की कमज़ोरियों का लिहाज़ करना नहीं है—वे अच्छी तरह जानते हैं कि उनका मंतव्य क्या है : 'अगर मैं इसे बनाए रखूँ और किसी के भी अपमान का कारण न बनूँ, तो वे सोचेंगे कि मैं अच्छा अगुआ हूँ। मेरे बारे में उनकी अच्छी, ऊँची राय होगी। वे मेरा समर्थन करेंगे और मुझे पसंद करेंगे।' परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितनी अधिक क्षति पहुँची हो, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके जीवन प्रवेश में चाहे जितना अधिक बाधित किया जाए, या कलीसिया का उनका जीवन चाहे जितना अधिक अशांत हो, ऐसे लोग दूसरों को नुक़सान न पहुँचाने के अपने शैतानी फ़लसफ़े पर अड़े रहते हैं। उनके दिलों में कभी भी आत्म-धिक्कार का भाव नहीं होता; बहुत-से-बहुत, वे चलते-चलते शायद कुछ बातों का ज़िक्र भर कर देते हैं, और फिर बस हो गया। वे सत्य की संगति नहीं करते, न ही वे दूसरों की समस्याओं का मूलतत्त्व बताते हैं, और लोगों की दशाओं का विश्लेषण तो वे और भी नहीं करते। वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश के लिए लोगों की अगुआई नहीं करते, न ही वे बतलाते हैं कि परमेश्वर की इच्छा क्या है, या लोग अकसर कैसी ग़लतियाँ करते हैं, या लोग किस तरह के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। वे इन व्यावहारिक समस्याओं को हल नहीं करते; इसकी बजाय, वे दूसरों की कमज़ोरियों और नकारात्मकता के प्रति, यहाँ तक कि उनकी लापरवाही और उदासीनता के प्रति भी हमेशा दयालु होते हैं। वे इन लोगों के कृत्यों और व्यवहारों को उनकी वास्तविकता का ठप्पा लगाए बिना जाने देते हैं, और, ठीक इसीलिए कि वे ऐसा करते हैं, अधिकांश लोग सोचने लगते हैं : 'हमारा अगुआ तो हमारे लिए माँ जैसा है। हमारी कमज़ोरियों के प्रति उनमें परमेश्वर से कहीं ज़्यादा समझ-बूझ है। हमारा कद परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की दृष्टि से काफ़ी छोटा हो सकता है, लेकिन यह इतना काफ़ी तो है ही कि हमारे अगुआओं की अपेक्षाओं पर खरा उतर सके। हमारे लिए वे अच्छे अगुआ हैं। अगर कोई दिन आता है जब ऊपर वाला हमारे मुखिया का स्थान ले लेता है, तो हमें पक्का करना चाहिए कि हमारी बात सुनी जाए, और अपने भिन्न-भिन्न मत और इच्छाएँ सामने रखनी चाहिए। हमें ऊपर वाले के साथ सुलह के लिए बातचीत का प्रयास करना चाहिए।' अगर लोग मन में ऐसे विचार पालते हैं—अगर अपने अगुआ के साथ उनका इस प्रकार का संबंध है, और उनकी ऐसी छाप है, और उन्होंने अपने दिलों में अपने अगुआ के प्रति निर्भरता, सराहना, सम्मान और श्रद्धा की ऐसी भावनाएँ विकसित कर ली हैं—तो वह अगुआ कैसा महसूस करता होगा? अगर इस मामले में वे कोई आत्म-धिक्कार महसूस करते हैं, कुछ असहजता महसूस करते हैं और परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करते हैं, तो उन्हें दूसरों के दिलों में अपनी हैसियत या छवि को लेकर ग्रसित नहीं होना चाहिए। उन्हें परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए और उसे ऊँचा उठाना चाहिए, ताकि लोगों के दिलों में उसका स्थान हो, और ताकि लोग परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करें। केवल इसी प्रकार उनके हृदय को सच्ची शांति मिलेगी, और जो ऐसा करता है वही सत्य का अनुसरण करता है। तथापि, यदि उनके कार्यों के पीछे यह लक्ष्य नहीं है, और इसके बजाय वे इन पद्धतियों और तकनीकों का इस्तेमाल लोगों को सच्चे मार्ग से भटकाने और सत्य का परित्याग करने के वास्ते लुभाने के लिए करते हैं, तो लोगों के दिलों में निश्चित स्थान प्राप्त करने और उनकी सद्भावना जीतने के उद्देश्य से, लोगों द्वारा अपने कर्तव्यों के लापरवाह, अन्यमनस्क और ग़ैर-ज़िम्मेदार निर्वहन में लिप्त होने की हद तक चले जाना, क्या यह लोगों को अपने पक्ष में लाने की कोशिश नहीं है? और क्या यह दुष्ट, जघन्य हरक़त नहीं है? यह वीभत्स है!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (1)')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे कार्यों के पीछे के सार और मंशाओं को प्रकट कर दिया। अगुआ बनने के बाद से मैं बस लोगों के साथ संबंध बनाए रखने की कोशिश करती रही। मैं लोगों की समस्याओं को सामने लाने के बजाय बस उनकी गरिमा की रक्षा कर रही थी। भाई वांग को कलीसिया के काम में रुकावट डालते और उसे नुकसान पहुँचाते देखकर मुझे अत्यावश्यकता का बोध तक नहीं हुआ। इसके बजाय मैंने, यह चाहते हुए कि दूसरों के बीच मेरी जगह बनी रहे, सिर्फ इस बात पर ध्यान दिया कि मैं उसके बारे में कुछ गलत न बोल दूँ। बाहर से मैं सुशील और नुकसान न पहुँचाने वाली लगती थी, लेकिन यह सिर्फ एक मुखौटा था, जिसने भाई-बहनों को गुमराह किया। मैंने अपने तथाकथित अच्छे व्यवहार और मीठी बातों का इस्तेमाल लोगों को जीतने के लिए किया, ताकि वे मुझे पसंद करें और मेरी प्रशंसा और सम्मान करें। इस तरह मैं अपनी स्थिति मजबूत कर सकती थी। मैं अपना रास्ता साफ रखना चाहती थी और वह मैंने परमेश्वर के घर के हितों की कीमत पर किया। मैंने सत्य के सिद्धांतों के खिलाफ जाकर परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचाया। मैं मसीह-विरोधियों की राह पर चल रही थी। इस समय परमेश्वर के ये वचन मेरे ध्यान में आए : "हो सकता है तुम अपने रिश्तेदारों, मित्रों, पत्नी (या पति), बेटों और बेटियों, और माता पिता के प्रति अत्यंत स्नेहपूर्ण और निष्ठावान हो, और कभी दूसरों का फायदा नहीं उठाते हो, लेकिन अगर तुम मसीह के अनुरूप नहीं पाते हो और उसके साथ समरसता के साथ व्यवहार नहीं कर पाते हो, तो भले ही तुम अपने पड़ोसियों की सहायता के लिए अपना सब कुछ खपा दो या अपने माता-पिता और घरवालों की अच्छी देखभाल करो, तब भी मैं कहूँगा कि तुम धूर्त हो, और साथ में चालाक भी हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर के घर ने मुझे अगुआ बनने का मौका दिया, ताकि मैं सत्य का अभ्यास करने और कर्तव्य निभाने में दूसरों का मार्गदर्शन कर सकूँ, परमेश्वर के घर का कार्य कायम रख सकूँ, दूसरों की समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर सहभागिता करूँ, ताकि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझ सकें और सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना सीख सकें। यह मेरी जिम्मेदारी थी। लेकिन मैंने अपना कर्तव्य परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार नहीं निभाया। मैंने केवल दूसरों के साथ अपने रिश्ते और प्रतिष्ठा कायम रखने पर ध्यान दिया, जिसने अंतत: परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचाया और दूसरों के जीवन-प्रवेश में बाधा डाली। मैं शैतान की ओर से काम कर रही थी। मैंने देखा कि मैं ठीक वैसी ही हूँ, जैसा परमेश्वर ने अपने वचनों में उजागर किया है। न सिर्फ मैं एक अच्छी इंसान नहीं हूँ, बल्कि एक झूठी, खुदगर्ज और घृणा करने योग्य दुष्ट व्यक्ति भी हूँ। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया और खुद को नहीं बदला, तो मैं भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में एक रुकावट बनकर रह जाऊँगी। आखिरकार मैंने दूसरों के साथ अपनी अंत:क्रियाओं में जीवन के अपने नियमों को समझा। मैंने वास्तव में देखा कि "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है" और "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए" दरअसल शैतानी जहर हैं, सच्चे आचरण के सिद्धांत नहीं। मैंने पश्चात्ताप करने और अपने गलत लक्ष्य को सुधारने के लिए परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना की।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "यदि तुम परमेश्वर के साथ उचित संबंध बनाना चाहते हो, तो तुम्हारा हृदय उसकी तरफ़ मुड़ना चाहिए। इस बुनियाद पर, तुम दूसरे लोगों के साथ भी उचित संबंध रखोगे। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा उचित संबंध नहीं है, तो चाहे तुम दूसरों के साथ संबंध बनाए रखने के लिए कुछ भी कर लो, चाहे तुम जितनी भी मेहनत कर लो या जितनी भी ऊर्जा लगा दो, वह मानव के जीवनदर्शन से संबंधित ही होगा। तुम दूसरे लोगों के बीच एक मानव-दृष्टिकोण और मानव-दर्शन के माध्यम से अपनी स्थिति बनाकर रख रहे हो, ताकि वे तुम्हारी प्रशंसा करे, लेकिन तुम लोगों के साथ उचित संबंध स्थापित करने के लिए परमेश्वर के वचनों का अनुसरण नहीं कर रहे। अगर तुम लोगों के साथ अपने संबंधों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, लेकिन परमेश्वर के साथ एक उचित संबंध बनाए रखते हो, अगर तुम अपना हृदय परमेश्वर को देने और उसकी आज्ञा का पालने करने के लिए तैयार हो, तो स्वाभाविक रूप से सभी लोगों के साथ तुम्हारे संबंध सही हो जाएँगे। इस तरह से, ये संबंध शरीर के स्तर पर स्थापित नहीं होते, बल्कि परमेश्वर के प्रेम की बुनियाद पर स्थापित होते हैं। इनमें शरीर के स्तर पर लगभग कोई अंत:क्रिया नहीं होती, लेकिन आत्मा में संगति, आपसी प्रेम, आपसी सुविधा और एक-दूसरे के लिए प्रावधान की भावना रहती है। यह सब ऐसे हृदय की बुनियाद पर होता है, जो परमेश्वर को संतुष्ट करता हो। ये संबंध मानव जीवन-दर्शन के आधार पर नहीं बनाए रखे जाते, बल्कि परमेश्वर के लिए दायित्व वहन करने के माध्यम से बहुत ही स्वाभाविक रूप से बनते हैं। इसके लिए मानव-निर्मित प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। तुम्हें बस परमेश्वर के वचन के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की आवश्यकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि उचित अंतर्वैयक्तिक संबंध जीवन जीने के दुनियावी फलसफों के आधार पर नहीं बनाए जा सकते। हमें परमेश्वर के वचनों के अनुसार दूसरों की आत्माओं को पोषण देना चाहिए, और केवल इसी रूप में वह सबको लाभ पहुँचाएगा। जब मैंने दूसरों को भ्रष्ट स्वभाव के साथ अपना काम करते देखा, जिससे उनके काम पर बुरा असर पड़ रहा था, तब मुझे अपने रुतबे और छवि पर ध्यान नहीं देना चाहिए था। उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझने में मदद करने के लिए मुझे इस समस्या पर परमेश्वर के वचन लागू करने चाहिए थे और परमेश्वर की इच्छा पर सहभागिता करनी चाहिए थी, ताकि वे अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकें। परमेश्वर इसका अनुमोदन करता। सभाओं में भाई वांग अकसर परमेश्वर के वचनों की रोशनी में खुद को समझने में सक्षम होता था, जिसका मतलब था कि वह अपनी समस्याएँ हल करना चाहता है। बात सिर्फ इतनी थी कि वह समस्या की जड़ को नहीं समझता था और सच में खुद से नफरत नहीं कर पाता था, इसलिए समस्याएँ सामने आने पर वह फिर भी अपनी भ्रष्टता के भीतर ही जीता रहा। अगर मैंने समस्या के सार का विश्लेषण करने के लिए परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल किया होता, ताकि वह उनमें अभ्यास का मार्ग खोज सकता, तो इससे उसे वास्तव में मदद मिलती। इसका एहसास होने पर मैंने अपना गलत लक्ष्य बदलकर परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार काम करना चाहा। इसके बाद मैंने भाई वांग के काम से जुड़ी समस्याओं का सारांश तैयार किया और एक-एक करके उनकी सूची बनाई। मैंने उसके साथ सहभागिता की और उसके व्यवहार और समस्या की जड़ का विश्लेषण किया। इसके बाद, उसने न तो मुझसे उस तरह नफरत की और न ही मुझसे किनारा किया, जैसा कि मैं सोचती थी कि वह करेगा, बल्कि वास्तव में उसने मेरी सहभागिता स्वीकार की। बाद में उसने मुझे एक संदेश भेजा, जिसमें कहा गया था, "अच्छा किया जो आपने मुझसे इस बारे में बात की, वरना मैं कभी समस्या की गंभीरता नहीं समझ पाता।" मैं वाकई बहुत द्रवित हुई। जब मैंने अपने इरादे सुधार लिए और इस बात पर ध्यान केंद्रित नहीं किया कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं, बल्कि परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करते हुए सिद्धांतों का पालन किया, तब से मैं अपने आसपास के लोगों को व्यावहारिक सहयोग प्रदान कर पाई। मैंने सुकून और शांति भी महसूस की।
बाद में मैंने एक बहन को देखा, जो अपने काम में आलसी और जिद्दी थी, जिसके कारण बहुत-सी समस्याएँ उत्पन्न हो रही थीं। उसने इन समस्याओं को देखा और वास्तव में नकारात्मक हो गई। मैंने देखा कि वे समस्याएँ काफी हद तक अपने काम के प्रति उसके रवैये की वजह से थीं, इसलिए मैंने उसे इसका एहसास कराना चाहा। लेकिन फिर मैंने सोचा, "वह पहले से ही बुरा और निराश महसूस कर रही है। अगर मैंने उसकी समस्याओं के बारे में बात की, तो क्या यह उसके घाव पर नमक छिड़कने जैसा नहीं होगा? अगर वह और भी ज्यादा नकारात्मक हो गई, तो लोग यह कह सकते हैं कि मुझमें इंसानियत नहीं है, कि मैं क्षमाशील नहीं हूँ, और फिर वे मेरी आलोचना कर सकते हैं।" मैंने सोचा कि इतना ही काफी होगा कि मैं उसके काम से जुड़ी समस्याएँ दूर करने का तरीका ढूँढ़ लूँ, फिर मुझे उसकी समस्याओं का जिक्र नहीं करना पड़ेगा। फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं दोबारा उन शैतानी फलसफों के अनुसार काम कर रही थी, और अगर मैंने इस बहन को उसकी समस्याओं के बारे में नहीं बताया, तो वह अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं देख पाएगी और इससे उसे कोई मदद भी नहीं मिलेगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और वे सत्य जानने चाहे, जो मुझे इस स्थिति में लागू करने चाहिए। इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "परमेश्वर अपने कार्यों में कभी अस्थिर या संकोची नहीं होता; उसके कार्यों के पीछे के सिद्धांत और उद्देश्य स्पष्ट और पारदर्शी, शुद्ध और दोषरहित होते हैं, जिनमें कोई धोखा या षड्यंत्र बिलकुल भी मिला नहीं होता। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के सार में कोई अंधकार या बुराई शामिल नहीं होती" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। "परमेश्वर बीच-बचाव नहीं करता; वह मानुषिक विचारों से बेदाग़ है। उसके लिए एक का मतलब एक है और दो का मतलब दो है; सही का मतलब सही है और ग़लत का मतलब ग़लत है। कोई दुविधा नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल वास्तव में आज्ञाकारी होना ही एक यथार्थ विश्वास है')। इसने मुझे दिखाया कि परमेश्वर अपने वचनों और कर्मों में बहुत सिद्धांतवादी है, उसे अपनी पसंद और नापसंद के बारे में पता है। परमेश्वर लोगों के सही काम करने का अनुमोदन करता है, लेकिन जब वे सत्य के खिलाफ जाकर परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं, तो वह इससे घृणा करता है। परमेश्वर अपने कर्मों में बिलकुल स्पष्ट है—उनमें कोई अस्पष्टता नहीं है। इससे मुझे खयाल आया कि प्रभु यीशु को क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले किस तरह पतरस ने कहा था, "हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी न होगा" (मत्ती 16:22)। फिर भी प्रभु ने कहा, "हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो!" (मत्ती 16:23)। ऐसा कहकर पतरस अनिवार्य रूप से परमेश्वर के कार्य के रास्ते में खड़ा हो रहा था, इसीलिए परमेश्वर ने उसे शैतान के रूप में पहचाना। प्रभु यीशु पतरस के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने या उसे परेशान करने के डर से पीछे नहीं हटा। उसने पतरस के कर्मों के आधार पर एक स्पष्ट निश्चय किया, ताकि उसे पता चले कि परमेश्वर का नजरिया स्पष्ट है, और वह अपने कर्मों की प्रकृति को जान ले। लोगों के प्रति परमेश्वर के नजरिये ने मुझे अभ्यास के सिद्धांत दिखाए। भाई-बहनों की कुछ समस्याओं में सहनशीलता और धैर्य की आवश्यकता होती है, लेकिन अगर कोई चीज उनके काम पर बुरा असर या परमेश्वर के घर के काम में रुकावट डालती है, तो सहभागिता करना और सत्य के सिद्धांतों का पालन करना जरूरी हो जाता है। मैं हर वक्त दूसरों को खुश नहीं रख सकती। मैं जानती थी वह बहन नकारात्मक महसूस कर रही है, लेकिन सही इरादों के साथ, उसे नीचा दिखाए बिना या घमंड के साथ फटकारे बिना, अपनी समस्याओं का विश्लेषण करने में उसकी मदद करने के लिए प्यार से सत्य पर सहभागिता करने से वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझ सकती थी। फिर हम अभ्यास का मार्ग खोज सकते थे और मेरा कर्तव्य परमेश्वर की इच्छा के अनुसार पूरा हो जाता। बाद में मैंने उसकी समस्याओं पर सहभागिता करने और उसके गलत नजरियों पर चर्चा के लिए उसे बुलाया। उसके मार्गदर्शन के लिए मैंने अपना अनुभव भी साझा किया। पहले तो मुझे डर लगा कि इस तरह की सहभागिता बहुत कठोर है और शायद वह इसे झेल न पाए। लेकिन सहभागिता के बाद वह मुझे ज्यादा उदास या मेरे प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हुई, जैसा कि मैंने सोचा था, बल्कि उसने बहुत ईमानदारी से कहा कि वह पहले सचमुच अपनी समस्याएँ समझ नहीं पाई थी और इस तरह से निपटा जाना उसे स्वीकार्य था। इसके बाद अपने कर्तव्य को लेकर उसके रवैये में सुधार हुआ और वह सचेत होकर सत्य के सिद्धांतों का अनुसरण करने लगी। यह देखकर मुझे वाकई खुशी हुई। सत्य का अभ्यास करके और अपना कर्तव्य परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार निभाकर मुझे बहुत अच्छा लगा।
दूसरों के साथ अपनी अंत:क्रियाओं में मुझे हमेशा यह डर लगा रहता था कि ज्यादा कठोर बनकर कहीं मैं लोगों को शर्मिंदा न कर दूँ, इसलिए मैंने अपने रिश्ते दुनियावी फलसफों के आधार पर निभाए। वह जीने का एक थकाऊ तरीका था। इन अनुभवों के जरिये और परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मैंने जाना कि वास्तव में एक अच्छा इंसान होने का क्या मतलब है। मैंने यह भी अनुभव किया कि दूसरों के साथ अंत:क्रिया करते समय सत्य के सिद्धांतों का पालन करना और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना बहुत जरूरी है। यही अच्छे आचरण का वास्तविक सिंद्धांत है। परमेश्वर का धन्यवाद!