94. खराब काबिलियत की बेबसी से आखिरकार मैं मुक्त हो गई

झोउ हुई, चीन

अप्रैल 2020 में मुझे प्रचारक चुना गया था और दो कलीसियाओं के काम की जिम्मेदारी दी गई थी। यूँ तो न मेरी काबिलियत बहुत अच्छी थी, न ही कार्यक्षमताएँ, मैं जानती थी कि मुझे यह कर्तव्य सौंपने की अनुमति परमेश्वर ने दी है और इसलिए मैं परमेश्वर पर भरोसा करने और इसे पूरा करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने को तैयार थी। सुसमाचार कार्य का दायरा बढ़ने के चलते कलीसिया को सुसमाचार कार्यकर्ताओं और सिंचनकर्ताओं को तुरंत तैयार करने की जरूरत थी। मुझे पाठ-आधारित कार्य और कलीसिया के स्वच्छता कार्य में भी भाग लेना था। मैं एक समय में सिर्फ एक ही चीज पर ध्यान केंद्रित कर सकती थी और मैं बेहद व्यस्त थी। मैं कुछ मुद्दों को भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रही थी और किसी भी काम में कोई नतीजा नहीं मिल रहा था। इस स्थिति का सामना करते हुए मैं बहुत दबाव में थी। मैंने पिछले प्रचारक के बारे में सोचा। उसके पास अच्छी काबिलियत और कार्यक्षमताएँ थीं और वह बहुत सारा काम सँभालने में सक्षम थी। उसके मुकाबले मेरी काबिलियत बहुत खराब थी। अपनी खराब काबिलियत के चलते मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाती थी और किसी भी दिन मुझे बर्खास्त किया जा सकता था। मुझे बहुत पीड़ा हुई। बाद में मैंने अपने कर्तव्य में दक्षता सुधारने के तरीके खोजे। जब मुझे कोई समस्या मिलती थी तो मैं जल्दी से उसे लिख लेती थी और उससे संबंधित सत्य सिद्धांतों की तलाश करती थी। लेकिन कुछ समय बीत जाने पर भी नतीजों में सुधार नहीं हुआ। मुझे बस यही लगा कि मेरी काबिलियत खराब है और मैं चाहे जितनी कोशिश कर लूँ, इससे बेहतर नहीं कर सकती हूँ। कुछ समय बाद उच्च अगुआ एक जनमत सर्वेक्षण करने के लिए कलीसिया में आए। जब उन्होंने देखा कि मेरी काबिलियत खराब है और मैं वास्तविक काम नहीं कर सकती हूँ तो उन्होंने मुझे बर्खास्त कर दिया।

बर्खास्त होने के बाद मैं बहुत नकारात्मक हो गई और मन में सोचने लगी, “मेरी काबिलियत इतनी खराब क्यों है? अगर परमेश्वर ने मुझे बेहतर काबिलियत दी होती तो मैं अपना कर्तव्य इतने खराब तरीके से नहीं करती। अच्छी काबिलियत वाले लोग कहीं भी जाएँ, कई तरह के काम सँभाल सकते हैं। ये लोग अच्छे कर्म अधिक संचित करते हैं और उनके पास बचाए जाने की अधिक संभावना होती है। मेरी काबिलियत इतनी खराब है कि मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर सकती। अगर मैं परमेश्वर के घर में किसी काम की नहीं हूँ और अपना कर्तव्य नहीं कर सकती हूँ तो मेरे पास कोई भी अच्छा कर्म नहीं होगा और बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं होगी।” बाद में कलीसिया ने मुझे सुसमाचार कार्य में लगा दिया और मुझे थोड़ी उम्मीद दिखी और मैं सोचने लगी, “एक प्रचारक के नाते मैं कई तरह के काम सँभाला करती थी और अपनी खराब काबिलियत के कारण मैंने अच्छा कार्य नहीं किया। अब मुझे यह एक-अदद काम वाला कर्तव्य ठीक से निभाने में सक्षम होना चाहिए।” चूँकि मैं सुसमाचार कार्य से बहुत परिचित नहीं थी, इसलिए मैंने संबंधित सिद्धांत सीखने का प्रयास किया। कुछ समय के बाद मैं कुछ सरल समस्याओं से निपटने में सक्षम हो गई, लेकिन मैं थोड़े अधिक जटिल मुद्दों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाती थी। सुसमाचार कार्य से अभी भी कोई महत्वपूर्ण नतीजे नहीं मिले थे और इसलिए मैं और भी नकारात्मक होकर सोचने लगी, “मैं इस एक काम को भी ठीक से नहीं कर पाती। क्या मैं इसी लायक हूँ? क्या परमेश्वर इस कर्तव्य का उपयोग यह खुलासा करने के लिए कर रहा है कि मेरी काबिलियत कम है और मैं बेकार हूँ? क्या वह मुझे निकालने की योजना बना रहा है? परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला है, और अगर मैं कोई भी कर्तव्य ठीक से नहीं कर सकी तो मुझे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी इतने सालों की आस्था व्यर्थ चली जाए? यहाँ सुसमाचार कार्य में बाधा डालने के बजाय बेहतर हो कि मैं इस्तीफा दे दूँ और कुछ सामान्य कार्य करूँ। शायद मैं अभी भी एक सेवाकर्ता बनकर बची रह सकती हूँ।” मैं वाकई बहुत परेशान थी और अपने दिन निराशा में आहें भरते हुए और अपने कर्तव्य में उदासीन रहते हुए बिता रही थी। मैं खुद को सुसमाचार प्रचार से संबंधित सत्यों से युक्त करने का प्रयास भी नहीं करना चाहती थी और मैं अपने द्वारा प्रकट भ्रष्टताओं के समाधान के लिए सत्य खोजना नहीं चाहती थी। मुझे लगा कि अपनी खराब काबिलियत को देखते हुए आगे अनुसरण करना व्यर्थ है। इसके बाद मेरी अवस्था लगातार बिगड़ती चली गई। मैं समस्याएँ नहीं सुलझा सकी और मेरे काम में नतीजों में और भी गिरावट आने लगी। शाम होते-होते मैं शारीरिक और मानसिक रूप से थकान महसूस करती थी और रात को आठ-नौ बजे तक मुझे नींद आने लगती थी। मैं अपने कर्तव्य में बहुत निष्क्रिय हो गई थी और कई मौकों पर तो मैं उन संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं तक को भूल जाती थी, जिन्हें उपदेश देना होता था। इससे मैं और भी नकारात्मक हो गई थी। मैंने अपनी बेटी से कहा, “मेरी काबिलियत इतनी खराब है कि मैं कोई भी कर्तव्य ठीक से नहीं कर पाती। तुम्हें लगन से प्रयास करते रहना चाहिए और मैं बस तुम्हारी मेजबानी करने और कुछ सेवा करने की भूमिका निभाऊँगी।” फिर मेरी बेटी ने मेरे साथ संगति की, “माँ, परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि व्यक्ति में खराब काबिलियत होने का यह मतलब है कि उसे बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव से घृणा करता है। अगर व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, अपना स्वभाव बदलने पर ध्यान केंद्रित करता है और अपनी पूरी क्षमताओं से कर्तव्य निभाता है, तब भी उसे बचाया जा सकता है, भले ही उसकी काबिलियत खराब हो। मैंने देखा है कि इन दिनों जब तुम्हारे साथ कुछ होता है तो तुम परमेश्वर के इरादे नहीं खोजती हो और हमेशा अपनी खराब काबिलियत का रोना रोती रहती हो। तुम्हारी यह अवस्था काफी खतरनाक है और अगर इसका समाधान नहीं किया गया तो अंत में तुम्हें बचाया नहीं जा सकेगा और ऐसा इसलिए होगा क्योंकि तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया, न कि तुम्हारी खराब काबिलियत के कारण।” मेरी बेटी की बातों ने मुझे झकझोर दिया। “सही बात है। इस दौरान अपने कर्तव्य में कोई नतीजे नहीं मिलने पर यह सोचकर मैं खुद को सीमित करती रही हूँ कि मुझमें काबिलियत की कमी है, चाहे मैं कितनी भी कोशिश करूँ, यह बेकार ही जाएगी। मैं अपने कर्तव्य में आने वाली मुश्किलों के बारे में भी सोचने की इच्छुक नहीं हूँ, न ही मैंने अध्ययन करने की कोशिश है। मैं नकारात्मक अवस्था में फँस चुकी हूँ और बाहर नहीं निकल पा रही हूँ। अगर मैं नकारात्मक बनी रही और खुद को सीमित करती रही, अपना कर्तव्य ठीक से नहीं कर पाई या सत्य की खोज नहीं की तो यह सच में खुद को निकालने जैसा होगा। मुझे तुरंत परमेश्वर के इरादे खोजने और अपने मुद्दे सुलझाने की जरूरत है।” बाद में मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे लगता है कि मेरी खराब काबिलियत के कारण मैं एक बेकार व्यक्ति के रूप में बेनकाब हुई हूँ, जिसका उद्धार नहीं हो सकता। मैं इस स्थिति में वाकई नकारात्मक हो गई हूँ और कमजोर पड़ गई हूँ। परमेश्वर, इस गलत अवस्था से बाहर निकलने में मेरा मार्गदर्शन करो।”

बाद में मैंने अपनी अवस्था से संबंधित परमेश्वर के वचनों की खोज की। एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सभी लोगों के भीतर कुछ गलत अवस्थाएँ होती हैं, जैसे नकारात्मकता, कमजोरी, निराशा और भंगुरता; या उनकी कुछ नीचतापूर्ण मंशाएँ होती हैं; या वे लगातार अपने घमंड, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और निजी हितों से परेशान रहते हैं; या वे स्‍वयं को कम क्षमता वाला समझते हैं, और कुछ नकारात्मक अवस्थाओं का अनुभव करते हैं। यदि तुम हमेशा इन अवस्‍थाओं में रहते हो तो तुम्‍हारे लिए पवित्र आत्‍मा के कार्य को प्राप्‍त करना बहुत कठिन होगा। यदि तुम्‍हारे लिए पवित्र आत्‍मा के कार्य को प्राप्‍त करना कठिन हो जाता है, तो तुम्‍हारे भीतर सक्रिय तत्‍व कम होंगे और नकारात्मक तत्‍व बाहर आकर तुम्‍हें परेशान करेंगे। इन नकारात्‍मक और प्रतिकूल अवस्‍थाओं के दमन के लिए लोग हमेशा अपनी इच्‍छा पर निर्भर रहते हैं, लेकिन वे इनका कैसे भी दमन क्‍यों न करें, इनसे छुटकारा नहीं पा सकते। इसका मुख्‍य कारण यह है कि लोग इन नकारात्‍मक और प्रतिकूल चीजों को पूरी तरह से समझ नहीं पाते; वे अपने सार को स्‍पष्‍ट रूप से नहीं देख पाते। इस कारण उनके लिए दैहिक इच्‍छाओं और शैतान के खिलाफ विद्रोह करना बहुत कठिन हो जाता है। साथ ही, लोग हमेशा इन नकारात्मक, विषादपूर्ण और पतनशील अवस्थाओं में फँस जाते हैं और वे परमेश्वर से प्रार्थना या उसकी सराहना नहीं करते, बल्कि इन्‍हीं सब से जूझते रहते हैं। परिणामस्‍वरूप, पवित्र आत्‍मा उनमें कार्य नहीं करता, और अंततः वे सत्‍य को समझने में अक्षम रहते हैं, वे जो भी करते हैं उसमें उन्‍हें रास्‍ता नहीं मिलता, और वे किसी भी मामले को स्‍पष्‍टता से नहीं देख पाते। तुम्‍हारे भीतर बहुत-सी नकारात्‍मक और प्रतिकूल चीजें हैं और वे तुम्‍हारे हृदय में समा गई हैं, इसलिए तुम अक्‍सर नकारात्‍मक, विषादपूर्ण चित्‍त वाले और परमेश्वर से दूर, और दूर और पहले से भी अधिक कमजोर होते जाते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर ने मेरी असली अवस्था उजागर कर दी। दरअसल परमेश्वर जानता है कि मेरी काबिलियत कैसी है। प्रचारक के पद से बर्खास्त करने के बाद कलीसिया ने मुझे सुसमाचार कार्य सँभालने में लगा दिया था, क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि मैं कई काम सँभालने में असमर्थ हूँ। लेकिन मैं अपनी खराब काबिलियत के कारण लगातार बेबस रहती थी और जब मैंने सुसमाचार कार्य में कोई नतीजा नहीं देखा तो समस्याओं की समीक्षा करने और अपने कर्तव्य ठीक से करने के तरीके जानने के लिए सिद्धांतों की खोज करने के बजाय मुझे लगा कि परमेश्वर मुझे एक बेकार व्यक्ति के रूप में प्रकट कर रहा है जिसके बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है। मैं इतनी नकारात्मक हो गई थी कि मैंने पूरी तरह से हार मान ली थी, यहाँ तक कि मैं जो कर्तव्य कर सकती थी, उसमें भी नाकाम हो रही थी। न सिर्फ मेरे जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचा, बल्कि मेरे कर्तव्य में भी देरी हुई। अगर मैं इस तरह नकारात्मक बनी रही तो मैं परमेश्वर से और दूर होती जाऊँगी और आखिरकार मैं वाकई कोई भी कर्तव्य नहीं कर पाऊँगी। यह परमेश्वर द्वारा मुझे बेनकाब करना नहीं होगा, बल्कि मैं खुद ही अपने आपको निकाल रही हूँगी।

तब मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर है : बशर्ते तुम तैयार हो, बशर्ते तुम खोज करते हो, अंत में तुम इस परिणाम को प्राप्त करने में समर्थ होगे, और तुममें से किसी एक को भी त्यागा नहीं जाएगा। यदि तुम निम्न क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निम्न क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम उच्च क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उच्च क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम अज्ञानी और निरक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निरक्षरता के अनुसार होंगी; यदि तुम साक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस तथ्य के अनुसार होंगी कि तुम साक्षर हो; यदि तुम बुज़ुर्ग हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उम्र के अनुसार होंगी; यदि तुम आतिथ्य प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम कहते हो कि तुम आतिथ्य प्रदान नहीं कर सकते और केवल कुछ निश्चित कार्य ही कर सकते हो, चाहे वह सुसमाचार फैलाने का कार्य हो या कलीसिया की देखरेख करने का कार्य या अन्य सामान्य मामलों में शामिल होने का कार्य, तो मेरे द्वारा तुम्हारी पूर्णता भी उस कार्य के अनुसार होगी, जो तुम करते हो। वफ़ादार होना, बिल्कुल अंत तक समर्पण करना, और परमेश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम रखने की कोशिश करना—यह तुम्हें अवश्य करना चाहिए, और इन तीन चीज़ों से बेहतर कोई अभ्यास नहीं है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंजिल पर ले जाना)। परमेश्वर के वचनों का मुझ पर गहरा असर पड़ा। मैंने देखा कि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा नहीं होतीं और चाहे उनकी काबिलियत कैसी भी हो, परमेश्वर के सामने आने वाला हर व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के प्रावधान का आनंद लेता है और उसे बचाए जाने का अवसर मिलता है। परमेश्वर लोगों को अधिकतम सीमा तक बचाता है। किसी व्यक्ति की काबिलियत परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित होती है और परमेश्वर अच्छी तरह जानता है कि कोई व्यक्ति कौन से कर्तव्य निभा सकता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति को अज्ञानी या खराब काबिलियत वाला होने के कारण तिरस्कृत नहीं करता। उसकी अपेक्षाएँ सभी से एक जैसी नहीं होतीं। इसके बजाय वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसकी काबिलियत के अनुसार उपयुक्त कर्तव्यों की व्यवस्था करता है और उनकी काबिलियत के आधार पर उनके लिए अपेक्षाएँ निर्धारित करता है। जब तक कोई व्यक्ति पूरे दिल से समर्पण और प्रयास के साथ अपना कर्तव्य करता है, तब भले ही वह परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों को पूरा न करे, परमेश्वर उसकी निंदा नहीं करता, न ही वह उसे त्यागने या निकालने का निर्णय हल्के में लेता है। लेकिन जब मेरे साथ कुछ हुआ तो मैंने परमेश्वर के इरादे नहीं खोजे। जब मुझे मेरी खराब काबिलियत के कारण प्रचारक के पद से बर्खास्त कर दिया गया और मेरे सुसमाचार कार्य में कोई नतीजा नहीं दिखा तो मैं नकारात्मकता में डूब गई, सोचती रही कि मेरी खराब काबिलियत ने मुझे निकम्मा बना दिया है। मैंने खुद से हार मान ली और इस्तीफा तक देने की सोचने लगी। लेकिन असलियत में परमेश्वर ने कभी नहीं कहा था कि खराब काबिलियत का मतलब है कि किसी व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता, न ही उसने कभी किसी व्यक्ति की काबिलियत से ज्यादा ऊँची अपेक्षाएँ रखी हैं। जब मेरी काबिलियत कई कामों के लिए अपर्याप्त थी तो कलीसिया ने मुझे मेरी काबिलियत के अनुसार सिर्फ सुसमाचार कार्य सँभालने के लिए नियुक्त किया, जिससे मुझे प्रशिक्षण का अवसर मिला। अगर मेरे कर्तव्य से कोई नतीजा नहीं निकला तो मुझे कारणों की जाँच करनी चाहिए थी, अपनी कमियों की भरपाई के लिए और अधिक प्रयास करने चाहिए थे और इसे करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए थी। अगर मुझे आखिरकार अक्षमता के कारण बर्खास्त भी कर भी दिया जाता तो कम से कम मुझे कोई पछतावा तो न होता। इन बातों का एहसास होने के बाद अपने कर्तव्य में अपनी खराब काबिलियत के कारण मैं उतनी बेबस नहीं रही। मैंने सुसमाचार प्रचार से संबंधित सत्यों से खुद को युक्त करना शुरू कर दिया और सुसमाचार फिल्में और वीडियो देखने लगी। जब भी मुझे कुछ समझ नहीं आता था तो मैं अपने भाई-बहनों के साथ संवाद और चर्चा करती थी। कुछ समय के प्रशिक्षण के बाद मुझे पहले की तुलना में समस्याएँ अधिक स्पष्टता से दिखाई देने लगीं, मैं मुश्किल आने पर अपने भाई-बहनों को वास्तविक मार्गदर्शन और सहायता देने में सक्षम हो गई और जब काम में विचलन होता था तो मैं अपने भाई-बहनों के साथ उनकी समीक्षा करती थी। धीरे-धीरे सुसमाचार कार्य में कुछ सुधार दिखने लगा।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे अपनी समस्याओं के बारे में कुछ और समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “गैर-विश्वासियों के बीच एक कहावत है : ‘मुफ्त की दावत जैसी कोई चीज नहीं होती है।’ मसीह-विरोधी भी इसी तर्क को अपने मन में रखते हैं, और सोचते हैं कि, ‘अगर मैं तुम्हारे लिए काम करता हूँ, तो तुम मुझे बदले में क्या दोगे? मुझे क्या फायदे हो सकते हैं?’ इस प्रकृति को संक्षेप में कैसे व्यक्त किया जाना चाहिए? यह लाभ से प्रेरित होना, लाभ को हर चीज से ऊपर रखना, और स्वार्थी और नीच होना है। मसीह-विरोधी लोगों का प्रकृति सार यही है। वे केवल लाभ और आशीष प्राप्त करने के उद्देश्य से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। यदि वे कुछ कष्ट सहते हैं या कुछ कीमत चुकाते हैं, तो वह सब भी परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए होता है। आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की उनकी मंशा और इच्छा बहुत बड़ी होती है, और वे उससे कसकर चिपके रहते हैं। वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए अनेक सत्यों में से किसी को भी स्वीकार नहीं करते और अपने हृदय में हमेशा सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना आशीष प्राप्त करने और एक अच्छी जगह पहुंचना सुनिश्चित करने के लिए है, कि यह सर्वोच्च सिद्धांत है, और इससे बढ़कर कुछ भी नहीं हो सकता। वे सोचते हैं कि लोगों को आशीष प्राप्त करने के अलावा परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहिए, और अगर यह सब आशीष के लिए नहीं है, तो परमेश्वर पर विश्वास का कोई अर्थ या महत्व नहीं होगा, कि यह अपना अर्थ और मूल्य खो देगा। क्या ये विचार मसीह-विरोधियों में किसी और ने डाले थे? क्या ये किसी अन्य की शिक्षा या प्रभाव से निकले हैं? नहीं, वे मसीह-विरोधियों के अंतर्निहित प्रकृति सार द्वारा निर्धारित होते हैं, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि मेरी नकारात्मकता और दर्द की वजह आशीष की मेरी अत्यधिक लालसा थी। मैं शैतान के जहरों से नियंत्रित थी, जैसे कि “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो,” और “सिर्फ लाभ मायने रखता है।” मैंने जो कुछ भी किया वह लाभ की चाहत से प्रेरित था और उसका उद्देश्य आशीष पाना था। जब मैंने पहली बार परमेश्वर को पाया, तो मैं हर दिन सुबह जल्दी उठती थी और देर तक काम करती थी, स्वेच्छा से कष्ट सहती थी और खुद को खपाती थी, क्योंकि मेरा मानना था कि अपने कर्तव्य में अधिक परिश्रम करने से मुझे एक सुंदर मंजिल मिलेगी। लेकिन जब मेरी खराब काबिलियत के कारण मुझे बर्खास्त कर दिया गया तो मेरी प्रेरणा खत्म हो गई। मुझे लगता था कि काबिलियत के मुद्दे भ्रष्ट स्वभाव की तरह नहीं होते जिन्हें बदला जा सकता है। मैं सोचती थी कि मैं इस अवस्था में स्थिर हो गई हूँ, विकसित किए जाने लायक नहीं हूँ, बस निकम्मी हूँ और मेरा निकाला जाना तय है। खासकर जब सुसमाचार कार्य में कोई नतीजे नहीं मिल रहे थे तो मैंने गलत समझा था कि परमेश्वर मुझे बेनकाब कर निकाल रहा है। मैं एक नकारात्मक अवस्था में जीने लगी और जो कर्तव्य कर सकती थी, उसकी कोशिश भी बंद कर दी और मैं अपना कर्तव्य छोड़ने के बारे में भी सोचने लगी। मुझमें वाकई मानवता नाम की कोई चीज नहीं थी! मैंने देखा कि इतने वर्षों तक मैं सिर्फ आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य निभा रही थी और मानो मैं बाहरी दुनिया में किसी बॉस के लिए काम कर रही थी, जहाँ अगर मुझे वेतन मिलता तो मैं कड़ी मेहनत करती और अगर नहीं मिलता तो मैं नौकरी छोड़ देती। मैं अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण नहीं कर रही थी, बल्कि इसका इस्तेमाल अच्छे गंतव्य के लिए सौदेबाजी करने के लिए कर रही थी। मैं इसमें परमेश्वर का शोषण करने और उसे धोखा देने की कोशिश कर रही थी। मेरी प्रकृति पूरी तरह से घृणित और दुष्ट थी और इसने वाकई परमेश्वर को मुझसे घृणा करने पर मजबूर कर दिया था! मेरी खराब काबिलियत और गहरी भ्रष्टता के बावजूद परमेश्वर ने मुझे प्रशिक्षण का अवसर दिया था, लेकिन मैंने इसे संजोकर नहीं रखा या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य ठीक से करने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय मैंने उसके साथ सौदेबाजी करने की कोशिश की। मैं वाकई परमेश्वर की ऋणी थी! मैं आभारी थी कि परमेश्वर ने मेरी आस्था के माध्यम से आशीष की लालसा के बारे में मेरे इरादे और विचार बेनकाब करने के लिए इस स्थिति की व्यवस्था की थी। इससे मुझे अपने विचलन पहचानने और सही समय पर सुधारने का मौका मिला, वरना मैं सत्य का अनुसरण करने के बजाय आशीष के पीछे भागती रहती और आखिरकार सच में उद्धार से परे रह जाती।

परमेश्वर के वचनों के अंश ने मुझे गहराई से प्रभावित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “‘भले ही मेरी काबिलियत कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ ये शब्द बहुत वास्तविक लगते हैं, और उस अपेक्षा के बारे में बताते हैं जो परमेश्वर लोगों से चाहता है। कैसी अपेक्षा? यही कि यदि लोगों में काबिलियत की कमी है, तो यह दुनिया का अंत नहीं है, लेकिन उनके पास ईमानदार हृदय होना चाहिए, और यदि उनके पास यह है, तो वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी स्थिति या पृष्ठभूमि क्या है, तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए, ईमानदारी से कार्य करना चाहिए, पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना चाहिए, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, चालाकी करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, धूर्त या कपटी व्यक्ति मत बनो, झूठ मत बोलो, धोखा मत दो, और घुमा-फिरा कर बात मत करो। तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो सत्य का अनुसरण करे। बहुत से लोग सोचते हैं कि उनकी काबिलियत कम है और वे कभी भी अपना कर्तव्य अच्छी तरह से या मानक के अनुरूप नहीं निभाते हैं। वे जो करते हैं उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं, लेकिन वे सिद्धांतों को कभी नहीं समझ सकते और अब भी बहुत अच्छे परिणाम नहीं दे सकते हैं। अंततः वे बस यह शिकायत कर सकते हैं कि उनकी काबिलियत बहुत कम है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं। तो, क्या जब किसी व्यक्ति की काबिलियत कम हो तो आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है? कम काबिलियत होना कोई घातक बीमारी नहीं है, और परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि वह कम काबिलियत वाले लोगों को नहीं बचाता। जैसा कि परमेश्वर ने पहले कहा था, वह उन लोगों से दुखी होता है जो ईमानदार लेकिन अज्ञानी हैं। अज्ञानी होने का क्या मतलब है? कई मामलों में अज्ञानता कम काबिलियत के कारण आती है। जब लोगों में काबिलियत कम होती है तो उन्हें सत्य की सतही समझ होती है। यह विशिष्ट या पर्याप्त व्यावहारिक नहीं होती, और अक्सर सतही स्तर या शाब्दिक समझ तक ही सीमित होती है—यह धर्म-सिद्धांतों और विनियमों तक ही सीमित होती है। इसीलिए वे कई समस्याओं को समझ नहीं पाते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हैं, या अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाते हैं। तो क्या परमेश्वर कम काबिलियत वाले लोगों को नहीं चाहता? (वह चाहता है।) परमेश्वर लोगों को कैसा मार्ग और दिशा दिखाता है? (एक ईमानदार व्यक्ति बनने का।) क्या ऐसा कहने मात्र से तुम एक ईमानदार व्यक्ति बन सकते हो? (नहीं, तुममें एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए।) एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी क्षमता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिये बहाने बनाते हो या फिर सुझाते कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिये साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि भले ही कम काबिलियत वाले लोगों में समस्याओं की समझ उथली हो, लेकिन अगर उनके पास एक ईमानदार दिल है, सच्चे मन से सत्य की खोज करते हैं और अपने कर्तव्य पूरे दिल और क्षमता से करते हैं तो उनका जीवन धीरे-धीरे सुधर सकता है और आखिरकार उन्हें बचाया जा सकता है। मेरी काबिलियत वाकई खराब थी। मैं सिर्फ सतही समस्याएँ ही देख पाती थी और लचीलेपन से सिद्धांत लागू करने में असमर्थ थी। लेकिन परमेश्वर कहता है कि खराब काबिलियत कोई घातक बीमारी नहीं है और अगर मैं परमेश्वर की जरूरतों के अनुसार ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास कर सकती हूँ, परमेश्वर से प्रार्थना कर सकती हूँ और समझ न आने वाले मुद्दों को लेकर परमेश्वर पर ज्यादा भरोसा कर सकती हूँ, खुद को प्रासंगिक सत्य से युक्त करने का प्रयास कर सकती हूँ और मुश्किलों का सामना करते समय सक्रियता से सत्य समझने वाले लोगों के साथ संगति खोज सकती हूँ, तो मैं अपनी कमियों की भरपाई कर सकती हूँ और अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे हासिल कर सकती हूँ। मैंने उस उपदेशक के बारे में भी सोचा जिसकी मैं सराहना करती थी। वह समस्याएँ सुलझाने और अपने कर्तव्य में नतीजे पाने के लिए सत्य की संगति करने में सक्षम थी, लेकिन ऐसा इसलिए था क्योंकि उसने अपना कर्तव्य पूरी लगन से किया था और पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त किया था। लेकिन बाद में वह एक भ्रष्ट स्वभाव में जीने लगी, प्रसिद्धि और लाभ की होड़ करने लगी और अपने उचित काम पर ध्यान नहीं दे रही थी और उसके कर्तव्य से कोई नतीजा नहीं मिला। जब भाई-बहनों ने संगति और मदद की, तब भी उसने पश्चात्ताप नहीं किया और आखिरकार उसे बर्खास्त कर दिया गया और निकाल दिया गया। इससे पता चला कि भले ही किसी के पास अच्छी काबिलियत हो, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता है तो उसे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त नहीं होगा और वह अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे नहीं पा सकता। भले ही मेरी काबिलियत खराब थी, लेकिन यह इतनी भी खराब नहीं थी कि मैं सत्य न समझ सकूँ या कुछ भी न जान सकूँ। उदाहरण के लिए अपने सुसमाचार कर्तव्य में अगर मैं अपने भविष्य की संभावनाओं पर ध्यान केंद्रित न करूँ, बल्कि ईमानदारी से अपना कर्तव्य करूँ और जो मैं नहीं जानती हूँ उसे सीखने और समझने का प्रयास करूँ तो भी मैं अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे हासिल कर सकती हूँ। मैंने देखा कि मेरी पिछली मान्यता कि “खराब काबिलियत का मतलब है कि कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य ठीक से नहीं कर सकता है और उसे बचाया नहीं जा सकता है और सिर्फ अच्छी काबिलियत वाले लोग ही बचाए जा सकते हैं” पूरी तरह से बेतुकी और भ्रामक थी और सत्य के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं थी!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “परमेश्वर ने इतने सारे वचन व्यक्त किए हैं और ऐसा करने से पहले उसने बहुत अधिक तैयारी की है। उसके वचन व्यक्त करने के बाद अगर तुम अंत में इनका अनुसरण न करो या इनमें प्रवेश न करो तो परमेश्वर तुम्हें किस दृष्टि से देखेगा? परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या फैसला सुनाएगा? यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है। इसलिए जहाँ तक हर व्यक्ति का संबंध है, तो चाहे तुम्हारी जो भी काबिलियत या उम्र हो या तुम जितने भी समय से परमेश्वर में विश्वास रखते आए हो, तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग की ओर प्रयास करने चाहिए। तुम्हें किसी भी वस्तुगत बहाने पर जोर नहीं देना चाहिए; तुम्हें बिना शर्त सत्य का अनुसरण करना चाहिए। लापरवाही मत करो। मान लो कि तुम सत्य खोजने को अपने जीवन का प्रधान मामला बना लेते हो और इसके लिए जूझते और प्रयास करते हो, और शायद अनुसरण से तुम जो सत्य पाते हो और जिस सत्य तक पहुँचते हो वे तुम्हारी इच्छा के अनुरूप न हों, लेकिन परमेश्वर कहता है कि वह सत्य के अनुसरण में तुम्हारे रवैये और तुम्हारी ईमानदारी के आधार पर तुम्हें एक उचित मंजिल देगा—तो यह कितनी अद्भुत बात रहेगी! अभी इस बात पर ध्यान केंद्रित मत करो कि तुम्हारी मंजिल या परिणाम क्या होगा, या भविष्य में क्या होगा और क्या बदा है, या क्या तुम विपत्ति से बचने और प्राण न गँवाने में सक्षम रहोगे—इन चीजों के बारे में मत सोचो, न इनके बारे में आग्रह करो। केवल परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं पर ध्यान केंद्रित करो और सत्य का अनुसरण शुरू करो, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाओ, परमेश्वर के इरादे पूरे करो और परमेश्वर की छह हजार वर्षों की प्रतीक्षा और छह हजार वर्षों की आशा को निराश मत करो। परमेश्वर को थोड़ी दिलासा दो; उसे देखने दो कि तुमसे आशा है और स्वयं में उसकी इच्छाएँ साकार होने दो। मुझे बताओ, अगर तुम ऐसा करोगे तो क्या परमेश्वर तुम्हारे साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करेगा? बिल्कुल भी नहीं! और भले ही अंतिम परिणाम व्यक्ति की कामना के अनुरूप न हों, तो भी इस तथ्य के प्रति उसे एक सृजित प्राणी के रूप में कैसे पेश आना चाहिए? उसे बिना किसी निजी योजना के हर चीज में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। क्या सृजित प्राणियों का यही नजरिया नहीं होना चाहिए? (यही होना चाहिए।) यह मानसिकता सही है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर धार्मिक है और वह किसी व्यक्ति का परिणाम इस आधार पर निर्धारित करता है कि उसके पास सत्य है या नहीं। भले ही मेरी काबिलियत खराब थी, फिर भी मुझे नकारात्मक होकर खुद को सीमित नहीं करना चाहिए था। मुझे प्रयास करते रहना था, सत्य का अनुसरण करना था और अपने स्वभाव में बदलाव की खोज करनी थी। मुझे अपने कर्तव्य में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी थीं और अपना सर्वश्रेष्ठ करने का हर संभव प्रयास करना था और इस बात की परवाह किए बिना कि अंत में मेरे पास अनुकूल परिणाम और गंतव्य होगा या नहीं, मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना था। एक सृजित प्राणी के रूप में मेरे पास यही विवेक होना चाहिए था। अपने अनुभवों पर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने देखा कि चाहे एक प्रचारक के रूप में हो या सुसमाचार कर्तव्य करते हुए, मुझे नतीजे नहीं मिलने की वजह पूरी तरह से मेरी खराब काबिलियत नहीं थी, बल्कि इसकी वजह यह थी कि मैं लगातार खुद को सीमित कर रही थी, यह मान रही थी कि खराब काबिलियत एक घातक बीमारी है, क्योंकि मैंने खुद को सुधारने या सत्य से युक्त करने का प्रयास नहीं किया था। जब मैं समस्याएँ नहीं समझ पाती थी तो मैं सत्य की खोज नहीं करती थी और न ही दूसरों के साथ संगति करती थी, इसलिए नतीजा यह हुआ कि मैंने कोई प्रगति नहीं की। भविष्य में कार्य के दौरान आने वाली समस्याओं के बावजूद मैं अपनी खराब काबिलियत से और अधिक बेबस नहीं हो सकती थी, मुझे उनका सही तरीके से सामना करना था और समाधान के लिए सत्य की खोज करनी थी। जिन सत्यों को मैं नहीं समझ पाती थी या जिन मुद्दों को मैं देख नहीं पाती थी, उनसे मुझे खुद को युक्त करने और सीखने के लिए वाकई अधिक कीमत चुकानी चाहिए। जब तक मैं ईमानदारी से परमेश्वर के साथ सहयोग करती रहूँगी, मैं निश्चित रूप से प्रगति करूँगी। जब मैंने इसके बारे में इस तरह से सोचा तो मुझे अपने कर्तव्य में अधिक सहजता और दृढ़ता महसूस हुई। अतीत में मैं अक्सर अपनी खराब काबिलियत के बारे में बात करती थी और “खराब काबिलियत” जैसे शब्द मुझे कसकर बांधने वाले अभिशाप की तरह लगते थे, जिसके कारण मैं कड़वाहट और थकावट में डूबी रहती थी और जीवन में कोई प्रगति नहीं कर पाती थी। अब मुझे अपने दिल में मुक्ति की भावना महसूस हुई। आगे बढ़ते हुए अपने कर्तव्य करने में मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित किया और अपने दोषों और कमियों के लिए मैं खुद को प्रासंगिक सत्य सिद्धांतों से युक्त करने लगी। जो चीजें मुझे समझ नहीं आती थीं, उनके लिए मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती और अनुभवी बहनों से सीखती। इस तरह मुझे अपने कर्तव्य में परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस हुआ, सिद्धांतों को बेहतर ढंग से समझा, और मुझे उन मुद्दों की स्पष्ट समझ मिली जो पहले अस्पष्ट थे, और सुसमाचार के कार्य से कुछ नतीजे भी मिले। हालाँकि मुझमें अभी भी कई कमियाँ हैं, फिर भी मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने को तैयार हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

पिछला: 93. महामारी में एक अनूठा अनुभव

अगला: 95. जिन लोगों को आप नौकरी देते हैं उन पर कभी संदेह न करने के परिणाम

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

संबंधित सामग्री

21. अफ़वाहों के फन्‍दे से आज़ादी

शिआओयुन, चीनमैं सेना की एक स्‍त्री अधिकार हुआ करती थी! 1999 में एक दिन एक पादरी ने मुझे प्रभु यीशु के सुसमाचार का उपदेश दिया। मेरे संजीदा...

1. न्याय स्वर्ग-राज्य की कुंजी है

झेंगलू, चीनमेरा जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था। मेरे पिता अक्सर कहते थे, "प्रभु में विश्वास करने से हमारे पाप क्षमा कर दिए जाते हैं और उसके...

17. शैतान के तंग घेरे से निकलना

झाओ गांग, चीनउत्तर-पूर्व चीन में विगत नवंबर में कड़ाके की ठंड पड़ी थी, ज़मीन पर गिरी बर्फ ज़रा भी नहीं पिघलती थी, और कई लोग जो बाहर चल रहे थे,...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें