95. जिन लोगों को आप नौकरी देते हैं उन पर कभी संदेह न करने के परिणाम

ऐबी, यूएसए

मैं कलीसिया में सुसमाचार उपयाजक के रूप में सेवा करती थी। मैं खुद सुसमाचार फैलाने के अलावा मैं सुसमाचार कार्यकर्ताओं के कर्तव्य निर्वहन की निगरानी करने और उसका जायजा लेने का काम भी करती थी। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो अपने कर्तव्यों में लापरवाही बरतते थे, मैं उन पर कड़ी नज़र रखती थी। उदाहरण के लिए, मैंने उनके संभावित सुसमाचार पाने वालों की स्थितियों को ध्यानपूर्वक समझा और यह कि किस प्रकार उन्होंने संगति की और गवाही दी। कभी-कभी जब मैं देखती कि वे अपने कर्तव्यों में जिम्मेदारी नहीं दिखा रहे तो मैं उनकी काट-छाँट कर उनकी समस्याएँ उजागर करती। लेकिन कुछ ऐसे भाई-बहन जो आम तौर पर अपने कर्तव्यों में मेहनती थे, मैं उनसे केवल संक्षेप में पूछताछ करती कि उन्हें कोई कठिनाई तो नहीं आ रही। मुझे कभी यह विचार नहीं आता था कि कहीं वे अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में असफल तो नहीं हो रहे या ढिलाई तो नहीं बरत रहे। मैं यह भी सोचती, “अगर मैंने उनके काम की निगरानी बहुत बारीकी से की तो उन्हें यह तो नहीं लगेगा कि मुझे उन पर भरोसा नहीं है? अगर उन्होंने मेरे बारे में नकारात्मक राय बना ली तो उनके साथ काम करना अजीब-सा हो जाएगा।” इसलिए मैं शायद ही कभी उनके काम का विस्तार से जायजा लेती या उसकी निगरानी करती।

एक दिन मुझे अपनी सहयोगी बहन का संदेश मिला। उसने बताया कि सोनिया एक सुसमाचार प्रचारक के रूप में जिम्मेदार साबित नहीं हो रही, कठिनाइयों को देखकर पीछे हट रही है जिससे काम में देरी हो रही है। मुझे इस संदेश पर हैरानी हुई और सोच रही थी, “कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई? सोनिया आमतौर पर अपने कर्तव्यों में काफी मेहनत करती है। उसके लिए ये समस्याएँ होना कैसे संभव है?” हालाँकि मैंने इस पर गौर करने का वादा किया लेकिन मुझे यकीन नहीं हुआ कि वाकई ऐसी चीजें घट गईं। इसलिए मैंने केवल संक्षेप में सोनिया से सुसमाचार प्रचार की उसकी स्थिति के बारे में पूछा। उसने बताया कि हाल ही में सुसमाचार प्रचार में उसे कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसके कुछ संभावित सुसमाचार पाने वालों के मन में कई धार्मिक धारणाएँ थीं, जबकि अन्य लोगों ने उसके संदेशों का जवाब नहीं दिया। उस समय मैंने सोचा, “क्या मुझे उसके काम की जाँच करनी चाहिए कि कहीं कोई समस्या तो नहीं है?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “सोनिया का आमतौर पर अपने कर्तव्यों के प्रति अच्छा रवैया रहता है। अगर मैं उसके काम की पूरी तरह से जाँच करूँगी तो कहीं उसे यह न लगे कि मैं उस पर भरोसा नहीं करती और उस पर शक करती हूँ? अगर ऐसा हुआ तो प्रतिदिन की मुलाकात में यह अजीब-सा हो जाएगा! अगर वह मेरे बारे में नकारात्मक राय बना लेती है तो भविष्य में उसके साथ मिलकर काम करना कठिन हो जाएगा। इसके अलावा सोनिया एक सुसमाचार प्रचारक हुआ करती थी, इसलिए उसे पता होगा कि परिणाम प्राप्त करने के लिए कैसे काम करना है। वह गैर-जिम्मेदार बनकर कठिनाइयों से पीछे नहीं हटेगी। चूँकि उसने कुछ कारण बताए हैं उसे वास्तव में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा होगा।” मैंने इसके बारे में अधिक पूछताछ नहीं की। कुछ दिनों के बाद मेरी सहयोगी बहन ने फिर से बताया कि सुसमाचार का प्रचार करने में सोनिया जिम्मेदारी नहीं दिखाती, संभावित सुसमाचार पाने वालों के लिए संगति करने और गवाही देने में प्रयास नहीं करती। इस बार मुझे लगा कि कुछ तो गड़बड़ है। चूँकि मेरी सहयोगी बहन लगातार सोनिया की समस्याओं के बारे में बता रही थी, इसलिए अब इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। मैंने तुरंत सोनिया से बात की और सभी संभावित सुसमाचार पाने वालों के बारे में विस्तृत जानकारी मांगी। इस जाँच से वाकई कुछ समस्याएँ उजागर हुईं। उसके कुछ संभावित सुसमाचार पाने वाले दो-तीन सभाओं में भाग ले चुके थे लेकिन वह उनकी स्थितियों के बारे में कुछ नहीं जानती थी और वह उनकी समस्याओं और धारणाओं से भी अनजान थी। कुछ संभावित सुसमाचार पाने वालों के लिए उसने कुछ संक्षिप्त शुभकामना संदेश भेज दिए लेकिन कोई अनुवर्ती कार्रवाई और संंगति नहीं की। यहाँ तक कि उसने कुछ उपयुक्त संभावित सुसमाचार पाने वालों को भी छोड़ दिया। इन मुद्दों को देखकर मैं हैरान रह गई। सोनिया का व्यवहार उससे बिल्कुल अलग था जिससे उसने मुझे प्रभावित किया था। मेरी राय में वह अपने कर्तव्यों के प्रति मेहनती और जिम्मेदार थी, इसलिए उसके काम का जायजा लेते वक्त यह सोचकर मुझे उस पर बहुत भरोसा रहता था कि उसे कोई समस्या नहीं होगी। अगर कभी मुझे उसके कुछ मसले दिखते भी थे तो मैंने उन्हें गंभीरता से नहीं लेती थी। मैं अपने आपसे पूछने लगी : मैंने उस पर इतना भरोसा क्यों किया? जायजा लेते वक्त मैंने उसके काम को विस्तार से क्यों नहीं समझा जैसा कि मैं दूसरों के साथ करती थी? मुझे बहुत आत्मग्लानि हुई। हालाँकि अब मुझे उसकी समस्याओं का पता चल गया था लेकिन जो नुकसान हो चुका था अब उसकी भरपाई तो हो नहीं सकती थी।

आत्मचिंतन करते समय मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “नकली अगुआओं में यह घातक कमी होती है कि यह भी एक बड़ी विफलता होती है : वे अपनी कल्पनाओं के आधार पर लोगों पर जल्दी भरोसा कर लेते हैं। और यह सत्य को न समझने के कारण होता है, है न? परमेश्वर के वचन भ्रष्ट लोगों का सार कैसे प्रकट करते हैं? जब परमेश्वर ही लोगों पर भरोसा नहीं करता, तो वे क्यों करें? नकली अगुआ बहुत घमंडी और आत्मतुष्ट होते हैं, है न? वे यह सोचते हैं, ‘मैं इस व्यक्ति को परखने में गलत नहीं रहा हो सकता। जिस व्यक्ति को मैंने उपयुक्त समझा है, उसके साथ कोई समस्या नहीं होनी चाहिए; वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है, जो खाने, पीने और मस्ती करने में रमा रहे, आराम पसंद करे और मेहनत से नफरत करे। वे पूरी तरह से भरोसेमंद और विश्वसनीय हैं। वे बदलेंगे नहीं; अगर वे बदले, तो इसका मतलब होगा कि मैं उनके बारे में गलत था, है न?’ यह कैसा तर्क है? क्या तुम कोई विशेषज्ञ हो? क्या तुम्हारे पास एक्सरे जैसी दृष्टि है? क्या तुममें विशेष कौशल है? तुम किसी व्यक्ति के साथ एक-दो साल तक रह सकते हो, लेकिन क्या तुम उसके प्रकृति सार को पूरी तरह से उजागर करने वाले किसी उपयुक्त वातावरण के बिना यह देख पाओगे कि वह वास्तव में कौन है? अगर परमेश्वर द्वारा उन्हें उजागर न किया जाए, तो तुम्हें तीन या पाँच वर्षों तक उनके साथ रहने के बाद भी यह जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि उनका प्रकृति सार किस तरह का है। और जब तुम उनसे शायद ही कभी मिलते हो, शायद ही कभी उनके साथ होते हो, तो यह भी कितना सच होगा? किसी के साथ थोड़ी-बहुत बातचीत या किसी के द्वारा उनके सकारात्मक मूल्यांकन के आधार पर नकली अगुआ प्रसन्नतापूर्वक उन पर भरोसा कर लेते है और ऐसे व्यक्ति को कलीसिया का काम सौंप देते हो। इसमें क्या वे अत्यधिक अंधे नहीं हो जाते हो? क्या वे उतावली से काम नहीं ले रहे हैं? और जब नकली अगुआ इस तरह से काम करते हैं, तो क्या वे बेहद गैर-जिम्मेदार नहीं होते?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (3))। परमेश्वर उजागर करता है कि झूठे अगुआ अपने काम में गैर-जिम्मेदार, अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं। उन्हें लगता है कि वे लोगों का सटीक मूल्यांकन कर सकते हैं और इसलिए वे लोगों पर आँख मूँदकर भरोसा कर लेते हैं जिससे काम को नुकसान होता है। सोनिया को लेकर मैं भी गैरजिम्मेदार हो गई थी। मैंने ऐसा सोचा था चूँकि वह पहले सुसमाचार उपयाजक के रूप में काम कर चुकी है और उसे अपने पिछले कर्तव्यों के लिए काफी अच्छे मूल्यांकन भी प्राप्त हुए हैं तो वह शायद कोई समस्या पैदा नहीं करेगी। मैंने आश्वस्त होकर उसे काम करने दिया और कोई नजर नहीं रखी, तो मैंने जब भी उसके काम की जाँच की, लापरवाही से ही की। जब कार्य में कमियाँ दिखाई दीं और मेरी सहयोगी बहन ने सोनिया की समस्याएँ बताईं, तब भी मुझे विश्वास नहीं हुआ और सोचा कि सोनिया उस तरह की व्यक्ति नहीं है। मैं बस औपचारिकता के तौर पर इतना पूछ लेती कि चीजें कैसी चल रही हैं और सोनिया द्वारा बनाए गए कुछ बहानों के आधार पर मैं उस पर आँख मूँद कर भरोसा कर लेती। लेकिन जब मेरी सहयोगी बहन ने मुझे दोबारा याद दिलाया तब कहीं जाकर मैंने सोनिया के काम का जायजा लिया। लेकिन तब तक तो नुकसान हो चुका था। परमेश्वर चाहता है कि सुपरवाइजर काम की निगरानी और अनुवर्ती कार्रवाई करें। लेकिन मैंने वास्तविक काम किए बिना ही लोगों पर आँख मूँदकर भरोसा कर लिया था। मैं वाकई गैरजिम्मेदार थी! इसका एहसास होने पर मुझे बहुत पश्चात्ताप और ग्लानि हुई।

बाद में मैंने मार्गदर्शन लेना जारी रखा—मैंने सोनिया के काम की निगरानी क्यों नहीं की? भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “यह वाक्यांश, ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,’ अधिकांश लोगों ने पहले भी सुन रखा है। तुम लोग इसे सही समझते हो या गलत? (गलत।) चूँकि तुम इसे गलत मानते हो, तो फिर यह वास्तविक जीवन में तुम्हें प्रभावित क्यों कर पाता है? जब इस तरह के मामले तुम पर आ पड़ते हैं तो यह दृष्टिकोण सामने आएगा। यह कुछ हद तक तुम्हें परेशान करेगा, और जब यह तुम्हें परेशान करता है, तो तुम्हारे काम पर असर पड़ेगा। इसलिए, अगर तुम इसे गलत मानते हो और तुमने यह निश्चित कर लिया है कि यह गलत है तो फिर तुम क्यों अब भी इससे प्रभावित होते हो और क्यों तुम अब भी तसल्ली के लिए इसका उपयोग करते हो? (चूँकि लोग सत्य नहीं समझते हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं कर पाते हैं, इसलिए वे सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे को अपना सिद्धांत या अभ्यास की कसौटी मान लेंगे।) यह एक कारण है। क्या दूसरे कारण भी हैं? (चूँकि यह वाक्यांश लोगों के दैहिक हितों के साथ अपेक्षाकृत रूप से सुसंगत है, और जब वे सत्य नहीं समझते हैं तो वे स्वाभाविक रूप से इस वाक्यांश के अनुसार आचरण करेंगे।) जब लोग सत्य नहीं समझते, केवल तभी वे ऐसे नहीं होते; जब वे सत्य समझते हैं तब भी शायद वे सत्य के अनुसार व्यवहार करने में सक्षम नहीं होंगे। यह सही है कि यह वाक्यांश ‘लोगों के दैहिक हितों के साथ अपेक्षाकृत रूप से सुसंगत है।’ सत्य का अभ्यास करने के बजाय लोग अपने ही दैहिक हितों की रक्षा करने के लिए किसी कपटी चाल या सांसारिक आचरण के किसी शैतानी फलसफे का अनुसरण करना अधिक पसंद करेंगे। इसके अलावा, उनके पास ऐसा करने के लिए एक आधार भी है। यह आधार क्या है? वह यह है कि यह वाक्यांश जन-साधारण के द्वारा सही के रूप में व्यापक तौर पर स्वीकार किया जाता है। जब वे इस वाक्यांश के अनुसार काम करते हैं तो उनके कार्यकलाप अन्य सभी लोगों के सामने मान्य होंगे, और वे आलोचना से बच सकते हैं। चाहे इसे नैतिक या कानूनी दृष्टिकोण से देखें, या इसे पारंपरिक धारणाओं के दृष्टिकोण से ही देखें, यह एक नज़रिया और एक व्यवहार है जो न्यायोचित लगता है। इसलिए, जब तुम सत्य के अभ्यास के प्रति अनिच्छुक होते हो, या जब तुम इसे नहीं समझते हो तो शायद तुम इसकी जगह परमेश्वर का अपमान करना पसंद करोगे, सत्य का उल्लंघन करना पसंद करोगे, और एक ऐसी जगह पर पीछे हटना पसंद करोगे जो नैतिक सीमा रेखा को पार नहीं करती है। और वो जगह क्या है? यह वह सीमा रेखा है कि तुम ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ इस जगह पर पीछे हटने और इस वाक्यांश के अनुसार पेश आने से तुम्हारे मन को शांति मिलेगी। यह तुम्हारे मन को शांति क्यों देता है? यह इसलिए है क्योंकि बाकी सभी लोग भी इसी तरह सोचते हैं। साथ ही, तुम्हारा दिल भी इसी अवधारणा को प्रश्रय देता है कि ‘जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता,’ और तुम सोचते हो, ‘हर कोई तो इसी तरह सोचता है। यदि मैं इस वाक्यांश के अनुसार आचरण करता हूँ तो, कोई बात नहीं यदि परमेश्वर मेरी निंदा करता है क्योंकि वैसे भी मैं न तो परमेश्वर को देख सकता हूँ, न ही पवित्र आत्मा को स्पर्श कर सकता हूँ। कम से कम दूसरों की दृष्टि में, मैं मानवीय गुणों वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाऊँगा, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसमें कुछ तो जमीर है।’ तुम इन ‘मानवीय गुणों’ की खातिर, सत्य को धोखा देना पसंद करोगे, ताकि लोग तुम्हें बिना द्वेष भावना के देखें। तब हर कोई तुम्हारे बारे में अच्छा सोचेगा, तुम्हारी आलोचना नहीं की जाएगी, और तुम्हारा जीवन आरामदायक होगा, तुम्हारे मन में शांति होगी—तुम्हें तो मन की शांति चाहिए। क्या यह मन की शांति सत्य के प्रति किसी व्यक्ति के प्रेम की अभिव्यक्ति है? (नहीं, यह नहीं है।) तो, यह किस प्रकार का स्वभाव है? क्या इसमें धोखेबाजी निहित है? हाँ, इसमें धोखेबाजी है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में स्वयं को देखने पर मुझे एहसास हुआ कि सोनिया के काम की निगरानी करने में मेरी विफलता सांसारिक व्यवहार के लिए मेरे इस शैतानी दर्शन से नियंत्रित होने से पैदा हुई थी, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” मुझे लगा था कि किसी को काम पर रखने का मतलब है कि उस व्यक्ति पर संदेह नहीं किया जा सकता; वरना इसका मतलब उस पर भरोसा न करना होगा। मुझे इस बात की चिंता रहा करती थी कि अगर मैंने सोनिया के काम पर विस्तार से जाँच की तो उसे लग सकता है कि मैं उस पर भरोसा नहीं करती और मेरे प्रति उसके मन में पूर्वाग्रह पैदा हो जाएगा। यही सोचकर मैंने कभी उसके काम की निगरानी नहीं की और मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रही जिससे काम में देरी हुई। मैंने काम की निगरानी और जाँच न करने के बहाने के रूप में इस बात का वैध लगने वाला औचित्य निकाल लिया था कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” ताकि किसी को ठेस ने पहुँचे और मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाए रख सकूँ। मैंने अपना स्वार्थी और कपटपूर्ण शैतानी स्वभाव प्रकट किया था। हालाँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती थी और उसका अनुसरण करती थी, उसके वचन खाती और पीती थी और अपना कर्तव्य निभाती थी लेकिन मैंने परमेश्वर के वचनों को अपने आचरण और कार्यों के लिए सिद्धांतों के रूप में नहीं माना था और जब मुझ पर मुसीबत आई तब भी मैंने उससे निपटने के लिए शैतानी फलसफों पर भरोसा किया, कार्य की निगरानी या जाँच की उपेक्षा की और अपने कर्तव्य में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में असफल रही। मैंने परमेश्वर का प्रतिरोध किया और उसे धोखा दिया। इसका एहसास होने पर मैं डर गई और मैंने यह भी पहचान लिया कि शैतानी फलसफों के अनुसार जीने से मुझे केवल नुकसान ही हो सकता है।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “क्या तुम लोग मानते हो कि ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’ वाला दृष्टिकोण सही है? क्या यह मुहावरा सत्य है? परमेश्वर के घर के काम करने में और अपना कर्तव्य करने में वह इस मुहावरे का उपयोग क्यों करेगा? यहाँ क्या समस्या है? ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’ यह मुहावरा साफ तौर से अविश्वासियों के शब्द हैं, शैतान के मुँह से निकले हुए शब्द हैं—तो वह उनके साथ ऐसे क्यों पेश आता है जैसे कि वे सत्य हों? वह क्यों नहीं बता पाता कि ये शब्द सही हैं या गलत? ये स्पष्ट रूप से मनुष्य के शब्द हैं, भ्रष्ट इंसान के शब्द हैं, ये बिल्कुल सत्य नहीं हैं, ये परमेश्वर के वचनों के अनुरूप बिल्कुल नहीं हैं, इन्हें लोगों के कार्यों, आचरण और परमेश्वर की आराधना के लिए मानदंड नहीं मानना चाहिए। तो इस मुहावरे के साथ कैसे पेश आना चाहिए? यदि तुम वास्तव में पहचानने में सक्षम हो, तो अभ्यास के अपने सिद्धांत के रूप में तुम्हें इसकी जगह किस प्रकार के सत्य सिद्धांत का उपयोग करना चाहिए? सत्य सिद्धांत यह होना चाहिए कि ‘तुम अपना कर्तव्य पूरे दिल, आत्मा और मन से निभाओ।’ अपने पूरे दिल, पूरी आत्मा और पूरे मन से कार्य करना किसी के द्वारा बाधित नहीं किया जाना है; यह एक दिलो-दिमाग से होना चाहिए, न कि आधे-अधूरे मन से। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और कर्तव्य है और तुम्हें इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है। तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आएँ, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। उनसे तुम वैसे ही निपटो, जैसा जरूरी हो; यदि काट-छाँट की आवश्यकता है, तो वैसे ही करो और यदि बर्खास्तगी अनिवार्य है, तो वही सही। संक्षेप में कहूँ तो, परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर कार्य करो। क्या यही सिद्धांत नहीं है? क्या यह इस वाक्यांश के ठीक विपरीत नहीं है ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’? यह कहने का क्या अर्थ है कि न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो? इसका अर्थ यह है कि यदि तुमने किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखा है तो तुम्हें उस पर शक नहीं करना चाहिए, तुम्हें बागडोर ढीली छोड़ देनी चाहिए, उसकी निगरानी नहीं करनी चाहिए और वह जैसा चाहे उसे वैसा करने देना चाहिए; यदि तुम उस पर संदेह करते हो, तो तुम्हें उसे काम पर नहीं रखना चाहिए। क्या यही इसका मतलब नहीं है? यह तो एकदम गलत है। शैतान ने इंसान को बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। हर व्यक्ति में एक शैतानी स्वभाव होता है, वह परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर उसका विरोध कर सकता है। तुम कह सकते हो कि भरोसे लायक तो कोई भी नहीं होता। यहां तक कि अगर कोई व्यक्ति दुनियाभर की कसम खा ले, तो भी कोई फायदा नहीं, क्योंकि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव से बाधित हैं और अपने आप को नियंत्रित नहीं कर सकते। अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से पहले और परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात करने की समस्या को पूरी तरह से दूर करने से पहले—लोगों के पापों की जड़ को समूल नष्ट करने से पहले—उन्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण से नहीं गुजरे हैं और उद्धार प्राप्त नहीं कर पाए हैं, वे भरोसे लायक नहीं हैं। वे विश्वासपात्र नहीं हैं। इसलिए, जब तुम किसी को उपयोग करो, तो उसकी निगरानी और उसे निर्देशित करो। तुम उसकी काट-छाँट भी करो और अक्सर सत्य पर संगति करो, और तभी तुम समझ पाओगे कि उस व्यक्ति को उपयोग में लेते रहना चाहिए या नहीं। अगर कुछ लोग सत्य स्वीकार कर लेते हैं, काट-छाँट स्वीकार कर लेते हैं, निष्ठापूर्वक अपना कार्य करते हैं और जीवन में निरंतर प्रगति कर रहे हैं, तभी सही मायनों में ये लोग उपयोग के लायक होते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। परमेश्वर के वचन लोगों को अभ्यास का मार्ग बताते हैं। भले ही इससे मेरी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा या हितों को नुकसान पहुँचे लेकिन परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना ही वह सिद्धांत है जिसे मुझे कायम रखना चाहिए। एक सुपरवाइजर के रूप में काम की निगरानी करना और उस पर अनुवर्ती कार्रवाई करना मेरा काम है। व्यक्ति चाहे कोई भी हो अगर वह मेरी जिम्मेदारी के क्षेत्र में आता है तो मुझे उसकी निगरानी कर उस पर अनुवर्ती कार्रवाई अवश्य करनी चाहिए। अगर मैं उसे अपने काम के प्रति लापरवाह और गैर-जिम्मेदार देखूँ या सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए देखूँ तो मुझे उसकी मदद कर उसे सुधारना चाहिए और उसकी काट-छाँट करनी चाहिए। अगर फिर भी उसमें कोई सुधार न हो तो उसे कोई और काम देना चाहिए या फिर बरखास्त कर देना चाहिए। मुझे अपनी पकड़ बनाए रखनी चाहिए और लोगों पर आँख बंद करके भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि ये गैर-जिम्मेदार और मूर्ख होने की अभिव्यक्तियाँ हैं। हम शैतान द्वारा बुरी तरह भ्रष्ट हो चुके हैं और अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं, अपने कर्तव्यों में लापरवाह हो जाते हैं और ढिलाई बरतने के लिए चालाकी का सहारा लेते हैं। जब तक कि हमारे भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध नहीं हो जाते तब तक किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए लोगों पर नजर रखने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है। यह लोगों से अपने कर्तव्यों को बेहतर ढंग से करने का आग्रह करने के लिए भी है। हालाँकि सोनिया एक सुसमाचार प्रचारक हुआ करती थी और आमतौर पर अपने कर्तव्य में मेहनती और जिम्मेदार थी लेकिन बरखास्त किए जाने के बाद वह खुद को कम काबिल मानने वाली दशा में जी रही थी। वह अपने नए कर्तव्य के प्रति कुछ हद तक नकारात्मक और निष्क्रिय हो गई थी जिसके कारण कई काम सही समय पर पूरे नहीं हो पाए थे। उसके काम का जायजा न लेने या निगरानी न करने के कारण मैं समय रहते उसकी दशा की समस्या का पता नहीं लगा पाई या उसका समाधान नहीं कर पाई थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और वास्तविक कार्य करने के लिए अनुसरण की खातिर कुछ मार्ग हासिल किए। परमेश्वर कहता है : “कोई अगुआ या कर्मी चाहे जो भी महत्वपूर्ण कार्य करे, और उस कार्य की प्रकृति चाहे जो हो, उसकी पहली प्राथमिकता यह समझना और पकड़ना है कि कार्य कैसे चल रहा है। चीजों की खोज-खबर लेने और प्रश्न पूछने के लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से वहाँ होना चाहिए और उनकी सीधी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें केवल सुनी-सुनाई बातों के भरोसे नहीं रहना चाहिए या दूसरे लोगों की रिपोर्टों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। बल्कि उन्हें अपनी आँखों से देखना चाहिए कि कार्मिकों की स्थिति क्या है और काम कैसे आगे बढ़ रहा है, और समझना चाहिए कि कठिनाइयाँ क्या हैं, कोई क्षेत्र ऊपरवाले की अपेक्षाओं के विपरीत तो नहीं है, कहीं सिद्धांतों का उल्लंघन तो नहीं हुआ, कहीं कोई बाधा या गड़बड़ी तो नहीं है, आवश्यक उपकरण की या पेशेवर कामों से जुड़े कार्य में निर्देशात्मक सामग्री की कमी तो नहीं है—उन्हें इन सब पर नजर रखनी चाहिए। चाहे वे कितनी भी रिपोर्टें सुनें या सुनी-सुनाई बातों से वे कितना भी कुछ छान लें, इनमें से कुछ भी व्यक्तिगत दौरे पर जाने और अपनी आँखों से देखने की बराबरी नहीं करता; चीजों को अपनी आँखों से देखना अधिक सटीक और विश्वसनीय होता है। एक बार वे स्थिति के सभी पक्षों से परिचित हो जाएँ, तो उन्हें इस बात का अच्छा अंदाजा हो जाएगा कि क्या चल रहा है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि काम करते समय हम लोगों पर आँख बंद करके भरोसा नहीं कर सकते या काम सौंपने के बाद उन्हें उनके हाल पर नहीं छोड़ सकते। हमें व्यक्तिगत रूप से लोगों के काम की निगरानी और जाँच करनी चाहिए। इसके अलावा केवल एक बार जाँच करना पर्याप्त नहीं है; हमें समय-समय पर इस पर गौर करने की आवश्यकता है। हमें भाई-बहनों के कार्य की प्रगति और उनकी विशिष्ट स्थिति के बारे में अपने मन में स्पष्ट रहना चाहिए। केवल इसी तरह से हम तुरंत उनके मुद्दों की पहचान कर चीजों को सही करने के लिए संगति कर सकते हैं। वरना वे काम को नुकसान पहुँचा सकते हैं। इस बात का एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना और अपना काम अच्छे से करना चाहती हूँ। आने वाले दिनों में जब मैंने कार्य का जायजा लिया तो मैंने सजगता से देखा कि भाई-बहनों का काम कैसा चल रहा है और उनकी पृष्ठभूमि या सुसमाचार प्रचार करने में उनके अनुभव की परवाह किए बिना मैंने उसी तरह उनकी निगरानी की और उनका जायजा लिया।

बाद में मुझे बहन लिडिया के काम का जायजा लेना था। वह मेरे साथ पहले सहयोगी रह चुकी थी और शुरू में मुझे लगा, “वह जानती है कि काम कैसे करना है। शायद उसे मेरी निगरानी की जरूरत नहीं है।” लेकिन जब ये ख्याल आया तो मुझे एहसास हुआ कि यह गलत है। अब मैं “उन लोगों पर संदेह मत करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो” के शैतानी फलसफे के आधार पर अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती थी। इसलिए मैंने सजगता से यह देखने का प्रयास किया कि लिडिया का काम कैसा चल रहा है। एक बार मैंने उसके काम के नतीजों में गिरावट देखी। शुरू में मैंने उसे चेताया लेकिन बाद में कोई खास सुधार नहीं हुआ। फिर मैं सीधे उस काम में शामिल हो गई जिसके लिए वह जिम्मेदार थी। मैंने काम की वास्तविक स्थिति को समझने के लिए भाई-बहनों से बात की और मुझे वाकई कुछ मसलों का पता चला। जब मैंने वे मसले लिडिया को बताए तो उसके कर्तव्य की प्रभावशीलता में कुछ हद तक सुधार हुआ। लिडिया ने भी कहा कि उसके काम की ऐसी निगरानी और जाँच लाभदायक है क्योंकि वह वाकई हाल ही में अपने कर्तव्य में टाल-मटोल कर रही थी। उसने यह भी कहा कि इस निगरानी ने उसे चेताया और प्रेरित किया। इस तरह अभ्यास करने से मुझे भी अधिक सहजता महसूस हुई। ये तमाम एहसास और परिवर्तन जो मैंने अनुभव किए हैं वे सभी परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन का परिणाम हैं। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ!

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