93. महामारी में एक अनूठा अनुभव

मिंगक्सिन, चीन

नवंबर 2022 की शुरुआत में, जहाँ मैं अपनी ड्यूटी कर रही थी, वहाँ महामारी की स्थिति अधिकाधिक गंभीर होती जा रही थी, और कुछ ही दिनों में आसपास के कई इलाके अत्यधिक खतरे वाले क्षेत्र बन गए। इसके तुरंत बाद, पूरी काउंटी को सील कर दिया गया और सभी को घर पर ही क्वारंटीन कर दिया गया। कुछ ही समय बाद, महामारी उस समुदाय में तेजी से फैल गई, जहाँ मैं थी, और एक-एक करके सौ से अधिक लोगों को आइसोलेशन में ले जाया गया, और लोगों को अभी भी लगातार अलग-थलग किया जा रहा था। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि बीमारी इतनी तेजी से फैल रही है, कुछ ही दिनों में इतने सारे लोग संक्रमित हो गए थे। मैं चिंता किए बिना नहीं रह पाई, “क्या मेरे साथी और मैं भी संक्रमित हो जाएँगे?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “हम गैर-विश्वासियों से अलग हैं। हम विश्वासियों की रक्षा परमेश्वर द्वारा की जाती है। इसके अलावा, हम वीडियो कार्य के लिए जिम्मेदार हैं, जो बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे काम के अच्छे नतीजे भी मिल रहे हैं। अगर दूसरी जगहों पर भाई-बहनों को समस्याएँ हो रही हैं, तो वे हमारी मदद माँगने के लिए हमें लिखेंगे। अगर हम संक्रमित हो जाते हैं और अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते, तो क्या इससे काम में देरी नहीं होगी? बाइबल कहती है : ‘तेरे निकट हज़ार, और तेरी दाहिनी ओर दस हज़ार गिरेंगे; परन्तु वह तेरे पास न आएगा’ (भजन संहिता 91:7)। अगर परमेश्वर इसकी अनुमति नहीं देता, तो भले ही पूरा समुदाय संक्रमित हो जाए, हमें कुछ नहीं होगा।” इन विचारों ने मुझे शांति और श्रेष्ठता की भावना दी जिसे बयान नहीं किया जा सक्ता। मैं कभी-कभी मेजबान बहनों को संक्रमित होने से डरते हुए देखती थी, और मुझे लगता था कि उनमें आस्था की कमी है। मैं सोचती थी, “तुम हमारी मेजबानी कर रही हो, परमेश्वर तुम्हारी भी रक्षा करेगा।”

आखिरकार हमारे समुदाय में भी महामारी बेकाबू होकर फैल गई। प्रत्येक दिन मैं श्रमिकों को बड़े‌‌-बड़े बाहरी स्थानों को कीटाणुरहित करते देखती थी और मेजबान बहनें अक्सर इस बारे में बात करती थीं कि कैसे गैर-विश्वासियों को आइसोलेशन में ले जाया जाता है। मैं खुश थी कि मैं विश्वासी हूँ और मुझे परमेश्वर के हाथों में एक बच्चे की तरह महसूस होता था। परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के साथ महामारी हमें छू भी नहीं सकती थी। लेकिन कुछ ही समय बाद कुछ अप्रत्याशित घटित हो गया। 18 नवंबर को, एक बहन जिसके साथ मैं सहयोग कर रही थी, उसे अचानक बुखार आने लगा और नहाने-धोने के बाद खाँसी आने लगी। फिर मेजबान बहनों को बुखार और सिरदर्द होना शुरू हो गया, और मैं सोचने लगी, “क्या वे संक्रमित हो सकती हैं?” लेकिन मैंने जल्दी से इन विचारों को झटक दिया, यह मानते हुए कि वे सच नहीं हो सकते। लेकिन अगले दिन, अचानक मुझे पूरे शरीर में दर्द और कमजोरी महसूस होने लगी, और दूसरी बहन को भी बुखार हो गया। हमने जाँच कराई, तो हमें और हमारी दोनों मेजबान बहनों को संक्रमित पाया गया। पहले तो मैं इस बात की सच्चाई पर यकीन ही नहीं कर पाई और मुझे नहीं पता चला कि मैं कैसे संक्रमित हो सकती हूँ। मैं अपने कर्तव्यों में अपने हाल के व्यवहारों के बारे में सोचती रही, खुद से कहती रही, “मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे स्पष्ट रूप से परमेश्वर का विरोध हो, और हमारा काम भी बहुत अच्छा चल रहा है। मुझे सजा नहीं मिलनी चाहिए थी, तो मैं संक्रमित क्यों हो गई? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर मेरा आध्यात्मिक कद बढ़ते हुए देखकर इस बीमारी का इस्तेमाल मुझे परखने के लिए कर रहा है ताकि मैं उसके लिए गवाही दे सकूँ? अगर ऐसा है, तो जब तक मैं शिकायत नहीं करती और अपना कर्तव्य निभाती रहती हूँ, परमेश्वर मुझे कुछ नहीं होने देगा।” फिर, मैं खुद को याद दिलाती रही कि मैं पहले की तरह अपना कर्तव्य निभाती रहूँ और यह कि परमेश्वर की सुरक्षा से मेरी हालत जल्द ही ठीक हो जाएगी। लेकिन चीजें वैसी नहीं हुईं जैसा मैंने सोचा था, और मेरी हालत न केवल नहीं सुधरी, बल्कि बद से बदतर होती गई। मेरा बुखार बार-बार वापस आता रहा और मुझे पूरे शरीर में बहुत दर्द महसूस हो रहा था, खास तौर पर मेरे गले में दर्द और सूजन आ गई थी। जब भी मैं खाने या पीने की कोशिश करती, तो ऐसा लगता जैसे मैं कोई चाकू निगल रही हूँ, और जब मैं रात को सोने की कोशिश करती, तो मेरी नाक बंद हो जाती और मैं केवल अपने मुँह से साँस ले पाती थी, जिससे मेरे गले में और भी अधिक दर्द होने लगता और वह सूख जाता था। मैं अपने दिल में शिकायत करने लगी, “यह बीमारी ठीक क्यों नहीं हो रही है?” और खास तौर पर दो रातें ऐसी थीं जब मुझे सीने में जकड़न महसूस हुई और साँस लेने में तकलीफ हुई। मुझे उन लोगों का ख्याल आया जो साँस न ले पाने के कारण मर गए थे तो मैं और भी अधिक डर गई। मैं चिंता करती रही, “मेरी हालत लगातार इतनी कैसे खराब हो सकती है? क्या मैं मरने वाली हूँ? क्या परमेश्वर मुझे आजमा रहा है या इस बीमारी से मुझे सजा दे रहा है?” इन विचारों से मेरा दिल बहुत उदास हो गया। खासतौर पर बीमारी के उन कुछ दिनों में, जब घर में बारिश और ठंड होती थी, तो ऐसा लगता था मानो मेरे ऊपर मौत का साया मंडरा रहा हो, और मुझे अपने अंदर एक तरह की असहनीय कड़वाहट महसूस हो रही थी, जैसे परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया हो। इस समय तक मेरी श्रेष्ठता की भावना गायब हो चुकी थी। मैं सोचती कि कैसे परमेश्वर ने मुझ पर पहले अनुग्रह किया था और आशीष दिया था, और कैसे दूसरे लोग मुझे सम्मान देते थे और मुझसे ईर्ष्या करते थे, लेकिन अब मैं खुद को बहुत महत्वहीन महसूस करती थी, मानो एक दिन मैं बस चुपचाप गायब हो जाऊँगी... जितना अधिक मैं इस बारे में सोचती, उतना ही अधिक दुखी महसूस करती थी, जैसे मेरे आगे का रास्ता अंधकारमय हो गया हो, और मेरे पास कुछ भी करने की ऊर्जा न बची हो। बीमारी के कारण होने वाली प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं की वजह से, मैं बस लेट जाना और आराम करना चाहती थी। हालाँकि मुझे पता था कि मुझे अपने कर्तव्य पर अडिग रहना है, पर मेरे शरीर की ऊर्जा पूरी तरह से खत्म हो चुकी थी, और मैंने सोचा, “न केवल मैं ठीक नहीं हो रही हूँ, बल्कि वास्तव में और अधिक बीमार होती जा रही हूँ। मैं अपने कर्तव्य पर कायम नहीं रह सकती और मैंने कोई गवाही नहीं दी है। कहीं यह मेरे जीवन का अंत तो नहीं है?” अपने दर्द में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं अभी बहुत कमजोर महसूस कर रही हूँ और तुम्हारे इरादे को नहीं समझ पा रही हूँ। मुझे नहीं पता कि इससे कैसे पार पाऊँ, कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो!”

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “यद्यपि तुम लोगों ने सभी तरह की पीड़ाएँ झेली हैं और हर तरह की यातना का अनुभव किया है, लेकिन वह पीड़ा अय्यूब के परीक्षणों की तरह बिल्कुल नहीं है, बल्कि यह न्याय और ताड़ना है, जो लोगों को उनके विद्रोह, उनके प्रतिरोध, और मेरे धार्मिक स्वभाव के कारण प्राप्त हुए हैं; यह धार्मिक न्याय, ताड़ना और शाप है। दूसरी ओर, अय्यूब इस्राएलियों के बीच एक धार्मिक मनुष्य था, जिसने यहोवा का महान प्रेम और दया प्राप्त की। उसने कोई बुरे काम नहीं किए थे, और उसने यहोवा का विरोध नहीं किया; बल्कि, वह यहोवा के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित था। अपनी धार्मिकता के कारण उसे परीक्षणों का भागी बनना पड़ा, और वह अग्नि-परीक्षाओं से इसलिए गुजरा क्योंकि वह यहोवा का एक वफ़ादार सेवक था। आज के लोग अपनी गंदगी और अधार्मिकता के कारण मेरे न्याय और शाप के भागी होते हैं। यद्यपि उनकी पीड़ा अय्यूब द्वारा झेली गई उस पीड़ा के सामने कुछ भी नहीं, जब उसने अपने पशु-धन, अपनी संपत्ति, अपने नौकरों, अपने बच्चों और अपने सभी प्रियजनों को खो दिया था, लोग जो सहन कर रहे हैं, वह उग्र शोधन और ज्वलन है। और जो बात इसे अय्यूब के अनुभव से भी ज्यादा गंभीर बनाती है, वह यह है कि इस प्रकार के परीक्षण लोगों की कमज़ोरी को देखकर कम किए या हटाए नहीं जाते, बल्कि वे दीर्घकालीन हैं, लोगों के जीवन के अंतिम दिन तक चलने वाले हैं। यह सज़ा, न्याय और शाप है—यह बेरहमी से जलाना है, और इससे भी अधिक, यह मानवजाति का उचित उत्तराधिकार है। लोग इसी के योग्य हैं, और मेरा धार्मिक स्वभाव यहीं अभिव्यक्त होता है। यह एक ज्ञात तथ्य है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आशीषों से तुम लोग क्या समझते हो?)। परमेश्वर के वचन से, मैं समझ गई कि परमेश्वर ने मुझे इसलिए संक्रमित नहीं होने दिया कि मैं बीमारी में जियूँ या अपनी देह के बारे में विचार करूँ, न ही यह मुझे बेनकाब करने या मुझे हटाने के लिए था, और यह इसलिए भी नहीं था कि मेरे पास वैसा आध्यात्मिक कद था जैसा मैंने सोचा था, जो अय्यूब की तरह परमेश्वर की गवाही देने के योग्य था, बल्कि यह इसलिए था क्योंकि मेरा स्वभाव भ्रष्ट था। परमेश्वर इस बीमारी का उपयोग मेरी भ्रष्टता का खुलासा करने, मुझे शुद्ध करने और मुझे बदलने के लिए कर रहा था। अगर मैं आत्म-चिंतन कर सकती और सत्य को खोज सकती, तो यह सत्य प्राप्त करने का एक अच्छा अवसर होता, लेकिन मैं हमेशा धारणाओं और कल्पनाओं में जी रही थी, और यह दृढ़ निश्चय कर रही थी कि परमेश्वर मुझे बीमार नहीं होने देगा। मैं बस एक बच्चे की तरह परमेश्वर की गोद में रहना चाहती थी और जीवन के तूफानों का अनुभव नहीं करना चाहती थी। बीमार होने के बाद, मैंने आत्म-चिंतन करने और सबक सीखने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, बल्कि इसके बजाय, मेरे मन में यह बेतुका विचार आया कि मेरे पास आध्यात्मिक कद है, और परमेश्वर इस परिस्थिति का उपयोग मुझे अपने लिए गवाही दिलवाने के लिए कर रहा है। मैं शिकायत करने से दूर रही और अपने कर्तव्य पर कायम रही, यह सोचकर कि ऐसा करने से मैं अपनी गवाही में अडिग रह पाऊँगी और परमेश्वर को संतुष्ट कर पाऊँगी, और फिर परमेश्वर इस बीमारी को दूर कर देगा। परिणामस्वरूप, जब मेरी हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती गई, तो मैंने शिकायत की और उम्मीद रखी कि परमेश्वर इस बीमारी को दूर कर देगा, यहाँ तक कि मैं सतर्क हो गई, गलतफहमी में पड़ गई और सोचने लगी कि परमेश्वर मुझे बेनकाब करना चाहता है और मुझे हटाना चाहता है। मैं किस तरह से परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर रही थी? मैंने नीनवे के लोगों के बारे में सोचा। उनकी भ्रष्टता, दुष्टता और बुरे कामों ने परमेश्वर के क्रोध को भड़काया था, इसलिए परमेश्वर ने योना को यह घोषणा करने को भेजा था कि उनके पास पश्चात्ताप करने के लिए 40 दिन हैं। नीनवे के सभी लोग परमेश्वर पर विश्वास करते थे, और राजा और आम आदमी ने समान रूप से टाट और राख में परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप किया, और आखिर में उन्होंने परमेश्वर की दया और क्षमा अर्जित कर ली। मेरे संक्रमित होने में परमेश्वर का इरादा था, और नीनवे के लोगों की तरह, मुझे परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करना था।

इस समय, मैंने इस बीमारी का सामना करते समय अपनी प्रकट की गई दशाओं पर आत्म-चिंतन किया। मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “परमेश्वर के परिवार में भाई-बहनों के बीच तुम्हारा रुतबा या स्थान चाहे कितना भी ऊँचा हो या तुम्हारा कर्तव्य कितना भी महत्वपूर्ण हो और तुम्हारी प्रतिभा और योगदान कितना ही महान हो या तुमने कितने ही लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया हो, परमेश्वर की नजर में तुम एक सृजित प्राणी ही हो, एक सामान्य सृजित प्राणी, और तुमने खुद को जो महान पदवियाँ और उपाधियाँ दी हैं उनका कोई अस्तित्व नहीं है। यदि तुम हमेशा उन्हें ताज या पूंजी की तरह मानते हो जो तुम्हें एक विशेष समूह से संबंधित होने या एक विशेष हस्ती बनाता है तो ऐसा करके तुम परमेश्वर के विचारों का विरोध और प्रतिरोध करते हो और परमेश्वर के साथ मेल नहीं खाते हो। इसके परिणाम क्या होंगे? क्या यह तुम्हें उन कर्तव्यों का विरोध करने के लिए प्रेरित करेगा जिन्हें एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए? परमेश्वर की नजर में तुम एक सृजित प्राणी हो, पर खुद को ऐसा नहीं मानते। क्या तुम सचमुच ऐसी मानसिकता के साथ परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो? तुम हमेशा मनमाने ढंग से सोचते हो, ‘परमेश्वर को मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, वह कभी भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता।’ क्या इससे परमेश्वर के साथ टकराव पैदा नहीं होता? जब परमेश्वर तुम्हारी धारणाओं, मानसिकता और जरूरतों के विपरीत कार्य करेगा तो तुम्हारा दिल क्या सोचेगा? परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जैसे माहौल बनाए हैं तुम उनसे कैसे निपटोगे? क्या तुम समर्पण करोगे? (नहीं।) तुम समर्पण नहीं कर पाओगे और तुम निश्चित रूप से विरोध, प्रतिरोध और शिकायत करोगे, असंतोष दिखाओगे, अपने दिल में बार-बार इस पर विचार करते हुए सोचोगे, ‘मगर परमेश्वर तो मेरी रक्षा करता था और मेरे साथ कृपापूर्ण व्यवहार करता था। वह अब क्यों बदल गया है? मैं अब और नहीं जी सकता!’ फिर तुम चिड़चिड़े होकर असामान्य व्यवहार करने लगते हो। यदि तुम अपने घर में माता-पिता के साथ ऐसा व्यवहार करते हो तो यह क्षमा योग्य होगा और वे तुम्हारे साथ कुछ नहीं करेंगे। लेकिन यह परमेश्वर के घर में स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि तुम बालिग हो और एक विश्वासी भी हो, यहाँ तक कि अन्य लोग भी तुम्हारी बकवास सुनने के लिए खड़े नहीं होंगे—क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ऐसा व्यवहार बर्दाश्त करेगा? क्या उसके साथ ऐसा करने पर वह तुम्हें माफ कर देगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। क्यों नहीं करेगा? परमेश्वर तुम्हारा माता-पिता नहीं है, वह परमेश्वर है, सृष्टिकर्ता है, और सृष्टिकर्ता कभी भी किसी सृजित प्राणी को चिड़चिड़े और विवेकहीन होने या अपने सामने नखरे दिखाने की अनुमति नहीं देगा। जब परमेश्वर तुम्हें ताड़ना देता है, तुम्हारा न्याय करता है, तुम्हारी परीक्षा लेता है या तुमसे चीजें छीन लेता है, तुम्हें प्रतिकूल परिस्थिति में डालता है, तो वह सृष्टिकर्ता के साथ व्यवहार में एक सृजित प्राणी का रवैया देखना चाहता है, वह देखना चाहता है कि सृजित प्राणी कौन-सा मार्ग चुनता है, और वह तुम्हें कभी भी चिड़चिड़े और विवेकहीन होने या बेतुके बहाने बनाने की अनुमति नहीं देगा। इन चीजों को समझने के बाद क्या लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि सृष्टिकर्ता जो कुछ भी करता है उससे कैसे निपटा जाए? सबसे पहले लोगों को सृजित प्राणियों के रूप में अपना उचित स्थान ग्रहण करना चाहिए और सृजित प्राणियों के रूप में अपनी पहचान स्वीकारनी चाहिए। क्या तुम यह स्वीकार सकते हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो? यदि तुम इसे स्वीकार कर सकते हो, तो तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उचित स्थान संभालना चाहिए और सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए और यदि तुम थोड़ा कष्ट उठाते भी हो, तो तुम्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए। समझदार व्यक्ति होने का यही मतलब है। यदि तुम यह नहीं सोचते कि तुम एक सृजित प्राणी हो, बल्कि मानते हो कि तुम्हारे पास पदवी और सिर पर प्रभामंडल है, और तुम एक रुतबे वाले व्यक्ति, एक महान अगुआ, संचालक, संपादक या परमेश्वर के परिवार में निर्देशक हो, और तुमने परमेश्वर के परिवार के कार्य में महान योगदान दिया है—यदि तुम ऐसा सोचते हो तो तुम एकदम विवेकहीन और निहायत ही बेशर्म व्यक्ति हो। क्या तुम लोग रुतबा, स्थान और अहमियत रखने वाले व्यक्ति हो? (हम ऐसे नहीं हैं।) तो फिर तुम क्या हो? (मैं एक सृजित प्राणी हूँ।) सही कहा, तुम बस एक सामान्य सृजित प्राणी हो। लोगों के बीच तुम अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन कर सकते हो, बड़े होने का फायदा उठा सकते हो, अपने योगदानों के बारे में डींगें हाँक सकते हो या अपनी बहादुरी के कारनामों के बारे में बात कर सकते हो। लेकिन परमेश्वर के समक्ष इन चीजों का कोई अस्तित्व नहीं है, और तुम्हें कभी भी उनके बारे में बात नहीं करनी चाहिए, या उनका दिखावा नहीं करना चाहिए, या खुद के बहुत अनुभवी होने का घमंड नहीं करना चाहिए। यदि तुम अपनी योग्यताओं का दिखावा करोगे तो चीजें उलट-पुलट हो जाएंगी। परमेश्वर तुम्हें एकदम विवेकहीन और बेहद अहंकारी मानेगा। तुम्हारे अस्वीकार और नफरत के कारण वह तुम्हें किनारे कर देगा, फिर तुम मुसीबत में पड़ जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे मेरी नींद से जगा दिया! मैं अपने महत्वपूर्ण कर्तव्य, अपने काम के परिणामों को और अगुआओं, कार्यकर्ताओं, भाई-बहनों की स्वीकृति को पूँजी के रूप में देख रही थी, मैंने अपनी योग्यताओं का दिखावा और अपनी उपलब्धियों का बखान करना शुरू कर दिया था, मैंने सोचा कि मैं गैर-विश्वासियों से अलग थी और परमेश्वर निश्चित रूप से मुझे महामारी से बचा लेगा, और अगर मैं बीमार पड़ भी गई, तो ऐसा इसलिए होगा क्योंकि मेरे पास आध्यात्मिक कद है और परमेश्वर मुझसे अपनी गवाही दिलवाने के लिए कोशिश कर रहा था, जैसे कि मैं किसी तरह बाकी भ्रष्ट मानवता से अलग थी। मैंने देखा कि मैं कितनी घमंडी हो गई थी। विशेष रूप से परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ने में : “यदि तुम अपनी योग्यताओं का दिखावा करोगे तो चीजें उलट-पुलट हो जाएंगी। परमेश्वर तुम्हें एकदम विवेकहीन और बेहद अहंकारी मानेगा। तुम्हारे अस्वीकार और नफरत के कारण वह तुम्हें किनारे कर देगा, फिर तुम मुसीबत में पड़ जाओगे,” मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ऐसे लोगों से कितनी घृणा करता है। अपनी बीमारी के बारे में सोचते हुए, मैंने न केवल समर्पण नहीं किया था, बल्कि मैंने परमेश्वर के सामने अपनी योग्यताओं का दिखावा किया और अनुचित माँगें रखीं, जिससे परमेश्वर को सचमुच घृणा और नफरत हुई। यदि मैं पश्चात्ताप न करती, तो परमेश्वर मुझे ठुकरा देता और मुझे हटा देता। इसका एहसास करते ही, मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! अगर यह बीमारी न होती, तो मैंने आत्म-चिंतन न किया होता और मुझे यह भी एहसास नहीं हुआ होता कि मैं तुम्हारा विरोध कर रही हूँ। हे परमेश्वर, मुझ पर दया करो और मुझे समर्पण करने और सबक सीखने में सक्षम बनाओ।”

बाद में, मैंने खुद से पूछा, “मैं सोचा करती थी कि मैं अपने काम में परिणाम प्राप्त कर रही हूँ और भाई-बहनों की स्वीकृति प्राप्त कर रही हूँ, और परमेश्वर को मुझे स्वीकार करना चाहिए और मुझे महामारी से बचाना चाहिए, लेकिन क्या परमेश्वर वास्तव में इसे इसी तरह देखता है?” एक दिन, मुझे परमेश्वर के वचनों में इसका उत्तर मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम लोग सोचते होगे कि बरसों अनुयायी बने रहकर तुमने बहुत मेहनत कर ली है, और कुछ भी हो, केवल मजदूर होने के नाते ही तुम्हें परमेश्वर के भवन में एक कटोरी चावल मिल जाना चाहिए। मैं कहूँगा कि तुममें से अधिकतर ऐसा ही सोचते हैं, क्योंकि तुम लोगों ने हमेशा इस सिद्धांत का पालन किया है कि चीज़ों का फ़ायदा कैसे उठाया जाए, न कि अपना फायदा कैसे उठाने दिया जाए। इसलिए अब मैं तुम लोगों से बहुत गंभीरता से कहता हूँ : मुझे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि तुम्हारी मेहनत कितनी उत्कृष्ट है, तुम्हारी योग्यताएँ कितनी प्रभावशाली हैं, तुम कितनी निकटता से मेरा अनुसरण करते हो, तुम कितने प्रसिद्ध हो, या तुमने अपने रवैये में कितना सुधार किया है; जब तक तुम मेरी अपेक्षाएँ पूरी नहीं करते, तब तक तुम कभी मेरी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर पाओगे। अपने विचारों और गणनाओं को जितनी जल्दी हो सके, बट्टे खाते डाल दो, और मेरी अपेक्षाओं को गंभीरता से लेना शुरू कर दो; वरना मैं अपना काम समाप्त करने के लिए सभी को भस्म कर दूँगा और, खराब से खराब यह होगा कि मैं अपने वर्षों के कार्य और पीड़ा को शून्य में बदल दूँ, क्योंकि मैं अपने शत्रुओं और उन लोगों को, जिनमें से दुर्गंध आती है और जो शैतान जैसे दिखते हैं, अपने राज्य में नहीं ला सकता या उन्हें अगले युग में नहीं ले जा सकता(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे)। “आखिरकार, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसके आयोजन की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और ये वे मानक हैं जिनका उपयोग वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए करता है। ये मानक अपरिवर्तनीय हैं, और यह तुम्हें याद रखना चाहिए। इन मानकों को अपने मन में अंकित कर लो, और किसी अवास्तविक चीज को पाने की कोशिश करने के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूँढ़ने की मत सोचो। उद्धार पाने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक हमेशा के लिए अपरिवर्तनशील हैं। वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। परमेश्वर लोगों का मूल्यांकन उनके द्वारा किए गए कर्तव्यों या उनके पास कितनी पूँजी है, इसके आधार पर नहीं करता, बल्कि इस आधार पर करता है कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, और उसके प्रति समर्पित होने में और उसकी इच्छानुसार आयोजन करने देने में सक्षम है या नहीं। यही सबसे महत्वपूर्ण है। सत्य का अनुसरण किए बिना, चाहे मेरा कर्तव्य कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, चाहे मैंने कितना भी योगदान दिया हो, या कितने भी लोग मेरी प्रशंसा करें, मैं परमेश्वर की स्वीकृति या उद्धार प्राप्त करने में असमर्थ रहूँगी। इस बीमारी ने मुझे पूरी तरह से बेनकाब कर दिया। चूँकि मेरे पास सत्य की कमी थी और मेरा दृष्टिकोण विकृत थे, मुझे परमेश्वर पर कोई विश्वास नहीं था या कष्ट सहने की इच्छा नहीं थी, परमेश्वर के लिए कोई प्रेम तो दूर की बात है। जब परीक्षण हुए, तो मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया या सत्य की खोज नहीं की, और मुझे बस यह बेतुका विचार आता रहा कि मेरे परीक्षण इसलिए हो रहे हैं क्योंकि मेरा आध्यात्मिक कद बड़ा है। जब मुझे तीव्र पीड़ा हुई, तो मैंने शिकायत की और चाहा कि परमेश्वर मेरी बीमारी को दूर करे, यहाँ तक कि मैं अपना कर्तव्य भी नहीं करना चाहती थी। किस तरह मेरा कोई आध्यात्मिक कद था? मुझमें बिल्कुल भी आस्था या समर्पण नहीं था। परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने और उसका विरोध करने वाले व्यक्ति के रूप में, मैं अभी भी उसकी सुरक्षा और आशीष पाना चाहती थी, और बचाया जाना चाहती थी और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहती थी। कितनी बेशर्मी! मैंने कई वर्षों तक अपने कर्तव्यों का पालन किया था और मुझे कार्य में कुछ परिणाम प्राप्त हुए थे, और मैंने दूसरों की प्रशंसा प्राप्त की थी, और मैंने इन चीजों को पूँजी के रूप में लिया। मैं अभिमानी और अहंकारी हो गई, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं रही, मैं अपनी योग्यताओं का दिखावा करने लगी, मैंने माँग की कि परमेश्वर को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, और परमेश्वर की गवाही देने के लिए योग्य महसूस किया। मैं बिना एहसास किए परमेश्वर का विरोध कर रही थी। इस एहसास ने मुझे दुखी कर दिया। मैंने खुद से पूछा कि अगर इतने साल की आस्था के बाद भी मुझे सत्य नहीं मिला तो मैं इतने समय से आखिर क्या खोज रही थी। अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “शुरू से अंत तक, अपने कर्तव्य के प्रति मसीह-विरोधियों का क्या रवैया रहता है? वे मानते हैं कि अपना कर्तव्य निभाना एक लेन-देन है, जो कोई भी अपने कर्तव्य में खुद को सबसे अधिक खपाता है, परमेश्वर के घर में सबसे बड़ा योगदान देता है और परमेश्वर के घर में सबसे अधिक वर्षों तक कष्ट सहता है, उसके पास अंत में आशीष और मुकुट प्राप्त करने की अधिक संभावना होगी। यही मसीह-विरोधियों का तर्क है। क्या यह तर्क सही है? (नहीं।) क्या इस तरह के परिप्रेक्ष्य को पलटना आसान है? इसे पलटना आसान नहीं है। यह मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार से तय होता है। अपने दिलों में मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, वे सत्य की खोज बिल्कुल नहीं करते और गलत रास्ता अपना लेते हैं, इसलिए परमेश्वर के साथ लेन-देन करने के उनके परिप्रेक्ष्य को पलटना आसान नहीं है। आखिरकार, मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, वे छद्म-विश्वासी हैं, वे यहाँ बस अटकलें लगाने और आशीष प्राप्त करने के लिए आए हैं। छद्म-विश्वासियों का परमेश्वर में विश्वास करना ही अपने आप में अस्वीकार्य है, एक हास्यास्पद चीज है; यह कहना कि वे परमेश्वर के साथ लेन-देन करना चाहते हैं, परमेश्वर के लिए कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर आशीष प्राप्त करना चाहते हैं, और भी अधिक हास्यास्पद है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि इतने साल बाद भी मैं सत्य को प्राप्त नहीं कर पाई, कारण यह नहीं था कि सत्य दूसरों के पक्ष में है, बल्कि इसका कारण यह था कि मैंने कभी सत्य के लिए कोई प्रयास नहीं किया और मैं केवल आशीष और पुरस्कारों के पीछे दौड़ती रही। इन सभी वर्षों में, मैंने कभी यह खोजा या विचार नहीं किया कि मुझे अपनी आस्था में क्या अनुसरण करना चाहिए, मुझे कौन सा मार्ग अपनाना चाहिए और किस तरह का व्यक्ति परमेश्वर को प्रसन्न करता है, मैंने अपना कर्तव्य करने या अपना मार्ग चुनने में शायद ही कभी अपने इरादों और विचारों की जाँच की थी। मैं हमेशा काम पर ध्यान केंद्रित करने से संतुष्ट रही थी, यह सोचती थी कि अगर मैंने अधिक काम किया और अधिक परिणाम प्राप्त किए, तो परमेश्वर निश्चित ही मुझे आशीष देगा और मुझसे प्रसन्न होगा, और भले ही आपदाएँ आएँ, परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मुझे कोई नुकसान नहीं होने देगा। परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आने के जरिए, मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि मेरे विचार एक मसीह-विरोधी के तर्क के मुताबिक थे, एक छद्म-विश्वासी के लेन-देन के विचार थे, और यह कि मैं परमेश्वर को धोखा देने और अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उसका उपयोग करने की कोशिश कर रही थी। यह परमेश्वर का विरोध था! मैंने अनुग्रह के युग में पौलुस के बारे में सोचा। उसने बहुत से लोगों तक सुसमाचार फैलाया था, यहाँ तक कि पूरे यूरोप में फैलाया, और वह बहुत से लोगों को आस्था में लेकर आया। लेकिन पौलुस ने जो कुछ भी किया, वह प्रभु यीशु की गवाही देने के लिए नहीं था, न ही एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को निभाने के लिए था, बल्कि उसका सुसमाचार फैलाना परमेश्वर के साथ धार्मिकता के मुकुट के लिए सौदेबाजी करना था। अपने कार्य के दौरान, पौलुस हमेशा खुद की बड़ाई करता और दिखावा करता था, और उसका स्वभाव लगातार अहंकारी होता गया। उसने परमेश्वर के सामने अपनी योग्यताओं का दिखावा किया और बेशर्मी से उससे माँग की, कहा : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। उसने यहाँ तक दावा किया कि वह मसीह के रूप में रहता है। अंत में, क्योंकि उसने परमेश्वर का विरोध किया था और उसके स्वभाव को नाराज किया था, पौलुस को दंडित किया गया। क्या अनुसरण को लेकर मेरे विचार और मैं जिस मार्ग पर थी, वह पौलुस के समान नहीं थे? मैं केवल आशीष का अनुसरण करना चाहती थी और अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने कर्तव्य का उपयोग करना चाहती थी। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी! इस खुलासे के बिना, मुझे अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव की गंभीरता का एहसास नहीं होता, और अगर मैं आगे बढ़ती रहती, तो मुझे परमेश्वर द्वारा ठुकरा कर हटा दिया जाता। इस एहसास ने मुझे अपराध बोध से भर दिया और मैं घुटनों के बल प्रार्थना में बैठ गई, “हे परमेश्वर! मेरी बीमारी तुम्हारी धार्मिकता और मुझे बचाने के उद्देश्य से है। मैं एक तुच्छ प्राणी से ज्यादा कुछ नहीं हूँ। तुमने मेरा उत्कर्ष किया और मुझ पर अनुग्रह किया और मुझे कर्तव्य करने का मौका दिया, लेकिन मैं बहुत अहंकारी और अनुचित रही हूँ। मैं तुम्हारा विरोध और तुमसे सौदेबाजी कर रही थी, फिर भी मुझे इसका पता नहीं था। हे परमेश्वर, मैं तुम्हारे खिलाफ विद्रोह या विरोध नहीं करना चाहती, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।”

बाद में, मैंने सोचा, “एक और भी कारण है कि मैंने क्यों शिकायत की थी और बीमार पड़ने पर समर्पण नहीं कर पाई। यह इसलिए है क्योंकि मुझे मृत्यु का डर है। मैं इस समस्या को कैसे हल कर सकती हूँ?” मैंने प्रार्थना की और खोजा, और परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा : मृत्यु के विषय की प्रकृति वही है जो दूसरे विषयों की होती है। “मृत्यु के विषय की प्रकृति वही है जो दूसरे विषयों की होती है। इसका चयन लोग खुद नहीं कर सकते, और इसे मनुष्य की इच्छा से बदलना तो दूर की बात है। मृत्यु भी जीवन की किसी दूसरी महत्वपूर्ण घटना जैसी ही है : यह पूरी तरह से सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता के अधीन है। अगर कोई मृत्यु की भीख माँगे, तो जरूर नहीं कि वह मर जाए; अगर कोई जीने की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह जीवित रहे। ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन हैं, और परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से ही इसे बदला जा सकता है। इसलिए, मान लो कि तुम्हें कोई गंभीर रोग, संभावित घातक गंभीर रोग हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु हो जाए—तुम मरोगे या नहीं इसका फैसला कौन करता है? (परमेश्वर।) परमेश्वर फैसला लेता है। और चूँकि परमेश्वर निर्णय लेता है, और लोग ऐसी चीज का फैसला नहीं कर सकते, तो लोग किस बात को लेकर व्याकुल और संतप्त हैं? यह ऐसा ही है, जैसे तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तुम कब और कहाँ पैदा होते हो—ये चीजें भी तुम नहीं चुन सकते। इन मामलों में सबसे बुद्धिमान यह चुनाव है कि चीजों को कुदरती ढंग से होने दिया जाए, समर्पण किया जाए, चुना न जाए, इस विषय पर कोई विचार न किया जाए या ऊर्जा न खपाई जाए, और इसे लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित न हुआ जाए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझाया कि मैं इस बीमारी से जियूँ या मरूँ, यह सब परमेश्वर के हाथ में है, किसी इंसान पर नहीं है। यह उसी तरह है कि मैं कब पैदा हुई, किस परिवार में पैदा हुई, और मैं कैसी दिखती हूँ, ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें मैं चुन सकूँ। इसी तरह, मैं कब और कहाँ मरूँगी, यह मेरे हाथ से बाहर है। यह सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियति पर निर्भर है। अगर परमेश्वर ने मुझे इस बीमारी से मरने के लिए पूर्वनियत किया है, तो मैं इसे लेकर कुछ नहीं कर सकती, और अगर यह मेरे मरने का समय नहीं है, तो चाहे मेरी बीमारी कितनी भी गंभीर क्यों न हो जाए, मैं नहीं मरूँगी। मेरी चिंताएँ और सरोकार अनावश्यक थे, और मैं कुछ भी नहीं बदल सकती थी, वे बस अनावश्यक अतिरिक्त दर्द और बोझ थे। मुझे खुद को परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, उनके आयोजनों और व्यवस्थाओं की दया पर रहना चाहिए, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहिए। परमेश्वर कहता है : “चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम चल-फिर और बोल सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है, और तुम्हें विवेकशील होकर अपने कर्तव्य-निर्वाह में सुव्यवहार दिखाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए, और इसे अच्छे से निभाना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि एक सृजित प्राणी के लिए कर्तव्य करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है, ठीक वैसे जैसे बच्चों का अपने माता-पिता के प्रति संतान भक्ति दिखाना सही है। कलीसिया में कर्तव्य करने का अवसर मिलना परमेश्वर का अनुग्रह है, और चाहे मैं जीवित रहूँ या मरूँ, और चाहे मुझे कितना भी दर्द क्यों न सहना पड़े, मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य पूरे करने चाहिए। मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने का यही एकमात्र तरीका है। मैंने नूह के बारे में भी सोचा। जब उसने परमेश्वर का आदेश स्वीकार कर लिया, तो परमेश्वर की चिंताएँ उसकी चिंताएँ बन गईं, और परमेश्वर के विचार उसके विचार बन गए। चाहे उसे जितनी भी पीड़ा या कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी हों, वह कभी पीछे नहीं हटा, और 120 वर्षों के बाद, उसने जहाज बनाना समाप्त किया और परमेश्वर का आदेश पूरा किया। नूह की वफादारी और समर्पण से परमेश्वर को सांत्वना मिली, और यही वह उदाहरण है जिसका मुझे अनुकरण करना चाहिए। इस अहसास ने मुझे शक्ति दी और मैंने संकल्प लिया : जब तक मेरे फेफड़ों में जान है, मैं कभी भी अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करूँगी या अपनी जिम्मेदारियों को बेकार समझकर नहीं छोड़ूँगी।

उसके बाद, मैंने अपना दिल अपने कर्तव्य में लगा दिया, अब मुझे इस बात की चिंता नहीं रही कि मेरी हालत बिगड़ रही है या मैं मर जाऊँगी। मैंने सोचा कि जब तक मैं एक और दिन जीवित रहती हूँ, मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहिए, ताकि अगर मैं एक दिन मर भी जाऊँ, तो मेरा जीना व्यर्थ न जाए। कभी-कभी मैं अपने कर्तव्यों में इतना व्यस्त हो जाती थी कि मैं भूल जाती थी कि मैं बीमार हूँ। मुझे वाकई वचनों की कुछ समझ प्राप्त हो गई : “बीमारी में रहने का मतलब बीमार होना है, परन्तु आत्मा में रहने का मतलब स्वस्थ होना है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। कुछ ही समय में, मेरे लक्षण कम हो गए और मेरे टेस्ट के नतीजे नकारात्मक आए। मुझे पता था कि यह सब परमेश्वर की दया थी। मैंने इस महामारी में परमेश्वर के प्रेम और उद्धार को महसूस किया और मैं हृदय की गहराई से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ!

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