9. अब मैं अपनी बढ़ती उम्र को लेकर परेशान या चिंतित नहीं होऊँगी

लू यान, चीन

अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने के बाद से मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रही हूँ। पचास की उम्र में मैंने पाठ-आधारित कार्य करना शुरू किया। मैंने देखा कि मेरा दिमाग और याददाश्त छोटे भाई-बहनों की तुलना में ठीक-ठाक ही काम करता है और अपने कर्तव्य में मेरी दक्षता और प्रभावशीलता भी काफी हद तक उनके जैसी ही है। मैं काफी खुश थी और अपने कर्तव्य में बहुत प्रेरित महसूस करती थी। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई मेरा शरीर कम साथ देने लगा और मुझे उच्च रक्तचाप भी हो गया। मेरी शारीरिक शक्ति और ऊर्जा भी धीरे-धीरे कम होने लगी और मेरा दिमाग भी सुस्त हो गया। जब कभी मैं परमेश्वर के वचनों को थोड़ा तेजी से खाती और पीती तो मेरा दिमाग साथ न दे पाता और कभी-कभी तो मैं भूल ही जाती कि मैंने अभी क्या पढ़ा था और उसे दोबारा पढ़ना पड़ता था। मेरी याददाश्त खराब हो गई और मैं बहुत भुलक्कड़ हो गई। अक्सर शब्द मेरी जबान पर होते लेकिन याद न आता कि मैं क्या कहना चाहती थी। फिर मैं अपनी करीब तीस साल की सहयोगी बहन को देखती जो ऊर्जा से भरपूर और तेज-तर्रार थी। उसकी नजर गहरी थी और तेजी और कुशलता से काम करती थी, जो काम वह आधे घंटे में पूरा कर लेती थी उसमें मुझे डेढ़ घंटा लग जाता। मुझे अक्सर उसकी जवानी और ऊर्जा से ईर्ष्या होती थी, साथ ही मैं अपने बारे में भी चिंतित होती और सोचती, “अगर कुछ सालों में मेरा दिमाग और भी धीमा हो गया तो क्या होगा? मुझे डर है कि तब तो मैं कोई भी कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी और एकदम बेकार हो जाऊँगी। फिर मैं उद्धार कैसे प्राप्त कर पाऊँगी?” कभी कभी मन ही मन मुझे शिकायत भी होती, “मैंने इस बुढ़ापे में जाकर अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को क्यों स्वीकार किया? अगर मैं 20 साल की जवान होती तो कितना अच्छा होता! अब मैं बूढ़ी होकर एकदम बेकार हो गई हूँ।” सच तो यह था कि मैं अपना कर्तव्य अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं के अनुसार निभाना चाहती थी लेकिन मैं 60 की तो पहले ही हो चुकी थी। मेरा दिमाग और दृष्टि अब पहले जैसी नहीं रही थी और मुझे उच्च रक्तचाप भी हो गया था। अगर मैं रात को थोड़ा ज्यादा देर तक काम करती तो बहुत थकान महसूस होती और जल्दी आराम करना पड़ता। कर्तव्यों में अपनी और अपने से कमउम्र लोगों की दक्षता में बड़ा अंतर देखकर मुझे निराशा और हीनता का एहसास होता और मैं नकारात्मक दशा में जीने लगती। अब मैं अपने कर्तव्य में कोई कीमत चुकाना या अपने कौशल में सुधार पर ध्यान नहीं देना चाहती थी। मैं अपने कार्य परिणामों को बेहतर बनाने के लिए अपने विचलनों तक पर विचार नहीं करना चाहती थी। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं बूढ़ी और बेकार हूँ। चाहे मैं कितनी भी कोशिश करूँ मैं अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा पाऊँगी। शायद किसी दिन मैं पूरी तरह से बेकार हो जाऊँगी और मुझे हटा दिया जाए।”

चिंता और घबराहट में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “भाई-बहनों के बीच 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, ‘अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ, गलत समझ लेता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?’ जब वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, तो यह सोचकर झुँझलाने लगते हैं, ‘मैंने आखिर इतनी बड़ी उम्र में ही परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू क्यों किया? मैं उन लोगों जैसा क्यों नहीं हूँ, जो 20-30 वर्ष के हैं, या जो 40-50 वर्ष के हैं? इतना बूढ़ा हो जाने के बाद ही क्यों मुझे परमेश्वर के कार्य का पता चला? ऐसा नहीं है कि मेरा भाग्य खराब है; कम-से-कम अब तो परमेश्वर के कार्य से मेरा सामना हो चुका है। मेरा भाग्य अच्छा है, और परमेश्वर मेरे प्रति दयालु है! बस सिर्फ एक चीज है जिसे लेकर मैं खुश नहीं हूँ, और वह यह है कि मैं बहुत बूढ़ा हूँ। मेरी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं है, और मेरी सेहत उतनी बढ़िया नहीं है, मगर मैं अंदर से बहुत शक्तिशाली हूँ। बात बस इतनी है कि मेरा शरीर मेरी आज्ञा नहीं मानता, और सभाओं में थोड़ी देर सुनने के बाद मेरी आँख लग जाती है। कभी-कभी मैं प्रार्थना के लिए आँखें बंद कर लेता हूँ और सो जाता हूँ, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मेरा मन भटकता है। थोड़ी देर पढ़ने के बाद मैं उनींदा हो जाता हूँ और सो जाता हूँ, और वचन मेरे दिमाग में नहीं उतरते। मैं क्या करूँ? ऐसी व्यावहारिक दिक्कतों के साथ भी क्या मैं सत्य का अनुसरण कर उसे समझने में समर्थ हूँ? अगर नहीं, और अगर मैं सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास न कर पाऊँ, तो कहीं मेरी पूरी आस्था बेकार न हो जाए? कहीं मैं उद्धार प्राप्त करने में विफल न हो जाऊँ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बहुत चिंतित हूँ! ...’ ... ये बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं। हर बार जब वे किसी दिक्कत, रुकावट, कठिनाई या बाधा का सामना करते हैं, वे अपनी उम्र को दोष देते हैं, यहाँ तक कि खुद से घृणा करते हैं और खुद को पसंद नहीं करते। लेकिन किसी भी स्थिति में इसका कोई फायदा नहीं होता, कोई समाधान नहीं मिलता, और उन्हें आगे का रास्ता नहीं मिलता। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके लिए सचमुच आगे का रास्ता नहीं है? क्या कोई समाधान है? (बूढ़े लोगों को भी अपने बूते के कर्तव्य निभाने चाहिए।) बूढ़े लोगों के लिए उनके बूते के कर्तव्य निभाना स्वीकार्य है, है न? क्या बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण अब सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते? क्या वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) क्या बूढ़े लोग सत्य को समझ सकते हैं? वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, वैसे युवा लोग भी सभी सत्य नहीं समझ पाते। बूढ़े लोगों को हमेशा भ्रांति होती है, वे मानते हैं कि वे भ्रमित हैं, उनकी याददाश्त कमजोर है, और इसलिए वे सत्य को नहीं समझ सकते। क्या वे सही हैं? (नहीं।) हालाँकि युवा बूढ़ों से ज्यादा ऊर्जावान और शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं, मगर वास्तव में उनकी समझने, बूझने और जानने की क्षमता बूढ़ों के बराबर ही होती है। क्या बूढ़े लोग भी कभी युवा नहीं थे? वे बूढ़े पैदा नहीं हुए थे, और सभी युवा भी किसी-न-किसी दिन बूढ़े हो जाएँगे। बूढ़े लोगों को हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वे बूढ़े, शारीरिक रूप से कमजोर, बीमार और कमजोर याददाश्त वाले हैं, इसलिए वे युवाओं से अलग हैं। असल में कोई अंतर नहीं है। ... ऐसा नहीं है कि बड़े-बूढ़ों के पास करने को कुछ नहीं है, न ही वे अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, उनके सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होने की तो बात ही नहीं उठती—उनके लिए करने को बहुत कुछ है। अपने जीवन में जो विविध मतांतर और भ्रांतियाँ तुमने पाल रखी हैं, साथ ही जो विविध पारंपरिक विचार और धारणाएँ, अज्ञानी, जिद्दी, दकियानूसी, अतार्किक और विकृत चीजें तुमने इकट्ठा कर रखी हैं, वे सब तुम्हारे दिल में जमा हो गई हैं, और तुम्हें युवाओं से भी ज्यादा वक्त इन चीजों को खोद निकालने, विश्लेषित करने और पहचानने में लगाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, या कोई काम न होने पर तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करना चाहिए—यह न तो तुम्हारा कार्य है न ही तुम्हारी जिम्मेदारी। अव्वल तो बड़े-बूढ़ों की मनःस्थिति सही होनी चाहिए। भले ही तुम्हारी उम्र बढ़ रही हो और शारीरिक रूप से तुम अपेक्षाकृत बूढ़े हो, फिर भी तुम्हें युवा मनःस्थिति रखनी चाहिए। भले ही तुम बूढ़े हो रहे हो, तुम्हारी सोचने की शक्ति धीमी हो गई है, तुम्हारी याददाश्त कमजोर है, फिर भी अगर तुम खुद को जान पाते हो, मेरी बातें समझ सकते हो, और सत्य को समझ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम बूढ़े नहीं हो, और तुम्हारी काबिलियत कम नहीं है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सटीक दशा उजागर कर दी। मैंने देखा कि मेरी साथी बहन युवा थी और अपना कर्तव्य कुशलता से निभाती थी लेकिन मैं बड़ी थी, मुझे उच्च रक्तचाप था, मेरा दिमाग धीमा था और अपने कर्तव्य में मेरी दक्षता उसकी तुलना में बहुत कम थी। मैंने सोचा चूँकि मैं बूढ़ी और बेकार हूँ इसलिए परमेश्वर निश्चित रूप से मुझे अस्वीकार कर देगा और नहीं बचाएगा। मैं परमेश्वर को गलत समझने की दशा में जी रही थी। मुझे चिंता थी कि अगले कुछ सालों में मेरा शरीर और भी कम साथ देगा और तब शायद मैं कोई कर्तव्य न निभा पाऊँ और हटा दी जाऊँ। ये सोच कर मैं दुःखी हो गई। लेकिन परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि परमेश्वर युवा और वृद्ध दोनों के साथ समान व्यवहार करता है। जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है तो वह केवल युवाओं के लिए नहीं होता और न ही केवल बूढ़ों के लिए होता है। परमेश्वर ने अपने चुने हुए लोगों को कभी उम्र के आधार पर नहीं बाँटा है, न ही उसने कभी कहा है कि वृद्धों को कलीसिया से दूर कर देना चाहिए। परमेश्वर कभी पक्षपात नहीं करता और कोई व्यक्ति कितना भी बूढ़ा क्यों न हो, उसे परमेश्वर के वचनों से सींचा और पोषित किया जा सकता है। परमेश्वर हर एक को बचाए जाने का समान अवसर देता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता और उससे विमुख है, तो उसे बचाया नहीं जा सकता चाहे उसकी उम्र कितनी भी हो। परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम उसकी उम्र के आधार पर नहीं बल्कि मुख्यतः इस आधार पर तय करता है कि उसने सत्य पा लिया है या नहीं। कोई व्यक्ति कितना भी बूढ़ा हो, अगर वह परमेश्वर के वचन समझ सकता है और सत्य का अभ्यास कर सकता है तो उसके स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है और वह परमेश्वर का उद्धार पा सकता है। हालाँकि मैं साठ की हो चुकी थी और नए कौशल धीमी गति से सीख रही थी लेकिन मेरा मन अभी भी साफ था और परमेश्वर के वचन खाने और पीने के बाद मैं उन्हें समझ भी सकती थी। मैं परमेश्वर के वचनों के जरिए अपनी कमियों और भ्रष्ट स्वभाव को भी पहचान सकती थी। परमेश्वर ने सिर्फ इसलिए मुझे प्रबोधन और मार्गदर्शन देना बंद नहीं कर दिया था कि मैं बूढ़ी हो गई हूँ और परमेश्वर आशा करता है कि मैं उसके वचनों को खाने और पीने में अधिक समय व्यतीत कर सकूँ। परमेश्वर चाहता है कि मैं शैतान के जहर और जीवित रहने के नियमों और पारंपरिक संस्कृति भेद पहचान सकूँ। वह चाहता है कि मैं इन नकारात्मक चीजों को त्याग दूँ और सत्य के आधार पर आचरण व कार्य करूँ। परमेश्वर यही देखने की आशा करता है। मेरा दिमाग अब भी स्वस्थ और तर्कसंगत है और मैं अभी भी अपने कर्तव्य निभा सकती हूँ, इसलिए अभी मेरे पास जो समय है मुझे उसे संजोकर रखना चाहिए, अपने कर्तव्यों में अपना सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए और अपने स्वभाव में बदलाव लाना चाहिए। अब मैं सत्य का अनुसरण न करने के लिए अपनी उम्र का बहाना नहीं बना सकती। अगर मैं चिंता और बेचैनी में रहती हूँ, अपने कर्तव्य के प्रति दायित्व-बोध नहीं रखती और स्वभाव में परिवर्तन लाने का प्रयास नहीं करती तब मैं सचमुच बेकार हो जाऊँगी और अंततः परमेश्वर द्वारा हटा दी जाऊँगी।

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी केवल लाभ और आशीष प्राप्त करने के उद्देश्य से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। यदि वे कुछ कष्ट सहते हैं या कुछ कीमत चुकाते हैं, तो वह सब भी परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए होता है। आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की उनकी मंशा और इच्छा बहुत बड़ी होती है, और वे उससे कसकर चिपके रहते हैं। वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए अनेक सत्यों में से किसी को भी स्वीकार नहीं करते और अपने हृदय में हमेशा सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना आशीष प्राप्त करने और एक अच्छी जगह पहुंचना सुनिश्चित करने के लिए है, कि यह सर्वोच्च सिद्धांत है, और इससे बढ़कर कुछ भी नहीं हो सकता। वे सोचते हैं कि लोगों को आशीष प्राप्त करने के अलावा परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहिए, और अगर यह सब आशीष के लिए नहीं है, तो परमेश्वर पर विश्वास का कोई अर्थ या महत्व नहीं होगा, कि यह अपना अर्थ और मूल्य खो देगा। क्या ये विचार मसीह-विरोधियों में किसी और ने डाले थे? क्या ये किसी अन्य की शिक्षा या प्रभाव से निकले हैं? नहीं, वे मसीह-विरोधियों के अंतर्निहित प्रकृति सार द्वारा निर्धारित होते हैं, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता। आज देहधारी परमेश्वर के इतने सारे वचन बोलने के बावजूद, मसीह-विरोधी उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करते, बल्कि उनका विरोध करते हैं और उनकी निंदा करते हैं। सत्य के प्रति उनके विमुख होने और सत्य से घृणा करने की प्रकृति कभी नहीं बदल सकती। अगर वे बदल नहीं सकते, तो यह क्या संकेत करता है? यह संकेत करता है कि उनकी प्रकृति दुष्ट है। यह सत्य का अनुसरण करने या न करने का मुद्दा नहीं है; यह दुष्ट स्वभाव है, यह निर्लज्ज होकर परमेश्वर के विरुद्ध हल्ला मचाना और परमेश्वर को नाराज करना है। यह मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है; यही उनका असली चेहरा है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी चाहे कितने भी कष्ट सहें या परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए कितनी भी कीमत चुकाएँ, वे आशीष पाने के लिए हमेशा परमेश्वर से मोलभाव करने की कोशिश करते हैं। वे उद्धार के लिए सत्य की खोज से अधिक महत्व आशीष को देते हैं। जब वे आशीष प्राप्त नहीं कर पाते तो वे कोई कर्तव्य करने या कोई कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते हैं। वे परमेश्वर तक का विरोध करते हैं और शिकायत करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। यह एक मसीह-विरोधी का दुष्ट स्वभाव होता है। अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने के बाद आत्मचिंतन करते हुए मैंने देखा कि परमेश्वर पर विश्वास करने से आशीष मिलता है, बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का मौका मिलता है और मैं इससे खुश थी इसलिए मैंने हर हाल में अपना कर्तव्य निभाया। जब मैंने देखा कि मेरे काम के अच्छे परिणाम आए हैं तो मुझे लगा कि मैं कलीसिया में योगदान दे रही हूँ इसलिए मुझे लगा कि परमेश्वर निश्चित रूप से मुझे एक अच्छी मंजिल देगा। लेकिन अब चूँकि मैं बूढ़ी हो गई हूँ और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ हैं, अपने कर्तव्यों में मेरी कार्यकुशलता और परिणाम अब युवा लोगों के बराबर नहीं रह गए हैं इसलिए मुझे चिंता हुई कि जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ेगी मैं कोई भी कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी और तब मैं परमेश्वर द्वारा हटा दी जाऊँगी। यह सोचकर कि आशीष पाने की मेरी सारी आशाएँ धूमिल हो गई हैं, मैं निराशा में डूबकर पीड़ा, चिंता और नकारात्मक प्रतिरोध में जीने लगी। मैंने दावा किया कि मेरे प्रयास और मेरा खपना मेरे कर्तव्यों के लिए थे लेकिन अंदर ही अंदर मैं हमेशा अपने परिणाम और गंतव्य की खातिर हिसाब-किताब लगाती रहती थी। मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के लिए अपने कर्तव्यों का उपयोग करने की कोशिश कर रही थी। असल में मैं परमेश्वर के साथ चालाकी करने और उसे धोखा देने की कोशिश करती थी। मैंने देखा कि मैं वाकई कितनी स्वार्थी और नीच बन गई हूँ! मैंने विचार किया कि कैसे परमेश्वर ने मानवता को बचाने के लिए लाखों वचन व्यक्त किए हैं और मैं कितनी भाग्यशाली हूँ कि मैं परमेश्वर की उपस्थिति के सामने आई हूँ, कि मैंने परमेश्वर के वचनों के पोषण का भरपूर आनंद उठाया है और नकारात्मक चीजों के बारे में विवेक हासिल किया है। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे जीवन का मूल्य और अर्थ समझ में आया है और बचाए जाने का अवसर पाया है। मैं अब अविश्वासियों की तरह लाभ और भोग-विलास के लिए प्रयास करने के खोखलेपन में नहीं रहती। अपने कर्तव्य के कारण मैं परमेश्वर के समक्ष रह सकती हूँ और इसने मुझे शैतान के बहुत सारे नुकसान से बचा लिया है। अब भले ही मैं बूढ़ी हो गई हूँ और मुझे उच्च रक्तचाप है लेकिन मुझमें कोई गंभीर लक्षण नहीं हैं और जब तक मैं नियमित दिनचर्या बनाए रखती हूँ, मुझे अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से निभाने के लिए दवा की आवश्यकता नहीं है। क्या यह मुझ पर परमेश्वर का अनुग्रह नहीं है? फिर भी परमेश्वर के प्यार का आनंद लेने के बाद भी मैंने उसके प्रेम का प्रतिदान नहीं दिया बल्कि अपने कर्तव्यों का उपयोग परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के लिए किया। सचमुच मुझमें जमीर और विवेक की कमी थी! मैंने परमेश्वर के समक्ष आकर पश्चात्ताप किया, “हे परमेश्वर, मैंने हमेशा अपने कर्तव्यों में तुम्हारे साथ मोलभाव करने और आशीष पाने की कोशिश की है और खुद को तुम्हारी नजरों में तुच्छ और घृणा योग्य बनाया है। मैं सचमुच तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ।”

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अभ्यास का एक मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अपनी काबिलियत के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के अलावा बहुत-सी ऐसी चीजें हैं, जो बुजुर्ग लोग कर सकते हैं। अगर तुम बेवकूफ और भुलक्कड़ नहीं हो, सत्य को नहीं समझ सकते, और जब तक खुद की देखभाल कर सकते हो, तो ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए। युवाओं की ही तरह तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो, सत्य को खोज सकते हो, और तुम्हें अक्सर परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य-सिद्धांत खोजने चाहिए, और लोगों और चीजों को देखने-समझने और पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपना मानदंड बनाकर आचरण और कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। यही वह रास्ता है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए, और तुम्हारे बूढ़े होने, अनेक बीमारियाँ होने, या शरीर के बूढ़े होते जाने के कारण तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव नहीं करना चाहिए। संताप, व्याकुलता और चिंता का अनुभव करना सही नहीं है—ये तर्कहीन अभिव्यक्तियाँ हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ में आया कि परमेश्वर द्वारा बनाए गए बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु के प्राकृतिक नियमों का सही ढंग से सामना करने के अलावा बुजुर्गों को प्रार्थना करने और खोजने के लिए अक्सर परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए लोगों, आने वाली घटनाओं और चीजों के साथ सत्य सिद्धांतों के आधार पर व्यवहार करना चाहिए। उन्हें अपने बुढ़ापे और युवा लोगों की तुलना में कम क्षमता के कारण खुद को कमतर नहीं समझना चाहिए, न ही उन्हें अपनी उम्र की वजह से बेबस महसूस करना चाहिए। उन्हें अपनी ऊर्जा और शारीरिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए अपनी सर्वोत्तम क्षमता से अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। बुजुर्गों की मानसिकता ऐसी ही होनी चाहिए। इस बात को समझते हुए मैं भी अपनी उम्र और कमियों का ठीक से सामना करने में सक्षम हो गई। यह ध्यान में रखते हुए कि मैं वृद्ध हो गई हूँ और चीजें भूल जाती हूँ, जो काम मुझे करने होते उनके नोट्स मैं पहले ही बना लेती थी ताकि काम में देरी न हो। विशिष्ट कौशल की बात करें तो युवा लोग चीजों को एक बार सीखकर याद रख सकते हैं, जबकि मेरी याददाश्त कमजोर है और मैं चीजों को धीरे-धीरे समझती हूँ। इस वजह से मैं अधिक प्रयास करती और अगर एक बार में न सीख पाती तो मैं उन्हें तीन बार और पढ़ती। मुझे अपनी तुलना युवा लोगों से नहीं करते रहना चाहिए बल्कि सत्य का अनुसरण करते हुए अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार अपने कर्तव्यों के निर्वहन का प्रयास करना चाहिए। फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का ख्याल आया : “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और सबसे कम, इस आधार पर तय नहीं करता कि वह किस हद तक दया का पात्र है, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित भी किए जाएँगे। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कोई व्यक्ति नहीं बदल सकता(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम और गंतव्य उसकी उम्र के आधार पर तय नहीं करता, न ही इसका आधार यह होता है कि उसने कितना कष्ट सहा है बल्कि यह होता है कि क्या उसने सत्य प्राप्त कर लिया है और क्या उसका स्वभाव बदल गया है। अगर मैं सत्य का अनुसरण न करूँ और आशीष पाने की अपनी इच्छा न छोड़ूँ और मेरा भ्रष्ट स्वभाव न बदले, तो फिर चाहे मेरी उम्र बीस साल ही क्यों न हो, मुझे हटा दिया जाएगा। अब मैं अपने भ्रामक विचारों पर कायम नहीं रहना चाहती और केवल परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहती हूँ, जब तक जीवित हूँ अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभाना चाहती हूँ, स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहती हूँ और अंत में भले ही मेरा परिणाम अच्छा न हो, फिर भी मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। इंसान का जमीर और विवेक ऐसा ही होना चाहिए और मुझे इसी दिशा का अनुसरण करना चाहिए।

मुझे याद है एक बार हम मौजूदा समस्याओं को लेकर कार्य-संबंधी कौशल का अध्ययन करने के लिए एकत्र हुए थे लेकिन कुछ मसले ऐसे थे जिन्हें मैं अभी तक ठीक से समझ नहीं पाई थी। जब मेरी साथी बहन ने अपनी अंतर्दृष्टि पर संगति करनी शुरू की और उसकी संगति काफी अच्छी थी, यह देख मेरी नकारात्मक भावनाएँ फिर से उभर आईं और मैं सोचने लगी, “मैं अब बूढ़ी हो गई हूँ और मुझे चीजों को समझने में बहुत समय लगता है। अगर अगले दो वर्षों में मैं और भी अधिक सुस्त हो गई तो फिर मैं कोई भी कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी।” इन विचारों ने मुझे असहज कर दिया। लेकिन उस पल मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम हो या नहीं, तुम कोई काम सँभाल सको या नहीं, तुम्हारी सेहत तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने दे या नहीं, तुम्हारे दिल को परमेश्वर से दूर नहीं भटकना चाहिए, और तुम्हें अपने दिल से अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार तुम अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और अपना कर्तव्य निभा सकोगे—तुम्हें यह वफादारी कायम रखनी होगी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने तुरंत मेरी चिंताएँ दूर कर दीं। आगे चलकर अगर मैं और बूढ़ी हो गई, चीजें जल्दी न समझ पाई और अपने पाठ-आधारित कर्तव्यों का पालन नहीं कर पाई तब भी मैं अपनी क्षमताओं के अनुरूप दूसरे कर्तव्य निभा सकती हूँ। अगर किसी दिन मेरी शारीरिक स्थिति ने मुझे अपना कर्तव्य निभाने से रोका तो जब तक मेरा हृदय परमेश्वर के करीब है और मैं जब तक उसे पुकारने की स्थिति में हूँ, उसके वचन खा और पी सकती हूँ और आत्मचिंतन कर सकती हूँ, तब तक परमेश्वर मुझे नहीं अस्वीकारेगा। परमेश्वर को इससे घृणा है कि मैं उस पर सच्ची आस्था नहीं रखती, हमेशा आशीष के पीछे भागती हूँ। यह सोचकर मुझे मन में मुक्ति का एहसास हुआ और अब मैं निष्क्रिय या नकारात्मक महसूस नहीं कर रही थी। इसके बजाय, मैंने चीजों पर गहराई से सोचना और अध्ययन करना शुरू कर दिया और मैंने मौजूद कौशल सीखने में भी थोड़ी-बहुत प्रगति की। मैं परमेश्वर को उसके मार्गदर्शन के लिए तहेदिल से धन्यवाद देती हूँ। चाहे मेरी शारीरिक स्थिति कैसी भी हो या मुझे किसी भी प्रकार के परिणाम या गंतव्य का सामना करना पड़े, मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभाने को तैयार हूँ।

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1. न्याय स्वर्ग-राज्य की कुंजी है

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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