8. मुझे इस चुनाव पर कभी पछतावा नहीं होगा
मुझे बचपन से ही पढ़ाई में अच्छे नंबर मिलते थे और अक्सर अपनी क्लास की परीक्षाओं में भी मैं अव्वल आती थी। मैं जब भी परीक्षा में अव्वल आती, मेरा नाम और फोटो हमेशा स्कूल के बोर्ड पर लगाए जाते। अपने टीचरों की मुस्कुराती आँखों में अपने लिए संतुष्टि और प्रशंसा के भाव देखकर और अपने सहपाठियों से तारीफ सुनकर मेरा दिल खुशी से फूला नहीं समाता था और मैं बहुत सम्मानित महसूस करती। घर लौटते वक्त अगर कोई पास-पड़ोसी दिखता तो यह कहते हुए मिलता, “यह लड़की बहुत ही अच्छी छात्रा है। तुमने अपने माँ-बाप की इज्जत बढ़ा दी। आगे चलकर तुम जरूर बीजिंग विश्वविद्यालय या सिंघुआ विश्वविद्यालय में जाओगी!” मैं उन्हें एक शर्मीली मुस्कान देती, लेकिन अंदर ही अंदर मेरे अहंकार को हवा मिलती। बाद में मैंने अपने प्रांत के एक शीर्ष विश्वविद्यालय के लिए परीक्षा दी और परीक्षा में एक नए छात्र के रूप में मैं अव्वल आई। मुझे बहुत खुशी हुई—मेरे सभी सहपाठियों ने मेरी प्रतिभा की सराहना की, प्रशंसा की और मुझसे जलने लगे और मेरे टीचरों को मुझसे बहुत उम्मीदें बँध गईं। मुझे लगने लगा कि मैं अपने साथियों में सबसे अलग हूँ। लेकिन विश्वविद्यालय का जीवन स्कूल जितना व्यस्त नहीं था और कई बार तो बिल्कुल आसान और मस्ती भरा होता था। क्लास में हमें अक्सर कुछ सामाजिक विज्ञान सिद्धांत पढ़ने होते थे और उन सिद्धांतों और शब्दावली को रटना पड़ता था और मुझे कभी-कभी लगता : “इन तमाम सिद्धांतों को सीखने और रटने का मतलब क्या है?” ज्यादातर वक्त तो मैं उन्हें सिर्फ परीक्षाओं की तैयारी भर के लिए ही पढ़ती थी। क्लास के बाहर और अपने खाली समय में मेरे सहपाठी अपना समय मौज-मस्ती में बिताते, जबकि मैं बस बैठकर अपना फोन देखती रहती और बहुत ऊब जाती। मैं अक्सर सोचती, “क्या हम वाकई इस धरती पर इस तरह वक्त जाया करने आए हैं? क्या मनुष्य के रूप में हमारे जीवन का कोई लक्ष्य या दिशा नहीं होनी चाहिए?” लेकिन मुझे इन सवालों के जवाब नहीं पता थे।
पहले साल की गर्मियों में एक बहन ने मुझे परमेश्वर के अंत के दिनों का सुसमाचार सुनाया। परमेश्वर के वचनों को खाकर और पीकर मैंने जाना कि मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर ने तीन चरणों का कार्य किया है। मैंने देखा कि कैसे मानवजाति को उसके पापों से छुटकारा दिलाने के लिए प्रभु यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया गया था और अंत के दिनों में मानवजाति को पूरी तरह से बचाने के लिए परमेश्वर ने फिर से देहधारण किया, मानवजाति का न्याय करने और उसे शुद्ध करने के लिए कई सत्य व्यक्त किए ताकि वह अपने पाप की बेड़ियों से पूरी तरह मुक्त होकर परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सके। मुझे इस बात का गहरा एहसास हुआ कि परमेश्वर ईमानदारी और दयालुता के साथ मानवजाति को बचाता है, साथ ही मैंने मानवजाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की भावना को भी महसूस किया। मैं बहुत प्रभावित हुई और परमेश्वर में आस्था रखने और सत्य का अनुसरण करने का संकल्प लिया। बाद में भाई-बहनों ने संगति की कि कैसे राज्य के सुसमाचार के विस्तार के लिए यह एक महत्वपूर्ण समय है। उन्होंने कहा कि यह बेहद मूल्यवान चीज है कि सुसमाचार के विस्तार में योगदान दिया जाए और ज्यादा लोगों को परमेश्वर के सामने लाया जाए ताकि उनका उद्धार हो। फिर एक बहन ने पूछा कि क्या मैं कोई कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ। मुझे कुछ झिझक हुई, “कोई भी कर्तव्य निभाने में समय और ऊर्जा लगती है। कॉलेज में प्रतिस्पर्धा काफी कड़ी है और अगर मेरे अंक प्रभावित हुए तो मैं क्या करूँगी? मुझे परमेश्वर में आस्था रखने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने का विकल्प चुनना चाहिए या अच्छे अंक प्राप्त कर एक अच्छा भविष्य और दूसरों की प्रशंसा और सम्मान पाने के लिए अपना समय पढ़ाई में लगाना चाहिए?” मुझे समझ नहीं आया कि कौन सा रास्ता चुनूं और इसलिए मैंने बहन से कहा कि मैं इस पर विचार करूँगी। विश्वविद्यालय जाते समय अगली कुछ रातें मैं अक्सर असमंजस में रही, दूसरे विद्यार्थियों को अच्छे अंंक लाने के लिए रात-रात भर कड़ी मेहनत करते देखती और सोचती, “क्या मुझे भी अपने ज्यादातर साथियों की तरह पढ़ाई में ध्यान देकर अच्छा भविष्य चुनना चाहिए या परमेश्वर का अनुसरण कर कर्तव्य-निर्वहन करना चाहिए?”
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों के ये अंश मिले : “बिल्कुल शून्य से जीवन आरंभ करने वाली एक एकाकी आत्मा को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और पूर्वनियति-निर्धारण के कारण माता-पिता और परिवार मिलता है, मानवजाति का सदस्य बनने का अवसर मिलता है, मानव जीवन का अनुभव करने और मानव जगत की यात्रा करने का अवसर मिलता है; इसे सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करने, सृष्टिकर्ता की सृष्टि की अद्भुतता को जानने और इससे भी बढ़कर, सृष्टिकर्ता के अधिकार को जानने और इसके प्रति आत्मसमर्पण करने का अवसर भी मिलता है। फिर भी अधिकतर लोग वास्तव में इस दुर्लभ और क्षणभंगुर अवसर को नहीं लपकते हैं। लोग भाग्य के विरुद्ध लड़ते हुए अपने पूरे जीवन भर की ऊर्जा खपा देते हैं, अपने परिवारों का भरण-पोषण करने की कोशिश में दौड़-भाग करते हुए और प्रतिष्ठा और लाभ की खातिर दौड़-धूप करते हुए अपना सारा जीवन बिता देते हैं। जिन चीजों को लोग सँजोकर रखते हैं, वे हैं पारिवारिक प्रेम, पैसा, शोहरत और लाभ, वे इन्हें जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीजों के रूप में देखते हैं। सभी लोग अपना भाग्य खराब होने के बारे में शिकायत करते हैं, फिर भी वे अपने दिमाग में उन प्रश्नों को पीछे धकेल देते हैं जिन्हें सबसे ज्यादा समझना और टटोलना चाहिए : मनुष्य जीवित क्यों है, मनुष्य को कैसे जीना चाहिए और मानव जीवन का मूल्य और अर्थ क्या है। उनका जीवन चाहे जितना भी लंबा हो, जब तक कि उनकी युवावस्था उनका साथ नहीं छोड़ देती, उनके बाल सफेद नहीं हो जाते और उनकी त्वचा पर झुर्रियाँ नहीं पड़ जातीं, वे अपना सारा जीवन शोहरत और लाभ के पीछे भागने में ही लगा देते हैं, तब जाकर उन्हें एहसास होता है कि शोहरत और लाभ उन्हें बूढ़ा होने से नहीं रोक सकते हैं, धन हृदय के खालीपन को नहीं भर सकता है; तब जाकर वे समझते हैं कि कोई भी व्यक्ति जन्म, उम्र के बढ़ने, बीमारी और मृत्यु के नियमों से बच नहीं सकता है और नियति के आयोजनों से कोई अपना पिंड नहीं छुड़ा सकता है। केवल जब उन्हें जीवन के अंतिम मोड़ का सामना करना पड़ता है, तभी सही मायने में उन्हें समझ आती है कि चाहे किसी के पास करोड़ों रुपयों की संपत्ति हो, उसके पास विशाल संपदा हो, भले ही उसे विशेषाधिकार प्राप्त हों और वह ऊँचे पद पर हो, फिर भी वह मृत्यु से नहीं बच सकता है, और उसे अपनी मूल स्थिति में वापस लौटना ही पड़ेगा : एक एकाकी आत्मा, जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। “परमेश्वर में विश्वास रखने, सत्य का अनुसरण करने और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के अलावा मनुष्य के जीवन में सब कुछ खोखला है और याद रखने योग्य नहीं है। भले ही तुमने धरती को हिला देने वाले कारनामे किए हों, भले ही तुम चंद्रमा पर जाकर लौटे हो, भले ही तुमने ऐसी वैज्ञानिक प्रगति की हो जिससे मानवजाति को कुछ लाभ या मदद मिली हो, यह सब व्यर्थ है और एक दिन खत्म हो जाएगा। ऐसी एकमात्र चीज कौन-सी है जो कभी खत्म नहीं होगी? (परमेश्वर के वचन।) केवल परमेश्वर के वचन, परमेश्वर की गवाहियाँ, वे सभी गवाहियाँ और कार्य जो सृष्टिकर्ता की गवाही देते हैं, और लोगों के अच्छे कर्म खत्म नहीं होंगे। ये चीजें हमेशा रहेंगी और ये बहुत मूल्यवान हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सृजित प्राणी का कर्तव्य भली-भाँति निभाने में ही जीने का मूल्य है)। परमेश्वर के वचनों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। परमेश्वर हर व्यक्ति के लिए इस संसार में आने की व्यवस्था करता है ताकि वह परमेश्वर की संप्रभुता को पहचाने, उसकी बुद्धि और अधिकार को समझे और परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसकी आराधना करना सीखे। अगर लोग परमेश्वर के इरादे न समझें तो इस दुनिया में उनका समय व्यर्थ चला जाएगा—वे जान नहीं पाएँगे कि वे क्यों पैदा हुए हैं, उन्हें क्यों मरना है या उन्हें किसके लिए जीना चाहिए। मैं अक्सर समाचार रिपोर्टें देखती थी कि मशहूर लोग प्रशंसा पाने, बहुत सारा पैसा कमाने और विलासिता में रहने के बावजूद अवसाद में चले जाते हैं और आखिरकार आत्महत्या कर लेते हैं। कुछ ऐसी कहानियों का ब्योरा पढ़ा कि कैसे ऊँची हैसियत वाले अमीर लोग अचानक बीमार हुए और मर गए। मैंने यह भी देखा कि कैसे खुद मेरे दादा-दादी जिन्होंने बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ हासिल कीं थीं और जो बुद्धिजीवी हुआ करते थे, उन्होंने जीवन भर कड़ी मेहनत की और कभी गौरवशाली वक्त देखा था, वही अब अपनी रिटायरमेंट का जीवन बातचीत और समय व्यर्थ करते हुए काट रहे थे, खालीपन में अपने दिन गुजार रहे थे, जीवन की सार्थकता को जाने बिना लक्ष्यहीन होकर मृत्यु का इंतजार कर रहे थे। मैंने देखा कि कोई कितना भी अध्ययन कर ले या कितनी भी बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर ले, यह सब क्षणभंगुर और अनित्य है। आखिरकार जब दुष्ट, पुरानी दुनिया नष्ट हो जाएगी तो सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। ये वैज्ञानिक उपलब्धियाँ और व्यक्तिगत उपलब्धियाँ लोगों को परमेश्वर की समझ की ओर, परमेश्वर के सामने आने के लिए मार्गदर्शन नहीं कर सकतीं और जीवन की सार्थकता नहीं समझा सकतीं। ये लोगों को अपनी भ्रष्टता त्यागने और मानवीय स्वरूप में जीने को प्रेरित नहीं कर सकतीं—इन उपलब्धियों को हासिल करके भी वे पहले की तरह ही भ्रष्ट बने रहते हैं। इसके अलावा ज्ञान समाज की अंधेरी दशा को बदलने में पूरी तरह से असमर्थ है और लोगों को सही मार्ग और दिशा पर लाने में विफल रहता है। ज्ञान और उपलब्धियाँ सार्थक नहीं होतीं। केवल परमेश्वर के चुने हुए लोगों की परमेश्वर के प्रति गवाही और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने से उन्हें जो प्राप्त होता है, वही शाश्वत है। अगर मैं इस नश्वर संसार के लाभों के पीछे भागने में, ज्ञान हासिल करने में ही खुद को लगाती रही, प्रसिद्धि और फायदे, परिवार, शिक्षा और करियर के पीछे भागती रही, सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर को जानने में असफल रही और आखिरकार किसी भी सत्य को समझने में नाकाम रही, परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने में असफल रही और अपना स्वभाव नहीं बदल पाई, तो क्या मैं परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का सुनहरा अवसर नहीं गँवा बैठूँगी? परमेश्वर ने जीवन में अपनी दिशा खोजने में मेरा मार्गदर्शन किया था : मुझे एहसास हुआ कि जीवन में हमें सत्य और परमेश्वर के ज्ञान का अनुसरण करना चाहिए। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करके ही मैं परमेश्वर के उद्धार के योग्य बन पाऊँगी और केवल ऐसा जीवन ही मूल्यवान और सार्थक होगा। यह मेरी जिम्मेदारी और परमेश्वर द्वारा उत्कर्ष था कि मैं सुसमाचार के विस्तार का प्रयास करने योग्य बनूँ और अधिक लोगों को परमेश्वर के सामने लाऊँ। मुझे अपनी पढ़ाई में समय बर्बाद नहीं करना था और मैंने तय किया कि मैं आस्था को अपनी प्राथमिकता बनाऊँगी। उसके बाद मैंने ग्रेजुएशन में प्रवेश का अपना शर्तिया मौका छोड़कर अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया।
2020 की शुरुआत में जब मैं घर पर चीनी नव वर्ष मना रही थी तो महामारी आ गई और मैं वहीं फंसकर रह गई और अपनी कलीसिया से संपर्क नहीं कर पाई। छह महीने तक मैं न तो सभाओं में भाग ले पाई और न ही परमेश्वर के वचन खा-पी सकी। मैं उस समय ग्रेजुएशन की तैयारी कर रही थी। मेरे कुछ सहपाठी ग्रेजुएशन कर रहे थे और बाकियों को अच्छी नौकरियाँ मिल चुकी थीं। लेकिन मुझे अभी तक कोई नौकरी नहीं मिली थी। मेरे पिताजी अक्सर मुझे सख्ती से समझाते हुए कहते थे, “अमुक के बच्चे को हाल ही में एक बड़े कॉलेज में दाखिला मिल गया है। आजकल ग्रेजुएट होना बहुत जरूरी हो गया है, उससे नौकरी मिलना आसान हो जाता है। तुम्हें पहले ग्रेजुएशन की डिग्री लेनी चाहिए थी, लेकिन तुम हमारी सुनती कहाँ हो। अगर तुम्हें जल्दी ही कोई नौकरी नहीं मिली तो ग्रेजुएशन के बाद तुम्हारा क्या करने का इरादा है?” अपने पिताजी की बातें सुनकर और यह देखकर कि कैसे मेरे सभी साथी बेहतर भविष्य के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, मैंने मन में सोचा, “वह सही कर रहे हैं, मैं ग्रेजुएट होने वाली हूँ। क्या मैं ग्रेजुएशन के बाद वाकई बेरोजगार रहना चाहती हूँ? लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मैं बेकार हूँ?” मैं बहुत दुखी हो गई। एक बार पूर्व सहपाठियों के साथ मिलन समारोह में हर कोई अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में बात कर रहा था : कुछ साथी खुश होकर बता रहे थे कि उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए अमुक बड़े विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया है, कुछ को राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों में नौकरियाँ मिल गई थीं जबकि बाकी सरकारी कर्मचारी बन गए थे। सब एक-दूसरे की खुलकर तारीफ कर रहे थे और पहले और बाद के अपने-अपने अनुभव साझा कर रहे थे, लेकिन मेरे पास कहने को कुछ नहीं था। अपने साथियों की प्रतिष्ठा देखकर, उनके चेहरे की मुस्कान और गर्व से तना उनका सीना देखकर मैं मायूसी से अपना सिर झुकाए शांत थी और सोच रही थी, “मैं कभी पढ़ाई में इन सबसे बेहतर हुआ करती थी और यही सब लोग मेरा सम्मान और प्रशंसा किया करते थे, लेकिन अब ये सब लोग बड़े-बड़े कॉलेज के ग्रेजुएट छात्र हैं और मेरे पास अभी तक कोई डिग्री नहीं है। ये लोग मुझसे बहुत आगे निकल गए हैं, तो मैं आगे बढ़ते हुए इनके सामने अपना सिर गर्व से कैसे ऊँचा रख सकती हूँ? क्या अब इनकी नजरों में मेरी छवि और सम्मान कम नहीं हो गया है?” लगा जैसे मैं निराशा में डूब गई हूँ। जब मेरे सहपाठियों ने मुझसे पूछा कि मेरी आगे की योजनाएँ क्या हैं, तो मैं हकला गई और अजीब ढंग से खुद को उनके सवालों से बचाया, मैं उनकी निगाह में अस्वीकृति की झलक नहीं देखना चाहती थी। पूरे मिलन समारोह के दौरान मैंने खुद को बेहद दबा हुआ महसूस किया—मुझे लग रहा था कि मैंने कुछ भी हासिल नहीं किया है और मेरे सहपाठी निश्चित रूप से मुझे हेय दृष्टि से देखेंगे। घर आकर मैं फूट-फूट कर रोई। बचपन से ही मुझे दूसरों से प्रशंसा और सराहना मिलती रही थी, लेकिन अब मैं उनसे बहुत पीछे छूट गई थी और अब और पहले के बीच की भावनाओं के उस बड़े अंतर ने मुझे एक गहरा आघात दिया। मैं आश्वस्त नहीं थी कि आगे किस रास्ते पर बढ़ूँ। अपनी मौजूदा पढ़ाई को देखते हुए मुझे सम्मानजनक नौकरी मिलने की कोई गुँजाइश नहीं थी। क्या मुझे हार मानकर स्वीकारना होगा कि मैं उन ग्रेजुएट छात्रों से कमतर हूँ? मैं इसे स्वीकार नहीं पा रही थी, इसलिए मैंने संकल्प लिया कि मैं ग्रेजुएशन प्रवेश परीक्षा दूँगी।
बाद में मैंने अपनी कलीसिया से संपर्क किया और भाई-बहनों से कहा कि मैं घर जाकर ग्रेजुएशन प्रवेश परीक्षा की तैयारी करूँगी, लेकिन जब भी संभव होगा मैं सभाओं में भाग लेती रहूँगी। भाई-बहनों ने मुझे बताया कि उन्हें एक कर्तव्य-विशेष के लिए अधिक लोगों की आवश्यकता है और पूछा कि क्या मैं इसे करने पर विचार करूँगी। उस समय मुझे यह तो पता था कि परमेश्वर में विश्वास रखना और सत्य का अनुसरण करना अच्छी बातें हैं और अपना कर्तव्य निभाने में असफल रही तो मैं परमेश्वर को निराश करूँगी जिसने मुझे इतना कुछ प्रदान किया है, लेकिन फिर मैंने यह भी सोचा कि प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए केवल कुछ ही महीने बचे हैं और अपनी इज्जत बचाने का यह मेरा आखिरी मौका था। ग्रेजुएशन डिग्री के लिए दाखिला पाकर ही अब मैं उन सम्मानजनक स्थिति में पहुँचे सहपाठियों की बराबरी कर सकती हूँ और अपने परिवार की अपेक्षाएँ पूरी कर सकती हूँ और इस तरह मैं अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच गर्व से अपना सिर ऊँचा रख सकूँगी। अगर मैंने ग्रेजुएशन प्रवेश परीक्षा नहीं दी तो क्या मैं अपने साथियों के बीच अपनी अलग पहचान बनाने की सारी उम्मीदें नहीं गँवा बैठूँगी? मैं ऐसा करने को तैयार नहीं थी। तो मैंने भाई-बहनों से कहा कि मैं पूर्णकालिक कर्तव्य नहीं निभा सकती और अपनी परीक्षा की तैयारी के दौरान जितना काम कर सकती हूँ, उतना ही करूँगी। अगले कुछ महीनों तक मैं बहुत दबाव और तनाव में रही। दिन में मैं अपना कर्तव्य निभाती या सभाओं में भाग लेती और मैं रात को घर लौटती और मेरे सामने होती परीक्षा की तैयारी की ढेरों सामग्री। मैं इतनी थक जाती कि आँखें खुली रखना मुश्किल हो जाता और उस दिन के लिए जितना पढ़ना तय किया होता था, मैं उतना हर हाल में पढ़ती। पौ फटते ही मैं तुरंत उठ जाती, फिर चाहे मुझे कितनी भी थकान हो, मैं फौरन ज्ञान के गहरे समुद्र में गोते लगाती। मैं खुद को आराम करने का जरा सा भी मौका न देती—यहाँ तक कि जब मैं खाने का सामान खरीदने बाहर जाती या बर्तन साफ करती तब भी मैं अपनी पढ़ाई की ऑडियो फाइलें सुनती रहती। फिर आखिरकार कई मुश्किल महीनों की तैयारी के बाद मैंने ग्रेजुएशन की परीक्षा दी। अपनी परीक्षा के नंबर देखकर मुझे बेहद खुशी हुई—आखिरकार अब मैं अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा थोड़ी-बहुत वापस पा सकती हूँ, अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच अपना सिर ऊँचा कर सकती हूँ और उनकी चिंता छोड़ सकती हूँ जो मुझे तुच्छ समझते हैं। जब मेरे सहपाठियों ने मेरे ग्रेजुएशन परीक्षा उत्तीर्ण करने की बात सुनी तो उन सबने मुझे बधाइयाँ दीं। मेरे पिताजी इतने खुश थे कि उनके चेहरे से मुस्कान नहीं जा रही थी और मैं अपने सभी पड़ोसियों और रिश्तेदारों को यह खुशखबरी सुनाने का इंतजार नहीं कर पा रही थी। जब मैं घर लौटी तो मेरे सभी पड़ोसियों ने मुझे शाबाशी दी और मेरी प्रशंसा करते हुए कहा, “ग्रेजुएशन में दाखिला मिलना तो शुरुआत है, तुम और आगे जाओगी! तुम तो बचपन से ही मेधावी छात्रा रही हो। तुम्हारे पिताजी को तुम पर बहुत गर्व होगा!” मैं अपने आपसे बहुत खुशी थी, आखिरकार मैं अपना सिर ऊँचा कर सकती थी।
कुछ समय बाद ही मेरी ग्रेजुएशन की पढ़ाई शुरू हो गई और मैंने अपनी पढ़ाई के समय और अपने कर्तव्य निर्वहन के बीच एक संतुलन बैठा लिया, लेकिन ग्रेजुएशन के छात्रों को हर रोज और भी कई कक्षाओं में भाग लेना होता था और अपने खाली समय में होमवर्क पूरा करना होता था, इसलिए मुझे भक्ति का अभ्यास करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने का समय ही नहीं मिलता था। कभी-कभी मुझे एहसास होता कि मैं अपने कर्तव्य में भ्रष्टता प्रकट कर रही हूँ, लेकिन मेरे पास आत्मचिंतन करने का समय न होता और मैं उत्तेजित और दुखी हो जाती। कभी-कभी मैं सोचती, “अगर मेरे पास परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य खोजने का समय ही नहीं होगा तो मेरा जीवन आगे कैसे बढ़ेगा? बहरहाल मेरा होमवर्क बढ़ता गया और मुझे उसे पूरा करना होता था। और तो और, मेरे सहपाठी और भी अधिक मेहनत से पढ़ाई और शोध कर रहे थे, अपनी क्षमताओं और स्तर को बढ़ाने के लिए जी-जान से जुटे हुए थे—अगर मैंने पढ़ाई के लिए समय नहीं निकाला तो क्या मैं उनसे पीछे नहीं रह जाऊँगी और फिर कभी भी अपनी विशिष्ट पहचान नहीं बना पाऊँगी?” इस चीज ने मुझे बेचैन और दुखी कर दिया—मैं अपने सपनों की ग्रेजुएशन परीक्षा देकर भी खुश क्यों नहीं हूँ?
एक रात कॉलेज ने घोषणा कर दी कि महामारी के कारण परिसर को बंद कर दिया जाएगा, इसलिए कुछ दिनों में परिसर में प्रवेश करने वाले छात्र अपनी इच्छानुसार बाहर नहीं जा सकेंगे। मुझे लगा कि अब मेरे लिए निर्णय लेने का समय आ गया है। अगर मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखने का फैसला किया तो मैं आस्था का पालन करते हुए अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी। अगर मैंने अपना कर्तव्य दर-किनार कर दिया और ऐसे महत्वपूर्ण समय में सभाओं में भाग नहीं ले पाई तो मेरा जीवन निश्चित ही नष्ट हो जायेगा। इसके अलावा अगर मैं अपना सारा समय कॉलेज में बिताया और सभाओं में शामिल नहीं हो पाई तो मैं यकीनन लौकिक संसार में अपना भविष्य तलाशने में अपना सब कुछ लगा दूँगी और फिर उससे निकल पाना मुश्किल होगा। अगर मुझे सत्य हासिल नहीं हुआ, चीजों पर मेरे विचार नहीं बदले और अन्य अविश्वासियों के साथ बुरी प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हुए मैं कीचड़ में ही लोटती रही तो मैं आखिरकार शैतान की एक जीवित छवि बनकर नरकवास और तबाही के लिए अभिशप्त हो जाऊँगी। आपदाएँ पहले ही शुरू हो चुकी थीं और यह सुसमाचार के विस्तार के लिए भी एक महत्वपूर्ण क्षण था—अगर मैं सांसारिक कामों में ही लगी रही और अपना कर्तव्य नहीं निभाया और अच्छे कर्मों की तैयारी नहीं की तो मुझे निश्चित रूप से परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा नहीं मिलेगी और मैं भी दूसरे तमाम अविश्वासियों की तरह ही आपदाओं में बह जाऊँगी। फिर भी मैं अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ सकती थी; ग्रेजुएशन में प्रवेश पाना कोई आसान उपलब्धि नहीं थी, तो मैं इतनी आसानी से कैसे पीछे हट जाती? अगर मैं पीछे हट गई तो क्या मैं फिर से अपनी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि नहीं गँवा बैठूँगी? तो क्या मुझे अपने साथियों से कमतर होकर दमित जीवन नहीं जीना पड़ेगा और क्या फिर मैं गर्व से अपना सिर ऊँचा कर पाऊँगी? पीछे हटने के विचार से ही मैं इतनी दुखी हो रही थी कि मेरा कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था। हर सुबह उठकर उन विकल्पों पर विचार करती जो मेरे सामने थे और परेशानी में डूब जाती।
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के जन्म से लेकर वर्तमान तक के दशकों के दौरान केवल उसके लिए कीमत ही नहीं चुकाता। परमेश्वर के अनुसार, तुम अनगिनत बार इस दुनिया में आए हो, और अनगिनत बार तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है। इसका प्रभारी कौन है? परमेश्वर इसका प्रभारी है। तुम्हारे पास इन चीजों को जानने का कोई तरीका नहीं है। हर बार जब तुम इस दुनिया में आते हो, परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिए व्यवस्थाएं करता है : वह व्यवस्था करता है कि तुम कितने साल जियोगे, किस तरह के परिवार में पैदा होगे, कब तुम अपना घर और करियर बनाओगे, और साथ ही, तुम इस दुनिया में क्या करोगे और कैसे अपनी आजीविका चलाओगे। परमेश्वर तुम्हारे लिए आजीविका चलाने के तरीके की व्यवस्था करता है, ताकि तुम इस जीवन में बिना किसी बाधा के अपना मिशन पूरा कर सको। जहाँ तक यह बात है कि तुम अगले जन्म में क्या करोगे, इसकी व्यवस्था और उपाय परमेश्वर इस आधार पर करता है कि तुम्हारे पास क्या होना चाहिए और तुम्हें क्या दिया जाना चाहिए...। परमेश्वर तुम्हारे लिए ऐसी व्यवस्थाएँ कितनी ही बार कर चुका है, और आखिरकार तुम अंत के दिनों के युग में अपने वर्तमान परिवार में पैदा हुए हो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए एक ऐसे परिवेश की व्यवस्था की है जिसमें तुम उस पर विश्वास कर सको; उसने तुम्हें अपनी वाणी सुनने और अपने पास वापस आने की अनुमति दी है, ताकि तुम उसका अनुसरण कर सको और उसके घर में कोई कर्तव्य निभा सको। परमेश्वर के ऐसे मार्गदर्शन की बदौलत ही तुम आज तक जीवित रहे। तुम नहीं जानते कि तुम कितनी बार मनुष्यों के बीच पैदा हुए हो, न ही तुम यह जानते हो कि कितनी बार तुम्हारा स्वरूप बदला है, तुम्हारे कितने परिवार हुए, तुम कितने युगों और कितने वंशों को जी चुके हो—लेकिन इन सबके दौरान हर पल परमेश्वर का हाथ तुम्हारी मदद करता रहा है, और वह हमेशा तुम पर निगाह रखता रहा है। एक व्यक्ति के लिए परमेश्वर कितना परिश्रम करता है! कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं साठ साल का हूँ। साठ साल से परमेश्वर मुझ पर निगाह रख रहा है, मेरी रक्षा और मेरा मार्गदर्शन कर रहा है। बूढ़ा होने पर अगर मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा पाया और कुछ करने लायक नहीं रहा—क्या परमेश्वर तब भी मेरी देखभाल करेगा?’ क्या यह कहना मूर्खता नहीं है? मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता, मनुष्य के लिए उसकी निगरानी और सुरक्षा केवल एक जीवन-काल के लिए नहीं है। अगर यह केवल एक जीवन-काल की, एक ही जीवन की बात होती, तो यह प्रदर्शित करना संभव नहीं होता कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति के लिए जो परिश्रम करता है और जो कीमत चुकाता है, वह केवल इस बात की व्यवस्था करने के लिए नहीं है कि वह इस जीवन में क्या करेगा, बल्कि उसके अनगिनत जीवनकाल की व्यवस्था करने के लिए है। परमेश्वर इस दुनिया में पुनर्जन्म लेने वाली प्रत्येक आत्मा के लिए पूरी जिम्मेदारी लेता है। वह अपने जीवन का मूल्य चुकाते हुए, हर व्यक्ति का मार्गदर्शन करते हुए और उसके प्रत्येक जीवन को व्यवस्थित करते हुए बहुत ध्यान से काम करता है। मनुष्य की खातिर परमेश्वर इतना परिश्रम करता है और इतनी कीमत चुकाता है, और वह मनुष्य को ये सभी सत्य और यह जीवन प्रदान करता है। अगर लोग इन अंतिम दिनों में सृजित प्राणियों का कर्तव्य नहीं निभाते और वे सृष्टिकर्ता के पास नहीं लौटते—वे चाहे कितने ही जन्मों और पीढ़ियों से गुजरे हों, अगर अंत में, वे अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाते और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने में विफल रहते हैं—तब क्या परमेश्वर के प्रति उनका कर्ज बहुत बड़ा नहीं हो जाएगा? क्या वे परमेश्वर की चुकाई सभी कीमतों का लाभ पाने के लिए अयोग्य नहीं हो जाएँगे? उनका जमीर इतना कमजोर होगा कि वे इंसान कहलाने लायक नहीं रहेंगे, क्योंकि परमेश्वर के प्रति उनका कर्ज बहुत बड़ा हो जाएगा। इसलिए, इस जीवन में—यहाँ तुम्हारे पिछले जन्मों की बात नहीं हो रही—लेकिन इस जीवन में अगर तुम अपने मिशन की खातिर बाहरी चीजों या उन चीजों को त्यागने में नाकाम रहते हो जिनसे तुम्हें प्रेम है—जैसे सांसारिक आनंद और परिवार का प्रेम और सुख—अगर तुम उस कीमत के लिए देह-सुख नहीं छोड़ते जो परमेश्वर तुम्हारे लिए चुकाता है या तुम परमेश्वर के प्रेम का मूल्य नहीं चुकाते हो, तो तुम वाकई दुष्ट हो! दरअसल, परमेश्वर के लिए कोई भी कीमत चुकाना सार्थक है। तुम्हारे ओर से परमेश्वर जो कीमत चुकाता है उसकी तुलना में, तुम जो जरा-सी मेहनत करते हो या खुद को खपाते हो, उसका क्या मोल है? तुम्हारी जरा-सी तकलीफ का क्या मोल है? क्या तुम्हें पता है परमेश्वर ने कितनी पीड़ा सही है? परमेश्वर ने जितनी पीड़ा सही है उसकी तुलना में तुम्हारी तकलीफ की बात करना भी निरर्थक है। इसके अलावा, अपना कर्तव्य निभाकर, तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर रहे हो, और अंत में, तुम जीवित रहोगे और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी आशीष है! जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कष्ट सहते हो या नहीं, कीमत चुकाते हो या नहीं, वास्तव में तुम परमेश्वर के साथ काम कर रहे हो। परमेश्वर हमसे जो भी करने को कहता है, हम परमेश्वर के वचन सुनें और उनके अनुसार ही अभ्यास करें। परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह या ऐसा कुछ मत करना जिससे उसे दुख हो। परमेश्वर के साथ काम करने के लिए, तुम्हें थोड़ा कष्ट उठाना होगा, कुछ चीजों का त्याग करना होगा और कुछ चीजों को किनारे करना होगा। तुम्हें शोहरत, लाभ, रुतबा, पैसा और सांसारिक सुखों को छोड़ना होगा—यहाँ तक कि तुम्हें शादी-विवाह, कामकाज, और संसार में अपने उज्ज्वल भविष्य जैसी चीजों का भी त्याग करना होगा। क्या परमेश्वर जानता है कि तुमने इन चीजों को त्याग दिया है? क्या परमेश्वर यह सब देख सकता है? (हाँ।) परमेश्वर जब यह देखेगा कि तुमने इन चीजों को छोड़ दिया है तो वह क्या करेगा? (परमेश्वर को शांति मिलेगी, और वह प्रसन्न होगा।) परमेश्वर प्रसन्न होगा और कहेगा, ‘जो कीमत मैंने चुकाई थी वह फलीभूत हो गई है। लोग मेरे साथ काम करने के इच्छुक हैं, उनके पास यह संकल्प है, और मैंने उन्हें हासिल कर लिया है।’ परमेश्वर खुश और प्रसन्न है या नहीं, वह संतुष्ट है या नहीं, उसे शांति मिली या नहीं, उसका यह रवैया है ही नहीं। वह कार्य भी करता है और वह उन नतीजों को देखना चाहता है जो उसके कार्य से प्राप्त होते हैं, वरना लोगों से उसकी अपेक्षाएँ निरर्थक हो जाएँगी। परमेश्वर मनुष्य पर जो अनुग्रह, प्रेम और दया दिखाता है वह केवल दृष्टिकोण भर नहीं है—वे वास्तव में तथ्य भी हैं। वह तथ्य क्या है? वह यह है कि परमेश्वर अपने वचन तुम्हारे अंदर डालता है, तुम्हें प्रबुद्ध करता है, ताकि तुम देख सको कि उसमें क्या मनोहर है, और यह दुनिया क्या है, ताकि तुम्हारा हृदय रोशनी से भर जाए, तुम उसके वचन और सत्य समझ सको। इस तरह, अनजाने ही, तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो। परमेश्वर बहुत वास्तविक तरीके से तुम पर बहुत सारा काम करके तुम्हें सत्य प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। जब तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो, जब तुम सबसे कीमती चीज, शाश्वत जीवन प्राप्त कर लेते हो, तब परमेश्वर के इरादे संतुष्ट होते हैं। जब परमेश्वर देखता है कि लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और उसके साथ सहयोग करने के लिए तैयार हैं, तो वह खुश और संतुष्ट होता है। तब उसका एक दृष्टिकोण होता है, और जब उसका वह दृष्टिकोण होता है, तो वह काम करता है, और मनुष्य का अनुमोदन कर उसे आशीष देता है। वह कहता है, ‘मैं तुम्हें इनाम दूँगा, वह आशीष दूंगा जिसके तुम पात्र हो।’ और तब तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर लेते हो। जब तुम्हें सृष्टिकर्ता का ज्ञान होता है और उससे प्रशंसा प्राप्त होती है, तब भी क्या तुम अपने दिल में खालीपन महसूस करोगे? तुम नहीं करोगे; तुम संतुष्ट होगे और आनंद की भावना महसूस करोगे। क्या किसी के जीवन का मूल्य होने का यही अर्थ नहीं है? यह सबसे मूल्यवान और सार्थक जीवन है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए कीमत चुकाना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि वही वर्तमान क्षण तक मेरे रास्ते में हर कदम पर मेरा मार्गदर्शन और सुरक्षा करता रहा है। परमेश्वर ने मुझे अंत के दिनों में जन्म लेने और अपने अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने जितना भाग्यशाली सिर्फ इसलिए नहीं बनाया कि मैं अपनी संभावनाओं और करियर के पीछे भागूँ। नहीं, वह चाहता था कि मैं उसके वचनों की आपूर्ति प्राप्त करूँ, सत्य समझूँ और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाऊँ। परमेश्वर लोगों के लिए जिस परिवार और कार्य की व्यवस्था करता है वह बस अस्थायी होता है। अगर मैंने परमेश्वर के उद्धार को अस्वीकार कर एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से सिर्फ इसलिए इनकार कर दिया कि मैं अपने परिवार की उम्मीदों पर खरी उतर सकूँ या भौतिक आनंद, प्रसिद्धि और लाभ का स्तर हासिल करूँ तो क्या मैं परमेश्वर की आपूर्ति के अयोग्य होकर बचाए जाने का एक अद्भुत मौका नहीं गँवा बैठूँगी? अगर मैंने अपना कर्तव्य निभाने का निर्णय लिया तो हो सकता है कि मुझे कुछ व्यक्तिगत हितों को त्याग करना पड़े, लेकिन मैं सबसे कीमती सत्य प्राप्त कर लूँगी और आखिरकार परमेश्वर का उद्धार पाकर जीवित रहूँगी—ये बेहद प्रत्यक्ष लाभ थे! यह एहसास होने पर मैं बहुत द्रवित और प्रेरित हुई और महसूस किया कि परमेश्वर मुझे प्रेरित कर रहा है और रूबरू मेरा मार्गदर्शन कर रहा है। फिर मैंने “ऐसा विकल्प जिसमें अफ़सोस न हो” नामक एक अनुभव साक्ष्य वीडियो देखा जिसमें एक बहन आस्था का अभ्यास करने और सुसमाचार फैलाने के लिए दृढ़संकल्प के साथ सिंघुआ विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने का अवसर छोड़ देती है। वीडियो में जब बहन अपने टीचर को सुसमाचार सुनाती है तो वह बेहद उत्साहित हो जाता है और उसकी आँखों से खुशी के आँसू बहने लगते हैं। क्योंकि वह प्रभु के आगमन का बेहद लंबे समय से इंतजार कर रहा है और आखिरकार उसे परमेश्वर का वह सुसमाचार मिल गया जिसका उसने लंबे समय से इंतजार किया है। इस वीडियो का मुझ पर विशेष रूप से गहरा प्रभाव पड़ा। मुझे अपने उन तमाम सहपाठियों और दोस्तों का ख्याल आया जिन्होंने जीवन का सही अर्थ नहीं समझा और अभी भी शैतान की शक्ति के अधीन दुख में जी रहे थे। मैं इतनी भाग्यशाली थी कि मैंने परमेश्वर के अंत दिनों का सुसमाचार स्वीकारा, इसलिए मुझे जिम्मेदारी उठानी चाहिए, जितना हो सके सत्य का अनुसरण करना चाहिए, खुद को सत्य से युक्त करना चाहिए, सुसमाचार फैलाकर और भी अधिक लोगों को परमेश्वर के सामने लाना चाहिए ताकि उन्हें उसका न्याय प्राप्त हो, शुद्धिकरण हो, उद्धार हासिल हो और वे परमेश्वर के आशीष और मार्गदर्शन के साथ जिएँ। यह कितना अद्भुत होगा! यह एहसास होने पर मैंने अपनी पढ़ाई छोड़कर परमेश्वर में विश्वास रखने पर ध्यान देने का फैसला किया। हालाँकि जब वास्तव में निर्णय लेने का समय आया तब भी यह मेरे लिए थोड़ा कठिन था। मैंने सोचा, “अगर मैंने अपनी पढ़ाई जारी नहीं रखी तो मुझे भविष्य में कभी भी अपनी अलग पहचान बनाने का मौका नहीं मिलेगा।” मेरे परिवार, रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों से प्रशंसा एक प्रकार की प्रतिष्ठा थी जिसे छोड़ना मेरे लिए कठिन था।
अपनी पीड़ा के बीच मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “मनुष्य के ज्ञान अर्जित करने की प्रक्रिया के दौरान शैतान सभी प्रकार के तरीके इस्तेमाल कर सकता है, चाहे वह कहानियाँ सुनाना हो, अलग से कोई ज्ञान देना हो या उन्हें अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने देना हो। शैतान तुम्हें किस मार्ग पर ले जाना चाहता है? लोगों को लगता है कि ज्ञान अर्जित करने में कुछ भी गलत नहीं है, यह पूरी तरह स्वाभाविक है। इसे आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करना, ऊँचे आदर्श पालना या महत्वाकांक्षाएँ होना प्रेरणा प्राप्त करना है, और यही जीवन में सही मार्ग होना चाहिए। अगर लोग अपने आदर्श साकार कर सकें, या सफलतापूर्वक करियर बना सकें, तो क्या यह जीने का और भी अधिक गौरवशाली तरीका नहीं है? ये चीजें करने से व्यक्ति न केवल अपने पूर्वजों का सम्मान कर सकता है, बल्कि इतिहास पर अपनी छाप छोड़ने का मौका भी पा सकता है—क्या यह अच्छी बात नहीं है? सांसारिक लोगों की दृष्टि में यह एक अच्छी बात है, और उनकी निगाह में यह उचित और सकारात्मक होनी चाहिए। लेकिन क्या शैतान, अपने भयानक इरादों के साथ, लोगों को इस प्रकार के मार्ग पर ले जाता है, और बस इतना ही होता है? बिल्कुल नहीं। वास्तव में, मनुष्य के आदर्श चाहे कितने भी ऊँचे क्यों न हों, उसकी इच्छाएँ चाहे कितनी भी यथार्थपरक क्यों न हों या वे कितनी भी उचित क्यों न हों, वह सब जो मनुष्य हासिल करना चाहता है और खोजता है, वह अटूट रूप से दो शब्दों से जुड़ा है। ये दो शब्द हर व्यक्ति के जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें शैतान मनुष्य के भीतर बैठाना चाहता है। वे दो शब्द कौन-से हैं? वे हैं ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ।’ शैतान एक बहुत ही सौम्य किस्म का तरीका चुनता है, ऐसा तरीका जो मनुष्य की धारणाओं से बहुत अधिक मेल खाता है; जो बिल्कुल भी क्रांतिकारी नहीं है, जिसके जरिये वह लोगों से अनजाने ही जीने का अपना मार्ग, जीने के अपने नियम स्वीकार करवाता है, और जीवन के लक्ष्य और जीवन में उनकी दिशा स्थापित करवाता है, और वे अनजाने ही जीवन में महत्वाकांक्षाएँ भी पालने लगते हैं। जीवन की ये महत्वाकांक्षाएँ चाहे जितनी भी ऊँची क्यों न प्रतीत होती हों, वे ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’ से अटूट रूप से जुड़ी होती हैं। कोई भी महान या प्रसिद्ध व्यक्ति—वास्तव में सभी लोग—जीवन में जिस भी चीज का अनुसरण करते हैं, वह केवल इन दो शब्दों : ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’ से जुड़ी होती है। लोग सोचते हैं कि एक बार उनके पास प्रसिद्धि और लाभ आ जाए, तो वे ऊँचे रुतबे और अपार धन-संपत्ति का आनंद लेने के लिए, और जीवन का आनंद लेने के लिए इन चीजों का लाभ उठा सकते हैं। उन्हें लगता है कि प्रसिद्धि और लाभ एक प्रकार की पूँजी है, जिसका उपयोग वे भोग-विलास का जीवन और देह का प्रचंड आनंद प्राप्त करने के लिए कर सकते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ की खातिर, जिसके लिए मनुष्य इतना ललचाता है, लोग स्वेच्छा से, यद्यपि अनजाने में, अपने शरीर, मन, वह सब जो उनके पास है, अपना भविष्य और अपनी नियति शैतान को सौंप देते हैं। वे ईमानदारी से और एक पल की भी हिचकिचाहट के बगैर ऐसा करते हैं, और सौंपा गया अपना सब-कुछ वापस प्राप्त करने की आवश्यकता के प्रति सदैव अनजान रहते हैं। लोग जब इस प्रकार शैतान की शरण ले लेते हैं और उसके प्रति वफादार हो जाते हैं, तो क्या वे खुद पर कोई नियंत्रण बनाए रख सकते हैं? कदापि नहीं। वे पूरी तरह से शैतान द्वारा नियंत्रित होते हैं, सर्वथा दलदल में धँस जाते हैं और अपने आप को मुक्त कराने में असमर्थ रहते हैं। जब कोई प्रसिद्धि और लाभ के दलदल में फँस जाता है, तो फिर वह उसकी खोज नहीं करता जो उजला है, जो न्यायोचित है, या वे चीजें नहीं खोजता जो खूबसूरत और अच्छी हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि प्रसिद्धि और लाभ की जो मोहक शक्ति लोगों के ऊपर हावी है, वह बहुत बड़ी है, वे लोगों के लिए जीवन भर, यहाँ तक कि अनंतकाल तक सतत अनुसरण की चीजें बन जाती हैं। क्या यह सत्य नहीं है?” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों से मुझे धीरे-धीरे एहसास हुआ कि वे दृष्टिकोण, विचार और अस्तित्व के सिद्धांत जैसे “भीड़ से ऊपर उठो” “अपने पूर्वजों का नाम करो,” और “अन्य अनुसरण छोटे हैं, किताबें उन सबसे श्रेष्ठ हैं,” जिन पर मैंने हमेशा भरोसा किया था शैतान से आए थे। मुझे लगा एक बड़ी डिग्री पाने और बाकियों से आगे रहने के लिए कड़ी मेहनत करना अनुसरण करने के लिए सकारात्मक लक्ष्य है। अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए मैंने पढ़ाई में बहुत मेहनत की और किसी भी कष्ट में डटे रहने को तैयार थी। जब मैंने देखा कि मेरे कुछ सहपाठी ऊँची डिग्रियाँ या उत्कृष्ट नौकरियाँ प्राप्त कर रहे हैं तो मैंने खुद को उनसे कमतर महसूस किया और मुझे चिंता हुई कि मुझे हेय दृष्टि से देखा जाएगा। अपना आत्मसम्मान बचाने और अपने साथियों के सामने अपना सिर ऊँचा रखने योग्य होने के लिए मैंने अपना कर्तव्य पूर्णकालिक रूप से निभाने का अवसर जाने दिया, मैंने अपना सारा समय और ऊर्जा ग्रेजुएशन प्रवेश परीक्षा की तैयारी में लगाने का निर्णय लिया। मैंने मानवजाति को बचाने के लिए कलीसिया के कार्य या परमेश्वर के तात्कालिक इरादे पर जरा भी विचार नहीं किया और इस बात से डर गई कि कर्तव्य निभाने से परीक्षा की तैयारी में विलंब होगा। परीक्षा की तैयारी के दौरान मैं दिन-रात पढ़ाई में ही लगी रहती थी, उस दौरान मैं खुद को आराम करने का जरा सा भी मौका नहीं दिया और न चाहते हुए भी चिंतित और दुखी रही। यह बेहद थका देने वाला था! मैंने लोगों को ऑनलाइन इस बात पर चर्चा करते देखा कि ग्रेजुएशन के लिए परीक्षा में या काम की तलाश में असफलता मिलने के बाद वे कैसे चिंता और अवसाद से पीड़ित होने लगे थे। एक दोस्त ने भी मुझे हमारे कॉलेज के एक छात्र के बारे में बताया जो परीक्षा में असफल होने के बाद मानसिक रोगों के अस्पताल में पहुँच गया, इसकी वजह थी पूरे अनुभव के कारण हुई मनोवैज्ञानिक पीड़ा। हर दिन वार्ड में उसके चिल्लाने की आवाजें आती थीं, “मैं ग्रेजुएशन करने कॉलेज जाना चाहता हूँ, मैं ग्रेजुएशन करने कॉलेज जाना चाहता हूँ!” ऐसे भी कई लोग थे जिन्होंने कॉलेज या ग्रेजुएशन डिग्री के लिए परीक्षा में विफल होने पर आत्महत्या कर ली क्योंकि उन्हें लगा कि उनके पास भविष्य की कोई संभावना नहीं है, प्रसिद्धि और लाभ प्राप्त करने का कोई मौका नहीं है और जीना व्यर्थ है। क्या ये सभी ज्वलंत उदाहरण शैतान की पीड़ा का परिणाम नहीं हैं? मेरा भी वैसा ही हाल था : मैंने भी संभावनाओं, प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागने में सब कुछ लगा दिया था, मैं प्रसिद्धि और लाभ की गहरी खाई में जा गिरी थी और आस्था का अभ्यास करने, सत्य का अनुसरण करने और स्वभावगत बदलाव लाने के लिए किसी भी तरह से प्रेरित महसूस नहीं कर रही थी। तब जाकर मैंने वास्तव में शैतान की कुटिल मंशाएँ देखीं। मुझे लुभाने के लिए उसने प्रसिद्धि और लाभ का इस्तेमाल किया; उसने मुझे न केवल मानसिक और भावनात्मक रूप से पीड़ित किया बल्कि मुझे सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के लिए परमेश्वर के समक्ष आने से रोकने की भी कोशिश की। मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश के बारे में विचार किया : “अगर किसी की सामाजिक हैसियत बहुत छोटी है, उनका परिवार बहुत गरीब है और उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की है, लेकिन फिर भी वे व्यावहारिक रूप से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, तो परमेश्वर की नजरों में उनका मूल्य ऊँचा होगा या नीचा, क्या वे महान होंगे या तुच्छ? वे मूल्यवान होते हैं। अगर हम इस परिप्रेक्ष्य से देखें, तो किसी का मूल्य—चाहे अधिक हो या कम, उच्च हो या निम्न—किस पर निर्भर करता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है। अगर परमेश्वर तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है जो सत्य का अनुसरण करता है, तो फिर तुम मूल्यवान हो और तुम कीमती हो—तुम एक कीमती पात्र हो। अगर परमेश्वर देखता है कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो और तुम ईमानदारी से उसके लिए खुद को नहीं खपाते, तो फिर तुम उसके लिए बेकार हो और मूल्यवान नहीं हो—तुम एक तुच्छ पात्र हो। चाहे तुमने कितनी भी उच्च शिक्षा प्राप्त की हुई हो या समाज में तुम्हारी हैसियत कितनी भी ऊँची हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते या उसे नहीं समझते, तो तुम्हारा मूल्य कभी भी ऊँचा नहीं हो सकता; भले ही बहुत से लोग तुम्हारा समर्थन करते हों, तुम्हारी प्रशंसा करते हों और तुम्हारा आदर सत्कार करते हों, फिर भी तुम एक नीच कमबख्त ही रहोगे। तो आखिर परमेश्वर लोगों को इस नजर से क्यों देखता है? ऐसे ‘कुलीन’ व्यक्ति को जिसकी समाज में इतनी ऊँची हैसियत है, जिसकी इतने लोग प्रशंसा और सराहना करते हैं, जिसकी प्रतिष्ठा इतनी ऊँची है, उसे परमेश्वर निम्न क्यों समझता है? परमेश्वर लोगों को जिस नजर से देखता है वह दूसरों के बारे में लोगों के विचार से बिल्कुल विपरीत क्यों है? क्या परमेश्वर जानबूझकर खुद को लोगों के विरुद्ध खड़ा कर रहा है? बिल्कुल भी नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर धार्मिकता है, जबकि मनुष्य भ्रष्ट है और उसके पास कोई सत्य या धार्मिकता नहीं है, और परमेश्वर मनुष्य को अपने खुद के मानक के अनुसार मापता है और मनुष्य को मापने के लिए उसका मानक सत्य है। यह बात थोड़ी काल्पनिक लग सकती है, इसलिए दूसरे शब्दों में कहें तो, परमेश्वर के माप का मानक परमेश्वर के प्रति एक व्यक्ति के रवैये, सत्य के प्रति उनके रवैये और सकारात्मक चीजों के प्रति उनके रवैये पर आधारित होता है—यह बात अब काल्पनिक नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि परमेश्वर लोगों को उनकी पढ़ाई-लिखाई या सामाजिक हैसियत के आधार पर नहीं मापता, बल्कि सत्य और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये के आधार पर मापता है। परमेश्वर उन लोगों को महत्व देता है जो वास्तव में उस पर विश्वास करते हैं, सत्य का अनुसरण करते हैं और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। इसके विपरीत, भले ही किसी की सामाजिक स्थिति ऊँची हो और अन्य लोग उसका आदर करते हों, अगर वह सत्य नहीं स्वीकारता, परमेश्वर का अनादर करता है बुरी और भ्रष्ट चीजों के पीछे भागता है परमेश्वर उसे नीच समझेगा। परमेश्वर का इरादा और लोगों को मापने के उसके मानक को समझने के बाद मुझे मुक्ति का एहसास हुआ और जाना कि यह कितना हास्यास्पद और सत्य से असंगत है कि मैं लोगों को उनकी पढ़ाई-लिखाई के आधार पर माप रही थी। मुझे प्रेरणा का एहसास भी हुआ और मैंने बड़ी डिग्री और अच्छे अंक पाने की धुन का त्याग कर दिया। मैं ऐसी इंसान बनना चाहती थी जो सत्य का अनुसरण करे और अपने कर्तव्यों के प्रति दृढ़ और व्यावहारिक हो।
उसके बाद मैं अपना नाम कटाने के लिए कॉलेज गई। मेरा टीचर मुझे लगातार डाँटता रहा और ग्रेजुएशन की पढ़ाई जारी न रखने के लिए यह कहकर मेरा मजाक भी उड़ाया कि मैं एकदम मूर्ख हूँ जो बड़ी डिग्री पाने के लिए सिर्फ दो साल भी नहीं दे सकती। टीचर के उपहास से मैंने खुद को थोड़ा कमजोर महसूस किया। मैंने यह भी सोचा कि कॉलेज के साल की शुरुआत में छात्र कितने उत्साह और महत्वाकांक्षा से भरे होंंगे, ग्रेजुएट छात्रों के रूप में अपना नया जीवन शुरू करने के लिए तैयार होंगे, और मैं यह सब छोड़ रही हूँ और एकदम उल्टी दिशा में जा रही हूँ। अगर लोगों को लगे कि मैं अजीब हूँ और उन्होंने मुझे नहीं समझा तो क्या उनके सवाल-जवाब करने पर मैं अपने निर्णय पर अडिग रह पाऊँगी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरा पहले कभी इस तरह मजाक नहीं उड़ाया गया और मैं काफी कमजोर महसूस कर रही हूँ। हे परमेश्वर, मुझे आस्था दो और मुझे भरोसा दो और निर्भय बनाओ ताकि मैं अपनी आस्थाओं पर दृढ़ रह सकूं।” बाद में मैंने अपनी वर्तमान स्थिति से संबंधित परमेश्वर के वचनों की खोज की और मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भजन मिला जिसका शीर्षक था “किसका अनुसरण करें नौजवान।” इस भजन का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा।
जवान लोगों को आकांक्षाओं से रहित नहीं होना चाहिए, उन्हें मुद्दों में विवेक का उपयोग करने और न्याय और सत्य की तलाश करने के संकल्प से रहित नहीं होना चाहिए। ...
1 युवा लोगों की आँखें दूसरों के लिए धोखे और पूर्वाग्रह से भरी हुई नहीं होनी चाहिए, और उन्हें विनाशकारी, घृणित कृत्य नहीं करने चाहिए। उन्हें आदर्शों, अभिलाषाओं, प्रबल प्रेरणाओं और खुद को बेहतर बनाने की उत्साहपूर्ण इच्छा से रहित नहीं होना चाहिए; उन्हें अपनी संभावनाओं को लेकर निराश नहीं होना चाहिए और न ही उन्हें जीवन में आशा और भविष्य में भरोसा खोना चाहिए, उनमें उस सत्य के मार्ग पर बने रहने की दृढ़ता होनी चाहिए, जिसे उन्होंने अब चुना है—ताकि वे मेरे लिए अपना पूरा जीवन खपाने की अपनी इच्छा साकार कर सकें।
2 उन्हें सत्य से रहित नहीं होना चाहिए, न ही उन्हें ढोंग और अधर्म को छिपाना चाहिए—उन्हें उचित रुख पर दृढ़ रहना चाहिए। उन्हें सिर्फ यूँ ही धारा के साथ बह नहीं जाना चाहिए, बल्कि उनमें न्याय और सत्य के लिए बलिदान और संघर्ष करने की हिम्मत होनी चाहिए। युवा लोगों में अँधेरे की शक्तियों के दमन के सामने समर्पण न करने और अपने अस्तित्व के महत्व को रूपांतरित करने का साहस होना चाहिए। युवा लोगों को प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने नतमस्तक नहीं हो जाना चाहिए, बल्कि अपने भाइयों और बहनों के लिए माफ़ी की भावना के साथ खुला और स्पष्ट होना चाहिए।
3 युवा लोगों को मुद्दों में विवेक का उपयोग करने और न्याय और सत्य की तलाश करने के संकल्प से रहित नहीं होना चाहिए। तुम लोगों को सभी सुंदर और अच्छी चीज़ों का अनुसरण करना चाहिए, और तुम्हें सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता प्राप्त करनी चाहिए। तुम्हें अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, युवा और वृद्ध लोगों के लिए वचन
परमेश्वर के वचन सुनकर मुझे लगा मानो परमेश्वर मुझे रूबरू प्रेरित कर रहा है : प्रचलित प्रवृत्तियों के साथ न बहो। तुमने जान लिया है कि परमेश्वर का अनुसरण करना प्रकाश का सही मार्ग है इसलिए तुम्हें दृढ़तापूर्वक इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। मुझे यह भी एहसास हुआ कि यह परमेश्वर की अद्भुत कृपा ही है कि मैं परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने और उसके द्वारा व्यक्त सत्य को पढ़ने में सक्षम हो सकी! परमेश्वर से जो कुछ भी आता है वह सकारात्मक है, जबकि लौकिक संसार में लोग जिसके भी पीछे भागते हैं वह नकारात्मक होता है। अगर मुझे यही चिंता रही कि दूसरे मुझे नहीं समझेंगे और मेरा समर्थन नहीं करेंगे और खुद को बचाने के लिए सांसारिक प्रवृत्तियों का पालन करूँ तो क्या मैं भी लौकिक संसार के लोगों के साथ कीचड़ में लोटने नहीं लगूँगी? परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मुझमें अपने दृढ़-विश्वास पर टिके रहने की आस्था और साहस पैदा हुआ और मैंने पढ़ाई छोड़ दी।
अपने मार्ग पर विचार करते हुए मैंने जान लिया कि यह परमेश्वर के वचनों का मार्गदर्शन ही है जिससे मैं लोगों को नुकसान पहुँचाने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का उपयोग करने वाले शैतान के कपटी इरादों को पहचान पाई। इसके अलावा उसके वचनों ने मुझे प्रसिद्धि और लाभ के अनुसरण की अंधेरी खाई से मुक्त होने में सहायता की। मैंने उस आनंद और शांति का अनुभव किया जो परमेश्वर के वचनों ने मुझे दी और उन नेक इरादों को समझा जिनके जरिए परमेश्वर मानवजाति को बचाता है। मुझे इस दुर्लभ अवसर को संजोना था, खुद को सत्य से युक्त करने का पूरा प्रयास करना था, सुसमाचार का प्रचार करना था और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने के लिए उसकी गवाही देनी थी! उसके बाद मैंने नवागंतुक सिंचन-कार्य का कर्तव्य-निर्वहन आरंभ कर दिया। पढ़ाई-लिखाई की बेड़ियों और भविष्य की संभावनाओं पर चिंताओं की बाधाओं से मुक्त होकर मैं खुद को अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर पाई, अब मेरे पास परमेश्वर के वचन पढ़ने, खुद को सत्य से युक्त करने के लिए अधिक समय था और मैंने अपने कर्तव्य से बहुत कुछ सीखा और हासिल किया। परमेश्वर को उसके मार्गदर्शन और उद्धार के लिए धन्यवाद!