7. सभा की “तैयारी” करना
फरवरी 2023 में मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में चुना गया, मुख्य रूप से मुझे सिंचन-कार्य की जिम्मेदारी दी गई थी। पहले तो मैं कुछ ऐसे काम भी संभाल सकती थी जिसके लिए मेरी सहयोगी बहन जिम्मेदार थी। बाद में सिंचन-कार्य के नतीजों में गंभीर रूप से गिरावट आई और मैं थोड़ी चिंतित हो गई। मैंने सोचा, “मैं सिंचन-कार्य के लिए जिम्मेदार हूँ। खराब नतीजों का संबंध सीधे मुझसे है। कहीं उच्च अगुआ ऐसा तो नहीं सोचेंगे कि मुझमें काम करने की क्षमता नहीं है, मैं कुछ भी अच्छे से नहीं कर पाती और काम की जिम्मेदारी उठाने में असमर्थ हूँ?” अगुआ मेरी ओर हेय दृष्टि से न देखें, यह सोचकर मैंने अपने सारे विचार और ऊर्जा सिंचन-कार्य में लगा दी और उस काम में ज्यादा शामिल नहीं हुई जिसकी जिम्मेदारी बहन पर थी। मुझे यह भी एहसास हुआ कि इस तरह से कार्य करके मैं सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बिना स्वतंत्र रूप से काम कर रही थी। लेकिन जब मैंने सोचा कि सिंचन-कार्य के लिए मैं मुख्य रूप से जिम्मेदार हूँ और खराब नतीजे मेरी प्रतिष्ठा और हैसियत को किस प्रकार प्रभावित करेंगे, मैंने किसी और चीज की परवाह करना बंद कर दिया।
एक दिन अचानक मुझे उच्च अगुआओं का पत्र मिला जिसमें मुझसे अगले दिन एक सभा में आने को कहा गया था। मैं चिंता में पड़ गई और सोचा, “यह तो बुरा हुआ। अगुआ अवश्य मुझसे कलीसिया के विभिन्न कार्यों के बारे में पूछेंगे। इस महीने सिंचन-कार्य की निगरानी को छोड़कर मैंने किसी भी और काम पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया है। विभिन्न कार्यों में क्या दिक्कतें हैं या वे कैसे प्रगति कर रहे हैं इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। अगर अगुआओं ने सवाल पूछे और मैं कोई जवाब न दे सकी तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कहीं वे यह तो नहीं सोचेंगे कि मुझमें अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व-बोध नहीं है और मेरे बारे में गलत धारणा बना लेंगे? अगर उन्हें पता चल गया कि मैंने केवल अपने सिंचन-कार्य का जायजा लिया है और बाकी कार्यों को नजरअंदाज कर दिया तो जरूर वे कहेंगे कि मैं बेहद स्वार्थी और घृणित हूँ और यह कि मुझे केवल अपने व्यक्तिगत हितों की परवाह है, कलीसिया के समग्र कार्य की नहीं और मैं केवल प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती हूँ। अगर उन्होंने अंततः मेरी काट-छांट कर दी या मुझे बरखास्त कर दिया तो यह कितना शर्मनाक होगा?” मुझे लगा अगले दिन की सभा में अगुआ निश्चित रूप से सुसमाचार कार्य के बारे में पूछने से शुरुआत करेंगे, इसलिए मैं सुसमाचार कार्य की प्रगति के बारे में जानने के लिए तुरंत अपनी सहयोगी बहन के पास गई ताकि जब अगुआ अगले दिन इसके बारे में पूछें तो मैं पूरी तरह से अनजान न रहूँ। लेकिन सुसमाचार कार्य में कई विवरण शामिल थे और उन्हें केवल कुछ शब्दों में स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता था और समय की तंगी के कारण मैं बहुत कुछ नहीं जान पाई थी। मुझे बेचैनी हो रही थी और मैं बहुत देर तक बिस्तर पर पड़ी करवटें बदलती रही, मेरा मन अगले दिन की सभा को लेकर विचारों से भरा था। सभा के दिन मैं जल्दी पहुँच गई और मुझे यह जानकर खुशी हुई कि अगुआ दूसरे मामलों के कारण अभी तक नहीं आए थे और मुझे लगा कि मैं इस समय का उपयोग कर हर समूह की रिपोर्टों जाँच कर सकती हूँ और समझ सकती हूँ कि सारे काम कैसे चल रहे हैं और पता लगा सकती हूँ कि समस्याएँ कहाँ हो सकती हैं ताकि अगुआओं द्वारा पूछे जा सकने वाले कुछ सवालों के जवाब दे सकूँ। इसलिए मैंने जल्दी से हर समूह की कार्य रिपोर्टों को देखा। हालाँकि मुझे इस बात का मोटा-मोटा अंदाजा हो गया था कि काम कैसा चल रहा है लेकिन अभी भी कई विवरण ऐसे थे जिन्हें मैं समझ नहीं पाई। मैंने यह भी सोचा कि सभा में अगुआ सिर्फ काम के बारे में ही नहीं पूछेंगे बल्कि हमारे हाल के अनुभवों, लाभों और उस ज्ञान के बारे में भी अवश्य पूछेंगे जो हमने अपने बारे में हासिल किया है। एक तो मैं पहले ही काम के विवरण पर ज्यादा बात करने में असमर्थ थी और अगर मैं अपने जीवन प्रवेश के बारे में ठीक से बात नहीं कर पाई या संगति वगैरह नहीं कर पाई तो जरूर अगुआओं को लगेगा कि मैंने कार्य और जीवन प्रवेश दोनों में खराब प्रदर्शन किया है और ऐसा कुछ कहेंगे : “तुम कुछ भी अच्छे से नहीं कर सकती; तुम जैसा व्यक्ति कलीसिया अगुआ कैसे हो सकता है?” और मुझे हेय दृष्टि से देखेंगे। इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर के वचन पढ़कर अपनी दशा पर विचार किया, अपने भ्रष्ट स्वभाव को सुधारने की खातिर खाने और पीने के लिए अंशों की खोज की, मुझे डर था कि समय आने पर अगर मैं अच्छे से संगति नहीं कर पाई तो अगुआ मेरी असलियत पहचान जाएँगे। लेकिन मैं अपने दिल को शांत नहीं कर सकी या परमेश्वर के वचनों पर ध्यान न दे सकी। जितना अधिक मैंने आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने की कोशिश की मेरा मन उतना ही अधिक भ्रमित होता गया और मैं पवित्र आत्मा के प्रबोधन या मार्गदर्शन को महसूस नहीं कर सकी। मुझे लगा कि मेरी दशा ठीक नहीं है। क्या मैं धोखेबाज नहीं थी? फिर मैंने खुद को शांत किया और परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरी दशा बहुत खराब है। मैं चिंतित और असहज महसूस कर रही हूँ और मेरे विचार भी बिल्कुल अस्पष्ट हैं। मैं जानती हूँ कि मेरी दशा ठीक नहीं। मैं तुम्हारे सामने अपने दिल को शांत करना, तुम्हारा इरादा जानना चाहती हूँ और इस खराब दशा से उबरना चाहती हूँ।”
उस पल मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “क्या तुम्हारे लक्ष्य और इरादे मुझे ध्यान में रखकर बनाए गए हैं? क्या तुम्हारे शब्द और कार्य मेरी उपस्थिति में कहे और किए गए हैं? मैं तुम्हारी सभी सोच और विचारों की जाँच करता हूँ। क्या तुम दोषी महसूस नहीं करते? तुम दूसरों को झूठा चेहरा दिखाते हो और शांति से आत्म-धार्मिकता का दिखावा करते हो; तुम यह अपने बचाव के लिए करते हो। तुम यह अपनी बुराई छुपाने के लिए करते हो, और किसी दूसरे पर उस बुराई को थोपने के तरीके भी सोचते हो। तुम्हारे दिल में कितना कपट भरा हुआ है!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन भी पढ़े : “मसीह-विरोधी बहुत कपटी और धूर्त होते हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, बहुत सोच-समझकर कहते हैं; दिखावा करने में उनसे बेहतर कोई नहीं है। मगर जैसे ही राज खुल जाता है, जैसे ही लोग उनकी असलियत देख लेते हैं, तो वे खुद के लिए बहस करने की पूरी कोशिश करते हैं, स्थिति को सुधारने के तरीके सोचते हैं, और अपनी छवि और प्रतिष्ठा को बचाने के उपाय के रूप में झांसा देकर अपना रास्ता बनाते हैं। मसीह-विरोधी रोज केवल प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए जीते हैं, वे केवल रुतबे के लाभों का आनंद लेने के लिए जीते हैं, वे बस इसी बारे में सोचते हैं। यहाँ तक कि जब वे कभी-कभी कोई छोटा-मोटा कष्ट उठाते हैं या कोई मामूली कीमत चुकाते हैं, तो वह भी हैसियत और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए होता है। हैसियत के पीछे दौड़ना, सत्ता धारण करना और एक आसान जीवन जीना वे प्रमुख चीजें हैं, जिनके लिए मसीह-विरोधी परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद हमेशा योजना बनाते हैं, और तब तक हार नहीं मानते, जब तक कि वे अपने लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते। अगर कभी उनके दुष्कर्म उजागर हो जाते हैं, तो वे घबरा जाते हैं, मानो उन पर आकाश गिरने वाला हो। वे न तो खा पाते हैं, न सो पाते हैं, और बेहोशी की-सी हालत में प्रतीत होते हैं, मानो अवसाद से ग्रस्त हों। जब लोग उनसे पूछते हैं कि क्या समस्या है, तो वे झूठ बोलते हुए कहते हैं, ‘कल मैं इतना व्यस्त रहा कि पूरी रात सो नहीं पाया, इसलिए बहुत थक गया हूँ।’ लेकिन वास्तव में, इसमें से कुछ भी सच नहीं होता, यह सब धोखा होता है। वे ऐसा इसलिए महसूस करते हैं, क्योंकि वे लगातार सोच रहे होते हैं, ‘मेरे द्वारा किए गए बुरे काम उजागर हो गए हैं, तो मैं अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत कैसे बहाल कर सकता हूँ? मैं खुद को छुड़ाने के लिए किन साधनों का उपयोग कर सकता हूँ? इसे समझाने के लिए मैं सभी लोगों के साथ किस लहजे का उपयोग कर सकता हूँ? मैं लोगों को अपनी असलियत जानने से रोकने के लिए क्या कह सकता हूँ?’ काफी समय तक उन्हें समझ नहीं आता कि क्या करें, इसलिए वे खिन्न रहते हैं। कभी-कभी उनकी आँखें एक ही स्थान पर शून्य में ताकती रहती हैं, और कोई नहीं जानता कि वे क्या देख रहे हैं। यह मुद्दा उन्हें सिर खपाने पर मजबूर कर देता है, वे जितना सोच सकते हैं उतना सोचते हैं और उनकी खाने-पीने की इच्छा नहीं होती। इसके बावजूद, वे अभी भी कलीसिया के काम की परवाह करने का दिखावा करते हैं और लोगों से पूछते हैं, ‘सुसमाचार का काम कैसा चल रहा है? उसे कितने प्रभावी ढंग से प्रचारित किया जा रहा है? क्या भाई-बहनों ने हाल ही में कोई जीवन प्रवेश प्राप्त किया है? क्या कोई विघ्न-बाधा डाल रहा है?’ कलीसिया के काम के बारे में उनकी यह पूछताछ दूसरों को दिखाने के लिए होती है। अगर उन्हें समस्याओं के बारे में पता चल भी जाता, तो भी उनके पास उन्हें हल करने का कोई उपाय न होता, इसलिए उनके प्रश्न महज औपचारिकता होते हैं, जिन्हें दूसरे लोग कलीसिया के काम की परवाह के रूप में देख सकते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों के न्याय ने मुझे व्यथित और परेशान कर दिया। मैंने देखा कि मैं कितनी धोखेबाज हूँ। मैं अपने कर्तव्य में वाकई स्वार्थी थी, मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर केवल अपने काम पर ध्यान दिया, जबकि दूसरे काम के बारे में शायद ही मैंने कभी पूछताछ की। मैंने बिल्कुल कोई वास्तविक कार्य नहीं किया। मैं जानती थी कि मेरे कार्य परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हैं और मुझमें टीम भावना नहीं है लेकिन मैंने इन मसलों को हल करने के लिए सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं की। इसके अतिरिक्त मैं जानती थी कि मैं आमतौर पर अपने जीवन प्रवेश पर अधिक ध्यान नहीं देती, न ही मैं ज्यादा वास्तविक अनुभवात्मक ज्ञान पर संगति कर पाती थी। जब अगुआओं ने मुझसे किसी सभा में आने के लिए नहीं कहा तो मैंने इसके बारे में ज्यादा नहीं सोचा, मुझे लगा अगर मुझे समस्याएँ होंगी भी तो अगुआओं को पता नहीं चलेगा, इसलिए मैं उन्हें हल करने की जल्दी में नहीं थी। लेकिन जैसे ही मैंने सुना कि अगुआ मुझे एक सभा में बुलाने वाले हैं, मैं एकदम घबरा गई, मुझे लगा कि सभा में मेरी समस्याएँ उजागर हो जाएँगी और अगर अगुआओं को इनके बारे में पता चल गया तो वे निश्चित रूप से सोचेंगे कि मुझमें अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व-बोध नहीं है, मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया और यह कि मेरी काबिलियत और जीवन प्रवेश अच्छा नहीं है। चूँकि मैंने अभी-अभी एक अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य शुरू किया था और उच्च अगुआ मुझसे बहुत परिचित नहीं थे, अगर मैंने हमारी पहली मुलाकात में ही उन पर बुरा प्रभाव छोड़ा तो वे निश्चित रूप से भविष्य में मुझे महत्व नहीं देंगे बल्कि मुझे बरखास्त भी कर सकते हैं। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए मैंने अपने मसलों को छिपाने की हर संभव कोशिश की। सभा से पहले मैंने काम का विवरण जाँचने के लिए अपनी सहयोगी बहन को ढूँढ़ने की जल्दी की और मैं खुद को छिपाना चाहती थी और कार्य से परिचित होने के लिए रिपोर्टों को पहले से पढ़कर अगुआओं को धोखा देना चाहती थी। मैं यह छाप छोड़ना चाहती थी कि मुझमें जबर्दस्त कार्यक्षमताएँ हैं और मैं अपने जीवन में प्रवेश पर पूरा ध्यान देती हूँ ताकि दूसरे लोग मेरा अच्छा मूल्यांकन करें। मुझमें पहले से ही अपने कर्तव्य के प्रति दायित्व-बोध नहीं था और मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती थी, फिर भी मुझे इस बात का डर लगा रहता था कि दूसरे लोग मेरी असलियत जान लेंगे, इसलिए मैंने एक झूठी छवि बनाई और अपने आपको छिपा लिया। क्या यह खुला और निर्लज्जतापूर्ण धोखा नहीं था? मैंने देखा कि मैं सचमुच धोखेबाज हूँ। मैं बिल्कुल एक मसीह-विरोधी की तरह व्यवहार कर रही थी। मसीह-विरोधी विशेष रूप से धूर्त होते हैं और जब वे देखते हैं कि उन्हें नुकसान हो रहा है तो अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाने के लिए हर हथकंडा अपनाते हैं। क्या मैं यही नहीं कर रही थी? जब तक चीजों ने मेरी प्रतिष्ठा या रुतबे का अतिक्रमण नहीं किया, मैंने कलीसिया के अन्य कार्यों को नजरअंदाज किया और अपने जीवन प्रवेश पर कोई ध्यान नहीं दिया। लेकिन जैसे ही किसी बात ने मेरे रुतबे और प्रतिष्ठा को प्रभावित किया तो मैं पगला गई, मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ना और कार्य को समझने का प्रयास किया, ऐसा लग रहा था मानो मैं अपने अनुसरण में बहुत मेहनती हूँ। मैं सचमुच धूर्त और धोखेबाज थी। मैंने जो स्वभाव प्रकट किया क्या वह मसीह-विरोधी का नहीं था?
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “परमेश्वर में विश्वास करते समय तुम्हें सही मार्ग पर चलना चाहिए और अपना आचरण सही रखना चाहिए, और कुटिल और बुरे तरीकों में नहीं पड़ना चाहिए। कुटिल और बुरे तरीके कौन-से हैं? परमेश्वर के विश्वासी अपनी भ्रष्टता, दोष और कमियाँ, और अपनी कम काबिलियत जैसी समस्याएँ छिपाने के लिए हमेशा छोटी-मोटी साजिशों पर, कपटी और चतुर खेलों पर और चालें चलने पर निर्भर रहना चाहते हैं; वे हमेशा शैतानी फलसफों के अनुसार मामले निपटाते हैं, जिन्हें वे ज्यादा बुरा नहीं मानते। सतही स्तर के मामलों में वे परमेश्वर और अपने अगुआओं की चापलूसी करते हैं, लेकिन वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, न ही वे सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं। वे दूसरों के शब्दों और अभिव्यक्तियों को सावधानी से तौलते हैं और हमेशा सोचते हैं : ‘मेरा हालिया प्रदर्शन कैसा रहा है? क्या हर कोई मेरा समर्थन करता है? क्या परमेश्वर उन सारी अच्छी चीजों के बारे में जानता है, जो मैंने की हैं? अगर वह जानता है, तो क्या मेरी प्रशंसा करेगा? परमेश्वर के दिल में मेरा क्या स्थान है? क्या वहाँ मैं महत्वपूर्ण हूँ?’ निहितार्थ यह है कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले व्यक्ति के रूप में क्या उसे आशीष मिलेगा या उसे हटा दिया जाएगा? क्या सदा इन्हीं विषयों पर सोचते रहना कुटिल और बुरा मार्ग नहीं है? बेशक यह कुटिल और बुरा मार्ग है, सही मार्ग नहीं। तो फिर सही मार्ग क्या है? (सत्य का अनुसरण कर स्वभाव में बदलाव करना।) बिल्कुल सही। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए सत्य का अनुसरण करना, सत्य प्राप्त करना और स्वभाव बदलना ही एकमात्र सही मार्ग है। जिस मार्ग पर परमेश्वर लोगों को उद्धार पाने के लिए ले जाता है, वही सच्चा मार्ग है, सही मार्ग है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर के वचन पढ़कर लगा पूरी तरह से मेरा न्याय हुआ है। मैंने देखा कि मैं हमेशा अपने कर्तव्यों में अपनी समस्याओं को छिपाने के लिए चालें चलने की कोशिश करती हूँ। यह काम करने का एक कुटिल और बुरा तरीका था और मैं सही रास्ते पर नहीं चल रही थी। दरअसल अगुआओं का मेरे काम की जाँच के लिए मुझे सभा में बुलाना एकदम सामान्य बात थी। मुझे बस इतना कहना चाहिए कि मैंने आमतौर पर कैसा व्यवहार किया। अगर वे बताते हैं कि कैसे मुझमें कुछ जगहों पर कमी है या मैं पीछे रह गई हूँ तो मुझे अपने भविष्य के कर्तव्यों में उन कमियों को दूर करना चाहिए और अगर मेरी काट-छाँट भी की जाती है तो इससे मुझे चिंतन और प्रवेश करने में मदद ही मिलेगी ताकि मैं अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभा सकूँ। लेकिन मैंने छल का सहारा लिया और अपनी समस्याओं को छिपाने, झाँसा देने और अगुआओं को धोखा देने के लिए मैं जो कुछ भी कर सकती थी मैंने किया। मैं नहीं चाहती थी कि वे मेरी भ्रष्टता और कमियाँ देखें। क्या ऐसा करके मैं कुटिल और बुरे आचरण में लिप्त नहीं हो रही थी? जब कोई व्यक्ति वाकई सत्य का अनुसरण करता है और उसे एहसास होता है कि वह स्वार्थी और घृणित बन रहा है और अपने कर्तव्य में केवल अपने कार्यों को लेकर चिंतित रहता है तो वह अपनी दशा का समाधान करने के लिए तुरंत सत्य खोजने में सक्षम हो जाता है। जब अगुआ उसके काम के बारे में पूछते हैं तो वह शांति से उसका सामना कर सकता है और अपने विचलनों को सुधार सकता है। इसके अतिरिक्त जो लोग वास्तव में जीवन प्रवेश पर ध्यान देते हैं उन्हें दैनिक जीवन में अपनी सोच और विचारों पर गौर करना चाहिए और उन्हें समय पर हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, न कि तब जब अगुआओं के साथ कोई सभा सिर पर आ पड़े तो खुद को परमेश्वर के वचनों से युक्त करें। लेकिन मैंने अगुआओं को धोखा देने के लिए एक मुखौटा लगाने की कोशिश की। ऐसा करके मैं छल और चालाकी में लिप्त हो रही थी। क्या मैं परमेश्वर को धोखा देने और अगुआओं का बेजा फायदा उठाने की कोशिश नहीं कर रही थी? मैंने देखा कि मैं सत्य का अभ्यास या अनुसरण करने वाली इंसान नहीं हूँ।
बाद में मैंने इस पर आत्म-चिंतन किया कि मैंने बेशर्मी से धोखा क्यों दिया और परमेश्वर की जाँच स्वीकार क्यों नहीं कर सकी। कई बार मैं यह भी जानती थी कि मुझे ईमानदार होना चाहिए और परमेश्वर की जांच को स्वीकार करते हुए परमेश्वर के सामने जीना चाहिए, मगर जब विपरीत परिस्थितियों से सामना होता तो मैं अनजाने में ही कपट का सहारा लेती। ऐसा क्यों होता है? बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “क्या धोखेबाज लोगों का जीवन थकाऊ नहीं है? वे अपना पूरा समय झूठ बोलने और फिर उन्हें छिपाने के लिए और ज्यादा झूठ बोलने और चालबाजी करने में लगा देते हैं। वे ही खुद को इतना थकाते हैं। वे जानते हैं कि इस तरह जीना थकाऊ है—फिर भी वे क्यों धोखेबाज बने रहना चाहते हैं, ईमानदार क्यों नहीं होना चाहते? क्या तुम लोगों ने कभी इस सवाल पर विचार किया है? यह लोगों के अपनी शैतानी प्रकृति द्वारा बेवकूफ बनाए जाने का नतीजा है; यह उन्हें ऐसे जीवन और ऐसे स्वभाव से छुटकारा पाने से रोकता है। लोग इस तरह बेवकूफ बनाए जाने और इस तरह जीने को तैयार रहते हैं; वे सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते, प्रकाश के मार्ग पर नहीं चलना चाहते। तुम्हें लगता है कि इस तरह जीना थकाऊ है और इस तरह कार्य करना जरूरी नहीं है—लेकिन धोखेबाज लोग सोचते हैं कि यह पूरी तरह से जरूरी है। वे सोचते हैं कि ऐसा न करने से उनका अपमान होगा, उनकी छवि, प्रतिष्ठा और हितों को भी नुकसान पहुँचेगा, और वे बहुत-कुछ खो देंगे। वे ये चीजें सँजोते हैं, वे अपनी छवि, प्रतिष्ठा और हैसियत को सँजोते हैं। यह उन लोगों का असली चेहरा है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। संक्षेप में, लोग ईमानदार होने या सत्य का अभ्यास करने को इसलिए तैयार नहीं होते क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। अपने दिल में वे प्रतिष्ठा और हैसियत जैसी चीजों को संजोते हैं, वे सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागना और शैतान की सत्ता के अधीन रहकर जीना पसंद करते हैं। यह उनकी प्रकृति की समस्या है। अभी ऐसे लोग हैं जिन्होंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, अनेक धर्मोपदेश सुने हैं और जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना क्या होता है। लेकिन फिर भी वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और जरा भी नहीं बदले हैं—ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। भले ही वे थोड़ा-बहुत सत्य समझते हों, फिर भी वे उस का अभ्यास नहीं कर पाते। ऐसे लोग परमेश्वर में चाहे जितने वर्ष विश्वास रख लें, वह कुछ भी नहीं होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों के जरिए उजागर होने पर मुझे समझ आया कि एक ईमानदार व्यक्ति बनने की मेरी अनिच्छा मेरी उस प्रकृति से उपजी है जिसे सत्य से प्रेम नहीं था और जो प्रतिष्ठा तथा रुतबे को बहुत महत्व देती थी। हालाँकि मैं जानती थी कि धोखे से जीना थका देने वाला है लेकिन जब मैं सोचती कि एक ईमानदार व्यक्ति होना मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे को कैसे नुकसान पहुँचा सकता है तो मेरी सत्य का अभ्यास करने की इच्छा नहीं होती थी और शैतान के हाथों अनजाने में मूर्ख बनकर नुकसान उठाती थी। इस दौरान मैंने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया या जीवन प्रवेश पर ध्यान नहीं दिया। जब अगुआओं ने मुझे सभा में बुलाया तो मुझे एक ईमानदार व्यक्ति बनकर शांति से उसका सामना करना चाहिए था, इस तथ्य को स्वीकारना चाहिए था कि मैं कोई वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी और अगुआओं का मार्गदर्शन और मदद स्वीकारनी चाहिए थी। लेकिन मुझे डर था कि ऐसा करने से अगुआ यह सोचेंगे कि मुझमें अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व-बोध नहीं है, इससे उन पर मेरी बुरी छाप पड़ती और फिर वे मुझे महत्व नहीं देते या मुझे हटा ही देते। इन बातों पर सोचते-सोचते मैंने एक ईमानदार इंसान बनने की हिम्मत ही खो दी, क्योंकि मुझे लगा कि ईमानदार होने से मुझे बहुत अधिक नुकसान होगा। मैंने सत्य का अभ्यास नहीं किया या एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण नहीं किया, मैं लगातार अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने की कोशिश करती रही और इस तरह के शैतानी जहर के सहारे जीती रही “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” और “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” ये जहर मेरे दिल में गहराई तक जड़ें जमाकर मेरे जीने के नियम बन गए थे। अगुआओं पर मेरी बुरी छाप न पड़े इसके लिए खुद को छिपाने की खातिर मैंने एक मुखौटा लगा लिया था। मैं जानती थी कि मैं बेमन से काम कर रही हूँ और अगुआओं के साथ धोखाधड़ी कर रही हूँ और मुझे बेचैनी हो रही थी, लेकिन इसके बावजूद बदनामी से बचने के लिए मैं मजबूरन धोखे का सहारा ले रही थी। ये शैतानी जहर बेड़ियों की तरह थे जो मुझे कसकर बाँधे हुए थे जिससे मेरे लिए आजाद होना मुश्किल हो गया था। हालाँकि मैं सच्चाई से अच्छी तरह वाकिफ थी लेकिन फिर भी मैं उसे अभ्यास में नहीं ला पाई। मैंने देखा कि प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर मैं अक्सर अपने कर्तव्यों में धोखाधड़ी करती हूँ। कई बार जब उच्च अगुआ मुझसे काम के बारे में पूछताछ करते तब भी जब मैंने कुछ कार्य नहीं किये होते थे, मैं झूठ बोल देती कि मैंने किए हैं ताकि उनके दिलों में मेरी अच्छी छवि बनी रहे और फिर उसकी भरपाई के लिए संघर्ष करती। किसी और समय जब मुझे कार्य का विवरण समझ में नहीं आता था और जब अगुआ मुझसे पूछते तो मैं तुरंत विषय बदल देती और अपने वास्तविक काम न करने पर पर्दा डालने के लिए आने वाली योजनाओं के बारे में बात करने लगती। मैंने देखा कि भले ही मैंने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखा था और उसके बहुत सारे वचन खाए और पिए थे लेकिन मैं अब भी प्रतिष्ठा और रुतबे को सबसे अधिक महत्व देती थी। हालाँकि मैं जानती थी कि इन चीजों का अनुसरण करने से परमेश्वर को घृणा होती है मैं फिर भी उनके पीछे भागने से खुद को नहीं रोक पाती थी। अपनी प्रकृति में वाकई मुझे सत्य से कोई प्रेम नहीं है और मैं सत्य से विमुख हूँ। मुझे यह भी एहसास हुआ कि सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए इंसान को अपने हितों को त्याग देना चाहिए और प्रतिष्ठा और रुतबे की खोज को छोड़ देना चाहिए। धोखेबाज स्वभाव पर भरोसा करके जीने का मतलब है कि इंसान खुलकर या ईमानदारी से नहीं जी सकता और अंततः इंसान अपनी गरिमा और निष्ठा गँवा बैठता है और अंत में परमेश्वर की घृणा और अरुचि का भागी बनता है। यह एहसास होने पर मुझे खुद से घृणा हो गई और फिर मैंने नहीं चाहा कि अब मैं प्रतिष्ठा या रुतबे के लिए जिऊँ।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “आज, अधिकांश लोग अपने कृत्यों को परमेश्वर के सम्मुख लाने से बहुत डरते हैं; जबकि तू परमेश्वर की देह को धोखा दे सकता है, परन्तु उसके आत्मा को धोखा नहीं दे सकता है। कोई भी बात, जो परमेश्वर की छानबीन का सामना नहीं कर सकती, वह सत्य के अनुरूप नहीं है, और उसे अलग कर देना चाहिए; ऐसा न करना परमेश्वर के विरूद्ध पाप करना है। इसलिए, तुझे हर समय, जब तू प्रार्थना करता है, जब तू अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत और संगति करता है, और जब तू अपना कर्तव्य करता है और अपने काम में लगा रहता है, तो तुझे अपना हृदय परमेश्वर के सम्मुख अवश्य रखना चाहिए। जब तू अपना कार्य पूरा करता है, तो परमेश्वर तेरे साथ होता है, और जब तक तेरा इरादा सही है और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए है, तब तक जो कुछ भी तू करेगा, परमेश्वर उसे स्वीकार करेगा; इसलिए तुझे अपने कार्य को पूरा करने के लिए अपने आपको ईमानदारी से समर्पित कर देना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसके इरादों के अनुरूप हैं)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें परमेश्वर की जांच को स्वीकार करना चाहिए और उसके समक्ष रहना चाहिए। लेकिन अपनी आस्था और अपने कर्तव्य में मैं परमेश्वर की जांच को स्वीकार करने में असमर्थ थी। मैं हमेशा अगुआओं को चकमा देने और धोखा देने के लिए इंसानी तौर-तरीकों पर भरोसा करना चाहती थी और सोचती थी कि जब तक लोगों को मेरी समस्याओं के बारे में पता नहीं चलेगा तब तक सब कुछ ठीक रहेगा, मानो लोगों को धोखा देने का मतलब है कि परमेश्वर को पता नहीं चलेगा और ऐसा करके मैं अपने रुतबे और कर्तव्य दोनों बचाए रख सकूँगी। क्या मैं खुद को और दूसरों को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रही थी? लग तो ऐसा रहा था जैसे मैं सिर्फ अगुआओं को धोखा देने की कोशिश कर रही हूँ लेकिन असल में मैं परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रही थी, मेरे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं था। सच तो यह है कि परमेश्वर हर चीज की जाँच करता है। वह मेरी हर सोच, विचार और कार्य की जाँच करता है और जब मैं बेशर्मी से परमेश्वर और लोगों को धोखा देने की कोशिश कर रही थी और चुपचाप गुप्त गतिविधियों में लगी हुई थी तो परमेश्वर ने यह सब स्पष्ट रूप से देख लिया था। परमेश्वर जानता था कि मैंने अपने कर्तव्य कैसे निभाए और क्या मैंने सत्य का अनुसरण किया। अगर मेरे दिल में परमेश्वर के लिए जगह होती तो मैं परमेश्वर के सामने जीने और सभी चीजों में उसकी जांच को स्वीकार करने पर ध्यान देती। जहाँ भी मेरे काम में कोई कमी थी मुझे उसे तुरंत सुधारना चाहिए था और अपनी कमियों का ईमानदारी से सामना करना चाहिए था। लेकिन अपने कर्तव्यों को वैसे ही निभाते हुए जैसे मैंने निभाए थे, मैंने काम के विभिन्न पहलुओं की उपेक्षा की और लगातार युक्तियों से उन पर पर्दा डालने की कोशिश की, मेरे बारे में लोगों की अच्छी राय का क्या मतलब रहा? मेरे कर्तव्यों में मुद्दे अनसुलझे रहे और मेरा धोखेबाज स्वभाव अपरिवर्तित रहा। इससे परमेश्वर को घृणा और अप्रसन्नता होती है। क्या यह बहुत बड़ी क्षति और नितांत मूर्खता नहीं थी? मैं अपने कर्तव्यों में वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी, मेरा जीवन प्रवेश खराब था और मैंने कई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किये थे। मुझे परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने और अपने कर्तव्यों को अच्छे से करने पर ध्यान देना चाहिए था। यही मेरा रवैया होना चाहिए था!
बाद में मैंने यह खोजना शुरू किया कि परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कैसे कार्य किया जाए। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग प्रदान किया। चाहे कोई भी समस्याएँ क्यों न हों, उन्हें हल करने के लिए व्यक्ति को सत्य की खोज करनी चाहिए। सत्य में प्रवेश करने के लिए पहला कदम खुलकर बात करना है और चाहे कोई भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो, व्यक्ति को खुद को उजागर करना चाहिए और परमेश्वर और अन्य लोगों के सामने व्यक्ति को ईमानदार होना चाहिए। व्यक्ति को अपनी प्रतिष्ठा या रुतबा बनाए रखने के लिए कुछ भी नहीं छिपाना चाहिए। उसे बिना किसी छल या चालाकी के सच बोलना चाहिए। ऐसा करके ही वह स्वतंत्र रूप से जी सकता है और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि शैतानी भ्रष्ट स्वभाव में रहने, हमेशा दूसरों की राय की परवाह करने और लगातार झूठ बोलने और धोखा देने से जीवन थकाऊ और असम्मानजनक बन जाता है। मैं अब प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए नहीं जीना चाहती थी। मैं परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करने और उसके समक्ष जीने को तैयार हो गई। मेरे बारे में दूसरों के विचार या राय कुछ भी हो, मैं बस परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य निभाना चाहती थी। इस बात को मन में रखने पर मेरा हृदय एकदम शांत हो गया और मुझे अब इस बात की चिंता नहीं रही कि उच्च अगुआ मेरे काम की जाँच करेंगे, न ही मैं अब परमेश्वर या अन्य लोगों को धोखा देने का प्रयास करना चाहती थी।
सभा के दिन अगुआ देर से पहुँचे और पूछा कि मैंने सुसमाचार कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई किस प्रकार की है। मेरे दिल की धड़कन तेज हो गई और मैं अभी भी थोड़ा चिंतित थी, डर था कि अगर अगुआओं को स्थिति के तथ्य पता चल गए तो वे मेरे बारे में बुरा सोचेंगे। तब मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मेरा दिल एकदम शांत हो गया और मैं अब प्रतिष्ठा या रुतबे की खातिर कुछ नहीं करना चाहती थी। इसलिए मैंने अगुआओं से ईमानदारी से और खुलकर बात की। मैंने माना कि मैं स्वार्थी और नीच थी और समग्र कार्य का जायजा लेने में विफल रही थी और यह कि हालाँकि मैंने काम की निगरानी नहीं की थी फिर भी मैंने दूसरों को धोखा देने की कोशिश की। मेरी बात सुनकर अगुआओं ने मेरी काट-छाँट नहीं की। इसके बजाय उन्होंने मेरे साथ संगति की कि कैसे कलीसिया के काम को अच्छी तरह से करने के लिए सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना चाहिए। उनकी संगति सुनकर मेरा हृदय रोशन हो गया और मुझे अभ्यास का मार्ग प्राप्त हुआ। बाद में जब उन्होंने मेरी दशा के बारे में पूछा तो मैंने भी खुले तौर पर उस पर संगति की कि मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम कर रही थी, स्वार्थी और घृणित दशा में जी रही थी लेकिन मैं सत्य खोजकर अपने आप में सुधार करने को तैयार थी। इतना बोलने के बाद मुझे अपने दिल में स्थिरता और सहजता का एहसास हुआ। मैं समझ गई हूँ कि जब मेरे विचार इस बात पर केंद्रित होते हैं कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं और उनके दिलों में मेरा क्या रुतबा है तो मैं शैतान के हाथों मूर्ख बने बिना नहीं रह पाती, छल और कपट का सहारा लेती हूँ और अपना जीवन पीड़ादायक और थकाऊ तरीके से जीती हूँ। लेकिन जब मैं लोगों की राय की परवाह नहीं करती और केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहती हूँ और एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहती हूँ तो मेरी दशा में निरंतर सुधार होता रहता है, मुझे लगता है कि मैं परमेश्वर के समक्ष जी रही हूँ और मेरा दिल वाकई मुक्ति का एहसास करता है।