10. “लोगों की कमियों की आलोचना न करने” के पीछे की गुप्त प्रेरणा
बहन ली ले एक उपदेशक थी और वह हमारी कलीसिया के कार्य की भी जाँच करती थी। हमारी आमतौर पर अच्छी बनती थी और जब भी मेरी अवस्था खराब होती तो वह अपने अनुभव के आधार पर संगति करती थी और मेरी मदद करती थी। हाल ही में मैंने पाया कि उसमें अपने कर्तव्य के प्रति कोई बोझ नहीं था और हर हफ्ते वह सिर्फ एक बार हम उपयाजकों के साथ सभा करती थी और कलीसिया के कार्य को थोड़ा समझ लेती थी, लेकिन जब काम से जुड़ी समस्याएँ आती थीं तो वह शायद ही कभी हमारे साथ उन्हें सुलझाने करने के लिए सत्य की तलाश करती थी। मैंने सोचा कि ली ले कई कलीसियाओं के कार्य की प्रभारी है, अगर वह हमेशा ऐसी ही अवस्था में रही तो इससे इन कलीसिया के कार्य पर असर पड़ेगा। मुझे इसके बारे में उससे बात करनी चाहिए या उसकी स्थिति के बारे में उच्च-स्तरीय अगुआओं को रिपोर्ट करनी चाहिए ताकि वे तुरंत उसकी अवस्था समझ सकें और उसके साथ संगति कर सकें और उसका रास्ता बदलवा सकें। हालाँकि मैंने कभी इसका उल्लेख नहीं किया। मैंने हाल ही में ली ले की संगति सुनी थी, उसने कहा था कि वह सुसमाचार प्रचार के काम में एक आम इंसान थी और वह पेशेवर काम के बारे में ज्यादा नहीं समझती थी, न ही सुसमाचार-प्रचार के सिद्धांतों पर उसकी अच्छी पकड़ थी। उसने सोचा कि यह काम करना उसके लिए कुछ हद तक कठिन था। वास्तव में उसकी काबिलियत बुरी नहीं थी और वह यह करने में पूरी तरह से असमर्थ नहीं थी। बात बस इतनी थी कि उसे अपना कर्तव्य निभाते समय बोझ का एहसास नहीं था। अगर वह कुछ सिद्धांतों को लगन से समझ ले तो वह अपना काम अच्छी तरह से करेगी। लेकिन अगर मैंने इस समय उसकी स्थिति के बारे में अगुआओं को बताया और उनसे कहा कि वे कलीसिया के कार्य की जाँच करें और उसकी निगरानी करें, तो क्या वह यह नहीं सोचेगी कि उसके लिए मेरी अपेक्षाएँ बहुत कठोर हैं? और क्या वह इस वजह से हताश हो जाएगी और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं होगी? मैंने सोचा, रहने दो। ली ले की अवस्था को समझना उच्च-स्तरीय अगुआओं का काम है। भले ही मैंने कुछ न कहा हो, उन्हें इसके बारे में पता होना चाहिए। यह सब सोचकर मैंने ली ले की स्थिति की रिपोर्ट न करने का फैसला किया। बाद में, जब ली ले ने हमारे साथ सभा की तो कई बार मन हुआ कि मैं उसे उसके कर्तव्य निर्वहन की समस्या के बारे में बता दूँ, लेकिन मुझे डर था कि ली ले कहेगी कि मेरी अपेक्षाएँ उसके लिए बहुत कठोर हैं। अगर वह इसे नहीं स्वीकारती है तो हमारा रिश्ता खराब हो जाएगा और इसके बाद वह मेरे साथ अलग व्यवहार करेगी। और इसी तरह, कई बार बात जुबान पर लाकर भी मैंने कुछ नहीं कहा, अपनी बात दिल में ही रखी।
कुछ समय बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा : “झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की समस्या को हल करना इतना मुश्किल नहीं है; झूठे अगुआ लोग वास्तविक कार्य नहीं करते और उनका पता लगाना व उन्हें स्पष्ट रूप से देखना आसान है; मसीह-विरोधी लोग कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं, उसे अस्त-व्यस्त कर देते हैं और उन्हें पहचानना और स्पष्ट रूप से देखना भी आसान होता है। ये सारी चीजें परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके कर्तव्यों का पालन करने में बाधा डालने की समस्या से संबंधित हैं, और तुम्हें ऐसे लोगों की रिपोर्ट करनी चाहिए और उन्हें उजागर करना चाहिए—केवल ऐसा करके ही तुम कलीसिया के काम में देरी होने से रोक सकते हो। झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के बारे में रिपोर्ट करना और उन्हें उजागर करना महत्वपूर्ण कार्य है जो यह सुनिश्चित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकते हैं, और परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग इस जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। चाहे वह कोई भी हो, यदि वह झूठा अगुआ या मसीह-विरोधी है, तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसे उजागर करना चाहिए और प्रकाश में लाना चाहिए, और इस तरह तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी करोगे। ... तुम लोग वर्षों से धर्मोपदेश सुनते आ रहे हो, और अब भी तुम झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को नहीं पहचान पाते, इसके बजाय तुम लोग मसीह-विरोधियों के साथ घुलने-मिलने और किसी बात पर गंभीरता से विचार किए बिना दिन भर खाते रहने को तैयार रहते हो। ऐसा व्यवहार यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि तुम लोग परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं हो। सबसे पहली बात यह है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते या सत्य को स्वीकार नहीं करते; दूसरे, तुम लोगों को अपने कर्तव्य के प्रति किसी उत्तरदायित्व का बोध नहीं है, यह तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि तुम उसे निष्ठापूर्वक निभाते हो, और तुम बस कलीसिया के काम की अनदेखी करते हो। तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए दिखते हो, लेकिन तुम्हें कोई नतीजे नहीं मिलते; तुम बस औपचारिकताएँ कर रहे हो। झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी लोग कलीसिया के काम को कितना भी बाधित करें और नुकसान पहुँचाएँ, तुम लोग इस बारे में पूरी तरह से अनजान हो, और यह बात तुम्हें बिल्कुल भी परेशान नहीं करती। ... परमेश्वर के घर ने तुम्हें इतने समय तक सींचा है और तुमने बहुत से धर्मोपदेश सुने हैं, और इसका परिणाम क्या रहा? कलीसिया में मसीह-विरोधी का प्रकट होना एक गंभीर समस्या है, लेकिन तुम लोगों को इसकी जानकारी ही नहीं है। यह दिखाता है कि तुम लोग बिल्कुल भी प्रगति नहीं कर पाए हो, कि तुम चेतनाशून्य और मंदबुद्धि हो, और तुम दैहिक भोग-विलास में लगे हो। तुम लोग मरे हुए लोगों का ढेर हो, जिसमें एक भी व्यक्ति जीवित नहीं है, एक भी ऐसा नहीं है जो सत्य का अनुसरण करता हो, ज्यादा से ज्यादा सिर्फ कुछ लोग श्रमिक हैं। काफी समय से परमेश्वर पर विश्वास करने, धर्मोपदेश सुनने के बाद एक मसीह-विरोधी के साथ घुलना-मिलना, उसे उजागर न करना या उसकी रिपोर्ट न करना—तुम लोगों में और उस व्यक्ति में क्या अंतर है जो परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता? तुम लोग मसीह-विरोधियों के साथ हो, तुम परमेश्वर के लोग नहीं हो; तुम लोग मसीह-विरोधियों का अनुसरण करते हो, शैतान का अनुसरण करते हो, और परमेश्वर के अनुयायी बिल्कुल नहीं हो। भले ही तुम लोगों ने वे बुरे काम नहीं किए जो इस मसीह-विरोधी ने किए थे, फिर भी तुमने उसका अनुसरण किया और उसका बचाव किया, क्योंकि तुम लोगों ने उसे उजागर नहीं किया या उसकी रिपोर्ट नहीं की और बकबक करते रहे कि तुम लोगों के इस मसीह-विरोधी से ज्यादा संबंध नहीं थे और तुम यह नहीं जानते थे कि वह क्या कर रहा था। ऐसा करके, क्या तुम खुली आँखों से मसीह-विरोधी को नहीं बचा रहे थे? मसीह-विरोधी ने इतने बुरे काम किए और कलीसिया के काम को पंगु बना दिया, कलीसिया के जीवन को पूरी तरह से अस्त-व्यस्त कर दिया, और फिर भी तुम लोग कहते हो कि तुम्हें नहीं पता था कि मसीह-विरोधी क्या कर रहा था—इस पर कौन विश्वास करेगा? तुम लोगों ने अपनी आँखों से देखा कि मसीह-विरोधी कलीसिया के काम को बाधित कर रहा था और क्षति पहुँचा रहा था और फिर भी तुम पूरी तरह से उदासीन रहे और जरा भी प्रतिक्रिया नहीं की। किसी ने भी उसे उजागर नहीं किया या उसकी रिपोर्ट नहीं की—तुम सभी इस एक छोटी-सी जिम्मेदारी को भी निभाने में विफल रहे और तुम लोग अंतरात्मा और विवेक से एकदम रहित हो!” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने हमारे प्रावधान के लिए ये सभी सत्य व्यक्त किए हैं। मसीह-विरोधियों और झूठे अगुआओं को पहचानने के बारे में सत्यों पर उसकी संगति बहुत ही सूक्ष्म और व्यापक है। वह आशा करता है कि जब लोग परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालते हैं तो हम अपनी जिम्मेदारी निभाएँगे और कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए खड़े होंगे। अगर कोई परमेश्वर के घर का कार्य प्रभावित होते हुए देखता है और सचेत रूप से इसके बारे में नहीं जानता है, न ही उसके पास न्याय की भावना है और न वह इसे रोकने के लिए खड़ा होता है या उच्च स्तरों पर इसकी रिपोर्ट नहीं करता है, तो वह अंतरात्मा रहित एक मृत व्यक्ति है और उसके पास कोई गवाह नहीं है। परमेश्वर ने मेरी वास्तविक अवस्था को उजागर किया था। जब मैंने देखा कि ली ले कलीसिया के कार्य की शायद ही कभी जाँच कर रही थी और इससे काम पर असर पड़ रहा था, क्योंकि मैं आशंकित थी और हमारे रिश्ते को बर्बाद करने से डर रही थी, तो मैंने उसे यह बताने या उसे उच्च स्तरों पर रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं की। मैंने कलीसिया के कार्य की जरा भी सुरक्षा नहीं की और परमेश्वर ने वास्तव में मुझसे घृणा की। यह सोचकर मेरे हृदय में ग्लानि हुई और मैंने ली ले की स्थिति के बारे में उच्च स्तरीय अगुआओं को रिपोर्ट करने की इच्छा से अपना लैपटॉप खोला। लेकिन मुझे अभी भी आशंका थी और मैंने सोचा, “अगर मैं ली ले की समस्या की रिपोर्ट करती हूँ, तो उच्च-स्तरीय अगुआ निश्चित रूप से उसके साथ संगति करेंगे और उसे पता चल जाएगा कि मैनें ही अगुआओं से उसकी शिकायत की थी। फिर मेरे बारे में वह क्या सोचेगी? क्या वह सोचेगी कि मैंने उसकी पीठ पीछे उसकी कमियों को उजागर किया है? अगर वह मुझसे द्वेष रखने लगी तो हम भविष्य में साथ-साथ अपने कर्तव्य कैसे निभा पाएंगे?” जैसे ही मैंने यह सब सोचा, मैंने संदेश मिटा दिया। मैंने मन ही मन सोचा, “हर किसी की अवस्था कभी न कभी खराब होती है और हर किसी में कुछ न कुछ कमी होती है। दूसरों की छोटी-छोटी समस्याओं को पकड़कर उनकी रिपोर्ट न करना ही बेहतर है। कुछ समय बाद, शायद ली ले को अपनी समस्या का एहसास हो जाएगा और वह अपना रास्ता बदल लेगी। बेहतर होगा कि मैं उसकी रिपोर्ट न करूँ।”
कई दिनों बाद ली ले और मैं कार्य के क्रियान्वन के लिए एक सभा में गए और मैंने परमेश्वर के वचनों का वह अंश एक बार फिर पढ़ा : “परमेश्वर के घर ने तुम्हें इतने समय तक सींचा है और तुमने बहुत से धर्मोपदेश सुने हैं, और इसका परिणाम क्या रहा? कलीसिया में मसीह-विरोधी का प्रकट होना एक गंभीर समस्या है, लेकिन तुम लोगों को इसकी जानकारी ही नहीं है। यह दिखाता है कि तुम लोग बिल्कुल भी प्रगति नहीं कर पाए हो, कि तुम चेतनाशून्य और मंदबुद्धि हो, और तुम दैहिक भोग-विलास में लगे हो। तुम लोग मरे हुए लोगों का ढेर हो, जिसमें एक भी व्यक्ति जीवित नहीं है, एक भी ऐसा नहीं है जो सत्य का अनुसरण करता हो, ज्यादा से ज्यादा सिर्फ कुछ लोग श्रमिक हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। “मृत लोग” शब्दों को देखकर ऐसा लगा जैसे मेरे दिल में सुई चुभ गई हो। यह सोचकर कि मैं हमेशा सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ रही, मैंने अंदर ही अंदर ग्लानि महसूस की। मैंने अपने हृदय में एक मौन प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, कृपया कलीसिया के हितों की रक्षा करने और ली ले की समस्या को उसके सामने रखने में सक्षम होने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।” मेरी प्रार्थना करने के बाद, ली ले ने परमेश्वर के वचनों के आधार पर वास्तविक कार्य न करने की अपनी अभिव्यक्ति के बारे में संगति की। उसने कहा कि खासकर जब उसने देखा कि कलीसिया के कुछ अगुआ काफी अच्छी काबिलियत वाले हैं और वह काम संभालने में उनके जितनी अच्छी नहीं है तो उसे डर लगता था कि वे उसे नीची नजरों से देखेंगे। उसने कहा कि एक उपदेशक के रूप में उसकी कार्य क्षमताएँ कलीसिया के अगुआओं के बराबर नहीं हो सकतीं, इसलिए उसने उस कलीसिया के कार्य की बहुत ज्यादा जाँच नहीं की। ली ले को एहसास हो गया था कि काम की निगरानी न करना और खोज-खबर न रखना एक झूठे अगुआ की अभिव्यक्ति थी। अगर मैं उसकी समस्या के बारे में बताऊँ तो क्या यह उसके घावों पर नमक छिड़कना नहीं होगा? क्या वह सोचेगी कि मैं प्रेमहीन हूँ और उसकी भावनाओं का ख्याल नहीं रखती? इसलिए मैंने बस उसे थोड़ी सी याद दिलाने के अलावा कुछ नहीं किया। बाद में मैंने सोचा कि मेरे लिए ली ले की स्थिति को अगुआओं को बताना बेहतर होगा। इस तरह, अगुआ तुरंत उसके साथ संगति कर सकते थे और उसकी मदद कर सकते थे। इसलिए मैंने अगुआओं को कुछ ऐसी स्थितियों के बारे में बताया जो मैंने देखी थीं। अगुआओं द्वारा उसके साथ संगति करने और उसकी समस्या पर इशारा करने के बाद ली ले ने एक सभा के दौरान खुलकर बात की और कहा कि उसने झूठे अगुआओं को उजागर करने के परमेश्वर के वचनों को खाया-पिया है और पहचाना है कि उसने काम की जाँच या निगरानी नहीं की थी और उसने अपना काम अच्छी तरह से नहीं किया था। बाद में, ली ले ने कलीसिया के कार्य की जाँच अक्सर करने लगी, और उसने उन कारणों का विश्लेषण किया कि सुसमाचार का कार्य हमारे लिए परिणाम क्यों नहीं दे रहा है, इन समस्याओं को वास्तविक तरीके से हल करने की कोशिश की। जब मैंने देखा कि ली ले कुछ वास्तविक काम कर सकती है तो मैं बहुत खुश हुई।
बाद में मैंने आत्म-चिंतन करते हुए सोचा, “मैंने ली ले की समस्या का इशारा करने या अगुआओं को इसकी रिपोर्ट करने की हिम्मत क्यों नहीं की? आखिर इस मामले में मुझे क्या नियंत्रित कर रहा था?” खोज करते समय मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “सांसारिक आचरण के फलसफों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—उन्हें लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब किसी व्यक्ति को कोई भी धमका नहीं रहा होता, तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, एक दूसरे का शोषण कर रहे हैं और एक दूसरे को मात दे रहे हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। पहले मैं इस कहावत का काफी समर्थन करती थी, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” क्योंकि इस कहावत ने मुझे सिखाया कि दूसरों के साथ बात करते समय उनकी भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए। किसी को दूसरों के साथ बहुत कठोर नहीं होना चाहिए या उनकी कमियों को आलोचना नहीं करनी चाहिए। मैंने सोचा कि जो लोग इस तरह से कार्य कर सकते हैं, वे अच्छे लोग हैं, विवेक और नैतिकता वाले लोग हैं। परमेश्वर ने जो उजागर किया, उसे देखकर मैं आखिरकार समझ गई कि यह कहावत, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” सांसारिक आचरण का फलसफा था, और जो लोग इस तरह से जीते हैं वे बेहद धूर्त, धोखेबाज, स्वार्थी और नीच बन जाते हैं। सतह पर, ऐसा व्यवहार दूसरों के प्रति विचारशील लगता है, लेकिन वास्तव में इसके पीछे की प्रेरणा लोगों को नाराज न करना है। भले ही कोई किसी और की समस्याओं को देखता भी है तो वह उनका जिक्र नहीं करेगा, लोगों को खुश करने और अपने नातों-रिश्तों की रक्षा करने का काम करेगा। इस तरह के लोगों के साथ बातचीत करते समय भले ही दूसरों के साथ किसी के रिश्ते सतह पर बहुत अच्छे लग सकते हैं, लेकिन उनके बीच कोई ईमानदारी नहीं होती। वे एक-दूसरे की मदद नहीं कर रहे थे, बल्कि एक-दूसरे के इर्द-गिर्द सतर्क थे और एक-दूसरे का इस्तेमाल कर रहे थे। मैं सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जी रही थी कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” जब मैंने देखा कि ली ले इन दिनों कलीसिया के कार्य की जाँच और निगरानी शायद ही कभी कर रही थी, तो पहले मैं उसे बताना चाहती थी या अगुआओं को इसकी रिपोर्ट करना चाहती थी। हालाँकि, मैंने सोचा कि दूसरों की कमियों को आलोचना नहीं करनी चाहिए और ली ले ने खुद कहा था कि कार्य उसके लिए थोड़ा कठिन था, इसलिए अगर मैं उल्लेख करती कि वह काम की जाँच या निगरानी नहीं कर रही थी तो क्या मैं उससे बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं करूँगी? मैंने बहाना बनाया कि हर व्यक्ति की कभी-कभी बुरी अवस्था होती है और उसकी अपनी कमियाँ होती हैं और चुप रहने का फैसला किया। जब मैंने सुना कि ली ले ने खुलकर बात की और पहचाना कि उसने काम की जाँच नहीं की थी, तो मैं डर गई कि अगर अब मैं उसकी समस्या उसे बताऊँ तो यह उसके जख्मों को कुरेदने जैसा होगा, इसलिए मैंने बस कुछ अर्थहीन शब्द कहे। सतह पर, मैं ली ले के प्रति विचारशील लगती थी लेकिन मेरी घृणित प्रेरणा पृष्ठभूमि में छिपी हुई थी। मुझे डर था कि वह कहेगी कि मैं उससे बहुत ज्यादा अपेक्षा या उसकी शिकायत और उसकी कमियों की आलोचना कर रही थी। अगर मैंने इस मामले में उसे नाराज किया तो वह मुझसे द्वेष रखेगी और भविष्य में मुझसे अच्छा व्यवहार नहीं करेगी और हम अभी की तरह शांति और खुशी के साथ काम नहीं कर पाएँगे। उसके साथ अपने रिश्ते को सुरक्षित रखने के लिए मैंने कई बार सत्य का अभ्यास नहीं किया। ऊपरी तौर पर, ऐसा लगता था कि ली ले और मेरी खूब बनती थी, हम अच्छी दोस्त थे, जो एक-दूसरे से कुछ नहीं छिपाते थे, लेकिन मैं उसके प्रति बिल्कुल भी ईमानदार या प्यार करने वाली नहीं थी। मैंने सोचा कि जब मैं बुरी अवस्था में थी तो ली ले अक्सर मेरे साथ संगति करती थी और मेरी मदद करती थी और जब वह देखती थी कि मुझे कोई समस्या है तो वह मुझे बताती थी ताकि मैं उसे पहचान सकूँ और अपना रास्ता बदल सकूँ, लेकिन दुश्मनी न करने के लिए मैं बेरहमी से देखती रही कि ली ले अपने भ्रष्ट स्वभाव में जी रही है लेकिन उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, यह सब उसके प्रति विचारशील होने के बहाने किया। ली ले अपनी समस्या नहीं पहचान पाई और अपनी अवस्था तुरंत पलट नहीं पाई। उसके जीवन प्रवेश को नुकसान हुआ और कलीसिया का कार्य प्रभावित हुआ। मैं वास्तव में बहुत स्वार्थी और नीच थी! मैं किसी भी तरह से उसके प्रति विचारशील नहीं थी; मैं स्पष्टता से उसे गड्ढे में गिरते हुए देख रही थी और उसे वापस ऊपर नहीं खींच रही थी। क्या मैं लोगों को खुश करने वाली, एक दुष्ट हृदय वाली इंसान नहीं थी? इस पर विचार करते हुए मुझे अंततः शैतानी दर्शन के बारे में कुछ समझ मिली कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” शैतान ने सांसारिक आचरण के इन फलसफों का इस्तेमाल मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए किया और लोगों को एक-दूसरे के प्रति सावधान रहने और एक-दूसरे का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर किया, जिससे वे अधिक से अधिक स्वार्थी, उदासीन और मानवता रहित होते गए। अगर मैं इस नैतिक संहिता के अनुसार जीना जारी रखती तो मैं और अधिक धोखेबाज बन जाती।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा और समझा कि लोगों की कमियाँ की आलोचना करने और मदद करने का क्या मतलब है। परमेश्वर कहते हैं : “‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ कहावत में ‘आलोचना करना’ वाक्यांश अच्छा है या बुरा? क्या ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का वह स्तर है, जिसे यह परमेश्वर के वचनों में लोगों के प्रकट या उजागर होने को संदर्भित करता है? (नहीं।) मेरी समझ से ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का, जिस रूप में यह इंसानी भाषा में मौजूद है, यह अर्थ नहीं है। इसका सार उजागर करने के एक दुर्भावनापूर्ण रूप का है : इसका अर्थ है लोगों की समस्याएँ और कमियाँ, या कुछ ऐसी चीजें और व्यवहार जो दूसरों को ज्ञात नहीं हैं, या पृष्ठभूमि में चल रहे षड्यंत्रकारी विचार या दृष्टिकोण प्रकट करना। ‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ कहावत में ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का यही अर्थ है। अगर दो लोगों में अच्छी बनती है और वे विश्वासपात्र हैं, उनके बीच कोई बाधा नहीं है और उनमें से प्रत्येक को दूसरे के लिए फायदेमंद और मददगार होने की आशा है, तो उनके लिए सबसे अच्छा होगा यही कि वे एक-साथ बैठें, खुलेपन और ईमानदारी से एक-दूसरे की समस्याएँ सामने रखें। यह उचित है और यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचनों ने चीजों के प्रति मेरे गलत दृष्टिकोण को उलट दिया। “अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना करो” का “उनकी कमियों की आलोचना मत करो” वाला हिस्सा अन्य लोगों की समस्याओं और कमियों को द्वेषपूर्ण रूप से उजागर करना है। इसका उद्देश्य लोगों की मदद करना नहीं है, इसके बजाय इसके पीछे कुछ कपटी इरादे हैं। यह अपने अवर्णनीय लक्ष्यों को पाने के लिए है और इस तरह से कार्य करने का मतलब केवल लोगों पर हमला करना और उन्हें पीड़ा पहुँचाना होगा। यह लोगों के लिए बिल्कुल भी शिक्षाप्रद या लाभकारी नहीं है। इस बीच परमेश्वर जिस “उजागर करने” की बात करता है, वह एक सकारात्मक बात है। इसका मतलब है किसी की समस्या देखना और ईमानदारी से उनकी मदद करना और उन्हें समस्या की प्रकृति पहचानने और उसे तुरंत उलटने में सक्षम बनाना है। इस तरह से लोगों को उजागर करना उनके लिए फायदेमंद है और यह लोगों की कमियों की आलोचना करना नहीं है। जब मैंने देखा कि ली ले की समस्या पहले से ही कार्य को प्रभावित कर रही थी तो उसे समस्या का ध्यान दिलाने से इसे पहचानने और अपना रास्ता बदलने में मदद मिलती और वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कर पाती। अगुआओं को इसकी सूचना देने का उद्देश्य अगुआओं को ली ले की स्थिति को समझने में मदद करना था और तुरंत उसे अपना रास्ता बदलने में मदद करना था ताकि कलीसिया का कार्य प्रभावित न हो। यह सत्य का अभ्यास करना और भाई-बहनों की मदद करना था। यह लोगों की कमियों की आलोचना करना नहीं था, किसी की पीठ पीछे उसकी बुराई करना तो दूर की बात है। यह एक सकारात्मक बात थी। अगर कोई सत्य स्वीकारता है तो जब अन्य लोग उसकी समस्याओं को उजागर करते हैं तो वह आत्मचिंतन करने, उन्हें पहचानने और तुरंत अपना मार्ग बदलने में सक्षम हो जाता है। यह उसके अपने जीवन प्रवेश और कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद है। यह ली ले के समान है, जो अगुआओं द्वारा उसकी समस्या पर ध्यान दिलाने और उसकी मदद करने से आत्मचिंतन करने और स्वयं को जानने का प्रयास करने में सक्षम हुई और कर्तव्य के प्रति अपना रवैया तुरंत बदल पाई। सुसमाचार के कार्य में समस्याओं का सामना करने पर उसने हमारे साथ चर्चा की और समाधान की तलाश की और संगति के बाद उसके पास अभ्यास करने का कुछ रास्ता था। मैंने देखा कि किसी की समस्या बताना और उसे उजागर करना उनके प्रति कठोर होना नहीं था, किसी से कठोर अपेक्षाएं रखने का मतलब था उसके आध्यात्मिक कद या काबिलियत पर विचार न करना और यह न देखना कि उसने अच्छा प्रदर्शन करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है या नहीं, बल्कि जैसे ही उसकी कमियाँ या कमजोरियाँ दिखाई देने लगें, उससे लगातार अपेक्षाएं रखना। दूसरों में इतनी ज्यादा बुराईयाँ और दोष ढूँढने से लोगों को बेबस करना और यहाँ तक कि उन्हें नकारात्मक बनाना आसान हो जाता है। इस बीच एक अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में कलीसिया के कार्य की निगरानी और जाँच करना ली ले का काम था। इसके अलावा उसके पास कुछ काबिलियत भी थी और भले ही वह सुसमाचार-प्रचार के काम से अपरिचित थी, जब तक वह लगन से अध्ययन करती, वह कुछ सिद्धांतों में महारत हासिल कर सकती थी या समूह में भाई-बहनों से साझेदारी करके कुछ समस्याओं को सुलझाने में सक्षम हो सकती थी। वह अपने भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी और वास्तविक काम नहीं कर रही थी, इसलिए मेरा उसकी समस्या बताना और उसकी रिपोर्ट करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सामान्य निगरानी थी, लेकिन इसके बजाय, मैंने भ्रामक रूप से यह मान लिया कि मैं उसके प्रति बहुत कठोर हो रही थी। चीजों पर इस तरह का नजरिया वाकई बहुत बेतुका था!
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, और मुझे इसकी मूल वजह समझ आई कि मैंने सत्य का अभ्यास क्यों नहीं किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे राक्षसी लोगों या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा बेबस होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है कपटी स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक कपटी स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, ‘परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।’ ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन बुरे लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। तुम यह भी सोचोगे कि कलीसिया के कार्य में कोई भी बाधाएँ डाले तो इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति बनाता है जिसमें जमीर और विवेक नहीं है, एक छद्म-विश्वासी बनाता है, मजदूर बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, इंसान से ज्यादा राक्षस जैसे हो, और स्पष्ट रूप से छद्म-विश्वासियों में से एक हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वास्तविक स्थिति को उजागर कर दिया। मैंने देखा कि मेरे पास सत्य नहीं था कि मैं एक धोखेबाज और स्वार्थी शैतानी स्वभाव के अनुसार जी रही थी। जब मेरे साथ कुछ हुआ तो मैंने केवल अपने हितों के बारे में सोचा और कलीसिया के कार्य की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की। मैंने स्पष्टता से देखा था कि ली ले को अपना कर्तव्य निभाते समय कोई बोझ महसूस नहीं होता था, वह शायद ही कभी काम की जाँच और निगरानी करती थी और इससे कलीसिया के कार्य की सामान्य प्रगति पहले ही प्रभावित हो चुकी थी। अगर मेरे पास मानवता और अंतरात्मा होती, तो मैं तुरंत ली ले को यह बताती और उच्च स्तर पर इसकी सूचना देती, लेकिन उसके साथ अपना रिश्ता सुरक्षित रखने के लिए जब भी ये शब्द मेरी जुबान पर आते, मैं चुप रहने के लिए बहाना बनाती कि “अगुआ अक्सर ली ले से मिलते हैं, इसलिए अगर मैं कुछ नहीं भी कहती तो भी वे उसकी अवस्था समझ लेंगे” जब मैंने ली ले की समस्या के बारे में उच्च-स्तरीय अगुआओं को बताना चाहा तो मुझे उसे नाराज करने का डर था और मैंने एक और बड़ा बहाना बनाते हुए कहा, “हर किसी की कभी-कभी बुरी अवस्था होती है और किसी को दूसरों से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।” मैं सत्य का अभ्यास न करने के लिए चीजें गढ़ रही थी। मैं वास्तव में बहुत धोखेबाज, बहुत चालाक थी! मैंने परमेश्वर के बहुत से वचनों के प्रावधान और चरवाही का आनन्द लिया था; अगर मुझमें अभी भी थोड़ी मानवता और अंतरात्मा होती तो जब मैंने देखा कि कलीसिया के कार्य को नुकसान हो रहा है तो मुझे खड़ा होना चाहिए था और उसकी सुरक्षा के लिए जो कुछ भी कर सकती थी, वह करना चाहिए था। अगर मैं ली ले की समस्या का तुरंत उल्लेख कर पाती तो वह थोड़ा पहले ही पहचान पाती और अपना रास्ता बदल पाती, और काम इतने लंबे समय तक रुका नहीं रहता। ये सब स्वार्थी और नीच होने और सत्य का अभ्यास न करने के परिणाम थे। इसके अलावा पहले मैं हमेशा मानती थी कि ली ले की समस्या का ध्यान दिलाना उच्च-स्तरीय अगुआओं का मामला था। मेरा यह दृष्टिकोण भी गलत था। कलीसिया के कार्य की सुरक्षा करना परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से प्रत्येक की जिम्मेदारी है। परमेश्वर के घर के सदस्य के रूप में मैं अगुआओं और कार्यकर्ताओं के काम की निगरानी के लिए जिम्मेदार हूँ और जब मैं अगुआओं या कार्यकर्ताओं को कुछ ऐसा करते देखती हूँ जो सिद्धांतों के खिलाफ जाता है या कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद नहीं है, तो मुझे इस ओर इशारा करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यह बात समझते हुए मैं अब अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीना नहीं चाहती थी और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मार्गदर्शन माँगा कि मैं अभ्यास का मार्ग खोज सकूँ।
मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, जिनमें कहा गया था : “अगर यह ऐसा क्रियाकलाप है जो सिद्धांतों से मेल खाता है, तो तुम्हारे इसे करने से भले ही लोग नाराज हों या पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना हो, यह मायने नहीं रखता है; लेकिन अगर यह ऐसा क्रियाकलाप है जो सिद्धांतों से मेल नहीं खाता, तो उसे करने से भले ही तुम्हें सबकी स्वीकृति और समर्थन मिल जाए और तुम सबके साथ मिल-जुलकर रह लो—परंतु एक बात तय है कि तुम परमेश्वर के सामने इसका हिसाब नहीं दे सकते—तुम्हें नुकसान हो चुका है। अगर तुम अधिसंख्य लोगों के साथ रिश्ते बनाकर रखते हो, उन्हें खुश और संतुष्ट रखते हो और उनकी प्रशंसा पाते हो, मगर तुम परमेश्वर, सृष्टिकर्ता का अपमान करते हो तो तुम महामूर्ख हो। इसलिए तुम जो भी करो, तुम्हें स्पष्ट समझना चाहिए कि क्या यह सिद्धांतों से मेल खाता है, क्या इससे परमेश्वर खुश होता है, इसके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है, लोगों को क्या रुख अपनाना चाहिए, लोगों को किन सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए, परमेश्वर ने किस प्रकार निर्देश दिए हैं और तुम्हें यह कैसे करना चाहिए—तुम्हें पहले इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (24))। “अगर तुम्हारे पास एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाओगे, तुम हमेशा असफल होकर नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते, तो तुम छद्म-विश्वासी हो और कभी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि वह तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, और तुम्हें सिद्धांतों का पालन करने में समर्थ बनाए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार संभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों को, अपने अभिमान और एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने के दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए, तो तुम शैतान को हरा चुके होगे, और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास करने का मार्ग दिया। मेरे साथ जो भी हुआ, उसमें मुझे सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का तरीका खोजना था। किसी को नाराज करने के डर से मैं ऐसा नहीं कर सकती कि सत्य का अभ्यास न करूँ या उसकी समस्याओं को उजागर न करूँ। अगर मैंने ऐसा किया तो भले ही उसके साथ मेरा रिश्ता अच्छी तरह से बना रहे, पर यह सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाना होगा यह कुछ ऐसा था जो परमेश्वर को नाराज करता था। परमेश्वर शुद्ध और ईमानदार लोगों से प्यार करता है जो यह देखकर कि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँच रहा है, अपने हितों पर विचार किए बिना कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में सक्षम होते हैं। यह सब पहचान कर मैंने मन ही मन संकल्प लिया कि भविष्य में जब भी मुझे ऐसा कुछ दिखाई देगा जिससे कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचे तो मैं खुद को बचाने के लिए कायरता नहीं दिखाऊँगी। भले ही दूसरा व्यक्ति मेरी बताई बात को न स्वीकारे, मुझसे अच्छा व्यवहार न करे या इसके कारण मेरे प्रति पक्षपाती हो जाए, मुझे इससे बेबस नहीं होना चाहिए। मेरी प्रेरणा दूसरों की मदद करना और कलीसिया के हितों की रक्षा करना थी। यह एक सकारात्मक बात थी और मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव से बेबस नहीं होना चाहिए। अगर हम हमेशा अपने हितों के बारे में सोचते रहें तो हम अपने भ्रष्ट स्वभाव पर काबू नहीं कर सकते; इसलिए हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उस पर भरोसा करना चाहिए, उससे हमें और अधिक आस्था और ताकत देने के लिए कहना चाहिए ताकि हम अपने व्यक्तिगत हितों को छोड़ सकें, ईमानदार बन सकें और अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकें। सिर्फ इसी तरह से हमें उद्धार की आशा हो सकती है।
बाद में मैंने सचेत रूप से एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास किया। एक समय ऐसा भी था जब शेन किंग, एक बहन जिसके साथ मैं भागीदार थी, शायद ही कभी सिंचन के काम की जाँच करती थी। एक सिंचक व्यक्तिगत कारणों से दो सप्ताह से नए लोगों के सिंचन के लिए नहीं गया था और शेन किंग इसके बारे में नहीं जानती थी। मैंने सोचा कि शेन किंग सिंचन के काम का पर्यवेक्षण कर रही थी और उसे सिंचकों की वर्तमान कार्य स्थितियों की जानकारी होनी चाहिए और सिंचन के काम से जुड़ी समस्याओं का तुरंत समाधान करना चाहिए। मुझे शेन किंग को उसकी समस्याओं के बारे में बताना था ताकि वह उन्हें पहचान सके और जल्द से जल्द अपना रास्ता बदल सके, ताकि नए लोगों के सिंचन में कोई बाधा न आए। लेकिन फिर मैंने सोचा कि अगर मैं एक-एक करके ये समस्याएँ बताऊँगी तो क्या शेन किंग इसे स्वीकार नहीं कर पाएगी? वह आमतौर पर कुछ काम करती थी, शायद इसलिए उसकी जांच समय पर नहीं हुई थी और इसके बाद वह अपना रास्ता बदल लेगी। मुझे एहसास हुआ कि एक बार फिर मैं दूसरों के साथ अपने रिश्तों को सुरक्षित रखना चाहती थी। मैंने परमेश्वर के उन वचनों के बारे में सोचा जो मैंने पहले पढ़े थे : “अगर तुम अपने स्वार्थों को, अपने अभिमान और एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने के दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए, तो तुम शैतान को हरा चुके होगे, और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है। अब जब मैंने शेन किंग की समस्या को देखा है तो मुझे उसे बताना चाहिए। यह कलीसिया के कार्य की सुरक्षा के लिए था और इसमें कोई दुर्भावना नहीं थी। भले ही उसने इसे न स्वीकारे और मुझसे अच्छा व्यवहार न करे, मुझे अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का पछतावा नहीं होगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे सत्य का अभ्यास करने के लिए मुझे और अधिक ताकत देने के लिए कहा। प्रार्थना करने के बाद मैंने शेन किंग को सभी समस्याओं के बारे में बताया और पहले तो उसने इन्हें स्वीकार नहीं किया, मेरे साथ बहस की और अपना बचाव किया, इसलिए मैंने उसे परमेश्वर के वचनों के आधार पर वास्तविक कार्य न करने की उसकी अभिव्यक्तियों के बारे में बताया और काम की जाँच करने के मार्ग के बारे में उसके साथ संगति की। अगले दिन शेन किंग ने खुलकर कहा कि मेरे उसकी समस्या पर ध्यान दिलाने से अंततः उसे एहसास हुआ कि वह अपना कर्तव्य अनमने ढंगे से निभा रही थी और वह अपना रास्ता बदलने को तैयार थी। इसके बाद शेन किंग अपने कर्तव्य का पालन करते समय काफी सक्रिय हो गई और उसने सिंचकों के काम की बारीकी से जाँच शुरू की। शेन किंग को अपना रास्ता बदलते देखकर मैं बहुत खुश थी। मैंने आखिरकार सत्य का अभ्यास किया। आगे बढ़ते हुए मैं एक सच्ची अच्छी इंसान बनने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने और अभ्यास करने के लिए तैयार हूँ।