11. मेरी बेटी की गिरफ्तारी ने मुझे बेनकाब किया

लिन झी, चीन

14 अक्टूबर 2023 की शाम को एक बहन ने मुझे बताया कि शिंगुआंग कलीसिया की एक अगुआ को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। जब मैंने यह सुना तो मैं चौंक गई और सोचा, “ओह नहीं! कहीं यह मेरी बेटी तो नहीं है?” मैंने जल्दी से वह पत्र खोला जो मुझे दिया गया था, उसमें लिखा था, “मिन जिंग को गिरफ्तार कर लिया गया है ...” अचानक मेरे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई और मैंने सोचा, “मेरी बेटी को गिरफ्तार कर लिया गया है! वे पुलिसवाले बहुत बुरे और नीच हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जो वे विश्वासियों के बर्बरतापूर्ण उत्पीड़न में नहीं करेंगे। वह इसे कैसे सहेगी? मेरी बेटी मेरा अपना माँस और खून है। मैं उसे ऐसे कैसे कष्ट सहने दे सकती हूँ?” ऐसा लगा मानो मेरे दिल में खंजर घोंप दिया गया हो और मैं चाहती थी कि काश मैं अपनी बेटी की जगह पर वह कष्ट झेल पाती। मुझे बहुत चिंता हुई क्योंकि अगर पुलिस को पता चल गया कि मेरी बेटी एक अगुआ है तो वे पक्का उस पर कलीसिया के बारे में विवरण का खुलासा करने के लिए दबाव डालेंगे। मुझे चिंता थी कि अगर उसने ये विवरण नहीं बताए तो कहीं पुलिस उसे पीट-पीटकर अपंग न बना दे। अगर वह इतनी कम उम्र में अपंग हो गई तो वह आगे कैसे जिएगी? अगर उसे पीट-पीटकर मार दिया गया तो मैं अपनी बेटी को हमेशा के लिए खो दूँगी। मेरी बेटी सिर्फ दो साल से सभाओं में जा रही थी और अभी भी बहुत से सत्य नहीं समझती थी। परमेश्वर ने पुलिस को उसे गिरफ्तार करने की अनुमति कैसे दे दी? और तो और, मेरी बेटी ने अपना करियर और शादी तक छोड़ दी थी और अपना सारा समय परमेश्वर के लिए खपा दिया था। परमेश्वर ने उसकी रक्षा क्यों नहीं की? क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? मैं परमेश्वर के खिलाफ शिकायत करने लगी और जितना ज्यादा मैंने इस पूरे मामले के बारे में सोचा, उतनी ही ज्यादा परेशान होती गई। मेरी आँखों से आँसू थम नहीं रहे थे। मैं अपनी अवस्था सुधारने के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ना चाहती थी, लेकिन ऐसा कर नहीं पाई। मैंने उन दो बहनों के बारे में सोचा, जिनके साथ मैंने पहले साझेदारी की थी, जिनकी गिरफ्तारी के बाद उन पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को धोखा देने के लिए दबाव डाला गया, जबरन बुद्धि भ्रष्ट की गई और आखिरकार उन्होंने परमेश्वर को धोखा दिया और यहूदा बन गईं। मुझे यकीन था कि पुलिस मेरी बेटी पर भी कलीसिया को धोखा देने के लिए दबाव बनाएगी और अगर उसकी बुद्धि भी भ्रष्ट कर दी और वह गुमराह होकर यहूदा की तरह काम करने लगी तो वह पूरी तरह से उद्धार का मौका गँवा देगी! यह सोचकर मैं अपने दिल में शिकायत करने से खुद को नहीं रोक पाई, “परमेश्वर ने मेरी बेटी की रक्षा क्यों नहीं की? उसने उस पर ऐसी स्थिति क्यों आने दी?” मैंने अपनी बेटी की मेजबान बहन को भी उतना सतर्क न रहने और यह न समझ पाने के लिए दोषी ठहराया कि स्थिति इतनी खतरनाक हो गई थी और समय रहते उसने मेरी बेटी को दूसरे मेजबान के घर में स्थानांतरित नहीं किया था। उसके बाद कई दिनों तक मेरी अवस्था बहुत बुरी रही—मैं न तो खा पा रही थी, न सो पा रही थी, न ही अपने कर्तव्य पर ध्यान दे पा रही थी और जब मेरी साझेदार बहन ने मेरे साथ परमेश्वर के वचनों की संगति की तो भी मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया। मैं अपनी कल्पना को बेकाबू होने से नहीं रोक पाई। मुझे पता था कि अगर मैं इसी तरह चलती रही तो मैं अपने कर्तव्य में देरी करूँगी और मेरा जीवन कष्ट में रहेगा इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! जब से मेरी बेटी गिरफ्तार हुई है, मैं बहुत नकारात्मक और कमजोर हो गई हूँ और यहाँ तक कि मैंने तुम्हारे खिलाफ शिकायत भी की और तुम्हें गलत समझा। मुझे नहीं पता कि मुझे इस स्थिति से क्या सबक सीखना चाहिए। अपना इरादा समझने में मेरा मार्गदर्शन करो।”

उसके बाद मेरी साझेदार बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर सुनाया : “लोगों को बार-बार यह जांच करनी चाहिए कि उनके दिल में कुछ ऐसा तो नहीं है जो परमेश्वर के साथ असंगत है या उसके बारे में गलतफहमी है। गलतफहमियां कैसे पैदा होती हैं? लोग परमेश्वर को गलत क्यों समझ लेते हैं? (क्योंकि उनका स्वार्थ प्रभावित होता है।) यहूदियों के यहूदिया से निर्वासन के तथ्य देखने के बाद लोग आहत महसूस करते हैं और कहते हैं, ‘पहले तो परमेश्वर ने इस्राइलियों से इतना प्यार किया। उसने मिस्र से बाहर जाने और लाल सागर पार करने में उनकी अगुआई की, उन्हें खाने के लिए स्वर्ग का मन्ना और पीने के लिए झरने का जल दिया, फिर उनकी अगुआई करने के लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से विधि-विधान दिए और उन्हें जीना सिखाया। मनुष्य के प्रति परमेश्वर का प्रेम उमड़ रहा था—उस समय जो लोग जी रहे थे, वे कितने धन्य थे! पलक झपकते ही परमेश्वर के रवैये में 180 डिग्री बदलाव कैसे आ गया? उसका सारा प्रेम कहां चला गया?’ लोगों की भावनाएं इससे आगे नहीं जा सकतीं, और वे संदेह करते हुए कहते हैं, ‘परमेश्वर प्रेम है या नहीं है? इस्राइलियों के प्रति उसका मूल रवैया अब क्यों नहीं दिखता? उसका प्रेम बिना कोई नामो-निशान छोड़े लुप्त हो गया है। उसमें कोई प्रेम है भी या नहीं?’ यहीं से लोगों की गलतफहमी शुरू होती है। लोगों में गलतफहमियां पनपने का संदर्भ क्या है? क्या इसका कारण यह है कि परमेश्वर के कार्य लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के साथ संगत नहीं हैं? क्या यही तथ्य लोगों में परमेश्वर के प्रति गलतफहमी पैदा करता है? क्या लोगों के परमेश्वर को गलत समझने का कारण यह नहीं है कि वे परमेश्वर के प्रेम की सीमित परिभाषा करते हैं? वे सोचते हैं, ‘परमेश्वर प्रेम है। इसलिए, उसे लोगों की देखभाल और सुरक्षा करनी चाहिए और उन्हें अनुग्रह और आशीषों से नवाजना चाहिए। यही परमेश्वर का प्रेम है! जब परमेश्वर इस तरह लोगों से प्रेम करता है, तो मुझे अच्छा लगता है। परमेश्वर लोगों से कितना प्रेम करता है, यह मैं खास तौर से उस समय देख पाया जब उसने उन्हें लाल सागर पार करवाया। उस समय के लोग कितने धन्य थे! काश, मैं भी उनमें से एक होता।’ जब तुम इस कहानी पर मुग्ध होते हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा उस पल प्रकट किए गए प्रेम को उच्चतम सत्य और उसके सार का एकमात्र चिह्न मान लेते हो। तुम अपने दिल में परमेश्वर की परिभाषा सीमित कर देते हो, और परमेश्वर द्वारा उस पल किए गए हर कार्य को उच्चतम सत्य मान लेते हो। तुम्हें लगता है कि यह परमेश्वर का सबसे प्यारा पक्ष है, और यह वह पक्ष है जो लोगों को उसका आदर करने और भय मानने के लिए सबसे ज्यादा बाध्य करता है, और यही परमेश्वर का प्रेम है। असलियत में, परमेश्वर के कार्य अपने-आपमें सकारात्मक थे, पर तुम्हारी सीमित परिभाषाओं के कारण वे तुम्हारे दिमाग में धारणाएं बन गए, और वह आधार बन गए जिस पर तुम परमेश्वर को परिभाषित करते हो। उनकी वजह से तुम परमेश्वर के प्रेम को गलत समझते हो, मानो उसमें दया, देखभाल, सूरक्षा, मार्गदर्शन, अनुग्रह और आशीषों के अलावा कुछ न हो—मानो परमेश्वर का प्रेम बस यही हो। तुम प्रेम के इन पहलुओं को इतना ज्यादा क्यों सँजोते हो? क्या इसका कारण यह है कि यह तुम्हारे स्वार्थ से जुड़ा है? (हां, यही कारण है।) यह किस स्वार्थ से जुड़ा है? (दैहिक सुखों और सुविधाजनक जीवन से।) जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं तो वे उससे ये ही चीजें प्राप्त करना चाहते हैं, दूसरी चीजें नहीं। लोग न्याय, ताड़ना, परीक्षणों, शोधन और परमेश्वर के लिए कष्ट उठाने, चीजें त्यागने और खुद को खपाने, यहाँ तक कि अपने जीवन का उत्सर्ग करने के बारे में भी सोचना नहीं चाहते। लोग सिर्फ परमेश्वर के प्रेम, देखभाल, सुरक्षा, और मार्गदर्शन का आनंद लेना चाहते हैं, इसलिए वे परमेश्वर के प्रेम को उसके सार की एकमात्र विशेषता और उसके एकमात्र सार के रूप में परिभाषित करते हैं। क्या इस्राइलियों को लाल सागर पार करवाते हुए परमेश्वर ने जो चीजें कीं, वे लोगों की धारणाओं का स्रोत नहीं बन गईं? (हां, बन गईं।) इससे एक ऐसा संदर्भ बन गया, जिसमें लोगों ने परमेश्वर के बारे में धारणाएं बना लीं। अगर उन्होंने परमेश्वर के बारे में धारणाएं बना लीं, तो क्या वे परमेश्वर के कार्य और स्वभाव की सच्ची समझ हासिल कर सकते हैं? स्पष्ट है कि न सिर्फ वे उसे नहीं समझेंगे, बल्कि उसकी गलत व्याख्या भी करेंगे और उसके बारे में धारणाएं बना लेंगे। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की समझ बहुत संकुचित है और वह सच्ची समझ नहीं है। क्योंकि यह सत्य नहीं है, बल्कि एक तरह का प्रेम और समझ है जिसका लोग अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के आधार पर परमेश्वर के प्रेम और समझ के रूप में विश्लेषण और व्याख्या करते हैं; यह परमेश्वर के सच्चे सार के अनुरूप नहीं है। दया, उद्धार, देखभाल, सुरक्षा और लोगों की प्रार्थनाएं सुनने के अलावा और किन तरीकों से परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है? (दंड, अनुशासन, काट-छांट, न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन से।) सही कहा। परमेश्वर प्रचुर तरीकों से अपना प्रेम प्रदर्शित करता है : प्रहार करके, अनुशासित करके, तिरस्कृत करके, और न्याय, ताड़ना, परीक्षणों, शोधन इत्यादि से। ये सभी परमेश्वर के प्रेम के पहलू हैं। सिर्फ यही परिप्रेक्ष्य व्यापक और सत्य के अनुरूप है। अगर तुम इसे समझते हो, तो जब तुम अपनी जांच करके यह पाते हो कि तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियां हैं, तब क्या तुम अपनी गलतियां पहचानने और यह चिंतन करके कि तुमसे कहां गलती हुई है, एक अच्छा काम करने में सक्षम नहीं होते? क्या यह परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमियां दूर करने में मदद नहीं कर सकता? (हां, कर सकता है।) ऐसा करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना चाहिए। अगर लोग सत्य खोजते हैं, तो वे परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियां दूर कर सकते हैं, और जब वे परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियां दूर कर लेते हैं, तब वे परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के आगे समर्पण कर सकते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर के बारे में गलतफहमी की अवस्था में जी रही थी क्योंकि मैंने परमेश्वर का प्रेम सीमित कर दिया था। अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में, मुझे विश्वास था कि परमेश्वर के प्रेम में दया, प्रेमपूर्ण दयालुता, सुरक्षा और आशीष शामिल हैं। उत्पीड़न, कठिनाई, परीक्षण और शोधन मेरी धारणा के अनुकूल नहीं थे और मेरा मानना था कि वे परमेश्वर का प्रेम नहीं थे, इसलिए मेरी बेटी के गिरफ्तार होने के बाद मैंने परमेश्वर के खिलाफ शिकायत की और उसे गलत समझा और उसके द्वारा आयोजित स्थिति के प्रति समर्पित नहीं हुई। मैंने आत्म-चिंतन किया कि कैसे अतीत में मुझे घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था क्योंकि पुलिस मेरे पीछे पड़ी थी। उस समय मेरी बेटी अभी बहुत छोटी ही थी और वह परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में सेहतमंद रहते हुए बड़ी हो पाई थी। मैंने सोचा कि परमेश्वर का प्रेम इसी में निहित है। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मेरी बेटी ने कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया। मैंने सोचा कि चूँकि हमारा पूरा परिवार परमेश्वर के लिए खुद को खपा रहा है तो हमें जरूर अच्छे परिणाम और गंतव्य मिलेंगे, इसलिए मेरी सोच और दृढ़ हो गई कि यही परमेश्वर का प्यार है और अपने दिल में परमेश्वर का धन्यवाद किया। अब मेरी बेटी को गिरफ्तार कर लिया गया था और इस बात के बहुत आसार थे कि उसे प्रताड़ित किया जाएगा। अगर वह इस उत्पीड़न का सामना नहीं कर पाई और यहूदा बन गई तो वह उद्धार पाने का अपना मौका गँवा देगी। इससे मेरे मन में परमेश्वर के प्रेम के प्रति सवाल उठने लगे, बेटी की रक्षा न करने के लिए मैंने परमेश्वर को दोष दिया और अपने दिल में उसके बारे में गलतफहमी पाल ली। परमेश्वर के प्रेम के प्रति मेरी धारणा पूरी तरह से इस बात पर आधारित थी कि मेरे लिए क्या अनुकूल था। अगर परमेश्वर यह सुनिश्चित करता कि मेरे परिवार के लिए सब कुछ सुचारु रूप से और शांतिपूर्वक चले और परिणाम मेरे परिवार के अनुकूल हों तो मैं कहती कि परमेश्वर प्रेम है। लेकिन जब परिस्थितियाँ मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं होतीं और मेरे परिवार के अनुकूल नहीं होतीं तो मैं परमेश्वर का प्रेम नकार देती। मैंने सोचा कि परमेश्वर के प्रेम में दया, प्रेमपूर्ण दयालुता, सुरक्षा और आशीष शामिल हैं, लेकिन यह मेरी धारणा और कल्पना थी और सत्य के अनुरूप नहीं थी। परमेश्वर के प्रेम में सिर्फ दया और प्रेमपूर्ण दयालुता ही नहीं है, इसमें न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन भी शामिल हैं। मेरी बेटी की गिरफ्तारी बुरी बात लग सकती थी, लेकिन अगर वह सत्य की खोज कर पाई और अपनी गवाही में अडिग रही तो उसकी आस्था और पीड़ा सहने की इच्छा पूर्ण हो जाएगी। यह वाकई मेरी बेटी के लिए अच्छी बात होगी। इतना ही नहीं, मेरी बेटी की गिरफ्तारी ने परमेश्वर की मेरी धारणाएँ, कल्पनाएँ और अनुचित माँगें बेनकाब करने में मदद की, जिससे मुझे अपनी भ्रष्टता और अशुद्धियों पर आत्म-चिंतन करने का मौका मिला। मैंने यह भी समझा कि किसी को अपनी आस्था में अनुग्रह और आशीष नहीं खोजने चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए : परमेश्वर के कार्य और वचनों का अनुभव करना, सत्य पाना, भ्रष्टता उतार फेंकना और स्वभावगत परिवर्तन पाना। मैंने देखा कि परमेश्वर चाहे जो भी करे, यह हमेशा उसके उद्धार और प्रेम की अभिव्यक्ति है।

इसके बाद मैंने अपने मुद्दे के संबंध में खोज जारी रखी। जब मेरी बेटी को गिरफ्तार किया गया तो मैं लगातार अपने दिल में परमेश्वर से माँग करती रही और उसके खिलाफ शिकायत करती रही—मेरी समस्या की प्रकृति क्या थी? अपनी खोज के बीच में मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “कुछ अनाड़ी माता-पिता जीवन या नियति को समझ नहीं पाते, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचानते, और अपने बच्चों के विषय में अज्ञानता के काम करते हैं। मिसाल के तौर पर, बच्चों के अपने पैरों पर खड़े हो जाने के बाद, उनका सामना कुछ खास हालात, मुश्किलों या बड़ी घटनाओं से हो सकता है, कुछ बच्चे बीमार पड़ जाते हैं, कुछ कानूनी मुकदमों में फँस जाते हैं, कुछ का तलाक हो जाता है, कुछ धोखे या जालसाजी का शिकार हो जाते हैं, कुछ अगवा हो जाते हैं, उन्हें हानि होती है, उनकी जबरदस्त पिटाई होती है या वे मृत्यु के कगार पर होते हैं। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो नशेड़ी बन जाते हैं, वगैरह-वगैरह। इन खास और अहम हालात में माता-पिता को क्या करना चाहिए? ज्यादातर माता-पिता की ठेठ प्रतिक्रिया क्या होती है? क्या वे वही करते हैं, जो माता-पिता की पहचान वाले सृजित प्राणियों को करना चाहिए? माता-पिता विरले ही ऐसी खबर सुन कर वैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं जैसी वे किसी अजनबी के साथ ऐसा होने पर दिखाएँगे। ज्यादातर माता-पिता रात-रात भर जागे रहते हैं जब तक उनके बाल सफेद न हो जाएँ, रात-ब-रात उन्हें नींद नहीं आती, दिन भर उन्हें भूख नहीं लगती, वे दिमाग के घोड़े दौड़ाते रहते हैं, और कुछ तो तब तक फूट-फूट कर रोते हैं जब तक उनकी आँखें लाल न हो जाएँ और आँसू सूख न जाएँ। वे दिल से परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, विनती करते हैं कि परमेश्वर उनकी आस्था को ध्यान में रखकर उनके बच्चों की रक्षा करे, उन पर दया करे, उन्हें आशीष दे, कृपा करे और उनका जीवन बख्श दे। ऐसी हालत में, माता-पिता के रूप में अपने बच्चों के प्रति उनकी तमाम इंसानी कमजोरियाँ, अतिसंवेदनशीलताएँ और भावनाएँ उजागर हो जाती हैं। इसके अलावा और क्या प्रकट होता है? परमेश्वर के विरुद्ध उनकी विद्रोहशीलता। वे परमेश्वर से विनती कर उससे प्रार्थना करते हैं, उससे अपने बच्चों को विपत्ति से दूर रखने की विनती करते हैं। कोई विपत्ति आ जाए, तो भी वे प्रार्थना करते हैं कि उनके बच्चे न मरें, खतरे से बच जाएँ, उन्हें बुरे लोग नुकसान न पहुँचाएँ, उनकी बीमारियाँ ज्यादा गंभीर न हों, वे ठीक होने लगें, वगैरह-वगैरह। वे सच में किस लिए प्रार्थना कर रहे हैं? (हे परमेश्वर, इन प्रार्थनाओं से वे परमेश्वर के समक्ष शिकायती भावना रखते हुए माँगें रख रहे हैं।) एक ओर, वे अपने बच्चों की दुर्दशा से बेहद असंतुष्ट हैं, शिकायत कर रहे हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए था। उनका असंतोष शिकायत में मिश्रित है, और वे परमेश्वर को अपना मन बदलने, ऐसा न करने और उनके बच्चों को खतरे से बाहर निकालने, उन्हें सुरक्षित रखने, उनकी बीमारी ठीक करने, उन्हें कानूनी मुकदमों से बचाने, कोई विपत्ति आने पर उससे उन्हें बचाने, वगैरह के लिए कह रहे हैं—संक्षेप में, हर चीज को सुचारु रूप से होने देने का आग्रह कर रहे हैं। इस तरह प्रार्थना करके एक ओर वे परमेश्वर से शिकायत कर रहे हैं, और दूसरी ओर वे उससे माँगें कर रहे हैं। क्या यह विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति नहीं है? (जरूर है।) निहितार्थ में वे कह रहे हैं कि परमेश्वर जो कर रहा है वह सही या अच्छा नहीं है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। चूँकि वे उनके बच्चे हैं और वे स्वयं विश्वासी हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए। उनके बच्चे दूसरों से अलग हैं; परमेश्वर को आशीष देते समय उन्हें प्राथमिकता देनी चाहिए। चूँकि वे परमेश्वर में आस्था रखते हैं, इसलिए उसे उनके बच्चों को आशीष देने चाहिए, और अगर वह न दे तो वे संतप्त हो जाते हैं, रोते हैं, गुस्सा दिखाते हैं, और फिर परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। अगर उनका बच्चा मर जाए तो उन्हें लगता है कि अब वे भी नहीं जी सकते। क्या उनके मन में यही भावना है? (हाँ।) क्या यह परमेश्वर के विरुद्ध एक प्रकार का विरोध नहीं है? (जरूर है।) यह परमेश्वर के विरुद्ध विरोध करना है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर उजागर करता है कि जब बच्चों पर दुर्भाग्य आता है तो माता-पिता उससे कैसे अनुचित अनुरोध करते हैं, मानते हैं कि परमेश्वर को ऐसे या वैसे कार्य करना चाहिए और अगर वह उस तरह कार्य नहीं करता है तो वे उसे दोषी ठहराते हैं। यह परमेश्वर के खिलाफ विरोध करना है। मेरी भी यही अवस्था थी। जैसे ही मैंने सुना कि मेरी बेटी को गिरफ्तार कर लिया गया है तो मैं चिंतित और भयभीत हो गई कि पुलिस उसे प्रताड़ित करेगी और यातना देगी और मुझे इससे भी ज्यादा चिंता इस बात की थी कि वह अपने भाई-बहनों को धोखा देगी, यहूदा बन जाएगी और उसे अच्छा परिणाम नहीं मिलेगा। इसका एहसास किए बिना ही मैं परमेश्वर के खिलाफ शिकायत करने लगी और सोचने लगी, “आखिरकार मेरी बेटी ने खुद को पूरे समय परमेश्वर के लिए खपाने की खातिर अपना करियर छोड़ दिया। परमेश्वर उसकी रक्षा कैसे नहीं कर पाया?” मैं हमेशा या तो परमेश्वर को गलत समझ रही थी या उससे अनुचित माँगें कर रही थी। मेरे पास विवेक की कितनी कमी थी! मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर हमारे सामने आने वाली हर परिस्थिति पर संप्रभुता रखता है और उसे व्यवस्थित करता है। फिर भी मैं परमेश्वर की संप्रभुता नहीं समझ पाई और जब मेरी बेटी को गिरफ्तार किया गया तो मैं अनुचित और परमेश्वर की प्रतिरोधी हो गई। फिर जब मेरी साझेदार बहन ने मेरे साथ परमेश्वर के वचनों की संगति करने की कोशिश की तो मैंने उसकी बात भी नहीं सुनी और परमेश्वर के वचन नहीं स्वीकारे। अगर मैंने अपनी यह अवस्था नहीं सुलझाई और मेरी बेटी के साथ कुछ भयानक हो गया तो मैं पक्का शिकायत करूँगी और शायद परमेश्वर के खिलाफ जाकर उससे विश्वासघात भी कर दूँगी! मैंने सोचा कि जब अय्यूब ने परीक्षणों का सामना किया और अपनी सारी संपत्ति और संतानें गँवा दी और उसके शरीर में फोड़े निकल आए तो उसने पहचाना कि उसकी संपत्ति और संतानें परमेश्वर ने ही दी थीं और परमेश्वर की अनुमति से ही उन्हें छीना गया था। इस तरह उसने परमेश्वर से शिकायत या बहस नहीं की और वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाया और यहाँ तक कि उसने परमेश्वर के नाम की स्तुति भी की। जहाँ तक मेरी बात है, जब मेरी बेटी की गिरफ्तारी हुई तो मैंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, संप्रभुता और अधिकार पर शक करना शुरू कर दिया, लगातार चिंता करने लगी और डरने लगी और यहाँ तक कि परमेश्वर से माँगें करने लगी और बहस करने लगी। मैं परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध कर रही थी! इसका एहसास होने के बाद मैं अब परमेश्वर के खिलाफ और विद्रोह या प्रतिरोध नहीं करना चाहती थी। चाहे मेरी बेटी के साथ कुछ भी हो, चाहे उसे प्रताड़ित किया जाए या नहीं या उसका गंतव्य और परिणाम अच्छा हो या नहीं, मैं परमेश्वर के खिलाफ शिकायत नहीं करूँगी और सभी चीजों में उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगी।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों के ये अंश मिले : “परमेश्वर की नजरों में बच्चों और माता-पिता दोनों का जीवन स्वतंत्र है। वे एक दूसरे के नहीं हैं, न ही उनका कोई अधिक्रमिक रिश्ता है। बेशक, उनके बीच यकीनन स्वामित्व होने या स्वामित्व में होने का रिश्ता नहीं है। उनका जीवन परमेश्वर से आता है, और उनकी नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता है। बात बस इतनी है कि बच्चे अपने माता-पिता से जन्म लेते हैं, माता-पिता अपने बच्चों से बड़े होते हैं, और बच्चे माता-पिता से छोटे होते हैं; फिर भी इस रिश्ते, इस सतही घटना के आधार पर, लोग मानते हैं कि बच्चे माता-पिता का सामान हैं, उनकी निजी संपत्ति हैं। यह मामले को उसकी जड़ से देखना नहीं है, बल्कि सिर्फ सतही तौर पर, देह और वात्सल्य के स्तर पर इस पर गौर करना है। इसलिए, इस तरह विचार करना ही अपने आप में गलत है, और यह एक गलत परिप्रेक्ष्य है। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल है।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। “जन्म देने और बच्चे के पालन-पोषण के अलावा, बच्चे के जीवन में माता-पिता का उत्तरदायित्व उसके बड़ा होने के लिए बस एक औपचारिक परिवेश प्रदान करना है, क्योंकि सृजनकर्ता के पूर्वनिर्धारण के अलावा किसी भी चीज़ का उस व्यक्ति के भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता। किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, इसे कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता; इसे बहुत पहले ही पूर्व निर्धारित किया जा चुका होता है, किसी के माता-पिता भी उसके भाग्य को नहीं बदल सकते। जहाँ तक भाग्य की बात है, हर कोई स्वतन्त्र है, और हर किसी का अपना भाग्य है। इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके भाग्य को नहीं रोक सकते या उस भूमिका पर जरा-सा भी प्रभाव नहीं डाल सकते जिसे वह जीवन में निभाता है। ऐसा कहा जा सकता है कि वह परिवार जिसमें किसी व्यक्ति का जन्म लेना नियत होता है, और वह परिवेश जिसमें वह बड़ा होता है, वे जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने के लिए मात्र पूर्वशर्तें होती हैं। वे किसी भी तरह से किसी व्यक्ति के भाग्य को या उस प्रकार की नियति को निर्धारित नहीं करते जिसमें रहकर कोई व्यक्ति अपने ध्येय को पूरा करता है। और इसलिए, किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने में उसकी सहायता नहीं कर सकते, किसी के भी रिश्तेदार जीवन में उसकी भूमिका निभाने में उसकी सहायता नहीं कर सकते। कोई किस प्रकार अपने ध्येय को पूरा करता है और वह किस प्रकार के परिवेश में रहते हुए अपनी भूमिका निभाता है, यह पूरी तरह से जीवन में उसके भाग्य द्वारा निर्धारित होता है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि अपनी बेटी को अपनी “निजी संपत्ति” समझना गलत था क्योंकि वह मेरा माँस और खून है। मनुष्य का जीवन परमेश्वर से प्राप्त होता है—यह परमेश्वर ही है जो मनुष्य को उसकी प्राणवायु देता है। माता-पिता की भूमिका सिर्फ बच्चों को जन्म देना है और उन्हें वयस्कता तक बड़ा करना है। एक बार ऐसा हो जाने पर हमारा मिशन पूरा हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है; माता-पिता और बच्चों का अपना भाग्य होता है और हममें से प्रत्येक को सृष्टिकर्ता द्वारा निर्धारित पथ के अनुसार जीना चाहिए, अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। मुझे यह भी एहसास हुआ कि मैं अपनी बेटी की देह को कष्ट होने के बारे में चिंतित थी और उसकी माँ होने के नाते उसके बदले कष्ट सहना चाहती थी, जिसका कारण परमेश्वर की संप्रभुता की समझ की कमी थी। वास्तव में हमें क्या अनुभव होंगे, क्या कष्ट सहने होंगे और जीवन में क्या भूमिका निभानी होगी, यह सब पहले से तय है, इसलिए मेरी चिंता अनावश्यक थी। चाहे मैं कितनी भी चिंता करूँ, इससे कुछ भी नहीं बदलता और मेरी बेटी के भविष्य और भाग्य पर इसका कोई असर नहीं होता। अगर गिरफ्तार होने के बाद मेरी बेटी जीवन से चिपके रहने के लिए जो भी जरूरी होता, वह करती, अपने हितों की रक्षा के लिए अपने भाई-बहनों को धोखा दे देती, यहूदा बन जाती और उसे निष्कासित कर दिया जाता तो यह उसके प्रकृति सार और उसके चुने मार्ग से निर्धारित होता। कोई भी इसे बदल नहीं सकता था। इसका एहसास होने पर मैं तुरंत थोड़ी स्पष्ट हो गई। मुझे पता था कि मुझे अपनी बेटी को परमेश्वर को सौंपना है, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं में समर्पित करना है, अपने काम में अपना दिल लगाना है और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना है। बाद में परमेश्वर के कुछ वचन खाने और पीने के बाद मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर अंत के दिनों में जो कर रहा है, वह लोगों को पूर्ण बनाने, बेनकाब करने और निकाले जाने का कार्य है। परमेश्वर कलीसिया को शुद्ध करने के लिए बड़े लाल अजगर का उपयोग करता है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, चाहे सीसीपी कोई भी भयावह साजिश रचे या कोई भी अफवाह और भ्रांतियाँ गढ़े, वे गुमराह नहीं होंगे, परमेश्वर को न तो नकारेंगे और न ही धोखा देंगे और परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में अडिग रहने में सक्षम होंगे। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और जो परमेश्वर के नहीं हैं, वे इन परिवेशों के माध्यम से बेनकाब कर निकाल दिए जाएँगे। परमेश्वर इन प्रतिकूल परिस्थितियों का उपयोग लोगों का परीक्षण करने के लिए करता है : जो लोग अपनी गवाही में अडिग रहते हैं वे गेहूँ हैं, जबकि जो अडिग नहीं रह पाते वे परित्यक्त खरपतवार हैं। यह लोगों का परीक्षण करने की परमेश्वर की प्रक्रिया में से एक तरीका है और परमेश्वर के कार्य की बुद्धि है। मेरी बेटी इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो पाती या नहीं और गवाही देने में सक्षम होती या नहीं यह इस पर निर्भर था कि उसने सामान्य समय में सत्य का अनुसरण कैसे किया और यह उसके प्रकृति सार और उसके द्वारा चुने गए मार्ग पर भी निर्भर था। अगर वह परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में अडिग रही तो यह दिखाएगा कि उसे परमेश्वर में सच्ची आस्था है। अगर इस परीक्षण के दौरान उसने परमेश्वर को नकारा और धोखा दिया तो यह उसे बेनकाब करने का परमेश्वर का तरीका होगा। परमेश्वर सभी लोगों के लिए धार्मिक है। इसका एहसास होने पर मैंने मुक्त और शांत महसूस किया।

मेरी बेटी को गिरफ्तार हुए दो महीने हो चुके हैं और मुझे अभी भी उसकी स्थिति के बारे में कोई खबर नहीं मिली है, लेकिन मुझे पता है कि उसका भाग्य परमेश्वर के हाथों में है और मैं उसकी स्थिति से बेबस नहीं हूँ। इसके अलावा मुझे एहसास हुआ है कि मुझे अभी भी अपने कर्तव्य निभाने और अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छी तरह से निभाने के लिए जो अवसर मिला है, उसका ध्यान करना चाहिए। एक बार जब मैं अपनी बेटी के लिए अपनी चिंता और परवाह को एक तरफ रख देती हूँ तो मैं अपने कर्तव्य में अपना दिल लगा पाती हूँ।

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