12. अपना कर्तव्य खोने के बाद चिंतन

अरबेला, दक्षिण कोरिया

कुछ समय पहले अगुआओं ने मुझे परमेश्वर के वचनों का सस्वर पाठ करने के प्रशिक्षण में लगा दिया। यह समाचार सुनकर मैं बहुत खुश थी, मुझे लगता था कि यह अवसर मिलना काफी मुश्किल है। लेकिन जब मैंने कुछ साल पहले के सस्वर पाठ सीखने के अपने दिनों के बारे में सोचा तो स्वर व्यक्त करने के पहलुओं के साथ ही गति, स्वर-संगति और बलाघात के मामले में मुझे अलग-अलग पैमाने पर समस्याएँ आई थीं। उस समय मुझे लगता था कि इन समस्याओं को हल करना मुश्किल है और मैं कठिनाई में जी रही थी, हमेशा खुद को अक्षम मानती थी और सोचती थी कि मैं सस्वर पाठ करने के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। इसके अलावा हर दिन जब मैं अभ्यास करती थी तो मेरी कमियाँ उजागर होती थीं और भाई-बहन मेरी समस्याएँ बताते थे। इसलिए मुझे लगता था कि यह कर्तव्य करने से मैं बहुत अक्षम प्रतीत होती हूँ और मैं अपने दिल में और भी अधिक नकारात्मक और निष्क्रिय हो गई थी। इन समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रयास करने का मेरा कोई इरादा नहीं था, बल्कि मैं सिर्फ अनमने ढंग से अभ्यास करती थी। नतीजतन छह महीनों से अधिक समय तक अभ्यास करने के बाद भी मुझमें कोई महत्वपूर्ण सुधार नहीं हुआ था और आखिरकार मुझे दूसरा कर्तव्य सौंप दिया गया था। जब मैंने इन समस्याओं का फिर से सामना करने के बारे में सोचा तो मैं बेचैन हो गई। न सिर्फ मेरे शरीर को कष्ट सहना होगा, बल्कि यह भी अनिश्चित है कि मैं आखिरकार सुधार कर पाऊँगी या नहीं। इसके बारे में सोचकर मैं परेशान हो गई। एक बहन ने मेरे साथ संगति की, “दरअसल हममें अपर्याप्तताएँ और कमियाँ होती हैं, इसीलिए हमें अपने प्रशिक्षण को बढ़ाने की जरूरत है। इस काम को करने के लिए लोगों की तत्काल जरूरत है। तुम्हारा उच्चारण बहुत अच्छा है और तुम्हारी आवाज भी सुरीली है। तुम्हें ऐसी परिस्थितियों और अवसरों को संजोना चाहिए!” बहन की संगति सुनकर मैं थोड़ी-सी भावुक हो गई और सोचने लगी, “हाँ, मेरी आवाज अच्छी है—यह परमेश्वर का अनुग्रह है। अब मेरे लिए अपना काम करने का समय आ गया है। मैं कठिनाई में नहीं जी सकती; मुझे आगे बढ़ने का प्रयास करने की जरूरत है और जितनी जल्दी हो सके सुधार करने का प्रयास करना है ताकि मैं इस कर्तव्य को पूरा कर सकूँ!”

इसके बाद मैंने सक्रिय रूप से खुद को अभ्यास में झोंक दिया। सुपरवाइजर बहन जो ने मेरे द्वारा रिकॉर्ड किए गए सस्वर पाठ का एक अंश सुना और मुझे इस पर मार्गदर्शन और मदद दी। उसने कहा, “तुम्हारे पढ़ने के कुछ हिस्सों में स्वर-संगति और बलाघात बिल्कुल उपयुक्त नहीं हैं। क्या तुम अभ्यास में बहुत कम समय लगा रही हो? इसके अलावा तुम्हारी साँस भी अस्थिर है और तुम्हारी आवाज बेसुरी लगती है। तुम्हें साँस लेने का और अधिक अभ्यास करने की जरूरत है।” उसने कुछ विस्तृत मसलों के बारे में भी बताया। उसकी बातें सुनने के बाद मैं थोड़ी परेशान हो गई और सोचने लगी, “मेरे सस्वर पाठ में बहुत सारी समस्याएँ हैं; यह वाकई निराशाजनक है। और साँस लेना कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे फौरन सुधारा जा सके। इसके लिए अभ्यास और संचय की लंबी प्रक्रिया की जरूरत होती है!” उसके बताए इन विस्तृत तकनीकी मुद्दों के बारे में सोचते हुए मुझे लगा कि मुझमें कोई भी योग्यता नहीं है और मेरा चेहरा लाल हो गया। मैंने सोचा, “अगर मैं इतनी खराब हूँ तो मुझे पढ़ना ही क्यों चाहिए? इतनी सारी समस्याएँ दूर करने के लिए मुझे कब तक अभ्यास करना होगा? अन्य बहनें बहुत अच्छी तरह से पढ़ती हैं। चाहे मैं कितना भी अभ्यास करूँ, मैं उनकी बराबरी नहीं कर सकती। अगर मैं भविष्य में इस कर्तव्य को पूरा करने में कामयाब भी हो जाऊँ तो भी मैं दूसरों की छाया में रहूँगी और मैं हमेशा ‘दोयम दर्जे की छात्रा’ रहूँगी, मैं अपनी उपस्थिति का एहसास भी नहीं करा पाऊँगी।” इन बातों के बारे में सोचकर मैंने यह कर्तव्य करने की इच्छा ही खो दी। संयोग से अगले कुछ दिनों में मुझे अन्य काम करने थे, इसलिए मैंने अभ्यास नहीं किया और जब भी मेरे पास कुछ समय होता, मैं बस थोड़ा आराम करती थी।

कुछ दिनों बाद अगुआ ने मुझसे पूछा कि क्या मैं सस्वर पाठ का अभ्यास कर रही हूँ। मैंने दृढ़ता से कहा, “मैं पिछले कुछ दिनों से अपने कर्तव्य में काफी व्यस्त रही हूँ और अभ्यास के लिए समय नहीं मिला।” अगुआ ने मुझसे पूछा, “तो क्या तुम अभ्यास के बारे में सोच रही हो? यह कर्तव्य अत्यावश्यक है। अगर तुम अभ्यास के लिए अधिक समय निकालने का कोई तरीका नहीं खोजती हो तो तुम यह कर्तव्य कब करोगी?” मैं अवाक रह गई और मेरे दिल में तीखा दर्द भी हुआ। मैंने इस बारे में सोचा कि भले ही मैं पिछले कुछ दिनों से अपने कर्तव्य में थोड़ी व्यस्त रही, ऐसा नहीं था कि मुझे बिल्कुल भी समय नहीं मिल पा रहा था। मुख्य मुद्दा यह था कि मुझे अपने सस्वर पाठ की समस्याओं का समाधान असंभव लगता था। भले ही मैं कठिनाई सह लूँ और कीमत चुका लूँ, तो भी जरूरी नहीं कि मुझे अच्छे नतीजे मिल जाएँ और मुझे अभी भी दूसरों द्वारा सुधारे जाने की जरूरत होगी। मैं इसका सामना करने के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए मैं यथासंभव इससे बचती रही। अगुआ का सवाल मुझे अंदर तक चीर गया और मैं थोड़ी परेशान हो गई, मुझे एहसास हुआ कि इस कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया बहुत ही लापरवाह और गैर-जिम्मेदार रहा है। इसलिए मैंने मन ही मन खुद को चेताया कि इस कर्तव्य को निभाने के प्रति अपना रवैया बदलना है। लिहाजा मैंने अभ्यास करने के लिए फौरन समय निकाला।

कुछ दिनों बाद मुझे लगा कि मेरे सस्वर पाठ में कुछ सुधार हुआ है, इसलिए मैंने एक ऑडियो रिकॉर्डिंग बनाई और जो को सौंप दी। मुझे लगा कि वह कहेगी कि मैंने कुछ प्रगति की है, लेकिन मैं यह सुनकर हैरान हो गई कि उसने फिर से कई मसले सामने रख दिए : अस्थिर साँस, असंगत वाक्य, इत्यादि। उसने धैर्यपूर्वक मेरे लिए मसलों का विश्लेषण किया, मुझे मौके पर ही अभ्यास कराया और मुझे सुधारा। जब मैं कई प्रयासों के बाद भी समस्याएँ ठीक नहीं कर सकी तो मैं अधीर हो गई और यहाँ तक की थोड़ी व्यथित होकर सोचने लगी, “मैं कई दिनों से अभ्यास कर रही हूँ और अभी भी इतनी सारी समस्याएँ हैं। शायद मुझमें इसके लिए स्वाभाविक रूप से समझ और काबिलियत नहीं है। मैं यह कर्तव्य करने में सक्षम नहीं हूँ। मुझे इसे लेकर खुद को और शर्मिंदा नहीं करना चाहिए; बेहतर हो कि मैं कोई दूसरा कर्तव्य निभाऊँ!” मेरे मन में भागने के विचार आने लगे थे और मैं अब सस्वर पाठ का अभ्यास जारी नहीं रखना चाहती थी, लेकिन इसका उल्लेख करने की हिम्मत नहीं होती थी, डरती थी कि दूसरे कहेंगे कि मैं अपना कर्तव्य अस्वीकार कर रही हूँ। इसलिए मैं नकारात्मक हो गई और ढिलाई बरतने लगी थी और अभ्यास में अधिक प्रयास नहीं कर रही थी, मैं यह सोच यह थी कि अगर मैं समय के साथ कोई सुधार नहीं करूँगी तो हो सकता है अगुआ मुझसे अभ्यास जारी न रखवाए।

एक शाम को मैंने अचानक अगुआ का एक संदेश देखा, जिसमें कहा गया था, “तुम्हें अब सस्वर पाठ का और अभ्यास करने की जरूरत नहीं है।” इस संदेश को देखने पर मुझे अपने दिल में अचानक खालीपन महसूस हुआ, साथ ही एक अवर्णनीय बेचैनी भी हुई। इस कर्तव्य को खोने से मुझे वह राहत या संतुष्टि नहीं मिली जिसकी मैंने कल्पना की थी; इसके बजाय मुझे बहुत ज्यादा पछतावा हुआ और मेरा मन भारी हो गया। उसी पल मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश याद आए और मैंने जल्दी से उन्हें ढूँढ़कर पढ़ा। परमेश्वर कहता है : “ऐसा इसलिए है क्योंकि जो चीज परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध को सबसे स्पष्ट रूप से दिखाती है, वह यह है कि तुम उन मामलों और कर्तव्यों से कैसे बर्ताव करते हो, जिन्हें परमेश्वर तुम्हें सौंपता और निभाने को देता है, और तुम्हारा रवैया कैसा है। यही मुद्दा है जो सबसे ज्यादा गौर करने लायक और सबसे ज्यादा व्यावहारिक है। परमेश्वर इंतजार कर रहा है; वह तुम्हारा रवैया देखना चाहता है। इस अहम पड़ाव पर, तुम्हें जल्दी करनी चाहिए और परमेश्वर को अपनी स्थिति से अवगत कराना चाहिए, उसका आदेश स्वीकारना और अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए। इस महत्वपूर्ण बिंदु को समझने और परमेश्वर द्वारा सौंपे आदेश को पूरा कर लेने के बाद, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा। जब परमेश्वर तुम्हें कोई कार्य सौंपता है, या तुमसे कोई कर्तव्य निभाने को कहता है, तब अगर तुम्हारा रवैया सतही और उदासीन होता है, और तुम इसे गंभीरता से नहीं लेते, तो क्या यह अपना पूरा मन और ताकत लगाने के बिल्कुल विपरीत नहीं है? क्या तुम इस तरह से अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाओगे। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा रवैया उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना तुम्हारे द्वारा चुना गया तरीका और मार्ग। इससे फर्क नहीं पड़ता कि लोगों ने कितने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, जो लोग अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाएँगे, उन्हें निकाल दिया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “कुछ लोग कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने को तैयार नहीं रहते, कोई भी समस्या सामने आने पर हमेशा शिकायत करते हैं और कीमत चुकाने से इनकार कर देते हैं। यह कैसा रवैया है? यह अनमना रवैया है। अगर तुम अपना कर्तव्य अनमने होकर निभाओगे, इसे अनादर के भाव से देखोगे तो इसका क्या नतीजा मिलेगा? तुम अपना कार्य खराब ढंग से करोगे, भले ही तुम इस काबिल हो कि इसे अच्छे से कर सको—तुम्हारा प्रदर्शन मानक पर खरा नहीं उतरेगा और कर्तव्य के प्रति तुम्हारे रवैये से परमेश्वर बहुत नाराज रहेगा। अगर तुमने परमेश्वर से प्रार्थना की होती, सत्य खोजा होता, इसमें अपना पूरा दिल और दिमाग लगाया होता, अगर तुमने इस तरीके से सहयोग किया होता तो फिर परमेश्वर पहले ही तुम्हारे लिए हर चीज तैयार करके रखता ताकि जब तुम मामलों को संभालने लगो तो हर चीज दुरुस्त रहे और तुम्हें अच्छे नतीजे मिलें। तुम्हें बहुत ज्यादा ताकत झोंकने की जरूरत न पड़ती; तुम हरसंभव सहयोग करते तो परमेश्वर तुम्हारे लिए पहले ही हर चीज की व्यवस्था करके रखता। अगर तुम धूर्त या काहिल हो, अगर तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, और हमेशा गलत रास्ते पर चलते हो तो फिर परमेश्वर तुम पर कार्य नहीं करेगा; तुम यह अवसर खो बैठोगे और परमेश्वर कहेगा, ‘तुम किसी काम के नहीं हो; मैं तुम्हारा उपयोग नहीं कर सकता। तुम एक तरफ खड़े रहते हो। तुम्हें चालाक बनना और सुस्ती बरतना पसंद है, है ना? तुम आलसी और आरामपरस्त हो, है ना? तो ठीक है, आराम ही करते रहो!’ परमेश्वर यह अवसर और अनुग्रह किसी और को देगा। तुम लोग क्या कहते हो : यह हानि है या लाभ? (हानि।) यह प्रचंड हानि है!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे लगा था कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव मुझ पर आ गया है, खासकर जब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम किसी काम के नहीं हो; मैं तुम्हारा उपयोग नहीं कर सकता। तुम एक तरफ खड़े रहते हो। तुम्हें चालाक बनना और सुस्ती बरतना पसंद है, है ना? तुम आलसी और आरामपरस्त हो, है ना? तो ठीक है, आराम ही करते रहो!” मुझे लगा था कि मेरी कथनी, करनी और विचार सभी परमेश्वर की जाँच-पड़ताल के अधीन हैं। हालाँकि मैंने सस्वर पाठ का कर्तव्य करने में अपनी अनिच्छा साफ व्यक्त नहीं की थी, लेकिन इसके प्रति मेरा रवैया खासतौर पर गंभीर नहीं था, मैं सुधार करने का प्रयास नहीं कर रही थी और मैं निष्क्रिय होकर इस बात का इंतजार कर रही थी कि अगुआ मुझे यह काम रोकने के लिए कहेगी। परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने कर्तव्य पूरे दिल और क्षमता से करें, लेकिन वह कभी किसी को मजबूर नहीं करता। चूँकि मैंने खुद अपने कर्तव्य से बचने का विकल्प चुना था, इसलिए परमेश्वर ने मेरे साथ मेरी पसंद के अनुसार बर्ताव किया था। नतीजतन मैंने यह कर्तव्य खो दिया था और कलीसिया ने किसी और को इसमें प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की थी, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर ने किसी और को यह कर्तव्य करने का अवसर दे दिया। यह तर्क दिया जा सकता है कि मैंने इस कर्तव्य से मुक्त होने की अपनी इच्छा पूरी कर ली थी, लेकिन मेरे दिल को राहत क्यों नहीं मिल रही थी? तभी मुझे एहसास हुआ कि इस मामले से बचने का विकल्प चुनकर मैं शैतान का उपहास का पात्र बन गई हूँ और अंधकार में गिर गई हूँ। मैंने सोचा, “क्या यह कर्तव्य वाकई इतना कठिन है? क्या ये समस्याएँ वाकई सुलझ नहीं सकतीं?” परमेश्वर कहता है कि जब लोग अपना पूरा दिल और ताकत लगा देते हैं तो वह उनका मार्गदर्शन करने के लिए रास्ता खोल देता है और मुश्किलें सुलझाने में उनकी मदद करता है। परमेश्वर लोगों के लिए चीजें मुश्किल नहीं बनाता या उन्हें ऐसा बोझ नहीं देता जिसे वे उठा नहीं सकते। जब तक किसी के पास कर्तव्य करने के लिए बुनियादी काबिलियत और परिस्थितियाँ हैं और वह परमेश्वर की जरूरतों के अनुसार आगे बढ़ने का प्रयास करता है, तो समस्याएँ हल हो सकती हैं। भाई-बहनों ने बार-बार इस कर्तव्य के महत्व पर संगति की थी और मुझसे इसमें प्रयास करने का आग्रह किया था। लेकिन जैसे ही मैं किसी समस्या का सामना करती थी, मैं उसमें उलझ जाती थी, उसका समाधान करने के लिए प्रयास करने को तैयार नहीं होती थी और यहाँ तक कि मैं नकारात्मक और सुस्त हो जाती थी और अगुआ द्वारा मुझे कर्तव्य से मुक्त करने का इंतजार करती थी। मैं कितनी विद्रोही थी! इस बारे में सोचते हुए मुझे गहरा अफसोस और पश्चात्ताप हुआ।

एक भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर कभी तुम्हारे सामने कुछ खास मुसीबतें आती हैं या तुम कुछ विशेष परिवेशों का सामना करते हो, तब तुम्हारा रवैया हमेशा उनसे बचने या भागने, उन्हें नकारने और उनसे पिंड छुड़ाने का रहता है—अगर तुम खुद को परमेश्वर के आयोजनों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ते, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के लिए अनिच्छुक रहते हो, और सत्य से नियंत्रित होना नहीं चाहते हो—अगर तुम हमेशा खुद फैसले करना चाहते हो और खुद से जुड़ी हर चीज को अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार नियंत्रित करना चाहते हो तो इसका नतीजा यह होगा कि देर-सबेर परमेश्वर तुम्हें यकीनन दरकिनार कर देगा या शैतान को सौंप देगा। अगर लोग यह बात समझ जाएँ तो उन्हें तुरंत पीछे मुड़ जाना चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षा वाले सही मार्ग के अनुसार अपने जीवन की राह पर चलना चाहिए। यही सही मार्ग है, और जब मार्ग सही होता है तो इसका मतलब है कि दिशा भी सही है। इस मार्ग पर चलते हुए झटके लग सकते हैं और परेशानियाँ आ सकती हैं, हो सकता है कि वे लड़खड़ा जाएँ या कभी-कभी रुष्ट होकर कई दिनों तक नकारात्मक हो जाएँ। अगर वे अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं और चीजों को लटकाते नहीं हैं तो ये सारी मामूली दिक्कतें होंगी, लेकिन उन्हें फौरन आत्म-चिंतन कर इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, उन्हें बिल्कुल भी टालमटोल नहीं करनी चाहिए, न अपना काम छोड़ना चाहिए, न अपने कर्तव्य त्यागने चाहिए। यह सबसे महत्वपूर्ण है। ... जब तुम्हारे सामने कोई कर्तव्य आता है और यह तुम्हें सौंप दिया जाता है तो कठिनाइयों का सामना करने से बचने की मत सोचो; अगर कोई चीज संभालना कठिन है तो इसे दरकिनार कर अनदेखा मत करो। तुम्हें इसका आमना-सामना करना चाहिए। तुम्हें हर समय यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर लोगों के साथ है, अगर उन्हें कोई कठिनाई हो रही है तो सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने और खोजने की जरूरत है और परमेश्वर के साथ रहते कुछ भी कठिन नहीं है। तुममें यह आस्था होनी चाहिए। चूँकि तुम मानते हो कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है तो फिर अपने ऊपर कोई संकट आने पर तुम्हें अभी भी डर क्यों लगता है और ऐसा क्यों लगता है कि तुम्हारे पास कोई सहारा नहीं है? इससे साबित होता है कि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हो। अगर तुम उसे अपना सहारा और अपना परमेश्वर नहीं मानोगे तो फिर वह तुम्हारा परमेश्वर नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। जब मुझे मुश्किलों का सामना करना पड़ता था तो मैं परमेश्वर का इरादा जानने के लिए उसके सामने नहीं आती थी, बल्कि हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में ही जीती रहती थी ताकि खुद को सीमित रख सकूँ। खासकर जब सस्वर पाठ करने में समस्याएँ बहुत ज्यादा और कठिन हो गईं और दो दिन तक कड़ी मेहनत करने के बाद भी मुझे अच्छे नतीजे नहीं मिले तो मैंने तय कर लिया कि ये समस्याएँ बिल्कुल भी हल नहीं हो सकतीं और आगे प्रयास करना बेकार होगा। इसलिए भले ही मैं अभ्यास करती थी, मैं यह काम बचने के लिए लापरवाही से करती थी और उसमें दिल नहीं लगाती थी। मैंने बहन जो के बारे में सोचा। उसने मुझसे भी बाद में अभ्यास करना शुरू किया था और उसे भी काफी समस्याएँ थीं और मुझे तो यहाँ तक लगता था कि वह कुछ मामलों में मेरे जितनी अच्छी नहीं है। मैं उसके बारे में बहुत अच्छा नहीं सोचती थी, लेकिन बहन अपने कर्तव्य के प्रति बहुत गंभीर थी, अपनी कमियों का सक्रियता से सामना करती थी और अभ्यास करने का प्रयास करती थी। निरंतर अभ्यास करके वह जल्दी से सुधार कर पाई थी और उसके सस्वर पाठ के नतीजे अच्छे थे। इस बारे में सोचने पर मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं परमेश्वर पर भरोसा करूँ और मुश्किलों का सामना करते हुए लगन से अभ्यास करने का प्रयास करूँ तो समस्याएँ हल हो सकती हैं। लोग जिस हद तक सहयोग करेंगे, परमेश्वर उसे पूरा करेगा। इन वर्षों को पीछे मुड़कर देखूँ तो मैंने वाकई अपना समय बर्बाद किया था। मैं परमेश्वर का अनुसरण करती थी लेकिन उस पर भरोसा नहीं करती थी और चीजों का सामना होने पर मैं परमेश्वर पर भरोसा नहीं करती थी या उसका इरादा नहीं खोजती थी, बल्कि अपने विचारों पर अड़ी रहती थी। नतीजतन दूसरों ने प्रगति की जबकि मैं वहीं अटकी रही। मैं वाकई मूर्ख थी!

बाद में मैंने चिंतन करना जारी रखा। अतीत में मुझे अपनी पढ़ाई और दैनिक जीवन दोनों में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, लेकिन मैं कभी भी आसानी से यह नहीं स्वीकारती थी कि मैं अक्षम हूँ और न ही मैं कोशिश करने से पहले हार मानती थी। ठीक उसी तरह जैसे जब मैंने वकील बनकर प्रसिद्धि और धन पाने का सपना देखा था, तो उस समय राष्ट्रीय न्यायिक परीक्षा के लिए उत्तीर्ण दर सिर्फ लगभग 7% थी और मेरा शैक्षणिक प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं था, लेकिन मैं सिर्फ इसलिए पीछे नहीं हटी थी क्योंकि यह मुश्किल है। अपना सपना पूरा करने के लिए मैंने खुद को दो महीने से अधिक समय तक अलग-थलग कर लिया था और बिना किसी तकलीफ के हर दिन गहन अध्ययन करती थी। प्रसिद्धि और धन पाने और दूसरों से प्रशंसा पाने का विचार मुझे बहुत प्रेरित करता था। आखिरकार मैंने वाकई परीक्षा पास कर ली थी। फिर से सोचने पर कि मैं क्यों अपने सस्वर पाठ के कर्तव्य की समस्याएँ सुलझाने में असमर्थ रहती थी और हमेशा इससे भागना और पीछे हटना चाहती थी, ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं बहुत स्वार्थी थी। मैं वही चीजें करती थी जो मेरे लिए फायदेमंद होती थीं और उन चीजों से बचती थी जिनसे मुझे फायदा नहीं था। एक भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपनी समस्या के बारे में कुछ अंतर्दृष्टि पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधियों में कोई जमीर, विवेक या मानवता नहीं होती। वे न केवल शर्म से बेपरवाह होते हैं, बल्कि उनकी एक और खासियत भी होती है : वे असाधारण रूप से स्वार्थी और नीच होते हैं। उनके ‘स्वार्थ और नीचता’ का शाब्दिक अर्थ समझना कठिन नहीं है : उन्हें अपने हित के अलावा कुछ नहीं सूझता। अपने हितों से संबंधित किसी भी चीज पर उनका पूरा ध्यान रहता है, वे उसके लिए कष्ट उठाएँगे, कीमत चुकाएँगे, उसमें खुद को तल्लीन और समर्पित कर देंगे। जिन चीजों का उनके अपने हितों से कोई लेना-देना नहीं होता, वे उनकी ओर से आँखें मूँद लेंगे और उन पर कोई ध्यान नहीं देंगे; दूसरे लोग जो चाहें सो कर सकते हैं—मसीह-विरोधियों को इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि कोई विघ्न-बाधा पैदा तो नहीं कर रहा, उन्हें इन बातों से कोई सरोकार नहीं होता। युक्तिपूर्वक कहें तो, वे अपने काम से काम रखते हैं। लेकिन यह कहना ज्यादा सही है कि इस तरह का व्यक्ति नीच, अधम और दयनीय होता है; हम उन्हें ‘स्वार्थी और नीच’ के रूप में परिभाषित करते हैं। मसीह-विरोधियों की स्वार्थपरता और नीचता कैसे प्रकट होती हैं? ... मसीह-विरोधी चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल यही सोचते हैं कि क्या इससे वे सुर्ख़ियों में आ पाएँगे; अगर उससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, तो वे यह जानने के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं कि उस काम को कैसे करना है, कैसे अंजाम देना है; उन्हें केवल एक ही फिक्र रहती है कि क्या इससे वे औरों से अलग नजर आएँगे। वे चाहे कुछ भी करें या सोचें, वे केवल अपनी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से सरोकार रखते हैं। वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल इसी स्पर्धा में लगे रहते हैं कि कौन बड़ा है या कौन छोटा, कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है, किसकी ज्यादा प्रतिष्ठा है। वे केवल इस बात की परवाह करते हैं कि कितने लोग उनकी आराधना और सम्मान करते हैं, कितने लोग उनका आज्ञापालन करते हैं और कितने लोग उनके अनुयायी हैं। वे कभी सत्य पर संगति या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते। वे कभी विचार नहीं करते कि अपना काम करते समय सिद्धांत के अनुसार चीजें कैसे करें, न ही वे इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे निष्ठावान रहे हैं, क्या उन्होंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी हैं, क्या उनके काम में कोई विचलन या चूक हुई है या अगर कोई समस्या मौजूद है, तो वे यह तो बिल्कुल नहीं सोचते कि परमेश्वर क्या चाहता है और परमेश्वर के इरादे क्या हैं। वे इन सब चीजों पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं देते। वे केवल प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के लिए, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और जरूरतें पूरी करने का प्रयास करने के लिए कार्य करते हैं। यह स्वार्थ और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? यह पूरी तरह से उजागर कर देता है कि उनके हृदय किस तरह उनकी महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और बेहूदा माँगों से भरे होते हैं; उनका हर काम उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से नियंत्रित होता है। वे चाहे कोई भी काम करें, उनकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और बेहूदा माँगें ही उनकी प्रेरणा और स्रोत होता है। यह स्वार्थ और नीचता की विशिष्ट अभिव्यक्ति है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरे इरादे और काम करने का शुरुआती बिंदु पूरी तरह से गलत है, जैसा कि मसीह-विरोधियों का होता है। मैं जो कुछ भी करती थी वह स्वार्थ से प्रेरित होता था और वही चीजें करती थी जो मेरी प्रसिद्धि और धन की इच्छा को संतुष्ट कर सकती थीं और दूसरों से प्रशंसा दिला सकती थीं, मैं उन्हें पाने के लिए अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करती थी और कष्टों से डरती नहीं थी। इसके विपरीत जो चीजें मेरे लिए फायदेमंद नहीं होती थीं, भले ही वे सार्थक और मूल्यवान हों, मैं उन्हें करने के लिए तैयार नहीं होती थी, उन्हें पाने के लिए प्रयास करने या पीड़ा सहना और कीमत चुकाना तो दूर की बात है। जब मैंने न्यायिक परीक्षा दी थी तो मुझमें “संघर्ष की भावना” का दृढ़ संकल्प था, क्योंकि परीक्षा पास करने से मैं वकील बन सकती थी, दूसरों से प्रशंसा पा सकती थी और बहुत सारा पैसा कमा सकती थी, प्रसिद्धि और धन दोनों पा सकती थी। इस प्रेरणा ने मुझे बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को भी सहने और सफलता के लिए प्रयास करने के लिए प्रेरित किया था। लेकिन सस्वर पाठ के प्रति मेरा नजरिया पूरी तरह से अलग था। मुझे लगता था कि यह कर्तव्य करने से सिर्फ बेनकाब ही हुआ जा सकता है, इससे मुझे प्रसिद्धि या पहचान नहीं मिलेगी और मुझे अपनी अहमियत दिखाने का कोई अवसर नहीं मिलेगा। इसलिए मैं इस कर्तव्य के लिए कष्ट सहने या कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं थी, बल्कि करना ही नहीं चाहती थी। भाई-बहन बार-बार परमेश्वर के अत्यावश्यक इरादे के बारे में संगति करते थे, जिसमें परमेश्वर आशा करता है कि अधिक लोग उसके वचनों को सुन सकें और उसका उद्धार पा सकें। वे मुझसे जल्दी से अभ्यास करने का आग्रह करते थे ताकि मैं यह कर्तव्य कर सकूँ, लेकिन मैं सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में सोचती थी। मैं भाई-बहनों की सलाह बिल्कुल नहीं सुनती थी, परमेश्वर के इरादे को नजरअंदाज करती थी और चाहे काम कितना भी जरूरी और महत्वपूर्ण क्यों न हो, मैं आँखें मूंद लेती थी। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी! जितना मैं इसके बारे में सोचा, मैं उतनी ही व्यथित होती गई। मैं परमेश्वर के सामने आई और प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं कई वर्षों से तुम्हारा अनुसरण करती हूँ, लेकिन मैं ईमानदार नहीं रही हूँ। मैं जो कुछ भी करती हूँ, उसमें मैं अपने हितों और अपनी देह के लिए योजना बनाती हूँ, अपने कर्तव्य में कई पछतावे छोड़ देती हूँ। मैं अब इस तरह नहीं जीना चाहती; मैं बदलना चाहती हूँ। तुम मेरी जाँच-पड़ताल करो!” प्रार्थना करने के बाद मैंने इस बात पर विचार करना शुरू किया कि मैं अपने वर्तमान कर्तव्य में कितनी लापरवाह और अनमनी रही हूँ और मैं अपने कर्तव्य के प्रति इस नजरिए को कैसे बदल सकती हूँ। आधा दिन बीतने के बाद मुझे अचानक एक संदेश मिला। अगुआ ने कहा कि मुझे सस्वर पाठ का अभ्यास जारी रखने का एक और मौका दिया जाएगा। जिस क्षण मैंने संदेश पढ़ा मुझे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ। मुझे साफ एहसास हुआ कि यह परमेश्वर की दया है, जिसने मुझे पश्चात्ताप करने और अपनी देह के खिलाफ विद्रोह करने और सत्य का अभ्यास करने का मौका दिया है। मेरा दिल कृतज्ञता से भर गया और मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहूँ। मेरे सभी शब्द एक वाक्यांश में बदल गए थे—परमेश्वर का धन्यवाद! उस पल मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “परमेश्वर का स्वभाव जीवंत और एकदम स्पष्ट है, वह अपने विचार और रवैये चीज़ों के विकसित होने के हिसाब से बदलता है। नीनवे के लोगों के प्रति उसके रवैये का रूपांतरण मनुष्य को बताता है कि उसके अपने विचार और युक्तियाँ हैं; वह कोई मशीन या मिट्टी का पुतला नहीं है, बल्कि स्वयं जीवित परमेश्वर है। वह नीनवे के लोगों से क्रोधित हो सकता था, वैसे ही जैसे उनके रवैये के कारण उसने उनके अतीत को क्षमा किया था। वह नीनवे के लोगों के ऊपर दुर्भाग्य लाने का निर्णय ले सकता था, और उनके पश्चात्ताप के कारण वह अपना निर्णय बदल भी सकता था(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर मेरे साथ है और मेरी हर कथनी और करनी देख रहा है और जब मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हो गई तो परमेश्वर ने मुझे एक और मौका दिया।

बाद के अभ्यास के दौरान बहनों ने कुछ मुद्दे बताए। पहले तो मैं उनके साथ सही तरीके से पेश आई और सक्रियता से समाधान की खोज की, लेकिन जब मुश्किलें थोड़ी अधिक हो गईं तो मैं फिर से हताश हो गई और भागने की सोचने लगी। एक बार जब मैंने लगन से अभ्यास किया तो एक बहन ने कहा कि मेरा सस्वर पाठ यांत्रिक लग रहा है और मैं वाकई सुधार करने के बजाय पीछे हट रही हूँ। ऐसी टिप्पणी सुनकर मेरा मन बहुत भारी हो गया। मुझे उम्मीद थी कि मेरे अभ्यास से बेहतर परिणाम मिलेंगे, लेकिन इसके बजाय यह और भी बुरा लग रहा था। मैंने रिकॉर्ड करने की सारी प्रेरणा खो दी और सोचने लगी, “यह कर्तव्य बहुत कठिन है; मैं इसे नहीं कर सकती।” उस पल मैंने परमेश्वर के ये वचन देखे : “फिलहाल अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की गवाही देना और परमेश्वर के वचनों का प्रसार करना एक बड़ा मामला है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कर्तव्य है और तुम लोगों में से किसी को भी इसे कम नहीं आँकना चाहिए। तुम लोगों का दायित्व हल्का नहीं है। यह कोई छोटा मामला नहीं है, यह सिर्फ व्यक्तिगत अनुभवों से संबंधित कोई मुद्दा नहीं है। इस मामले से जुड़ा दायरा बहुत व्यापक है; इसका संबंध मानवजाति के उद्धार से और राज्य के सुसमाचार के प्रसार से है। अगर तुम लोग इस मामले को नहीं समझते हो और इसका महत्व महसूस नहीं करते हो, और अपना कर्तव्य निभाने के दौरान अभी भी खीझे रहते हो, बचकाने नखरे करते हो या चिढ़चिढ़े हो जाते हो, तो यह समस्याजनक बात है—तुम इस कार्य की जिम्मेदारी लेने के लिए उपयुक्त नहीं हो। तुम्हारे पेशेवर कौशलों का स्तर और तुम्हारी कार्य क्षमता तुम्हारी काबिलियत और कार्य अनुभव पर निर्भर करती हैं; ये गौण हैं। सबसे महत्वपूर्ण है एक ईमानदार दिल रखना, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाना और अपना कर्तव्य निभाने में कीमत चुकाने और वफादार होने के लिए तैयार होना(परमेश्वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे याद दिलाया कि मैं जो कर्तव्य कर रही थी, वह कोई सरल कार्य नहीं था। इसमें परमेश्वर के वचनों का प्रसार करना और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की गवाही देना शामिल था और इसे मैं अपनी इच्छा के अनुसार हल्के में नहीं ले सकती थी। यह सोचकर मैं उज्ज्वल और ऊर्जावान महसूस कर रही थी। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास करने का तरीका भी मिल गया। कौशल और काबिलियत गौण हैं; सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यक्ति के पास सही दिल होना चाहिए, उसे वफादार होना चाहिए और अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना चाहिए—यही वह गुण है जो परमेश्वर देखना चाहता है। मैंने खुद को शांत किया और परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के साथ अपना कर्तव्य नहीं करना चाहती। मुझे प्रयास करने और इस कर्तव्य के लिए कीमत चुकाने की जरूरत है, तुमने मुझे कर्तव्य निभाने का जो अवसर दिया है, उस पर खरा उतरना है। मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने सोचा कि बहन द्वारा उठाए गए मसलों पर कैसे ध्यान दिया जाए। मुझे एहसास हुआ कि सस्वर पाठ का सिद्धांत परमेश्वर के वचनों में शांत रहना है, परमेश्वर के वचनों को ईमानदारी से पढ़ना, उन पर विचार करना और उनका अर्थ समझना है और इस आधार पर सस्वर पाठ करना है, न कि यंत्रवत् पाठ पढ़ना है। इसलिए मैंने अपना मन शांत किया और परमेश्वर के वचन पढ़े, उन्हें अपनी अवस्था के अनुसार समझा। इस तरह सस्वर पाठ करने के बाद बहन ने कहा कि प्रभाव बहुत बेहतर है। मुझे एहसास हुआ कि यह परमेश्वर का मार्गदर्शन है और मुझे बहुत खुशी हुई। कुछ समय तक अभ्यास करने के बाद मुझे अपने सस्वर पाठ के नतीजे बेहतर बनाने के तरीके मिले और मेरे सस्वर पाठ से जुड़ी समस्याएँ कुछ हद तक दूर हो गईं। मुझे ऐसा अनुभव देने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!

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