63. मसले बताने के पीछे कौन-सी अशुद्धियाँ छिपी होती हैं?

डिंग जेन, चीन

नवंबर 2021 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। चूँकि मैं अपने कर्तव्यों में सक्रिय थी और मेरे काम से कुछ नतीजे मिले थे, इसलिए भाई-बहन मुझे काफी सम्मान देते थे। उच्च अगुआ भी मेरे बारे में अच्छा सोचते थे और अक्सर मेरी अवस्था के बारे में पूछते थे। अन्य कलीसियाओं में प्रचार करने के लिए संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता थे और सुसमाचार पर्यवेक्षक ने सुसमाचार फैलाने के लिए मुझे आगे बढ़ाया। इतनी कम उम्र में इतनी काबिलियत रखने के लिए मेरी सहयोगी बहन भी मेरी प्रशंसा करती थी। मैं बहुत खुश थी और सोचती थी, “भले ही मुझे अगुआ बने हुए बहुत समय नहीं हुआ है, भाई-बहनें और उच्च अगुआ सभी मुझे सम्मान देते हैं और अन्य कलीसियाओं के लोग भी जानते हैं कि मैं काम करने में सक्षम हूँ। ऐसा लगता है कि मैं अपने काम में बहुत अच्छी हूँ और हर कोई मुझे एक दुर्लभ प्रतिभा मानता होगा।” इन विचारों ने मुझे वाकई में खुश कर दिया और मैं हमेशा ऊर्जा से भरपूर रहती थी।

मई 2022 में लियू युन को अगुआ बनाकर हमारी कलीसिया में स्थानांतरित कर दिया गया। एक बार जब लियू युन हमारी कलीसिया में आ गई तो वह कर्मचारियों से घुलने-मिलने लगी और विभिन्न कार्यों की प्रगति का जायजा भी लेने लगी। उसने पाया कि जिन घरों में किताबें रखी जा रही थीं, उनमें से एक घर असुरक्षित था और सिद्धांतों के उल्लंघन से जुड़ी कुछ समस्याएँ भी थीं। उसे एक ऐसा व्यक्ति भी मिला जो सभाओं के दौरान कुछ अविश्वासी टिप्पणियाँ करता था, कलीसियाई जीवन बाधित करता था और उसने बार-बार संगति के बावजूद सुधार नहीं किया था। लियू युन ने हमें याद दिलाया कि हमें भेद पहचानना सीखना होगा और सिद्धांतों के अनुसार इस व्यक्ति को अलग-थलग करना होगा। लियू युन ने उन नवागंतुकों का सक्रियता से साथ दिया जो नकारात्मक और कमजोर थे और सभाओं में अनियमित थे और धीरे-धीरे नवागंतुकों की दशाएँ सुधरने लगीं। वह कुछ लोगों का मत परिवर्तित करने में भी कामयाब रही। यह सब देखकर मुझे लगा कि लियू युन वाकई काबिल कार्यकर्ता है जो समस्याएँ ढूँढ़कर उनका समाधान कर सकती है, लेकिन मुझे अपने अंदर कड़वाहट का भी एहसास हुआ, “हम दोनों कलीसिया अगुआ हैं, लेकिन उसने कुछ ऐसी समस्याएँ सुलझाई हैं जिन पर मेरा ध्यान ही नहीं गया था। हर कोई हमारी तुलना कर रहा होगा और सोच रहा होगा कि लियू युन मुझसे बेहतर है। क्या दूसरों की नजर में मेरा रुतबा थोड़ा-सा कम नहीं हो रहा होगा?” बाद में सहकर्मियों की एक बैठक में लियू युन ने बताया कि हाल ही में उसने नवागंतुकों का साथ कैसे दिया था। उच्च अगुआओं ने सुनते ही स्वीकृति में सिर हिलाया और सहयोगी भाई-बहनों ने भी ध्यान से सुना। मैंने देखा कि हर कोई उस पर अधिक से अधिक ध्यान दे रहा था और मैं असहज और थोड़ी उपेक्षित महसूस कर रही थी, सोच रही थी, “मैं सभाओं में अपने अनुभवजन्य ज्ञान के बारे में बहुत बात करती थी और अगुआ भी मुझे काफी महत्व देते थे। अब सबका ध्यान लियू युन पर केंद्रित है। अगर चीजें ऐसे ही चलती रहीं तो कौन मेरी तरफ ध्यान देगा या मुझे आदर देगा? नहीं, मुझे सबको दिखाना होगा कि उसमें कमी है। इससे उसकी हिम्मत टूट जाएगी और उसका उत्साह कम हो जाएगा, साथ ही सभी लोग उसे आदर देना बंद कर देंगे। इससे सबका ध्यान फिर से मेरी ओर जाएगा और मैं अपना प्रभामंडल फिर से पा सकूँगी।”

इसके बाद लियू युन के साथ सहयोग करते हुए मैं जानबूझकर उसकी खामियों और कमियों पर ध्यान देने लगी। मैंने पाया कि वह कभी-कभी दिखावा करती है और मैं उसकी इस समस्या के बारे में बात करना चाहती थी। लेकिन सच तो यह था कि दूसरों ने पहले ही इस कमी की ओर इशारा कर दिया था और उसने कुछ हद तक सुधार भी किया था। लेकिन लियू युन को निराश करने के इस अवसर का फायदा उठाने के लिए मैंने उन चीजों की आंतरिक गणना की, जिनके बारे में उसने डींग मारी थी और उन्हें मन में याद कर लिया, ताकि जब मैं उसका कुछ “मार्गदर्शन और मदद” करूँ तो मेरे पास एक अकाट्य आधार हो और उसे यह दिखा सकूँ कि इस क्षेत्र में उसका भ्रष्ट स्वभाव अभी भी बहुत गंभीर है और वह अभी नाममात्र को बदली है। इस तरह वह अपना सिर थोड़ा और झुकाकर रखेगी और मैं अलग दिख पाऊँगी। बाद में उस पर लागू करने के लिए मुझे प्रकाशन और न्याय के परमेश्वर के कुछ कठोर वचन मिले। परमेश्वर के इन कठोर वचनों को देखकर मैंने मन ही मन सोचा, “लियू युन सिर्फ थोड़ी-सी भ्रष्टता प्रकट कर रही है और बदलने की कोशिश कर रही है। अगर मैं परमेश्वर के इन वचनों को उस पर लागू करूँ तो क्या वह सहन कर पाएगी?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “वह वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करती है; वह ठीक रहेगी। इसके अलावा यह वाकई उसकी समस्या है और अगर वह इसे स्वीकार न कर पाने के कारण नकारात्मक और कमजोर हो जाती है उसका कार्य खराब होने लगता है तो इससे मुझे अलग दिखने का मौका मिलेगा।” फिर मैंने उसके प्रवेश के लिए अभ्यास के बारे में परमेश्वर के कुछ वचन ढूँढ़े, सोचा कि इस तरह से मेरे छिपे हुए इरादों पर किसी को शक नहीं होगा। अगले दिन सहकर्मियों के साथ एक बैठक के दौरान वह अपनी अवस्था के बारे में बताने लगी, कहने लगी कि वह हाल ही में बाहरी मामलों में व्यस्त रही है और जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाई है और भले ही वह पौलुस के मार्ग पर चलना नहीं चाहती थी, लेकिन वह खुद को रोक नहीं पाई—इससे पहले कि वह बोलना खत्म करती, मैं खुद को रोक नहीं सकी। मैंने सोचा, “चूँकि वह जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है तो मैं इस मौके का फायदा उठाकर उसकी समस्याएँ बता सकती हूँ और उसे उसकी कमियाँ दिखा सकती हूँ। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उच्च अगुआ, भाई-बहन सभी यहाँ हैं, इसलिए अगर मैं खुलकर बोलूँगी तो सबको उसकी कमियों के बारे में पता चल जाएगा और वे उसकी इतनी प्रशंसा करना बंद कर देंगे। और जब सभी देखेंगे कि कैसे मैं उसका मार्गदर्शन और मदद कर सकती हूँ तो वे मुझे जिम्मेदारी उठाने वाले व्यक्ति के रूप में देखेंगे। मैं एक तीर से दो शिकार कर लूँगी!” इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी आवाज सामान्य से थोड़ी ऊँची की और लियू युन से थोड़े ज्यादा उत्सुक स्वर में कहा, “तुम कहती रहती हो कि तुम जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करना चाहती हो, लेकिन तुम्हारे पास अभ्यास का कोई सटीक मार्ग नहीं है। तुम छोटी-छोटी चीजों पर आत्म-चिंतन करके शुरुआत कर सकती हो। मैंने तुम्हारे अंदर देखे कुछ मुद्दे लिखे हैं। तुम इन पर थोड़ा आत्म-चिंतन कर सकती हो।” बोलते समय मैंने वह पत्र खोलना शुरू किया जो मैंने लिखा था, जिसमें उसके दिखावे के तौर-तरीके बताए थे। फिर मैंने उससे गंभीर स्वर में बात की कि परमेश्वर का उन लोगों के प्रति क्या रवैया है जो दिखावा करना पसंद करते हैं और मैंने इन लोगों के मार्ग और उस पर चलने के दुष्परिणामों का गहन-विश्लेषण किया। फिर मैंने अभ्यास के कुछ मार्ग प्रस्तावित किए। मेरे यह सब करने के बाद लियू युन कुछ असहज और शर्मिंदा दिखी और बोली, “मैं तुम्हारी बात स्वीकारती हूँ और मुझे आत्म-चिंतन करने के लिए कुछ समय चाहिए।” जब उसने यह कहा तो मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ और मुझे डर लगा कि हर कोई मेरे छिपे हुए इरादे देख लेगा। लेकिन फिर मैंने सोचा, “मैंने जो कहा वह सच था, और इसके अलावा मुझे अभ्यास के कुछ मार्ग भी मिले हैं, इसलिए कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए।” उच्च अगुआओं, भाई-बहनों ने मेरी बात नहीं काटी, इसलिए ऐसा लगा कि वे मुझसे सहमत थे। इस विचार से मुझे थोड़ी और राहत मिली।

कुछ दिनों बाद एक शाम को जब मैं और लियू युन मिलकर काम पर चर्चा कर रहे थे, मैंने उसकी जो “मदद” की थी, उसके बारे में मुझे थोड़ी बेचैनी हुई और मैंने उसकी अवस्था के बारे में पूछा। उसने कहा कि यह बहुत अच्छी नहीं है। उसे लगा कि इतने सालों से विश्वासी होने के बावजूद अपने भ्रष्ट स्वभाव के इस पहलू को बदलने में असमर्थ होना निर्धारित करता है कि वह बदलने में अक्षम है और वह वाकई नकारात्मक हो गई है। यह सुनकर मैं बेचैन हो गई और मैंने सोचा, “क्या ऐसा हो सकता है कि उसकी समस्या बताने से उसे इतना दुख पहुँचा हो कि वह नकारात्मक हो गई हो?” फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का उपयोग करके उसके भ्रष्ट स्वभाव के इस पहलू को सुलझाने के मार्ग पर सावधानी से संगति की और फिर उसे बताया कि उसे इसका ठीक से सामना करने और अपनी अवस्था सुधारने की जरूरत है। मैंने देखा कि उसे थोड़ी समझ मिली है, जिससे मुझे जरा और शांति मिली। बाद में मैंने इस मामले को देखते हुए आत्म-चिंतन किया और परमेश्वर से प्रार्थना की, अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचानने के लिए उससे मार्गदर्शन माँगा। मैंने परमेश्वर के वचनों के ये अंश पढ़े : “कुछ लोग हमेशा इस बात से डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊपर हैं, अन्‍य लोगों को पहचान मिलेगी, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है, और इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या यह स्‍वार्थपूर्ण और निंदनीय नहीं है? यह कैसा स्वभाव है? यह दुर्भावना है! जो लोग दूसरों के बारे में सोचे बिना या परमेश्वर के घर के हितों को ध्‍यान में रखे बिना केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, जो केवल अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं, वे बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर में उनके लिए कोई प्र‍ेम नहीं होता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। “लोगों को नियंत्रित करने के लिए मसीह-विरोधी जिस तीसरी तरकीब का उपयोग करते हैं : सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं। कुछ लोगों को सकारात्मक चीजें, न्याय और प्रकाश और सत्य के बारे में संगति करना पसंद होता है। वे अक्सर उन भाई-बहनों की तलाश में रहते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और सत्य के साथ संगति करने के लिए उसकी खोज में लगे रहते हैं। यह देखकर एक मसीह-विरोधी का गुस्सा भड़क उठता है। उनके लिए सत्य का अनुसरण करने वाला हर व्यक्ति आँख की किरकिरी की तरह, रास्ते के काँटे की तरह होता है; वे चाहते हैं कि सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोग उनके आक्रमणों, निकाले जाने और हमलों का शिकार बनते रहें। बेशक एक मसीह-विरोधी इन लोगों पर केवल ऐसी क्रूर, बर्बर रणनीति के साथ आक्रमण नहीं करेगा जो लोगों के देखने के लिए साफ और स्पष्ट हो। वे सत्य की संगति करने का तरीका अपनाते हैं और कुछ शब्दों और सिद्धांतों के साथ वे लोगों के मामले में फैसला सुनाते हैं और उन पर प्रहार करते हैं। इससे लोगों को लगता है कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह वाजिब और उचित है, कि वे सहायता कर रहे हैं—कि वे जो कुछ कर रहे हैं उसमें कुछ भी गलत नहीं है। उनके ये ‘वाजिब और उचित’ तरीके कौन से हैं? (वे लोगों के मामले में फैसला सुनाने और उन पर प्रहार करने के लिए परमेश्वर के वचनों का हवाला देते हैं।) सही है—वे लोगों को उजागर करने और उनके मामले में फैसला सुनाने के लिए परमेश्वर के वचनों का हवाला देते हैं। यही उनका सबसे आम तरीका होता है। बाहर से देखने पर तो बोलने का यह तरीका न्यायसंगत, उचित और काफी वाजिब लगता है, लेकिन अंदर से उनका इरादा दूसरों की मदद करना नहीं होता, बल्कि उन्हें उजागर करना, उनके मामले में फैसला सुनाना, उनकी निंदा करना और उन्हें नीचा दिखाना होता है। यही वह चीज है जिसे वह पूरा करना चाहते हैं। तो समस्या अंदर है जहाँ से उनकी शुरुआत होती है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद तीन : सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं)। “मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों का सार्वजनिक दमन, लोगों को निकालना, लोगों के विरुद्ध हमले, और लोगों की समस्याएँ उजागर करना, सब निशाना बनाने के लिए होते हैं। निस्संदेह, वे ऐसे साधनों का उपयोग उन लोगों को निशाना बनाने के लिए करते हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और उन को पहचान सकते हैं। इन लोगों को तोड़कर वे अपनी स्थिति मजबूत करने का लक्ष्य हासिल करते हैं। इस तरह से लोगों पर आक्रमण कर उन्हें निकाल देना एक दुर्भावनापूर्ण प्रकृति का कार्य है। उनकी भाषा और बोलने के तरीके में आक्रामकता होती है : उजागर करना, निंदा करना, बदनामी करना और दुष्टतापूर्वक चरित्रहनन करना। यहाँ तक कि वे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं, सकारात्मक चीजों के बारे में ऐसे बोलते हैं, मानो वे नकारात्मक हों और नकारात्मक चीजों के बारे में ऐसे, मानो वे सकारात्मक हों। इस तरह काले और सफेद को उलटना और सही और गलत को मिश्रित करना मसीह-विरोधियों का लोगों को हराने और उनका नाम खराब करने का लक्ष्य पूरा करता है। कौन सी मानसिकता विरोधियों पर इस आक्रमण और उन्हें निकाल देने को जन्म दे रही है? ज्यादातर समय यह ईर्ष्यालु मानसिकता से आता है। शातिर स्वभाव में ईर्ष्या के साथ तीव्र घृणा रहती है; और अपनी ईर्ष्या के परिणामस्वरूप मसीह-विरोधी लोगों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं। इस तरह की स्थिति में, अगर मसीह-विरोधियों को उजागर किया जाता है, उनकी रिपोर्ट की जाती है और वे अपनी हैसियत खो देते हैं और उनके दिमाग पर एक वार होता है; तो वे न तो समर्पण करते हैं और न ही इससे खुश होते हैं, और उनके लिए प्रतिशोध की एक मजबूत मानसिकता बनाना और भी आसान हो जाता है। बदला एक तरह की मानसिकता है, और वह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव भी है। जब मसीह-विरोधी देखते हैं कि किसी ने जो किया है, वह उनके लिए नुकसानदेह है, कि दूसरे उनसे ज्यादा सक्षम हैं, या किसी के कथन और सुझाव उनसे बेहतर या समझदारीपूर्ण हैं, और हर कोई उस व्यक्ति के कथनों और सुझावों से सहमत है, तो मसीह-विरोधी महसूस करते हैं कि उनका पद खतरे में है, उनके दिलों में ईर्ष्या और घृणा पैदा हो जाती है, और वे आक्रमण कर बदला लेते हैं। बदला लेते समय मसीह-विरोधी आम तौर पर अपने लक्ष्य पर पूर्वनिर्धारित वार करते हैं। वे तब तक लोगों पर आक्रमण करने और उन्हें तोड़ने में सक्रिय रहते हैं, जब तक दूसरा पक्ष समर्पण नहीं कर देता। तब जाकर उन्हें लगता है कि उनकी भड़ास निकल गई। लोगों पर आक्रमण और उन्हें निकालने की और क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं? (दूसरों को नीचा दिखाना।) दूसरों को नीचा दिखाना इसे अभिव्यक्त करने के तरीकों में से एक है; चाहे तुम कितना भी अच्छा काम करो, मसीह-विरोधी फिर भी तुम्हें नीचा दिखाएँगे या तुम्हारी निंदा करेंगे, जब तक कि तुम नकारात्मक, कमजोर और खड़े होने में अक्षम नहीं हो जाते। तब वे प्रसन्न होंगे, और उन्होंने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया होगा(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दो : वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मुझे डर था कि दूसरे लोग सिर्फ लियू युन की परवाह करेंगे और मेरा सम्मान नहीं करेंगे, इसी वजह से मैंने उस पर हमला किया और उसे बहिष्कृत कर दिया और यह द्वेषपूर्ण स्वभाव था। लियू युन हमारी कलीसिया का साथ देने आई थी और न सिर्फ उसने कुछ वास्तविक काम किए थे, बल्कि मेरे कर्तव्यों में भी मेरी मदद की थी। लेकिन मैंने यह नहीं सोचा कि कर्तव्य ठीक से निभाने या कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में उसके साथ कैसे सामंजस्यपूर्ण सहयोग किया जाए, मैंने उसे सिर्फ अपने रुतबे के लिए खतरा माना और डरती रही कि अगर चीजें जैसी हैं वैसी ही चलती रहीं तो कोई भी मेरा सम्मान नहीं करेगा, इसलिए मैंने जानबूझकर उसकी कमियाँ खोजीं और फिर उनका फायदा उठाया, “मार्गदर्शन और मदद” का इस्तेमाल करके उस पर हमला किया। भले ही ऐसा लग रहा था कि मैं उसकी खुद को समझने में मदद कर रही थी, असल में मुझे बस उससे जलन हो रही थी कि वह हर तरह से मुझसे बेहतर है। मैं चाहती थी कि वह खुद को सीमित कर ले, प्रकाशन और न्याय के परमेश्वर के वचन पढ़कर हताश हो जाए ताकि वह इतनी अलग न दिखे। मैंने देखा कि लियू युन को मेरी “मदद” दरअसल उस पर हमला करने का एक दिखावा मात्र था। मैं उससे ईर्ष्या करती थी और उस पर हमला करना, उसे नकारात्मक महसूस कराना और अपने नीचे रखना चाहती थी। मेरी हरकतें मसीह-विरोधियों जैसी थीं जो सत्य का अनुसरण करने वालों पर हमला करते हैं और उन्हें बहिष्कृत करते हैं, लोगों को दबाने के लिए उचित और वैध लगने वाले तरीकों का इस्तेमाल करते हैं जिससे भाई-बहनों की नजरों में उनका रुतबा मजबूत होता है। इससे जो प्रकट हुआ वह दुष्ट स्वभाव था! परमेश्वर के वचनों का मर्म समझने से मुझे महसूस हुआ कि परमेश्वर मसीह-विरोधियों के स्वभाव से घृणा और तिरस्कार करता है और मुझमें संत्रास और भय की भावना समा गई। मुझे लगा कि परमेश्वर पक्का मुझसे घृणा करेगा। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। मैं अपने भाई-बहनों पर फिर से हमला या उन्हें बहिष्कृत नहीं करना चाहती। मुझ पर दया करो और इसके जरिए मुझे अपनी कुछ सच्ची पहचान हासिल करने दो।”

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े जिससे मुझे अपनी समस्या के बारे में कुछ समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो उनसे बेहतर है, तो लोगों के मन में अपनी जगह बचाए रखने के लिए वह उन्हें नीचे गिराने की कोशिश करता है, उनके बारे में अफवाहें फैलाता है, या उन्हें बदनाम करने और उनकी प्रतिष्ठा कम करने के लिए कुछ घिनौने तरीकों का इस्तेमाल करता है—यहाँ तक कि उन्हें रौंदता है—यह किस तरह का स्वभाव है? यह केवल अहंकार और दंभ नहीं है, यह शैतान का स्वभाव है, यह द्वेषपूर्ण स्वभाव है। यह व्यक्ति अपने से बेहतर और मजबूत लोगों पर हमला कर सकता है और उन्हें अलग-थलग कर सकता है, यह कपटपूर्ण और दुष्ट है। वह लोगों को नीचे गिराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगा, यह दिखाता है कि उसके अंदर का दानव काफी बड़ा है! शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हुए, संभव है कि वह लोगों को कमतर दिखाए, उन्हें फँसाने की कोशिश करे, और उनके लिए मुश्किलें पैदा कर दे। क्या यह कुकृत्य नहीं है? इस तरह जीते हुए, वह अभी भी सोचता है कि वह ठीक है, अच्छा इंसान है—फिर भी जब वह अपने से बेहतर व्यक्ति को देखता है, तो संभव है कि वह उसे परेशान करे, उसे पूरी तरह कुचले। यहाँ मुद्दा क्या है? जो लोग ऐसे बुरे कर्म कर सकते हैं, क्या वे अनैतिक और स्वेच्छाचारी नहीं हैं? ऐसे लोग केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, वे केवल अपनी भावनाओं का खयाल करते हैं, और वे केवल अपनी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और अपने लक्ष्यों को पाना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वे कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान पहुँचाते हैं, और वे अपनी प्रतिष्ठा और लोगों के मन में अपने रुतबे की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हितों का बलिदान करना पसंद करेंगे। क्या ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट, स्वार्थी और नीच नहीं होते? ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट ही नहीं, बल्कि बेहद स्वार्थी और नीच भी होते हैं। वे परमेश्वर के इरादों को ले कर बिल्कुल विचारशील नहीं हैं। क्या ऐसे लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है? उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। यही कारण है कि वे बेतुके ढंग से आचरण करते हैं और वही करते हैं जो करना चाहते हैं, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अकसर करते हैं, और इसी तरह उन्‍होंने हमेशा आचरण किया है। इस तरह के आचरण की प्रकृति क्या है? हल्‍के-फुल्‍के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्‍यालु होते हैं और उनमें अपनी निजी प्रतिष्ठा और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो समस्‍या का सार यह है कि इस तरह के लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। उन्हें परमेश्वर का भय नहीं होता, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलू को परमेश्वर से भी ऊंचा और सत्य से भी बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिलकुल भी महत्व नहीं होता। क्‍या वो लोग सत्‍य का अभ्यास कर सकते हैं जिनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, और जिनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है? बिल्कुल नहीं। इसलिए, जब वे सामान्यतः मुदित मन से और ढेर सारी ऊर्जा खर्च करते हुए खुद को व्‍यस्‍त बनाये रखते हैं, तब वे क्‍या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए खपाने की खातिर सब कुछ त्‍याग दिया है और बहुत अधिक दुख झेला है, लेकिन वास्‍तव में उनके सारे कृत्‍य, निहित प्रयोजन, सिद्धान्‍त और लक्ष्‍य, सभी खुद के रुतबे, प्रतिष्ठा के लिए हैं; वे केवल सारे निजी हितों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? किस तरह के लोगों में कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता? क्या वे अहंकारी नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? और किन चीजों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल सबसे कम होता है? जानवरों के अलावा, बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों में, दानवों और शैतान के जैसों में। वे सत्य को जरा-भी नहीं स्वीकारते; उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। वे किसी भी बुराई को करने में सक्षम हैं; वे परमेश्वर के शत्रु हैं, और उसके चुने हुए लोगों के भी शत्रु हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर और उन्हें अपने व्यवहार के साथ जोड़कर मुझे समझ आया कि दूसरों को बहिष्कृत करने और दबाने की जड़ें परमेश्वर का बिल्कुल भी भय न मानने वाले मेरे हृदय में जमी थीं। मेरे विचार, सोच और कार्यकलाप सभी मेरी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए थे। लियू युन के आने से पहले मैं हर तरह से सबसे बेहतर थी, लेकिन जब मैंने देखा कि वह हर मामले में मुझसे आगे निकल गई है तो मैं जलने लगी, उसकी श्रेष्ठता स्वीकार नहीं पाई और उसे खुद से आगे नहीं निकलने देना चाहती थी। इसीलिए मैंने उसके द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टता का फायदा उठाया और उसकी “मदद” करने को एक वैध लगते तरीके के रूप में इस्तेमाल किया ताकि उसे अपमानित करूँ, सबको उसकी खामियाँ दिखाऊँ और लोगों से फिर से सराहना पाऊँ। इस दौरान मैंने उस पर हमला करने के लिए परमेश्वर के वचनों का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, उसे नकारात्मक महसूस कराना चाहा और अपना कर्तव्य निर्वहन में अनिच्छुक बनाना चाहा, मैंने खुद को दूसरों से अलग दिखना और दूसरों को अपने घृणित इरादे देखने से रोकना चाहा। मैं बहुत कपटी और दुष्ट थी! मैं शैतानी जहर के सहारे जी रही थी, सोच रही थी कि कलीसिया हम दोनों के लिए काफी नहीं है। मैं कलीसिया में किसी का भी मुझसे आगे निकलना या मुझसे बेहतर प्रदर्शन करना बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। मैं दूसरों से प्रशंसा पाने का आनंद लेती रहना चाहती थी और उनके दिलों में जगह बनाना चाहती थी क्योंकि मुझे अपने काम में कुछ नतीजे मिल रहे थे। लियू युन एक काबिल कार्यकर्ता थी, अपने कर्तव्यों में प्रभावी थी और विभिन्न कलीसियाई कार्यों को आगे बढ़ाने में सक्षम थी, लेकिन मैंने यह नहीं सोचा कि कर्तव्य निभाने या कलीसिया के काम की रक्षा करने में उसके साथ तालमेल बनाकर कैसे सहयोग किया जाए। मैंने सिर्फ यही सोचा कि मैं सबसे बेहतर व्यक्ति बनूँ, इस हद तक कि लियू युन पर हमला करके उसे नकारात्मक महसूस करवाऊँ और खुद को बड़ा दिखाऊँ। मैंने इस बारे में जरा भी विचार नहीं किया कि क्या इससे कलीसिया के काम पर असर पड़ेगा और मैंने देखा कि मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय जरा भी नहीं था। परमेश्वर चाहता है कि भाई-बहन सेवा में सहयोग करें और अपने दिल और दिमाग से एक होकर अपने कर्तव्य अच्छे से निभाएँ। भले ही जब मैंने देखा कि कलीसिया में कोई व्यक्ति वास्तविक काम करने और समस्याएँ सुलझाने में सक्षम है तो मैंने सिर्फ इस बारे में सोचा कि वह मुझे दूसरों से प्रशंसा पाने से कैसे वंचित कर सकती है, इसलिए मैंने उसे बहिष्कृत किया और दबाया। मैंने कलीसिया को अपनी योग्यताएँ दिखाने की एक जगह माना और मैंने जो किया वह व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करना था, जिससे परमेश्वर वाकई घृणा करता है! मैंने परमेश्वर से मौन प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, न्याय, प्रकाशन, मार्गदर्शन और प्रावधान के तुम्हारे वचनों ने मुझे धीरे-धीरे अपने बारे में कुछ समझ हासिल करने की अनुमति दी है और मैं देखती हूँ कि प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना मुझे सिर्फ तुम्हारा प्रतिरोधी बना सकता है। मैं अब तुम्हारे खिलाफ खड़ी नहीं होना चाहती। मैं तुम्हारे वचनों के अनुसार अभ्यास करने के लिए तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो!”

इसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “सृजित मानवता के एक सदस्य के रूप में, मनुष्य को अपनी स्थिति बनाए रखनी चाहिए, और शिष्ट रूप से आचरण करना चाहिए। सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें जो सौंपा गया है, उसकी कर्तव्यपरायणता से रक्षा करो। अनुचित कार्य मत करो, न ही ऐसे कार्य करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान इंसान, अतिमानव या एक भव्य व्यक्ति बनने की कोशिश मत करो, और परमेश्वर बनने का प्रयास मत करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अतिमानव बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना तो और भी ज्यादा शर्मनाक है; यह घृणित और निंदनीय है। जो मूल्यवान है, और जो सृजित प्राणियों को किसी भी चीज से ज्यादा करना चाहिए, वह है एक सच्चा सृजित प्राणी बनना; यही एकमात्र लक्ष्य है जिसका सभी लोगों को अनुसरण करना चाहिए(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्‍हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्‍हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्‍हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्‍यों को दूर रखना चाहिए, तुम्‍हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्‍ट व्‍यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्‍मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्‍ट करने की तुम्‍हारी इच्छा घटती चली जाएगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि परमेश्वर हमसे अपेक्षा करता है कि हम कर्तव्यनिष्ठा से आचरण करें, अपने कर्तव्य ठीक से निभाएँ और उसके सामने सभी काम करें और उसकी पड़ताल स्वीकारें। जब हम दूसरों को अपने से आगे निकलते देखते हैं तो हमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना चाहिए, उससे अधिक प्रार्थना करनी चाहिए, प्रशंसा, प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी खोज को एक तरफ रखना चाहिए और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना शुरू कर देखना चाहिए कि अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभाएँ, कैसे ऐसे कार्य करें जिससे परमेश्वर प्रसन्न हो और फिर हमें अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करना चाहिए और ऐसे काम करने चाहिए जो हमारे भाई-बहनों के जीवन को लाभ पहुँचाएँ। इस तरह से आचरण और काम करने से हम खुलकर जी सकते हैं और परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं। एक बार जब मैं इन बातों को समझ गई, तो मैंने यह पहल की कि मैं लियू युन और दूसरों के सामने इस बारे में खुलकर बात करूँ कि मैं क्या भ्रष्टता प्रकट कर रही हूँ। ऐसा करते समय मैं काफी शर्मिंदा थी, इसलिए मैंने मौन प्रार्थना की और परमेश्वर से हिम्मत माँगी। मेरे कबूलनामे के बाद भाई-बहनों ने मुझे नीची नजरों से नहीं देखा और लियू युन ने कहा कि मेरे मार्गदर्शन और काट-छाँट के जरिए वह अपना भ्रष्ट स्वभाव थोड़ा और समझ पाई है। यह देखकर कि लियू युन सही तरीके से चीजों का सामना करने और कुछ हद तक प्रवेश पाने में सक्षम थी, मैंने अपने दिल की गहराई से परमेश्वर का धन्यवाद किया और मैंने खुद को जानने, पश्चात्ताप करने और बदलने का मौका देने के लिए भी परमेश्वर का धन्यवाद किया।

कुछ समय बाद लियू युन हमारे साथ काम पर चर्चा कर रही थी और उसने काम पर अपने कुछ विचारों के बारे में बात की। मैंने मन ही मन सोचा, “तुम इतना अच्छा और इतना कुछ बोलती हो, तो भला मैं कैसे अलग दिख सकती हूँ? सच तो यह है कि जायजा लेने के काम के कुछ क्षेत्रों में तुम अभी भी कमजोर हो। मुझे तुम्हारे जायजा लेने के काम में यह कमियाँ बतानी हैं ताकि हमारे सहकर्मी तुम्हारे हाल के कर्तव्यों में विचलन देख सकें।” इसी पल मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से दूसरों से प्रशंसा पाना चाहती थी और लियू युन से आगे निकलना चाहती थी। मैंने सोचा कि परमेश्वर ने क्या कहा है, जो लोग प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते हैं, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय जरा भी नहीं होता और सिर्फ बुरे लोग और मसीह-विरोधी ही ऐसे काम करते हैं। मुझे खुद से थोड़ी नफरत होने लगी और मैं इस तरह से आगे नहीं बढ़ना चाहती थी। तब मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भजन याद आया : “परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार करके ही तुम उसके समक्ष रह सकते हो” यह कहता है : “तू जो कुछ भी करता है, हर कार्य, हर इरादा, और हर प्रतिक्रिया, अवश्य ही परमेश्वर के सम्मुख लाई जानी चाहिए। यहाँ तक कि, तेरे रोजाना का आध्यात्मिक जीवन भी—तेरी प्रार्थनाएँ, परमेश्वर के साथ तेरा सामीप्य, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का तेरा ढंग, भाई-बहनों के साथ तेरी सहभागिता, और कलीसिया के भीतर तेरा जीवन—और साझेदारी में तेरी सेवा परमेश्वर के सम्मुख उसके द्वारा छानबीन के लिए लाई जा सकती है। यह ऐसा अभ्यास है, जो तुझे जीवन में विकास हासिल करने में मदद करेगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसके इरादों के अनुरूप हैं)। मैंने परमेश्वर से मौन प्रार्थना की, “हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी लालसा सुधारना चाहती हूँ और लियू युन के साथ होड़ करना बंद करना चाहती हूँ। मेरे हृदय की रखवाली और रक्षा करो। मैं तुम्हारी जाँच स्वीकारने के लिए तैयार हूँ।” इस तरह प्रार्थना करने के बाद मुझे बहुत शांति मिली। फिर हमने चर्चा की कि अपने कर्तव्यों में आगे कैसे बढ़ना है। हमने आपसी सहयोग में संगति की और कुछ लक्ष्य और दिशा पाई। इस तरह से अभ्यास करने के बाद मेरा हृदय अधिक शांत और स्पष्ट हो गया और मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने से दूसरों के साथ बातचीत करना सहज और सामंजस्यपूर्ण हो जाता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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