62. आखिरकार मैं कुछ आत्मजागरूकता पा चुकी हूँ

जियांग निंग, चीन

सर्दियों की एक शाम को स्टूडियो में मद्धिम रोशनी चमक रही थी। जियांग निंग, यी चेन और लियू फेई अपने अगले पेंटिंग प्रोजेक्ट पर सक्रिय रूप से चर्चा कर रही थीं। हालाँकि यह काफी कठिन काम था, लेकिन वे आस्था से ओतप्रोत थीं, खासकर जियांग निंग, जिसके चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था और वह सोच रही थी, “पेंटिंग में मेरा हाथ अच्छा है और संयोजन और रंग सिद्धांत पर भी मेरी पकड़ अच्छी-खासी है। मैं होशियार भी हूँ, अच्छी शिक्षार्थी हूँ और नई चीजें तेजी से समझती हूँ, अगर मेरे पास अध्ययन और अभ्यास करने का और समय हो तो यकीनन मैं इस कौशल में पारंगत हो जाऊँगी और इस शैली के चित्र बना लूँगी।” वे तीनों इसके बाद अध्ययन के लिए विभिन्न सामग्री खोजने लगीं और अपने निष्कर्ष एक दूसरे के साथ साझा करने लगीं। उनकी सुपरवाइजर भी अक्सर उनके साथ अध्ययन करने आती थी। कुछ समय बाद जियांग निंग को लगा कि उसने इस नई चित्रकला शैली में पकड़ बना ली है। यी चेन और लियू फेई ने भी कहा कि जियांग निंग सीखने में तेज है और वह जो कृतियाँ बना रही है वे अच्छी हैं और जियांग निंग को बाद में उनके साथ यह साझा करना चाहिए कि उसने अपने अध्ययन में क्या सीखा और हासिल किया है। उनके मुँह से तारीफ सुनकर जियांग निंग फूली नहीं समाई और उसने सोचा, “मेरा कला कौशल मेरी साथी बहनों से अच्छा है, उनके साथ पेंटिंग संबंधी विचारों पर चर्चा करते हुए मुझे अक्सर प्रेरणा मिलती है और मैं टीम में अग्रणी भूमिका निभाती हूँ।” वह इस तरह से जितना ज्यादा सोचने लगी उतनी ही ज्यादा दंभी होती गई और अनजाने में ही उसने श्रेष्ठता-बोध के साथ अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया।

एक सुबह जियांग निंग, यी चेन और लियू फेई एक चित्र के संयोजन पर चर्चा कर रही थीं। अपनी राय बताने के बाद जियांग निंग अपनी बहनों के विचारों को ध्यान से सुनने लगी, लेकिन सुनते-सुनते उसकी त्योरियाँ चढ़ती गईं और उसके चेहरे पर उपेक्षा का भाव आ गया। उसने सोचा, “मैं तुम दोनों से ज्यादा प्रतिभाशाली पेंटर हूँ। नई तकनीकों का अध्ययन करते समय मैं तुमसे तेज सीखती हूँ। यही नहीं, सिद्धांतों पर भी मेरी पकड़ बेहतर है। तो मैं व्यावहारिक अनुप्रयोगों का गलत अर्थ कैसे निकाल सकती हूँ? तुम दोनों चुपचाप मेरी राय पर गौर क्यों नहीं करती हो?” लियू फेई अपनी बात पूरी कर पाती, उससे पहले ही जियांग निंग ने बेसब्री से टोका और तीखा सवाल किया, “तुम कह रही हो कि पेंटिंग में कुछ गड़बड़ी है। क्या तुम बता सकती हो कि वास्तव में गड़बड़ी क्या है? इसमें क्या छूट गया है? इसे कैसे सुधारा जा सकता है? इतनी पहेलियाँ मत बुझाओ, मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि तुम कहना क्या चाहती हो।” जियांग निंग के बीच में टोकने से तिलमिला चुकी लियू फेई ने असहज होकर कहा, “फिलहाल मेरे मन में महज एक विचार है, मैंने अभी इसके ब्योरों के बारे में नहीं सोचा है—” लियू फेई की बात पूरी होने तक रुके बिना जियांग निंग ने जल्दबाजी में अपनी राय दोहराई, उसे इस बात की बेसब्री थी कि लियू फेई उसका दृष्टिकोण स्वीकार ले। यी चेन और लियू फेई बिल्कुल असहज हो गईं और कमरे में सन्नाटा छा गया। माहौल में तनाव परसा देखकर जियांग निंग को थोड़ी-सी आत्मग्लानि हुई, “क्या मैं बहुत ज्यादा घमंड और अहंकार तो नहीं दिखा रही हूँ?” लेकिन फिर उसने सोचा, “मुद्दों पर चर्चा करते हुए थोड़ा-सा टकराव होना सामान्य बात है” और उसने अपनी समस्याओं पर आत्मचिंतन नहीं किया। बाद में जियांग निंग ने सुपरवाइजर से जाना कि उसके विचार गलत थे और इससे कार्य प्रभावित हुआ है, लेकिन उसने तब भी आत्मचिंतन नहीं किया। अपने कर्तव्यों से संबंधित मामलों में वह अक्सर अपनी बहनों के साथ बहस करती थी, सुपरवाइजर ने उनके साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग पर संगति की और जियांग निंग को उसके अहंकारी स्वभाव को लेकर समझाया लेकिन उसने इनमें से कुछ भी आत्मसात नहीं किया। उसे लगता था कि भले ही वह थोड़ा-सा अहंकारी स्वभाव प्रकट करती है, फिर भी वह अपने कर्तव्य में योगदान देने में सक्षम है और चूँकि उसकी राय आम तौर पर सही होती है, इसलिए अगर वह थोड़ी-सी अहंकारी है तो भी यह कोई बड़ी बात नहीं है। इसलिए जियांग निंग जब भी अपनी बहनों से असहमत होती थी, वह शायद ही कभी अपनी गलती मानती थी। वह हमेशा अपनी राय बार-बार दोहराकर दोनों बहनों को अपनी बात मनवाने का प्रयास करती रहती थी। उसने अपने मन में एक ही बात बिठा ली थी, “तुम दोनों ही गलत हो और जो मैं कहती हूँ वही सिद्धांतों के अनुरूप होता है।” उसके रवैये के कारण उसकी दोनों बहनें यह नहीं जानती थीं कि उन्हें संगति कैसे करनी चाहिए। जब वे तीनों किसी चित्र पर मिलकर चर्चा करती थीं तो बात अक्सर बीच में ही अटक जाती थी और इस कारण पिछले कार्य का ढेर लग जाता था। इस स्थिति से सामना होने पर जियांग निंग को लगा कि वह बहुत ही अहंकारी है और हमेशा अपने विचारों पर अड़ी रहती है और इससे प्रगति भयंकर रूप से टलती जा रही है। उसने सोचा कि उसे अब और ऐसा नहीं करना चाहिए। लेकिन जब बहनों ने फिर से सुझाव दिए तो वह अपने ही दृष्टिकोण पर अड़ी रहती थी और अपने ही विचारों के अनुसार संशोधन करती थी, इस कारण बाद में आगे की चर्चा के लिए और ज्यादा समय लगाना पड़ता था जिससे प्रगति टलती थी। अंत में इस बात की पुष्टि हो गई कि बहनों के सुझाव सही होते हैं जबकि जियांग निंग विनियमों से चिपकी रहती है। इस तरह से वे हमेशा अप्रभावी ढंग से कार्य करती रहीं और उनके कार्य की प्रगति में सुधार नहीं हो सका। चूँकि जियांग निंग बहुत ही अहंकारी थी, हमेशा जिद पकड़े रहती थी और सलाह लेने में अक्षम थी, इसलिए उसके चित्रों में अक्सर बहुत सारी दिक्कतें होती थीं और इन्हें दोबारा बनाना पड़ता था। उनकी सुपरवाइजर ने जियांग निंग को उसकी समस्याएँ विशेष रूप से बताईं, उसे यह आत्मचिंतन करने का मार्गदर्शन दिया कि उसके कार्य में इतनी समस्याएँ क्यों हैं और कहीं इनका संबंध उसके अहंकारी स्वभाव से तो नहीं है। लेकिन जियांग निंग इसे स्वीकार कर ही नहीं पाई, उसे लगता था, “अपने कार्यों में गलतियाँ कौन नहीं करता है? मुझे सिद्धांतों और तकनीकों की अच्छी समझ है और ये विचलन तो सिर्फ क्षणिक चूकें हैं। आइंदा मैं अपनी तकनीक सुधारने पर और ज्यादा मेहनत करूँगी, अधिकाधिक सावधान रहूँगी और तब मैं ये गलतियाँ करने से बच जाऊँगी।” शाओ यी ने सुना था कि जियांग निंग एक कुशल चित्रकार है और वह अक्सर उसे पत्र लिखकर अपने चित्रों के बारे में उससे मार्गदर्शन माँगा करता था। जियांग निंग इसे वास्तव में अपनी शान के खिलाफ मानकर सोचती थी, “तुम्हारे बहुत सारे चित्रों की कोई अहमियत नहीं है, क्या मेरा मार्गदर्शन वाकई जरूरी है? साथ ही इस समय चित्र बनाने के लिए पहले से ही इतना ढेर लगा है, फिर तुम्हें मार्गदर्शन देने के लिए समय कैसे निकालूँ?” इसलिए उसने शाओ यी के सवाल दरकिनार कर दिए और जब उसके कुछ अन्य पत्र आए तो उसने उन्हें न देखने का दिखावा किया। आखिरकार शाओ यी ने पूछना ही बंद कर दिया।

एक सुबह रिमझिम बारिश हो रही थी, चेहरे पर खीझ लिए हुए जियांग निंग ने एक भूदृश्य बनाया। यी चेन और लियू फेई एक दूसरे को देखकर उठीं और जियांग निंग के पास जाकर बैठ गईं। यी चेन ने प्यार से पूछा, “जियांग निंग, क्या हम तुमसे बात कर सकती हैं?” जियांग निंग कुछ पल के लिए सोच में पड़ गई और फिर लापरवाही से बोली, “हाँ, बिल्कुल।” थोड़ी-सी गंभीर मुद्रा ओढ़कर यी चेन ने कहा, “कुछ समय से एक साथ अपने कर्तव्य निभाते हुए हमें लगता है कि तुम बहुत ज्यादा अकड़ दिखाती हो, तुम अलग-थलग रहती हो और समस्याओं पर चर्चा करते हुए अगर तुम्हारी अलग राय होती है तो तुम उलटे सवाल पूछकर दूसरों से पूछताछ करने लगती हो। तुम्हारा साथ वाकई बेबस कर देता है।” यी चेन के मुँह से ये बातें सुनकर जियांग निंग का चेहरा फीका पड़ गया और उससे कुछ बोलते न बना। वह मानती थी कि उसका अहंकारी स्वभाव है लेकिन अंदर से वह इसे स्वीकारने को तैयार नहीं थी। उसे लगा, “मैं कुछ समय से चीजों को पूरी तरह बदलने की कोशिश कर रही हूँ। अहंकारी स्वभाव कोई रातोरात नहीं बदल सकता। मुझे थोड़ा-सा समय दो, ठीक है ना?” उसने इस बारे में जितना ज्यादा सोचा, उसे उतना ही ज्यादा खराब लगा। उसे लगा कि यी चेन और लियू फेई उसकी भ्रष्टता को हथियार बनाकर इस्तेमाल करना चाहती हैं और उनकी टिप्पणियाँ स्पष्ट रूप से उसे निशाना बना रही हैं, लेकिन वह यह भी जानती थी कि काट-छाँट होने की कोई वजह तो उसमें होगी, इसलिए उसने आत्मसंयम बरतकर दृढ़ता से उत्तर दिया, “तुमने जो कुछ भी कहा है उस पर मैं विचार करूँगी” और इससे ज्यादा कुछ नहीं कहा। यी चेन और लियू फेई की आँखों में चिंता और परेशानी साफ झलक रही थी। हल्की-फुल्की बरसात रुकने का कोई संकेत नहीं दिख रहा था और बहनों की छोटी-सी बातचीत यहीं खत्म हो गई।

उसके बाद से अपनी बहनों के मुँह से अहंकारी कहलाए जाने से बचने के लिए जियांग निंग ने चर्चाओं के दौरान अपनी राय बताना बंद कर दिया। जब बाकी दोनों उसे अपने विचार बताने को कहती थीं तो वह अपने होंठ सी लेती थी और माहौल को बहुत ही अजीब बना देती थी। चित्रों को लेकर कुछ फैसले हड़बड़ी में लिए गए और व्यापक चर्चा नहीं की गई, जिसके कारण बाद में चित्रों पर दोबारा काम और संशोधन करना पड़ा। यी चेन और लियू फेई दोनों ही अपनी बहन के कारण बहुत ही बेबस महसूस करती थीं। कुछ दिनों बाद उनकी सुपरवाइजर उनसे मिलने आई और उसने देखा कि इतने समय से जियांग निंग को कोई आत्मज्ञान नहीं है और वह अविवेकी है, अपनी बहनों के खिलाफ खड़ी रहती है और कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा करती है। सुपरवाइजर ने उसके व्यवहार का गहन-विश्लेषण कर उसे बर्खास्त कर दिया। जल्द ही जियांग निंग को पता चल गया कि लोगों को डाँट-फटकार कर बेबस करने पर भाई-बहनों ने उसकी रिपोर्ट कर दी है। एक बहन ने तो यहाँ तक कह दिया, “अब जबकि जियांग निंग को बर्खास्त किया जा चुका है तो आखिरकार हमें उसके आसपास नहीं रहना होगा और हम फिर से चैन की साँस ले सकते हैं!” ये बातें सुनकर जियांग निंग को दिल दुखाने वाली पीड़ा हुई और अब जाकर उसने यह एहसास हुआ कि उसकी समस्याएँ कितनी गंभीर हैं। उसने यह पता चल गया कि पिछले दिनों अपना कर्तव्य निभाते हुए वह दूसरों को बेबस कर नुकसान पहुँचा रही थी। उसे लगा कि मानो वह कोई बुरी इंसान है और उसका दिल अनिष्ट की भावना से भर गया। उसे लगा, “इस बार मेरा काम तमाम समझो, मैं अपने कर्तव्य में बहुत बड़ी बुराई कर बैठी हूँ” और वह नहीं जानती थी कि इस स्थिति से कैसे उबरे। उसकी आँखें भर आईं और उसने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैंने अपने अहंकारी स्वभाव के कारण अपने भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाया और बेबस कर दिया और मैंने कार्य में भी बाधा डाली है। मैं अपने पीछे सिर्फ बुरे कर्म छोड़कर जा रही हूँ! मुझे बहुत भारी ग्लानि हो रही है और इस बात का पछतावा है कि मैं अपने अहंकारी स्वभाव को जल्दी पहचान और हल नहीं कर पाई। हे परमेश्वर, मैं नहीं जानती कि मेरे साथ जो होने वाला है उससे कैसे उबरूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।”

आध्यात्मिक चिंतन के दौरान जियांग निंग को परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो उसने पहले पढ़ा था : “अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्‍या कितनी गम्‍भीर है? अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके दिल में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसे परमेश्वर, उसकी संप्रभुता और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर नियंत्रण स्‍थापित करने व सत्ता के लिए परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह के व्‍यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति तनिक भी भय नहीं होता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे जो इतने घमंडी होते हैं कि अपना विवेक खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते, यहाँ तक कि अपनी ही बड़ाई कर गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिल्कुल भी भय नहीं होता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर उसे लगा कि उसका अहंकारी स्वभाव बहुत ही गंभीर है। उससे चाहे कितनी ही गलतियाँ या विचलन हुए हों, उसे कभी भी नहीं लगा कि उसने कुछ भी गलत किया है। उसमें सत्य स्वीकारने या खोजने का कोई रवैया नहीं था और वह इस बात पर अड़ी रहती थी कि हर कोई उसे सुने और उसकी आज्ञा माने। जब उसका सामना अपने से भिन्न दृष्टिकोणों से होता था तो वह अहंकार में आकर अपनी बहनों की आलोचना करती थी, यह कहती थी कि उनकी यह या वो बात गलत है और फिर वह अपनी बात मनवाने के लिए उन्हें बाध्य करती थी। अगर उसकी मुराद पूरी नहीं होती थी तो वह उग्र हो जाती थी और अपनी बहनों से आक्रामक लहजे से पूछताछ करती थी। कभी-कभी वह उनकी बात पूरी होने से पहले ही काट दिया करती थी, उनका खंडन करने के लिए दबाव भरा लहजा अपनाती थी और उन्हें बहुत ही बेबस कर देती थी। किंतु उसे कोई भी आत्मज्ञान नहीं था। उसे यह लगता था कि वह केवल अपने विचारों पर अडिग है या अपनी स्वतंत्र सोच प्रदर्शित कर रही है। यहाँ तक कि दूसरों के साथ बहस करते हुए भी उसे बस यही लगता था कि वह सिद्धांतों को गंभीरता से ले रही है, न कि वह जिद्दी है। इस बारे में आत्मचिंतन कर वह जान गई कि अगर वह वास्तव में सिद्धांतों को गंभीरता से लेना चाहती है तो उसे इस बात पर इतना नहीं अड़ना होगा कि वह हमेशा सही होती है। इसके बजाय उसे अपने विचार एक तरफ रखने होंगे और यह देखना होगा कि क्या दूसरों के सुझाव सिद्धांतों के अनुरूप और कार्य के लिए लाभकारी हैं। यह सत्य खोजने और स्वीकारने वाला रवैया होगा। लेकिन उसने अपने विचार कभी भी परे नहीं रखे और भले ही वह ऊपरी तौर पर बहनों के साथ समस्याओं पर चर्चा करती हो, वह पहले ही यह मन बना चुकी होती थी कि वह सही है। उसमें पूरे समय खोजने के विनम्र भाव का अभाव होता था। वह इतनी जिद्दी थी। उसे खुद पर बहुत शर्म आई। वह भ्रष्ट स्वभावों से भरी थी, उसने सत्य को नहीं समझा था और उसके कार्यकलापों में सिद्धांतों का अभाव होता था। भले ही वह कुछ तकनीकी चीजों को समझती थी, लेकिन उसमें बहुत कमियाँ थीं और उसकी सोच सीमित थी। वह सिर्फ अपने दिमाग और अनुभवों के भरोसे रहती थी, इसका यह मतलब हुआ कि वह अपना कर्तव्य खराब ढंग से तो निभाती ही थी, वह बहुत बड़े विचलन भी पैदा करती थी, जिससे काम का नुकसान होता था। उसे दूसरों के साथ सांमजस्यपूर्ण ढंग से कार्य करने की जरूरत थी ताकि वे एक दूसरे की कमियों की भरपाई कर सकें। अगर वह किसी सिद्धांतों को लेकर स्पष्ट न हो या सहमति पर न पहुँच सके तो उसे सुपरवाइजर से मार्गदर्शन माँगना चाहिए था, न कि दूसरों को अपने सुझाव स्वीकारने के लिए बाध्य करना चाहिए था। लेकिन उसे लगता था कि वह बहुत ही श्रेष्ठ है और उसकी कही हर बात सही है, मानो वह स्वयं सत्य सिद्धांतों की स्रोत हो। आखिरकार उसे यह एहसास हुआ कि वह कितनी अहंकारी है और उसमें वह विवेक नहीं है जो सामान्य मानवता वाले व्यक्ति में होना चाहिए। उसे एहसास हुआ कि हकीकत में दूसरों के दिए सुझाव अक्सर सही होते थे, शायद ये पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन युक्त होते थे और ये उसे अपनी कमियों और अपर्याप्तताओं का एहसास करने में मदद कर सकते हैं। लेकिन उसने अपनी बहनों के सुझावों के प्रति उदासीनता बरते रखी और अपने भ्रष्ट स्वभाव को नहीं पहचाना। उसने अपने आसपास के लोगों को भी नुकसान पहुँचाया था और कलीसिया के कार्य को बाधित किया था। उसे यह एहसास हुआ कि इस सबका कारण उसका अहंकारी स्वभाव है और ऐसे अहंकारी स्वभाव के अनुसार जीने के कारण वह दूसरे लोगों को ही नहीं, बल्कि सत्य और परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखती है। अगर उसने इस अहंकारी स्वभाव का समाधान न किया तो उसके लिए सत्य स्वीकारना कठिन होगा, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना और खुद को त्यागकर दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना कठिन होगा। जियांग निंग ने आखिरकार यह महसूस कर लिया कि इस अहंकारी स्वभाव को न बदलना वास्तव में कितना खतरनाक है!

बाद में जियांग निंग ने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तुम्हें अगुआ बनाना सिर्फ तुम्हें ऊँचा उठाना और अभ्यास का एक अवसर देना है। ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास दूसरों के मुकाबले अधिक वास्तविकता है या तुम दूसरों से बेहतर हो। वास्तव में, तुम बाकी सबके समान ही हो। तुममें से किसी के पास वास्तविकता नहीं है, और कुछ मायनों में, तुम दूसरों से भी अधिक भ्रष्ट हो सकते हो। तो फिर क्यों तुम बेवजह परेशानी खड़ी करते हो, मनमाने ढंग से भाषण झाड़ते हो, दूसरों को फटकारते और बेबस करते हो। तुम गलत होकर भी दूसरों को अपनी बात सुनने को मजबूर क्यों करते हो? इससे क्या साबित होता है? इससे साबित होता है कि तुम्हारी सोच गलत है, तुम इंसान बनकर नहीं, परमेश्वर बनकर काम कर रहे हो, और खुद को दूसरों से ऊपर समझते हो। अगर तुम जो कहते हो वह सही और सत्य के अनुरूप है, तो लोग तुम्हारी बातें सुन सकते हैं। इस मामले में यह स्वीकार्य है। लेकिन जब तुम गलत होते हो, तो दूसरों को अपनी बात सुनने पर मजबूर क्यों करते हो? क्या तुम्हारे पास अधिकार है? क्या तुम सर्वोच्च हो? क्या तुम सत्य हो? ... वे जो चाहते हैं वही करते हैं और दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वे वही करें जो वे कहते हैं। क्या वे खुद को बड़ा नहीं दिखा रहे? क्या वे अपनी बड़ाई नहीं कर रहे हैं? क्या वे अहंकारी और दंभी लोग नहीं हैं? वे अपने काम में सत्य का जरा-सा भी अभ्यास किए बिना, जहाँ तक संभव होता है, बस अपनी प्राथमिकताओं पर चलते हैं। इसलिए, जब वे लोगों की अगुआई करते हैं, तो वे उन्हें सत्य का अभ्यास करने को नहीं कहते, बल्कि अपनी बात सुनने और अपने तौर-तरीकों पर चलने को कहते हैं। क्या यह लोगों से यह कहना नहीं है कि वे उन्हें परमेश्वर समझें, परमेश्वर की तरह उनका आज्ञापालन करें? क्या उनके पास सत्य है? वे सत्य से रहित होते हैं, शैतान के स्वभाव से लबालब भरे होते हैं, और राक्षसों जैसे होते हैं। तो फिर वे लोगों से अपनी आज्ञा का पालन करने के लिए क्यों कहते हैं? क्या ऐसा व्यक्ति खुद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं करता? क्या वह खुद को ऊँचा नहीं दिखाता? क्या ऐसे व्यक्ति लोगों को परमेश्वर के सामने ला सकते हैं? क्या वे लोगों से परमेश्वर की आराधना करवा सकते हैं? वे ऐसे लोग हैं, जो चाहते हैं कि लोग उनकी आज्ञा का पालन करें। जब वे इस तरह काम करते हैं, तो क्या वे वास्तव में लोगों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की ओर ले जा रहे हैं? क्या वे वास्तव में परमेश्वर द्वारा सौंपा गया कार्य कर रहे हैं? नहीं, वे अपना ही राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, और वे चाहते हैं कि लोग उनके साथ ऐसा व्यवहार करें जैसे वे परमेश्वर हों, और परमेश्वर मानकर उनकी आज्ञा का पालन करें। क्या वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? मसीह-विरोधी अपना काम हमेशा इसी तरह करते हैं; चाहे परमेश्वर के घर के काम में कितनी भी देरी हो जाए या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में कितनी भी बाधा खड़ी करें या उनका कितना भी नुकसान करें, सभी को उनकी बात सुननी चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। क्या यह राक्षसों वाली प्रकृति नहीं है? क्या यह शैतान का स्वभाव नहीं है? इस तरह के लोग इंसानी वेश में जीते-जागते राक्षस होते हैं। उनके चेहरे भले ही इंसानी हों, लेकिन उनके अंदर सब-कुछ राक्षसी होता है। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह राक्षसी होता है। उनका कोई भी काम सत्य के अनुरूप नहीं होता, उसमें कुछ भी ऐसा नहीं होता जो कोई विवेकवान व्यक्ति करता हो। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि ये राक्षसों, शैतानों और मसीह-विरोधियों के कार्य हैं। तुम लोगों को इसे स्पष्ट रूप से पहचानना चाहिए। जब तुम लोग कोई काम करते हो, कुछ बोलते हो और दूसरों से संवाद करते हो—अपने जीवन में तुम लोग जो कुछ भी करते हो—तुम्हें यह आदेश अपने हृदय में धारण करना चाहिए : ‘मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए।’ इस तरह लोगों पर सीमाएँ लगाई जाती हैं, और तब वे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाने की हद तक नहीं जाएँगे। यह प्रशासनिक आदेश बेहद अहम है, और तुम सभी को इस पर अच्छे से विचार करना चाहिए कि इस प्रशासनिक आदेश का क्या मतलब है, क्यों परमेश्वर मानवजाति से ऐसी अपेक्षा करता है, और वह क्या हासिल करना चाहता है। इस पर ध्यान से विचार करो। इसे एक कान से सुनकर दूसरे कान से मत निकालो। यह तुम लोगों के लिए वाकई बहुत लाभकारी होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, राज्य के युग में परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के बारे में)। परमेश्वर यह उजागर करता है कि हमेशा अपनी बात सुनाने और मनवाने के लिए बाध्य करना और दूसरों को अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश करना अपनी ही बड़ाई करना है, इसका मतलब यह है कि तुम एक मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल रहे हो और यह प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करता है। जियांग निंग ने यह याद किया कि उसने पिछले दिनों क्या प्रकट किया था—हमेशा यह सोचना कि वह तकनीकी चीजों को समझती है और उसकी सिद्धांतों पर अच्छी पकड़ है, कि उसके विचार और सुझाव सबसे सही होते थे और यह भी कि हर कोई उससे कमतर है। जब उसकी बहनें भिन्न विचार सामने रखती थीं तो वह उन पर कोई ध्यान न देकर उन्हें एक तरफ फेंक देती थी और दूसरों को अपनी बात सुनने के लिए मनाने की कोशिश करती रहती थी। अगर वह उन्हें मना नहीं पाती थी तो बस अपने उतावलेपन का सहारा लेकर उनसे पूछताछ करती थी और उन्हें तभी छोड़ती थी जब वे अपने विचार त्याग देते थे। जियांग निंग ने परमेश्वर की अपेक्षा को याद किया : “मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए।” चाहे कोई भी स्थान या कर्तव्य हो, हमें परमेश्वर को महान मानकर सम्मान देना चाहिए, हर चीज में उसके इरादे खोजने चाहिए और सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए और खास तौर पर जब असहमतियाँ उत्पन्न हों तो तब यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम खुद को दरकिनार कर दें और जो भी दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप हो, उसे अपनाएँ। जिसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल हो और जो परमेश्वर को महान मानकर सम्मान दे, उस व्यक्ति का केवल यही व्यवहार होता है। लेकिन जियांग निंग शैतान के जहरों के अनुसार जी रही थी, अत्यंत धूर्तता बरत रही थी और खुद को सबसे महान और अपनी राय को सत्य सिद्धांत मानती थी। वह जब भी अलग सुझाव सुनती थी, चाहे उन्हें कोई भी सामने रखे या चाहे वे सत्य के अनुरूप हों, अगर वे उसके अपने विचारों से भिन्न होते थे तो वह उन्हें दरकिनार कर देती थी और दूसरों से अपनी बात मनवाने की कोशिश करती थी। अपने अहंकार के कारण वह अपना विवेक गँवा बैठी। जियांग निंग ने सीसीपी के बारे में सोचा कि वह चाहे जो करे, वह कभी किसी को अपना विरोध नहीं करने देती है और जैसे ही कोई विरोधी राय सामने आती है, वह इसे कुचलने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाती है। उसने इस बारे में सोचा कि उसने अपने कार्यकलापों में जो स्वभाव प्रकट किया था, वह किस प्रकार बिल्कुल सीसीपी की तरह था और वह भयाक्रांत हो गई।

एक दिन जियांग निंग ने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। इन्होंने उसे अपने अहंकारी स्वभाव को और भी स्पष्ट ढंग से पहचानने में मदद की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अहंकारी और दंभी होना इंसान का सबसे प्रत्यक्ष शैतानी स्वभाव है, और अगर लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो उनके पास इसे साफ करने का कोई मार्ग नहीं होगा। सभी लोगों का स्वभाव अहंकारी और दंभी होता है, और वे हमेशा घमंडी होते हैं। वे जो भी सोचें या कहें, चीजों को कैसे भी देखें, वे हमेशा सोचते हैं कि उनका नजरिया और उनका रवैया ही सही है, और दूसरों का कहा उनके जैसा ठीक या उतना सही नहीं है। वे हमेशा अपनी ही राय से चिपके रहते हैं, और बोलने वाला इंसान जो भी हो, वे उसकी बात नहीं सुनते। किसी और की बात सही हो, या सत्य के अनुरूप हो, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे सुनने का सिर्फ दिखावा करेंगे, मगर वे उस विचार को सच में नहीं अपनाएँगे, और कार्य करने का समय आने पर भी वे अपने ही ढंग से काम करेंगे, हमेशा यह सोचते हुए कि जो वे कहते हैं वही सही और वाजिब है। संभव है तुम जो कहो, वह सचमुच सही और वाजिब हो, या तुम्हारा किया सही और त्रुटिहीन हो, मगर तुमने कैसा स्वभाव प्रदर्शित किया है? क्या यह अहंकारी और दंभी स्वभाव नहीं है? अगर तुम इस अहंकारी और दंभी स्वभाव को नहीं छोड़ते, तो क्या इससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वाह पर असर नहीं पड़ेगा? क्या इससे सत्य का तुम्हारा अभ्यास प्रभावित नहीं होगा? अगर तुम अपने अहंकारी और दंभी स्वभाव को ठीक नहीं कर लेते, तो क्या इससे भविष्य में गंभीर रुकावटें पैदा नहीं होंगी? यकीनन रुकावटें आएंगी, यह होकर ही रहेगा। बोलो, क्या परमेश्वर इंसान के इस बर्ताव को देख सकता है? परमेश्वर यह देखने में बहुत समर्थ है! परमेश्वर न सिर्फ लोगों के दिलों की गहराई जाँचता है, वह हर जगह हमेशा उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। तुम्हारा यह व्यवहार देखकर परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा : ‘तुम दुराग्रही हो! जब यह न पता हो कि तुम गलत हो तो तुम्हारा अपने विचारों से चिपके रहना तो समझ आता है, मगर जब तुम्हें साफ पता है कि तुम गलत हो फिर भी तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो और प्रायश्चित्त करने से पहले मरना पसंद करोगे, तो तुम निरे जिद्दी बेवकूफ हो, और मुसीबत में हो। सुझाव कोई भी दे, अगर तुम इसके प्रति हमेशा नकारात्मक, प्रतिरोधी रवैया अपनाकर सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते, और तुम्हारा दिल पूरी तरह प्रतिरोधी, बंद और चीजों का नकारने के भाव से भरा है, तो तुम हँसी के पात्र हो, बेहूदा हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।’ तुमसे निपटना मुश्किल क्यों है? तुमसे निपटना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि तुम जो प्रदर्शित कर रहे हो वह एक त्रुटिपूर्ण रवैया या त्रुटिपूर्ण व्यवहार नहीं है, बल्कि तुम्हारे स्वभाव का खुलासा है। किस स्वभाव का खुलासा? उस स्वभाव का जिसमें तुम सत्य से विमुख हो, सत्य से घृणा करते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। “यदि तुम्हारा रवैया हठपूर्वक आग्रह करना, सत्य को नकारना, औरों के सुझाव न मानना, सत्य न खोजना, केवल अपने आपमें विश्वास रखना और मनमर्जी करना है—यदि यह तुम्हारा रवैया है और तुम्हें इस बात की परवाह नहीं है कि परमेश्वर क्या करता है या क्या अपेक्षा करता है, तो परमेश्वर की प्रतिक्रिया क्या होगी? वह तुम पर ध्यान नहीं देता। वह तुम्हें दरकिनार कर देता है। क्या तुम मनमाने नहीं हो? क्या तुम अहंकारी नहीं हो? क्या तुम हमेशा खुद को ही सही नहीं मानते हो? यदि तुममें समर्पण नहीं है, यदि तुम कभी खोज नहीं करते, यदि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के लिए पूरी तरह से बंद और उसका विरोधी है, तो परमेश्वर तुम्हारी तरफ कोई ध्यान नहीं देता। परमेश्वर तुम पर ध्यान क्यों नहीं देता? क्योंकि जब तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए बंद है, तो क्या तुम परमेश्वर का प्रबोधन स्वीकार सकते हो? क्या तुम परमेश्वर की फटकार को महसूस कर सकते हो? लोग जब दुराग्रही होते हैं, जब उनकी शैतानी प्रकृतिऔर बर्बरता सामने आने लगती है, तो वे परमेश्वर के किसी भी कार्य को महसूस नहीं कर पाते, उन सबका कोई फायदा नहीं होता—तो परमेश्वर बेकार का काम नहीं करता। यदि तुम्हारा रवैया ऐसा अड़ियल और विरोधी है, तो परमेश्वर तुमसे छिपा रहता है, परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के ये दो अंश पढ़कर जियांग निंग को एहसास हुआ कि वह दूसरों के सुझाव स्वीकारने को लेकर बहुत ही अड़ियल और कतई अनिच्छुक रहती थी और उसने एक ऐसा शैतानी स्वभाव प्रकट कर दिया था जो सत्य से विमुख था और परमेश्वर से तिरस्कार और घृणा आमंत्रित करता था। अब वह समझ गई कि उसे पहले अपनी बहनों के भिन्न-भिन्न सुझाव स्वीकार लेने चाहिए थे और फिर उनके समांतर सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए थे। शायद वह अपनी कमियाँ पता लगा सकती थी, अपने कार्य में विचलन घटा सकती थी और हो सकता है कि अंत में उसके दृष्टिकोण सही साबित हो जाते। बहरहाल, इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि सत्य स्वीकारने वाले रवैये को कायम रखा जाए, इसे भी परमेश्वर महत्व देता है। साथ ही, सिद्धांत खोजकर सहमति पर पहुँचना कार्य के लिए भी लाभदायक रहता है। जियांग निंग समझ गई कि जब भी उसकी बहनों के भिन्न विचार या मत हों तो इसमें परमेश्वर का इरादा निहित है जो उसे सत्य सिद्धांत खोजने के लिए प्रेरित करता है, कि जब उसकी बहनें भिन्न-भिन्न मत व्यक्त करें तो इसका उद्देश्य एक साथ मिलकर चर्चा और खोज करना है, विचलनों को यथासंभव कम करना है और यह कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के लिए किया जाता है। वह समझ गई कि उसे इन चीजों को स्वीकारना और मानना चाहिए। लेकिन वह तो अपनी बहनों के अनुस्मारकों को कभी भी गंभीरता से नहीं लेती थी और जब उनके अलग विचार होते थे तो उसे बस यह लगता था कि उन्हें सिद्धांतों या तकनीकों की समझ नहीं है और वह उन्हें अपना दृष्टिकोण स्वीकारने के लिए बाध्य किया करती थी। इस वजह से उसकी बहनें न केवल बेबस महसूस करती थीं, बल्कि काम को भी भारी नुकसान होता था। भले ही ऊपरी तौर पर ऐसा लगता था कि जियांग निंग दूसरों के सुझाव स्वीकार नहीं कर रही है और उनके साथ बहस कर रही है, लेकिन हकीकत में वह सत्य के प्रति विमुख होने का स्वभाव और सकारात्मक चीजों के प्रति दुश्मनी और प्रतिरोध प्रकट कर रही होती थी। जियांग निंग ने जान लिया कि सत्य के प्रति इस रवैये से परमेश्वर घृणा करता है, कि इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर वह पवित्र आत्मा के कार्य को हासिल नहीं कर सकती है और यह भी कि वह अपनी दशा को भी नहीं समझ सकती है। वह कुछ हद तक सुन्न पड़ चुकी थी। अगर उसे बर्खास्त न किया गया होता तो वह अब भी न जागती और सत्य खोजने और अपने अहंकारी स्वभाव को दूर करने में असमर्थ रहती। इन चीजों का एहसास होने पर जियांग निंग इस कारण परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गई कि उसने उसे समय पर बचा लिया है।

बाद में जियांग निंग ने यह आत्मचिंतन किया कि वह हमेशा इतने अहंकार में क्यों रहती है। एक दिन उसने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “चाहे तुम कितने भी शिक्षित हो, चाहे तुमने कोई भी पुरस्कार जीते हों, या तुम्हारी कुछ भी उपलब्धियाँ हों, और तुम्हारा रुतबा और दर्जा कितना भी ऊँचा हो, तुम्हें इन सभी चीजों को छोड़ देना चाहिए, तुम्हें अपनी ऊँची गद्दी से उतर जाना चाहिए—इन सबका कोई मोल नहीं है। चाहे वे महिमामयी चीजें कितनी भी महान हों, परमेश्वर के घर में वे सत्य से बड़ी नहीं हो सकती हैं; क्योंकि ऐसी सतही चीजें सत्य नहीं हैं, और उसकी जगह नहीं ले सकती हैं। तुम्हें यह मसला स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम कहते हो, ‘मैं बहुत गुणी हूँ, मेरे पास एक बहुत तेज दिमाग है, मेरे पास त्वरित सजगता है, मैं शीघ्रता से सीखता हूँ, और मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है, इसलिए मैं अंतिम निर्णय लेने योग्य हूँ,’ यदि तुम हमेशा इन चीजों को पूंजी के रूप में उपयोग करते हो, उन्हें कीमती और सकारात्मक मानते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। अगर तुम्हारा दिल इन चीजों के कब्जे में है, अगर इन चीजों ने तुम्हारे दिल में जड़ें जमा ली हों, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल हो जाएगा—और इसके दुष्परिणामों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस प्रकार, सबसे पहले तुम उन चीजों का त्याग करो, उन्हें नकारो जो तुम्हें प्रिय हों, जो तुम्हें अच्छी लगती हों और जो तुम्हारे लिए बेशकीमती हों। वे बातें सत्य नहीं हैं बल्कि, वे तुम्हें सत्य में प्रवेश करने से रोक सकती हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। जियांग निंग ने देखा कि परमेश्वर कहता है कि किसी व्यक्ति में चाहे कितने ही गुण हों, फिर भी वे सत्य नहीं होते हैं और सत्य का स्थान नहीं ले सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति बस अपने गुणों के भरोसे रहता है और सत्य नहीं खोजता है तो वह अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकता है। अगर व्यक्ति अपने गुणों को बहुत अधिक महत्व देता है तो इससे वास्तव में उनके सत्य खोजने और स्वीकारने में बाधा आ सकती है। जियांग निंग को पता चल गया कि उसकी समस्याओं का स्रोत यह है कि वह बुद्धि, गुणों और तकनीकी कौशलों को अति की हद तक महत्व देती है। उसके सामने जब भी एक नया कर्तव्य आता था तो वह पेशेवर और तकनीकी पहलुओं को तुरंत समझ लेती थी और वह खुद को दूसरों से होशियार और बेहतर समझती थी, और यही वह चीज थी जिससे वह अपने कर्तव्य में श्रेष्ठता बोध ग्रहण करती थी। जैसे कि जब उसने और उसकी बहनों ने नई चित्रकला शैली परखने की कोशिश की; शुरुआत में उन सबको यह कठिन लगी, लेकिन जियांग निंग ने इसे तुरंत बखूबी सीख लिया और कई चित्र बना डाले, इसके कारण उसके अंदर यह भावना भर गई कि वह अपनी बहनों से श्रेष्ठ है और वह पूरे आपसी सहयोग के दौरान उन्हें हेय दृष्टि से देखने लगी और यह महसूस करने लगी कि मानो उनके सुझावों और विचारों की कोई कीमत नहीं है, इस कारण वह उनके साथ सहयोग करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं रहती थी। इस विफलता ने जियांग निंग को यह एहसास करा दिया कि उसकी तीव्र बुद्धि उसे सिर्फ कोई पेशेवर या तकनीकी कौशल बेहतर ढंग से और तेजी से सीखने में मदद कर सकती है लेकिन परमेश्वर के घर में तो हर कर्तव्य का संबंध सत्य और परमेश्वर की गवाही से होता है। अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने में समक्ष होना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि व्यक्ति के पास तेज दिमाग या गुण हैं, न ही यह पेशेवर या तकनीकी कौशलों पर निर्भर करता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या कोई व्यक्ति सत्य सिद्धांत खोज सकता है और परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं के अनुसार कार्य कर सकता है। यही चीजें सबसे महत्वपूर्ण हैं। जियांग निंग ने उन दिनों को याद किया जब उसने पहली बार नए कौशल सीखने शुरू किए थे। उसे पता था कि वह बहुत कम जानती है, इसलिए उसने अपने कर्तव्य में एक विनम्र दिल अपनाया और खोज की। वह दूसरोंं के विचार स्वीकार और खोज लेती थी और इस प्रक्रिया में वह पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करने में सक्षम रही और उसके कर्तव्य में कुछ नतीजे भी प्राप्त हुए। लेकिन बाद में यह सोचकर कि वह सब कुछ सीख चुकी है, उसका अहंकार बढ़ता गया और वह हर किसी को हेय दृष्टि से देखने लगी। उसके इस रवैये से परमेश्वर को घृणा हुई और वह पवित्र आत्मा का कार्य हासिल नहीं कर पाई। उसके अपने कर्तव्य में अनेक विचलन भी थे। आखिरकार उसे यह एहसास हुआ कि कोई व्यक्ति किसी कर्तव्य को ठीक से निभा सकता है या नहीं, इसका उसकी बुद्धि और गुणों से कोई संबंध नहीं है और गुण तो लोगों के लिए अपने कर्तव्य निभाने का एक साधन मात्र होते हैं। भले ही किसी व्यक्ति के पास एक भी गुण न हो, अगर वह सत्य खोजने और दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से कार्य करने पर ध्यान दे सके तो उसके कर्तव्य में कुछ नतीजे जरूर निकलेंगे। जियांग निंग अपनी सहकर्मी बहनों को हमेशा हेय दृष्टि से देखती थी लेकिन अब उसने देख लिया कि भले ही उनमें शानदार गुण नहीं हैं, फिर भी वे दोनों दूसरों के सुझावों के आधार पर सत्य सिद्धांतों को खोज लेती हैं। सत्य स्वीकारने और खोजने का यह रवैया उसके अपने रवैये से कहीं ज्यादा अच्छा था। अंत में उसने यह स्पष्ट रूप से समझ लिया कि किसी कर्तव्य को अच्छे से निभाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात सत्य को खोजना और स्वीकारना है, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना है और हठधर्मिता रहित होना है।

जियांग निंग ने आगे यह खोजा कि उसे अपने कर्तव्य में दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग वास्तव में कैसे करना चाहिए। उसने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब तुम्हारे साथ कोई बात हो जाए, तो तुम्हें दंभी नहीं होना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना और सबक सीखना चाहिए। तुम्हें ज्यादा सीखने के लिए खुद को मुक्त करना होगा। अगर तुम सोचते हो, ‘मैं इस विषय में तुम सबसे बड़ा विशेषज्ञ हूँ, इसलिए मुझे प्रभारी होना चाहिए, और तुम सबको मेरी बात सुननी चाहिए!’—तो यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकार और दंभ है। यह शैतानी और भ्रष्ट स्वभाव है, और यह इंसानियत के दायरे के बाहर है। ... तो फिर व्यवहार और कर्म करने का सही तरीका क्या है? सत्य सिद्धांतों के अनुसार तुम व्यवहार और कर्म कैसे कर सकते हो? तुम्हें अपने विचार सामने रखने चाहिए और सभी को देखने देना चाहिए कि क्या उनमें कोई समस्या है। अगर कोई सुझाव दे, तो पहले तुम्हें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, और तब सभी को अभ्यास के सही मार्ग की पुष्टि करने देना चाहिए। अगर उनमें से किसी को कोई समस्या न हो, तब तुम कर्म करने का सबसे उपयुक्त तरीका तय कर कर्म कर सकते हो। कोई समस्या नजर आने पर तुम्हें सबकी राय माँगनी चाहिए और तुम सबको साथ मिलकर एक साथ सत्य खोजकर उस पर एक साथ संगति करनी चाहिए, और इस तरह तुम लोग पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकोगे। जब तुम्हारे दिल प्रकाशित हों, और तुम्हारे सामने बेहतर मार्ग हो, तो तुम्हें प्राप्त होने वाले नतीजे पहले से बेहतर होंगे। क्या यह परमेश्वर का मार्गदर्शन नहीं है? यह अद्भुत चीज है! अगर तुम दंभी होने से बच सको, अपनी कल्पनाएँ और विचार त्याग सको, और दूसरों के सही विचार सुन सको, तो तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकोगे। तुम्हारा दिल प्रकाशित हो जाएगा और तुम सही मार्ग पा सकोगे। तुम्हें आगे का रास्ता मिलेगा, और जब इस पर अमल करोगे, तो यह यकीनन सत्य के अनुरूप होगा। ऐसे अभ्यास और अनुभव के जरिए तुम सीख सकोगे कि सत्य पर अमल कैसे करें, और साथ ही काम के उस क्षेत्र के बारे में तुम कुछ नया सीख सकोगे। क्या यह अच्छी बात नहीं है? इसके जरिए तुम्हें एहसास होगा कि अपने साथ कुछ घटने पर तुम्हें दंभी नहीं होना चाहिए सत्य को खोजना चाहिए, और अगर तुम दंभी होकर सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो हर कोई तुम्हें नापसंद करेगा और परमेश्वर यकीनन तुमसे घृणा करेगा। क्या यह सबक सीखना नहीं है? अगर तुम हमेशा इस प्रकार अनुसरण करते हो और सत्य पर अमल करते हो, तो तुम अपने कर्तव्य में प्रयोग होने वाले व्यावसायिक कौशल को पैना बनाते जाओगे, अपने कर्तव्य में बेहतर-से-बेहतर नतीजे पाओगे, परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध कर आशीष देगा, और भी ज्यादा हासिल करने देगा। इसके अलावा, तुम्हारे पास सत्य पर अमल करने का मार्ग होगा, और जब तुम जान लोगे कि सत्य पर अमल कैसे करें, तो धीरे-धीरे सिद्धांतों को समझ लोगे। जब तुम जान लोगे कि किन कर्मों से परमेश्वर से प्रबुद्धता और मार्गदर्शन मिलेगा, किनसे वह घृणा कर तुम्हें बर्खास्त कर देगा, और किनसे उसकी स्वीकृति और आशीष मिलेंगे, तो तुम्हें आगे का रास्ता मिलेगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से उसे सामंजस्यपूर्ण सहयोग के सिद्धांत समझ में आ गए। व्यक्ति के कर्तव्य के दौरान अगर दूसरे लोग भिन्न सुझाव देते हैं तो चाहे वे पेशेवर मामलों को समझते हों या न समझते हों, व्यक्ति के पास सत्य स्वीकारने और खोजने का रवैया जरूर होना चाहिए और उसे शुरुआत उनके सुझाव स्वीकारने से करनी चाहिए, मगर इन्हें बिना सोचे-समझे नहीं मानना चाहिए और उसे यह देखना चाहिए कि सिद्धांत क्या कहते हैं और आगे का रास्ता तय करने के लिए सत्य सिद्धांत का उपयोग करना चाहिए। बाद में जियांग निंग को सौभाग्य से उसका डिजाइन संबंधी कर्तव्य फिर से सौंप दिया गया। उसने परमेश्वर का बहुत आभार माना और इस बार वह दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण कार्य करना चाहता था।

एक दिन शाओ यू ने उसके चित्रांकन की जाँच की और उसकी कृति में अनेक समस्याएँ बताईं। यह सुनकर जियांग निंग को लगा कि उसकी बहन को उसके इरादे समझ में नहीं आए, जबकि उसने कुछ अच्छे चित्रों को देखने-समझने के बाद ये चित्र बनाए हैं, इसलिए उसका चित्र उपयुक्त होना चाहिए। वह इस बारे में जितना ज्यादा सोचती गई, उतना ही उसे यह लगा कि शाओ यू बहुत ही मीन-मेख निकाल रही है और विनियमों से बँधी है, इसलिए उसने अपना विचार फिर से दोहराया। लेकिन उसके यह बता चुकने के बाद शाओ यू ने कहा, “तुम्हारे विचार को मैं समझ रही हूँ लेकिन मुझे वाकई यह लगता है कि इस चित्र में कुछ समस्याएँ हैं। तुम यह विचार कर सकती हो कि क्या कोई बेहतर समाधान है।” शाओ यू के मुँह से यह बात सुनकर जियांग निंग को अचानक यह आत्मबोध हुआ कि उसका अपने दृष्टिकोण पर बार-बार जोर देने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वह अपनी बहन के सामने खुद को सही साबित कर सके। उसने अपनी बहन के सुझाव पर गंभीरता से विचार नहीं किया और बस खुद को ही सही मानती रही है। क्या अब भी वह वास्तव में अड़ियलपन नहीं दिखा रही थी और दूसरों के सुझाव बिल्कुल नहीं स्वीकार रही थी? जियांग निंग को थोड़ी-सी आत्मग्लानि हुई और यह एहसास हुआ कि वह फिर से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रही है। उसे अभ्यास के सिद्धांत को याद किया कि जब भिन्न दृष्टिकोण सामने आएँ तो उसे खुद को अलग रखकर ध्यानपूर्वक यह विचार करना चाहिए कि क्या दूसरों के विचार सही हैं और क्या ये सिद्धांतों के अनुरूप हैं। जब वह चीजों पर विचार करने के लिए सहमत हो गई तो पाया कि उसके चित्र में वाकई कुछ समस्याएँ हैं। इसके बाद उसने अपनी सुपरवाइजर से चित्र के उन हिस्सों के बारे में सलाह माँगी जिनको लेकर उसे कुछ शंका थी, उसकी सुपरवाइजर ने उसके साथ प्रासंगिक सिद्धांतों के बारे में संगति की और उसे संशोधन करने के लिए एक स्पष्ट मार्ग मिल गया। इससे वह फूली नहीं समाई। यह एक अच्छी बात थी कि इस बार उसने अड़ियलपन नहीं दिखाया क्योंकि इसके कारण विचलन पैदा हो सकते थे। इससे उसे यह एहसास हुआ कि अपने कर्तव्य निर्वहन में सत्य स्वीकारने का रवैया कितना महत्वपूर्ण है और यह भी कि किसी को चाहे कितना ही लगे कि वह सही या सुनिश्चित है, जब दूसरों की राय अलग होती है तो व्यक्ति को अपने दृष्टिकोण एक तरफ रखकर चीजों पर विचार करना और खोजना चाहिए। वह इसलिए कि इस बात की बहुत संभावना होती है कि व्यक्ति की समस्याएँ बेनकाब करने के लिए परमेश्वर दूसरों को एक मार्गदर्शक के रूप में इस्तेमाल कर रहा हो। जियांग निंग को पता चल गया कि सत्य स्वीकारने का रवैया व्यक्ति को बहुत सारे विचलनों से बचने में मदद कर सकता है। जियांग निंग ने आगे चलकर अपने कर्तव्य में सचेत होकर दूसरों के सुझाव स्वीकार किए और महसूस किया कि उसने काफी कुछ हासिल किया है और वह अपने भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करने में सक्षम है। उसका हृदय परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया!

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