61. मुझे अपनी माँ के लिए पक्षपात नहीं करना चाहिए

शिनयी, चीन

2012 में मुझे कई कलीसियाओं के कार्य की जिम्मेदारी दी गई थी। मुझे पता चला कि कलीसिया के चुनावों के दौरान मेरी माँ एक बुरी इंसान ली फेंग से गुमराह हो गई और उसने नवनिर्वाचित कलीसिया अगुआ पर यह कहकर हमला किया और उसे नीचा दिखाया कि उसमें कोई कार्यक्षमता नहीं है, वह सत्य नहीं समझता और अगुआ बनने लायक नहीं है और उसने ली फेंग की भरसक बड़ाई और सराहना कर कहा कि वह एक ऐसी इंसान है जिसमें सत्य वास्तविकता है, जो चीजों को त्याग सकती है और कड़ी मेहनत कर सकती है, कष्ट सह सकती है और कीमत चुका सकती है, और अंत में उसने बुरी इंसान ली फेंग को अगुआ बनाने के लिए मतदान किया। मेरी माँ ने सिंचनकर्ता उपयाजक पर भी यह कहकर हमला किया था और उसकी आलोचना की थी कि वह पवित्र आत्मा से रहित ऐसा व्यक्ति है जो वास्तविक काम नहीं कर सकता और उसे अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए, जिसके कारण वह नकारात्मकता में रहने लगा और सिंचन कार्य पर असर पड़ा। मेरी माँ ने अपने बुरे कर्मों पर बिल्कुल भी आत्म-चिंतन नहीं किया और जब कलीसिया ली फेंग को निष्कासित करना चाहती थी तो उसने ली फेंग की भरसक रक्षा की, उसके लिए इंसाफ माँगा और यहाँ तक कि ली फेंग का साथ देने के लिए भाई-बहनों को उकसाया और गुमराह किया। उसने यह भी कहा, “चाहे हमारे यहाँ कितने भी चुनाव हों, मैं फिर भी ली फेंग को अगुआ के रूप में वोट दूँगी।” उसने चीजों को इतना बिगाड़ दिया कि चुनाव सामान्य रूप से नहीं हो सके और इससे कलीसिया के काम पर बहुत बुरा असर पड़ा। बाद में एक अगुआ ने मेरी माँ के बुरे कर्मों का गहन-विश्लेषण किया और उन्हें उजागर किया लेकिन माँ ने न तो अपने बुरे कर्म स्वीकारे, न ही पश्चात्ताप किया। मेरी माँ के व्यवहार के अनुरूप उसे बाहर निकाला जाना था। जब मुझे पता चला था कि उसे बाहर निकाला जाना है तो मैं बहुत परेशान हो गई। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मेरी माँ को सताया गया था और बहुत पीड़ा सहनी पड़ी थी। वह मेरे लिए सबसे करीबी थी और मुझे पालने के लिए उसने बहुत संघर्ष किया था, इसलिए मुझे उससे कुछ हद तक सहानुभूति थी और मैं उसे बाहर निकाले जाने की सच्चाई का सामना नहीं करना चाहती थी। मैंने परमेश्वर से कई बार प्रार्थना की और उससे मदद माँगी और परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन से मुझे एक बुरे व्यक्ति के रूप में उसके सार का कुछ भेद मिला और मैंने उसे कलीसिया से बाहर निकालने के लिए सहमति जताते हुए अपने हस्ताक्षर कर दिए।

मई 2018 में मैं कलीसिया के सफाई कार्य की प्रभारी थी। मैंने परमेश्वर के घर द्वारा जारी कार्य व्यवस्थाओं में देखा कि जो लोग निकाले जाने के बाद सच्चा पश्चात्ताप दिखाते हैं, उन्हें कलीसिया में फिर से शामिल करने पर विचार किया जा सकता है। मैंने सोचा कि पिछले कुछ सालों में मेरी माँ कभी-कभी कलीसिया से निकाले जाने का जिक्र करती थी, कहती थी कि उसकी प्रकृति बहुत ही घमंडी थी, वह जिद्दी थी और उसे निकाला जाना परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव दर्शाता है। एक बार मैंने उससे पूछा कि उस समय के अपने बुरे कर्मों को लेकर उसकी समझ क्या है। उसने कहा कि इसका मुख्य कारण यह था कि उसे कोई परख नहीं थी और वह गुमराह हो गई थी। उसे लगता था कि ली फेंग लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास करती थी और वह चीजें त्याग सकती थी, कड़ी मेहनत कर सकती थी और कष्ट सह सकती थी, वह अगुआ के पद के लिए बनी थी और इसलिए उसने अपने विचार को सही माना था और किसी की भी बात नहीं सुनी थी। लेकिन अपने बुरे कर्मों के ब्योरों के बारे में बात करते हुए उसने अभी भी अपने पक्ष में बहाने बनाए और सफाई दी और अपनी बेगुनाही का दावा भी किया, मानो उसने जो कुछ किया उसके उचित कारण थे। इसलिए मैंने उसके मुद्दों और ली फेंग के व्यवहार को एक साथ जोड़कर रखा और बुरे लोगों को बचाने से काम में होने वाली बाधाओं की प्रकृति और नतीजों पर उसके साथ संगति की और आत्म-चिंतन करने और खुद को समझने के लिए उसका मार्गदर्शन किया। मेरी माँ ने सिर हिलाया और सहमति जताई और कहा कि वह शैतान की अनुचर और प्रवक्ता बन गई थी, कि वह एक बुरी इंसान थी। यह देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। मेरी माँ सत्य को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं कर रही थी और उसे कुछ समझ थी। मैंने यह भी सोचा, “वह इतने सालों से परमेश्वर के वचन खाती और पीती रही है, वह चढ़ावा चढ़ाने और दान देने पर जोर देती रही है और उसने ली फेंग का कुछ भेद पहचाना है। निकाले जाने के बाद एक बार सुसमाचार का प्रचार करते समय उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन उसने कभी कलीसिया को धोखा नहीं दिया था और यहूदा नहीं बनी थी। और जब मैं नकारात्मक और कमजोर थी तो उसने मुझे सांत्वना दी थी और प्रोत्साहित किया था। मैं पिछले कुछ सालों से पुलिस द्वारा पीछा किए जाने के कारण घर वापस नहीं जा पाई हूँ और वह मेरे बच्चे की देखभाल करके और अपना कर्तव्य निभाने में मेरा साथ देकर मेरी मदद कर रही है।” ये बातें सोचते हुए मैं यह जानने को उत्सुक थी कि क्या मेरी माँ पश्चात्ताप के संकेत दिखा रही थी। वह कलीसिया से निकाले जाने के बाद बहुत परेशान थी और उस दिन की आस लगाए बैठी थी जब उसे कलीसिया में फिर से स्वीकारा जा सकेगा। अब संयोग से इस कार्य की प्रभारी मैं थी, इसलिए मुझे अपनी माँ को कलीसिया में वापस स्वीकारने के लिए “हर प्रयास” करना था। तब वह भाई-बहनों के साथ कलीसियाई जीवन जी पाएगी, और जब उसे पता चलेगा कि मैंने ही उसे फिर से स्वीकार करवाया है तो वह पक्का बहुत खुश होगी।

फिर मैंने उन कलीसियाओं को पत्र लिखे, जिनकी मैं प्रभारी थी और कलीसिया के अगुआओं से यह जाँच करने के लिए कहा कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने निष्कासित होने के बाद ईमानदारी से पश्चात्ताप किया हो और उसे स्वीकार किया जा सकता हो। एक दिन कलीसिया के अगुआओं ने मुझे पश्चात्ताप के चार पत्र भेजे जो निष्कासित किए जा चुके बुरे लोगों ने लिखे थे और इनमें मेरी माँ का पत्र भी था। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैं पहले से ही अन्य तीन लोगों के बारे में जानती थी। निष्कासित होने के बाद उन्होंने पश्चात्ताप के कोई संकेत नहीं दिखाए थे। उनकी तुलना में मेरी माँ को कलीसिया में वापस स्वीकारे जाने की संभावना बहुत अधिक थी। मैंने सोचा कि लोगों को फिर से स्वीकारने के कलीसिया के सिद्धांतों के अनुसार जिस व्यक्ति को फिर से स्वीकार किया जा रहा है, उसका मूल्यांकन अधिकांश भाई-बहनों और अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा किया जाना चाहिए। सिर्फ उस व्यक्ति के पश्चात्ताप के पत्र और कलीसिया के अगुआओं के मूल्यांकन के आधार पर फैसला करना पर्याप्त नहीं था। मैंने तुरंत कलीसिया के अगुआओं को पत्र लिखा और उनसे कहा कि वे मेरी माँ के बारे में उन लोगों से मूल्यांकन उपलब्ध कराएँ जो उसे जानते हैं। लेकिन मुझे डर था कि केवल अपनी माँ के बारे में मूल्यांकन देने के लिए कहने से भाई-बहन मुझ पर पक्षपात का आरोप लगाएँगे। संदेह पैदा होने से बचने के लिए मैंने अगुआओं से कहा कि वे सभी चार लोगों का मूल्यांकन दें और ऐसा जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है। मैंने यह भी सोचा कि मेरा अपना मूल्यांकन महत्वपूर्ण होगा, इसलिए मैंने अपनी माँ के बाहर निकाले जाने के बाद के उसके “पश्चात्ताप” वाले कार्यकलापों का विस्तार से लेखा-जोखा तैयार किया लेकिन उन कारणों पर बस एक सरसरी टिप्पणी ही लिखी जिनकी वजह से उसे बाहर निकाला गया था। मुझे डर था कि अगर मैंने बहुत विस्तार से लिखा तो इससे उसके फिर से प्रवेश पर असर पड़ेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात, मुझे उसे बाहर निकाले जाने के बाद उसका अपेक्षाकृत अच्छा व्यवहार प्रमुखता से दिखाना था और इस तरह उसे कलीसिया में वापस स्वीकारने की संभावना अधिक होगी। फिर मैंने अपनी माँ को लिखा, उसके बुरे कार्यकलापों के बारे में संगति की और उनका गहन-विश्लेषण किया, मूल कारण समझने के लिए उसका मार्गदर्शन किया और उसे इस अवसर को लपकने और जल्दी से पश्चात्ताप करने की याद दिलाई। जब मैंने उसे लिखा तो मुझे कुछ आत्म-ग्लानि महसूस हुई : अपनी माँ को वापस कलीसिया में स्वीकार करवाने के लिए गुप्त रूप से इतना विचार करके क्या मैं अपनी भावनाओं में बहकर कार्य नहीं कर रही थी? लेकिन ये केवल क्षणिक विचार थे और मैंने सत्य की तलाश नहीं की थी या आत्म-चिंतन नहीं किया था। जब मैं पत्रों का इंतजार कर रही थी तो मुझे डर था कि कहीं कोई गलती न हो जाए जिससे मेरी माँ के पुनः प्रवेश पर असर पड़ जाए, इसलिए मैं हर कुछ दिनों में कलीसिया के अगुआओं को पत्र लिखती थी और तत्काल पूछती थी कि वे मूल्यांकन एकत्र करने में कैसे आगे बढ़ रहे हैं।

एक दिन उच्च-स्तरीय अगुआ ने मेरी काट-छाँट करते हुए एक पत्र लिखा, “कलीसिया अगुआओं ने हाल ही में अपना काम कुछ निष्कासित व्यक्तियों के लिए पुनः प्रवेश सामग्री एकत्र करने पर केंद्रित कर दिया है और अन्य सभी कामों को एक तरफ रख दिया है। पश्चात्ताप का कोई संकेत न दिखाने वाले ये लोग ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें कलीसिया पुनः प्रवेश देगी, फिर भी तुमने कलीसियाओं से उनके मूल्यांकन जुटाने को कहा है। तुम कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डाल रही हो।” यह पत्र पढ़कर मैं मन ही मन में अपना पक्ष मजबूत करती रही, “उन लोगों के मूल्यांकन जुटाना जिन्होंने पश्चात्ताप का कोई संकेत नहीं दिखाया है? क्या अगुआ को गलतफहमी हुई है? मेरी माँ ने पश्चात्ताप के संकेत दिखाए हैं। अगुआ कैसे कह सकता है कि इनमें से किसी भी व्यक्ति ने पश्चात्ताप के संकेत नहीं दिखाए हैं और कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डालने के लिए मेरी काट-छाँट कैसे कर सकता है?” मैं लगातार प्रतिरोध की भावना महसूस करती रही और अपनी काट-छाँट स्वीकारने को बिल्कुल तैयार नहीं थी। मुझे पता था कि मेरी अवस्था गलत है, इसलिए मैंने घुटने टेके और परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं आज अगुआ की इस काट-छाँट को स्वीकार नहीं कर सकती। मैं अपनी माँ के बारे में कोई भेद नहीं पहचानती हूँ और मैं नहीं समझती हूँ कि सच्चा पश्चात्ताप क्या होता है। इस सत्य को समझने के लिए मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मुझे थोड़ा सुकून मिला। इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “यह ‘कुमार्ग’ मुटठीभर बुरे कार्यों को संदर्भित नहीं करता, बल्कि उस बुरे स्रोत को संदर्भित करता है, जिससे लोगों का व्यवहार उत्पन्न होता है। ‘अपने कुमार्ग से फिर जाने’ का अर्थ है कि ऐसे लोग ये कार्य दोबारा कभी नहीं करेंगे। दूसरे शब्दों में, वे दोबारा कभी इस बुरे तरीके से व्यवहार नहीं करेंगे; उनके कार्यों का तरीका, स्रोत, मकसद, इरादा और सिद्धांत सब बदल चुके हैं; वे अपने मन को आनंदित और प्रसन्न करने के लिए दोबारा कभी उन तरीकों और सिद्धांतों का उपयोग नहीं करेंगे। ‘अपने हाथों के उपद्रव को त्याग देना’ में ‘त्याग देना’ का अर्थ है छोड़ देना या दूर करना, अतीत से पूरी तरह से नाता तोड़ लेना और कभी वापस न मुड़ना। जब नीनवे के लोगों ने हिंसा त्याग दी, तो इससे उनका सच्चा पश्चात्ताप सिद्ध हो गया। परमेश्वर लोगों के बाहरी रूप के साथ-साथ उनका हृदय भी देखता है। जब परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के हृदय में सच्चा पश्चात्ताप देखा जिसमें कोई सवाल नहीं थे, और यह भी देखा कि वे अपने कुमार्गों से फिर गए हैं और उन्होंने हिंसा त्याग दी है, तो उसने अपना मन बदल लिया(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। “परमेश्वर नीनवे के लोगों से चाहे जितना भी क्रोधित रहा हो, लेकिन जैसे ही उन्होंने उपवास की घोषणा की और टाट ओढ़कर राख पर बैठ गए, वैसे ही उसका हृदय नरम होने लगा, और उसने अपना मन बदलना शुरू कर दिया। उनसे यह घोषणा करने के एक क्षण पहले कि वह उनके नगर को नष्ट कर देगा—उनके द्वारा अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने से पहले के क्षण तक भी—परमेश्वर उनसे क्रोधित था। लेकिन जब वो लोग लगातार पश्चात्ताप के कार्य करते रहे, तो नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर का कोप धीरे-धीरे उनके प्रति दया और सहनशीलता में बदल गया। एक ही घटना में परमेश्वर के स्वभाव के इन दो पहलुओं के एक-साथ प्रकाशन में कोई विरोध नहीं है। तो विरोध के न होने को कैसे समझना और जानना चाहिए? नीनवे के लोगों द्वारा पहले और बाद में पश्चात्ताप करने पर परमेश्वर ने ये दो एकदम विपरीत सार व्यक्त और प्रकाशित किए, जिससे लोगों ने परमेश्वर के सार की वास्तविकता और अनुल्लंघनीयता देखी। परमेश्वर ने लोगों को निम्नलिखित बातें बताने के लिए अपने रवैये का उपयोग किया : ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों को बरदाश्त नहीं करता, या वह उन पर दया नहीं दिखाना चाहता; बल्कि वे कभी परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप नहीं करते, और उनका सच में अपने कुमार्ग को छोड़ना और हिंसा त्यागना एक दुर्लभ बात है। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर मनुष्य से क्रोधित होता है, तो वह आशा करता है कि मनुष्य सच में पश्चात्ताप करेगा और वह मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप देखने की आशा करता है, और उस दशा में वह मनुष्य पर उदारता से अपनी दया और सहनशीलता बरसाता रहेगा। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का बुरा आचरण परमेश्वर के कोप को जन्म देता है, जबकि परमेश्वर की दया और सहनशीलता उन लोगों पर बरसती है, जो परमेश्वर की बात सुनते हैं और उसके सम्मुख वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं, जो कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं। नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के व्यवहार में उसका रवैया बहुत साफ तौर पर प्रकट हुआ था : परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त करना बिल्कुल भी कठिन नहीं है; और वह इंसान से सच्चा पश्चात्ताप चाहता है। यदि लोग कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं, तो परमेश्वर उनके प्रति अपना हृदय और रवैया बदल लेता है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैंने समझा कि नीनवे के लोगों ने तमाम तरह के बुरे कर्म करके परमेश्वर का क्रोध भड़काया था और फिर भी क्योंकि वे अपने बुरे तरीकों को छोड़ने और अपने बुरे काम पूरी तरह से त्यागने में सक्षम थे—उन्होंने सिर्फ अपराध ही नहीं कबूला और पश्चात्ताप ही नहीं किया या अपना बाहरी व्यवहार ही नहीं बदला, बल्कि उन्होंने अपने बुरे कर्मों पर चिंतन किया और उन्हें समझा और उनके कार्यकलापों का इरादा, स्रोत और उद्देश्य बदल गया—वे सच्चा पश्चात्ताप करने में कायमाब रहे और इसलिए उन्होंने परमेश्वर की दया और सहनशीलता पाई। दूसरी ओर, वो बुरे लोग और मसीह-विरोधी निष्कासित होने के बाद सिर्फ सतही तौर पर कुछ अच्छे व्यवहार दिखाते हैं, सुसमाचार का प्रचार करते हैं या कुछ अच्छे कर्म करते हैं और अपने पिछले बुरे कर्मों के बदले प्रायश्चित करने की उम्मीद करते हैं। यूँ तो वे बुराई करने की बात शाब्दिक रूप से स्वीकारते हैं, लेकिन यहाँ तक यह बात है कि उन्होंने खासकर कौन से बुरे कर्म किए, ऐसे कर्म करने के पीछे उनके इरादे, उद्देश्य और प्रेरणाएँ क्या थीं और कौन-सी प्रकृति उन्हें नियंत्रित कर रही थी, वे वाकई ऐसी मूल समस्याओं को कभी नहीं समझते या उनसे घृणा नहीं करते और इसलिए वे सचमुच पश्चात्ताप नहीं कर सकते। अगर कोई उपयुक्त अवसर आता है तो वे बुराई करना और परमेश्वर का प्रतिरोध करना जारी रखेंगे और इस तरह के लोग परमेश्वर की दया और सहनशीलता नहीं पा सकते। मेरी माँ के व्यवहार की तुलना करें तो कलीसिया ने उसे इस कारण हटाया कि उसने बहुत बुराई की और पश्चात्ताप से हठपूर्वक इनकार किया था, जिसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया था। यह परमेश्वर की धार्मिकता थी। लेकिन अगर वह वाकई अपने पिछले बुरे कार्यकलापों को समझ पाती और इनके लिए पश्चात्ताप कर पाती, सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित कर पाती और ऐसी बुरी चीजें फिर से न करने की गारंटी देती, तब शायद कुछ उम्मीद होती कि उसे परमेश्वर की दया और सहनशीलता मिलेगी। लेकिन मेरी माँ ने सिर्फ शाब्दिक रूप से स्वीकारा कि उसे ली फेंग ने गुमराह किया था और उसने कलीसियाई में बाधा और गड़बड़ी डाली थी और स्वीकारा था वह बुरी इंसान और शैतान की अनुचर थी। फिर भी उसे इस बात की कोई समझ नहीं थी कि कैसे उसने एक बुरी इंसान या उसके बुरे कर्मों के पक्ष में बहस की थी जिसने कलीसिया के चुनाव में बाधा और गड़बड़ी डाली थी। जब उसके बुरे कर्मों को फिर से उजागर किया गया तो भी उसने वस्तुनिष्ठ कारणों का उपयोग करके अपने पक्ष में बहस करने की कोशिश की और उसे अपने प्रकृति सार की कोई समझ नहीं थी। इसे सच्चा पश्चात्ताप नहीं कहा जा सकता। जब मैंने देखा कि बाहर निकाले जाने के बाद वह कितनी परेशान थी, कैसे वह अपनी आस्था में दृढ़ रही थी और सभाओं में भाग लेती रहती थी, कैसे वह गिरफ्तार होने के बाद भी यहूदा नहीं बनी थी, कैसे वह हमेशा चढ़ावा चढ़ाती रहती थी और दान देती रहती थी और जब मैं नकारात्मक और कमजोर हो जाती थी तो वह मुझे कैसे सांत्वना देती और प्रोत्साहित करती थी, मुझे लगता था कि वह पश्चात्ताप के संकेत दे रही है और मैं उसे कलीसिया में वापस स्वीकार करवाना चाहती थी। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “मनुष्य जिस मानक से दूसरे मनुष्य को आंकता है, वह व्यवहार पर आधारित है; जिनका आचरण अच्छा है वे धार्मिक हैं और जिनका आचरण घृणित है वे दुष्ट हैं। परमेश्वर जिस मानक से मनुष्यों का न्याय करता है, उसका आधार यह है कि क्या व्यक्ति का सार परमेश्वर को समर्पित है या नहीं; जो परमेश्वर को समर्पित है वह धार्मिक है और जो नहीं है वह शत्रु और दुष्ट व्यक्ति है, भले ही उस व्यक्ति का आचरण अच्छा हो या बुरा, भले ही इस व्यक्ति की बातें सही हों या गलत हों(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर किसी व्यक्ति के अच्छे या बुरे होने का फैसला इस आधार पर नहीं करता कि उसका बाहरी व्यवहार अच्छा है या बुरा, बल्कि उसके सार, सत्य के प्रति उसके रवैये के आधार पर करता है और इस आधार पर करता है कि क्या उसके कार्यकलापों के पीछे के इरादों और प्रेरणाओं का उद्देश्य सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। अगर कोई व्यक्ति सार रूप में सत्य से घृणा करता है तो चाहे उसका बाहरी व्यवहार कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह अभी भी एक परमेश्वर-विरोधी बुरा व्यक्ति है। मैंने देखा कि मैं लोगों से सिद्धांतों के बिना संपर्क कर रही थी। मैंने उसके कुछ अच्छे बाहरी व्यवहारों के आधार पर यह सोच लिया कि वह सचमुच पश्चात्ताप कर रही है, लेकिन मुझे नहीं पता था कि उसका सार कैसे समझा जाए और मैं सत्य के प्रति उसका रवैया नहीं देख रही थी और मैं बस इतना चाहती थी कि उसे कलीसिया में वापस स्वीकार लिया जाए, जो पूरी तरह से सिद्धांतहीन था। चीजों पर मेरे विचार बहुत बेतुके थे! बाद में मैंने आत्म-चिंतन किया : कौन सा भ्रष्ट स्वभाव मुझे इस तरह से कार्य करने के लिए बेबस और बाध्य कर रहा था? इस प्रश्न को ध्यान में रखते हुए मैंने परमेश्वर के वचनों में उत्तरों की खोज जारी रखी।

अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “सार में, अनुभूतियां क्या होती हैं? वे एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव हैं। अनुभूतियों की अभिव्यक्तियों को कई शब्दों का उपयोग करते हुए बताया जा सकता है : भेदभाव, सिद्धांतहीन तरीके से दूसरों की रक्षा करने की प्रवृत्ति, भौतिक संबंध बनाए रखना, और पक्षपात; ये ही अनुभूतियां हैं। लोगों में अनुभूतियां होने और उन्हीं अनुभूतियों के अनुसार जीवन जीने के क्या संभावित परिणाम हो सकते हैं? परमेश्वर लोगों की अनुभूतियों से सर्वाधिक घृणा क्यों करता है? कुछ लोग हमेशा अपनी अनुभूतियों से विवश रहते हैं और सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, और यद्यपि वे परमेश्वर को समर्पण करना चाहते हैं किंतु ऐसा नहीं कर पाते, इसलिए वे अनुभूतिक स्तर पर पीड़ा का अनुभव करते हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जो सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अभ्यास में नहीं ला सकते; ऐसा भी इसलिए है कि वे अनुभूतियों से विवश हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। “परमेश्वर का घर तुमसे कलीसिया की सफाई का काम करने के लिए कहता है, और एक व्यक्ति है जो हमेशा अपने कर्तव्य में अनमना रहा है, हमेशा सुस्त रहने के फेर में रहता है। सिद्धांत के अनुसार, इस व्यक्ति को दूर कर दिया जाना चाहिए, लेकिन उसके साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं। तो तुम्हारे भीतर किस तरह के विचार और इरादे उत्पन्न होंगे? तुम अभ्यास कैसे करोगे? (अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करने की।) और ये प्राथमिकताएँ किससे उत्पन्न होती हैं? चूँकि इस इंसान का व्यवहार तुम्हारे प्रति अच्छा रहा है या इसने तुम्हारे लिए कुछ किया है, इसलिए तुम्हारे मन में उसकी अच्छी छवि है, और इसलिए इस समय तुम उसकी रक्षा करना चाहते हो, उसका बचाव करना चाहते हो। क्या यह भावनाओं का प्रभाव नहीं है? तुम उसके प्रति भावुक महसूस करते हो, और इसलिए ‘जबकि उच्च अधिकारियों की नीतियाँ होती हैं, वहीं मुहल्लों के अपने जवाबी-उपाय होते हैं’ का दृष्टिकोण अपनाते हो। तुम दुरंगी चाल चल रहे हो। एक ओर तुम उससे कहते हो, ‘जब तुम कुछ करते हो तो तुम्हें थोड़ा अधिक प्रयास करना चाहिए। अनमना होना बंद करो, तुम्हें थोड़ी कठिनाई झेलनी ही पड़ेगी; यह हमारा कर्तव्य है।’ दूसरी ओर, तुम ऊपरवाले को यह कहते हुए उत्तर देते हो, ‘वह पहले से सुधर गया है, अपना कर्तव्य निभाते हुए वह अब और अधिक प्रभावी हो गया है।’ लेकिन तुम अपने दिमाग में वास्तव में यह सोच रहे होते हो, ‘ऐसा इसलिए है, क्योंकि मैंने उस पर काम किया है। अगर मैं न करता, तो वह अभी भी वैसा ही होता जैसा वह था।’ अपने दिमाग में तुम हमेशा सोचते रहते हो, ‘मेरे साथ उसका व्यवहार अच्छा है, उन्हें हटाया नहीं जा सकता!’ जब ऐसी बातें तुम्हारे इरादे में हों, तो यह कौन सी अवस्था होती है? यह व्यक्तिगत भावनात्मक संबंधों की रक्षा करके कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाना है। क्या इस प्रकार कार्य करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या तुम्हारे ऐसा करने में समर्पण है? (नहीं।) कोई समर्पण नहीं है; तुम्हारे हृदय में प्रतिरोध है। तुम्हारे साथ जो चीजें होती हैं और जो काम तुम्हें करना चाहिए, उसमें तुम्हारे अपने विचारों में व्यक्तिपरक निर्णय शामिल होते हैं, और यहाँ भावनात्मक कारक मिश्रित होते हैं। तुम भावनाओं के आधार पर चीजें कर रहे होते हो, फिर भी यह मानते हो कि तुम निष्पक्षता से कार्य कर रहे हो, लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका दे रहे हो, और उन्हें प्रेमपूर्ण सहायता दे रहे हो; इस प्रकार तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करते हो, न कि वैसा, जैसा परमेश्वर कहता है। इस तरह कार्य करना, कार्य की गुणवत्ता को कम करता है, यह प्रभावशीलता घटाता है और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाता है—जो कि सब भावनाओं के अनुसार कार्य करने का परिणाम है। अगर तुम स्वयं की जाँच नहीं करते, तो क्या तुम यहाँ समस्या की पहचान कर पाओगे? तुम कभी नहीं कर पाओगे। शायद तुम्हें पता हो कि इस तरह से कार्य करना गलत है, कि यह समर्पण की कमी है, लेकिन तुम इस बारे में सोचते हो और खुद से कहते हो, ‘मुझे प्रेम से उनकी मदद करनी चाहिए, और मदद के बाद जब वे बेहतर हो जाएँगे, तो उन्हें हटाने की आवश्यकता नहीं होगी। क्या परमेश्वर लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका नहीं देता? परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है, इसलिए मुझे भी प्रेम से उनकी मदद करनी चाहिए, और मुझे जैसा परमेश्वर कहता है वैसा ही करना चाहिए।’ ये बातें सोचने के बाद, तुम चीजों को अपने तरीके से करते हो। बाद में, तुम्हारा दिल सुकून महसूस करता है; तुम्हें लगता है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। इस प्रक्रिया के दौरान, तुमने सत्य के अनुसार अभ्यास किया, या अपनी प्राथमिकताओं और इरादों के अनुसार कार्य किया? तुम्हारे कार्य पूरी तरह से तुम्हारी प्राथमिकताओं और इरादों के अनुसार थे। पूरी प्रक्रिया के दौरान तुमने चीजों को सुचारू बनाने के लिए अपनी तथाकथित दयालुता और प्रेम, और साथ ही भावनाओं और फलसफों का इस्तेमाल किया, और तुमने ढुलमुल रहने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि तुम इस इंसान की प्रेम से मदद कर रहे थे, लेकिन अपने दिल में तुम वास्तव में भावनाओं से बाधित थे—और, इस डर से कि ऊपरवाले को पता चल जाएगा, तुमने समझौता करके उसे जीतने की कोशिश की, ताकि कोई नाराज न हो और काम हो जाए—जो ठीक उसी तरह है, जैसे गैर-विश्वासी तटस्थ रहने की कोशिश करते हैं। वास्तव में परमेश्वर इस स्थिति का मूल्यांकन कैसे करता है? वह तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत करेगा जो सत्य के प्रति समर्पण नहीं करता, जो अक्सर सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति पड़ताल करने वाला, विश्लेषणात्मक रवैया अपनाता है। जब तुम इस तरीके का उपयोग करके सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं से पेश आते हो, और जब तुम इस दृष्टिकोण के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हो, तो तुम्हारे इरादे की क्या भूमिका होती है? यह परमेश्वर की माँगों की परवाह किए बिना, तुम्हारे स्वयं के कर्तव्यों या कलीसिया के काम पर कोई सकारात्मक प्रभाव डाले बिना तुम्हारे स्वयं के हितों, तुम्हारे गौरव और तुम्हारे पारस्परिक संबंधों की रक्षा करने का कार्य करता है। ऐसा व्यक्ति पूरी तरह से सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जी रहा होता है। ऐसे लोग जो कुछ भी कहते और करते हैं वह अपने गौरव, भावनाओं और पारस्परिक संबंधों की रक्षा के लिए होता है, फिर भी उनमें सत्य और परमेश्वर के प्रति कोई सच्चा समर्पण नहीं होता, न ही वे इन समस्याओं को घोषित करने या स्वीकार करने का कोई प्रयास करते हैं। वे जरा भी आत्मभर्त्सना नहीं महसूस करते और वे समस्याओं की प्रकृति के प्रति पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हैं। अगर लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है, और अगर उनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, तो वे चाहे जिन भी कर्तव्‍यों का पालन क्‍यों न कर रहे हों, या कितनी भी समस्‍याओं से क्‍यों न निपट रहे हों, वे कभी भी सिद्धान्‍त के अनुरूप आचरण नहीं कर सकते। अपने प्रयोजनों और स्‍वार्थपूर्ण आकांक्षाओं के भीतर जीवन जी रहे लोग सत्‍य वास्‍तविकता में प्रवेश करने में अक्षम होते हैं। इस कारण, अगर कभी उनका सामना किसी समस्‍या से होता है और वे अपने इरादों की जाँच नहीं करते और इस बात को पहचान नहीं पाते कि उनके प्रयोजनों में कहाँ पर खोट है, बल्कि अपने पक्ष में झूठ और बहाने गढ़ने के लिए तमाम तरह के औचित्‍यों का इस्‍तेमाल करते हैं, तो अंत में क्या होता है? वे अपने हितों, गौरव, और अन्‍तर्वैयक्तिक सम्‍बन्‍धों की रक्षा के लिए काफी अच्छा उद्यम करते हैं, लेकिन उन्‍होंने परमेश्वर के साथ अपना सामान्य संबंध खो दिया होता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य का जो रवैया होना चाहिए)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो मैं बहुत दुखी और परेशान हुई। जब मसले सामने आए तो मैंने सत्य की खोज नहीं की या सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं किया, बल्कि इसके बजाय मैंने अपने परिवार का पक्ष लिया और उसे बचाया, हर मामले में अपनी दैहिक भावनाओं और व्यक्तिगत हितों की रक्षा की। मैं ही अपनी भावनाओं के अनुसार काम कर रही थी और यह एक भ्रष्ट स्वभाव था—यह परमेश्वर के इरादे के बिल्कुल विपरीत था। मैं अत्यंत प्रबल भावनाओं वाली इंसान थी, मैं हमेशा यही सोचती थी कि मेरी माँ ने मुझे पालने के लिए बहुत कष्ट सहे हैं और मेरे लिए खुद को बहुत खपाया है और इस रक्त संबंध के कारण मैं हमेशा उसकी रक्षा करना चाहती थी और उससे पूरी तरह से सिद्धांतहीन तरीके से संपर्क करती थी। जब मैंने लोगों को वापस लेने के बारे में कलीसिया की कार्य व्यवस्था देखी, तो मुझे पहला ख्याल अपनी माँ का आया था। मैं जानती थी कि वह एक बुरी इंसान थी जिसे कलीसिया ने निकाल दिया था, लेकिन उसके द्वारा प्रदर्शित कुछ अच्छे व्यवहार देखते हुए मैं उसे वापस कलीसिया में स्वीकार करवाना चाहती थी ताकि उसे खुश कर सकूँ और उसके साथ अपने पारिवारिक संबंध को बनाए रख सकूँ। खास तौर पर जब मैंने उसका मूल्यांकन लिखा, मैंने वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, सच्चाई और व्यावहारिकता के सिद्धांतों का उल्लंघन किया था। अपनी भावनाओं से प्रभावित होकर मैंने उसका पक्ष लिया था और उसे बचाया था और मैंने जो कुछ भी लिखा था, उसमें से ज्यादातर उसके अच्छे गुणों के बारे में था, मैंने उसे सत्य का अनुसरण करने वाली एक सकारात्मक इंसान दिखाया था और यहाँ तक कि उसके पिछले बुरे कर्मों का भी बहुत कम उल्लेख किया था। मुझे डर था कि उसे उस समय अपने बुरे कर्मों की कोई वास्तविक समझ नहीं थी, इसलिए मैंने उसका हर बुरा कर्म याद दिलाने और उजागर करने के लिए उसे विशेष रूप से पत्र लिखा ताकि उसे खुद के बारे में वास्तविक समझ हो और वह फौरन पश्चात्ताप करे और कलीसिया में फिर से स्वीकार किए जाने का प्रयास करे। उसे जानने वाले लोगों से मूल्यांकन जुटाते समय मुझे पता था कि निष्कासित किए गए अन्य तीन लोगों में पश्चात्ताप का कोई लक्षण नहीं दिखा था, लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने केवल अपनी माँ के बारे में मूल्यांकन एकत्र किए तो भाई-बहन कहेंगे कि मैं अपनी भावनाओं के अनुसार काम कर रही हूँ, इसलिए मैंने इसे यह कहकर छिपाया कि अगुआ सभी चार लोगों का मूल्यांकन उपलब्ध कराएँ। समय-समय पर मैं कलीसिया के अगुआओं से इन मूल्यांकनों को एकत्र करने में उनकी प्रगति के बारे में तत्काल पूछताछ भी करती रहती थी, जिससे उनके कर्तव्यों में बाधा उत्पन्न होती थी। क्या मैं ही कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा नहीं कर रही थी? मैं अपनी भावनाओं के अनुसार काम कर रही थी, हिसाब लगा रही थी और छलपूर्ण तरीकों का इस्तेमाल कर रही थी। मैं अब सही और गलत में फर्क नहीं कर सकती थी। मैं पूरी तरह सिद्धांतहीन होकर काम कर रही थी अपनी समझ के आधार पर लोगों को वापस लेना चाहती थी—मैं बहुत स्वार्थी, नीच और मानवता-रहित थी! भले ही ऐसे नीच तरीकों का इस्तेमाल करके मैं अपनी माँ की वापसी करवा सकती थी और उसके साथ अपना भावनात्मक रिश्ता बनाए रख सकती थी, लेकिन मैं परमेश्वर को नाराज और उसका प्रतिरोध कर रही होती और बुराई कर रही होती! यह सोचकर मुझे अपने किए से डर लगा।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े और अपनी भावनाओं के अनुसार काम करने की प्रकृति और अंजाम के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग बेहद भावुक होते हैं। रोजाना वे जो कुछ भी कहते हैं और जिस भी तरह से दूसरों के प्रति व्यवहार करते हैं, उसमें वे अपनी भावनाओं से जीते हैं। वे इस या उस व्यक्ति के प्रति स्नेह महसूस करते हैं और स्नेह की बारीकियों में संलग्न रहते हुए दिन बिताते हैं। अपने सामने आने वाली सभी चीजों में वे भावनाओं के दायरे में रहते हैं। जब ऐसे व्यक्ति का कोई अविश्वासी रिश्तेदार मरता है, तो वह तीन दिनों तक रोता है और शरीर को दफनाने नहीं देता। उसके मन में अभी भी मृतक के लिए भावनाएं होती हैं, और उसकी भावनाएं बहुत तीव्र होती हैं। तुम कह सकते हो कि भावनाएं इस व्यक्ति का घातक दोष है। वह सभी मामलों में अपनी भावनाओं से विवश होता है, वह सत्य का अभ्यास करने या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने में अक्षम होता है, और उसमें अक्सर परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने की प्रवृत्ति होती है। भावनाएँ उसकी सबसे बड़ी कमजोरी, उसका घातक दोष होती हैं, और उसकी भावनाएँ उसे तबाहो-बरबाद करने में पूरी तरह से सक्षम होती हैं। जो लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने या परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में असमर्थ होते हैं। वे देह-सुख में लिप्त रहते हैं, और मूर्ख और भ्रमित होते हैं। इस तरह के व्यक्ति की प्रकृति अत्यधिक भावुक होने की होती है और वह भावनाओं से जीता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। “परमेश्वर पर विश्वास न रखने वाले प्रतिरोधियों के सिवाय भला शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनसे अंतःकरण और प्रेम से पेश आते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि लोग इस बिंदु तक आ गए हैं और अच्छाई-बुराई में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर के इरादों को खोजने की कोई इच्छा किए बिना या परमेश्वर के इरादों को अपने इरादे मानने में असमर्थ रहते हुए आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं तो उनका अंत और भी अधिक खराब होगा। जो भी व्यक्ति देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंतःकरण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें न्यायबोध की कमी नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम विद्रोही नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंतःकरण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। मैंने परमेश्वर के वचनों से यह समझा कि जिन लोगों की भावनाएँ बहुत प्रबल होती हैं वे पारिवारिक रिश्ते कायम रखने के लिए महत्वपूर्ण क्षणों में सिद्धांतों का उल्लंघन और सत्य से दगा कर देते हैं, परमेश्वर का प्रतिरोध और उसे धोखा देने वाले काम करते हैं और इस प्रकार परमेश्वर को मजबूर कर देते हैं कि वह उनसे घिनाए और नफरत करे। अपनी दशा की तुलना करूँ तो मैं इन शैतानी जहरों के अनुसार जी रही थी कि “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” और “खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं,” मैं पारिवारिक बंधनों को सबसे महत्वपूर्ण मान रही थी और कलीसिया में अपनी माँ की वापसी के तरीके खोजने के लिए अपने कर्तव्य का फायदा उठा रही थी। मैं बिल्कुल भी सत्य की तलाश नहीं कर रही थी। मैं बस अपनी माँ के कहने पर चल रही थी कि उसने पश्चात्ताप किया है और उसने कुछ अच्छे व्यवहार का प्रदर्शन किया है और उसे कलीसिया में वापस स्वीकार करवाना चाहती थी। मैंने लोगों से उसके मूल्यांकन लिखने के लिए कहा था ताकि उसे फिर से स्वीकार करवाने के लिए सबूत उपलब्ध करवा सकूँ और मैंने उसे विशेष रूप से उसके बुरे कर्मों को उजागर करते हुए लिखा था ताकि वह जल्दी से समझ जाए, पश्चात्ताप करे और जल्द ही कलीसिया में वापस स्वीकार करवाने का प्रयास करे। मैंने सोचा कि जब से मैंने सफाई का काम करना शुरू किया है, मैंने जो सामग्री सँभाली थी, जो लोग बाहर हो चुके थे और फिर से प्रवेश के लिए आवेदकों के लिए थी, सभी सिद्धांतों के अनुसार जाँच की गई थी, लेकिन मैं अपनी माँ के साथ बहुत नरमी से पेश आ रही थी और इस दौरान मैंने कभी भी सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं की थी। खासकर जब मैंने अपनी माँ के लिए मूल्यांकन लिखा था, मैंने जानबूझकर छल-कपट किया था, उसके पक्ष में सिर्फ अच्छी बातें की थीं और उससे जल्दी से पश्चात्ताप करवाने के लिए संगति की थी। भले ही मुझे आत्म-ग्लानि हो रही थी, फिर भी मैं अड़ियल होकर सिद्धांतों के विरुद्ध कार्य कर रही थी और सौ फीसदी बुरी इंसान को कलीसिया में वापस स्वीकार करवाना चाहती थी। मैंने अपनी भावनाओं के आधार पर एक ऐसी इंसान को कलीसिया में फिर से शामिल करने के तरीके खोजने पर जोर दिया जिससे परमेश्वर घृणा और घिन करता था—क्या मैं जानबूझकर परमेश्वर के विरुद्ध जाकर कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी नहीं डाल रही थी? मैंने सोचा कि कैसे बड़े लाल अजगर द्वारा शासित राष्ट्र के लोग कानून को अपने पक्ष में मोड़ते हैं। जब कोई व्यक्ति अधिकारी बन जाता है और सत्ता पाता है तो उसके साथ-साथ उसके रिश्तेदार और दोस्त भी लाभान्वित होते हैं और उन्हें पदोन्नत किया जा सकता है और महत्वपूर्ण पदों पर रखा जा सकता है, चाहे वे अच्छे हों या बुरे, कानून और व्यवस्था की परवाह नहीं की जाती। मैंने परमेश्वर के घर के सिद्धांतों की अवहेलना की थी और मेरे पास बिल्कुल भी परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं था। मैंने सिद्धांतों का उल्लंघन किया था और हठपूर्वक चाहा कि मेरी माँ को कलीसिया में वापस ले लिया जाए। मैं एक बुरी इंसान की ढाल बन गई थी और मुझे इसका एहसास तक नहीं था—मैंने वाकई परमेश्वर को मुझसे घिन और घृणा करने के लिए मजबूर किया! लोगों को स्वीकारने के लिए कलीसिया के सिद्धांत कहते हैं : कुछ लोग हर तरह की बुराई करते हैं और अंधाधुँध दुष्कर्म करते हैं, जिससे कलीसिया के काम में बाधा उत्पन्न होती है, इसलिए उन्हें निष्कासित कर दिया जाता है। अगर वे निष्कासन के बाद अपने बुरे कर्मों के लिए सचमुच पश्चात्ताप करते हैं और सुसमाचार का प्रचार करते समय अधिक लोगों, अच्छे लोगों को प्राप्त कर सकते हैं तो ऐसे लोगों को स्वीकारने पर विचार किया जा सकता है और उन्हें कलीसिया में फिर से शामिल होने का मौका दिया जा सकता है; अगर कोई कलीसिया अधिकतर बहिष्कृत लोगों को फिर से स्वीकार कर लेती है तो यह सिद्धांतों के विपरीत है। क्योंकि एक बुरे व्यक्ति का सार हमेशा एक बुरे व्यक्ति का सार होता है, इसलिए उसके लिए वाकई पश्चात्ताप करना संभव नहीं है; लोगों को फिर से कलीसिया में शामिल करने की बात आने पर व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए, उसे सत्य खोजना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति की अभिव्यक्तियों और सार का भेद साफ पहचानना चाहिए और यह प्रयास करना चाहिए कि किसी अच्छे व्यक्ति पर गलत आरोप न लगे और किसी खराब या बुरे व्यक्ति को वापस न लिया जाए। मैंने सोचा कि अगर मैंने सिद्धांतों का उल्लंघन किया और अपनी माँ को वापस कलीसिया में स्वीकार कर लिया और उसने अपने बुरे कर्मों की कोई समझ प्राप्त नहीं की और सचमुच पश्चात्ताप न किया तो अनुकूल मौका मिलते ही वह निश्चित रूप से बुराई करना, लोगों को उकसाना, भड़काना और गुमराह करना जारी रखेगी, कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डालेगी और फिर मैं इस बुराई का हिस्सा बन जाऊँगी और शैतान के अनुचर की भूमिका निभा रही होऊँगी! मैंने देखा कि मेरी भावनाएँ मेरी बड़ी कमजोरी थीं, सत्य का अभ्यास करने में मेरे लिए बाधा और अड़चन थीं। मुझे भावनाओं ने अंधा बना दिया था और मैं चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देख पाई। मैंने अपनी माँ के साथ अपनी भावनाओं को कायम रखने के लिए अपने कर्तव्य में सिद्धांतों का उल्लंघन किया था। मैंने जो कुछ भी किया था वह परमेश्वर का प्रतिरोध करना और उसे धोखा देना था, और इस तरह से आगे बढ़ना बहुत खतरनाक होता! शुक्र है, मेरी काट-छाँट कर दी गई और इसने मेरी बढ़ती बुराई को समय रहते रोक दिया। वरना मैं अपनी माँ को वापस कलीसिया में स्वीकार कर चुकी होती और कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन में बाधा डाल चुकी होती और तब क्या मैं एक बुरी इंसान की साथी नहीं बन चुकी होती? इसके अंजाम अकल्पनीय होते! मैं पश्चात्ताप, आत्म-निंदा और परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता की भावना से भर गई और मैंने अपनी रक्षा करने के लिए परमेश्वर का बहुत आभार माना। मैंने फिर कभी अपनी भावनाओं के अनुसार काम न करने और परमेश्वर के दिल को ठेस न पहुँचाने का संकल्प लिया और मैं सत्य की खोज करने और सिद्धांत के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार हो गई।

बाद में मैंने फिर से उपयुक्त सिद्धांत खोजे और पाया कि चारों लोगों में से किसी को भी अपने बुरे कर्मों की कोई वास्तविक समझ नहीं थी। अपने पश्चात्ताप के पत्रों में उनमें से कुछ अभी भी अप्रत्यक्ष रूप से खुद को सही ठहरा रहे थे ताकि लोग गलत तरीके से सोचें कि उनके बुरे कर्मों के लिए उचित कारण थे। लोगों को फिर से स्वीकारने के कलीसिया के सिद्धांतों के अनुसार मैंने तय किया कि इन चारों लोगों में से किसी को भी कलीसिया में वापस स्वीकार नहीं किया जा सकता। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से विमुख रहने वाले और नफरत करने वाले लोग हैं और वे परमेश्वर का विरोध और उससे नफरत करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे अत्यंत घृणा और नफरत करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता से अत्यंत घृणा कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध और उसकी आलोचना करते हैं—ऐसे में वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम उनसे नफरत कर उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा कि परमेश्वर चाहता है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा था : ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।’ ये वचन बिल्कुल सीधे हैं, फिर भी लोग अक्सर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं समझ गई कि जो सत्य स्वीकारते हैं और उसका अभ्यास कर सकते हैं और परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हैं, केवल वे ही सच्चे भाई-बहन हैं, और इन लोगों की मदद प्रेमपूर्ण हृदय से करनी चाहिए। जहाँ तक उन बुरे लोगों का सवाल है जो सत्य का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते और सत्य से विमुख भी हैं और बुराई करने और बाधाएँ खड़ी करने के बाद पश्चात्ताप करने से इनकार करते हैं, उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। सिर्फ इस तरह से व्यवहार करना ही परमेश्वर के इरादे और अपेक्षा के अनुरूप है। मुझे अपनी माँ से निपटने का सिद्धांत मिल गया—जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करो और जिससे परमेश्वर घृणा करता है उससे घृणा करो। रक्त संबंधों के संदर्भ में वह मेरी माँ है, लेकिन उसकी प्रकृति सत्य से विमुख रहने और घृणा करने की है, वह वास्तव में अपने बुरे कर्मों को समझती नहीं है या इनके लिए पश्चात्ताप नहीं करती है। भाई-बहनों द्वारा दिए गए मूल्यांकनों के अनुसार, चीजों के बारे में मेरी माँ के विचार बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे कि अविश्वासियों के हैं और वह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण करती है और एक अविश्वासी और बुरी इंसान का उसका सार बेनकाब हो गया है। परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा और घिन करता है और वह बुरे लोगों को नहीं बचाता है, इसलिए मुझे अपनी माँ के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि केवल यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। आखिरकार लोगों को स्वीकारने के कलीसिया के सिद्धांतों और अच्छे व्यवहार और सच्चे पश्चात्ताप को पहचानने से संबंधित सत्यों के अनुसार मैंने इन लोगों से निपटने के लिए अपनी सिफारिशें देते हुए कलीसिया के अगुआओं को एक पत्र लिखा। तब इसके जवाब में कलीसिया के अगुआओं ने पत्र लिखा कि इस दौरान सूचनाएँ लेकर और जाँच कराकर उन्होंने देखा कि मेरी माँ बस थोड़ा-सा अच्छा व्यवहार दिखाती है, वह वास्तव में अपने बुरे कर्मों को नहीं समझती या इनके लिए पश्चात्ताप नहीं करती है और इन चारों लोगों में से कोई भी पुनः प्रवेश के सिद्धांतों को पूरा नहीं करता और उन्हें कलीसिया में वापस नहीं लिया जा सकता है। तब मैं सहज हो गई और मैं यह समझने लगी कि भावनाओं के आगे बेबस न होकर और सिद्धांत के अनुसार कार्य करके ही व्यक्ति का हृदय सचमुच मुक्त हो सकता है। यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन का नतीजा है कि मैं ऐसा अभ्यास पाने में सक्षम थी।

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