60. कर्तव्यों में कोई पद या भेद नहीं होता

ली मिन, चीन

फरवरी 2019 में मुझे मेरे अगुआई कर्तव्य से बर्खास्त कर दिया गया था क्योंकि मैं वास्तविक काम करने के बजाय प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती थी। मेरे बर्खास्त होने के अगले दिन मेरे मेजबान परिवार की बहन का पति एक हादसे में घायल हो गया और उसे उसकी देखभाल करने के लिए घर लौटना पड़ा। सुपरवाइजर ने मुझे अस्थायी रूप से उसकी मेजबानी का कार्यभार सँभालने में लगा दिया। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर भाई-बहनों को पता चले कि मेरी बर्खास्तगी के बाद मैं अब सिर्फ मेजबानी का काम कर रही हूँ, खाना बना रही हूँ, बाहर के काम कर रही हूँ और संदेश पहुँचा रही हूँ तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे निश्चित रूप से मुझे नीची नजरों से देखेंगे। मैं अपनी इज्जत कैसे बचा सकती हूँ?” लेकिन मैं इस कर्तव्य को सिर्फ अस्थायी मानकर फिलहाल इसे करने के लिए सहमत हो गई। लेकिन जब कई हफ्तों के बाद भी मेरी जगह लेने के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिला तो सुपरवाइजर ने मेरे साथ संगति की और मुझे मेजबानी का काम करते रहने को कहा। जब मैंने यह सुना था तो मेरा दिल काँप उठा और मैंने सोचा, “चीजों को इस तरह से क्यों व्यवस्थित किया जाए? अगर मुझे जानने वाले भाई-बहनों को पता चले कि मैं लंबे समय तक मेजबानी का काम करूँगी तो वे निश्चित रूप से मुझे नीची नजरों से देखेंगे। क्या वे ऐसा नहीं कहेंगे कि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती हूँ और कि मैं शारीरिक श्रम और मेजबानी के कर्तव्यों के अलावा किसी काम की नहीं हूँ? मैं अपनी इज्जत कैसे बचा पाऊँगी? इसके अलावा मुझे बर्खास्त किए जाने से पहले मैं कुछ बहनों के साथ मिलकर अपने कर्तव्य करती थी। और अब मैं यहाँ सिर्फ खाना बना रही हूँ। कितना अंतर है! यह बहुत अपमानजनक है!” यह सोचकर मैं मेजबानी का काम करने के लिए अनिच्छुक हो गई। सुपरवाइजर ने मेरी अवस्था खराब देखकर अपने बर्खास्त किए जाने के अनुभव के बारे में संगति की। मुझे एहसास हुआ कि हर काम परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था से होता है, इसलिए मैंने समर्पण कर दिया। लेकिन उस रात मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई। मैंने मन ही मन सोचा, “जब से मैंने परमेश्वर को पाया है, मेरे ज्यादातर कर्तव्य अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में रहे हैं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं सिर्फ छोटे-मोटे काम करने और खाना पकाने तक सीमित होकर रह जाऊँगी। अगर मुझे जानने वाले भाई-बहनों को पता चला तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? यह तो बहुत अपमानजनक होगा!” मैं बहनों को साथ मिलकर काम पर चर्चा करते देखती थी और मुझे याद आता कि जब मैं अगुआ थी तो मैं भी उनके साथ इसी तरह की चर्चाओं पर काम करती थी। लेकिन अब, मैं यहाँ थी, अपना दिन बर्तन धोने, खाना पकाने और यहाँ तक कि सफाई करने में बिता रही थी। कितना अंतर है! मैं गलत अवस्था में जी रही थी और जितना अधिक मैं इसके बारे में सोचती थी, यह उतनी ही दर्दनाक हो जाती थी। इसके बाद जब भी मैं ये गंदे काम करती थी तो मुझे डर लगता था कि बहनें मुझे नीची नजर से देखेंगी, इसलिए जब वे आस-पास नहीं होतीं थी तो मैं जल्दी से काम निपटा लेती थी। मुझे लगता था कि ऐसा गंदा काम करना अपमानजनक है। मेरा दिल दर्द और कष्ट से भर जाता था और अनायास ही मेरे चेहरे पर आँसू बहने लगते थे।

एक दिन सुपरवाइजर ने मुझसे कहा कि जब मैं बाहर जाऊँ तो कचरा बाहर निकाल दूँ। जब मैंने यह सुना था तो मैं बेहद प्रतिरोधी होकर सोच रही थी, “तुम मुझे क्या समझती हो? हम साथ मिलकर काम करते थे, लेकिन अब तुम मुझे इस तरह से आदेश दे रही हो।” जितना मैं इसके बारे में सोचती थी, उतना ही बुरा लगता था। मैं अंदर से बहुत परेशान थी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, कि वह मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करे ताकि मैं खुद को जान सकूँ और उसके इरादे समझ सकूँ। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के ये वचन पढ़े : “अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए, जिसे कि सही और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कहा जा सके? पहली बात, तुम यह विश्लेषण नहीं कर सकते कि उसकी व्यवस्था किसने की है, उसे किस स्तर की अगुआई द्वारा सौंपा गया है—तुम्हें उसे परमेश्वर की ओर से स्वीकार करना चाहिए। तुम इसका विश्लेषण नहीं कर सकते, तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए। यह एक शर्त है। इसके अलावा, तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, ‘हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे यह काम दिया गया है, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, यह अनुचित है! मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच खास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या खास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए।’ क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मीन-मेख निकालना परमेश्वर से आई चीजों को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है, यह परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारी विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति है। इस तरह मीन-मेख निकालने में तुम्हारी निजी पसंद और आकांक्षाओं की मिलावट होती है। जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता। कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? पहले तो तुम्हें यह पता लगाने की कोशिश में कि वह कौन था जिसने तुम्हें यह सौंपा था, इसका विश्लेषण नहीं करना चाहिए; इसके बजाय तुम्हें उसे परमेश्वर से मिला हुआ, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया मानना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए और परमेश्वर से अपने कर्तव्य को ग्रहण करना चाहिए। दूसरे, ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो, और उसकी प्रकृति के बारे में न सोचो, क्या वह तुम्हें लोगों के बीच खास बनाता है, यह सभी के सामने किया जाता है या पर्दे के पीछे। इन चीजों पर गौर मत करो। एक और रवैया भी है : आज्ञाकारिता और सक्रिय सहयोग(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। “अपना कर्तव्य निर्वाह करते हुए कठिनाई सहने योग्य होना कोई आसान काम नहीं है। किसी खास तरह के काम को अच्छी तरह से कर पाना भी आसान नहीं होता। यह निश्चित है कि ये काम कर सकने वालों के भीतर परमेश्वर के वचनों का सत्य काम कर रहा है। ऐसा नहीं है कि जन्म से ही उनमें कठिनाई और थकान का डर नहीं था। ऐसा व्यक्ति कहाँ मिलेगा? इन सभी लोगों के पास कुछ प्रेरणा है, और उनकी नींव के रूप में थोड़ा सा परमेश्वर के वचनों का सत्य है। वे जब अपने कर्तव्य ग्रहण करते हैं, तो उनका दृष्टिकोण और रवैया बदल जाता है—उनके लिए अपने कर्तव्यों का निर्वहन आसान हो जाता है और थोड़ा सा शारीरिक कष्ट और थकान सहना उन्हें महत्वहीन लगने लगता है। जो लोग सत्य को नहीं समझते और चीजों के बारे में जिनके विचार नहीं बदले हैं वे मानवीय विचारों, धारणाओं, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार जीते हैं, इसलिए वे अपने कर्तव्य निभाने के प्रति निरुत्साही और अनिच्छुक होते हैं। उदाहरण के लिए, जब गंदा और थका देने वाला काम करने की बात आती है, तो कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं परमेश्वर के घर की व्यवस्था का पालन करूंगा। कलीसिया मेरे लिए जिस भी काम की व्यवस्था करेगा, मैं उसे करूंगा, चाहे वह गंदा या थका देने वाला काम हो, या फिर वह प्रभावशाली हो या अनुल्लेखनीय काम हो। मेरी कोई मांग नहीं है और मैं इसे अपना कर्तव्य मानकर स्वीकार करूंगा। यह परमेश्वर का मुझे दिया आदेश है, और थोड़ी-सी गंदगी और थकान वे कठिनाइयाँ हैं जिन्हें मुझे सहन करना चाहिए।’ इसके परिणामस्वरूप, जब वे अपने काम में लगे होते हैं, तो उन्हें किसी कठिनाई का बिल्कुल अनुभव नहीं होता। दूसरों को यह गंदा और थका देने वाला लग सकता है, लेकिन उन्हें यह आसान लगता है, क्योंकि उनके हृदय शांत और सुव्यवस्थित हैं। वे यह काम परमेश्वर के लिए कर रहे होते हैं, इसलिए उन्हें नहीं लगता कि यह मुश्किल है। कुछ लोग गंदा, थका देने वाला या साधारण काम करने को अपनी हैसियत और चरित्र का अपमान मानते हैं। वे इसे ऐसा समझते हैं जैसे दूसरे उनका सम्मान न करते हों, उनके साथ धींगा-मुश्ती करते हों, या उन्हें नीची निगाह से देखते हों। परिणामस्वरूप, वही काम और कार्यभार का मिलने पर भी उन्हें यह कठिन लगता है। वे जो भी करते हैं, उसमें उनके हृदय में क्षोभ का भाव होता है और उन्हें लगता है कि चीजें वैसी नहीं हैं जैसी वे चाहते हैं या वे असंतोषजनक हैं। अंदर से वे नकारात्मकता और प्रतिरोध से भरे होते हैं। वे नकारात्मक और प्रतिरोधी क्यों हैं? इसकी जड़ क्या है? ज्यादातर, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने पर उन्हें वेतन नहीं मिलता है; उन्हें लगता है जैसे वे मुफ़्त में काम कर रहे हैं। इसका यदि कोई पुरस्कार होता तो शायद यह उनके लिए स्वीकार्य होता, लेकिन वे नहीं जानते कि उन्हें पुरस्कार मिलेंगे या नहीं। इसलिए, लोगों को लगता है कि कर्तव्य-निर्वाह का कोई महत्व नहीं है, वे इसे बिना किसी परिणाम के काम करने के बराबर मानते हैं, इसलिए जब कर्तव्यों के निर्वाह की बात आती है तो वे अक्सर नकारात्मक और प्रतिरोधी हो जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है? साफ कहें तो ये लोग कर्तव्य निर्वहन के अनिच्छुक होते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर उजागर करता है कि जब कुछ लोगों को कुछ कर्तव्य मिलते हैं तो वे उन्हें परमेश्वर से स्वीकार नहीं कर पाते हैं और इसके बजाय अपनी पसंद के आधार पर अपने कर्तव्य चुनते हैं। वे उन कर्तव्यों को स्वीकारते हैं जो उन्हें दूसरों से अलग दिखाते हैं, लेकिन उन कर्तव्यों का प्रतिरोध महसूस करते हैं और नकारते हैं जो उन्हें पहचान नहीं दिलाते। उनके पास अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पण का कोई रवैया नहीं होता। परमेश्वर ने जो उजागर किया, ठीक वही मेरी भी अवस्था थी। मेरा मानना था कि अगुआ होने के नाते बोलने का अधिकार मिलता है और मैं जहाँ भी जाऊँगी, भाई-बहन मेरा आदर करेंगे, इसलिए मैं उस कर्तव्य करने के लिए तैयार रहती थी। लेकिन मुझे लगता था कि मेजबानी का कर्तव्य सबसे निम्न में से एक है और इसमें सिर्फ शारीरिक श्रम शामिल है, इसलिए मैं खुद को इसके लिए समर्पित नहीं कर पाती थी। मुझे लगता था कि यह कर्तव्य मुझे अपमानित कर रहा है और मेरे साथ अन्याय हुआ है। जब सुपरवाइजर ने मुझे अहाता साफ करने और कचरा बाहर निकालने के लिए कहा तो मुझे इसे स्वीकारना मुश्किल लगा। मुझे लगा कि वह मुझे आदेश देकर मेरा अपमान कर रही है और इससे मैं परेशान हो गई थी। मैं रुतबे के स्तरों का इस्तेमाल यह मापने के लिए करती थी कि किसी व्यक्ति की गरिमा है या नहीं। मैं सोचती थी कि अगुआ का कर्तव्य करना किसी कंपनी का बॉस या प्रबंधक होने जैसा है और यह रुतबे और पद के साथ आता है और ये लोग जहाँ भी जाते हैं, उनका आदर किया जाता है और मुझे ऐसे लोगों से ईर्ष्या होती थी। जब मैं मेजबानी के कर्तव्यों के बारे में सुनती थी तो मुझे लगता था कि यह सिर्फ घर के काम करना और खाना बनाना है, जो नीच कार्य के समान है और मुझे लगता था कि जो लोग यह कर्तव्य करते हैं, वे नीच हैं और जहाँ भी जाते हैं, उन्हें नीची नजर से देखा जाता है। मुझे यह कर्तव्य अपमानजनक लगता था। मैं इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास करती आई थी, फिर भी अभी तक मेरे विचार छद्म-विश्वासियों जैसे ही थे। मेरे ये विचार वाकई बेतुके थे! परमेश्वर के घर में हर कोई अपने कर्तव्यों में समान है। उच्च या निम्न, महान या नीच, बड़े या छोटे के संदर्भ में कर्तव्यों में कोई अंतर नहीं है। चाहे वह अगुवाई का कर्तव्य हो या मेजबानी का, वे सभी परमेश्वर से आते हैं। वे बस अलग-अलग कार्य करते हैं और सृजित प्राणियों के नाते हमें उन्हें स्वीकारना चाहिए और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए। लेकिन अपने कर्तव्यों में मैं सिर्फ अपने हितों और गौरव पर विचार करती थी। मैं अपने कर्तव्यों को परमेश्वर की ओर से आदेश के रूप में बिल्कुल भी नहीं लेती थी। चूँकि मेजबानी का कर्तव्य मुझे दूसरों से अलग नहीं दिखाता था, इसलिए मैं इसके प्रति प्रतिरोधी महसूस करती थी। मुझे अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी का कोई एहसास नहीं था और मैं बस काम को लापरवाह होकर करती थी। मैंने देखा कि मैं वाकई स्वार्थी और नीच थी और मेरे पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं था!

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “ऐसी गंदी जगह में जन्म लेकर मनुष्य समाज द्वारा गंभीर हद तक संक्रमित हो गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित हो गया है, और उसे ‘उच्चतर शिक्षा संस्थानों’ में पढ़ाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन के बारे में क्षुद्र दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के घृणित फलसफे, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, भ्रष्ट जीवन-शैली और रिवाज—इन सभी चीजों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ कर ली है, उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रति समर्पण करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसके बजाय, इंसान शैतान की सत्ता में रहकर, आनंद का अनुसरण करने के सिवाय कुछ नहीं करता और कीचड़ की धरती पर खुद को देह की भ्रष्टता में डुबा देता है। सत्य सुनने के बाद भी जो लोग अंधकार में जीते हैं, उसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, न ही वे परमेश्वर का प्रकटन देख लेने के बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख होते हैं। इतनी भ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। परमेश्वर के वचनों ने इस बात का मूल उजागर कर दिया कि मैं उसके प्रति समर्पित क्यों नहीं हो सकी थी। छोटी उम्र से ही मैं इन शैतानी जहरों से प्रभावित थी जैसे “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है” और वे मेरे व्यवहार और आचरण के मानदंड बन गए थे। मेरा मानना था कि लोगों को अपने गर्व के लिए जीना चाहिए और यह कि चाहे वे कहीं भी जाएँ, उनका सम्मान होना ही एक व्यक्ति के लिए गरिमा के साथ जीने का तरीका है। मैं भी ऐसा काम करना चाहती थी जिससे मैं दूसरों से अलग दिखूँ और उनसे प्रशंसा पाऊँ और मुझे लगता था कि सम्मान और मूल्य के साथ जीने का यही तरीका है। लेकिन मेरे लिए गंदा या बिना पहचान वाला काम करना नीचता और अपमान महसूस कराता था, इसलिए मैं इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थी। परमेश्वर को पाने से पहले मैं इन विचारों के अनुसार जीती थी, हमेशा दूसरों से बेहतर जीवन जीना चाहती थी। मैं उन किसानों और मजदूरों को नीची नजरों से देखती थी जो कड़ी मेहनत करके पैसा कमाते थे और मुझे लगता था कि कपड़ों का व्यवसाय चलाना शारीरिक श्रम से ज्यादा सम्मानजनक है और इससे मुझे दूसरों के सामने अपना सिर ऊँचा रखने का मौका मिल सकता है और यहां तक कि यह मेरे दोस्तों और रिश्तेदारों को भी मुझे एक नई रोशनी में देखने के लिए प्रेरित कर सकता है। परमेश्वर को पाने के बाद मैं कलीसिया में अपने कर्तव्य करते हुए भी इन शैतानी जहरों के अनुसार जी रही थी। अगुआई का कर्तव्य निभाने से मेरे घमंड और अभिमान को तुष्टि और मुझे भाई-बहनों से प्रशंसा मिलती थी और इससे मुझे खुशी होती थी। मैं इसके लिए कुछ कठिनाई और थकावट सहने को भी तैयार थी। लेकिन अगुआई का कर्तव्य निभाने के बाद मैं दूसरों से आदर चाहती रहती थी, हमेशा अपने अभिमान और रुतबे की रक्षा करने की कोशिश करती रहती थी। मैं कोई वास्तविक काम नहीं करती थी और इसलिए मुझे बर्खास्त कर दिया गया था। जब मुझे फिर से एक कर्तव्य दिया गया था तो मैं इसे संजोना नहीं जानती थी। न केवल मैंने अपनी नाकामी के कारणों पर विचार नहीं किया था, बल्कि मैं अभी भी अपने अभिमान और रुतबे के बारे में सोचती रहती थी। मुझे लगता था कि मेजबानी का कर्तव्य निभाना शर्मनाक है और जब मैंने अनिच्छा से इसे स्वीकारा था तब भी मैं इसे प्रतिरोधी महसूस करते हुए अनमने ढंग से करती थी। मेरे पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं था। मैं अपने अभिमान और रुतबे को सबसे ऊपर रखती थी और जब मुझे पता चला था कि कोई और मेजबानी का काम नहीं कर सकता, तब भी मैं उन कर्तव्यों को नकारना और टालना चाहती थी। मैंने कलीसिया के हितों पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया था, न ही मैंने अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के बारे में सोचा था। मैं पूरी तरह से स्वार्थी थी! अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया तो मैं परमेश्वर द्वारा तिरस्कृत कर निकाल दी जाऊँगी। मुझे अभिमान और रुतबे के पीछे भागने के हानिकारक परिणामों का एहसास हुआ और मैं परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने, अपने अभिमान और रुतबे को छोड़ने और इन मेजबानी कर्तव्यों को अच्छी तरह से करके परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हो गई।

उसके बाद मेजबानी के कर्तव्य करते समय मुझे अब उतना प्रतिरोध महसूस नहीं होता था। कभी-कभी मैं बहनों के साथ खुलकर बातचीत करने और संगति करने में भी सक्षम थी और मैं बहुत अधिक स्वतंत्र और मुक्त महसूस करती थी। मैंने देखा कि बहनें मुझे इसलिए नीची नजरों से नहीं देखती थीं क्योंकि मैं मेजबानी के कर्तव्य कर रही थी और मुझे वाकई एहसास हुआ कि परमेश्वर के घर में उच्च या निम्न कर्तव्यों का कोई भेद नहीं है। कार्य बस अलग-अलग हैं। बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “परमेश्वर के घर में, जब भी तुम्हारे लिए कोई व्यवस्था की जाती है, चाहे वह कठिन हो या थका देने वाला काम हो, और चाहे वह तुम्हें पसंद हो या नहीं, वह तुम्हारा कर्तव्य है। अगर तुम उसे परमेश्वर द्वारा दिया गया आदेश और जिम्मेदारी मान सकते हो, तो तुम मनुष्य को बचाने के उसके कार्य के लिए प्रासंगिक हो। और अगर तुम जो करते हो और जो कर्तव्य निभाते हो, वे मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य के लिए प्रासंगिक हैं, और तुम परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश को गंभीरता और ईमानदारी से स्वीकार कर सकते हो, तो वह तुम्हें कैसे देखेगा? वह तुम्हें अपने परिवार के सदस्य के रूप में देखेगा। यह आशीष है या शाप? (आशीष।) यह एक बड़ा आशीष है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। “एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारा क्या काम है? इसका संबंध व्यक्ति के अभ्यास और कर्तव्य से है। अगर तुम एक सृजित प्राणी हो, और अगर परमेश्वर ने तुम्हें गाने की भेंट दी है, और परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए गाने की व्यवस्था करता है, तो तुम्हें अच्छे से गाना है। अगर तुम्हारे पास सुसमाचार के प्रचार का गुण है, और परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए सुसमाचार के प्रचार की व्यवस्था करता है, तो तुम्हें यह अच्छे से करना चाहिए। जब परमेश्वर के चुने हुए लोग तुम्हें अपना अगुआ चुनते हैं, तो तुम्हें अगुआ का कर्तव्य संभालना चाहिए और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की इस तरह अगुवाई करनी चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों को खाएं और पीएं, सत्य पर संगति करें, और वास्तविकता में प्रवेश करें। ऐसा करके तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाओगे। परमेश्वर मनुष्य को जो कर्तव्य सौंपता है वह अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण होता है। तो तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए इस कर्तव्य को किस तरह संभालना चाहिए और अपना काम पूरा करना चाहिए? तुम्हारे सामने आने वाला यह एक बड़ा मुद्दा होता है, और तुम्हें चुनाव करना पड़ता है। कहा जा सकता है कि यह एक महत्वपूर्ण क्षण है जो यह तय करता है कि क्या तुम सत्य को पा सकते हो और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जा सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला और मैंने समझा कि सृजित प्राणियों को परमेश्वर के समक्ष क्या स्थान लेना चाहिए, साथ ही हमें किस उचित विवेक से काम करना चाहिए। चाहे कलीसिया कोई भी कर्तव्य तय करे, चाहे वह मेजबानी का कर्तव्य हो या कोई और कर्तव्य, हमें बिना किसी शर्त के परमेश्वर के सामने समर्पण करना चाहिए। यही वह उचित विवेक है जो हमें अपनाना चाहिए। चाहे कर्तव्य का आकार कैसा भी हो, अगर हम उसे परमेश्वर द्वारा दी गई जिम्मेदारी के रूप में स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं और इसे करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर सकते हैं तो हम लाभ कमाएँगे। उदाहरण के लिए कुछ भाई-बहन कम दिखने वाले कर्तव्य करते हैं, लेकिन वे अलग दिखने की कोशिश नहीं करते। वे सत्य की खोज करने और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और फिर भी वे प्रगति करते हैं। अगर कोई अपना कर्तव्य करते समय सत्य का अनुसरण नहीं करता या समर्पण नहीं करता है तो चाहे उसका कर्तव्य कितना भी प्रभावशाली क्यों न लगे, अगर उसे सत्य प्राप्त नहीं होता या उसके स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आता तो वह अभी भी परमेश्वर का विरोधी है और अंततः परमेश्वर द्वारा उसे निकाल दिया जाएगा। परमेश्वर के घर में हर कर्तव्य महत्वपूर्ण और अपरिहार्य है। ठीक वैसे ही जैसे एक मशीन एक पेच के बिना भी काम नहीं कर सकती। मेजबानी के कर्तव्य महत्वहीन लग सकते हैं, लेकिन इसे करने वाले के बिना भाई-बहनों को शांत परिवेश नहीं मिलेगा जिसमें सभा करके वे अपने कर्तव्य निभा सकें। इसका एहसास होने पर मैंने अपने दिल की गहराई से अपने मेजबानी के कर्तव्य को संजोना शुरू कर दिया और मैं उचित रूप से सहयोग करने के लिए तैयार हो गई।

तब से जब भी कर्तव्य में मेरे गलत इरादे होते थे तो मैं सचेत रूप से परमेश्वर से खुद के खिलाफ विद्रोह करने की प्रार्थना करती थी। हर दिन अपना कर्तव्य पूरा करने के बाद मैं खुद को शांत करती थी, परमेश्वर के वचन पढ़ती थी और भक्ति नोट लिखती थी। मेरे पास परमेश्वर के करीब रहने के लिए ज्यादा समय होता था। धीरे-धीरे मेरी अवस्था में सुधार होने लगा और मुझे लगा कि यह कर्तव्य काफी अच्छा है। मैंने वाकई परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों का अनुभव किया, क्योंकि परमेश्वर जो भी आयोजन और व्यवस्थाएँ करता है, वे हमें शुद्ध करने और बदलने के लिए होती हैं। परमेश्वर पक्षपात नहीं करता और कोई व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य करे, अगर वह परमेश्वर से उसे स्वीकारता है और सत्य के प्रति समर्पण और अनुसरण करने के लिए तैयार रहता है, तो उसे लाभ होता है।

इस अनुभव पर विचार करते हुए मैंने मन ही मन परमेश्वर को धन्यवाद दिया। परमेश्वर ने मेरे लिए मेजबानी के कर्तव्य निभाने के लिए इस परिवेश की व्यवस्था की थी, गर्व और रुतबे की मेरी इच्छा के लिए मेरी काट-छाँट की थी और मेरे कर्तव्य के प्रति मेरे भ्रामक विचारों को सुधारा था। मेरे जीवन को इसी की जरूरत थी और यह परमेश्वर का प्रेम था। मुझे यह भी समझ में आया कि कर्तव्यों को महत्व या मूल्य के क्रमानुसार नहीं रखा जाता है और चाहे हम किसी भी तरह का कर्तव्य करें, वे ऐसे कार्य हैं जिन्हें सृजित प्राणियों को पूरा करना चाहिए। हमें अपने कर्तव्यों को व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर नहीं करना चाहिए, न ही हमें चयनात्मक होना चाहिए। हमें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, क्योंकि मानवता और विवेक का यही अर्थ है। इसमें मैंने जो समझ और परिवर्तन पाया है, वह सब परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के परिणामस्वरूप आया है।

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