56. जब मुझे अपनी माँ की मृत्यु के बारे में पता चला
मेरे एक साल के होने से पहले ही मेरे पिता की बीमारी से मौत हो गई थी। हम पाँच बच्चों को पालने के लिए मेरी माँ को दो नौकरियाँ करनी पड़ीं। वह हर दिन सुबह से शाम तक काम करती थी और हमारे लिए माँ-बाप दोनों थी। मेरा दिल दुखता था और मैंने मौन प्रतिज्ञा की थी, “बड़ी होकर मैं अपनी माँ की देखभाल करूँगी ताकि वह बिना किसी चिंता के जी सके।” अपनी माँ का बोझ हल्का करने के लिए मैं स्कूल के बाद काम में उसकी मदद करने लगी, लेकिन मेरी माँ मुझसे इतना प्यार करती थी कि वह ऐसा नहीं चाहती थी और बस चाहती थी कि मैं कड़ी मेहनत से पढ़ाई करूँ। मैंने उससे कहती थी, “तुम बहुत थक जाती हो। अगर मैं तुम्हारी मदद करूँ तो क्या इससे तुम्हारा जीवन थोड़ा आसान नहीं हो जाएगा?” मेरी माँ जवाब देती थी, “मेरे थकने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तुम बच्चे बड़े हो जाओगे और मेरा ख्याल रखोगे तो क्या मैं आरामदायक जीवन नहीं जीऊँगी? अपनी चचेरी बहन को देखो, उसकी माँ जल्दी ही चल बसी और उसके पिता ने उसे अकेले ही पाला। अपनी शादी होने के बाद उसने अपने पिता की हर चीज का ख्याल रखा—खाना, कपड़े और बाकी सब कुछ जिसकी उसे जरूरत थी। क्या वह आरामदायक जीवन नहीं जी रहा है?” एक बार मेरे चचेरी बहन ने मुझसे कहा, “कौवे अपने माता-पिता को खाना खिलाना जानते हैं। मेरे पिता ने मुझे पालने के लिए हर तरह की मुश्किलें झेली हैं। अगर मैं उनका ख्याल नहीं रखती तो क्या मैं किसी जानवर से भी गई-गुजरी नहीं हो जाऊँगी?” तब मैंने सोचा कि मैं भी बड़ी होकर अपने चचेरी बहन की तरह बनूँगी और अपनी माँ का ख्याल रखूँगी। शादी के बाद भले ही मेरे पास अच्छी नौकरी या बेहतर आमदनी नहीं थी, मैं अपनी माँ की आर्थिक रूप से मदद करने के लिए हर संभव कोशिश करती थी और मैं अक्सर उसकी देखभाल करने के लिए उसे अपने घर ले आती थी। मेरे सभी पड़ोसी मेरी तारीफ करते हुए कहते थे, “भले ही उसकी बेटी दूर रहती है, लेकिन वह अपनी माँ का सबसे ज्यादा ख्याल रखती है।” इससे मुझे बहुत अच्छा लगता था। मुझे लगता था कि एक बच्चे के रूप में मुझे ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए और ऐसा करके ही मैं अपनी माँ की दयालुता का बदला चुका सकती हूँ।
1999 में मैंने परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारा। परमेश्वर के वचनों से मैंने मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का तात्कालिक इरादा समझा और सुसमाचार के प्रचार में लग गई। 2003 के अंत में सुसमाचार का प्रचार करते समय मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। रिहाई के बाद मैं काम के लिए घर छोड़ने को मजबूर हो गई और पुलिस के पीछा करने और उसकी निगरानी से बचने के लिए मैंने एक जगह किराए पर ले ली। मैंने बाद में सुना कि पुलिस छह महीने में तीन बार चुपचाप मेरे गाँव में मुझे खोजने गई थी और पूछा कि मेरा किराए का घर कहाँ है। तब से मैं एक आवारा की तरह रहने लगी और अपनी माँ को अपने घर नहीं ला पाई और पहले की तरह उसकी देखभाल नहीं कर सकी। मैं अपनी माँ के प्रति बहुत ऋणी महसूस करती थी। खासकर जब मैंने सुना कि मेरी भाभी ने बीमार होने पर उसके साथ दुर्व्यवहार किया था मैं बहुत दुखी और परेशान हो गई और यहाँ तक कि सुसमाचार प्रचार के लिए घर छोड़ने पर पछतावा भी हुआ। “अगर मैंने सुसमाचार का प्रचार नहीं किया होता तो मुझे गिरफ्तार नहीं किया जाता और घर भी नहीं छोड़ना पड़ता। तब मैं अपनी माँ के पास रहकर उसकी देखभाल कर पाती।” मुझे एहसास हुआ कि मेरी अवस्था गलत है और सुसमाचार का प्रचार करना मेरी जिम्मेदारी और मिशन है। क्या सुसमाचार का प्रचार करने और अपना कर्तव्य निभाने पर पछताना परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की मेरी अभिव्यक्ति नहीं थी? एक सभा में मैंने अगुआ को अपनी अवस्था के बारे में बताया और अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश दिखाया : “लोग सभी भावनाओं की एक दशा में जीते हैं, और इसलिए परमेश्वर उनमें से किसी एक को भी बख़्शता नहीं है, और संपूर्ण मानवजाति के हृदयों में छिपे रहस्यों को उजागर करता है। लोगों के लिए स्वयं को अपनी भावनाओं से पृथक करना इतना कठिन क्यों है? क्या ऐसा करना अंतरात्मा के मानकों के परे जाना है? क्या अंतरात्मा परमेश्वर की इच्छा पूरी कर सकती है? क्या भावनाएँ विपत्ति में लोगों की सहायता कर सकती हैं? परमेश्वर की नज़रों में, भावनाएँ उसकी दुश्मन हैं—क्या यह परमेश्वर के वचनों में स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 28)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं वाकई अपनी भावनाओं में जी रही थी और उन भावनाओं ने मेरी आँखों पर पट्टी बाँध दी थी, जिससे मैं सही और गलत में फर्क नहीं कर पा रही था। मैं सुसमाचार का प्रचार कर रही थी ताकि लोग परमेश्वर के सामने आकर उसका उद्धार स्वीकार सकें। यही उचित बात थी और मेरा कर्तव्य था जो मुझे निभाना चाहिए। प्राचीन काल से क्या ऐसे कई सच्चे विश्वासी नहीं हुए हैं जिन्होंने परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके लिए खुद को खपाने के लिए सब कुछ त्याग दिया था? पतरस को ही ले लो। जब प्रभु यीशु ने उसे बुलाया तो उसने तुरंत मछली पकड़ने के अपने जाल छोड़ दिए और प्रभु का अनुसरण किया। इसका एहसास होने पर मेरी आस्था और बढ़ गई। मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने का संकल्प लिया और इसलिए मैं फिर से सुसमाचार का प्रचार करने चली गई।
2015 की शरद ऋतु में कलीसिया की एक बहन ने मुझे बताया कि मेरी माँ की मृत्यु हो गई है। जब मैंने यह सुना तो मेरा दिल टूट गया और मैं परेशान हो गई। मैंने रोने से बचने की कोशिश की और सोचा, “मेरी माँ कैसे जा सकती है? क्या वह अवसाद में पड़कर बीमार हो गई थी क्योंकि मैं उसके साथ नहीं थी और वह मुझे याद कर रही थी और मेरे लिए चिंतित थी? अगर सीसीपी का उत्पीड़न नहीं होता तो मैं उसके साथ रहकर उसकी और भी देखभाल कर पाती, उसके अंत के वर्षों में उसे आराम दे पाती और शायद वह कुछ और साल जी पाती।” जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतनी ही मैं व्यथित हो गई। जैसे ही मैं बहन के घर से निकली, मेरे चेहरे पर आँसू बहने लगे। मेरी माँ ने मुझे पालने के लिए बहुत कुछ सहा लेकिन जब वह बूढ़ी और बीमार हुई तो मैं उसका ख्याल रखने के लिए उसके साथ नहीं रह सकी और मैं उसके अंतिम समय में भी उसके साथ नहीं रह पाई। यह सोचते हुए मैं फूट-फूट कर रोई और मुझे बहुत तकलीफ हुई। अपनी आँखें पोंछकर मैं अपनी बाइक चलाने लगी और जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ी, मुझे पालने में मेरी माँ के संघर्ष के दृश्य मेरे दिमाग में फिल्म की तरह चलने लगे। मैंने अपनी माँ के प्रति बहुत ऋणी महसूस किया, मैं एक अच्छी संतानोचित बेटी बन पाती, उससे पहले ही वह मर गई थी। मैं उसके अंतिम क्षणों में भी उसके साथ नहीं रह सकी। क्या दूसरे लोग कहेंगे कि मैं एक बुरी बेटी हूँ, एक कृतघ्न दुष्ट? जब मैं अपनी मेजबान के घर वापस आई तो मैं इतनी परेशान थी कि कुछ खा भी नहीं सकी। मेजबान बहन ने मुझे दिलासा देते हुए कहा, “हर किसी का जीवनकाल परमेश्वर के हाथों में है। कोई कब पैदा होता है और कब मरता है यह परमेश्वर तय करता है। इतनी दुखी मत हो। परमेश्वर से और प्रार्थना करो।” उसके ऐसा कहने के बाद मुझे इतनी तकलीफ और परेशानी नहीं हुई, लेकिन मेरा दिल अभी भी अपना कर्तव्य निभाते समय शांत नहीं रहता था, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे इस नकारात्मक अवस्था से बाहर निकालने के लिए कहा। प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। इसके बाद, मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए, और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की प्रेमपूर्ण देखभाल में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिल्कुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। मैंने परमेश्वर के वचनों से समझा कि परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी और सभी चीजों का सृजन किया है और वह मनुष्य को जीवन देता है। ऊपर से देखने पर ऐसा लगता था कि मेरी माँ ने मुझे पाला है लेकिन अगर परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा न होती तो मैं अब तक जीवित नहीं रह पाती। मैंने सोचा कि कैसे मेरी बेटी को पाँच वर्ष की उम्र में ही एक लाइलाज बीमारी हो गई थी। मैं बहुत दुखी थी और उसे अपने अंग दान करना चाहती थी। डॉक्टर ने कहा, “इसका कोई फायदा नहीं है। इस बीमारी का इलाज करने से उसकी जान नहीं बचेगी। उसे एक लाइलाज बीमारी है और कोई भी उसे नहीं बचा सकता।” परमेश्वर ने बहुत पहले ही हमारे जीवन और मृत्यु का निर्धारण कर दिया है और कोई भी इसे बदल नहीं सकता। मेरी माँ की मृत्यु का समय भी परमेश्वर के हाथों में था और उसी के द्वारा निर्धारित था, फिर भी मुझे लगता था कि वह मुझे याद करने और मेरी चिंता करने के कारण हुए अवसाद और बीमारी से मरी। मैंने परमेश्वर की संप्रभुता नहीं पहचानी! खास तौर पर यह सोचा कि कैसे मेरी माँ ने मेरे पिता के निधन के बाद मुझे वयस्क होने तक पालने के लिए संघर्ष किया और कैसे वह बूढ़ी हुई और बीमार पड़ी और मैं उसकी देखभाल नहीं कर पाई, मैं उसके प्रति ऋणी महसूस करती थी और अपने कर्तव्य में मेरा हृदय शांत नहीं रहता था। दरअसल मनुष्य का जीवन परमेश्वर से आता है और मैं जो कुछ भी आनंद लेती हूँ वह परमेश्वर का दिया हुआ है। मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से न निभाने के लिए परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस नहीं करती थी, बल्कि हमेशा अपनी माँ के प्रति ऋणी महसूस करती थी, इस हद तक कि मुझे अपने कर्तव्य निभाने पर पछतावा होता था। मैं वाकई इंसान कहलाने के लायक नहीं थी!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े जिसमें उसने संगति की है कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” और मेरे विचारों में बदलाव आया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? किसने किसे चुना? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो जवाब है : तुममें से किसी ने भी नहीं। न तुमने और न ही तुम्हारे माता-पिता ने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें। अगर तुम इस मामले की जड़ पर गौर करो, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। माता-पिता के नजरिये से, उन्होंने तुम्हें अपनी स्वतंत्र इच्छा से जन्म दिया, है ना? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर तुम्हें जन्म देने के मामले को देखें, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है और उन्होंने ही तमाम फैसले लिए। उनके लिए तुमने नहीं चुना कि वे तुम्हें जन्म दें, तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया, और इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है, तो यह उनका दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हें पालें-पोसें, बड़ा करें, शिक्षा दें, खाना, कपड़े और पैसे दें—यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास खुद को पाल-पोस कर बड़ा करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम उसी तरह बड़े हुए जैसे तुम्हारे माता-पिता ने चुना, अगर उन्होंने तुम्हें बढ़िया चीजें खाने-पीने को दीं, तो तुमने बढ़िया खाना खाया-पिया। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। यह वैसी ही बात है जैसे कि तुम्हारे माता-पिता किसी फूल की देखभाल कर रहे हों। चूँकि वे फूल की देखभाल की चाह रखते हैं, इसलिए उन्हें उसे खाद देना चाहिए, सींचना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे धूप मिले। तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) तुम्हारे माता-पिता का तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को दयालुता नहीं माना जा सकता, तो अगर वे किसी फूल या पौधे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, उसे सींच कर उसे खाद देते हैं, तो क्या उसे दयालुता कहेंगे? (नहीं।) यह दयालुता से कोसों दूर की बात है। फूल और पौधे बाहर बेहतर ढंग से बढ़ते हैं—अगर उन्हें जमीन में लगाया जाए, उन्हें हवा, धूप और बारिश का पानी मिले, तो वे पनपते हैं। वे घर के अंदर गमलों में बाहर जैसे अच्छे ढंग से नहीं पनपते, लेकिन वे जहाँ भी हों, जीवित रहते हैं, है ना? वे चाहे जहाँ भी हों, इसे परमेश्वर ने नियत किया है। तुम एक जीवित व्यक्ति हो, और परमेश्वर प्रत्येक जीवन की जिम्मेदारी लेता है, उसे इस योग्य बनाता है कि वह जीवित रहे और उस विधि का पालन करे जिसका सभी सृजित प्राणी पालन करते हैं। लेकिन एक इंसान के रूप में, तुम उस माहौल में जीते हो, जिसमें तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, इसलिए तुम्हें उस माहौल में बड़ा होना और टिके रहना पड़ता है। उस माहौल में तुम काफी हद तक परमेश्वर द्वारा नियत होने के कारण जी रहे हो; कुछ हद तक इसका कारण अपने माता-पिता के हाथों पालन-पोषण है, है ना? किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो। ... तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना तुम्हारे माता-पिता की जिम्मेदारी है। उन्होंने तुम्हें जन्म देने का फैसला किया, इसलिए तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करने की जिम्मेदारी उनकी है। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके वे अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरे कर रहे हैं। तुम उनके बिल्कुल ऋणी नहीं हो, इसलिए तुम्हें उनकी भरपाई करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें उनकी भरपाई करने की जरूरत नहीं है—यह स्पष्ट दर्शाता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, और तुम्हें उनकी दयालुता के एवज में उनके लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारे हालात तुम्हें उनके प्रति अपनी थोड़ी जिम्मेदारी पूरी करने की इजाजत देते हैं, तो जरूर करो। अगर तुम्हारा माहौल और तुम्हारे वस्तुपरक हालात तुम्हें उनके प्रति अपना दायित्व पूरा नहीं करने देते, तो तुम्हें उस बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें नहीं सोचना चाहिए कि तुम उनके ऋणी हो, क्योंकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझने में मदद की कि परमेश्वर इस दुनिया में आने वाले हर व्यक्ति पर संप्रभुता रखता है और उसके आगमन को व्यवस्थित करता है। मेरा इस परिवार में जन्म लेना भी परमेश्वर द्वारा ही निर्धारित किया गया था। चाहे मेरी माँ ने मुझे पालने के लिए कितने भी कष्ट सहे हों, यह उसकी जिम्मेदारी थी और मुझे इसे दयालुता नहीं मानना चाहिए। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है, तो यह उनका दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हें पालें-पोसें, बड़ा करें, शिक्षा दें, खाना, कपड़े और पैसे दें—यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और यह उन्हें करना ही चाहिए।” लेकिन मैं सत्य को नहीं समझती थी और परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को नहीं देखती थी। मैंने हमेशा माना कि मेरी माँ ही मेरे पिता की मौत के बाद माँ-बाप दोनों बन गई थी, मुझे स्कूल भेजने के लिए उसने तंगहाल जीवन बिताया था, मुझे वयस्क होने तक पालने के लिए संघर्ष किया था और मेरी माँ की सजग देखभाल और पालन-पोषण के बिना मैं वह इंसान नहीं बन पाती जो मैं आज हूँ। मैं अपनी माँ से मिली देखभाल को दयालुता मानती थी और हमेशा इस पालन-पोषण वाली दयालुता का बदला चुकाना चाहती थी। जिस क्षण मैंने सुना कि वह मर गई है तो मुझे बहुत दुख हुआ और लगा कि मैंने उसका अच्छी तरह से ख्याल नहीं रखा। मैं उसके अंतिम क्षणों में उसके साथ भी नहीं रह सकी और इसलिए मुझे लगा कि मैं एक बुरी बेटी हूँ। मैं सिर्फ उसके प्रति ऋणी महसूस करती थी और अपना कर्तव्य निभाने की मनःस्थिति में नहीं थी। अगर मैं इसी तरह अपनी माँ की ऋणी होकर जीती रहती और अपना कर्तव्य नहीं निभा पाती तो मैं वाकई अंतरात्मा या मानवता से रहित हो जाती। जब मैंने अपनी माँ की मृत्यु के बारे में सोचा, भले ही मैं अंत में उसके साथ होती, मैं उसकी जान नहीं बचा पाती। भले ही दूसरे लोग मेरी अच्छी बेटी के रूप में प्रशंसा करते तो भी उसका क्या मतलब होता?
फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े। परमेश्वर कहता है : “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति हूँगा, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं लोगों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। मुझे बताओ, क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। “गैर-विश्वासियों की दुनिया में एक कहावत है : ‘कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।’ एक कहावत यह भी है : ‘जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।’ ये कहावतें कितनी शानदार लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ पशुओं की दुनिया की घटनाएँ हैं। वह महज एक प्रकार की व्यवस्था है जो परमेश्वर ने विविध जीवित प्राणियों के लिए बनाई है, जिसका इंसानों सहित सभी जीवित प्राणी पालन करते हैं। यह तथ्य कि हर प्रकार के जीवित प्राणी इस व्यवस्था का पालन करते हैं, आगे यह दर्शाता है कि सभी जीवित प्राणियों का सृजन परमेश्वर ने किया है। कोई भी जीवित प्राणी न तो इस विधि को तोड़ सकता है, न इसके पार जा सकता है। ... कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना ठीक यही दर्शाता है कि पशु जगत इस विधि का पालन करता है। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों में यह सहज ज्ञान होता है। संतान पैदा होने के बाद प्रजाति के नर या मादा उसकी तब तक देखभाल और पालन-पोषण करते हैं, जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती। सभी प्रकार के जीवित प्राणी शुद्ध अंतःकरण और कर्तव्यनिष्ठा से अगली पीढ़ी को पाल-पोस कर बड़ा करके अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर पाते हैं। इंसानों के साथ तो ऐसा और अधिक होना चाहिए। इंसानों को मानवजाति उच्च प्राणी कहती है—अगर इंसान इस विधि का पालन न कर सकें, और उनमें यह सहज ज्ञान न हो तो वे पशुओं से बदतर हैं, है कि नहीं? इसलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय चाहे जितना भी पालन-पोषण किया हो, तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो उन्हें एक सृजित मनुष्य की क्षमताओं के दायरे में करना ही चाहिए—यह उनका सहज ज्ञान था” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे यह समझ आया : मुझे इतनी तकलीफ इसलिए हुई क्योंकि मैं इस तरह के विचारों और नजरिए से प्रभावित थी जैसे “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है” और “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो।” मैं सोचती थी कि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है और ऐसा न करना दगाबाजी है और इंसान को जानवर से भी बदतर बनाता है। मुझे भागना पड़ रहा था और घर पर अपनी माँ की देखभाल नहीं कर पा रही थी इसलिए मेरी अंतरात्मा में अपराध बोध था और मैं उसके प्रति ऋणी महसूस करती थी। मुझे यह भी डर था कि लोग कहेंगे कि मुझमें अंतरात्मा नहीं है और मैं बुरी बेटी हूँ, इसलिए मुझे बहुत तकलीफ हुई थी और मैं शांति से अपना कर्तव्य नहीं निभा पाई थी और बाद में जब मैंने सुना कि मेरी माँ का निधन हो गया है तो मैं टूट गई। मैंने देखा कि मुझमें पारंपरिक संस्कृति के ये विचार भरे हुए थे और मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार को सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से ज्यादा महत्वपूर्ण मानती थी और मुझे सुसमाचार का प्रचार करने और अपना कर्तव्य निभाने पर भी पछतावा हुआ था—क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की अभिव्यक्ति नहीं थी? चूँकि मुझे सुसमाचार का प्रचार करने के लिए पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, इसलिए मैं घर वापस नहीं जा सकी। लेकिन सीसीपी से नफरत करने के बजाय मैंने परमेश्वर को दोष दिया, माना कि यह सुसमाचार का प्रचार करने के कारण हुआ था। दरअसल मैं सब कुछ उल्टा समझ बैठी थी और सही-गलत में भेद नहीं कर पा रही थी! मेरे पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर से आया है। वह इतने सालों से मेरी देखभाल और सुरक्षा कर रहा था ताकि मुझे सुसमाचार का प्रचार करने और अपना कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का मौका मिले। न सिर्फ मैं परमेश्वर की आभारी नहीं थी, बल्कि मैंने उसे गलत समझा और दोषी ठहराया और यहाँ तक कि अपना कर्तव्य निभाने पर पछतावा भी किया। मुझमें वाकई अंतरात्मा नहीं थी। तभी मुझे समझ में आया कि “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है” और “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो” जैसे विचार और नजरिए भ्रामक थे और यह एक ऐसा तरीका था जिससे शैतान लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करता है। मैं अब शैतान के विचारों और नजरियों के अनुसार नहीं जीना चाहती थी बल्कि लोगों और चीजों को देखना चाहती थी और खुद को परमेश्वर के वचनों के अनुसार ढालकर आचरण और कार्य करना चाहती थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम नहीं निभा सकते हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। “एक बच्चे के तौर पर तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी हैं, ये सब ऐसी चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी ही चाहिए, जो तुम्हें सृष्टि प्रभु ने सौंपी हैं, और इनका तुम्हारे माता-पिता को दयालुता का कर्ज चुकाने के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना, उनकी दयालुता का बदला चुकाना—इन चीजों का तुम्हारे जीवन के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना या उनके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी करना जरूरी नहीं है। दो टूक शब्दों में कहें, तो तुम्हारे हालात इजाजत दें, तो तुम यह थोड़ा-बहुत कर सकते हो और अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो; जब हालात इजाजत न दें, तो तुम्हें ऐसा करने पर अड़ना नहीं चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने की जिम्मेदारी पूरी न कर सको, तो यह कोई भयानक बात नहीं है, बस यह तुम्हारे जमीर, मानवीय नैतिकता और मानवीय धारणाओं के थोड़ा खिलाफ है। मगर कम-से-कम यह सत्य के विपरीत नहीं है, और परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो इसे लेकर तुम्हारे जमीर को फटकार महसूस नहीं होगी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि बच्चों को अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। मेरी माँ मेरी लेनदार नहीं थी। मैं इस दुनिया में एक मिशन पूरा करने के लिए आई हूँ, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। अगर स्थितियाँ और हालात अनुमति देते तो मैं माँ की देखभाल कर सकती थी और एक बच्चे की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा सकती थी। अगर परिस्थितियाँ अनुमति नहीं देतीं तो मुझे इस पर जोर देने की जरूरत नहीं थी। इसके अलावा ऐसा नहीं था कि मैं अपनी माँ के प्रति संतानोचित नहीं होना चाहती थी, ऐसा इसलिए था क्योंकि मुझे सीसीपी द्वारा सताया गया था और मेरा पीछा किया जा रहा था, इसलिए मैं उसकी देखभाल करने के लिए घर नहीं जा सकती थी। ऐसा नहीं था कि मैं संतानोचित नहीं थी और मुझे इस बात की परवाह करने की जरूरत नहीं थी कि कोई मेरे बारे में क्या सोचता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहिए। इसे समझकर मैं अब और बेबस नहीं रही और मैं अपने कर्तव्य में दिल लगा पाई। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन ने मुझे अपने कुछ भ्रामक विचारों को समझने में सक्षम बनाया, समझाया कि अपनी माँ के प्रति ऐसा रवैया रखना है जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो, अपनी माँ के प्रति अब और ऋणी महसूस नहीं करना है और अपने दिल को शांत करना और अपना कर्तव्य करने में सक्षम होना है।