57. दूसरों की सिफारिश करना इतना मुश्किल क्यों है?

मैं कलीसिया में ग्राफिक डिजाइन का इंचार्ज था; हर दिन अपना ग्राफिक डिजाइन का काम करने के अलावा, मुझे टीम के काम की खोज-खबर लेनी और भाई-बहनों की समस्याएँ भी हल करनी होती थी। भले ही मैं हर दिन व्यस्त रहता, पर जब भी भाई-बहनों को समस्याएँ होतीं तो वे मुझसे ही पूछने आते, और वे मेरी हर एक सलाह मान लेते थे, मैं बड़ा खुश था, दूसरों की प्रशंसा पाने का एहसास आनंददायक था।

बाद में कुछ नए भाई-बहन टीम से जुड़े। वे ग्राफिक डिजाइन में बहुत अच्छे नहीं थे, उन्हें मेरी मदद और मार्गदर्शन की जरूरत थी। एकदम से मुझे बहुत दबाव महसूस होने लगा। हर दिन मुझे खुद ग्राफिक डिजाइन करना पड़ता, मैं उन भाई-बहनों को निर्देशित करता और दूसरों के काम की खोज-खबर भी लेता था। मैं पहले ही काम के बोझ तले दबा था, अगर मेरा साथ देने के लिए कोई होता, तो मुझे कोई दिक्कत न होती। मैंने शायेन के बारे में सोचा। उसे टेक्नोलॉजी में महारत थी और वह अपने कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदार थी, मैं उसे जो भी काम सौंपता, वो बड़ी गंभीरता से पूरा करती; मैं सुपरवाइजर से शायेन की सिफारिश कर उसे टीम अगुआ बनाना चाहता था, ताकि वह मेरे साथ काम कर सके। अगर हम दोनों मिलकर काम का बोझ उठाते, तो हमारा काम अधिक कुशलता से पूरा होता, और समस्याएँ आने पर हम साथ मिलकर चर्चा कर पाते। मैं सुपरवाइजर को बताना ही चाहता था कि तभी मैंने सोचा, “अगर शायेन सचमुच टीम अगुआ बन गई, तो क्या कभी मुझसे ज्यादा उसका नाम हो जाएगा? अगर ऐसा हुआ तो भाई-बहन समस्याएँ होने पर मुझसे सलाह नहीं लेंगे, और उनके दिलों में मेरा दर्जा उतना ऊँचा नहीं रहेगा। टीम अगुआ बनना मेरी लगातार मेहनत और प्रयास का नतीजा था : मैंने सभी को ग्राफिक डिजाइन की तकनीक सिखाई, उनकी मुश्किलें और कठिनाइयाँ हल कीं। अब अगर मैं शायेन की सिफारिश करता हूँ, तो मुझे अपने रुतबे और ताकत का आधा हिस्सा बाँटकर उसे देना पड़ेगा—क्या इससे मेरा नुकसान नहीं होगा?” जब मैंने इस बारे में सोचा, तो शायेन की सिफारिश करने का इरादा छोड़ दिया। मैंने सोचा, “थोड़ा इंतजार करते हैं। थोड़ा और सोच-विचार करते हैं, थोड़ी और कीमत चुकाते हैं, शायद मैं ही सारा काम संभाल लूँ—तो आखिर में सारा श्रेय मुझे ही मिलेगा।” कुछ समय बाद, कलीसिया ने मेरे लिए एक और काम की व्यवस्था कर दी, तो मेरे पास भाई-बहनों के काम की खोज-खबर लेने और पेशेवर कौशल को परखने का समय ही नहीं बचा। मुझे चिंता हुई कि अगर ऐसे ही चलता रहा, तो लोगों को विकसित करने के काम में जरूर देरी हो जाएगी। मेरे पास समय और ऊर्जा बहुत सीमित थी। तो मैंने फिर से सुपरवाइजर से शायेन की सिफारिश करनी चाही, मगर जब मैं असल में बोलने वाला था तो फिर से हिचकिचाहट हुई, “टीम के सभी कामों पर अंतिम निर्णय मैं ही लेता हूँ, और अगर दो टीम अगुआ हुए, तो मेरी यह ताकत चली जाएगी। मुझे हर बात दूसरे को बतानी होगी और उस पर चर्चा करनी होगी, और अब मेरी बातों की अहमियत उतनी नहीं रह जाएगी। क्यों न यह बोझ फिलहाल मैं ही उठा लूँ? अगर किसी काम के लिए मेरे पास समय की कमी हुई, तो मैं थोड़ा-थोड़ा करके उस पर नजर रख लूँगा। फिर, लोगों को विकसित करने का काम एक-दो दिन में तो होता नहीं, ऐसा भी नहीं है कि मैं जानबूझकर चीजों में बाधा या गड़बड़ी पैदा हर रहा हूँ। मैं तो बस किसी और की सिफारिश नहीं कर रहा हूँ तो परमेश्वर मेरी निंदा नहीं करेगा।” इससे लोगों को विकसित करने का काम धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा, जब भी मैं इस बारे में सोचता तो दोषी महसूस करता। मैंने प्रार्थना करते हुए कहा, “हे परमेश्वर, कार्यकर्ताओं की स्थिति और मौजूदा कार्यभार को देखते हुए, दो टीम अगुआओं का मिलकर काम करना काम के लिए फायदेमंद होगा; शायेन की सिफारिश करना चाहकर भी मैं इस बारे में नहीं बोल पाया। दूसरों की सिफारिश करना मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों है? कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और रास्ता दिखाओ ताकि मैं अपनी समस्याएँ जान सकूँ।”

फिर मैंने अगुआ को अपनी मनोदशा खुलकर बताई, तो अगुआ ने मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भेजे। परमेश्वर कहते हैं : “कलीसिया का अगुआ होने के नाते तुम्‍हें समस्याएँ सुलझाने के लिए केवल सत्य का प्रयोग सीखने की आवश्‍यकता ही नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाने और उन्‍हें विकसित करना सीखने की आवश्‍यकता भी है, जिनसे तुम्‍हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से कलीसिया के काम को लाभ पहुँचता है। अगर तुम अपने कार्यों में सहयोग के लिए सत्य के कुछ खोजी तैयार कर सको और सारा काम अच्‍छी तरह से करो, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवजन्‍य गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ या कार्यकर्ता होंगे। यदि तुम हर चीज़ सिद्धांतों के अनुसार संभाल सको, तो तुम अपनी वफादारी निभा रहे हो। कुछ लोग हमेशा इस बात से डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊपर हैं, अन्‍य लोगों को पहचान मिलेगी, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है, और इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या यह स्‍वार्थपूर्ण और निंदनीय नहीं है? यह कैसा स्वभाव है? यह दुर्भावना है! जो लोग दूसरों के बारे में सोचे बिना या परमेश्‍वर के घर के हितों को ध्‍यान में रखे बिना केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, जो केवल अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं, वे बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर में उनके लिए कोई प्र‍ेम नहीं होता। अगर तुम वाकई परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने में सक्षम होंगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो और उसे प्रशिक्षण प्राप्‍त करने और कोई कर्तव्य निर्वहन करने देते हो, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर में शामिल करते हो, तो क्या उससे तुम्‍हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या यह तुम्‍हारा कर्तव्‍य के प्रति वफादारी प्रदर्शित करना नहीं होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; अगुआ के रूप में सेवाएँ देने वालों के पास कम-से-कम इतनी अंतश्‍चेतना और तर्क तो होना ही चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने समझा कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सीखना चाहिए कि प्रतिभाओं की खोज कर उन्हें विकसित कैसे किया जाए, यह कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद है, और लोगों में ऐसा जमीर और समझ होनी चाहिए। अगर किसी को आशंका है कि लोगों की सिफारिश करने से उसके रुतबे पर असर पड़ेगा और वह उन प्रतिभाओं को दबाता है, तो यह सक्षम लोगों से ईर्ष्या कर स्वार्थी और नीच बनना है। इसलिए मैंने आत्मचिंतन किया। कुछ भाई-बहनों ने अभी ग्राफिक डिजाइन का अभ्यास शुरू ही किया था। उन्हें विकसित करने और उनकी पेशेवर तकनीक सुधारने की जरूरत थी। मेरे लिए अकेले यह काम कर पाना वाकई बहुत मुश्किल था, मैं अच्छी तरह समझता था कि किसी को साथ लेकर ही यह काम ठीक से कर सकता हूँ, और यह भी कि शायेन एक उपयुक्त टीम अगुआ होगी, उसकी सिफारिश करना काम के लिए फायदेमंद होगा। हालांकि, मुझे चिंता थी कि अगर उसने मुझसे बेहतर काम कर दिखाया, तो भाई-बहन उसकी प्रशंसा करेंगे और मेरी अनदेखी करेंगे, इससे मेरा रुतबा कम हो जाएगा। मेरा मानना था कि इससे मुझे नुकसान होगा, तो मैंने शायेन की सिफारिश नहीं की। मैंने यह भी सोचा कि अगर मैं बहुत सारा कष्ट सहकर इस काम का बोझ उठाने में भारी कीमत चुकाऊँ, तो अंत में इसका श्रेय सिर्फ मुझे ही मिलेगा। इसलिए मैंने कमर कस ली और सारा काम खुद ही किया, नतीजतन लोगों को विकसित करने का काम धीरे-धीरे आगे बढ़ा। दरअसल, टीम अगुआ का कर्तव्य निभाने देकर परमेश्वर ने मुझे ऊँचा उठाया और मेरे प्रति दयालुता दिखाई, पर मैं परमेश्वर के इरादों को लेकर विचारशील नहीं था। न सिर्फ मैंने प्रतिभाओं को विकसित नहीं किया, बल्कि इसी चिंता में रहा कि शायेन अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर मुझसे आगे निकल जाएगी। मैं काम में देरी होते देखता रहा, फिर भी उसकी सिफारिश करने को इच्छुक नहीं था। अपना कर्तव्य निभाने में, मैंने सिर्फ अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे की रक्षा की, काम की प्रगति या परिणामों की परवाह नहीं की। यह बहुत स्वार्थी सोच थी, मैंने अपने कर्तव्य के प्रति थोड़ी सी भी वफादारी नहीं दिखाई!

फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “तुम लोग बताओ, क्या लोगों के साथ सहयोग करना कठिन होता है? वास्तव में, यह कठिन नहीं होता। तुम यह भी कह सकते हो कि यह आसान होता है। लेकिन फिर भी लोगों को यह मुश्किल क्यों लगता है? क्योंकि उनका स्वभाव भ्रष्ट होता है। जिन लोगों में मानवता, अंतःकरण और विवेक होता है, उनके लिए दूसरों के साथ सहयोग करना अपेक्षाकृत आसान है और वे महसूस कर सकते हैं कि यह सुखदायक चीज है। इसका कारण यह है कि किसी भी व्यक्ति के लिए अपने दम पर कार्य पूरे करना इतना आसान नहीं होता और चाहे वह किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हो या कोई भी काम कर रहा हो, अगर कोई बताने और सहायता करने वाला हो तो यह हमेशा अच्छा होता है—यह अपने बलबूते कार्य करने से कहीं ज्यादा आसान होता है। फिर, लोगों में कितनी काबिलियत है या वे स्वयं क्या अनुभव कर सकते हैं, इसकी भी सीमाएं होती हैं। कोई भी इंसान हरफनमौला नहीं हो सकता; किसी एक व्यक्ति के लिए हर चीज को जानना, हर चीज में सक्षम होना, हर चीज को पूरा करना असंभव होता है—यह असंभव है और सबमें यह विवेक होना चाहिए। इसलिए तुम चाहे जो भी काम करो, यह महत्वपूर्ण हो या न हो, तुम्हें अपनी मदद करने के लिए हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ेगी जो तुम्हें सुझाव और सलाह दे सके या तुम्हारे साथ सहयोग करते हुए काम कर सके। काम को ज़्यादा सही ढंग से करने, कम गलतियाँ करने और कम भटकने का यही एकमात्र तरीका है—यह अच्छी बात है। विशेष रूप से परमेश्वर की सेवा करना बहुत बड़ी बात है और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान न करना तुम्हें खतरे में डाल सकता है! जब लोगों में शैतानी स्वभाव होता है तो वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के प्रति विद्रोह कर उसका विरोध कर सकते हैं। शैतानी स्वभाव को जीने वाले लोग कभी भी परमेश्वर को नकार सकते हैं, उसका विरोध कर उसे धोखा दे सकते हैं। मसीह-विरोधी बहुत मूर्ख होते हैं, उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता और वे सोचते हैं, ‘मैंने बड़ी मुश्किल से सत्ता हथियाई है तो मैं इसे किसी और के साथ क्यों साझा करूँ? इसे दूसरों को सौंपने का मतलब है कि मेरे पास अपने लिए कुछ नहीं बचेगा, है न? बिना सत्ता के मैं अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं को कैसे दिखा पाऊँगा?’ वे नहीं जानते कि परमेश्वर ने लोगों को जो सौंपा है वह सत्ता या रुतबा नहीं बल्कि कर्तव्य है। मसीह-विरोधी केवल सत्ता और रुतबा स्वीकारते हैं, वे अपने कर्तव्यों को दरकिनार कर देते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते। बल्कि सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, और सिर्फ सत्ता हथियाकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना और रुतबे के फायदे उठाने में लगे रहना चाहते हैं। इस तरह से काम करना बहुत खतरनाक होता है—यह परमेश्वर का विरोध करना है!(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर कहता है कि किसी को भी हर काम में महारत नहीं होती, हम सभी को दूसरों का साथ लेकर खुद की मदद करनी चाहिए, एक दूसरे से सीखकर अपनी कमियों की भरपाई करनी चाहिए। इस तरह हम अपने काम में गलतियाँ और भटकाव कम करके परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए मिलजुलकर कर्तव्य निभा सकते हैं। मगर मसीह-विरोधियों में यह समझ नहीं होती, वे लगातार अपना अधिकार जमाना और आखिरी फैसला लेना चाहते हैं, वे कभी दूसरों का साथ लेना या दूसरों को अपने काम में शामिल करना नहीं चाहते। आत्मचिंतन करके मुझे एहसास हुआ कि मैं भी तो ऐसा ही था। मैं टीम अगुआ का कर्तव्य खुद ही निभाने में काफी व्यस्त था, ऐसे बहुत से काम थे जिन्हें मैं तुरंत व्यवस्थित करके पूरा नहीं कर सकता था, मगर जब मैं शायेन की सिफारिश करना चाहता था, तो मेरे मन में आशंकाएँ थीं कि इससे मेरी ताकत कम हो जाएगी। मेरा मानना था कि अपने साथी के रूप में शायेन की सिफारिश करना टीम अगुआ के तौर पर अपनी ताकम कम करने के बराबर होगा। फिर मैं अपनी बात नहीं मनवा सकूँगा, सभी फैसले नहीं कर पाऊँगा, या भाई-बहनों के सामने खुद का दिखावा नहीं कर सकूँगा। इसलिए मैं शायेन की सिफारिश नहीं करना चाहता था। मैंने वो वजह खोजी कि मैं दूसरों की सिफारिश करने या उनका साथ लेने में असमर्थ क्यों था। इसकी वजह यह थी कि मैं ताकत और रुतबे को अपने हाथों से जाने नहीं दे पाया। मैंने अपनी ताकत पर काफी जोर दिया।

फिर मैंने यह जवाब खोजा कि ताकत और रुतबे पर मैं इतना जोर क्यों देता था। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर खुद की थोड़ी समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। भले ही मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं, तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में आस्था और सत्य का अनुसरण प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है; प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है, और प्रतिष्ठा और रुतबा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा या रुतबा नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या आराधना या उनका अनुसरण नहीं करता, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में उनका प्रभाव हो, प्रतिष्ठा हो, लाभ हो और रुतबा हो—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं। वे हमेशा ऐसी बातों के बारे में ही क्यों सोचते रहते हैं? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, उपदेश सुनने के बाद, क्या वे वाकई यह सब नहीं समझते, क्या वे वाकई यह सब नहीं जान पाते? क्या परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में उनकी धारणाएँ, विचार और मत बदलने में सक्षम नहीं हैं? मामला ऐसा बिलकुल नहीं है। समस्या उन्हीं से शुरू होती है, यह पूरी तरह से इसलिए है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, क्योंकि अपने दिल में वे सत्य से विमुख हो चुके हैं, और परिणामस्वरूप वे सत्य के प्रति बिल्कुल भी ग्रहणशील नहीं होते—जो उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर यह उजागर करता है कि मसीह-विरोधी चाहे जहाँ भी रहें या जो भी काम करें, वे रुतबे की चाह के पीछे भागना कभी नहीं छोड़ेंगे। उनका मानना है कि अगर उनके पास रुतबा और ताकत है, तो वे लोगों से सराहना और प्रशंसा पा सकते हैं, और उनके पास प्रतिष्ठा के साथ-साथ बोलने और फैसले लेने का अधिकार होगा। उनका मानना है कि इस तरह के जीवन का मूल्य और अर्थ होता है, और अगर रुतबा नहीं होगा तो उनके जीवन से यह सब छिन जाएगा। मैं ठीक ऐसा ही था। मैं इन शैतानी विषों से बहुत अधिक प्रभावित था, जैसे कि “भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो” और “सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है।” छोटी उम्र से ही मैं बड़ा होकर नाम कमाना चाहता था, ताकि सभी मुझे ऊँची नजर से देखें और मैं जहाँ भी जाऊँ मेरे आगे-पीछे घूमते फिरें। मुझे याद है जब मैंने कॉलेज जाना शुरू किया था, तब क्लास मॉनिटर की जिम्मेदारियाँ दूसरे छात्र के साथ साझा करता था। कुछ समय बाद मुझे लगा कि दो क्लास मॉनिटर होने से मुझे चमकने का मौका नहीं मिलेगा, तो मैंने सुझाव दिया कि हममें से किसी एक को क्लास मॉनिटर चुन लिया जाए। मुझे अपने चुने जाने की पूरी उम्मीद थी, ताकि आगे से सभी का केंद्रबिंदु बनकर, पूरी क्लास में सर्वोच्च स्थान पाऊँ—मगर मैं हार गया। चूँकि मैं क्लास मॉनिटर नहीं बन पाया, तो मैंने क्लास काडर के दूसरे पद भी ठुकरा दिए और कोई काम नहीं किया। कलीसिया में आकर भी मैंने रुतबा हासिल करने को अपने अनुसरण का लक्ष्य बना लिया, मेरा मानना था कि एकमात्र टीम अगुआ होने से मेरा फैसला अंतिम होगा और सभी मुझे ऊँची नजर से देखेंगे। जब शायेन की सिफारिश करने की बात आई, तो मेरा मानना था कि ऐसा करने से मेरा रुतबा और ताकत उसके साथ बँट जाएगी, और अगर किसी दिन उसने मुझसे बेहतर कर दिखाया, तो मेरी बात नहीं मानी जाएगी, फिर मैं कभी उस श्रेष्ठता का आनंद नहीं ले पाऊँगा जो सभी लोगों के मुझे आसन पर बिठाने और मेरी बात ध्यान से सुनने से मिलता है। इसी वजह से मैंने उसकी सिफारिश करने के बजाय काम में देरी करना पसंद किया। मैं रुतबे का गुलाम बन गया था। मैंने सोचा कि कैसे उस समय रुतबे के लाभों का लालची होने और वास्तविक काम न कर पाने के कारण, मैंने अपराध किया और मुझे बर्खास्त कर दिया गया। तब जाकर मैंने जाना कि शैतान के फलसफे और नियमों के अनुसार चलने से मैं सिर्फ गलत रास्ते पर चलूँगा और खुद के बजाय परमेश्वर का प्रतिरोध करूँगा।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “जो लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के बजाय प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, वे आग से खेल रहे हैं और अपने जीवन से खेल रहे हैं। आग और जीवन से खेलने वाले लोग कभी भी बर्बाद हो सकते हैं। आज अगुआ या कर्मी के तौर पर तुम परमेश्वर की सेवा कर रहे हो, जो कोई सामान्य बात नहीं है। तुम किसी व्यक्ति के लिए काम नहीं कर रहे हो, अपने खर्चे उठाने और रोजी-रोटी कमाने का काम तो बिल्कुल भी नहीं कर रहे हो; बल्कि तुम कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। खासकर यह देखते हुए कि तुम्हें परमेश्वर के आदेश से यह कर्तव्य मिला है, इसे निभाने का क्या अर्थ है? यही कि तुम अपने कर्तव्य के लिए परमेश्वर के प्रति जवाबदेह हो, फिर चाहे तुम इसे अच्छी तरह से निभाओ या न निभाओ; अंततः परमेश्वर को हिसाब देना ही होगा, एक परिणाम होना ही चाहिए। तुमने जिसे स्वीकारा है वह परमेश्वर का आदेश है, एक पवित्र जिम्मेदारी है, इसलिए वह कितनी भी अहम या छोटी जिम्मेदारी क्यों न हो, यह एक गंभीर मामला है। यह कितना गंभीर है? छोटे पैमाने पर देखें तो इसमें यह बात शामिल है कि तुम इस जीवन-काल में सत्य प्राप्त कर सकते हो या नहीं और यह भी शामिल है कि परमेश्वर तुम्हें किस तरह देखता है। बड़े पैमाने पर देखें तो यह सीधे तुम्हारी संभावनाओं और नियति से जुड़ा है, तुम्हारे परिणाम से जुड़ा है; यदि तुम दुष्टता कर परमेश्वर का विरोध करते हो, तो तुम्हें निंदित और दंडित किया जाएगा। अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम जो कुछ भी करते हो उसे परमेश्वर दर्ज करता है, और इसकी गणना और मूल्यांकन करने के लिए परमेश्वर के अपने सिद्धांत और मानक हैं; अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम जो कुछ भी प्रकट करते हो, उसके आधार पर परमेश्वर तुम्हारा परिणाम तय करता है। क्या यह कोई गंभीर मामला है? बिल्कुल है! इसलिए अगर तुम्हें कोई काम सौंपा जाता है तो क्या इसे संभालना तुम्हारा अपना मामला है? (नहीं।) यह कार्य ऐसा नहीं है जो तुम अपने दम पर पूरा कर सको, लेकिन यह जरूरी है कि तुम इसकी जिम्मेदारी लो। यह जिम्मेदारी तुम्हारी है; यह सौंपा हुआ कार्य तुम्हें पूरा करना है। इसका संबंध किस चीज से है? इसका संबंध सहयोग से है, इस बात से है कि सेवा में सहयोग कैसे करें, अपना कर्तव्य निभाने में सहयोग कैसे करें, खुद को सौंपा गया कार्य पूरा करने के लिए कैसे सहयोग करें, किस तरह सहयोग करें कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चला जाए। इसका संबंध इन सब चीजों से है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे थोड़ा डर लगा, खासकर जब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जो लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के बजाय प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, वे आग से खेल रहे हैं और अपने जीवन से खेल रहे हैं। आग और जीवन से खेलने वाले लोग कभी भी बर्बाद हो सकते हैं।” मैंने देखा कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागना आग से खेलने और अपना जीवन दाँव पर लगाने यानी अपने जीवन को महत्वपूर्ण न मानने के बराबर है। व्यक्ति का कर्तव्य परमेश्वर का आदेश है, जो बहुत गंभीर मामला है। मगर मैंने अपने कर्तव्य को ताकत और रुतबा पाने का जरिया मान लिया; यह जानकर भी कि मैं अकले इस काम को नहीं कर सकता, मैंने शायेन को अपनी साथी बनाने की सिफारिश नहीं की, मैंने जरा भी नहीं सोचा कि इससे कलीसिया के काम पर क्या असर पड़ेगा। यह परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके विरुद्ध पाप था; क्या मैं आग से नहीं खेल रहा था? टीम अगुआ के तौर पर, न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य निभाने में विफल रहा, बल्कि मेरी देखरेख में जो काम था उसमें देरी हुई। इसे परमेश्वर के लिए किया गया काम नहीं माना जा सकता! मैंने सिर्फ शोहरत लाभ, रुतबा और लोगों का सम्मान पाने की कोशिश की, मेरा चुना गया मार्ग मसीह-विरोधियों का मार्ग था। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो मुझे अच्छा परिणाम और अच्छी मंजिल नहीं मिलेगी। यह एहसास होने पर ही मैंने जाना कि मेरा पहले का यह दृष्टिकोण कि “भले ही मैं दूसरों की सिफारिश नहीं करता, अगर मैं सीधे तौर पर बाधा और गड़बड़ी पैदा नहीं करता, तो परमेश्वर मेरी निंदा नहीं करेगा,” सत्य के अनुरूप नहीं था। भले ही बाहर से मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में बहुत व्यस्त दिखता था, कष्ट उठाता और कीमत चुकाता था, ऐसा कुछ नहीं करता था जो साफ तौर पर बुरा हो, फिर भी अपनी ताकत और रुतबे की रक्षा करने के लिए, मैंने शायेन की सिफारिश करने के बजाय काम में देरी करना पसंद किया। मैंने सिर्फ यही सोचा कि अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे की रक्षा कैसे करूँ—मैंने जो भी सोचा वह बुरा था, परमेश्वर इसकी निंदा करता है। परमेश्वर लोगों के दिलो-दिमाग की जाँच-पड़ताल करता है। अगर मैं बुराई का रास्ता न छोड़कर प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागता रहा, तो अंत में परमेश्वर मेरी निंदा कर मुझे दंड देगा।

फिर मैंने परमेश्वर के वचन के दो और अंश पढ़े जिनसे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्‍हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्‍हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्‍हेंअपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्‍यों को दूर रखना चाहिए, तुम्‍हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगेकि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्‍ट व्‍यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्‍मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगेकि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्‍ट करने की तुम्‍हारी इच्छा घटती चली जाएगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। “एक अगुआ या एक कार्यकर्ता के तौर पर अगर तुम हर समय अपने को तुम्हें दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी ओहदे की तरह मजे करोगे, हमेशा अपने रुतबे के फायदे उठाने में लगे रहोगे, हमेशा अपनी ही योजनाएँ बनाते रहोगे, अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की सोचकर मजे लेते रहोगे, हमेशा अपना ही अभियान चलाते रहोगे, और हमेशा ऊँचा रुतबा पाने, अधिकाधिक लोगों का प्रबंधन और उन पर नियंत्रण करने और अपनी सत्ता का दायरा बढ़ाने के प्रयास करोगे तो यह मुसीबत वाली बात है। एक महत्वपूर्ण कर्तव्य को एक सरकारी अधिकारी की तरह अपने पद का आनंद लेने का मौका मानना बहुत खतरनाक है। यदि तुम हमेशा इस तरह पेश आकर दूसरों के साथ सहयोग नहीं करना चाहते, अपनी सत्ता को कम कर इसे किसी दूसरे के साथ साझा नहीं करना चाहते, और यह नहीं चाहते कि कोई दूसरा तुम्हें पीछे धकेलकर शोहरत लूट ले, यदि तुम अकेले ही सत्ता के मजे लेना चाहते हो तो तुम एक मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अक्सर सत्य खोजते हो, अपने देह-सुख, अपनी प्रेरणाओं और विचारों से विद्रोह करने का अभ्यास करते हो, और दूसरों के साथ सहयोग करने की जिम्मेदारी ले पाते हो, दूसरों से राय लेने और खोजने के लिए अपना दिल खोलते हो, दूसरों के विचारों और सुझावों को ध्यान से सुनते हो और चाहे सलाह किसी ने भी दी हो, सही और सत्य के अनुरूप होने पर इसे स्वीकार लेते हो तो फिर तुम बुद्धिमानी के साथ और सही तरीके से अभ्यास कर रहे हो और तुम गलत मार्ग अपनाने से बच जाते हो, जो कि तुम्हारे लिए सुरक्षा कवच है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के विश्वासी के रूप में, परमेश्वर के इतने सारे वचन खाने-पीने के बाद भी, मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में कलीसिया के हितों की रक्षा करने में असमर्थ था, बल्कि मैंने हर जगह सिर्फ अपनी स्वार्थी इच्छाओं, प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर बोला और काम किया—मुझमें वाकई जमीर और विवेक की कमी थी, मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने लायक नहीं था। परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का शासन है; जिसमें भी काबिलियत और क्षमता है, जो कलीसिया के काम का बोझ महसूस करता है, उस व्यक्ति की सिफारिश की जानी चाहिए, और उसे कलीसिया में उपयुक्त काम की जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जाना चाहिए। दूसरे लोगों की सिफारिश करने से कलीसिया के काम के लिए एक और व्यक्ति मिल जाएगा, जो काम के साथ-साथ भाई-बहनों की प्रगति के लिए भी फायदेमंद है। अगर कोई हमेशा रुतबे के लाभों की लालसा रखता है और खुद ही ताकत का इस्तेमाल करना चाहता है, दूसरों से ऊपर रहकर अंतिम फैसला करना चाहता है, जो दूसरों के साथ मिलकर काम करने को इच्छुक नहीं है, ऐसा व्यक्ति मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलेगा। लेकिन अगर उसका कोई साथी है, और काम में वे आपस में चर्चा करके एक दूसरे से सीख सकते हैं, एक दूसरे पर नजर रख सकते हैं, तो इससे किसी व्यक्ति का एकाधिकार नहीं होगा, और वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से बच सकते हैं—यह खुद के लिए एक तरह का अदृश्य कवच बन जाएगा। इस पर विचार करने पर, मुझे एहसास हुआ कि प्रतिभाओं की सिफारिश करने से न सिर्फ कलीसिया के काम को फायदा होगा, बल्कि मेरी भी मदद होगी। इसके बाद मैंने अगुआ को संदेश भेजकर शायेन की सिफारिश की, और अगुआ शायेन और मुझे साथी बनाने पर सहमत हो गया। तब मेरे दिल को काफी राहत मिली और यह काफी हल्का हो गया। उसी क्षण मैंने शायेन के साथ काम पर चर्चा करके अपनी जिम्मेदारियाँ बाँट ली, और थोड़ा-थोड़ा करके लोगों को तैयार करने के काम के नतीजों में सुधार आने लगा। इस अनुभव से मुझे धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों में कही गई यह बात समझ में आने लगी : “अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो और उसे प्रशिक्षण प्राप्‍त करने और कोई कर्तव्य निर्वहन करने देते हो, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर में शामिल करते हो, तो क्या उससे तुम्‍हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या यह तुम्‍हारा कर्तव्‍य के प्रति वफादारी प्रदर्शित करना नहीं होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; अगुआ के रूप में सेवाएँ देने वालों के पास कम-से-कम इतनी अंतश्‍चेतना और तर्क तो होना ही चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि दूसरों की सिफारिश करने से मेरे हितों को नुकसान नहीं होगा, और यह सत्य का अभ्यास करके अच्छे कर्म तैयार करना है। यह मेरे और कलीसिया के कार्य, दोनों के लिए फायदेमंद है। इस तरह अभ्यास करने से मुझे काफी सुकून मिलता है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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