58. मैंने लोगों के साथ सही व्यवहार करना सीख लिया है

2023 में, मैं एक कलीसिया अगुआ का कर्तव्य निभा रही थी और सिस्टर हे ली के साथ साझेदारी थी। इससे पहले, हे ली एक अगुआ बन गई थी और उसे विभिन्न कार्यों के सिद्धांतों की कुछ समझ थी। जब हम दोनों ने अपना काम बाँट लिया तो मुझे उस काम के बारे में ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं थी जो हे ली के जिम्मे था। कभी-कभी जब मुझे काम में मुश्किलें आती थीं तो हे ली मेरी मदद कर देती थी। हालाँकि काम का बोझ बहुत ज्यादा था लेकिन हम दोनों के साथ मिलकर काम करने से मुझे सुकून मिलता था। जुलाई में, हे ली को एक प्रचारक के रूप में चुना गया और उसने कई कलीसिया की जिम्मेदारियाँ संभालीं। तब हमारी कलीसिया का काम पूरी तरह से मुझ पर आ गया था और मुझे उम्मीद थी कि जल्द की कोई काम का बोझ बाँटने के लिए आएगा। बाद में झाओ शिन को एक और कलीसिया अगुआ के रूप में चुना गया और मैं उसकी साझेदारी बना दी गई। मैं बहुत खुश थी। झाओ शिन ने एक सिंचन उपयाजक के रूप में काम किया था और कलीसिया के कुछ कार्य समझती थी। उसे जल्दी ही यह काम सीख लेना चाहिए। अब जब काम को साझा करने के लिए कोई था तो मैं कुछ हद तक दबाव मुक्त हो सकती थी। मैंने झाओ शिन को उन कार्यों के बारे में बताया जो उसे करने थे, लेकिन चूँकि झाओ शिन थोड़ी उम्रदराज थी, इसलिए वह कुछ समय तक चीजों को समझ नहीं पाई और ज्यादातर काम अभी भी मैं ही कर रही थी। मुझे अपने दिल में कुछ नाराजगी महसूस हुई। अब मुझे न सिर्फ अपना काम करना था, बल्कि झाओ शिन का मार्गदर्शन भी करना था, जिससे काम का बोझ पहले से भी ज्यादा बढ़ गया। हालाँकि, मैंने सोचा कि शायद कुछ दिनों के अभ्यास के बाद बहन झाओ काम से ज्यादा परिचित हो जाएगी।

एक दिन बैठक के बाद मुझे एहसास हुआ कि सिंचन कार्य का बाद में जायजा नहीं लिया गया था। फिर मैंने सोचा कि झाओ शिन सिंचन कार्य से ज्यादा परिचित थी, इसलिए वह इसे देख लेगी। जब मैं घर पहुँची तो मैंने जल्दी से झाओ शिन से पूछा कि क्या उसने सिंचन कार्य का जायजा लिया है। झाओ शिन ने कहा उसकी अभी तक कोई सभा नहीं हुई है, इसलिए उसे नहीं पता। एक पल में मेरे अंदर गुस्सा उमड़ पड़ा। मैंने सोचा : “अगर तुम कुछ काम कर सको तो क्या इससे मेरा दबाव कम नहीं हो जाएगा? दो लोगों के काम करने और सिर्फ़ मेरे काम करने में क्या फर्क है?” मैंने फटकार के लहजे में कहा, “अगर तुम कुछ काम कर सको तो क्या काम की कुशलता नहीं बढ़ेगी? सोचो कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें ऐसा करने से रोक रहा है!” झाओ झिन ने एक पल के लिए कुछ नहीं कहा और उसी पल मुझे एहसास हुआ कि इस तरह बात करने से वह बेबस महसूस करेगी और मेरे लिए उसके साथ इस तरह से पेश आना अनुचित होगा, खासकर जब वह उस दौरान भावनात्मक रूप से परेशान थी। यह सोचकर मुझे अपने दिल में कुछ ग्लानि महसूस हुई।

लगभग आधे महीने बाद, लियू वेन को हमारे साथ सहयोग करने के लिए एक अगुआ चुना गया। लियू वेन ने अपने कर्तव्य ईमानदारी से करती और अपने काम में सावधानी बरतती थी, लेकिन नई होने के कारण वह विभिन्न कार्यों के सिद्धांतों को अच्छी तरह से नहीं समझ पाई थी। उसके काम के दौरान हमेशा समस्याएँ आती थीं और वह बहुत धीमी थी और उसकी कार्य क्षमताओं में कमी थी, इसलिए उसे अक्सर मेरी मदद की जरूरत पड़ती थी। शुरू में मैंने सोचा था कि दो बहनों के भागीदार बनने से काम का बोझ बाँटने में मदद मिलेगी, लेकिन कम होने के बजाय मेरा बोझ बढ़ गया। मुझे बहुत दबाव महसूस हुआ और यह काम करना बहुत कठिन और थका देने वाला था। अपने दिल में, मैं खुद को दोनों बहनों के प्रति कुछ हद तक तिरस्कार महसूस करने से नहीं रोक पाई और उनसे ज्यादा बात नहीं करना चाहती थी। जब वे मुझसे सवाल पूछते तो मैं अधीर हो जाती जिससे वे बेबस महसूस करने लगीं और ज्यादा पूछने की हिम्मत नहीं कर पाईं। नतीजतन, उनके काम नहीं कर पाने से कुछ कार्यों में देर हो गई। उस दौरान दोनों बहनें बहुत नकारात्मक थीं, उन्हें लग रहा था कि उन्होंने कुछ हासिल नहीं किया है और वे अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं हैं और मैं अभी भी शिकायत कर रही थी कि वे प्रभावी नहीं हैं। अब जब मेरे पास साथी थे तो ऐसा लग रहा था कि मैं पहले से भी ज्यादा थक रही थी। भले ही यह तीन लोगों का काम था, लेकिन ज्यादातर मुझे ही करना पड़ा और मुझे बहुत असुविधा महसूस हुई। अगर मैं इसे नहीं करती तो मुझे काम में देरी होने और जिम्मेदारी लेने का डर था। जब मैंने इसके बारे में सोचा तो मेरे आँसू रुक ही नहीं रहे थे, लगा जैसे मेरे साथ बहुत अन्याय हुआ हो। मुझे नहीं पता था कि इस माहौल का सामना कैसे करना है; हर दिन मैं आहें भरती और बहुत परेशान रहती। मैंने सोचा काश मैं इस कलीसिया को छोड़ सकती लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि भागना समस्या का समाधान नहीं था। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की और कहा, “हे परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि मैंने कई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं, लेकिन मैं नहीं जानती कि उन्हें समझना कहाँ से शुरू करूँ। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करों ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभावों को जान सकूँ।” अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “गरम-मिजाजी मनुष्य का सहज स्वभाव है। जब किसी व्यक्ति के हितों, घमंड या अभिमान को क्षति पहुँचती है, तब अगर वह सत्य को नहीं समझता या उसमें सत्य वास्तविकता नहीं होती, तो वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को उस क्षति के प्रति अपने व्यवहार को निर्देशित करने देगा, और वह आवेगपूर्ण होगा और उतावलेपन से कार्य करेगा। तब वह जो अभिव्यक्त और प्रकट करता है, वह गरम-मिजाजी होता है। गरम-मिजाजी सकारात्मक चीज है या नकारात्मक? स्वाभाविक है कि वह एक नकारात्मक चीज है। व्यक्ति का गरम-मिजाजी से जीना कोई अच्छी बात नहीं है; यह आपदा ला सकता है। अगर व्यक्ति के साथ कुछ होने पर उसका गरम-मिजाजी और भ्रष्टता उजागर हो जाते हैं, तो क्या वह सत्य की खोज करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति होता है? जाहिर है, ऐसा व्यक्ति निश्चित रूप से परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होता। जहाँ तक उन विभिन्न लोगों, घटनाओं, चीजों और परिवेशों की बात है, जिनकी परमेश्वर लोगों के लिए व्यवस्था करता है, अगर व्यक्ति उन्हें स्वीकार नहीं कर पाता, बल्कि उनका मुकाबला कर उन्हें मानवीय तरीके से हल करता है, तो अंत में इसका क्या परिणाम होगा? (परमेश्वर उस व्यक्ति को ठुकरा देगा।) परमेश्वर उस व्यक्ति से घृणा करेगा, तो क्या वह लोगों के लिए शिक्षाप्रद होगा? (नहीं, वह नहीं होगा।) वह न केवल अपने जीवन में हारेगा, बल्कि दूसरों के लिए भी कोई उदाहरण नहीं बनेगा। इससे भी बढ़कर, वह परमेश्वर को अपमानित करेगा, जिसके कारण परमेश्वर उससे घृणा करेगा और उसे अस्वीकार कर देगा। ऐसा व्यक्ति अपनी गवाही खो चुका होता है और वह जहाँ भी जाता है, उसका स्वागत नहीं किया जाता। अगर तुम परमेश्वर के घर के सदस्य होकर भी अपने कार्यों में हमेशा गरम-मिजाज रहते हो, हमेशा वह चीज प्रकट कर देते हो जो तुम में स्वाभाविक रूप से है, और हमेशा अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर देते हो, मानवीय साधनों और भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव के साथ चीजें करते हो, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम दुष्टता करते हुए परमेश्वर का विरोध करोगे—और अगर तुम कभी पश्चात्ताप नहीं करते और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चल पाते, तो तुम्हें बेनकाब करके बाहर निकालना होगा। क्या शैतानी स्वभाव पर निर्भर होकर जीने और उसे दूर करने के लिए सत्य की खोज न करने की समस्या गंभीर नहीं है? समस्या का एक पहलू यह है कि व्यक्ति अपने जीवन में बढ़ता या बदलता नहीं; इसके अलावा, वह दूसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। वह कलीसिया में किसी भी अच्छे उद्देश्य की पूर्ति नहीं करेगा, और समय आने पर वह कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए बड़ी मुसीबत लाएगा, उस बदबूदार मक्खी की तरह, जो खाने की मेज पर आगे-पीछे उड़कर घृणा और अरुचि उत्पन्न करती है। क्या तुम लोग ऐसा व्‍यक्ति बनना चाहते हो? (नहीं।)” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्‍ट स्‍वभाव केवल सत्य स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर ने मेरी वर्तमान स्थिति को उजागर कर दिया। क्यों मैं हमेशा परेशान रहती थी और यहाँ तक कि अपनी साथी बहनों पर भी गुस्सा करती और भड़कती थी? ऐसा इसलिए क्योंकि अगुआ के रूप में चुने जाने के बाद वे मेरी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर रही थीं। काम का बोझ साझा करने और मेरा दबाव कम करने के बजाय मेरी ज्यादातर ऊर्जा उनके साथ संगति करने में और उनके काम की कमियाँ दूर करने में मदद करने में चली जाती थी। मुझे लगा कि वे मेरा समय बर्बाद कर रही हैं और मुझे दैहिक तकलीफ पहुँचा रही हैं, जिससे मेरे दिल में प्रतिरोध पैदा हुआ। मैंने सत्य की खोज नहीं की और अपने भ्रष्ट स्वभाव में जीती रही, उनका तिरस्कार करती रही, उन पर भड़कती रही और गुस्सा निकालती रही। इससे वे नकारात्मक हो गईं और बेबस महसूस करने लगीं, जिससे हमारा काम प्रभावित हुआ। मुझमें वाकई मानवता की कमी थी!

बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “कुछ विशेष कर्तव्यों या अधिक कठिन और थका देने वाले कर्तव्यों को निभाने की बात आती है, तो एक लिहाज से लोगों को हमेशा इस बात पर विचार करना चाहिए कि उन कर्तव्यों को कैसे निभाया जाए, उन्हें कौन सी कठिनाइयां सहनी चाहिए, और कैसे अपने कर्तव्यों का निर्वाह और समर्पण करना चाहिए। एक दूसरे लिहाज से, लोगों को यह भी जांचना चाहिए कि उनके इरादों में क्या अपमिश्रण है और वे अपमिश्रण उनके कर्तव्यों के पालन में कैसे बाधा डालते हैं। लोगों में जन्म से ही कठिनाई सहने के प्रति अरुचि होती है—किसी भी व्यक्ति को ज्यादा कठिनाई सहने से ज्यादा उत्साह या ज्याद खुशी नहीं मिलती। ऐसे लोग होते ही नहीं। मानव देह का स्वभाव ही ऐसा है कि जैसे ही शरीर को कठिनाइयां सहनी पड़ती हैं लोग चिंतित और व्यथित महसूस करने लगते हैं। लेकिन, तुम लोगों को अपने कर्तव्य निर्वहन में कितनी कठिनाई सहनी पड़ती है? तुम को केवल अपनी देह में थोड़ी थकान महसूस करनी होगी और थोड़ी मेहनत करनी होगी। यदि तुम इतनी थोड़ी कठिनाई भी सहन नहीं कर सकते, तो क्या तुम को संकल्पवान माना जा सकता है? क्या तुम को परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करने वाला माना जा सकता है? (नहीं।) इससे काम नहीं चलेगा। ... अपना कर्तव्य निर्वाह करते हुए कठिनाई सहने योग्य होना कोई आसान काम नहीं है। किसी खास तरह के काम को अच्छी तरह से कर पाना भी आसान नहीं होता। यह निश्चित है कि ये काम कर सकने वालों के भीतर परमेश्वर के वचनों का सत्य काम कर रहा है। ऐसा नहीं है कि जन्म से ही उनमें कठिनाई और थकान का डर नहीं था। ऐसा व्यक्ति कहाँ मिलेगा? इन सभी लोगों के पास कुछ प्रेरणा है, और उनकी नींव के रूप में थोड़ा सा परमेश्वर के वचनों का सत्य है। वे जब अपने कर्तव्य ग्रहण करते हैं, तो उनका दृष्टिकोण और रवैया बदल जाता है—उनके लिए अपने कर्तव्यों का निर्वहन आसान हो जाता है और थोड़ा सा शारीरिक कष्ट और थकान सहना उन्हें महत्वहीन लगने लगता है। जो लोग सत्य को नहीं समझते और चीजों के बारे में जिनके विचार नहीं बदले हैं वे मानवीय विचारों, धारणाओं, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार जीते हैं, इसलिए वे अपने कर्तव्य निभाने के प्रति निरुत्साही और अनिच्छुक होते हैं। उदाहरण के लिए, जब गंदा और थका देने वाला काम करने की बात आती है, तो कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं परमेश्वर के घर की व्यवस्था का पालन करूंगा। कलीसिया मेरे लिए जिस भी काम की व्यवस्था करेगा, मैं उसे करूंगा, चाहे वह गंदा या थका देने वाला काम हो, या फिर वह प्रभावशाली हो या अनुल्लेखनीय काम हो। मेरी कोई मांग नहीं है और मैं इसे अपना कर्तव्य मानकर स्वीकार करूंगा। यह परमेश्वर का मुझे दिया आदेश है, और थोड़ी सी गंदगी और थकान ही वे कठिनाइयाँ हैं जिन्हें मुझे सहन करना होगा।’ इसके परिणामस्वरूप, जब वे अपने काम में लगे होते हैं, तो उन्हें किसी कठिनाई का बिलकुल अनुभव नहीं होता। दूसरों को यह गंदा और थका देने वाला लग सकता है, लेकिन उन्हें यह आसान लगता है, क्योंकि उनके हृदय शांत और सुव्यवस्थित हैं। वे यह काम परमेश्वर के लिए कर रहे होते हैं, इसलिए उन्हें नहीं लगता कि यह मुश्किल है। कुछ लोग गंदा, थका देने वाला या साधारण काम करने को अपनी हैसियत और चरित्र का अपमान मानते हैं। वे इसे ऐसा समझते हैं जैसे दूसरे उनका सम्मान न करते हों, उनके साथ धींगा-मुश्ती करते हों, या उन्हें नीची निगाह से देखते हों। परिणामस्वरूप, वही काम और कार्यभार का मिलने पर भी उन्हें यह कठिन लगता है। वे जो भी करते हैं, उसमें उनके हृदय में क्षोभ का भाव होता है और उन्हें लगता है कि चीजें वैसी नहीं हैं जैसी वे चाहते हैं या वे असंतोषजनक हैं। अंदर से वे नकारात्मकता और प्रतिरोध से भरे होते हैं। वे नकारात्मक और प्रतिरोधी क्यों हैं? इसकी जड़ क्या है? ज्यादातर, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने पर उन्हें वेतन नहीं मिलता है; उन्हें लगता है जैसे वे मुफ़्त में काम कर रहे हैं। इसका यदि कोई पुरस्कार होता तो शायद यह उनके लिए स्वीकार्य होता, लेकिन वे नहीं जानते कि उन्हें पुरस्कार मिलेंगे या नहीं। इसलिए, लोगों को लगता है कि कर्तव्य-निर्वाह महत्वपूर्ण नहीं है, वे इसे बिना कुछ पाए काम करने के बराबर रखते हैं, इसलिए जब कर्तव्यों के निर्वाह की बात आती है तो वे अक्सर नकारात्मक और प्रतिरोधी हो जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है? साफ कहें तो ये लोग कर्तव्य निर्वहन के अनिच्छुक होते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते और देह के प्रति विचारशील होते हैं, वे केवल अपने भौतिक हितों के बारे में सोचते हैं। वे अपने कर्तव्यों को जिम्मेदारी के रूप में नहीं लेते। जब वे अधिक करते हैं तो उन्हें लगता है कि उनका घाटा हो रहा है, इसलिए वे शिकायत और विरोध करते हैं। यह उनके कर्तव्यों का पालन करना नहीं है। चूँकि मेरी तुलना में, मेरी साझेदार बहनें अपेक्षाकृत नई थीं और स्वतंत्र रूप से अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकती थीं और उन्हें मेरी संगति और सहायता की अधिक जरूरत थी, इसलिए मैं शिकायतों से भरी थी, यह सोच रही थी कि वे मेरा खाली समय बर्बाद कर रही हैं। मैं भड़क उठी और गुस्से से भर गई, उनसे बात करने के लिए तैयार नहीं थी या उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य की परवाह नहीं करती थी। मैंने कभी कलीसिया के काम को अपना कर्तव्य नहीं माना या फिर नहीं सोचा कि बहनों की जिम्मेदारियाँ जल्दी से निभाने में कैसे मदद की जाए ताकि कलीसिया के काम में होने वाले नुकसान को रोका जाए। मैं अधिक बात करने या अधिक समय और ऊर्जा खर्च करने के लिए भी तैयार नहीं थी। मेरे व्यवहार को मेरे कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन कैसे माना जा सकता है? अंतरात्मा और विवेक वाला इंसान किसी भी माहौल में व्यक्तिगत हितों पर विचार नहीं करता। वह परमेश्वर के प्रति वफादार रहता है और अपने कर्तव्यों का पालन अच्छी तरह से करता है, चाहे वह कितना भी कष्ट और थकावट क्यों न सहे। हालाँकि, मैं हमेशा भौतिक सुख-सुविधाओं में लिप्त होने के बारे में सोचती थी। जब हालात थोड़े कठिन हो जाते थे तो मैं दुखी होती थी और सोचती थी कि मैं हार गई हूँ और मैं इस माहौल से भाग जाना चाहती थी। यह सब मेरे भ्रष्ट स्वभाव के कारण हुआ था, जिसमें मैं देह की लालसा करती थी और स्वार्थी और नीच थी। मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के भीतर रहती थी, जिससे मेरी साथी बहनों को बहुत दुख होता था। वे हर दिन बोलने से पहले मेरे हाव-भाव देखती थीं। कभी-कभी स्पष्ट रूप से उनकी अपनी राय होती थी, लेकिन वे कुछ गलत कहने से डरती थीं क्योंकि उन्हें पता था कि मैं गुस्से में जवाब दे सकती हूँ। नतीजतन, वे अपने कर्तव्यों को पूरी तरह से निभा नहीं पाईं, जैसा वे मूल रूप से कर सकती थीं। इसे मेरा कर्तव्य निभाना कैसे माना जा सकता है? यह व्यावहारिक रूप से बुराई और व्यवधान पैदा करना था! अब जब मैं इसके बारे में सोचती हूँ तो मैं अपने व्यवहार में वास्तव में बदसूरत थी।

बाद में मैंने खोज की कि मैं हमेशा आराम की लालसा क्यों करती थी और अपने स्वयं के भौतिक हितों पर विचार क्यों करती थी। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, जिसमें कहा गया था : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मैं शैतान के इस जहर के अनुसार जी रही थी कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।” मैंने जो कुछ भी किया, वह अपने लिए था, यह सोचा कि जो कोई अपना ख्याल नहीं रखता, वह मूर्ख है। इसलिए अपना कर्तव्य निभाने में मेरे सभी विचार और कार्य स्वार्थ से प्रेरित थे। हे ली के जाने के बाद मुझे उम्मीद करने लगी कि जल्द ही कोई मेरा काम का बोझ हल्का करने आए, ताकि मैं कम कष्ट सह सकूँ और कम थकान महसूस करूँ। झाओ झिन को काम करने में धीमा और ज्यादा मदद न कर पाने वाला देखकर मुझे घृणा महसूस हुई और मैंने एक और साथी चाहा। लेकिन एक अगुआ के रूप में लियू वेन सिद्धांतों को अच्छी तरह से नहीं समझती थी और उसके काम में अक्सर संशोधन की जरूरत होती थी। मैंने गुस्से से उन पर भड़कना शुरू कर दिया, मुझे लगा कि न केवल उन्होंने काम का बोझ साझा करने में मदद नहीं की, बल्कि उनके साथ संगति करने के लिए मुझे और अधिक प्रयास करने की भी जरूरत थी। इससे मुझे आराम करने के लिए और भी कम समय मिला और मुझे उनके प्रति बहुत नाराजगी महसूस हुई। जब उन्हें अपने काम में मुश्किलें आती थीं तो मैं इसमें शामिल होने की जहमत नहीं उठाना चाहती थी, जिससे मुद्दे अनसुलझे रहते थे और काम में देरी होती थी। अगर मैं और अधिक त्याग करने और धैर्यपूर्वक उनकी मदद करने के लिए तैयार होती, हालाँकि इससे मैं शारीरिक रूप से थक जाती, पर अगर हम सहयोग करतीं तो कलीसिया का काम सुचारू रूप से आगे बढ़ सकता था। लेकिन मैंने केवल अपने भौतिक हितों के बारे में सोचा। शैतान के जहर “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” के अनुसार जीने के कारण, मैं अधिक से अधिक स्वार्थी, नीच और मानवता रहित होती गई, यहाँ तक कि काम में भी देर होती रही। अगर मैं नहीं बदली तो अंततः परमेश्वर मुझे ठुकरा देगा और हटा देगा! मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! हाल ही में मैं शैतान के इस जहर के अनुसार जीती रही हूँ कि ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’ और यह मुझे बहुत दुखी कर रहा है। अगर मैं दूसरों को दोष नहीं दे रही हूँ तो मैं परमेश्वर को दोष दे रही हूँ। मैं इस तरह से जीना नहीं चाहती। कृपया मुझे शैतानी जहर के बंधन से मुक्त होने में मदद करो।”

बाद में, मैंने सोचा : मुझे लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार कैसे व्यवहार करना चाहिए? मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “सबसे पहले, तुम्हें सत्य को समझना चाहिए। जब तुम सत्य समझ लोगे, तो तुम्हारे लिए परमेश्वर के इरादे समझना आसान हो जाएगा और तुम वे सिद्धांत जान जाओगे जिनसे दूसरों के साथ व्यवहार करने की परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। तुम जान जाओगे कि लोगों के साथ कैसे पेश आएँ और तुम उनके साथ परमेश्वर के इरादों के अनुसार व्यवहार करने में सक्षम होगे। अगर तुम सत्य को नहीं समझते, तो निश्चित रूप से तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझ पाओगे और दूसरों के साथ सिद्धांतयुक्त तरीके से व्यवहार नहीं करोगे। तुम्हें दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए, यह परमेश्वर के वचनों में साफ तौर पर दिखाया या इंगित किया गया है। परमेश्वर मनुष्यों के साथ जिस रवैये से व्यवहार करता है, वही रवैया लोगों को एक-दूसरे के साथ अपने व्यवहार में अपनाना चाहिए। परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है? कुछ लोग अपरिपक्व कद वाले होते हैं; या कम उम्र के होते हैं; या उन्होंने सिर्फ कुछ समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया होता है; या वे प्रकृति-सार से बुरे नहीं होते, दुर्भावनापूर्ण नहीं होते, बस थोड़े अज्ञानी होते हैं या उनमें क्षमता की कमी होती है। या वे बहुत अधिक बाधाओं के अधीन हैं, और उन्हें अभी सत्य को समझना बाकी है, जीवन-प्रवेश पाना बाकी है, इसलिए उनके लिए मूर्खतापूर्ण चीजें करने या नादान हरकतें करने से खुद को रोक पाना मुश्किल है। लेकिन परमेश्वर लोगों के मूर्खता करने पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ उनके दिलों को देखता है। अगर वे सत्य का अनुसरण करने के लिए कृतसंकल्प हैं, तो वे सही हैं, और अगर यही उनका उद्देश्य है, तो फिर परमेश्वर उन्हें देख रहा है, उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, परमेश्वर उन्हें वह समय और अवसर दे रहा है जो उन्हें प्रवेश करने की अनुमति देता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें एक अपराध के लिए भी खारिज कर देगा। ऐसा तो अक्सर लोग करते हैं; परमेश्वर कभी भी लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता। जब परमेश्वर लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता, तो लोग दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? क्या यह उनके भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाता है? यह निश्चित तौर पर उनका भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकाशनों से कैसे पेश आता है और दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर अलग-अलग तरह के लोगों के साथ अलग-अलग ढंग से पेश आता है, उसके पास विभिन्न लोगों की बहुत-सी परिस्थितियों को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम मामलों को अनुभव करने का तरीका जान जाओगे और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने लगोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि लोगों के साथ व्यवहार करने में परमेश्वर के पास सिद्धांत हैं। वह उन लोगों के साथ सहनशील और धैर्यवान है जो ओहदे में छोटे हैं, उन्हें बढ़ने के अवसर देता है। लेकिन मैंने दूसरों के सामने आने वाली वास्तविक कठिनाइयों पर विचार नहीं किया और बहुत अधिक अपेक्षाएँ रखीं। झाओ शिन उम्रदराज थी और इस काम में नई थी, इसलिए उसके लिए शुरू में काम से अपरिचित होना सामान्य था। उसकी कठिनाइयों को समझने और प्यार से समर्थन देने के बजाय, मैंने मांग की कि वह तुरंत काम संभाल ले क्योंकि वह अपना कर्तव्य निभा रही थी। लियू वेन धीमी गति की थी और जब बहुत काम होता था तो वह भ्रमित हो जाती थी, लेकिन वह अपने कर्तव्यों को करने में स्थिर और गंभीर थी और वास्तविक कार्यों को संभाल सकती थी। हालांकि, मैंने बहनों को काम से जल्दी परिचित होने में मदद नहीं की और उनसे बहुत अधिक अपेक्षाएँ रखीं। जब वे इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकीं तो मैंने उन्हें असंतोष दिखाया, जिससे वे बेबस महसूस करने लगीं। जब मैंने पहली बार एक अगुआ के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन किया था तो मुझे उस समय कुछ भी नहीं पता था। भाई-बहनों की निरंतर मदद से ही मुझे कुछ सिद्धांत समझ आए। लेकिन फिर मैंने अपनी साथी बहनों से अत्यधिक माँग की, जिससे उनके लिए चीजें मुश्किल हो गईं। मुझमें वाकई मानवता की कमी थी! इस बारे में सोचकर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई।

बाद में, अपनी खोज के दौरान, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “इसके जरूर सिद्धांत होंगे कि भाई और बहनें कैसे बातचीत करें। हमेशा दूसरों के दोषों पर ध्यान केंद्रित न करो, इसके बजाय निरंतर अपना मूल्यांकन करो, दू फिर दूसरों के सामने सक्रिया से उसे स्वीकार करो जिससे तुमने उनके प्रति हस्तक्षेप या नुकसान पहुँचाया हो, और खुलकर अपने बारे में बोलना और संगति करना सीखो। इस तरह से, तुम आपसी समझ प्राप्त कर सकते हो। इससे भी ज्यादा, चाहे तुम्हारे साथ कोई भी बात हो जाए, तुम्हे चीजें परमेश्वर के वचनों के आधार पर देखनी चाहिए। अगर लोग सत्य सिद्धांत समझने और अभ्यास का मार्ग खोजने में सक्षम हों, तो वे एक हृदय और दिमाग के हो जाएँगे, और भाई-बहनों के बीच संबंध सामान्य हो जाएगा, वे अविश्वासियों जितने अलग, उदासीन और क्रूर नहीं होंगे, और वे एक-दूसरे के प्रति आपसी संदेह और सतर्कता की मानसिकता छोड़ देंगे। भाई-बहन एक-दूसरे के साथ ज्यादा घनिष्ठ हो जाएँगे; वे एक-दूसरे की सहायता और प्रेम करने में सक्षम हो सकेंगे; उनके हृदयों में सद्भावना होगी, और वे एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता और करुणा रखने में सक्षम होंगे, और वे एक-दूसरे को अलग-थलग करने, एक-दूसरे से ईर्ष्या करने, एक-दूसरे से तुलना करने और गुप्त रूप से एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने और एक दूसरे के प्रति विद्रोही होने के बजाय एक-दूसरे का समर्थन और सहायता करने में सक्षम होंगे। ... जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं, तो उनके लिए परमेश्वर के सामने शांति से रहना बहुत कठिन होता है, और उनके लिए सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना बहुत कठिन होता है। परमेश्वर के सामने जीने के लिए तुम्हें पहले आत्मचिंतन कर खुद को जानना और वास्तव में परमेश्वर से प्रार्थना करना सीखना चाहिए, और फिर तुम्हें सीखना चाहिए कि भाई-बहनों के साथ कैसे निभाना है। तुम्हें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए, एक-दूसरे के साथ उदार होना चाहिए, और यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि दूसरों के गुण और ताकतें क्या हैं—तुम्हें दूसरों की राय और सही चीजें स्वीकार करना सीखना होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन हमें स्पष्ट रूप से बताते हैं कि भाई-बहनों के साथ हमारी बातचीत के दौरान हमें हमेशा उनकी कमियों पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी ताकत और गुणों को देखना चाहिए। हमें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए और एक-दूसरे की ताकत और कमजोरियों का पूरक होना चाहिए। झाओ शिन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की संगति करने में बेहतर थी; कभी-कभी जब मैं भाई-बहनों की समस्याओं को नहीं समझ पाती थी, झाओ शिन संगति करने और उन्हें हल करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को खोज लेती थी। हालाँकि लियू वेन धीमी गति की थी, लेकिन वह समस्याओं पर ध्यान से सोचती थी, अपने कर्तव्यों को गंभीरता और जिम्मेदारी से करती थी। जब मेरे पास बहुत काम होता था, तो मैं लापरवाही बरतती थी, लेकिन लियू वेन कभी-कभी मुझे याद दिलाती थी, जो मेरे लिए मददगार और पूरक भी था। हम तीनों एक साथ मिलकर काम करती और एक-दूसरे की ताकत और कमजोरियों की पूरक होतीं तो निश्चित रूप से हमारा काम आगे बढ़ता। बाद में मैंने अपनी साथी बहनों के सामने अपनी अवस्था के बारे में खुलकर बात की और हमने एक-दूसरे की समस्याओं को बताया। संगति के माध्यम से, हमने अपनी साझेदारी का मार्ग और दिशा पाई और मुझे अपने दिल में विशेष रूप से सहजता महसूस हुई। यह देखकर कि परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित वातावरण मेरे जीवन के विकास के लिए लाभदायक रहा है, मैंने परमेश्वर के प्रति विशेष रूप से आभार महसूस किया।

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