55. अब मैं बेतहाशा रुतबे के पीछे नहीं भागती
मुझमें सम्मान और रुतबा हासिल करने की तीव्र इच्छा थी। बचपन से ही, मैंने अपनी जगह बनाने और श्रेष्ठ बनने की कोशिश की थी। जैसी कि कहावत है, “अधिकारी आम लोगों से श्रेष्ठ होते हैं,” सबसे छोटा अधिकारी भी आम लोगों से बेहतर ही माना जाता है। मेरा मानना था कि अधिकारी का पद होने का मतलब है ताकतवर होना, हर एक जगह आदर और सम्मान पाना। जब मैं छोटी थी, मैंने गाँव में तमाम तरह के गंदे और थकाऊ काम किए, ताकि अधिकारी का पद पा सकूँ। मैं किसी गुमनाम नायिका की तरह रात को खेतों में काम करती। लेकिन मेरी कम शिक्षा के कारण, मैं चाहे जितनी भी कोशिश करती, केवल गाँव में महिला संघ की मुखिया ही बन सकती थी।
1999 में मैंने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारा और कलीसिया में सुसमाचार प्रचार का अपना कर्तव्य निभाया। सभाओं के दौरान उच्च-स्तर के अगुआओं को भाई-बहनों से घिरे और उनसे तमाम तरह के सवाल पूछते देखती, तो मुझे बहुत ईर्ष्या होती : अगुआ बनना अच्छी बात है; वे जहाँ भी जाते हैं सभी लोग उसे घेरे रहते हैं, कितना शानदार है! भविष्य में जब परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाएगा, परमेश्वर इन अगुआओं को निश्चित ही बचा लेगा। मुझे ईमानदारी से अनुसरण करना होगा; अगर मैं परमेश्वर के घर में अगुआ बन गई, तो न सिर्फ भाई-बहन मेरा काफी सम्मान करेंगे, बल्कि मुझे उद्धार पाने और पूर्ण बनने के अधिक अवसर भी मिलेंगे। अगर मैंने निष्ठापूर्वक अनुसरण किया और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया, तो मुझे निश्चित ही अगुआ बनने का अवसर मिलेगा। उस समय, हमारे इलाके में सुसमाचार फैलना शुरू ही हुआ था, और सुसमाचार स्वीकारने वाले ज्यादातर लोग हमारी पुरानी कलीसिया के भाई-बहन ही थे। जैसे ही पादरी उनके काम में बाधा डालते या वे निराश होते या कठिनाइयों का सामना करते, मैं फौरन उनकी मदद करती। सभी भाई-बहन मेरे बारे में ऊँचा सोचते थे, वे अपनी किसी भी कठिनाई का हल खोजने मेरे पास ही आते। भले ही तब तक हमने कलीसिया स्थापित नहीं की थी, और कोई कलीसिया अगुआ भी नहीं था, तो मैं अगुआ का ही काम करती थी। मेरे साथ अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले भी कहते थे, “अगर भविष्य में किसी और को अगुआ नहीं चुना जा सका, तो ली जिंग निश्चित ही चुनी जाएगी।” यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई, मैंने सोचा, “मेरे साथ परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले भाई-बहनों में कोई भी मुझसे बेहतर नहीं है, और किसी ने भी मुझसे ज्यादा खुद को नहीं खपाया है, भाई-बहन भी मेरा समर्थन करते हैं, तो जब अगुआ चुनने का समय आएगा, सभी लोग यकीनन मुझे ही चुनेंगे।” 1999 की दूसरी छमाही में, उच्च-स्तर के अगुआ हमारे इलाके में सभा के लिए आए, और कहा कि वे कलीसिया स्थापित करना और कलीसिया अगुआ चुनना चाहते हैं। मैं बहुत खुश थी, सोचा यह तो तय ही है कि मैं कलीसिया अगुआ चुनी जाऊँगी। सभा के दौरान, मैं विश्वास के साथ उच्च अगुआ द्वारा चुनाव नतीजों की घोषणा की प्रतीक्षा कर रही थी। मगर अप्रत्याशित रूप से लिऊ चिंग को अगुआ चुन लिया गया, और मुझे सुसमाचार उपयाजक चुना गया। नतीजे सुनते ही ऐसा लगा जैसे मेरे दिल पर ठंडा पानी उड़ेल दिया गया हो, और अंदर तक ठंडी सिहरन दौड़ गई, चेहरा मुरझा गया और मैंने सोचा, “मैं दिन भर सुसमाचार प्रचार, नए विश्वासियों के सिंचन और भाई-बहनों की मेजबानी में व्यस्त रहती हूँ, कभी खाली नहीं रहती, फिर भी मुझे अगुआ नहीं चुना गया, क्या इतना सारा काम करना बेकार था? अब मुझे अगुआ नहीं चुना गया है, तो भाई-बहन निश्चित ही कहेंगे कि मैं लिऊ चिंग जितनी अच्छी नहीं हूँ, मैं अपना चेहरा कैसे दिखा पाऊँगी?” सभा खत्म होने के बाद घर पहुँचकर, मैंने इस बारे में जितना सोचा उतनी ही दुखी हो गई, और पता भी नहीं चला कब मेरी आँखों से आँसू छलक पड़े। मैं अपने दिल में लिऊ चिंग से ईर्ष्या करने लगी : पहले, हमारे संप्रदाय में, तुम मेरी जितनी जोशीली नहीं थी, तो तुम अगुआ बनने योग्य कैसे हो गई? एक बार, लिऊ चिंग नए विश्वासियों के सिंचन के बारे में मुझसे पूछने आई, तो मैं गुस्से में आकर सोचने लगी, “तुम कुछ भी नहीं समझती, फिर भी तुम अगुआ हो? अगर तुम इसे संभाल नहीं सकती, तो पहले क्यों नहीं बताया?” मैंने बेसब्री से जवाब दिया, “तुम तो अगुआ हो ना? जाओ खुद ही इसका हल निकालो।” लिऊ चिंग ने लाचार होकर कहा, “मैंने तुमसे ये सवाल पूछे क्योंकि मैं इन्हें नहीं समझती।” उसे ऐसा कहते सुनकर मुझे अपने दिल में थोड़ा अफसोस हुआ, तो मैंने अपना लहजा नरम करते हुए बताया कि क्या करना चाहिए। क्योंकि मैं अगुआ नहीं चुनी गई थी, तो मेरे दिल में हमेशा हार की भावना रहती थी, और अपने कर्तव्य में उत्साह नहीं जुटा पाती थी। पहले, जब मैं सुसमाचार कार्य के बारे में खोज-खबर लेती थी, तो सक्रियता से भाई-बहनों को संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की स्थिति समझने को कहती थी, और सुसमाचार फैलाने में उनका साथ देती थी, मगर अब, भले ही कोई संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता नहीं होता, मैं सक्रियता से उनकी खोज नहीं करती थी। कभी-कभी जब मैं घर में अकेली होती, तो सोचती, “मैं लोगों का स्वागत-सत्कार करती रही और सुसमाचार फैलाती रही, फिर भी अंत में मुझे अगुआ नहीं चुना गया। भविष्य में मेरे लिए उद्धार की क्या उम्मीद है?” मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतनी ही निराश हुई, और अपनी दशा के बारे में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अगुआ नहीं बनी, और अब मुझे अपना कर्तव्य करने में कोई प्रेरणा महसूस नहीं होती; मेरा दिल व्याकुल है। मगर मैं नहीं जानती कि इस दशा को कैसे बदलें। कृपा करके अपना इरादा समझने में मेरी अगुआई करो।”
एक दिन सुबह की भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मैं उन सभी से प्रेम करता हूँ, जो ईमानदारी से मुझे चाहते हैं। यदि तुम लोग मुझसे प्रेम करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, तो मैं निश्चित रूप से तुम लोगों को अत्यधिक आशीष दूँगा। क्या तुम लोग मेरे इरादों को समझते हो? मेरे घर में उच्च और निम्न हैसियत के बीच कोई भेद नहीं है। हर कोई मेरा पुत्र है, और मैं तुम लोगों का पिता, तुम लोगों का परमेश्वर हूँ। मैं सर्वोच्च और अद्वितीय हूँ। मैं ब्रह्मांड को और सभी चीजों को नियंत्रित करता हूँ!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 31)। “तुम्हें मेरे घर में ‘विनम्रता के साथ और गुमनामी में मेरी सेवा’ करनी चाहिए। यह वाक्यांश तुम्हारा आदर्श वाक्य होना चाहिए। पेड़ का पत्ता मत बनो, बल्कि पेड़ की जड़ बनो और जीवन में गहराई तक जड़ जमाओ। जीवन के वास्तविक अनुभव में प्रवेश करो, मेरे वचनों के अनुसार जियो, हर मामले में मुझे और अधिक खोजो, और मेरे निकट आओ और मेरे साथ संगति करो। किसी भी बाहरी चीज पर ध्यान मत दो, और किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज के आगे बेबस मत हो, बल्कि मैं क्या हूँ, इस बारे में केवल आध्यात्मिक लोगों के साथ संगति करो। मेरे इरादों को समझो, मेरे जीवन को अपने में प्रवाहित होने दो, और मेरे वचनों को जियो और मेरी अपेक्षाओं का पालन करो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 31)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने समझा कि परमेश्वर के घर में ऊँचे या नीचे रुतबे के जैसी कोई चीज नहीं है। हमारे लिए परमेश्वर का इरादा सत्य का अनुसरण करना और उसे संतुष्ट करने के लिए चुपचाप अपना कर्तव्य निभाना है। परमेश्वर नहीं चाहता कि हम रुतबे के पीछे भागें, बल्कि सत्य का अनुसरण करें और जीवन प्राप्त करें। रुतबा हासिल करना एक तरह की बाहरी शोभा है, लेकिन यह निरर्थक और खोखला है। जैसे कि पत्ते खूबसूरत होते हैं, मगर पतझड़ में गिर जाते हैं; फूल सुंदर होते हैं और लोग उनकी तारीफ करते हैं, मगर फल लगे बिना जीवन नहीं होता। मैं हमेशा से अगुआ बनना चाहती थी, ताकि लोग मेरा सहयोग और प्रशंसा करें, मेरी बात सुनें और सम्मान दें, उनके दिलों में मेरा रुतबा हो, पर वास्तव में इन चीजों के पीछे भागने का क्या अर्थ था? अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य लोगों का न्याय करने, उन्हें स्वच्छ करने और सत्य की आपूर्ति करने के लिए है। अगर मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, अगर मेरा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला, और मैंने सत्य हासिल नहीं किया, तो क्या मेरा विश्वास करना व्यर्थ नहीं हो गया? मैंने रुतबे को बहुत ऊँचा मान लिया, इसके बिना निराश हो गई, और सुसमाचार फैलाने का उत्साह खो बैठी। मुझे एहसास हुआ कि मैंने सत्य का नहीं बल्कि प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण किया था, क्या यह परमेश्वर के इरादों से अलग जाना नहीं था? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, रुतबा पाने की मेरी चाह बहुत बड़ी थी। जब मैंने दूसरों को अगुआ बनते और खुद को न चुने जाते देखा, तो मैं निराश हो गई। संसार में, मैंने अधिकारी और काडर का सदस्य बनने की कोशिश की थी। अब जबकि मैं परमेश्वर के घर में हूँ, अभी भी उन्हीं चीजों के पीछे भाग रही हूँ। यह संसार में मेरी भूमिका से जरा भी अलग कहाँ था? परमेश्वर, अब मैं रुतबे के पीछे नहीं भागना चाहती। मैं तुम्हें संतुष्ट करने के लिए तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।” इसके बाद मेरी दशा बदली, और मुझमें सुसमाचार फैलाने का उत्साह जगा। जब लिऊ चिंग को कठिनाई होती और वह मुझसे पूछने आती, तो मैं जितना भी समझ पाती उसके साथ संगति करती, सोचती कि यह सब कलीसिया के कार्य का ही हिस्सा है, जब बहन को कठिनाई होगी, तो उसकी मदद करना मेरी जिम्मेदारी है, और यह वो कर्तव्य भी है जो मुझे निभाना चाहिए। दो महीने बाद, लिऊ चिंग को बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि वह वास्तविक कार्य नहीं कर पाई, और भाई-बहनों ने मुझे कलीसिया अगुआ चुन लिया। मैं दिल से बहुत खुश हुई, सोचा कि परमेश्वर ने मुझ पर कृपा की है, और मुझे कड़ी मेहनत करनी होगी। फिर, मैंने हर समूह के लिए अगुआ का चुनाव किया, और सुसमाचार फैलाने के महत्व के बारे में भाई-बहनों के साथ संगति की, और तब सुसमाचार फैलाने की प्रभावशीलता बेहतर हो गई। मैं दिन में सुसमाचार फैलाती और रात को नए विश्वासियों का सिंचन करती, अगर भाई-बहन निराश या कमजोर होते, तो उनकी मदद करने के लिए उनसे मिलती। सभी गर्मजोशी से मेरा स्वागत करते, और मन में कोई सवाल होने पर मेरे पास ही आते। भाई-बहनों को अपने आसपास जमा होते और मेरा काफी सम्मान करते देखकर, मैं इस एहसास का बहुत आनंद लेती, सोचती, “अगुआ बनना कितना अच्छा है। अगर मैं कलीसिया का सारा काम अच्छे से करती हूँ, तो मेरे पास और आगे बढ़ने के मौके होंगे। अगर मैं वरिष्ठ अगुआ बन पाई, तो मुझे और अधिक सम्मान मिलेगा।”
बाद में, उच्च स्तर के अगुआ हमारे साथ सभा करने आए, तो कहा कि वे अनेक कलीसिया अगुआओं में से प्रचारक चुनना चाहते हैं। मैंने अपने बारे में सोचा, “हमारी कलीसिया सुसमाचार फैलाने की प्रभावशीलता और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश, दोनों ही मामलों में अच्छा प्रदर्शन कर रही है; फिर, हाल ही में जब कम्युनिष्ट पार्टी ने मुझे गिरफ्तार किया था, तो मैं अपनी गवाही में अडिग रही, तो बाकी लोगों के मुकाबले हर मामले में मेरा पलड़ा भारी था। ऐसे में, इस बार प्रचारक तो मुझे ही चुना जाएगा।” मगर आशा के विपरीत, बहन वांग शू को चुन लिया गया। मेरा दिल पूरी तरह से ठंडा पड़ गया, मैंने सोचा, “उसे चुना गया, पर मुझे क्यों नहीं? हमारी कलीसिया के सभी कार्यों के नतीजे सबसे अच्छे हैं, तो मैं कहाँ उससे बेहतर नहीं थी? अब जबकि मुझे प्रचारक नहीं चुना गया है, तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? आगे से कौन मेरा सम्मान करेगा?” अगली सभाओं में, मैंने कुछ भी नहीं कहा, सोचा कि मैं चाहे कितनी भी ज्यादा कोशिश करूँ या कितनी भी व्यस्त रहूँ या थक जाऊँ, इन सबका क्या फायदा? मैं इतनी शर्मिंदा थी कि अपनी दशा के बारे में खुलकर बोलना और हल खोजना नहीं चाहा, अपनी इज्जत खोने के डर से मैंने कुछ नहीं कहा।
बाद में, वांग शू ने कई कलीसिया अगुआओं के लिए एक सभा आयोजित की, और सभी ने ध्यान देकर सुना, मगर मैंने इसे अच्छे मन से नहीं लिया। मैंने सोचा प्रचारक बनना वाकई अलग चीज है, जहाँ भी जाओ वहाँ तुम्हें प्रतिष्ठा और सम्मान मिलता है, लोग तुम्हारी बातें ध्यान से सुनते हैं। अगर मैं प्रचारक होती, तो भाई-बहन निश्चित रूप से मेरे आसपास घूमते, मगर अब मुझे उसकी बात सुननी पड़ेगी, इस बात ने मुझे असंतुलित कर दिया। सभा के दौरान, जब उसने कार्य को लागू किया, तो मैंने यह सोचकर सहयोग करने में अनिच्छा दिखाई, “हम साथी हुआ करते थे, और तुम मुझसे बेहतर तो नहीं थी, अब हमारे लिए कार्य की व्यवस्था कर रही हो। अगर मैं तुम्हारे निर्देशों का पालन करूँ, तो क्या तुमसे कमतर नहीं दिखूँगी?” वांग शू ने हमारी कलीसिया के कार्य की समस्याओं के बारे में मुझसे पूछा, तो मैंने उदासीन चेहरे के साथ बेपरवाही से जवाब दिया, “हमारी कलीसिया में अधिक समस्याएँ नहीं हैं। हमने उन्हें अपने आप ही सुलझा लिया है।” तब उसने हमारे सुसमाचार कार्य की प्रगति के बारे में पूछा, तो मैं अब और जवाब नहीं देना चाहती थी, तो मैंने सख्त लहजे में जवाब दिया, “हमारे सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता का तो कहना ही क्या, दूसरी कलीसियाएँ तो हमारे मासिक नतीजों के मुकाबले आधी दूरी तक भी नहीं पहुँची हैं।” जब उसने नए विश्वासियों की स्थिति के बारे में सवाल पूछे, तो मेरा सब्र टूट गया, मैंने कहा, “हमारे कुछ अगुआ और कार्यकर्ता नए विश्वासियों का सिंचन करते हैं, और वे अच्छा काम कर रहे हैं। अगर तुम्हें विश्वास नहीं होता, तो जाकर खुद ही देख सकती हो।” वांग शू मेरे रवैये से बेबस हो गई, और सभा का माहौल अजीब हो गया। मैं निरंतर ईर्ष्या और असंतुष्टि की दशा में जी रही थी, और मेरी आत्मा में अँधेरा था। अपना कर्तव्य निभाने में मेरी रुचि नहीं रही, बस जैसे-तैसे काम निपटाती। जहाँ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता होते, मैं अब उनके बीच सुसमाचार फैलाना नहीं चाहती। सुसमाचार फैलाने की प्रभावशीलता गिरने लगी। जब अगुआ मेरे साथ संगति करने और मेरी मदद करने आए, तो मैं सुनने में असमर्थ थी। अंत में, मुझे बर्खास्त कर दिया गया।
उसके बाद, मैंने आत्मचिंतन किया : जब बहन वांग शू प्रचारक बनी, तब मैं असहज और असंतुष्ट क्यों हो गई? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मुझे प्रबुद्ध करने और रास्ता दिखाने को कहा, ताकि मैं अपनी समस्याएँ जानकर उन्हें हल कर सकूँ। फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम लोगों की खोज में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं की काट-छाँट करने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। ... बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें खुद से ऊपर उठने के संकल्प का सर्वथा अभाव है, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं। ... यद्यपि आज तुम लोग इस चरण तक पहुँच गए हो, तब भी तुम लोगों ने हैसियत का राग अलापना नहीं छोड़ा, बल्कि लगातार इसके बारे में पूछताछ करते रहते हो, और इस पर रोज नज़र रखते हो, इस गहरे डर के साथ कि कहीकहीं किसी दिन तुम लोगों की हैसियत खो न जाए और तुम लोगों का नाम बर्बाद न हो जाए। लोगों ने सहूलियत की अपनी अभिलाषा का कभी त्याग नहीं किया” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि आज इस तरह की स्थिति पूरी तरह से रुतबे की मेरी चाह और मेरी भ्रष्टता का खुलासा करने के लिए थी, यह अनुसरण के बारे में मेरे गलत दृष्टिकोण को बदलने के लिए थी। मैंने हमेशा से प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण किया था, और कलीसिया अगुआ बनने के बाद तो मैं प्रचारक और वरिष्ठ अगुआ भी बनना चाहती थी, मेरे मन में ऊँचा पद पाने और रुतबे के फायदे उठाने की चाह थी। प्रचारक के चुने जाने से पहले, मैं सुबह जल्दी उठती और सुसमाचार फैलाते और नए विश्वासियों का सिंचन करते हुए देर तक काम करती थी, दिन भर व्यस्त रहती थी, पर जब मैं प्रचारक बनने में विफल रही, तो निराश और अपने कर्तव्य में बेपरवाह हो गई, जहाँ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता होते, वहाँ भी मैं सुसमाचार फैलाना नहीं चाहती थी। जाहिर था कि अगुआ होने के इस रुतबे का अनुसरण करती थी। बाद में मैंने विचार किया : मैं रुतबे के पीछे इतनी पागल क्यों थी? क्योंकि मैं शैतान के इन विषों के अनुसार जीती थी, जैसे, “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है” और “अधिकारी आम लोगों से श्रेष्ठ होते हैं,” मैं सोचती थी कि व्यक्ति को जीवन में दूसरों से ऊँचा उठने का प्रयास करना चाहिए, और तभी उसे दूसरों से अधिक सम्मान और आदर मिल सकता है, और वह मूल्यवान और सार्थक जीवन जी सकता है। इन विचारों के काबू में होने के कारण, मैं भीड़ में सबसे कमतर नहीं दिखना चाहती थी। सोलह-सत्रह साल की उम्र में, गाँव की काडर बनने के लिए, मैंने गाँव में तमाम तरह के कठिन और थकाऊ काम किए थे, किसी गुमनाम नायिका की तरह देर रात तक खेतों में काम करती थी। उन्नीस की उम्र में, मैं अपने गाँव की महिला संघ की मुखिया बन गई। अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद, जब उच्च स्तर के अगुआ हमारे साथ सभा करते, और भाई-बहन उन्हें घेरकर उनसे सवालों के जवाब पूछते, तो अपने दिल में उनसे ईर्ष्या करती। अगुआ चुने जाने के लिए, मैंने त्याग किया और खुद को खपाया, सुबह से शाम तक निष्ठापूर्वक काम किया, कोई भी कठिनाई झेलने को तैयार थी। कलीसिया अगुआ बनने के बाद, मेरे मन में अधिक ऊँचा पद पाने की चाह थी, मैं प्रचारक भी बनना चाहती थी। जब मुझे प्रचारक नहीं चुना गया, तो रुतबा न होने को स्वीकार ही नहीं पाई, मैंने नई चुनी गई प्रचारक को ठुकरा दिया। मैं उसकी संगति सुनने और कार्य को लागू करने को तैयार ही नहीं थी, और जब उसने हमारी कलीसिया के कामकाज के बारे में पूछताछ की, तो मैं उदासीन रही, उसके प्रति तिरस्कार और उपेक्षा दिखाई, जिससे वह मुझसे बेबस महसूस करने लगी। रुतबा हासिल न होने पर मैंने दूसरों को अलग-थलग किया और उन्हें नीचा दिखाया, इस तथ्य ने दिखाया कि मैं सच में दुर्भावना से भरी थी! असल में मैंने मसीह-विरोधी का स्वभाव दिखाया। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। सिर्फ परमेश्वर ही आराधना और भक्ति के लायक है। मैं बस एक सृजित प्राणी हूँ, भ्रष्ट इंसान हूँ। मुझमें ऐसी क्या योग्यता थी जिससे दूसरे मेरा सम्मान करते? मुझमें वाकई विवेक और शर्म नाम की चीज नहीं थी! परमेश्वर ने मुझे अगुआ के कर्तव्य का अभ्यास करने का अवसर दिया, इस उम्मीद में कि मैं सत्य का अनुसरण करूँगी, भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करूँगी, एक दूसरे की पूरक बनूँगी और मिलजुलकर अपने कर्तव्य निभाऊँगी, मगर मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, हमेशा रुतबे के पीछे भागी, ताकि लोग मेरी प्रशंसा करें। प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर, मैं ईर्ष्यालु और द्वेषपूर्ण भी हो गई, दूसरों को बेबस और अलग करने लगी, जिससे भाई-बहनों को नुकसान हुआ, और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ियाँ हुईं। मुझे एहसास हुआ कि रुतबे के पीछे भागना परमेश्वर के प्रतिरोध का मार्ग था, और अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो अंत में परमेश्वर के दंड की भागी बनूँगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं एक भ्रष्ट इंसान हूँ, हमेशा दूसरों से प्रशंसा पाना चाहती हूँ, मेरी कथनी और करनी तुम्हारी नफरत के लायक हैं। अब मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने के बजाय तुम्हारी ओर मुड़ना चाहती हूँ। सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर मेरी अगुआई करो।”
एक दिन, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “इंसान ने कभी भी मुझसे ईमानदारी से प्रेम नहीं किया। जब मैं उसकी प्रशंसा करता हूँ, तो वह अपने आपको अयोग्य समझता है, लेकिन इससे वह मुझे संतुष्ट करने की कोशिश नहीं करता। वह मात्र उस ‘स्थान’ को पकड़े रहता है जो मैंने उसके हाथों में सौंपा है और उसकी बारीकी से जाँच करता है; मेरी मनोरमता के प्रति असंवेदनशील बनकर, वह खुद को अपने स्थान से प्राप्त लाभों से भरने में जुटा रहता है। क्या यह मनुष्य की कमी नहीं है? जब पहाड़ सरकते हैं, तो क्या वे तुम्हारे स्थान की खातिर अपना रास्ता बादल सकते हैं? जब समुद्र बहते हैं, तो क्या वे मनुष्य के स्थान के सामने रुक सकते हैं? क्या मनुष्य का स्थान आकाश और पृथ्वी को पलट सकता है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 22)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है। इसलिए, जो लोग दंडित किए जाते हैं, वे सब इस तरह परमेश्वर की धार्मिकता के कारण और अपने अनगिनत बुरे कार्यों के प्रतिफल के रूप में दंडित किए जाते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने समझा कि रुतबा लोगों को बचा नहीं सकता, और जब आपदा आएगी, तो रुतबा जीवित रहना सुनिश्चित नहीं करेगा। परमेश्वर इस आधार पर लोगों की मंजिल और परिणाम तय करता है कि उसके पास सत्य है या नहीं। चाहे उनका रुतबा जो भी हो, अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं और उनका स्वभाव बदल जाता है, तो वे परमेश्वर का उद्धार पा सकते हैं। पहले, मैं सोचती थी कि जितना ऊँचा रुतबा होगा, बचाए और पूर्ण किए जाने का अवसर उतना ही अधिक होगा, इसलिए मैं बेतहाशा रुतबे के पीछे भागी, सब कुछ त्यागकर किसी भी कीमत पर रुतबा हासिल करने के लिए कोई भी कठिनाई झेलने को तैयार थी। मैंने रुतबा हासिल करने को अपना लक्ष्य और जीवन की दिशा बना दिया। जब मुझे प्रचारक नहीं चुना गया, तो मैं निराश हो गई और अपना कर्तव्य निभाने का उत्साह खो बैठी। इस गलत दृष्टिकोण के साथ जीकर मुझे बहुत पीड़ा मिली, भाई-बहनों को नुकसान पहुँचा और कलीसिया के कार्य की क्षति हुई। मैंने सोचा कि कैसे धार्मिक समूहों में पौलुस का रुतबा कितना ऊँचा था, उसने सुसमाचार फैलाया, बहुत से लोगों को हासिल किया, और अनेक कलीसियाओं की स्थापना की, मगर उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया, उसका जीवन स्वभाव नहीं बदला, और अंत में उसने परमेश्वर के दंड का सामना किया। वहीं पतरस का काम पौलुस जितना गहन नहीं रहा, पर पतरस ने सत्य का और परमेश्वर को प्रेम करने का अनुसरण किया, और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे करने की कोशिश की; अंत में पतरस को परमेश्वर ने पूर्ण बनाया और उसे परमेश्वर की मंजूरी मिली। मैं गलत दृष्टिकोण के अनुसार जीकर पौलुस जैसे मार्ग पर ही चल रही थी। अगर मैं इसी मार्ग पर चलती रही, तो अंत में यकीनन मेरा भाग्य भी पौलुस जैसा ही होगा।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मुझे अभ्यास का मार्ग और स्पष्ट हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “लोग ऐसे सृजित प्राणी हैं जिनके पास गर्व करने के लिए कुछ नहीं है। चूँकि तुम लोग सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम लोगों को एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। तुम लोगों से अन्य कोई अपेक्षाएँ नहीं हैं। तुम लोगों को ऐसे प्रार्थना करनी चाहिए : ‘हे परमेश्वर, चाहे मेरी हैसियत हो या न हो, अब मैं स्वयं को समझती हूँ। यदि मेरी हैसियत ऊँची है तो यह तेरे उत्कर्ष के कारण है, और यदि यह निम्न है तो यह तेरे आदेश के कारण है। सब-कुछ तेरे हाथों में है। मेरे पास न तो कोई विकल्प हैं न ही कोई शिकायत है। तूने निश्चित किया कि मुझे इस देश में और इन लोगों के बीच पैदा होना है, और मुझे पूरी तरह से तेरे प्रभुत्व के अधीन समर्पित होना चाहिए क्योंकि सब-कुछ उसी के भीतर है जो तूने निश्चित किया है। मैं हैसियत पर ध्यान नहीं देती हूँ; आखिरकार, मैं एक सृजित प्राणी ही तो हूँ। यदि तू मुझे अथाह गड्ढे में, आग और गंधक की झील में डालता है, तो मैं एक सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। यदि तू मेरा उपयोग करता है, तो मैं एक सृजित प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण बनाता है, मैं तब भी एक सृजित प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण नहीं बनाता, तब भी मैं तुझ से प्यार करती हूँ क्योंकि मैं सृष्टि के एक सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। मैं सृष्टि के प्रभु द्वारा रचित एक सूक्ष्म सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ, सृजित मनुष्यों में से सिर्फ एक हूँ। तूने ही मुझे बनाया है, और अब तूने एक बार फिर मुझे अपने हाथों में अपनी दया पर रखा है। मैं तेरा उपकरण और तेरी विषमता होने के लिए तैयार हूँ क्योंकि सब-कुछ वही है जो तूने निश्चित किया है। कोई इसे बदल नहीं सकता। सभी चीजें और सभी घटनाएँ तेरे हाथों में हैं।’ जब वह समय आएगा, तब तू हैसियत पर ध्यान नहीं देगी, तब तू इससे छुटकारा पा लेगी। तभी तू आत्मविश्वास से, निर्भीकता से खोज करने में सक्षम होगी, और तभी तेरा हृदय किसी भी बंधन से मुक्त हो सकता है। एक बार लोग जब इन चीज़ों से छूट जाते हैं, तो उनके पास और कोई चिंताएँ नहीं होतीं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि चाहे लोगों के पास रुतबा हो या न हो, वे सभी सृजित प्राणी हैं, और परमेश्वर की नजरों में सभी एक समान हैं। किसी व्यक्ति के पास रुतबा होगा या नहीं, यह सब परमेश्वर ने पहले ही तय कर दिया है। कौन सा व्यक्ति कौन से कर्तव्य निभाएगा और उसके पास कैसी काबिलियत और खूबियाँ होंगी, यह सब परमेश्वर पहले ही तय कर देता है। सृजित प्राणियों के नाते, लोगों को परमेश्वर की व्यवस्थाओं और संप्रभुता के आगे समर्पण करना चाहिए। पहले, मुझमें हमेशा से अगुआ बनने की महत्वाकांक्षाएँ थीं। कलीसिया अगुआ बनने के बाद मैं प्रचारक भी बनना चाहती थी। लेकिन, मेरी काबिलियत और आध्यात्मिक कद के आधार पर, मैं बुनियादी तौर पर प्रचारक बनने के लिए उपयुक्त नहीं थी। जब नई कलीसिया की स्थापना हुई, तो कलीसिया अगुआ के रूप में मेरी भूमिका में सुसमाचार फैलाना और नए विश्वासियों का सिंचन करना शामिल था, और मैं सुसमाचार फैलाने में अच्छी थी, मुझे कुछ नतीजे भी हासिल हुए। लेकिन, प्रचारक की भूमिका में अनेकों कलीसियाओं का प्रबंधन करना शामिल था, इसके लिए अच्छी कार्यक्षमता के साथ ही सत्य पर संगति करने और समस्याएँ हल करने की योग्यता भी जरूरी थी; मेरा जीवन प्रवेश कमजोर था और मैं प्रचारक के कार्य के लायक नहीं थी। मुझे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए था। अब, मुझे सुसमाचार फैलाने का कार्य सौंपा गया है, और मुझे सुसमाचार फैलाने का अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। यह एहसास होने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं रुतबे के पीछे भाग रही थी, मैंने तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं किया, जिससे कलीसिया के कार्य का नुकसान हुआ। अब मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ, और तुम्हारे आयोजनों के अधीन सृजित प्राणी होने का अनुसरण करना चाहती हूँ।”
2015 में कलीसिया ने अगुआ के लिए नया चुनाव कराया, और मैंने सुना कि अनेक भाई-बहन मुझे चुनना चाहते थे। उस समय मैं खुश भी हुई और हैरान भी। ऐसा लगा कि भाई-बहन मेरा काफी सम्मान करते हैं, जिससे साबित होता है कि मुझमें थोड़ी सत्य वास्तविकता है। मैंने सोचा, अगर मैं चुनी गई तो भाई-बहनों के बीच जहाँ भी जाऊँगी मेरा सम्मान होगा। मगर जैसे ही यह विचार आया, मैं जानती थी कि रुतबे की मेरी चाह फिर से सिर उठाने लगी है। रुतबे की मेरी चाह ने अतीत में मुझे कितनी अधिक पीड़ा दी थी और कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान पहुँचाया था, इस पर विचार करके मैंने फैसला किया कि मैं रुतबे के पीछे नहीं भागना चाहती। इसके बजाय मुझे परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति समर्पण करते हुए अच्छे से अपने कर्तव्य पूरे करने चाहिए। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं रुतबे की अपनी चाह और किसी भी गलत अनुसरण को छोड़ने को तैयार थी। अब मैं शोहरत या रुतबे के पीछे भागना नहीं चाहती थी। जो भी कर्तव्य सौंपा जाएगा मैं उसके प्रति समर्पण करने को तैयार थी। मतदान से पहले, वरिष्ठ अगुआओं ने हम सभी से हमारे विचार साझा करने को कहा। मैंने खुलकर अपनी बात रखी, “भले ही मैंने करीब दस सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है, पर मेरा जीवन प्रवेश उथला है; मेरी प्रकृति अहंकारी है, और मुझे रुतबे की तीव्र चाह है, ऐसे में अगुआ के पद पर होने से मेरे लिए रुतबे के फायदों का आनंद लेना और दूसरों को बेबस करना आसान हो जाएगा। मुझे नहीं लगता कि मैं अगुआ की भूमिका के लिए उपयुक्त हूँ। मैं आप सभी को अपनी वास्तविक स्थिति बता रही हूँ; सिद्धांतों के आधार पर आप मेरा मूल्यांकन कर सकते हैं।” बोलने के बाद, मुझे बहुत शांति महसूस हुई। अंत में, भाई-बहनों ने दो अन्य बहनों को कलीसिया अगुआ चुन लिया, और मुझे सुसमाचार उपयाजक चुना गया। मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना और तहेदिल से अपना कर्तव्य निभाने को तैयार थी। उसके बाद, मैंने अपने सुसमाचार कार्य पर ध्यान दिया। दो कलीसिया अगुआओं ने हाल ही में अभ्यास करना शुरू किया था, और जब मैंने देखा कि उनके कार्य के कुछ पहलू उपयुक्त नहीं थे, तो मैंने इसे ठीक करने के लिए इस मामले को सामने लाकर उनसे संगति की। मुझे लगा कि यह रवैया अच्छा है।
इससे पहले, जब भी मैं किसी को अगुआ पद पर देखती, तो बेचैन हो जाती थी, अगुआ पद को अपने अनुसरण का लक्ष्य मानती थी। अब मैं समझ गई कि केवल सत्य का अनुसरण करके ही उद्धार पाया जा सकता है। रुतबे के पीछे भागना निरर्थक है। मैंने अपने दिल की गहराइयों से रुतबे की अपनी चाह को त्यागना सीख लिया। चाहे कोई भी अगुआ बने, मैं उनके साथ सही ढंग से पेश आ सकती हूँ। मैं सिर्फ दृढ़ता से सत्य का अनुसरण करना, अच्छे से अपने कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के दिल को सुकून देना चाहती हूँ।