49. एक अलग तरह का आशीष

ताओ लियांग, चीन

मैं बचपन से ही हेपेटाइटिस-बी से पीड़ित हूँ। इसके इलाज के लिए मैं तमाम तरह के डॉक्टरों और दवाइयों के पीछे भागी और बहुत सारा पैसा भी खर्च किया, फिर भी यह ठीक नहीं हुआ। अंत में एक डॉक्टर ने असहाय होकर मुझसे कहा, “यह बीमारी हर जगह के डॉक्टरों के लिए धर्मसंकट बनी हुई है; इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है।” मैं बिल्कुल निराश हो गई। लेकिन मेरे आश्चर्य का तब कोई ठिकाना नहीं रहा जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के साल भर बाद मैं चमत्कारिक रूप से ठीक हो गई। तब डॉक्टर ने मेरी जाँच रिपोर्ट देखकर बताया कि मैं हर पैमाने पर अपने आप ठीक हो गई हूँ और भविष्य में मुझे कोई भी दवा लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सुनकर मैं फूली नहीं समाई और मेरा दिल जानता था कि मुझे इस बीमारी से मुक्ति परमेश्वर ने दिलाई है। परमेश्वर के प्रति मैं कृतज्ञता और प्रशंसा के भाव से भर गई और मैंने मन ही मन सोचा, “परमेश्वर ने वास्तव में मुझ पर अनुग्रह कर आशीष दिया है। मुझे पूरी मेहनत कर खुद को उसके लिए खपाना है और अपना कर्तव्य निभाकर उसके प्रेम का ऋण चुकाना है।” मैंने यह भी सोचा, “मैंने अभी-अभी परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया है और अभी उसके लिए कुछ करना है, लेकिन उसने पहले ही मेरे ऊपर इतना अनुग्रह और कृपा कर दी है। अगर मैं भविष्य में खुद को उसके लिए और ज्यादा खपाऊँ तो क्या वह मुझ पर और भी अधिक अनुग्रह और आशीष नहीं बरसाएगा? हो सकता है कि परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर मैं उद्धार पाने और जीते रहने में सक्षम रहूँ!” यह सोचकर मैंने अपनी ऊँची कमाई वाली नौकरी छोड़ दी और पूर्णकालिक रूप से कलीसिया में कर्तव्य निभाने लगी। इसके बाद मुझे एक कलीसिया अगुआ के रूप में चुन लिया गया और मैं खुद को त्यागने और खपाने के लिए और भी अधिक प्रेरित हो गई। मैं रोज खुद को कलीसिया में व्यस्त रखती थी और सुबह से लेकर शाम ढलने तक काम करती थी। मैं सुसमाचार प्रचार करती थी और नए सदस्यों को सींचती थी, मेरे पास अपने बच्चे की देखभाल करने तक का समय नहीं होता था। यहाँ तक कि जब मेरे पति को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और मेरे पिता को घर से दूर जाकर दो बार सर्जरी करानी पड़ी तो भी मैं उनकी देखभाल करने का समय नहीं निकाल पाई। मेरे परिवार के सदस्य मुझे नहीं समझते थे और मुझसे शिकायत करते थे लेकिन अपना कर्तव्य निभाने का मेरा दृढ़ निश्चय कमजोर नहीं पड़ा। मुझे लगता था कि अगर मैंने यह कष्ट सह लिया और यह कीमत चुका दी तो परमेश्वर इस पर गौर करेगा और मेरे साथ अनुचित व्यवहार नहीं करेगा।

2015 की शुरुआत में मुझे अक्सर ऐसा लगता था कि मेरे पूरे शरीर में स्फूर्ति नहीं बची है। खाली हाथ पाँचवीं मंजिल तक चढ़ने में भी मुझे ऊपर जाने से पहले सुस्ताना पड़ता था। सभाओं के बाद जब मैं घर जाती थी तो मैं बस लेट जाना चाहती थी और कुछ भी करने का मेरा मन नहीं करता था। अपनी जाँच कराने मैं अस्पताल गई तो डॉक्टर ने बताया कि मेरा जिगर सामान्य रूप से काम नहीं कर रहा है। अगर मैंने तुरंत उपचार न कराया तो यह जिगर के सिरोसिस और पेट में पानी भरने की समस्या में बदल सकता है और अगर रोग बिगड़ गया तो यह कैंसर बन सकता है। डॉक्टर की बात सुनकर मैं सन्न रह गई। मैंने मन ही मन सोचा, “ऐसा कैसे हो सकता है? जब मैंने पहले जाँचें कराई थीं तो क्या डॉक्टर ने यह नहीं कहा था कि मेरी बीमारी ठीक हो गई है? यह फिर से क्यों बिगड़ गई है?” तभी मुझे याद आया कि मैंने जिगर के कैंसर से एक व्यक्ति की मौत के बारे में सुना था। मैं बहुत घबरा गई और इस आशंका में डूब गई कि मेरी बीमारी इतनी गंभीर है, इसलिए शायद मैं भी मर जाऊँगी। मैंने सोचा, “अगर मैं अभी मर गई तो क्या तब भी उद्धार पा सकूँगी?” उस समय मेरा दिल दर्द से कराह रहा था। लेकिन मैंने यह भी सोचा कि चूँकि मैं अब एक कलीसिया अगुआ हूँ, पूरे दिन सुबह से देर शाम तक कलीसिया में व्यस्त रहती हूँ, इसलिए परमेश्वर को मेरी परवाह और रक्षा करनी चाहिए और मुझे मरने से बचाना चाहिए। उन कुछ दिनों में अपनी जान-पहचान वाली एक बुजुर्ग बहन से मेरी भेंट हुई उसने बताया कि कई बरस पहले उसे ल्यूकेमिया हुआ था और उसमें कैंसर के मार्कर काफी ऊँचे थे। अपने कमजोर पलों में वह अक्सर परमेश्वर के वचनों के भजन गाती थी, उसके वचनों से परमेश्वर की संप्रभुता की कुछ समझ हासिल करती थी और आस्था हासिल करती थी। उसने अपने कर्तव्य में अपनी मंशाओं और अशुद्धताओं पर भी आत्मचिंतन किया और जब उसे कुछ आत्मज्ञान हो गया तो उसकी बीमारी धीरे-धीरे सुधरने लगी। इस बहन के अनुभव के बारे में सुनकर मुझे लगा कि हो सकता है कि मेरी यह बीमारी परमेश्वर का परीक्षण हो और वह मुझे परख रहा हो। मुझे परमेश्वर को बिल्कुल नहीं कोसना चाहिए; मुझे उसकी गवाही में अडिग रहना होगा। हो सकता है कि परमेश्वर यह देख ले कि मैं इतनी गंभीर बीमारी के बावजूद अपने कर्तव्य में डटने में सक्षम हूँ और फिर वह मुझे ठीक कर दे। इसलिए मैंने अस्पताल में न रुकने का फैसला किया, सिर्फ कुछ दवाइयाँ लीं और फिर कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा।

सितंबर 2017 में मैं एक और जाँच के लिए अस्पताल गई और डॉक्टर ने मुझे बताया, “तुम्हें अब शुरुआती चरण का सिरोसिस है और तुम्हारे जिगर में गाँठें और फोड़े हैं। आगे की जाँचें कराना बेहतर रहेगा।” डॉक्टर की बात सुनकर मेरा दिमाग भिनभिनाने लगा और मुझे लगा, “मेरे परिवार में जिगर की बीमारी का इतिहास रहा है। बहुत पहले मेरे दादा जिगर के कैंसर से मरे और पिछले दिनों मेरे पिता भी जिगर में कैंसर की गाँठें बनने के कारण चल बसे। अब मेरे जिगर में भी गाँठें हैं; कहीं मैं भी बहुत जल्दी तो नहीं मरने वाली हूँ?” उस समय मैं बहुत ही घबराई हुई थी और सोचने लगी, “मैं अभी तीस साल के पार ही हुई हूँ; क्या मैं वाकई मरने वाली हूँ? अभी तो परमेश्वर का कार्य भी समाप्त नहीं हुआ है और मैं पहले ही मौत की कगार पर पहुँच चुकी हूँ। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर मुझे हटा देगा और मैं उद्धार नहीं पा सकूँगी?” यह सोचकर मैं अब और अपने आँसू नहीं रोक पाई। जब मैं पैदल घर लौट रही थी तो मैंने परमेश्वर में अपने बरसों के विश्वास के बारे में सोचा। मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए ऊँची कमाई वाली नौकरी छोड़ दी थी और खुद को सुबह से देर शाम तक कलीसिया में व्यस्त रखा। मेरे पास अपने बच्चे की देखभाल का समय नहीं था और जब मेरे पति और पिता की सर्जरी हुई तो तब भी मैं अपने कर्तव्य में देरी करने के लिए तैयार नहीं थी। मेरे घरवाले मुझे नहीं समझते थे और मुझसे शिकायत करते थे लेकिन मैं अपने कर्तव्य में डटी रही। इन बरसों में मैंने खुद को इतना ज्यादा खपाया था; परमेश्वर मेरी परवाह या रक्षा क्यों नहीं कर रहा था और यहाँ तक कि मेरी बीमारी को बिगड़ने क्यों दे रहा था? क्या इसका कारण यह था कि मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया और इसलिए परमेश्वर मुझ पर ध्यान नहीं दे रहा था और मुझे मरने के लिए छोड़ रहा था? मैं इतनी कम उम्र में मरने के लिए तैयार नहीं थी; मैं परमेश्वर का कार्य पूरा होने तक इंतजार करना चाहती थी ताकि मैं जीवित रहूँ और राज्य में प्रवेश कर सकूँ!

उस रात मैं बिस्तर में करवटें बदलती रही और सो नहीं पाई। अपनी बगल में अपने बच्चे को गहरी नींद में सोते देखकर मैं बहुत ही दुखी और परेशान हो गई। मैं नहीं जानती थी कि और कितने समय मैं उसका साथ दे सकती हूँ और मुझे ऐसा लगा कि मृत्यु कभी भी मेरे सिर पर आकर बैठ सकती है। मैं बहुत ही दुखी और लाचार थी। उन चंद दिनों के दौरान मेरी सहयोगी बहन ने देखा कि मेरी दशा बहुत खराब है तो उसने मेरे साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति की, लेकिन यह मेरे एक कान से अंदर आकर दूसरे कान से बाहर निकल गई और मैं बस यही उम्मीद लगाए रही कि परमेश्वर मुझे इस आधार पर मेरी बीमारी से मुक्ति दिला सकता है कि मैंने इतने गंभीर रूप से बीमार होने पर भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा। उस दौरान मैं हमेशा बहुत मायूस रहती थी, खासकर तब जब मैं यह देखती थी कि मेरे नजदीकी कुछ भाई-बहनों ने मेरे जितना त्याग नहीं किया है और खुद को नहीं खपाया है, फिर भी उनकी सेहत बहुत अच्छी है और वे मेरे जितने गंभीर बीमार नहीं हैं। मैंने सोचा कि शायद परमेश्वर मुझे बेनकाब करने और हटाने के लिए इस बीमारी का इस्तेमाल कर रहा है। मैं इस हद तक हताश हो चली थी कि अब मैं अपने कर्तव्य में पहले जैसी मेहनती नहीं रही। अपना कर्तव्य निभाते समय अगर देर हो जाती थी या मैं थोड़ी-सी भी थक जाती थी तो इस बात से डरने लगती थी कि मेरा शरीर निचुड़ रहा है और कभी-कभी मैं जिस काम को तेजी से पूरा कर सकती थी, उसे अगले दिन के लिए टाल दिया करती थी। मुझे लगता था, “मेरे और ज्यादा मेहनत करने की तुक ही क्या है? मैंने इतने साल कष्ट सहा और खुद को खपाया, आखिरकार मेरी बीमारी ठीक नहीं हुई और समय आने पर मुझे मरना ही पड़ेगा।” यहाँ तक कि मैं अगुआ को बता देना चाहती थी कि मैं अपना कर्तव्य छोड़ने वाली हूँ ताकि ठीक से स्वास्थ्य लाभ कर सकूँ और हालाँकि मैंने ऐसा किया नहीं लेकिन मेरा दिल परमेश्वर से दूर होता गया। प्रार्थना करते हुए मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं होता था और मैं परमेश्वर के वचन पहले जैसे अक्सर नहीं पढ़ती थी। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। मुझे रिहा करने के बाद भी पुलिस मेरी निगरानी करती थी, इसलिए मुझे देश के दूसरे हिस्से में काम करने जाना पड़ा। मैं अविश्वासियों को देखती थी जो खूब सेहतमंद थे और पूरे दमखम से अपना काम करते थे जबकि मैं अपनी पीली पड़ती काया के साथ बिल्कुल अशक्त थी। मैं अपने दिल में तर्क-वितर्क किए बिना रह नहीं पाती थी और सोचती थी, “इन बरसों में मैंने खुद को परमेश्वर के लिए इतना ज्यादा खपाया है। यहाँ तक कि जब कम्युनिस्ट पार्टी ने मुझे गिरफ्तार किया तो भी मैंने परमेश्वर के नाम को नहीं नकारा और अपनी गवाही में अडिग रही। परमेश्वर मेरी परवाह क्यों नहीं कर रहा है, मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहा है और तेजी से बीमारी से उबरने में मेरी मदद क्यों नहीं कर रहा है?” मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर के साथ इस तरह तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए लेकिन मैंने सत्य नहीं खोजा और मैंने अपनी दशा का समाधान किए बिना यूँ ही बहुत समय बिता दिया।

बाद में मैंने कुछ अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखकर जाना कि कुछ भाई-बहन बीमारी के बीच आत्मचिंतन करने और सत्य खोजने और यहाँ तक कि अपने लाभों के बारे में लिखने में भी सक्षम रहे थे। मुझे वाकई उनसे ईर्ष्या हुई और मैं बहुत विचलित हो गई। मुझे भी बीमारी का अनुभव हुआ था लेकिन सत्य नहीं खोजा और आज तक मुझे कुछ भी हासिल नहीं हुआ था। मैंने परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, इन भाई-बहनों की तरह मैं भी बीमारी के बीच सबक सीखना चाहती हूँ। मुझे मार्गदर्शन और मदद दो।” एक दिन मैंने “पीड़ा के बीच आनंद पाना” नामक फिल्म देखी जिसमें एक बहन को बीमारी के बीच परमेश्वर के प्रेम का पता चलता है और वह यह समझ जाती है कि परमेश्वर उसे पूर्ण बनाने और बदलने के लिए उसकी बीमारी का इस्तेमाल कर रहा है। अंत में इस अनुभव के कारण वह पश्चात्ताप कर खुद में परिवर्तन लाती है। उसकी छोटी बहन उससे कहती है, “तुम इतनी धन्य हो! तुम्हें बदलने और पूर्ण बनाने के लिए इस तरह परीक्षणों से गुजारने और शोधन करने का मतलब यह है कि परमेश्वर जरूर तुमसे इतना अधिक प्रेम करता होगा! मुझे बहुत ईर्ष्या हो रही है! परमेश्वर कब मुझे इस तरह आशीष देगा?” यह सुनकर मुझे काफी प्रेरणा मिली और मुझे शर्मिंदगी भी बहुत हुई। मैं हमेशा यही सोचती थी कि इतनी गंभीर बीमारी होने का मतलब है कि परमेश्वर मेरा तिरस्कार और मुझसे घृणा करता है, कि वह मुझे बेनकाब करने और हटाने के लिए इस बीमारी का इस्तेमाल कर रहा है। उस बहन की समझ से तुलना करूँ तो चीजों को लेकर मेरा दृष्टिकोण निहायत मूर्खतापूर्ण था! भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “यदि परमेश्वर तुम से प्रेम करता है, तो वह अक्सर तुम्हें ताड़ना देकर, तुम्हें अनुशासित कर और तुम्हारी काट-छाँट करके इसे व्यक्त करता है। हालाँकि ताड़ना और अनुशासन के बीच तुम्हारे दिन बेआराम गुजर सकते हैं, लेकिन एक बार इसका अनुभव कर लेने के बाद तुम्हें पता चलेगा कि तुमने बहुत कुछ सीखा है, लोगों से मिलते-जुलते समय तुम उन्हें पहचान सकते हो, तुम समझदार बन जाते हो, तुम यह भी जान लेते हो कि तुमने कुछ सत्य समझ लिए हैं। यदि परमेश्वर का प्रेम एक माँ या पिता के प्रेम जैसा होता, जैसा कि तुम्हें लगता है, अगर वह देखभाल में बहुत ही सच्चा होता, और निरंतर अनुग्रहशील होता, तो क्या तुम ये चीजें हासिल कर पाते? तुम नहीं कर पाते। और इसलिए परमेश्वर का प्रेम जिसे लोग समझ सकते हैं वह परमेश्वर के उस सच्चे प्रेम से भिन्न होता है, जिसका वे उसके कार्य में अनुभव कर सकते हैं; लोगों को इससे परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश आना चाहिए, और उसके वचनों में सत्य को खोजना चाहिए ताकि वे जान सकें कि सच्चा प्रेम क्या है। यदि वे सत्य को न खोजें, तो कोई भ्रष्ट प्रवृति का व्यक्ति, अचानक यह कैसे समझ सकेगा कि परमेश्वर का प्रेम क्या है, मनुष्य में उसके कार्य का उद्देश्य क्या है और उसके श्रमसाध्य इरादे किस बारे में हैं? लोग इन बातों को कभी नहीं समझेंगे। परमेश्वर के कार्य को लेकर लोगों के मन में इस गलतफहमी के होने की संभावना सबसे ज्यादा होती है, और यही परमेश्वर के सार का वह पहलू है जिसे समझ पाना लोगों को बहुत मुश्किल लगता है। लोगों को खुद इसका गहन अनुभव करना चाहिए, और इसके साथ व्यावहारिक ढंग से जुड़ कर इसे सराहना चाहिए, ताकि उसे समझने में समर्थ हो पाएँ। आम तौर पर, जब लोग ‘प्रेम’ कहते हैं, तो उनका अर्थ होता है किसी को वह चीज देना जो उसे पसंद हो, जब वह मीठा चाहते हो, तो उसे कोई कड़वी चीज न देना या कभी-कभार उसे कड़वी चीज दी भी जाए, तो यह किसी बीमारी को ठीक करने के लिए हो; संक्षेप में कहें तो इसमें इंसान का स्वार्थ, उसकी भावनाएँ और सांसारिकता जुड़ी होती हैं; इससे लक्ष्य और अभिप्रेरणाएँ जुड़ी होती हैं। लेकिन परमेश्वर तुममें चाहे जो भी करे, वह तुम्हारा जैसे भी न्याय करे, तुम्हें जैसे भी ताड़ना दे, दंडित और अनुशासित करे, या जैसे भी तुम्हारी काट-छाँट करे, भले ही तुम उसे गलत समझो, मन-ही-मन उसके बारे में शिकायत करो, फिर भी परमेश्वर बिना थके निरंतर धैर्य के साथ तुममें कार्य करता रहेगा। परमेश्वर का इस प्रकार कार्य करने का अंतिम उद्देश्य क्या है? वह तुम्हें जगाने के लिए यह तरीका इस्तेमाल करता है, ताकि किसी दिन तुम परमेश्वर के इरादों को समझ सको। लेकिन इस परिणाम को देख कर परमेश्वर को क्या प्राप्त हुआ है। वास्तव में उसने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है। और मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि तुम्हारा सब कुछ परमेश्वर से आता है। परमेश्वर को कुछ भी हासिल करने की जरूरत नहीं है। उसके लिए बस इतना जरूरी है कि लोग ठीक से अनुसरण करें और उसके कार्य करते समय उसकी अपेक्षाओं के अनुसार प्रवेश करें, ताकि अंततः सत्य वास्तविकता को जीने, मनुष्यता के साथ जीने और अब शैतान द्वारा गुमराह न होने, उसके छल और प्रलोभन में न फँसने, शैतान के विरुद्ध विद्रोह करने, और परमेश्वर को समर्पित हो कर उसकी आराधना करने में समर्थ हो पाएँ और फिर परमेश्वर अति प्रसन्न हो जाए और उसका महान कार्य पूरा हो जाए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि परमेश्वर का प्रेम हमारे माता-पिता या रिश्तेदारों के प्रेम से इस मामले में अलग है कि परमेश्वर बिना किसी सिद्धांत के बस ध्यानपूर्वक हमारी देखभाल करने और सब कुछ सहने में नहीं लगा रहता, न ही वह लोगों को बीमारी और आपदा से बचाने और दूर रखने में ही लगा रहता है। परमेश्वर के प्रेम के प्रति यह सब मेरी गलत समझ थी। परमेश्वर सिर्फ अपनी दया, करुणा और लोगों पर अनुग्रह बरसाने के जरिए अपना प्रेम प्रदर्शित नहीं करता है। वह न्याय और ताड़ना, परीक्षण और शोधन, दंड और अनुशासन का भी इस्तेमाल करता है, ताकि लोगों को सत्य को समझने और अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने में मदद मिले और वे अंततः मानव के समान जी सकें और उसके द्वारा बचाए जा सकें। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं बहुत व्यथित हो गई और आत्म-ग्लानि से भर गई। मैं इतने सारे बरसों से परमेश्वर में विश्वास कर रही थी, फिर भी मुझे बिल्कुल भी यह समझ नहीं थी कि वह किस तरह लोगों से प्रेम करता है और उन्हें बचाता है। मैं केवल यह चाहती थी कि परमेश्वर मुझे अनुग्रह और आशीष दे और बीमारी और आपदा से बचाए, मैं उसके परीक्षण और शोधन या उसके द्वारा शुद्ध और पूर्ण बनाने को स्वीकार नहीं करना चाहती थी। पूरे दो साल तक मैं परमेश्वर के प्रति गलतफहमी में जीती रही, मेरे दिल के द्वार हमेशा उसके लिए बंद रहे। फिर भी परमेश्वर ने मेरी विद्रोहशीलता या भ्रष्टता के आधार पर मुझसे व्यवहार नहीं किया, बल्कि वह मौन रहकर मेरी गलतफहमी और विद्रोह को सहता रहा और चुपचाप मेरा साथ देते हुए मेरे जागने के दिन का इंतजार करता रहा। उसने मेरी मदद करने और मुझे सहारा देने के लिए भाई-बहनों के अनुभवों का इस्तेमाल भी किया और वह मुझे गलतफहमी और मायूसी की दशा से निकालने के लिए मेरा मार्गदर्शन करता रहा। परमेश्वर के इरादे को समझकर मेरा हृदय उसके प्रेम से द्रवित हो गया और मैं अब और स्तब्ध और हठी नहीं रही। मुझे बहुुत आत्म-ग्लानि हुई और लगा कि मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ। परमेश्वर ने मेरी भ्रष्टता प्रकट करने, मुझे शुद्ध करने और बचाने के लिए इन परिस्थितियों की व्यवस्था की थी लेकिन मैंने उसके अच्छे कार्यकलापों को खराब माना, उसे गलत समझती रही और उसके प्रति शिकायतें करती रही। मैं वाकई इतनी अविवेकी थी! मैंने परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना की, उससे क्षमा याचना की और कहा कि मैं उसके सामने पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। मैंने उससे प्रबोधन और मार्गदर्शन देने की विनती भी की ताकि मैं आत्मचिंतन कर खुद को जानने की कोशिश करूँ और इस बीमारी से वो सबक सीख सकूँ जो मुझे सीखने चाहिए।

एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “पहला, जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वाकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीजें प्राप्त करना होता है। लोगों के जीवन अनुभवों में, वे प्रायः मन ही मन सोचते हैं : ‘मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और जीविका का त्याग कर दिया है, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें अवश्य जोड़ना, और इसकी पुष्टि करनी चाहिए—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त किया है? मैंने इस दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बहुत दौड़ा-भागा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कोई प्रतिज्ञाएँ दी हैं? क्या उसने मेरे अच्छे कर्म याद रखे हैं? मेरा अंत क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? ...’ प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और अपने व्यक्तिगत परिणाम के लिए परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं खास स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमजोर, नकारात्मक और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और दायित्व है, जबकि परमेश्वर की जिम्मेदारी मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है ‘परमेश्वर में विश्वास’ की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य के प्रकृति सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है। परमेश्वर चाहे जितनी बड़ी कीमत चुकाए, या वह चाहे जितना अधिक कार्य करे, या वह मनुष्य का चाहे जितना भरण-पोषण करे, मनुष्य इस सबके प्रति अंधा, और सर्वथा उदासीन ही बना रहता है। मनुष्य ने कभी परमेश्वर को अपना हृदय नहीं दिया है, वह अपना हृदय अपने पास ही रखना, स्वयं अपने निर्णय लेना चाहता है—जिसका निहितार्थ यह है कि मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करना, या परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना नहीं चाहता है, न ही वह परमेश्वर के रूप में परमेश्वर की आराधना करना चाहता है। ऐसी है आज मनुष्य की दशा(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों ने परमेश्वर में मेरी आस्था के पीछे बरसों से छिपे घृणित मंसूबे उजागर कर दिए। शुरुआत से ही मैं इसमें आशीष और अनुग्रह पाने आई थी। मैं परमेश्वर के लिए सब कुछ त्यागकर खुद को इसलिए खपा सकी कि मैंने परमेश्वर को मेरी जिगर की बीमारी ठीक करते देख लिया था और मैं यह सोचकर खुश थी कि मुझे ऐसा कोई मिल गया है जिस पर मैं सबसे ज्यादा भरोसा कर सकती हूँ। मैंने परमेश्वर को एक महान चिकित्सक के रूप में, एक सुरक्षित शरण-स्थली के रूप में देखा और मैंने यह व्यर्थ प्रयास किया कि अपने सतही त्याग और खुद को खपाने का इस्तेमाल परमेश्वर से अच्छी सेहत और अच्छी मंजिल जैसे और अधिक प्रतिफल और आशीष पाने के लिए करूँ। खुद को खपाने के पीछे मुझमें ईमानदारी या समर्पण की भावना नहीं थी, परमेश्वर के प्रेम का ऋण चुकाने और उसे संतुष्ट करने की भावना तो और भी कम थी। मैं परमेश्वर को इस्तेमाल करके और उसके साथ धोखाधड़ी करके उसके साथ लेनदेन कर रही थी। मैं शैतानी नियमों के अनुसार जी रही थी, जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” और “व्यक्ति को खपने का ईनाम मिलना ही चाहिए।” मैं बहुत ही स्वार्थी और लालची बन गई थी, हर मामले को अपने हितों के अनुसार देखती थी और मैं जो कुछ भी करती थी उसमें परमेश्वर के साथ हिसाब-किताब करती थी, जैसे, यह हिसाब करना कि मैंने उसके लिए कितना त्याग किया और कितनी कीमत चुकाई और उसने मुझे कितने ज्यादा आशीष दिए हैं। जब मैंने देखा कि परमेश्वर ने मेरी बीमारी ठीक कर दी है तो मैं अपने कर्तव्य में उत्साही हो गई और मुझे लगा कि परमेश्वर के लिए कोई भी त्याग करना लाभप्रद है और जब मैंने डॉक्टर से सुना कि मेरी बीमारी बढ़ गई है तो मैंने अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहा ताकि परमेश्वर मेरी बीमारी को गायब कर दे। लेकिन जब मैंने देखा कि इतने सारे वर्षों तक खुद को खपाने के बाद भी मेरी बीमारी ठीक होने के बजाय और गंभीर होती जा रही है तो मुझे लगा कि आशीष पाने की मेरी इच्छा चकनाचूर हो गई है और मैंने फौरन परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करने और हिसाब बराबर करने के लिए अपने बरसों तक खपने को पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया। मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की कि वह मेरे प्रति धार्मिक नहीं है और मैं अपने कर्तव्य के प्रति पहले जैसी समर्पित नहीं रही। मैंने टालमटोल की और पूरा प्रयास नहीं किया और यहाँ तक कि मैंने अपना कर्तव्य छोड़कर स्वास्थ्य लाभ के लिए घर जाना चाहा। मुझमें वास्तव में कोई जमीर या विवेक नहीं था! मुझे ख्याल आया कि कैसे परमेश्वर ने मुझे इस दुष्ट और अंधकारमय संसार से बचाया था और वह अपने वचनों से मुझे सींचकर, पोसकर और सहारा देकर अपने समक्ष लाया था। उसने मेरी भ्रष्टता प्रकट करने, मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए मेरी बीमारी का इस्तेमाल भी किया था। परमेश्वर ने मेरे लिए इतना कष्टसाध्य प्रयास किया था और इतनी बड़ी कीमत चुकाई थी। लेकिन इतने समय तक परमेश्वर के महानतम उद्धार का निशुल्क आनंद लेने के बाद भी मैंने परमेश्वर का ऋण चुकाने के बारे में सोचना तो दूर रहा, मैं उससे हर चीज अपना हक मानकर लेती चली गई। जब यह पता चला कि मुझे अपनी बीमारी के कारण मौत का खतरा है तो मैं फौरन परमेश्वर के खिलाफ हो गई और उससे तर्क-वितर्क और हिसाब बराबर करने लगी और उसके बारे में यह शिकायत करने लगी कि वह मेरे प्रति धार्मिक नहीं है। मैं परमेश्वर में बरसों से विश्वास करती आ रही थी लेकिन उसे परमेश्वर बिल्कुल नहीं मानती थी। मैं बस एक स्वार्थी, घृणित और नीच इंसान थी जो अपने फायदे को हर चीज से ऊपर महत्व देती है और मुझमें न कहीं कोई मानवता थी, न ही विवेक था।

एक बार मैंने एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो से परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने वाकई मेरे दिल को बेध दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जिनके हृदय में परमेश्वर है, उनकी चाहे किसी भी प्रकार से परीक्षा क्यों न ली जाए, उनकी निष्ठा अपरिवर्तित रहती है; किंतु जिनके हृदय में परमेश्वर नहीं है, वे अपनी देह के लिए परमेश्वर का कार्य लाभदायक न रहने पर परमेश्वर के बारे में अपना दृष्टिकोण बदल लेते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर को छोड़कर चले जाते हैं। इस प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जो अंत में डटे नहीं रहेंगे, जो केवल परमेश्वर के आशीष खोजते हैं और उनमें परमेश्वर के लिए अपने आपको व्यय करने और उसके प्रति समर्पित होने की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे सभी अधम लोगों को परमेश्वर का कार्य समाप्ति पर आने पर बहिष्कृत कर दिया जाएगा, और वे किसी भी प्रकार की सहानुभूति के योग्य नहीं हैं। जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंततः उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुस्कुराते, ‘उदार-हृदय’ व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं। यदि इन पिशाचों को निकाला नहीं जाता, तो ये पिशाच बिना पलक झपकाए हत्या कर देंगे, तो क्या वे एक छिपा हुआ खतरा नहीं बन जाएँगे?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि अच्छी मानवता और अंतरात्मा और विवेक युक्त लोग जब यह देखते हैं कि वे जिस चीज का भी आनंद ले रहे हैं वह उन्हें परमेश्वर ने प्रदान की है तो वे परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य निभाने को तैयार रहेंगे। मूलतः यह बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है, ठीक उसी तरह जैसे बच्चों में जब अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा होती है, तो वे अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा रहे होते हैं और तब उन्हें प्रतिपूर्ति की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए या शर्तें नहीं थोपनी चाहिए। जबकि मानवता रहित लोग परमेश्वर का आभार तब मानते हैं और उसकी प्रशंसा तब करते हैं जब उससे उनके हित सधते हैं और लाभ मिलता है, लेकिन जब उनकी आशीष पाने की इच्छा चकनाचूर हो जाती है तो वे फौरन परमेश्वर के खिलाफ हो जाते हैं, उससे तर्क-वितर्क और हिसाब बराबर करने लगते हैं, यहाँ तक उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं, उसे एक शत्रु मानते हैं और खुलेआम उसके खिलाफ शोर मचाकर उससे दुश्मनी मोल ले लेते हैं। परमेश्वर के वचनों ने जो कुछ उजागर किया, उससे मैंने देखा कि मैं ठीक उसी तरह की इंसान हूँ जिसमें कोई मानवता नहीं होती है। पहले जब परमेश्वर ने मेरी बीमारी ठीक कर दी थी तो मैंने उसका आभार जताया और मैं सब कुछ त्यागने और छोड़ने के लिए तैयार थी, लेकिन जब मुझे सिरोसिस होने का पता चला और मृत्यु का खतरा पैदा हो गया तो मैं फौरन परमेश्वर के खिलाफ हो गई और मैंने अपने बरसों के त्याग और खुद को खपाने को पूँजी के रूप में इस्तेमाल कर ढिठाई से पूछा, “इतना अधिक त्याग करने और खुद को खपाने के बाद भी परमेश्वर मेरी परवाह और रक्षा क्यों नहीं कर रहा है? वह उलटा मेरी बीमारी को क्यों बिगाड़ रहा है? ऐसा क्यों है कि जिन लोगों ने ज्यादा त्याग नहीं किया और खुद को नहीं खपाया वे तो पूरी तरह सेहतमंद हैं जबकि मैं इस गंभीर बीमारी में फँस गई हूँ? ऐसा क्यों है कि परमेश्वर में विश्वास न रखने वाले लोग स्वस्थ हैं लेकिन मैं यहाँ खुद को खपा रही हूँ और सब कुछ त्याग रही हूँ, फिर भी परमेश्वर मुझे जल्दी से ठीक नहीं कर रहा है? यही नहीं, जब कम्युनिस्ट पार्टी ने मुझे गिरफ्तार किया था, तब भी मैंने परमेश्वर को नहीं नकारा और अपनी गवाही में अडिग रही, तो फिर परमेश्वर मुझे बीमारी से निजात क्यों नहीं दिलाता?” क्या मैं परमेश्वर से जोरों से माँग कर उसका विरोध नहीं कर रही थी? मेरे शब्दों का निहितार्थ यह था : “मैं बहुत अधिक त्याग कर चुकी हूँ और खुद को खपा चुकी हूँ, इसलिए परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए। तभी मैं परमेश्वर की धार्मिकता को मानूँगी। अगर मुझे आशीष न मिला तो मैं यह नहीं मानूँगी कि परमेश्वर धार्मिक है।” मैं आशीष देने के लिए परमेश्वर पर दबाव डाल रही थी और उससे माँग कर रही थी और इसमें एक दुष्ट और क्रूर स्वभाव था। सार रूप में देखें तो यह खुलेआम परमेश्वर की अवहेलना करना और उससे दुश्मनी मोल लेना था। क्या मैं ऐसा करके अपनी मौत को बुलावा नहीं दे रही थी? अतीत में पौलुस सब जगह जाकर सुसमाचार फैलाता रहा, कलीसिया स्थापित करता रहा और ढेर सारा कार्य करता रहा लेकिन खुद को त्यागने और खपाने के पीछे उसकी मंशा परमेश्वर को संतुष्ट करने की नहीं थी, एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की मंशा होना तो और भी दूर की बात है। बल्कि वह खुद को खपाने और कार्य करने का इस्तेमाल परमेश्वर से धार्मिकता का मुकुट माँगने के लिए करना चाहता था, इनके बदले स्वर्ग के राज्य के आशीष पाना चाहता था। अनुसरण के पीछे उसका जो दृष्टिकोण था और वह जिस मार्ग पर चला, उनका परमेश्वर ने तिरस्कार और निंदा की और अंत में उसका स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना तो दूर रहा, उसे नरक भेज दिया गया ताकि उसे वह दंड मिले जिसका वह पात्र था। परमेश्वर का सार पवित्र और धार्मिक है और वह लोगों के परिणाम इस आधार पर निर्धारित नहीं करता है कि वे कितनी भाग-दौड़ करते हैं और खुद को खपाते हैं। बल्कि उन्हें बचाया जा सकता है कि नहीं, इसे परमेश्वर इस आधार पर तय करता है कि क्या उनका जीवन स्वभाव बदल सकता है। क्योंकि मुझ जैसा कोई व्यक्ति जो शैतानी भ्रष्ट स्वभावों से भरा हुआ है और आशीष न मिलने पर खुलेआम परमेश्वर से तर्क-वितर्क करता है, पुरजोर माँग करता है और दुश्मनी मोल ले लेता है, अगर वह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना और उसके दंड और अनुशासन का अनुभव न करे, तो भला वह परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने का पात्र कैसे हो सकता है? अंत में ऐसे व्यक्ति को पौलुस की तरह सजा पाने के लिए निश्चित रूप से नरक में भेजा जाएगा! अब मैं समझ गई कि मेरी बीमारी का इस्तेमाल करने के पीछे परमेश्वर का यह उद्देश्य था कि मैं उसका प्रतिरोध करने वाले गलत मार्ग से तुरंत मुँह मोड़ लूँ और मुझे आत्मचिंतन कर खुद को जानने और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में मदद मिले ताकि मैं परमेश्वर का प्रतिरोध न करूँ और अंत में दंड की भागी न बनूँ। परमेश्वर के ईमानदार इरादे को समझकर मुझे गहराई से यह महसूस हुआ कि यह बीमारी मेरे लिए परमेश्वर की सुरक्षा थी, यह एक अलग तरह का आशीष था। मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े : “हर व्यक्ति का जीवन-काल परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया गया है। चिकित्सीय दृष्टिकोण से कोई बीमारी प्राणांतक दिखाई दे सकती है, लेकिन परमेश्वर के नजरिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी बाकी है और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है, तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते। अगर परमेश्वर ने तुम्हें कोई आदेश दिया है, और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है, तो तुम उस बीमारी से भी नहीं मरोगे जो प्राणघातक है—परमेश्वर अभी तुम्हें मरने नहीं देगा। भले ही तुम प्रार्थना न करो, सत्य की तलाश न करो या अपनी बीमारी का इलाज न कराओ—या भले ही तुम अपना इलाज स्थगित कर दो—फिर भी तुम मरोगे नहीं। यह खास तौर से उन लोगों पर लागू होता है जिन्होंने परमेश्वर से एक आदेश प्राप्त किया है : जब तक उनका मिशन पूरा नहीं होता, उन्हें चाहे कोई भी बीमारी हो जाए, वे तुरंत नहीं मरेंगे; वे तब तक जियेँगे जब तक कि उनका मिशन पूरा नहीं हो जाता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मनुष्य का जीवन-मरण परमेश्वर के हाथ में है। परमेश्वर ने बहुत पहले ही यह नियत कर दिया कि मेरा जीवन कितना लंबा चलेगा; इसका एक-एक पल पूर्वनियत था। भले ही मुझे प्राणघातक बीमारी होने का पता चल चुका था या भले ही लोगों की नजरों में मेरे परिवार में हर व्यक्ति की जिगर के कैंसर से मौत हुई थी और इससे बचने के लिए मेरे पास कोई उपाय नहीं था, अगर परमेश्वर के दृष्टिकोण से अभी मेरा समय नहीं आया था और मेरा मिशन अभी पूरा नहीं हुआ था, तो वह मुझे मरने नहीं देगा, न मैं मर पाऊँगी। अगर मेरा मिशन पूरा हो चुका हो और मेरा समय आ चुका हो तो शानदार सेहत और निरोगी होने के बावजूद मुझे मरना पड़ेगा। इसका वास्ता परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण से है, मेरे परिवार की बीमारी के इतिहास से इसका कतई संबंध नहीं है। यह मान लेने पर कि लोगों के जीवन-मरण के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता होती है, मैं मौत के आगे पहले जितनी बेबस नहीं रही। मैं अपने जीवन-मरण को परमेश्वर के हाथ में सौंपकर उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार थी, इससे मेरे दिल को कहीं अधिक सुकून और मुक्ति का एहसास हुआ।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक दूसरा अंश पढ़ा : “बीमारी झेलते वक्त तुम सक्रिय रूप से इलाज की कोशिश कर सकते हो, मगर तुम्हें इसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। तुम्हारी बीमारी का चाहे जितना इलाज हो पाए, यह ठीक हो या नहीं, और अंत में चाहे जो हो, तुम्हें हमेशा समर्पण करना चाहिए, शिकायत नहीं। तुम्हें यही रवैया अपनाना चाहिए, क्योंकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम्हारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। तुम यह नहीं कह सकते, ‘अगर इस बीमारी से मैं ठीक हो गया, तो मैं विश्वास कर लूँगा कि यह परमेश्वर की महान सामर्थ्य है, लेकिन अगर मैं ठीक नहीं हो पाया, तो परमेश्वर से प्रसन्न नहीं होऊँगा। परमेश्वर ने मुझे यह बीमारी क्यों दी? वह यह बीमारी ठीक क्यों नहीं करता? यह बीमारी मुझे ही क्यों हुई, किसी और को क्यों नहीं? मुझे यह नहीं चाहिए! इतनी छोटी उम्र में, इतनी जल्दी मेरी मृत्यु क्यों होनी चाहिए? दूसरे लोगों को कैसे जीते रहने का मौका मिलता है? क्यों?’ मत पूछो क्यों, यह परमेश्वर का आयोजन है। कोई कारण नहीं है, और तुम्हें नहीं पूछना चाहिए कि क्यों? सवाल उठाना विद्रोहपूर्ण बात है, और यह प्रश्न किसी सृजित प्राणी को नहीं पूछना चाहिए। मत पूछो क्यों, क्यों का प्रश्न ही नहीं है। परमेश्वर ने इस तरह चीजों की व्यवस्था की है, चीजों को यूँ नियोजित किया है। अगर तुम पूछोगे क्यों, तो फिर केवल यही कहा जा सकता है कि तुम बहुत ज्यादा विद्रोही हो, बहुत हठी हो। जब तुम किसी बात से असंतुष्ट होते हो, या परमेश्वर तुम्हारे चाहे अनुसार नहीं करता, या तुम्हें अपनी मनमानी नहीं करने देता, तो तुम नाखुश हो जाते हो, नाराज हो जाते हो, और हमेशा पूछते हो क्यों। तो परमेश्वर तुमसे पूछता है, ‘एक सृजित प्राणी के रूप में तुमने अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से क्यों नहीं निभाया? तुमने वफादारी से अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया?’ फिर तुम उसका क्या जवाब दोगे? तुम कहते हो, ‘क्यों का प्रश्न नहीं है। मैं बस ऐसा ही हूँ।’ क्या यह स्वीकार्य है? (नहीं।) परमेश्वर के लिए तुमसे इस तरह बात करना स्वीकार्य है, मगर तुम्हारा परमेश्वर से इस तरह बात करना स्वीकार्य नहीं है। तुम गलत स्थान पर खड़े हो, तुम बेहद नासमझ हो। कोई सृजित प्राणी चाहे जैसी मुश्किलों का सामना करे, यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है कि तुम्हें सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। मिसाल के तौर पर, तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, बड़ा किया, और तुम उन्हें माता-पिता कहते हो—यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है, और ऐसा ही होना चाहिए; क्यों का प्रश्न ही नहीं उठता। तो परमेश्वर तुम्हारे लिए इन सब चीजों का आयोजन करता है, तुम आशीष का आनंद पाते हो या तकलीफें सहते हो, यह भी पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है, और इस बारे में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है। अगर तुम बिल्कुल अंत तक समर्पण कर सकते हो, तो पतरस की तरह उद्धार प्राप्त कर सकते हो। हालाँकि अगर तुम किसी अस्थायी बीमारी के कारण परमेश्वर को दोष दो, उसका परित्याग करो और उसके साथ विश्वासघात करो, तो पहले तुमने जो कुछ छोड़ा, खपाया, अपना कर्तव्य निभाया और कीमत चुकाई, वह व्यर्थ हो जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि पहले की तुम्हारी कड़ी मेहनत ने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने या एक सृजित प्राणी के रूप में उचित स्थान धारण करने के लिए कोई बुनियाद नहीं रखी होगी, और इससे तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं बदला होगा। फिर बीमारी के कारण यह तुम्हें परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की ओर बढ़ाएगा, और तुम्हारा अंत पौलुस जैसा होगा, अंत में दंड पाओगे। इस दृढ़ता का कारण यह है कि तुमने पहले जो कुछ भी किया वह एक ताज पाने और आशीष पाने की खातिर था। आखिर जब तुम बीमारी और मृत्यु का सामना करते हो, अगर तब भी तुम बिना किसी शिकायत के समर्पण कर सकते हो, तो इससे साबित होता है कि पहले तुमने जो कुछ किया वह परमेश्वर के लिए निष्ठा से और इच्छापूर्वक किया था। तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो, और आखिर तुम्हारा समर्पण परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के जीवन का पूर्ण अंत अंकित करेगा, और परमेश्वर इसकी सराहना करता है। इसलिए बीमारी तुम्हें अच्छा अंत दे सकती है, या फिर बुरा अंत; तुम्हें जो अंत मिलता है, वह तुम्हारे अनुसरण के पथ और परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर बहुत ही स्पष्ट ढंग से यह बताता है कि बीमारी का सामना करने पर लोगों को किस तरह अभ्यास करना चाहिए और कैसा मार्ग चुनना चाहिए। अगर कोई बीमार पड़ जाता है तो वह अपना इलाज करा सकता है, परमेश्वर यह नहीं देखना चाहता है कि लोग बीमार हाल जीते हुए अपनी तंदुरुस्ती को लेकर उदास, परेशान और चिंतित रहें, वह ऐसा तो और भी नहीं देखना चाहता है कि लोग पौलुस की तरह बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण न करें, उनमें एक सृजित प्राणी वाला वांछित विवेक न हो और वे परीक्षणों और मुसीबतों का सामना होने पर अपने बरसों के त्याग और खपने को परमेश्वर के साथ लेनदेन करने के लिए पूँजी के रूप में इस्तेमाल करें, उससे धार्मिकता का मुकट माँगें और उससे दुश्मनी मोल लें और जोरों से माँग करें और उसका प्रतिरोध करने के लिए अंत में सजा के सिवाय और कुछ न पा सकें। परमेश्वर तो बस यह चाहता है कि बीमारी का सामना होने पर हम अय्यूब की तरह बन सकें, सृजित प्राणियों के रूप में अडिग रह सकें और अपनी पसंद के विकल्पों और माँगों के बिना परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार कर इनके सामने समर्पण करें। केवल इसी तरीके से कोई व्यक्ति विवेक और मानवता युक्त हो सकता है। आत्मचिंतन करके देखती हूँ तो इस बीमारी रूपी परीक्षणों के दौरान मैं नकारात्मक रही, गलतफहमियों और शिकायतों से भरी रही, यहाँ तक कि मैंने परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होकर उसकी संप्रभुता और आयोजनों से बैर पाल लिया। मैं सचमुच बहुत ही हठी और विद्रोही थी और मुझमें ऐसा कोई विवेक नहीं था जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। मैंने परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैंने अतीत में सत्य का अनुसरण नहीं किया, मैंने आशीष पाने के लिए हमेशा तुम्हारे साथ लेनदेन करने की कोशिश की। अब मैं तुम्हारे ईमानदार इरादे को समझ चुकी हूँ। तुमने मेरी बीमारी का इस्तेमाल मुझे शुद्ध करने और बदलने में किया, अनुसरण को लेकर मेरे गलत विचारों को बदलने में किया। मैं तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ। भले ही मुझमें अय्यूब जैसी मानवता नहीं है, फिर भी मैं उसकी मिसाल का अनुकरण कर तुम्हारी गवाही देने पर अडिग रहना चाहती हूँ। अगर मैं तुमसे शिकायत करती रही तो मेरी विनती है कि तुम मुझे शाप दे देना।” इसके बाद मैं अपनी बीमारी को सही तरह से लेने में सक्षम रही। मैंने जरूरत के अनुसार दवाइयाँ लीं और मैं अपनी हालत के सामने उतनी बेबस नहीं रही और अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने में सक्षम थी।

बाद में जब मैं एक और बार जाँच कराने अस्पताल गई तो डॉक्टर ने कहा कि मुझे पिछली बार सिरोसिस बताने का फैसला थोड़ा अपरिपक्व था और मेरे जिगर में गाँठें ज्यादा नहीं बढ़ी हैं। डॉक्टर ने बताया कि मैं नियमित रूप से जाँच कराने आती रहूँ ताकि मेरी गाँठों के आकार पर उसकी नजर रहे। लेकिन चूँकि पुलिस के पास मेरा यह रिकॉर्ड था कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ और मैं अपना पहचान पत्र दिखा नहीं सकती थी, इसलिए तीन साल से ऊपर बीत गए और मैं जाँच कराने अस्पताल नहीं जा सकी। इस साल की शुरुआत में एक अस्पताल में काम करने वाली बहन ने प्रयोगशाला से मेरी कुछ जाँचें कराने में मदद की। जब जाँच के नतीजे आए तो डॉक्टर ने बताया कि मेरा जिगर ठीक से काम कर रहा है और इससे जुड़ी विभिन्न चीजों का स्तर सामान्य है। यह सुनकर मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना।

इस बीमारी से जुड़े खुलासों का सामना होने पर भले ही मुझे बहुत कष्ट सहना पड़ा, लेकिन मुझे परमेश्वर में अपनी आस्था में आशीष पाने की अपनी मंशा के साथ ही अपने शातिर शैतानी स्वभाव की थोड़ी-सी समझ हासिल हुई। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करके परमेश्वर में अपनी आस्था को लेकर मेरा गलत दृष्टिकोण थोड़ा-बहुत बदल गया। अभी भले ही मेरी बीमारी पूरी तरह ठीक नहीं हुई है, फिर भी मुझमें थोड़ा-सा विवेक आ गया है और मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के लिए तैयार रहती हूँ। अगर मैं इस तरह थोड़ा-थोड़ा करके बदल पा रही हूँ तो इसका सारा श्रेय परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को जाता है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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