50. दिखावे ने मुझे बर्बाद कर दिया

सोंग चुयिंग, चीन

प्रिय बहन,

उम्मीद है कि तुम सकुशल हो!

पिछली बार तुमने पत्र लिखकर पूछा था कि पिछले वर्ष घर से दूर रहकर अपने कर्तव्य करने से मुझे क्या लाभ हुआ। मैंने वाकई कुछ चीजों का अनुभव किया है और मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कुछ समझ मिली है। आज मैं एक अनुभव साझा करना चाहती हूँ जो मुझे पिछली गर्मियों के दौरान हुआ था।

उस समय मैं और बहन माली सिंचन कार्य में सहयोग कर रही थीं। भले ही माली ने अभी इस कर्तव्य में शुरुआत ही की थी, वह मेहनती थी, सीखने के लिए उत्सुक थी और जब उसके सामने ऐसी समस्याएँ आतीं जिन्हें वह समझ नहीं पाती थी तो वह आराम से खुलकर मदद माँग लेती थी। शुरू में माली के सवाल अपेक्षाकृत आसान होते थे और मैं सक्रियता और तत्परता से उनके जवाब दे देती थी। माली यह कहते हुए मेरी प्रशंसा करती थी कि मुझे सिद्धांतों की अच्छी समझ है, जिससे मैं काफी खुश हो जाती थी। बाद में जैसे-जैसे माली सिद्धांतों से परिचित होती गई, वह ऐसे सवाल पूछने लगी जिन्हें मैं पूरी तरह समझ नहीं पाती थी और जब मेरी कुछ राय होती तो भी मुझे यकीन नहीं होता था कि वह सही है या नहीं। मैं डरती थी कि अगर मैंने गलत जवाब दिया तो माली मुझे नीची नजरों से देख सकती है और सोचेगी कि मैं ऐसे मुद्दों को भी साफ नहीं समझ पाती हूँ और कि मुझे सत्य या सिद्धांत नहीं समझ आए, इस कारण जब भी वह सवाल पूछती तो मैं चिंतित हो जाती थी। कुछ सवाल ऐसे थे जिनके बारे में मुझे साफ जानकारी नहीं थी, इसलिए मैं ऐसे दिखावा करती थी कि मैंने सुना ही नहीं क्योंकि मैंने हेडफोन लगा रखा है, मेरा ध्यान अपने कंप्यूटर पर है और माउस ऐसे चलाने लगती थी मानो मैं अपने काम में गहराई से तल्लीन हूँ। अन्य बहनें सोचती थीं कि मुझे सुनाई नहीं दिया है या मैं किसी और चीज में व्यस्त हूँ, इसलिए वे माली के सवालों का जवाब दे देती थीं। उस समय मैं सोचती थी कि मैं काफी चतुर हूँ—इस तरह मेरी कमियाँ दूसरों को नजर नहीं आएँगी और मुझे गलत जवाब देकर प्रतिष्ठा गँवाने की फिक्र नहीं होगी। हालाँकि मुझे थोड़ा अपराध बोध भी होता था। जब माली सवाल पूछती थी तो वह सचमुच मदद माँग रही होती थी, लेकिन मैं जानबूझ कर उसे नजरअंदाज कर देती थी। क्या यह धोखेबाजी नहीं थी? इसके अलावा, भले ही मुझे कुछ समझ न आए, मुझे ईमानदार रहना चाहिए और दूसरों के साथ मिलकर समाधान खोजना चाहिए और संगति करनी चाहिए जिससे काम को और मेरे प्रवेश दोनों को लाभ होगा। लेकिन गलत बोलने और प्रतिष्ठा गँवाने के डर से मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा।

बहन, क्या तुम जानती हो? उस समय मुझे लगता था कि जैसे मैं पाखंडी हूँ, जो हर दिन मुखौटा पहनती है और जिसमें अपना असली रूप दिखाने की हिम्मत नहीं है, जो अपने मुद्दों के प्रकाशन और उनके तुच्छ समझे जाने से डरती है।

बाद में मुझे अपने कर्तव्य में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा और जब नवागंतुक ऐसे सवाल उठाते थे जिनका समाधान मैं नहीं जानती थी, मैं चिंतित हो जाती थी। मैं संगति में खुलना चाहती थी और भाई-बहनों से मदद माँगना चाहती थी, लेकिन मैं डरती थी कि अगर मैंने ऐसा किया तो वे सोचेंगे कि मैं ऐसी बुनियादी समस्याएँ भी नहीं सुलझा पाती हूँ और सत्य नहीं समझती हूँ। माली ने पहले सिद्धांतों के बारे में मेरी समझ की प्रशंसा की थी, इसलिए वह सोच सकती है कि उसने मुझे गलत समझा था। मुझे पता था कि अगर मैं नहीं बोलूँगी तो नवागंतुकों के मुद्दे हल नहीं होंगे और उनका जीवन प्रभावित होगा! लेकिन अपनी मुश्किलों के बारे में खुलकर बात करना बहुत मुश्किल लगा। मुझे लगा कि सक्रियता से अपनी कमियाँ बेनकाब करने से मैं कमजोर दिखूँगी। आखिरकार मैं बोलने के लिए खुद को नहीं मना सकी। चूँकि मुझमें अपनी मुश्किलें प्रकट करने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए नवागंतुकों की समस्याएँ अनसुलझी बनी रहीं, यहाँ तक कि कुछ ने सभाओं में हिस्सा लेना ही बंद कर दिया और मुझे महसूस हुआ कि मैं अपने कर्तव्य में अपर्याप्त थी। मैं नकारात्मक स्थिति में पड़ गई, जो बहुत दर्दनाक थी। उस दौरान मैं अपनी मुश्किलों और अवस्था के बारे में बिना किसी चिंता के खुलकर बात करने के लिए तरसती थी। मैंने खुद से भी पूछा, “सत्य और तथ्यों के बारे में बोलना और सीधे तरीके से कार्य करना इतना मुश्किल क्यों है?”

एक बार मैं और माली चर्चा कर रहे थे कि क्या नवागंतुकों के सिंचन के लिए एक बहन को विकसित किया जा सकता है और मैंने अपना नजरिया साझा किया। इसके बाद मैंने सिद्धांतों पर आत्म-चिंतन किया और मुझे एहसास हुआ कि मेरा नजरिया कुछ हद तक गलत था और इससे माली गुमराह हो सकती है। मैं थोड़ी घबरा गई और सोचने लगी, “अब मुझे क्या करना चाहिए? क्या मुझे इसे सुधारना चाहिए? अगर मैं कुछ नहीं कहती तो माली को पता ही नहीं चलेगा कि मैंने सिद्धांतों को गलत समझा है और मुझे उसके सामने बेइज्जत नहीं होना पड़ेगा। लेकिन अगर मैं ऐसा करती हूँ और हम एक अनुपयुक्त व्यक्ति को विकसित करते हैं तो क्या यह काम के प्रति गैर-जिम्मेदाराना और भाई-बहनों के लिए हानिकारक नहीं होगा?” उस पल मुझे ऐसा लगा कि मैं एक ऐसी दुविधा में फँस गई हूँ जिससे बचा नहीं जा सकता। तब मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना अच्छी बात है। यह तुम्हें अपनी कमियाँ समझने, और अभिमान के प्रति अपना प्रेम देखने में तुम्हारी सहायता करता है। यह तुम्हें दिखाता है कि तुम्हारी समस्याएँ कहाँ हैं और स्पष्ट रूप से यह समझने में मदद करता है कि तुम एक पूर्ण व्यक्ति नहीं हो। कोई भी पूर्ण व्यक्ति नहीं होता और नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बहुत सामान्य है। सभी लोगों के सामने ऐसा समय आता है, जब वे नादानी करके हँसी का पात्र बनते हैं या शर्मिंदा होते हैं। सभी लोग असफल होते हैं, विफलताएँ अनुभव करते हैं और सभी में कमजोरियाँ होती हैं। नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बुरा नहीं है। ... तुम खुद को हँसी का पात्र बना सकते हो, दूसरे खुद को हँसी का पात्र बना सकते हैं, सभी लोग खुद को हँसी का पात्र बना सकते हैं—आखिरकार तुम्हें पता चलेगा कि सब लोग एक समान हैं, सभी साधारण हैं, सभी नश्वर हैं, कोई भी किसी और से बड़ा नहीं है, कोई भी किसी और से बेहतर नहीं है। सभी लोग कभी-कभार खुद को हँसी का पात्र बना लेते हैं, इसलिए किसी को भी किसी दूसरे का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। एक बार जब तुम अनगिनत नाकामयाबियों का अनुभव कर लेते हो, तो तुम अपनी मानवता में थोड़े सयाने हो जाते हो; तो जब भी इन चीजों से तुम्हारा दोबारा सामना होगा, तब तुम विवश नहीं होगे, और इनका तुम्हारे सामान्य कर्तव्य-निर्वाह पर असर नहीं पड़ेगा। तुम्हारी मानवता सामान्य होगी, और तुम्हारी मानवता सामान्य होने पर तुम्हारा विवेक भी सामान्य होगा(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे एहसास कराया कि हममें से कोई भी पूर्ण नहीं है और हर किसी में कमियाँ होती हैं। हमेशा ऐसा समय आता है जब हम अपने काम और समस्याएँ देखने में भटक जाते हैं या मूर्ख प्रतीत होते हैं। ये चीजें बिल्कुल सामान्य हैं। हालाँकि मैं खुद को एक साधारण व्यक्ति के रूप में नहीं देखती थी और अपनी कमियों और खामियों का ठीक से सामना नहीं कर पाती थी। भले ही मैंने सत्य सिद्धांतों को पूरी तरह से नहीं समझा था और माली को दी गई मेरी सलाह में कुछ विचलन थे और मैंने उसे गुमराह किया था, मैं ईमानदारी से अपनी कमियाँ स्वीकारने को अनिच्छुक थी, डरती थी कि वह सोचेगी कि मैं सत्य नहीं समझ पाती और मुझे नीची नजर से देखेगी। अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए मैंने अपनी समस्याएँ छिपाने की कोशिश की, जो कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के प्रति गैर-जिम्मेदाराना था। मैं सचमुच धोखेबाज थी! इसका एहसास होने पर मैंने माली से इस मामले में बेनकाब हुए अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में खुलकर बात की। अपना गलत नजरिया सुधारा, जिसे मैंने पहले साझा किया था और फिर प्रस्ताव दिया कि हम सिद्धांतों के अनुसार फिर से लोगों का चयन करें। बहन, भले ही इस बार मेरी प्रतिष्ठा नहीं बची, लेकिन परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करके मैंने मामला बिगड़ने नहीं दिया और मेरी अंतरात्मा को शांति मिली।

बाद में काम का सारांश देते समय मैंने हिम्मत करके अपनी अवस्था और काम में आने वाली मुश्किलों के बारे में संगति की। मेरी अवस्था सुलझाने में मदद करने के लिए बहनों ने मुझे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा खास होने का ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। “मसीह-विरोधी मानते हैं कि अगर वे बहुत ज्यादा बात करेंगे, लगातार अपने विचार व्यक्त करेंगे और दूसरों के साथ संगति करेंगे, तो हर कोई उनकी असलियत जान जाएगा; उन्हें लगेगा कि मसीह-विरोधी में गहराई नहीं है, वह सिर्फ एक साधारण व्यक्ति है, और उनका सम्मान नहीं करेगा। मसीह-विरोधी के लिए सम्मान खोने का क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है दूसरों के दिलों में अपनी प्रतिष्ठित स्थिति खोना, औसत दर्जे का, अज्ञानी और साधारण दिखना। यही वह है जो मसीह-विरोधी देखने की उम्मीद नहीं करते। इसलिए, जब वे कलीसिया में दूसरों को हमेशा अपनी नकारात्मकता, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह, पिछले दिन की गई गलतियों या आज ईमानदार न होने से होने वाले असहनीय दर्द को स्वीकार करते देखते हैं, तो मसीह-विरोधी इन लोगों को मूर्ख और भोला समझते हैं, क्योंकि वे कभी भी ऐसी बातें स्वीकार नहीं करते, अपने विचारों को छिपाए रखते हैं। कुछ लोग खराब काबिलियत या सरल-मन, जटिल विचारों की कमी के कारण कम बोलते हैं, लेकिन मसीह-विरोधियों का कभी-कभार बोलना इस कारण से नहीं होता; यह स्वभाव की समस्या होती है। वे दूसरों से मिलते समय शायद ही कभी बोलते हैं और आसानी से मामलों पर अपने विचार व्यक्त नहीं करते। वे अपने विचार क्यों व्यक्त नहीं करते? सबसे पहले, उनमें निश्चित रूप से सत्य की कमी होती है और वे चीजों की असलियत नहीं समझ पाते। यदि वे बोले, तो वे गलतियाँ कर सकते हैं और उनकी असलियत सामने आ सकती है; उन्हें नीचा दिखाए जाने का डर होता है, इसलिए वे चुप रहने का दिखावा करते हैं और गंभीरता का ढोंग करते हैं, जिससे दूसरों के लिए उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है, वे बुद्धिमान और प्रतिष्ठित दिखते हैं। इस दिखावे के साथ, लोग मसीह-विरोधी को कम आँकने की हिम्मत नहीं करते, और बाहर से उनके शांत और संयमित रूप को देखकर वे उन्हें और अधिक सम्मान देते हैं और उन्हें तुच्छ समझने की हिम्मत नहीं करते। यह मसीह-विरोधियों का कुटिल और दुष्ट पहलू होता है। वे आसानी से अपने विचार व्यक्त नहीं करते क्योंकि उनके अधिकांश विचार सत्य के अनुरूप नहीं होते, बल्कि केवल मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, जो सबके सामने लाने योग्य नहीं होतीं। इसलिए, वे चुप रहते हैं। अंदर से वे कुछ प्रकाश प्राप्त करने की आशा करते रहते हैं ताकि उसे वे प्रशंसा प्राप्त करने के लिए फैला सकें, लेकिन चूँकि उनके पास इसका अभाव होता है, वे सत्य की संगति के दौरान चुप और छिपे रहते हैं, मौका तलाश रहे भूत की तरह अंधेरे में दुबके रहते हैं। जब वे दूसरों को प्रकाश के बारे में बोलते हुए पाते हैं, तो वे इसे अपना बनाने के तरीके खोज लेते हैं, इसे दूसरे तरीके से व्यक्त करके दिखावा करते हैं। मसीह-विरोधी इतने ही चालाक होते हैं। वे चाहे जो भी करें, वे दूसरों से अलग दिखने और श्रेष्ठ बनने का प्रयास करते हैं, क्योंकि तभी वे प्रसन्न महसूस करते हैं। यदि उन्हें अवसर नहीं मिलता, तो वे पहले चुपचाप रहते हैं, और अपने विचार अपने तक सीमित रखते हैं। यह मसीह-विरोधी लोगों की चालाकी होती है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह)। मैंने मसीह-विरोधियों के बारे में परमेश्वर का प्रकाशन देखा कि वे सत्य नहीं समझते हैं और दूसरों के साथ बातचीत में कभी भी अपनी असलियत नहीं दिखाते हैं, अपनी कमियों और खामियों के उजागर होने और दूसरों के दिलों में अपना रुतबा या छवि गँवाने से डरते हैं, इसलिए वे गंभीर और कुलीन होने का दिखावा करते हैं, खुद को छिपाने और छद्मवेश धारण करने के लिए हरसंभव प्रयास करते हैं, जिससे लोगों के लिए उनकी असलियत जानना मुश्किल हो जाता है। वे कुटिलता से काम लेते हैं और दुष्ट स्वभाव के होते हैं—यही एक मसीह-विरोधी का प्रकृति सार है। मेरी अवस्था और व्यवहार मसीह-विरोधी के समान थे और मैं अक्सर अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए छद्मवेश धारण करती थी। पुरानी बात याद करूँ तो जब माली पहली बार आई थी तो उसने अपेक्षाकृत आसान सवाल पूछे थे और इनका जवाब देने से मेरी कमियाँ उजागर नहीं हुई थीं, इसलिए मैं तत्परता से जवाब दे सकी थी और उससे प्रशंसा पा सकी थी। जैसे ही माली ने कुछ सिद्धांतों में महारत हासिल की, वह ऐसे सवाल पूछने लगी जिन्हें मैं पूरी तरह से नहीं समझती थी। मुझे डर था कि अगर मेरे जवाब गलत हुए तो भाई-बहन मेरी असलियत जान जाएँगे और मैं उनके मन में बनी अपनी छवि गँवा दूँगी। अपनी प्रतिष्ठा गँवाने से बचने के लिए मैंने टालमटोल की तरकीब अपनाई, अपनी कमियाँ छिपाने के लिए व्यस्त होने या सवाल न सुनने का नाटक किया, यहाँ तक कि अपने जवाबों में विचलन होने पर उन्हें छिपाने का भी प्रयास किया। यहाँ तक कि जब मुझे अपने कर्तव्य में मुश्किलों का सामना करना पड़ा और मैं उन्हें सुलझा नहीं सकी, जिससे काम में देरी हुई और मैं निष्क्रिय और कमजोर हो गई, फिर भी मैं खुल कर मदद माँगने से बचती रही। मुझे चिंता थी कि अगर भाई-बहनों को मेरी कमियाँ पता चल गईं, वे सोचेंगे कि मैं सत्य नहीं समझती और वे मुझे नीची नजर से देखेंगे। मेरे काम में पारदर्शिता की कमी, अपनी प्रतिष्ठा और छवि की निरंतर सुरक्षा और अपने गंभीर और भव्य होने का दिखावा करना और दूसरों को गुमराह करने के लिए छद्मवेश अपनाना—ये मसीह-विरोधी स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ थीं! बहन, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरी प्रकृति कितनी पाखंडी और धोखेबाज थी और मेरा मसीह-विरोधी स्वभाव कितना गंभीर था। मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के प्रति भय और घृणा महसूस हुई और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं दूसरों के दिलों में अपनी छवि और रुतबा बनाए रखने के लिए लगातार छद्मवेश धारण करती रही हूँ और मुझमें मनुष्य जैसा कुछ भी नहीं है, जिससे तुम मुझसे घृणा करते हो। परमेश्वर, मेरी भ्रष्टता बहुत गहरी है। मैं प्रार्थना करती हूँ कि तुम मुझे बचाओ और मुझे खुद को पहचानने और अपना भ्रष्ट स्वभाव उतार फेंकने में मेरी मदद करो।”

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के मूल की कुछ समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब परिवार के बुजुर्ग अक्सर तुमसे कहते हैं कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ तो यह इसलिए होता है ताकि तुम अच्छी प्रतिष्ठा रखने और गौरवपूर्ण जीवन जीने को अहमियत दो और ऐसे काम मत करो जिनसे तुम्हारी बदनामी हो। तो यह कहावत लोगों को सकारात्मक दिशा की ओर लेकर जाती है या नकारात्मक? क्या यह तुम्हें सत्य की ओर ले जा सकती है? क्या यह तुम्हें सत्य समझने की ओर ले जा सकती है? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) तुम यकीन से कह सकते हो, ‘नहीं, नहीं ले जा सकती!’ जरा सोचो, परमेश्वर कहता है कि लोगों को ईमानदार लोगों की तरह आचरण करना चाहिए। अगर तुमने कोई अपराध किया है या कुछ गलत किया है या कुछ ऐसा किया है जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है या सत्य के विरुद्ध जाता है, तो तुम्हें अपनी गलती स्वीकारनी होगी, खुद को समझना होगा, और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए खुद का विश्लेषण करते रहना होगा और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना होगा। अगर लोग ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करें, तो क्या यह इस कहावत के विरुद्ध नहीं होगा कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है’? (हाँ।) यह इसके विरुद्ध कैसे होगा? ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ इस कहावत का उद्देश्य यह है कि लोग उज्ज्वल और रंगीन जीवन जिएँ और ऐसे काम ज्यादा करें जिनसे उनकी छवि बेहतर होती है—उन्हें बुरे या अपमानजनक काम या ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिनसे उनका कुरूप चेहरा उजागर हो—और वे आत्मसम्मान या गरिमा के साथ न जी पाएँ। अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, अपने गौरव और सम्मान की खातिर, व्यक्ति को अपने बारे में सब कुछ नहीं बताना चाहिए, और दूसरों को अपने अँधेरे पक्ष और शर्मनाक पहलुओं के बारे में तो कतई नहीं बताना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति को आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीना चाहिए। गरिमावान होने के लिए अच्छी प्रतिष्ठा होना जरूरी है, और अच्छी प्रतिष्ठा पाने के लिए व्यक्ति को मुखौटा लगाना और अच्छे कपड़े पहनकर दिखाना होता है। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के विरुद्ध नहीं है? (हाँ।) जब तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करते हो, तो तुम जो भी करते हो वह इस कहावत से बिल्कुल अलग होता है, ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।’ ... लेकिन जब तुम यह सत्य और परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हो, तो तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजें तुम पर हावी हो जाती हैं। इसलिए, जब तुम कुछ गलत करते हो, तो उस पर पर्दा डालकर यह सोचते हुए दिखावा करते हो, ‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूँगा, और अगर कोई इस बारे में जानता है मैं उसे भी कुछ नहीं कहने दूँगा। अगर तुममें से किसी ने कुछ भी कहा, तो मैं तुम्हें आसानी से नहीं छोडूँगा। मेरी प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा जरूरी है। जीने का मतलब तभी है जब हम अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जिएँ, क्योंकि यह किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, तो वह अपनी सारी गरिमा खो देता है। तो तुम जो सच है वह नहीं बता सकते, तुम्हें झूठ का सहारा लेना होगा और चीजों को छुपाना होगा, वरना तुम अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा खो बैठोगे, और तुम्हारा जीवन निरर्थक हो जाएगा। अगर कोई तुम्हारा सम्मान नहीं करता है, तो तुम एकदम बेकार हो, सिर्फ रास्ते का कचरा हो।’ क्या इस तरह अभ्यास करके ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना मुमकिन है? क्या पूरी खुलकर बोलना और अपना विश्लेषण करना मुमकिन है? (नहीं, मुमकिन नहीं है।) बेशक, ऐसा करके तुम इस कहावत का पालन कर रहे हो, ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ जैसा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें सिखाया है। हालाँकि, अगर तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के लिए इस कहावत को त्याग देते हो, तो फिर यह तुम्हें प्रभावित नहीं करेगी, और यह कोई काम करने के लिए तुम्हारा आदर्श वाक्य या सिद्धांत भी नहीं रहेगी, बल्कि तुम जो भी करोगे वह इस कहावत से बिल्कुल विपरीत होगा कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।’ तुम न तो अपनी प्रतिष्ठा की खातिर और न ही अपनी गरिमा की खातिर जियोगे, बल्कि तुम सत्य का अनुसरण करने और ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के लिए जियोगे, और परमेश्वर को संतुष्ट करके एक सच्चे सृजित प्राणी की तरह जीने की कोशिश करोगे। अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करते हो, तो तुम अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों से मुक्त हो जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मैं इस कहावत के अनुसार जीती रही थी कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” इसे मैंने अपने जीवन का आदर्श वाक्य मान लिया था। बचपन से ही मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” “प्रतिष्ठा अनमोल है,” और “चाहे कुछ भी हो जाए किसी को भी अपनी प्रतिष्ठा नहीं गँवानी चाहिए।” मेरे माता-पिता की दीर्घकालिक शिक्षाओं और गलत विचारों से प्रभावित होकर मैं प्रतिष्ठा को सबसे अहम चीज मानने लगी थी, मानती थी कि गरिमा और सम्मान के साथ जीने का मतलब प्रतिष्ठा पाना और लोगों से प्रशंसा और सम्मान अर्जित करना है। मुझे याद है जब मैं स्कूल में थी तो संगीत की एक कक्षा के दौरान मुझसे मंच पर गाने के लिए कहा गया था। एक सहपाठी ने कहा कि मैंने ऐसे गाया जैसे मैं कोई पाठ पढ़ रही थी। मुझे सार्वजनिक रूप से अपमानित महसूस हुआ, मानो मुझे तमाचा जड़ दिया गया हो और मैंने सोचा कि जमीन फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ। तब से मैंने फिर कभी नहीं गाया ताकि दूसरों को पता न चले कि मैं बेसुरी हूँ। जब मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया तो मुझे पता चला कि परमेश्वर ईमानदारी को महत्व देता है, लेकिन मैं इस शैतानी फलसफे के अनुसार जीती रही कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” मैं कथनी और करनी को अपनी इज्जत और रुतबे पर उसके प्रभाव से तोलती थी। अगर इससे मेरी कमियाँ बेनकाब होतीं और मुझे शर्मिंदगी उठानी पड़ती तो मैं खुद को छिपाने और छद्मवेश धारण करने की हर संभव कोशिश करती थी, यहाँ तक कि प्रतिष्ठा गँवाने के बजाय कलीसिया के काम में देरी करना और भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाना पसंद करती थी। मैं धूर्त, धोखेबाज और स्वार्थी बन गई थी और किसी सच्चे मनुष्य के समान नहीं जीती थी। परमेश्वर ने मुझे अपने कर्तव्य निभाने का अवसर दिया था, इसका उद्देश्य सत्य तलाशने और वास्तविक मुद्दे सुलझाने में मेरी मदद करना था। मेरी कई कमियों के बावजूद अगर मैं अपना अभिमान त्याग सकूँ, खुल सकूँ और संगति खोज सकूँ तो मुझे कुछ समझ मिलेगी और सत्य में प्रवेश मिलेगा और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए सिद्धांतों में तेजी से महारत हासिल कर सकूँगी। हालाँकि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत परवाह करती थी। मुश्किलों का सामना होने पर मैं खुलकर नहीं बोलती थी, खोज नहीं करती थी या अपने गलत नजरिए पर खुले तौर पर संगति नहीं करती थी, परिणामस्वरूप मुद्दे अनसुलझे रह जाते थे, सत्य या सिद्धांतों में कोई प्रगति नहीं होती थी और सत्य पाने के कई अवसर चूक जाते थे। मैं अपनी प्रतिष्ठा को किसी भी अन्य चीज से ज्यादा अहमियत देती थी और अपनी छवि की खातिर ईमानदारी का एक शब्द भी नहीं बोल पाती थी। मैं गरिमाहीन जीवन जीती थी, जिससे न केवल मेरे जीवन प्रवेश में देरी हुई बल्कि कलीसिया के काम को भी नुकसान पहुँचा। मैं अब अपने भ्रष्ट स्वभावों से बँधकर नहीं जीना चाहती थी और सत्य का अभ्यास करना और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहती थी।

बाद में अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और अभ्यास का मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “अगर तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना चाहते हो, तो आत्मसम्मान को अहमियत मत दो; व्यक्ति के आत्मसम्मान की कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है। सत्य से सामना होने पर, व्यक्ति को मुखौटा लगाने या झूठी छवि बनाए रखने के बजाय, खुद को उजागर कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपने सच्चे विचारों, अपनी गलतियों, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले पहलुओं वगैरह को परमेश्वर के सामने प्रकट कर देना चाहिए, और अपने भाई-बहनों के सामने भी इनका खुलासा करना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीने का मामला नहीं, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करने, सत्य का अनुसरण करने, एक सच्चा सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर को संतुष्ट करने और बचाए जाने की खातिर जीने का मामला है। ... तुम न तो अपनी प्रतिष्ठा की खातिर और न ही अपनी गरिमा की खातिर जियोगे, बल्कि तुम सत्य का अनुसरण करने और ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के लिए जियोगे, और परमेश्वर को संतुष्ट करके एक सच्चे सृजित प्राणी की तरह जीने की कोशिश करोगे। अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करते हो, तो तुम अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों से मुक्त हो जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे एक व्यक्ति के रूप में आचरण करने के अभ्यास के सिद्धांत समझाए। परमेश्वर को ईमानदार लोग पसंद हैं। चाहे दूसरों के साथ बातचीत करनी हो या अपने कर्तव्य करने हों, हमें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर छद्मवेश धारण नहीं करना चाहिए या अपनी कमियों और अपर्याप्तताओं को छिपाना नहीं चाहिए, भले ही हम गलतियाँ करें या सत्य नहीं समझें और चीजों को साफ नहीं देख पाएँ, हमें इसे छिपाना या गुप्त नहीं रखना चाहिए। इसके बजाय हमें खुला और ईमानदार होना चाहिए, जो हम साफ नहीं देख सकते उसे स्वीकारना चाहिए और अपनी समझ के अनुसार बोलना चाहिए। अगर हमारे द्वारा दिए गए सुझाव या नजरिए में विचलन हैं तो हमें दिखावा करते हुए जीने के बजाय शांति से उनका सामना करना चाहिए और भाई-बहनों का मार्गदर्शन स्वीकारना चाहिए। अपनी मुश्किलों और कमियों के बारे में खुलकर बात करना शर्म की बात नहीं है, न ही यह कमजोरी की निशानी है। यह सत्य की खोज की अभिव्यक्ति है। अपनी कमियों का सही ढंग से सामना करना और सत्य का अभ्यास करने के लिए अपना अहंकार त्यागना हमें स्पष्टवादी बनाता है और सत्य वास्तविकता में शीघ्र प्रवेश में मदद करता है। परमेश्वर के ये वचन पढ़ने के बाद मुझे लगा कि मेरे पास अभ्यास करने का मार्ग है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं ईमानदार व्यक्ति नहीं हूँ। मैंने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए बहुत से पाखंडी और कपटी काम किए हैं, जिससे तुम्हें घिन आती है और घृणा होती है। मैं पश्चात्ताप करना, सत्य का अनुसरण करना और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहती हूँ।”

एक दिन जब मैं कई भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य कर रही थी, माली ने संगति की माँग करते हुए एक सवाल पूछा। सुनने के बाद मुझे लगा कि यह थोड़ा चुनौतीपूर्ण है और मुझे यकीन नहीं था कि मेरा विचार उचित है या नहीं। मुझे फिर घबराहट होने लगी, सोचने लगी “मुझे जवाब देना चाहिए या नहीं? अगर मैं अच्छा जवाब नहीं दूँगी तो क्या मेरी प्रतिष्ठा चली जाएगी? शायद मुझे अन्य बहनों के जवाब की प्रतीक्षा करनी चाहिए।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं चुप रहती हूँ, बच निकलती हूँ और अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए छद्मवेश धारण करती हूँ तो मैं अब भी भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीती रहूँगी।” मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया : “तुम लोगों का ईमानदार व्यक्ति बनने का अनुभव कैसा चल रहा है? क्या तुम लोगों को कुछ नतीजे मिले हैं? (कभी-कभी मैं ईमानदार होने का अभ्यास करता हूँ, लेकिन कभी-कभी भूल जाता हूँ।) क्या तुम सत्य का अभ्यास करना भूल सकते हो? अगर तुम इसे भूल सकते हो तो यह किस प्रकार की समस्या दिखाता है? तुम लोग सत्य से प्रेम करते हो या नहीं? अगर तुम सत्य से प्रेम नहीं करते तो तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल होगा। तुम लोगों को सत्य के अभ्यास और ईमानदार व्यक्ति बनने के अभ्यास को गंभीरता से लेना होगा। तुम्हें बार-बार इस बारे में चिंतन करना होगा कि ईमानदार व्यक्ति कैसे बनें और तुममें क्या समझ होनी चाहिए। परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने की माँग करता है, और उन्हें ईमानदारी का सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में अनुसरण करना चाहिए। उन्हें यह स्पष्टता और समझ होनी चाहिए कि उनके पास कौन-से सत्य होने चाहिए और उन्हें कौन-सी वास्तविकताओं में प्रवेश करने की जरूरत है ताकि वे ईमानदार व्यक्ति बन सकें और पतरस की तरह जी सकें, और उन्हें अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए। तभी उनके पास ईमानदार बनने और ऐसा व्यक्ति बनने की कोई उम्मीद होगी जिसे परमेश्वर प्रेम करता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने का मार्ग)। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, उसे बताया कि इस बार मैं अपने अभिमान से बेबस नहीं हो सकती, मुझे खुला और ईमानदार रहने की जरूरत है। फिर मैंने बात की और अपने विचार और राय साझा की। मेरी बात खत्म होने के बाद अन्य बहनों ने भी मेरी संगति के आधार पर अपने विचार जोड़े। सभी के सहयोग से माली की समस्या का समाधान हो गया और उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई। उस पल, जब मैंने संगति में बात की तो मुझे जबर्दस्त राहत मिली। ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं आखिरकार घमंड और अभिमान की बाधाओं से मुक्त हो गई हूँ और ईमानदार व्यक्ति बनने की दिशा में एक कदम उठाया है। बाद में जब माली और सवाल पूछती थी, मुझे अब भी कभी-कभी गलतियाँ करने और प्रतिष्ठा गँवाने का डर रहता था। जब भी मुझे इसका एहसास होता था, मैं खुद के खिलाफ विद्रोह करने, अपना घमंड दूर करने में मदद के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने और सक्रिय रूप से बहन के सवालों का जवाब देती थी। कभी-कभी मेरे दृष्टिकोण गलत होते थे या ऐसी समस्याएँ होती थीं जिन्हें मैं साफ नहीं देख पाती थी और मेरे जवाब गलत होते थे और बहनें अतिरिक्त संगति की पेशकश करती थीं। भले ही इससे मुझे कभी-कभी थोड़ी शर्मिंदगी महसूस होती थी, लेकिन उनकी संगति ध्यान से सुनने से मेरी समझ में सुधार और स्पष्टता आ जाती थी। अपने कर्तव्य में मुश्किलों या समस्याओं का सामना होने पर मैं भी भाई-बहनों से संगति की माँग करती थी। वे मुझे नीची नजरों से नहीं देखते थे या मेरा अपमान नहीं करते थे बल्कि मेरी मदद करने के लिए धैर्यपूर्वक सत्य पर संगति करते थे। मैं ईमानदारी का अभ्यास करने से मिलने वाली मुक्ति और सहजता को महसूस करती थी और मुझे इस तरह से आचरण करना बहुत बेहतर लगता था। परमेश्वर का धन्यवाद!

बहन, मेरे अनुभवों के बारे में बस इतना ही। मुझे आशा है कि तुम भी मुझे पिछले वर्ष के अपने अनुभवों और लाभों के बारे में लिखोगी।

सादर,

शिनजिंग

10 जून 2023

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